Friday 31 October 2014

मज़दूर वर्ग को अर्थवाद के चक्‍कर-चपेट में उलझाये रखना----- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

माकपा के अन्‍दरूनी अन्‍तरविरोधों की मूल अन्‍तर्वस्‍तु :

-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

विचारधारात्‍मक कसौटी पर नीतियों-रणनीतियों को परखने के बजाय अनुभववादी लोक चित्र वाले भलेमानुस प्रगतिशीलों को एक बार फिर भ्रम होने लगा है कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के बीच के नीतिगत विरोध से शायद कुछ सकारात्‍मक निकलकर आयेगा, अपने दुर्दिन से उबर मा.क.पा. एक बार फिर कथित वाम धारा की गतिशील नेतृत्‍वकारी शक्ति बनकर उभरेगी और शायद केरल और बंगाल में उसके दिन बहुरने की भी शुरुआत हो जाये। यह एक मुगालता भर है।
संशोधनवाद और संसदीय जड़वामनपंथ के बुनियादी विचारधारात्‍मक प्रश्‍न पर येचुरी और करात में कोई मतभेद नहीं है। मतभेद सिर्फ यह है कि संसदीय मार्ग को ही मुख्‍य रणनीति मानते हुए अपने आप को कितना ''लाल'' दिखाया जाये या किस हद तक ''व्‍यावहारिक'' होकर चुनावी राजनीति की जाये। प्रकाश करात नकली रैडिकल वाम तेवर अपनाकर संसदीय विपक्ष की राजनीति करते हुए अपने जनाधार को बचाने के पक्षधर हैं जबकि 'प्रैग्‍मेटिस्‍ट' येचुरी ज्‍यादा दुनियादारी के साथ हिन्‍दुत्‍ववाद विरोधी सेक्‍युलर ताकतों की एकता के नाम पर कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की और ज्‍यादा खुलकर नवउदारवादी नीतियों के प्रश्‍न  पर नरमी बरतने की नीतियों की वकालत करते हैं। याद दिला दें कि प्रकाश करात लॉबी के दबाव में जब ज्‍योति बसु प्रधानमंत्री नहीं बन पाये थे, तब करात के विरोध में सुरजीत और ज्‍योति बसु के साथ येचुरी भी थे। यूपीए-एक के दौरान जब माकपा ने कांग्रेस सरकार से नाता तोड़ा था तो इसका विरोध करने वालों में येचुरी भी थे। काफी हद तक करात और येचुरी के बीच के विरोध वैसे ही हैं, जैसे संशोधनवादी ए.ने.क.पा.(माओवादी) के भीतर प्रचण्‍ड और बाबूराम भट्टराई के बीच के मतभेद (करात= प्रचण्‍ड और येचुरी=भट्टराई)। यह भी स्‍मरणीय है कि साठ के दशक की अविभाजित भाकपा के भीतर भी डांगे - राजेश्‍वर गुट और वासवपुनैया - सुन्‍दरैया - गोपालन - नम्‍बूदिरिपाद - रणदिवे गुट के बीच के अन्‍तरविरोध भी सापेक्षत: नरम संशोधनवाद और सापेक्षत: गरम संशोधनवाद के बीच के ही अन्‍तरविरोध थे जिन्‍हें पार्टी विभाजन की परिणति तक पहुँचाने में क्रांतिकारी कतारों के दबाव की भी एक अहम भूमिका थी। माकपा के भीतर भी नरमदली और गरमदली संसदमार्गी गुट हमेशा से रहे हैं। सुन्‍दरैया - गोपालन - वासवपुनैया - प्रमोद दास गुप्‍ता आदि का गुट गरमदली था जबकि सुरजीत - ज्‍योति बसु आदि का गुट नरमदली हुआ करता था। बीच-बीच में कुछ नरमदली कुछ गरमदली गुट (लायलपुरी से लेकर सैफुद्दीन और हलीम तक) पार्टी से छिटककर अलग छोटी-छोटी पार्टियाँ भी बनाते रहे। वर्तमान अन्‍तरविरोध के नतीजे के तौर पर माकपा में किसी ऊर्ध्‍वाधर (वर्टिकल) या क्षैतिज (हॉरिजेण्‍टल) फूट की सम्‍भावना नहीं है। अन्‍दरखाने ही कुछ एडजस्‍टमेण्‍ट हो जायेगा और ज्‍यादा से ज्‍यादा नेतृत्‍व के कम्‍पोजीशन में अगली कांग्रेस में कुछ फेरबदल हो जायेगा।
दरअसल सभी संशोधनवादी और सामाजिक जनवादी पार्टियों का संकट यह है कि नवउदारवादी नीतियों के अनुत्‍क्रमणीय (इर्रिवर्सिबुल) घटाटोप में कीन्सियाई नुस्‍खों और नेहरूवियाई ''समाजवाद'' के अप्रासंगिक होते जाने के साथ ही व्‍यवस्‍था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति के रूप में उनकी भूमिका समाप्‍त होती जा रही है। बस उनके पास एक ही नारा है, सेक्‍युलरिज्‍म के नाम पर धुर दक्षिणपंथी हिन्‍दुत्‍ववाद का विरोध करते हुए अन्‍य बुर्जुआ दलों के साथ चुनावी मोर्चा बनाना, और एक ही ''ज़रूरी'' काम है, मज़दूर वर्ग को अर्थवाद के चक्‍कर-चपेट में उलझाये रखना। हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद के चुनावी विरोध की नीति को  लेकर आपसी मतभेद इस बात पर है कि मोर्चा कांग्रेस के साथ बनाया जाये या गैर कांग्रेस-गैर भाजपा तथाकथित तीसरी ताकतों का मोर्चा बनाया जाये।
https://www.facebook.com/notes/kavita-krishnapallavi/

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गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014


साम्यवादी दल का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जा सकता है ?---विजय राजबली माथुर


उपरोक्त फोटो से स्पष्ट होगा कि एक टिप्पणीकर्ता साहब इस बात पर ही यकीन नहीं कर रहे हैं कि अभी कुछ माह पूर्व ही केरल भाजपा के लोग केरल माकपा में शामिल किए गए हैं और उसके बाद पश्चिम बंगाल माकपा के लोग वहाँ की भाजपा में चले गए हैं। वह साहब करात साहब को बुद्धिजीवी विद्वान मानते हैं। यह करात साहब ही तो थे जिन्होने कामरेड ज्योति बसु को 1996 में प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था जिसे बाद में बसु साहब ने ऐतिहासिक भूल कहा था। 1997में भूतपूर्व कम्युनिस्ट इंदर गुजराल साहब तभी प्रधानमंत्री बन सके थे जबकि करात साहब से प्रभावित माकपा महासचिव कामरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत साहब एक दिवसीय दौरे पर मास्को गए हुये थे जो कि मुलायम सिंह जी को देवगौड़ा साहब के स्थान पर पी एम बनाने पर सहमत थे किन्तु गृह मंत्री कामरेड इंद्रजीत गुप्त , पूर्व पी एम- वी पी सिंह आदि ने कामरेड ज्योति बसु से गुजराल साहब की घोषणा करवा दी थी। यदि करात साहब की दाल गल जाती तो गुजराल साहब की जगह मुलायम सिंह ही पी एम बनते जिनको 2014 में फिर एक बार करात साहब ने पी एम बनवाने का पाँसा फेंका था। 

एक और टिप्पणीकर्ता कामरेड नजीरुल हक साहब का दृष्टिकोण कि CPI और CPIM का विलय करके एक नई पार्टी बनाना  चाहिए तो ठीक है। परंतु व्यवहार में वैसा नहीं है जैसा कि दूसरे टिप्पणीकर्ता साहब ने कम्युनिस्ट पार्टियों में आंतरिक लोकतन्त्र होने की बात कही है। करात साहब की अधिनायकवादी और वाम  विरोधी निजी  स्वार्थपरक नीतियों के विरुद्ध ही तो येचूरी साहब को मुखर होना पड़ा है। 

भाकपा में भी कुछ पदाधिकारी करात प्रवृति के हैं कम से कम उत्तर प्रदेश में तो हैं ही। बीस वर्षों से प्रदेश पार्टी के सीताराम केसरी बने पदाधिकारी इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। वह राजधानी के ज़िला इंचार्ज भी हैं और उस रूप में सुपर जिलामंत्री खुद को समझते हैं । प्रदेश  कंट्रोल कमीशन के पूर्व सदस्य रमेश कटारा की भांति ही वह तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा भी लेते हैं और 'एथीस्ट ' भी कहाते हैं। प्रदेश के एक वरिष्ठ नेता को बदनाम करने व कमजोर करने के लिए वह अतीत में राजधानी के एक  पूर्व जिलामंत्री  को उनसे भिड़ा कर पार्टी से निकलवा चुके हैं। वह पूर्व जिलमंत्री तो अलग पार्टी बना कर विधायक व मंत्री भी बने तथा अब भाजपा सांसद बन गए हैं किन्तु उनके गुरु व प्रेरणा स्त्रोत रहे वह वरिष्ठ नेता आज भी उन सीताराम केसरी के षड्यंत्र का शिकार बने हुये हैं।  एक राष्ट्रीय सचिव व एक  वरिष्ठ नेता को गत वर्ष 30 नवंबर 2013  को मऊ में कामरेड झारखण्डे राय और कामरेड जय बहादुर सिंह की प्रतिमाएँ  जो लगभग आठ वर्षों से तैयार हैं के उदघाटन समारोह में आना था। अपने मौसेरे भाई आनंद प्रकाश तिवारी (जो अब निष्कासित हैं ) के जरिये इस पदाधिकारी ने उन वरिष्ठ कामरेड्स के विरुद्ध इतना घृणित अभियान चलवाया कि वह सम्पूर्ण कार्यक्रम ही  अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया।

ज़िला-स्तर पर कार्यकर्ताओं में विभ्रम उत्पन्न करना और परस्पर मन-मुटाव पैदा करना उनके बाएँ हाथ का खेल है। इसके लिए सारे नियम और पार्टी -परम्पराएँ तोड़ने में उनको आनंद आता है। उनकी हकीकत को उजागर करने वाले कामरेड को संघी घोषित करके निकलवा देने की अफवाह एक जन-संगठन के संयोजक से उड़वाते हैं तो दूसरे जन-संगठन के जिलाध्यक्ष से खुद के संबंध में कहलवाते हैं कि उनका विरोध करने वाला पार्टी में टिक नहीं सकता। ज़िला कार्यकारिणी के एक सदस्य से 16 सितंबर को  कहलवाया कि उनसे 36 का आंकड़ा रखने वाला बाहर का रास्ता देखने को तैयार रहे तो 2 अक्तूबर की एक गोष्ठी में अपने खास हिमायती के जरिये मुझे विचार व्यक्त करने में व्यवधान प्रस्तुत करवाया। 

किसी भी संगठन के विस्तार व विकास के लिए आवश्यक है कि 'लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं ' को सम्मान दिया जाये किन्तु ऐसी बातें केवल एक व्यक्ति की सनक की पूरती तो कर सकती हैं पार्टी का सांगठनिक विस्तार नहीं और यही उनका उद्देश्य भी है। यदि CPI और CPIM एक हो जाएँ तो ऐसे लोगों का खेल समाप्त हो सकता है तथा देश में साम्यवादी दल का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जा सकता है। 
http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/10/blog-post_30.html 
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 बैंक का यह कारिंदा क्या विश्लेषणात्मक टिप्पणी देगा? या अधूरे ज्ञान को कैसे पूरा करेगा? वह तो अपने दल के राष्ट्रीय नेताओं को ही नहीं बख़्शता तो भला कविता जी का क्या मान रखता ? मेरा लेख तो उसी की कम्युनिस्ट विरोधी गतिविधियों को लक्ष्य करता है। 
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Thursday 30 October 2014

पुनः स्थापित किया जा सकता है साम्यवादी दल का वर्चस्व ?---विजय राजबली माथुर


उपरोक्त फोटो से स्पष्ट होगा कि एक टिप्पणीकर्ता साहब इस बात पर ही यकीन नहीं कर रहे हैं कि अभी कुछ माह पूर्व ही केरल भाजपा के लोग केरल माकपा में शामिल किए गए हैं और उसके बाद पश्चिम बंगाल माकपा के लोग वहाँ की भाजपा में चले गए हैं। वह साहब करात साहब को बुद्धिजीवी विद्वान मानते हैं। यह करात साहब ही तो थे जिन्होने कामरेड ज्योति बसु को 1996 में प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था जिसे बाद में बसु साहब ने ऐतिहासिक भूल कहा था। 1997में भूतपूर्व कम्युनिस्ट इंदर गुजराल साहब तभी प्रधानमंत्री बन सके थे जबकि करात साहब से प्रभावित माकपा महासचिव कामरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत साहब एक दिवसीय दौरे पर मास्को गए हुये थे जो कि मुलायम सिंह जी को देवगौड़ा साहब के स्थान पर पी एम बनाने पर सहमत थे किन्तु गृह मंत्री कामरेड इंद्रजीत गुप्त , पूर्व पी एम- वी पी सिंह आदि ने कामरेड ज्योति बसु से गुजराल साहब की घोषणा करवा दी थी। यदि करात साहब की दाल गल जाती तो गुजराल साहब की जगह मुलायम सिंह ही पी एम बनते जिनको 2014 में फिर एक बार करात साहब ने पी एम बनवाने का पाँसा फेंका था। 

एक और टिप्पणीकर्ता कामरेड नजीरुल हक साहब का दृष्टिकोण कि CPI और CPIM का विलय करके एक नई पार्टी बनाना  चाहिए तो ठीक है। परंतु व्यवहार में वैसा नहीं है जैसा कि दूसरे टिप्पणीकर्ता साहब ने कम्युनिस्ट पार्टियों में आंतरिक लोकतन्त्र होने की बात कही है। करात साहब की अधिनायकवादी और वाम  विरोधी निजी  स्वार्थपरक नीतियों के विरुद्ध ही तो येचूरी साहब को मुखर होना पड़ा है। 

भाकपा में भी कुछ पदाधिकारी करात प्रवृति के हैं कम से कम उत्तर प्रदेश में तो हैं ही। बीस वर्षों से प्रदेश पार्टी के सीताराम केसरी बने पदाधिकारी इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। वह राजधानी के ज़िला इंचार्ज भी हैं और उस रूप में सुपर जिलामंत्री खुद को समझते हैं । प्रदेश  कंट्रोल कमीशन के पूर्व सदस्य रमेश कटारा की भांति ही वह तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा भी लेते हैं और 'एथीस्ट ' भी कहाते हैं। प्रदेश के एक वरिष्ठ नेता को बदनाम करने व कमजोर करने के लिए वह अतीत में राजधानी के एक  पूर्व जिलामंत्री  को उनसे भिड़ा कर पार्टी से निकलवा चुके हैं। वह पूर्व जिलमंत्री तो अलग पार्टी बना कर विधायक व मंत्री भी बने तथा अब भाजपा सांसद बन गए हैं किन्तु उनके गुरु व प्रेरणा स्त्रोत रहे वह वरिष्ठ नेता आज भी उन सीताराम केसरी के षड्यंत्र का शिकार बने हुये हैं।  एक राष्ट्रीय सचिव व एक  वरिष्ठ नेता को गत वर्ष 30 नवंबर 2013  को मऊ में कामरेड झारखण्डे राय और कामरेड जय बहादुर सिंह की प्रतिमाएँ  जो लगभग आठ वर्षों से तैयार हैं के उदघाटन समारोह में आना था। अपने मौसेरे भाई आनंद प्रकाश तिवारी (जो अब निष्कासित हैं ) के जरिये इस पदाधिकारी ने उन वरिष्ठ कामरेड्स के विरुद्ध इतना घृणित अभियान चलवाया कि वह सम्पूर्ण कार्यक्रम ही  अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया।

ज़िला-स्तर पर कार्यकर्ताओं में विभ्रम उत्पन्न करना और परस्पर मन-मुटाव पैदा करना उनके बाएँ हाथ का खेल है। इसके लिए सारे नियम और पार्टी -परम्पराएँ तोड़ने में उनको आनंद आता है। उनकी हकीकत को उजागर करने वाले कामरेड को संघी घोषित करके निकलवा देने की अफवाह एक जन-संगठन के संयोजक से उड़वाते हैं तो दूसरे जन-संगठन के जिलाध्यक्ष से खुद के संबंध में कहलवाते हैं कि उनका विरोध करने वाला पार्टी में टिक नहीं सकता। ज़िला कार्यकारिणी के एक सदस्य से 16 सितंबर को  कहलवाया कि उनसे 36 का आंकड़ा रखने वाला बाहर का रास्ता देखने को तैयार रहे तो 2 अक्तूबर की एक गोष्ठी में अपने खास हिमायती के जरिये मुझे विचार व्यक्त करने में व्यवधान प्रस्तुत करवाया। 

किसी भी संगठन के विस्तार व विकास के लिए आवश्यक है कि 'लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं ' को सम्मान दिया जाये किन्तु ऐसी बातें केवल एक व्यक्ति की सनक की पूरती तो कर सकती हैं पार्टी का सांगठनिक विस्तार नहीं और यही उनका उद्देश्य भी है। यदि CPI और CPIM एक हो जाएँ तो ऐसे लोगों का खेल समाप्त हो सकता है तथा देश में साम्यवादी दल का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जा सकता है।

Tuesday 28 October 2014

प्रधानमंत्री के हाथ में किसका हाथ है और कौन है जो इसे हाथों-हाथ उठाए हुए है?---Rama Krushna Panda



केंद्र की सरकार हो या सत्ताधारी पार्टी भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुतबा दोनों जगह सबसे ऊंचा दिखता है.
लेकिन पिछले दिनों एक तस्वीर सामने आई और सवाल उठने लगे कि मोदी की पीठ पर किसका हाथ है? प्रधानमंत्री के हाथ में किसका हाथ है और कौन है जो इसे हाथों-हाथ उठाए हुए है?

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय का विश्लेषण :
एक बंद दरवाज़ा था, जो बेमिसाल शायर फ़िराक़ गोरखपुरी ने पहले ही खोल दिया था. पिछली सदी में. ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ के हवाले से. शब्दों का ज़िक्र करते हुए, उदाहरण देकर.
कह गए थे कि कितना भी केंद्रीय क्यों न हो, शब्द अपने अर्थ में बदल जाता है. इस हद तक कि कई बार अपेक्षित मुख्तलिफ़ रंगों से आगे निकलकर बिल्कुल उलटा पड़ जाए. मामूली दिखाई पड़ने वाले वाक्यों में भी. मुहावरे हों तो सोने पर सुहागा.
उदाहरण दिया ‘साफ़’ का. इससे साफ़ उदाहरण शायद हो भी नहीं सकता था कि साफ़-साफ़ समझ में आए. फ़िराक़ साहब ने ‘साफ़’ के भिन्न अर्थों में इस्तेमाल के बीसियों नमूने दिए, जिनमें तीन मुहावरे भी थे- ‘दिल साफ़ है’, ‘हाथ साफ़ है’, ‘दिमाग़ साफ़ है.’
यही हाल ‘हाथ’ का है. एक-दो दर्जन उदाहरण तो आम ज़िंदगी में दिन भर में मिल जाएं. हर बार इतना साफ़ अर्थ कि भ्रम की गुंजाइश न हो.
‘हाथों-हाथ’, ‘पीठ पर हाथ’, ‘हाथ में हाथ.’

यह प्रयोग और अर्थपूर्ण हो जाएं अगर सब एक साथ हों. तीनों मुहावरे एक तस्वीर में क़ैद. आमतौर पर दो आयामी तस्वीर में इतने पहलू कि सबकी शिनाख़्त न हो सके. और उनके इतने अर्थ कि एक झटके में तो क़तई न खुलें.
यह तस्वीर अखबारों में छपी, लेकिन एक दिन बाद. जिस रोज़ खींची गई थी, दुर्भाग्य से, दबकर रह गई. ‘सेल्फ़ियों’ के बीच में.
वहां प्रधानमंत्री थे और कुछ ख़बरनवीस. संभवतः आत्ममुग्धता में, पत्रकारों ने अपनी तस्वीरों को तवज्जो दी. आभासी मीडिया दिन भर उसी मायाजाल में उलझा रह गया.
'खिसियानी बिल्लियां'
इन ‘सेल्फ़ियों’ की आलोचनाएं जमकर हुईं. जिससे जैसा बन पड़ा, ख़बरनवीसों की ख़बर ली. बचाव पक्ष भी मैदान में उतरा. ढेर सारे तर्क-कुतर्क प्रस्तुत किए गए कि किसी तरह ‘सेल्फी पत्रकारों’ का बचाव किया जाए.
उसमें एक ‘कुतर्क’ यह भी था कि आलोचक ‘खिसियानी बिल्लियां’ हैं. वे नहीं बुलाए गए, इसलिए खंभा नोच रहे हैं.

लेकिन बात असल तस्वीर पर आई, एक दिन बाद. चर्चा शुरू हुई कि तस्वीर, अगर कोई है, तो यही है.
इससे पहली बार नुमायां हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीठ पर किसका हाथ है. प्रधानमंत्री के हाथ में किसका हाथ है और कौन है जो इसे हाथों-हाथ उठाए हुए है.
'तस्वीर में कुछ और..'
भारत में प्रधानमंत्री अपने पद की शपथ लेते समय कहता है कि वह ‘राग-द्वेष’ से ऊपर होगा. माना जाता है कि उसका कोई मित्र या शत्रु नहीं होगा और वह, ख़ुद प्रधानमंत्री के शब्दों में, ‘सबका साथ-सबका विकास’ की दिशा में चलेगा.

पर तस्वीर में कुछ और ही था. एक और मुहावरे की तर्ज पर हाथ, अगर कुछ इंच ऊपर, कंधे पर होता तब भी स्वीकार्य न होता. उसे मित्रता का प्रतीक माना जाता. पीठ पर हाथ तो उससे भी घनिष्ठ संबंधों की ओर इशारा करता है. उसमें सहारा देने का भाव निहित होता है.
यह संभव नहीं लगता कि प्रधानमंत्री के मीडिया प्रबंधक इन मुहावरों और उनके प्रचलित अर्थों से परिचित न हों. ऐसे में, अगर यह तस्वीर सायास नहीं है, इसे चूक ही कहा जा सकता है. इसकी भरपाई में वक़्त लग सकता है.
नागपुर का 'हाथ' :
नई सरकार की घोषित-अघोषित नीतियों के साथ अब तक यह कभी अफ़वाहों, कभी फुसफुसाहटों और कभी-कभार गपशप में आता रहा कि वह उद्योगों की पक्षधर है. उनके लिए कानून बदलने, बनाने को तत्पर. किसी हद तक जाने को तैयार.
इशारे में कुछ बातें कही जाती थीं, लेकिन इतना और ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण इतनी जल्दी आंखों के सामने होगा, कल्पना से परे था.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय नागपुर में है.
यह उन लोगों के लिए भी आश्चर्यजनक ही रहा होगा, जो अपनी सारी मेधा इसमें झोंके दे रहे थे कि प्रधानमंत्री की पीठ पर ‘नागपुर’ का हाथ है.
उनकी असली ताक़त वहीं से आती है. हो सकता है ‘नागपुर’ ख़ुद इससे आश्चर्यचकित हो क्योंकि उसकी ज़मीन तो ‘स्वदेशी जागरण’ है.
'राष्ट्र के नाम संदेश' :
वैसे भी, जिस प्रधानमंत्री के सामने उनके मंत्री तक ‘सावधान’ की मुद्रा में खड़े होते हों, यह दृश्य कि कोई उद्योगपति उसकी पीठ पर हाथ रखने का साहस जुटा सकता है, हैरान करने वाला है. मुमकिन है तमाम लोग इसे ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ की शक्ल में देखें.
इस तस्वीर पर सफ़ाई देर-सबेर आनी है. पर यह सफ़ाई, अगर आई, ज़्यादा अर्थपूर्ण नहीं होगी कि कार्यक्रम उस उद्योगपति का था, या कि एक तरह से निजी था.

प्रधानमंत्री का पूरा जीवन सार्वजनिक होता है. गहरी नींद में भी वह प्रधानमंत्री ही होता है. इसलिए यह तर्क बेमानी होगा.
अपनी छवि को लेकर लगातार सजग रहने वाले प्रधानमंत्री शायद अपनी ओजस्विता से इसे तार्किक और उचित ठहरा दें लेकिन यहां सवाल व्यक्ति का नहीं, देश की गरिमा का है.

Monday 20 October 2014

अमेरिकी चाकरी में खड़े ' संघी ' राम...Sanjay Parate


अमेरिकी चाकरी में खड़े ' संघी ' राम...
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संघी गिरोह संस्कृति की कितनी ही लम्बी-चौड़ी बात क्यों न करें, लेकिन वास्तविकता यही है कि भारतीय जनमानस से उसका कोई लेना-देना नहीं है, जो राम के प्रति अपनी आस्था ' राम-राम ' के अभिवादन में व्यक्त करती है. राम के प्रति उसकी आस्था लोगों को तोड़ती नहीं, बल्कि जोडती है; जबकि संघी गिरोह की राम के प्रति आस्था उसके ' जय श्रीराम ' के उत्तेजक नारे में प्रकट होती है, जो लोगों को जोड़ती नहीं, बल्कि तोड़ती है. भारतीय जनमानस के राम सौहार्द्र के, अन्याय पर न्याय के विजयी होने का प्रतीक है; जबकि संघी गिरोह के राम कट्टर हिन्दुत्व के, गैर-हिन्दुओं के प्रति घृणा के और दंगों के प्रतीक है. संघी गिरोह के लिए राम के प्रति आस्था का उदघोष ' सांस्कृतिक ' नहीं, बल्कि एक ' राजनैतिक ' काम है, जो उसकी चुनावी नैया पार लगा दें. यही कारण है कि संघी गिरोह राम मंदिर के निर्माण पर फिलहाल कोई जोर नहीं देना चाहता.
राम मंदिर का मुद्दा भाजपा के घोषणा पत्र में तो है, लेकिन अभी प्राथमिकता में नहीं है, क्योंकि उसका मानना है कि उसे जनता ने 2019 तक का समय दिया है. उसकी प्राथमिकता में तो अभी वे ही मुद्दे हैं, जो अमेरिका के इशारे पर लागू किये जाने हैं -- याने सार्वजनिक उद्योगों का विनिवेशीकरण या निजीकरण करो, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा दो और अमेरिका को और ज्यादा लूट का मौका देने के लिए भारत का बाज़ार विदेशियों के लिए खोलो, निजी उद्योगों के लिए सस्ते श्रम का बाज़ार तैयार करो और इसके लिए मनरेगा जैसी ग्रामीण रोज़गार योजनाओं को दफनाओ, असंगठित मजदूरों को संगठित मजदूरों के खिलाफ खड़ा करो और न्यूनतम मजदूरी क़ानून व अन्य श्रम कानूनों को ख़त्म करो, प्राकृतिक संपदा को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले करो, आम जनता के लिए बने योजना आयोग और देश के योजनाबद्ध विकास को ' अलविदा ' कहने के बाद पूंजीपतियों के लिए गैर-योजना और अनियोजित विकास को बढ़ावा दो. अमेरिकी चाकरी बजाने के लिए देश के संविधान और संघीय शासन की जितनी ऐसी-तैसी कर सको, करो. इस प्रकार, उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की अमेरिकापरस्त नीतियों को लागू करना ही इस समय भाजपा का प्रमुख एजेंडा है. सत्ता में बने रहने की उसकी सार्थकता इसी में है कि इन नीतियों को और ज्यादा तेजी से लागू करे, वरना कांग्रेस ही क्या बुरी थी !!
लेकिन इस रास्ते पर चलने के दुष्परिणाम जग-जाहिर है. यह रास्ता जनता में भयंकर असंतोष पैदा करता है. इसी असंतोष का फल कांग्रेस को इस बार भुगतना पड़ा है. इसी असंतोष के कारण अटलबिहारी की ' शाइनिंग इंडिया ' , ' भाजपा अस्त ' में बदल गयी थी. आर्थिक नीतियों से उपजे असंतोष ने पहले भी सत्ताधारी पार्टियों को उखाड़ फेंका है, इसे संघ-मोदी अब अच्छी तरह जान गए हैं.
अगले तीन सालों में यह असंतोष अपने चरम पर पहुँच चुका होगा. तब 2017-18 में राम मंदिर के मुद्दे को सामने लाया जायेगा. तब यह मुद्दा इस देश के लोगों की वर्गीय एकता को तोड़ने और इस जन असंतोष को दबाने-कुचलने के काम में आएगा. राम मंदिर बने या न बने, लेकिन तब 'संघी ' राम पूरे देश के लोगों को धार्मिक आधार पर बांटने के काम तो आयेंगे ही ! ऐसे संगीन माहौल में ' संघी ' राम हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच दंगा करवाने के काम में नहीं आयेंगे, तो और कब काम आयेंगे ? ' बाबर की औलादों ' के खिलाफ ' हिन्दुत्व ' की रक्षा की लड़ाई में राम मोदी के हाथ की ढाल न बने, तो राम को 'श्रीराम ' बनाने का फायदा ही क्या?
इसलिए मित्रों, 2017-18 में राम फिर प्रकट होंगे, नए अस्त्रों और नए तेवर के साथ. राम मंदिर बने चाहे न बने, लेकिन ' संघी ' राम लोकतंत्र के मंदिर पर 2019 में कब्ज़ा करने में मददगार तो जरूर बनेंगे. ' संघी ' राम को तो अमेरिकी ' मंदिर ' की पुकार को पूरी करना है. 2019 के बाद फिर वही अमेरिकापरस्त नीतियां लागू की जाएँगी और फिर 2022-23 में ' जय श्रीराम ' के नारे लगाये जायेंगे. संघी गिरोह की रणनीति इस देश की जनता से छुपी हुई नहीं है.
https://www.facebook.com/sanjay.parate.54/posts/552029501609935?fref=nf 

Wednesday 8 October 2014

' संयुक्त साम्यवादी मोर्चा' : समय की मांग -----विजय राजबली माथुर







*"संत कबीर आदि दयानंद सरस्वती,विवेकानंद आदि महापुरुषों ने धर्म की विकृतियों तथा पाखंड का जो पर्दाफ़ाश किया है उनका सहारा लेकर भारतीय कम्यूनिस्टों को जनता के समक्ष जाना चाहिए तभी अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति और जनता का शोषण समाप्त किया जा सकता है.दरअसल भारतीय वांग्मय में ही कम्यूनिज्म सफल हो सकता है ,यूरोपीय वांग्मय में इसकी विफलता का कारण भी लागू करने की गलत पद्धतियाँ ही थीं.सम्पूर्ण वैदिक मत और हमारे अर्वाचीन पूर्वजों के इतिहास में कम्यूनिस्ट अवधारणा सहजता से देखी जा सकती है -हमें उसी का आश्रय लेना होगा तभी हम सफल हो सकते हैं -भविष्य तो उज्जवल है बस उसे सही ढंग से कहने की जरूरत भर है."
http://communistvijai.blogspot.in/2013/09/blog-post.html   

*'पदम्श्री 'डॉ कपिलदेव द्विवेदी जी कहते हैं कि,'भगवद  गीता' का मूल आधार है-'निष्काम कर्म योग'
"कर्मण्ये वाधिकारस्ते ....................... कर्मणि। । " (गीता-2-47)

इस श्लोक का आधार है यजुर्वेद का यह मंत्र-
"कुर्वन्नवेह कर्मा................... न कर्म लिपयाते नरो" (यजु.40-2 )

इसी प्रकार सम्पूर्ण बाईबिल का मूल मंत्र है 'प्रेम भाव और मैत्री' जो यजुर्वेद के इस मंत्र पर आधारित है-
"मित्रस्य मा....................... भूतानि समीक्षे।  ....... समीक्षा महे । । " (यजु .36-18)

एवं कुरान का मूल मंत्र है-एकेश्वरवाद-अल्लाह की एकता ,उसके गुण धर्मा सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान,कर्त्ता-धर्त्तासंहर्त्ता,दयालु आदि(कुरान7-165,12-39,13-33,57-1-6,112-1-4,2-29,2-96,87-1-5,44-6-8,48-14,1-2,2-143 आदि )। 

इन सबके आधार मंत्र हैं-

1-"इंद्रम मित्रम....... मातरिश्चा नामाहू : । । " (ऋग-1-164-46)
2-"स एष एक एकवृद एक एव "। । (अथर्व 13-4-12)
3-"न द्वितीयों न तृतीयच्श्तुर्थी नाप्युच्येत। । " (अथर्व 13-5-16)


पहले के विदेशी शासकों ने हमारे महान नेताओं -राम,कृष्ण आदि को बदनाम करने हेतु तमाम मनगढ़ंत कहानियाँ यहीं के चाटुकार विद्वानों को सत्ता-सुख देकर लिखवाई जो 'पुराणों' के रूप मे आज तक पूजी जा रही हैं। बाद के अंग्रेज़ शासकों ने तो हमारे इतिहास को ही तोड़-मरोड़ दिया। यूरोपीय इतिहासकारों ने लिख दिया आर्य एक जाति-नस्ल थी जो मध्य यूरोप से भारत एक आक्रांता के रूप मे आई थी जिसने यहाँ के मूल निवासियों को गुलाम बनाया। इसी झूठ को ब्रह्म वाक्य मानते हुये 'मूल निवासियों भारत को आज़ाद करो' आंदोलन चला कर भारत को छिन्न-भिन्न करने का कुत्सित प्रयास चल रहा है।  

http://communistvijai.blogspot.in/2013/10/blog-post_12.html 

*किन्तु बुद्धिजीवी विद्वान अभी भी 18वीं सदी की सोच से साम्यवाद लाने के नाम पर नित्य ही साम्राज्यवाद के हाथ मजबूत कर रहे हैं  फेसबुक पर अपने थोथे  बयानों से।और तो और मजदूर नेता एवं विद्वान कामरेड ने तो तब हद ही कर दी जब RSS की वकालत वाला एक लेख ही शेयर कर डाला।
http://communistvijai.blogspot.in/2013/10/blog-post_13.html  

*Asrar Khan  ..../ मैं नौ साल की उम्र में कम्युनिस्ट बन गया था इस तरह २२ साल की उम्र में माकपा का असली चेहरा सामने आ चुका था ...अगर भारत का वामपंथी आंदोलन सही दिशा में आगे बढ़ा होता तो मैं भी वहीँ होता और मेरे जैसे अनेकों लोग जो वामपंथ से निराश होकर इधर-उधर विखर गए हैं और उनकी भूमिका संदिग्ध नज़र आ रही है वे भी वाम के लिए मर मिटते ..
http://communistvijai.blogspot.in/2013/10/blog-post_19.html  
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उत्तर-प्रदेश के जुझारू और कर्मठ नेता कामरेड सरजू पांडे जी की एक प्रतिमा गाजीपुर कचहरी में स्थापित हुई है फागू चौहान साहब के विशेष प्रयास से कामरेड झारखण्डे राय और कामरेड जय बहादुर सिंह की प्रतिमाएँ लगभग आठ वर्षों से तैयार हैं और उनका अनावरण 30 नवंबर 2013 को मुलायम सिंह जी द्वारा मऊ में होना था जिसमें वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता कामरेड वर्द्धन जी तथा उनके साथ अतुल अंजान साहब को आना था। किन्तु भाकपा, उत्तर प्रदेश के शक्तिशाली नेता जो अकेले दम पर पार्टी चलाने का दावा करते हैं ने अपने मौसेरे भाई आनंद प्रकाश तिवारी द्वारा वर्द्धन जी तथा अंजान साहब के विरुद्ध घृणित अभियान चला कर इस कार्यक्रम को स्थगित करा दिया। हालांकि केजरीवाल की आ आ पा से संसदीय टिकट मांगने को आधार बना कर अब ए पी तिवारी को निष्कासित किया जा चुका है परंतु उस अभियान ने यह बू भी दी कि पांडे जी के ब्राह्मण होने के कारण उनकी मूर्ती स्थापित होने दी गई जबकि कामरेड झारखण्डे राय और कामरेड जय बहादुर सिंह के गैर ब्राह्मण होने तथा उस कार्यक्रम में गैर ब्राह्मण नेताओं (कामरेड वर्द्धन जी और अंजान साहब ) को आमंत्रित किए जाने के कारण ही कार्यक्रम स्थगित कराया गया है। जब तक उस संकुचित विचारों वाले शक्तिशाली पोंगापंथी व्यक्ति के प्रभाव से पार्टी को मुक्त नहीं कराया जाता तब तक उत्तर-प्रदेश में न तो पार्टी का विस्तार हो सकेगा और न ही साम्यवादी अथवा वामपंथी आंदोलन मजबूत हो सकेगा और हिन्दी प्रदेशों यथा बिहार व उत्तर प्रदेश में भाकपा को मजबूत किए बगैर जितने भी प्रयास किए जाएँगे सार्थक व सफल नहीं हो सकेंगे :यह एक ऐतिहासिक सत्य है ।