Thursday 30 June 2016

एथीज़्म/ नास्तिकता प्रकृति विरुद्ध आचरण हैं ------ विजय राजबली माथुर



Conversation started June 30, 2015

6/30, 10:04pm

Sir what is the main difference between socialism and communism

 'समाजवाद ' वह 'आर्थिक प्रणाली' है जिसमें 'उत्पादन' व 'वितरण' के साधनों पर समाज ( सरकार के माध्यम से  ) का आधिपत्य होता है और सबके लिए समान अवसर उपलब्ध करवाए जाते हैं। 
'साम्यवाद' वह सामाजिक अवस्था है जिसमें 'प्रत्येक से उसकी क्षमतानुसार व प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार' कार्य व उसका प्रतिफल उपलब्ध करवाया जाता है। 'आदिम-अवस्था' साम्यवाद की ही अवस्था थी। 
मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से समाज में विषमता व असमानता उत्पन्न हो गई है । इस अप्राकृतिक लूट व अमानवीय शोषण को समाप्त करने के लिए पहले 'समाजवाद' की स्थापाना करनी होगी जिसे बाद में धीरे-धीरे साम्यवाद में परिवर्तित किया जाएगा।
July 1, 2015

7/1, 9:58pm

Thanks  sir i got it!

गत वर्ष जिस जिज्ञासू ने 'समाजवाद' और 'साम्यवाद ' का अंतर पूछा था उन्हीं ने इस वर्ष (2016 ) पूछा है कि, 'एथीज़्म '/ 'नास्तिकता ' क्या है?

Tuesday

6/28, 8:04pm

hello sir good evening  ,how are you ? i use to read almost all of your blog it's carry immense knowledge and fully  analysed 
as you seems Marxist and   I'm in transition state of being so , i just want to know your view on atheism  . 
                          
                      your student

हो सकता है इन जिज्ञासू साहब ने एथीज़्म/नास्तिकता पर मेरे विचार इसलिए जानना चाहे हों कारण कि, मैं एथीज़्म/नास्तिकता का लगातार विरोध इसलिए करता हूँ कि, इसी के कारण भारत में 'साम्यवाद' असफल रहा है। और यह भी हो सकता है कि, इन जिज्ञासू महोदय को किसी दकियानूस मार्कसिस्ट ने मुझसे पूछने को प्रेरित किया हो। जो भी हो अपने विचार को सार्वजनिक करने में कोई हर्ज नहीं है। 




पौराणिक पोंगापंथी 'नास्तिक'/ एथीस्ट उसे कहते हैं जो ईश्वर/भगवान  पर विश्वास नहीं करता है और 'आस्तिक' उसे कहते हैं जो ईश्वर/भगवान पर विश्वास करता है। खुद को एथीस्ट कहलाने में गर्व का अनुभव करने वाले साम्यवादी ढ़ोंगी-पाखंडी इन पौराणिकों के कथन को 'सत्य ' मानते हुये ही ऐसा करते हैं। अपने पक्ष में शहीद भगत सिंह के लेख 'मैं नास्तिक  क्यों' तथा महर्षि कार्ल मार्क्स की  'धर्म ' को अफीम मानने की उक्ति के उदाहरण पेश करते हैं। छह माह रूस में साम्यवाद की ट्रेनिंग लिए आगरा भाकपा के एक पूर्व जिला मंत्री (एक डिग्री कालेज के पूर्व प्राचार्य ) साहब का कहना है कि, 'चारवाक' दर्शन 'नास्तिकता'/एथीज़्म पर आधारित है और साम्यवाद उसी से प्रेरित है। चरवाक ऋषि कहते थे :
जब तक जियो मौज से जियो 
घी पियो चाहे उधार ले के पियो। 

लेकिन महर्षि कार्ल मार्क्स ने बताया है कि, 'साम्यवाद' वह सामाजिक अवस्था है जिसमें 'प्रत्येक से उसकी क्षमतानुसार व प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार' कार्य व उसका प्रतिफल उपलब्ध करवाया जाता है।
निश्चय ही यह तो चारवाक दर्शन नहीं है। परंतु महर्षि कार्ल मार्क्स ने यूरोप के 'ओल्ड टेस्टामेंट' व 'प्रोटेस्टेंट' के संघर्ष को धार्मिक संघर्ष मानते हुये 'धर्म' की आलोचना की है। जबकि रिलीजन/मजहब/संप्रदाय धर्म होता ही नहीं है। शहीद भगत सिंह महज़ 24 वर्ष की आयु ही प्राप्त कर सके। उनका परिवार 'सिक्ख' होते हुये भी आर्यसमाजी था और वह 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ कर ही क्रांतिकारी बने थे 1917 की रूसी क्रांति से प्रभावित थे और मार्क्स के अनुसार ही धर्म को लेकर उन्होने अपनी आलोचना प्रस्तुत की है। 

स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि, 'आस्तिक' वह है जो अपने ऊपर विश्वास रखता है और नास्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास नहीं है। संस्कृत में Phd किए लोग इस व्याख्या को नहीं मानते हैं और साम्यवादी भी उनका ही अनुसरण करते तथा जनता से कटे रहते हैं। मैं इसी व्याख्या के आधार पर नास्तिकता/एथीज़्म को साम्यवाद को भारत में सफल न होने देने का हेतु मानता हूँ। 

धर्म = प्रकृति के नियमानुसार आचरण करना ही होता है कोई मजहब/संप्रदाय/रिलीजन नहीं। धर्म 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का सम्मुच्य है न कि, मंदिर,मस्जिद,चर्च या गुरुद्वारा जाना। 
अतः धर्म का विरोध करना प्रकृति विरुद्ध आचरण है। 1991 तक रूस से साम्यवाद इसी लिए उखड़ गया कि, वहाँ इस वास्तविक धर्म के विरुद्ध कार्य हो रहा था। पार्टी नेता व अधिकारी भ्रष्टाचार में भी लिप्त थे और चारित्रिक हनन में भी। 

भगवान = भ (भूमि- पृथ्वी  )+ ग (गगन -आकाश )+व (वायु-हवा )+I (अनल-अग्नि )+न (नीर-जल )। 
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी मानव ने निर्मित नहीं किया है इसलिए इनको ही 'खुदा' भी कहते हैं। 
और इनका कार्य G (जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः ये ही GOD- गाड हैं। और ये स्वम्य में ऐश्वर्य-सम्पन्न होने के कारण ईश्वर भी कहे जाते हैं। 
जब आप भगवान को नहीं मानते ऐसा कहते हैं तब आप कहाँ हैं ? सांस कहाँ से ले रहे हैं?जल कहाँ से ग्रहण कर रहे हैं?ऊर्जा कहाँ से ग्रहण कर रहे हैं? अर्थात आप झूठ बोल रहे हैं और ढ़ोगियों-पाखंडियों के पक्ष को मजबूत कर रहे हैं और उसी का परिणाम है केंद्र में फासिस्ट सरकार का सत्तारूढ़ होना। 

अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि, प्रकृति के नियमानुसार आचरण करना ही 'धर्म' है और धर्म के तत्वों का सम्यक पालन ही आस्तिकता है और न मानना एवं पालन न करना ही 'नास्तिकता'/एथीज़्म। 
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Tuesday 28 June 2016

वामपंथ को किसी ने परास्त नहीं किया, वह अपने बौद्धिक और व्यावहारिक अंतरविरोधों का ही शिकार हो गया ------ हरजिंदर

***एक सच यह भी है कि वामपंथ को किसी ने परास्त नहीं किया, वह अपने बौद्धिक और व्यावहारिक अंतरविरोधों का ही शिकार हो गया। और जो खाली जगह बनी, उसमें दक्षिणपंथ धीरे-धीरे पसर गया। *** 


मंगलवार, 28 जून, 2016 | 16:04 | IST
हिंदी के प्रतिष्ठित कवि शमशेर बहादुर सिंह ने 1945 में एक कविता लिखी थी- वाम, वाम, वाम दिशा/ समय साम्यवादी। इस कविता को बाद में अज्ञेय ने ‘दूसरा सप्तक’ में भी शामिल किया था। दुनिया के लिहाज से देखें, तो यह कविता बहुत बाद में लिखी गई, बीसवीं सदी ने वामपंथ के तेवर को तो अपने बचपन में ही अपनाना शुरू कर दिया था। 1917 में रूस में बाकायदा लेनिन की साम्यवादी क्रांति हो गई थी। उस सदी ने अपने बचपन और जवानी में जिन संस्कारों को पाया और अपनाया, वे बुढ़ापे तक उसका प्रारब्ध रचते रहे। लंबे समय तक दुनिया दो ही तरह की रही।

एक वह, जो वामपंथ को जीना या अपनाना चाहती थी और दूसरी वह, जो वामपंथ से खुद को बचाना चाहती थी। गति और दिशा चाहे जो भी हो, वामपंथ का कोई पहलू सबके सारतत्व में शामिल था। साम्यवादी देशों, दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों में तो वह था ही, वह मिस्र के नासिर में भी था, लीबिया के कर्नल गद्दाफी में भी था, इंडोनेशिया के सुकर्णो भी साम्यवादी थे, म्यांमार के आंग सान, कंबोडिया के पोलपोट, ब्रिटेन की लेबर पार्टी और पूरी दुनिया के तरह-तरह के रंग-बिरंगे समाजवादी दलों को भी इसमें शामिल कर लें, तो यह सूची बहुत लंबी हो जाती थी।

तालिबान से पहले तक अफगानिस्तान भी वामपंथी ही था, सोवियत संघ की बेचैनी और अमेरिका के प्रतिशोध ने इसे दूसरे दरवाजे पर पहुंचा दिया। वामपंथ कहीं व्यवस्था था, कहीं आरोप था, कहीं निठल्ला राष्ट्रीयकरण था और कहीं कल्याणकारी राज्य के नाम का मिलावटी तंत्र था। और तो और, अमेरिका में डेमोक्रेट किसी सख्ती की बात करते, तो उन पर यह आरोप लगता था कि वे वामपंथ लाना चाहते हैं। अपने देश में तो हाल यह था कि जिस किसी के कंधे पर हाथ धर दो, वह वामपंथी ही निकलता था, फिर नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे घोषित वामपंथी तो देश का नेतृत्व संभाले हुए थे ही। लेकिन 21वीं सदी में बहुत कुछ बदल गया है। पिछली सदी के विपरीत दुनिया अब दक्षिणपंथ की ओर बढ़ती दिख रही है। पिछली सदी के अंतिम दो दशक तक यही लगता था कि दुनिया खुद को वामपंथी जकड़न से मुक्त कर रही है, पर शायद वह विपरीत दिशा के नए सफर की तैयारी थी, जो ठीक तरीके से इसी दशक में शुरू हुआ। इस समय यूरोप के 39 देशों में से 26 देशों में दक्षिणपंथी सरकारें हैं। जहां नहीं हैं, वहां भी उनका असर तेजी से बढ़ रहा है।

यहां तक कि स्वीडन में हमेशा से हाशिये पर रहने वाले दक्षिणपंथी दल अब तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। सबसे अच्छा उदाहरण ब्रिटेन है, जहां लोगों ने अभी पिछले ही साल कंजरवेटिव पार्टी को सत्ता में पहुंचाया था, जो खुद दक्षिणपंथी पार्टी है। लेकिन ब्रेग्जिट मुद्दे पर अब वही कंजरवेटिव पार्टी अपने से भी ज्यादा दक्षिणपंथी इंडिपेंडेंस पार्टी से मात खा गई। जर्मनी की चांसलर एंजला मर्केल भी दक्षिणपंथी हैं, लेकिन शरणार्थियों के मसले पर धुर दक्षिणपंथी नेता फ्राउके पीटरी उनका जीना हराम किए हुए हैं। यही फ्रांस में हो रहा है, ऑस्ट्रिया में हो रहा और रूस वगैरह में तो खैर हो ही चुका है। बात सिर्फ यूरोप की नहीं है, ब्रिटिश पत्रिका न्यू स्टेट्समैन ने 43 एंग्लो-सैक्सन देशों की सूची बनाई, तो उनमें 30 देशों में दक्षिणपंथी सरकारें हैं। वेनेजुएला के ह्यूगो शावेज का तो लोग नाम तक भूलने लग गए हैं। क्यूबा और चीन भले ही खुद को आज भी साम्यवादी कहते हों, लेकिन आधी सदी पहले की परिभाषाओं में वे या तो दक्षिणपंथी कहलाते या प्रतिक्रियावादी। आप चाहें, तो पिछले कुछ साल में भारत में हुए परिवर्तनों को भी इसमें जोड़ सकते हैं।

दक्षिणपंथी राजनीति के तेवर किस तरह से आगे बढ़ रहे हैं, इसे अमेरिका के उदाहरण से ज्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है। अमेरिका में मुख्यधारा की राजनीति कभी वामपंथी नहीं रही। वहां वामपंथी शब्द अक्सर विरोधियों के लिए गाली की तरह इस्तेमाल होता रहा है। लेकिन यह भी सच है कि वहां की राजनीति को कभी उतने उग्र दक्षिणपंथी नेता की जरूरत नहीं पड़ी, जितने कि राष्ट्रपति पद के दावेदार डोनाल्ड ट्रंप हैं। यह उनके तेवर ही थे, जिनके चलते उनकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी हिलेरी क्लिंटन को यह बयान देना पड़ा कि अगर ईरान परमाणु समझौते से मुकरता है, तो उसके खिलाफ सैनिक कार्रवाई होनी चाहिए। तेवर की इसी राजनीति का नतीजा था कि उदार माने जाने वाले बर्नी सैंडर्स अमेरिकी राष्ट्रपति पद की दौड़ से कब बाहर हो गए, किसी को खबर भी नहीं हुई। अमेरिका ही नहीं, उग्र तेवर पूरी दुनिया की राजनीति में किसी छूत की बीमारी की तरह फैल रहे हैं, बिना इस बात को सोचे कि अंजाम क्या होगा।

दुनिया इस तरह से अचानक दक्षिणपंथ के पाले में क्यों चली गई? यह समझना ज्यादा कठिन है, बजाय यह समझने के कि पिछली सदी में दुनिया अचानक वामपंथ के पाले में क्यों चली गई थी? औद्योगिक क्रांति के बाद की दुनिया उस दुखों से मुक्ति चाहती थी, जिन पर इस क्रांति की इमारत बुलंद हुई थी। मजदूरों के अधिकारों की मांग के साथ जो आंदोलन शुरू हुए, वे सिर्फ मांग तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने अपना एक संपूर्ण दर्शनशास्त्र तैयार किया, और भविष्य की दुनिया के सच्चे से लगने वाले आकर्षक सपने भी बुने। इस सोच और सपनों ने अगर पूरी दुनिया को वामपंथी बना दिया, तो हैरत की कोई बात नहीं है। लेकिन हैरत की बात यह जरूर है कि इस समय जो दुनिया का दक्षिण गमन है, उसमें न तो कोई उतनी बड़ी सोच है और न ही नए हसीन सपने हैं। बल्कि अक्सर बौद्धिक दिवालियापन उछल-उछलकर बाहर आता जरूर दिखता है।

बेशक, इसका एक कारण अफगानिस्तान, पश्चिम एशिया और दुनिया के कुछ दूसरे हिस्सों में पनप रहा आतंकवाद है। आतंकवादी क्रूरता के मुकाबले के लिए लोगों को दक्षिणपंथी हठधर्मी सख्ती ज्यादा कारगर लगती है, बजाय उस वामपंथी उदारता के, जिसके हल अक्सर अबूझ होते दिखते हैं। आर्थिक संकट भी एक कारण हो सकता है। कुछ साल पहले जब दुनिया में आर्थिक मंदी का झटका आया था, तो अपनी नींद से जगे वामपंथियों ने कहा था कि पूंजीवादी व्यवस्था खोटा सिक्का साबित हो गई है और अब यह ज्यादा नहीं चलने वाली। लेकिन इसके बाद पूरी दुनिया में खोटे सिक्के की तरह जो सबसे पहले तिरस्कृत हुए, वे वामपंथी ही थे।

यह अलग बात है कि जो हुआ, वह भी कोई बहुत अच्छा नहीं है। वीजा नियमों को सख्त करो, आव्रजन रोको, शरणार्थियों को भगाओ जैसे संकीर्ण तेवर अपनाने वाली धाराएं ही आगे आ रही हैं। एक सच यह भी है कि वामपंथ को किसी ने परास्त नहीं किया, वह अपने बौद्धिक और व्यावहारिक अंतरविरोधों का ही शिकार हो गया। और जो खाली जगह बनी, उसमें दक्षिणपंथ धीरे-धीरे पसर गया। वैसे यह तय करना कभी आसान नहीं होता कि दुनिया में जो हो रहा है, वह क्यों हो रहा है? सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है- वह भी एक दौर था, यह भी एक दौर है।

http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-changed-the-direction-of-world--541715.html

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***साम्यवाद अथवा वामपंथ के पुरोधा यह मानने को तैयार नहीं हैं कि यह मूलतः भारतीय अवधारणा है और वे विदेशी नक्शे-कदम चल कर इसे भारत में लागू करने की घोषणा तो करते हैं किन्तु खुद ही उन सिद्धांतों का पालन नहीं करते जिंनका उल्लेख अपने प्रवचनों में करते हैं। इसी वजह से जनता को प्रभावित करने में असमर्थ हैं और जिस दिन जाग जाएँगे और सही दिशा में चलने लगेंगे जनता छ्ल-छ्द्यम वालों को रसातल में पहुंचा कर उनके पीछे चलने लगेगी। लेकिन सबसे पहले साम्यवाद व वामपंथ के ध्वजावाहकों को अपनी सोच को 'सम्यक' बनाना होगा।***

Sunday, September 18, 2011
बामपंथी कैसे सांप्रदायिकता का संहार करेंगे? 
आज संघ और उसके सहायक संगठनों ने सड़कों पर लड़ाई का बिगुल बजा दिया है,बामपंथी अभी तक कागजी तोपें दाग कर सांप्रदायिकता का मुक़ाबला कर रहे हैं;व्यापक जन-समर्थन और प्रचार के बगैर क्या वे संघियों के सांप्रदायिक राक्षस का संहार कर सकेंगे?
भारत मे इस्लाम एक शासक के धर्म के रूप मे आया जबकि भारतीय धर्म आत्मसात करने की क्षमता त्याग कर संकीर्ण घोंघावादी हो चुका था। अतः इस्लाम और अनेक मत-मतांतरों मे विभक्त और अपने प्राचीन गौरव से भटके हुये यहाँ प्रचलित धर्म मे मेल-मिलाप न हो सका। शासकों ने भारतीय जनता का समर्थन प्राप्त कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए इस्लाम का ठीक वैसे ही प्रचार किया जिस प्रकार अमीन सायानी सेरोडान की टिकिया का प्रचार करते रहे हैं। जनता के भोलेपन का लाभ उठाते हुये भारत मे इस्लाम के शासकीय प्रचारकों ने कहानियाँ फैलाईं कि,हमारे पैगंबर मोहम्मद साहब इतने शक्तिशाली थे कि,उन्होने चाँद के दो टुकड़े कर दिये थे। तत्कालीन धर्म और  समाज मे तिरस्कृत और उपेक्षित क्षुद्र व पिछड़े वर्ग के लोग धड़ाधड़ इस्लाम ग्रहण करते गए और सवर्णों के प्रति राजकीय संरक्षण मे बदले की कारवाइया करने लगे। अब यहाँ प्रचलित कुधर्म मे भी हरीश भीमानी जैसे तत्कालीन प्रचारकों ने कहानियाँ गढ़नी शुरू कीं और कहा गया कि,मोहम्मद साहब ने चाँद  के दो टुकड़े करके क्या कमाल किया?देखो तो हमारे हनुमान लला पाँच वर्ष की उम्र मे सम्पूर्ण सूर्य को रसगुल्ला समझ कर निगल गए थे---
"बाल समय रवि भक्षि लियौ तब तींन्हू लोक भयो अंधियारों।
............................ तब छाणि दियो रवि कष्ट निवारों। "
(सेरीडान  की तर्ज पर डाबर की सरबाइना जैसा सायानी को हरीश  भीमानी जैसा जवाब था यह कथन)
इस्लामी प्रचारकों ने एक और अफवाह फैलाई कि,मोहम्मद साहब ने आधी रोटी मे छह भूखों का पेट भर दिया था। जवाबी अफवाह मे यहाँ के धर्म के ठेकेदारों ने कहा तो क्या हुआ?हमारे श्री कृष्ण ने डेढ़ चावल मे दुर्वासा ऋषि और उनके साठ हजार शिष्यों को तृप्त कर दिया था। 'तर्क' कहीं नहीं था कुतर्क के जवाब मे कुतर्क चल रहे थे।
अभिप्राय यह कि,शासक और शासित के अंतर्विरोधों से ग्रसित इस्लाम और यहाँ के धर्म को जिसे इस्लाम वालों ने 'हिन्दू' धर्म नाम दिया के परस्पर उखाड़-पछाड़ भारत -भू पर करते रहे और ब्रिटेन के व्यापारियों की गुलामी मे भारत-राष्ट्र को सहजता से जकड़ जाने दिया। यूरोपीय व्यापारियों की गुलामी मे भारत के इस्लाम और हिन्दू दोनों के अनुयायी समान रूप से ही उत्पीड़ित हुये बल्कि मुसलमानों से राजसत्ता छीनने के कारण शुरू मे अंग्रेजों ने मुसलमानों को ही ज्यादा कुचला और कंगाल बना दिया।
ब्रिटिश दासता
साम्राज्यवादी अंग्रेजों ने भारत की धरती और जन-शक्ति का भरपूर शोषण और उत्पीड़न किया। भारत के कुटीर उदद्योग -धंधे को चौपट कर यहाँ का कच्चा माल विदेश भेजा जाने लगा और तैयार माल लाकर भारत मे खपाया  जाने लगा। ढाका की मलमल का स्थान लंकाशायर और मेंनचेस्टर की मिलों ने ले लिया और बंगाल (अब बांग्ला देश)के मुसलमान कारीगर बेकार हो गए। इसी प्रकार दक्षिण भारत का वस्त्र उदद्योग तहस-नहस हो गया।
आरकाट जिले के कलेक्टर ने लार्ड विलियम बेंटिक को लिखा था-"विश्व के आर्थिक इतिहास मे ऐसी गरीबी मुश्किल से ढूँढे मिलेगी,बुनकरों की हड्डियों से भारत के मैदान सफ़ेद हो रहे हैं। "
सन सत्तावन की क्रान्ति
लगभग सौ सालों की ब्रिटिश गुलामी ने भारत के इस्लाम और हिन्दू धर्म के अनुयायीओ को एक कर दिया और आजादी के लिए बाबर के वंशज बहादुर शाह जफर के नेतृत्व मे हरा झण्डा लेकर समस्त भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति कर दी। परंतु दुर्भाग्य से भोपाल की बेगम ,ग्वालियर के सिंधिया,नेपाल के राणा और पंजाब के सिक्खों ने क्रान्ति को कुचलने मे साम्राज्यवादी अंग्रेजों का साथ दिया।
अंग्रेजों द्वारा अवध की बेगमों पर निर्मम अत्याचार किए गए जिनकी गूंज हाउस आफ लार्ड्स मे भी हुयी। बहादुर शाह जफर कैद कर लिया गया और मांडले मे उसका निर्वासित के रूप मे निधन हुआ। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वीर गति को प्राप्त हुयी। सिंधिया को अंग्रेजों से इनाम मिला। असंख्य भारतीयों की कुर्बानी बेकार गई।
वर्तमान सांप्रदायिकता का उदय
सन 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों को बता दिया कि भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को लड़ा कर ही ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षित  रखा जा सकता है। लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य का सेफ़्टी वाल्व कांग्रेस राष्ट्र वादियों  के कब्जे मे जाने लगी थी। बाल गंगाधर 'तिलक'का प्रभाव बढ़ रहा था और लाला लाजपत राय और विपिन चंद्र पाल के सहयोग से वह ब्रिटिश शासकों को लोहे के चने चबवाने लगे थे। अतः 1905 ई मे हिन्दू और मुसलमान के आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया गया । हालांकि बंग-भंग आंदोलन के दबाव मे 1911 ई मे पुनः बंगाल को एक करना पड़ा परंतु इसी दौरान 1906 ई मे ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को फुसला कर मुस्लिम लीग नामक सांप्रदायिक संगठन की स्थापना करा दी गई और इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप 1920 ई मे हिन्दू महा सभा नामक दूसरा सांप्रदायिक संगठन भी सामने आ गया। 1932 ई मे मैक्डोनल्ड एवार्ड के तहत हिंदुओं,मुसलमानों,हरिजन और सिक्खों के लिए प्रथक निर्वाचन की घोषणा की गई। महात्मा गांधी के प्रयास से सिक्ख और हरिजन हिन्दू वर्ग मे ही रहे और 1935 ई मे सम्पन्न चुनावों मे बंगाल,पंजाब आदि कई प्रान्तों मे लीगी सरकारें बनी और व्यापक हिन्दू-मुस्लिम दंगे फैलते चले गए।

बामपंथ का आगमन
1917 ई मे हुयी रूस मे लेनिन की क्रान्ति से प्रेरित होकर भारत के राष्ट्र वादी कांग्रेसियों ने 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर मे 'भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'की स्थापना करके पूर्ण स्व-राज्य के लिए क्रांतिकारी आंदोलन शुरू कर दिया और सांप्रदायिकता को देश की एकता के लिए घातक बता कर उसका विरोध किया। कम्यूनिस्टों से राष्ट्रवादिता मे पिछड्ता पा कर 1929 मे लाहौर अधिवेन्शन मे जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस का लक्ष्य भी पूर्ण स्वाधीनता घोषित करा दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग,हिन्दू महासभा के सैन्य संगठन आर एस एस (जो कम्यूनिस्टों का मुकाबिला करने के लिए 1925 मे ही अस्तित्व मे आया) और कांग्रेस के नेहरू गुट को प्रोत्साहित किया एवं कम्यूनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया । सरदार भगत सिंह जो कम्यूनिस्टों के युवा संगठन 'भारत नौजवान सभा'के संस्थापकों मे थे भारत मे समता पर आधारित एक वर्ग विहीन और शोषण विहीन समाज की स्थापना को लेकर अशफाक़ उल्ला खाँ व राम प्रसाद 'बिस्मिल'सरीखे साथियों के साथ साम्राज्यवादियों से संघर्ष करते हुये शहीद हुये सदैव सांप्रदायिक अलगाव वादियों की भर्तस्ना करते रहे।
वर्तमान  सांप्रदायिकता
1980 मे संघ के सहयोग से सत्तासीन होने के बाद इंदिरा गांधी ने सांप्रदायिकता को बड़ी बेशर्मी से उभाड़ा। 1980 मे ही जरनैल सिंह भिंडरावाला के नेतृत्व मे बब्बर खालसा नामक घोर सांप्रदायिक संगठन खड़ा हुआ जिसे इंदिरा जी का आशीर्वाद पहुंचाने खुद संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह पहुंचे थे। 1980 मे ही संघ ने नारा दिया-भारत मे रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा जिसके जवाब मे काश्मीर मे प्रति-सांप्रदायिकता उभरी कि,काश्मीर मे रहना होगा तो अल्लाह -अल्लाह कहना होगा। और तभी से असम मे विदेशियों को निकालने की मांग लेकर हिंसक आंदोलन उभरा।
पंजाब मे खालिस्तान की मांग उठी तो काश्मीर को अलग करने के लिए धारा 370 को हटाने की मांग उठी और सारे देश मे एकात्मकता यज्ञ के नाम पर यात्राएं आयोजित करके सांप्रदायिक दंगे भड़काए। माँ की गद्दी पर बैठे राजीव गांधी ने अपने शासन की विफलताओं और भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने हेतु संघ की प्रेरणा से अयोध्या मे विवादित रामजन्म भूमि/बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा कर हिन्दू सांप्रदायिकता एवं मुस्लिम वृध्दा शाहबानों को न्याय से वंचित करने के लिए संविधान मे संशोधन करके मुस्लिम सांप्रदायिकता को नया बल प्रदान किया।
बामपंथी कोशिश
भारतीय कम्यूनिस्ट,मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट,क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी और फारवर्ड ब्लाक के 'बामपंथी मोर्चा'ने सांप्रदायिकता के विरुद्ध व्यापक जन-अभियान चलाया । बुद्धिजीवी और विवेकशील  राष्ट्र वादी  सांप्रदायिक सौहार्द के प्रबल पक्षधर हैं,परंतु ये सब संख्या की दृष्टि से अल्पमत मे हैं,साधनों की दृष्टि से विप्पन  हैं और प्रचार की दृष्टि से बहौत पिछड़े हुये हैं। पूंजीवादी प्रेस बामपंथी सौहार्द के अभियान को वरीयता दे भी कैसे सकता है?उसका ध्येय तो व्यापारिक हितों की पूर्ती के लिए सांप्रदायिक शक्तियों को सबल बनाना है। अपने आदर्शों और सिद्धांतों के बावजूद बामपंथी अभियान अभी तक बहुमत का समर्थन नहीं प्राप्त कर सका है जबकि,सांप्रदायिक शक्तियाँ ,धन और साधनों की संपन्नता के कारण अलगाव वादी प्रवृतियों को फैलाने मे सफल रही हैं।
सड़कों पर दंगे
अब सांप्रदायिक शक्तियाँ खुल कर सड़कों पर वैमनस्य फैला कर संघर्ष कराने मे कामयाब हो रही हैं। इससे सम्पूर्ण विकास कार्य ठप्प हो गया है,देश के सामने भीषण आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है । मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ कर सांप्रदायिकता के पोषक पूंजीपति वर्ग का हित-साधन कर रही है। जमाखोरों,सटोरियों और कालाबाजारियों की पांचों उँगलियाँ घी मे हैं। अभी तक बामपंथी अभियान नक्कार खाने मे तूती की आवाज की तरह चल रहा है। बामपंथियों ने सड़कों पर निपटने के लिए कोई 'सांप्रदायिकता विरोधी दस्ता' गठित नहीं किया है। अधिकांश जनता अशिक्षित और पिछड़ी होने के कारण बामपंथियों के आदर्शवाद के मर्म को समझने मे असमर्थ है और उसे सांप्रदायिक शक्तियाँ उल्टे उस्तरे से मूंढ रही हैं।
दक्षिण पंथी तानाशाही का भय
वर्तमान (1991 ) सांप्रदायिक दंगों मे जिस प्रकार सरकारी मशीनरी ने एक सांप्रदायिकता का पक्ष लिया है उससे अब संघ की दक्षिण पंथी असैनिक तानाशाही स्थापित होने का भय व्याप्त हो गया है। 1977 के सूचना व प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी ने आकाशवाणी व दूर दर्शन मे संघ की कैसी घुसपैठ की है उसका हृदय विदारक उल्लेख सांसद पत्रकार संतोष भारतीय ने वी पी सरकार के पतन के संदर्भ मे किया है। आगरा पूर्वी विधान सभा क्षेत्र मे 1985 के परिणामों मे संघ से संबन्धित क्लर्क कालरा ने किस प्रकार भाजपा प्रत्याशी को जिताया ताज़ी घटना है।
पुलिस और ज़िला प्रशासन मजदूर के रोजी-रोटी के हक को कुचलने के लिए जिस प्रकार पूंजीपति वर्ग का दास बन गया है उससे संघी तानाशाही आने की ही बू मिलती है।
बामपंथी असमर्थ
वर्तमान परिस्थितियों का मुक़ाबला करने मे सम्पूर्ण बामपंथ पूरी तरह असमर्थ है। धन-शक्ति और जन-शक्ति दोनों ही का उसके पास आभाव है। यदि अविलंब सघन प्रचार और संपर्क के माध्यम से बामपंथ जन-शक्ति को अपने पीछे न खड़ा कर सका तो दिल्ली की सड़कों पर होने वाले निर्णायक युद्ध मे संघ से हार जाएगा जो देश और जनता के लिए दुखद होगा।

परंतु बक़ौल स्वामी विवेकानंद -'संख्या बल प्रभावी नहीं होता ,यदि मुट्ठी भर लोग मनसा- वाचा-कर्मणा संगठित हों तो सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते हैं। 'आदर्शों को कर्म मे उतार कर बामपंथी संघ का मुक़ाबला कर सकते हैं यदि चाहें तो!वक्त अभी निकला नहीं है।
परंतु बक़ौल स्वामी विवेकानंद -'संख्या बल प्रभावी नहीं होता ,यदि मुट्ठी भर लोग मनसा- वाचा-कर्मणा संगठित हों तो सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते हैं। 'आदर्शों को कर्म मे उतार कर बामपंथी संघ का मुक़ाबला कर सकते हैं यदि चाहें तो!वक्त अभी निकला नहीं है।
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( विजय राजबली माथुर )
लगभग   35   वर्ष पूर्व सहारनपुर के 'नया जमाना'के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1952 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि,कम्यूनिस्टों और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई  दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।

भारत विविधता मे एकता वाला एक अनुपम राष्ट्र है। विभिन्न भाषाओं,पोशाकों,आचार-व्यवहार आदि के उपरांत भी भारत अनादी  काल से एक ऐसा राष्ट्र रहा है जहां आने के बाद अनेक आक्रांता यहीं के होकर रह गए और भारत ने उन्हें आत्मसात कर लिया। यहाँ का प्राचीन आर्ष धर्म हमें "अहिंसा परमों धर्मा : "और "वसुधेव कुटुम्बकम" का पाठ पढ़ाता रहा है। नौवीं सदी के आते-आते भारत के व्यापक और सहिष्णू स्वरूप को आघात लग चुका था। यह वह समय था जब इस देश की धरती पर बनियों और ब्राह्मणों के दंगे हो रहे थे। ब्राह्मणों ने धर्म को संकुचित कर घोंघावादी बना दिया था । सिंधु-प्रदेश के ब्राह्मण आजीविका निर्वहन के लिए समुद्री डाकुओं के रूप मे बनियों के जहाजों को लूटते थे। ऐसे मे धोखे से अरब व्यापारियों को लूट लेने के कारण सिंधु प्रदेश पर गजनी के शासक महमूद गजनवी ने बदले की  लूट के उद्देश्य से अनेकों आक्रमण किए और सोमनाथ को सत्रह बार लूटा। महमूद अपने व्यापारियों की लूट का बदला जम कर लेना चाहता था और भारत मे उस समय बैंकों के आभाव मे मंदिरों मे जवाहरात के रूप मे धन जमा किया जाता था। प्रो नूरुल हसन ने महमूद को कोरा लुटेरा बताते हुये लिखा है कि,"महमूद वाज ए डेविल इन कार्नेट फार दी इंडियन प्यूपिल बट एन एंजिल फार हिज गजनी सबजेक्ट्स"। महमूद गजनवी न तो इस्लाम का प्रचारक था और न ही भारत को अपना उपनिवेश बनाना चाहता था ,उसने ब्राह्मण लुटेरों से बदला लेने के लिए सीमावर्ती क्षेत्र मे व्यापक लूट-पाट की । परंतु जब अपनी फूट परस्ती के चलते यहीं के शासकों ने गोर के शासक मोहम्मद गोरी को आमंत्रित किया तो वह यहीं जम गया और उसी के साथ भारत मे इस्लाम का आगमन हुआ।
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मेरा आज भी सुदृढ़ अभिमत है कि यदि कम्युनिस्ट -वामपंथी जनता को 'धर्म' का मर्म समझाएँ और बताएं कि जिसे धर्म कहा जा रहा है वह तो वास्तव में अधर्म है,ढोंग,पाखंड,आडंबर है जिसका उद्देश्य साधारण जनता का शोषण व उत्पीड़न करना है तो कोई कारण नहीं है कि जनता वस्तु-स्थिति को न समझे।लेकिन जब ब्राह्मणवादी-पोंगापंथी जकड़न से खुद कम्युनिस्ट-वामपंथी निकलें तभी तो जनता को समझा सकते हैं? वरना धर्म का विरोध करके व एथीस्ट होने का स्वांग करके उसी पाखंड-आडम्बर-ढोंगवाद को अपनाते रह   कर तो जनता को अपने पीछे लामबंद नहीं किया जा सकता है। 
परमात्मा  या प्रकृति के लिए सभी प्राणी व मनुष्य समान हैं और उसकी ओर से  सभी को जीवन धारण हेतु समान रूप से वनस्पतियाँ,औषद्धियाँ,अन्न,खनिज आदि-आदि बिना किसी भेद-भाव के  निशुल्क उपलब्ध हैं। अतः इस जगत में एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण करना परमात्मा व प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है और इसी बात को उठाने वाले दृष्टिकोण को समष्टिवाद-साम्यवाद-कम्यूनिज़्म कहा जाता है और यह पूर्णता: भारतीय अवधारणा है। आधुनिक युग में जर्मनी के महर्षि कार्ल मार्क्स ने इस दृष्टिकोण को पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से पुनः प्रस्तुत किया है। 'कृणवन्तो विश्वमार्यम' का अभिप्राय है कि समस्त विश्व को आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना है और यह तभी हो सकता है जब प्रकृति के नियमानुसार आचरण हो। कम्युनिस्ट प्रकृति के इस आदि नियम को लागू करके समाज में व्याप्त मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करने हेतु 'उत्पादन' व 'वितरण' के साधनों पर समाज का अधिकार स्थापित करना चाहते हैं। इस आर्ष व्यवस्था का विरोध शासक,व्यापारी और पुजारी वर्ग मिल कर करते हैं वे अल्पमत में होते हुये भी इसलिए कामयाब हैं कि शोषित-उत्पीड़ित वर्ग परस्परिक फूट में उलझ कर शोषकों की चालों को समझ नहीं पाता है। उसे समझाये कौन? कम्युनिस्ट तो खुद को 'एथीस्ट' और धर्म-विरोधी सिद्ध करने में लगे रहते हैं। 


काश सभी बिखरी हुई कम्युनिस्ट शक्तियाँ  दीवार पर लिखे को पढ़ें और  यथार्थ को समझें और जनता को समझाएँ तो अभी भी शोषक-उत्पीड़क-सांप्रदायिक शक्तियों को परास्त किया जा सकता है। लेकिन जब धर्म को मानेंगे नहीं अर्थात 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का पालन नहीं करेंगे 'एथीस्ट वाद' की जय बोलते हुये ढोंग-पाखंड-आडंबर को प्रोत्साहित करते रहेंगे अपने उच्च सवर्णवाद के कारण तब तो कम्यूनिज़्म को पाकर भी रूस की तरह खो देंगे या चीन की तरह स्टेट-कम्यूनिज़्म में बदल डालेंगे।
http://krantiswar.blogspot.in/2014/05/blog-post_22.html
(विजय राजबली माथुर )

Thursday 23 June 2016

उत्तर प्रदेश की राजनीति मकड़जाल में फंस गई है : सांप्रदायिकता को परास्त करने हेतु सबको मिलकर आगे आना होगा ------ अतुल कुमार सिंह'अंजान'

21 जून 2016 का साक्षात्कार 

भाकपा के राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल कुमार सिंह 'अंजान ' साहब जो एक कवि हृदय जुझारू नेता हैं ने चेनल इंडिया 24 x 7 के साथ 21 जून 2016 को दिये एक साक्षात्कार में उत्तर प्रदेश में घटित कैबिनेट मंत्री की बरखास्तगी का ज़िक्र करते हुये एक कविता की इन दो पंक्तियों के माध्यम प्रदेश की स्थिति-परिस्थिति की समीक्षा यों की है :

तुम्हारी शपथ मैं तुम्हारा नहीं हूँ। 

मैं भटकती लहर मैं किनारा नहीं हूँ । । 

वरिष्ठ पत्रकार वासिंद मिश्र के एक सवाल के जवाब में अंजान साहब ने कहा कि, यदि इस बरखास्तगी के साथ कुछ मंत्री स्तीफ़ा देने की पेशकश करते हैं तो यह कुछ समझदारी हो सकती है लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है तो यह भी एक बड़ा 'दांव ' ही है। आजमगढ़ के सांप्रदायिक तनाव का ज़िक्र करते हुये उन्होने स्पष्ट अभिमत दिया कि यह सब अपने आप नहीं हो रहा है बल्कि इसका सृजन किया जा रहा है और इसके पीछे हैदराबाद से लेकर नागपुर तक की शक्तियों का हाथ है। उन्होने यह भी बताया कि आजमगढ़ से मिला 'घोसी'  उनका संसदीय क्षेत्र है और इसके मऊ में वह प्रतिमाह सप्ताह भर रहते हैं तथा इस क्षेत्र में पहले आजमगढ़ ज़िले का एक विधानसभा क्षेत्र भी शामिल था और वहाँ के प्रत्येक दल के नेता व कार्यकर्ता को वह बखूबी समझते हैं एवं उसी समझ के निष्कर्ष के आधार पर यह बात कह रहे हैं। केंद्र की खुफिया एजेंसियों के साथ-साथ लखनऊ की खुफिया एजेंसियों व सांप्रदायिक सौहार्द समर्थक शक्तियों को आजमगढ़ के खेल को भलीभाँति समझना चाहिए उनके साथ साथ मुलायम सिंह यादव तथा अखिलेश यादव को भी इसे समझना चाहिए; यह कोई मामूली खेल नहीं है। 

उन्होने उदाहरण देते हुये कहा कि सहारनपुर में सरकार के दो साल पूरे होने पर 'देवबंद' को लेकर जैसे भाषण मोदी जी ने दिये और उसके तीन दिन बाद रुड़की में सांप्रदायिक तनाव हो गया यह एक गहरी साजिश है। 2017 का चुनाव एक वैचारिक संघर्ष की ओर बढ़ रहा है जिसे मुलायम सिंह जी व अखिलेश को भी समझना चाहिए। उन्होने साफ साफ कहा कि चाहे बहुसंख्यक हिन्दू फिरकापरस्ती हो चाहे मुस्लिम अल्पसंख्यक फिरकापरस्ती दोनों ही उत्तर प्रदेश के लिए घातक हैं और इसका देश पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इसलिए इस वक्त सांप्रदायिक  सौहार्द समर्थक सभी शक्तियों को एक साथ आना होगा और अगर ऐसा नहीं हो सका तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और कोई और दूसरा नहीं होगा। 

उन्होने कहा कि आज सीधे सीधे कानून -व्यवस्था को चुनौती दे रही सांप्रदायिक शक्तियों को यों ही नहीं छोड़ा जा सकता अपनी पूरी सामर्थ्य से उनको रोकने और परास्त करने की भरपूर कोशिश की जाएगी। अखिलेश के विकास की चर्चा करते हुये उन्होने कहा कि विकास के लिए समझ और नीतियाँ भी होनी चाहिए, विकास यों ही नहीं हो जाएगा उसके लिए सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित करना होगा। उत्तर प्रदेश को सांप्रदायिकता की आग में झोंके जाने से रोकने पर ही विकास हो पाएगा । उत्तर प्रदेश के 22 करोड़ लोगों में हमारे नौजवान और किसान अधिक उत्पादकता वाले लोग हैं उनको विकास में जोड़ने के लिए धार्मिक उन्माद व जातीय विद्वेष को समाप्त करना होगा। अगर सांप्रदायिक शक्तियों के पैर प्रदेश में मजबूत हो गए तो दलितों,अल्पसंख्यकों, हाशिये पर पड़े लोगों का हाल आज से भी बदतर हो जाएगा। पिछले 30 सालों की प्रदेश की राजनीति ने आशाराम,गंडे-ताबीज़ वाले ,लाशों के व्यापारी जनता को दिये हैं और जन-समस्याओं का कोई पूछनहार नहीं है। 

उनका ज़ोर था कि उत्तर प्रदेश में राजनीति संभावनाओं का खेल नहीं है। उत्तर प्रदेश में साफ साफ दृष्टिकोण अपनाना होगा और तय करना होगा कि आप क्या चाहते हैं? हिन्दी के महान लेखक,समालोचक,प्रगतिशील लेखक संघ के नेता गजानन्द माधव 'मुक्तिबोध' की उक्ति कि, 'पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?' के अनुसार सबको सी पी आई, सी पी एम,कांग्रेस,सपा,बसपा,मुलायम सिंह,अखिलेश सबको तय करना और बताना होगा कि, उनकी पालिटिक्स क्या है? भाजपा की पालिटिक्स का तो खुलासा योगी आदित्यनाथ ने कर दिया है। अब बाकी हम सबको तय करना है। हम उत्तर प्रदेश को खूनी खेल का आखाडा नहीं बनने दे सकते।


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आदरणीय कामरेड अंजान साहब से विनम्र निवेदन  ::

इस साक्षात्कार में अंजान साहब द्वारा की गई अपेक्षा देश और प्रदेश के हक में बहुत वाजिब है। उनसे कुछ भी कहना सूरज को दीपक दिखाना ही होगा। लेकिन 1986 से ही अपनी भाकपा - सपा -भाकपा में सक्रियता के आधार पर कुछ निष्कर्षों पर पहुंचा हूँ और समय -समय पर उनको अभिव्यक्त भी करता रहा हूँ। अपनी तमाम राजनीतिक ईमानदारी के बावजूद हम लोग अपनी प्रचलित प्रचार -शैली के चलते उस जनता को जिसके लिए जी - जान से संघर्ष करते हैं प्रभावित करने में विफल रहते हैं। हम लोगों के प्रति लोगों का नज़रिया संकुचित व कुछ हद तक कुत्सित भी रहता है। उदाहरणार्थ  : 




सांप्रदायिकता वस्तुतः साम्राज्यवाद की सहोदरी है। साम्राज्यवाद ने हमारे देश की जनता को भ्रमित करने हेतु 1857 की क्रांति की विफलता के बाद जो नीतियाँ अपनाईं वे ही सांप्रदायिकता का हेतु हैं। जाने या अनजाने हम लोग साम्राज्यवादियो की व्याख्या को ही ले कर चलते हैं जिसके चलते जनता हम लोगों को अधार्मिक मान कर चलती है और इसमें प्रबुद्ध साम्यवादी/ वाम पंथियों का प्रबल योगदान है जो 'एथीस्ट ' कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं। शहीद भगत सिंह और महर्षि कार्ल मार्क्स को हम लोग गलत संदर्भ के साथ उद्धृत करते है जिसका नतीजा सांप्रदायिक शक्तियों ने भर पूर उठाया है। व्यक्तिगत आधार पर अपने लेखों के माध्यम से स्थिति स्पष्ट करने की कोशिशों को अपने ही वरिष्ठों द्वारा किए तिरस्कार का सामना करना पड़ा है। ब्राह्मण वादी मानसिकता के कामरेड्स जान बूझ कर प्रचलित शैली से प्रचार करना चाहते हैं जिससे आगे भी सांप्रदायिक शक्तियाँ लाभ उठाती रहें। इस संदर्भ में एक कामरेड के इस सुझाव को भी नज़र अंदाज़ करना अपने लिए घातक है। 





जो वरिष्ठ  लोग यह कहते हों कि, ओ बी सी और एस सी कामरेड्स से सिर्फ काम लिया जाये और उनको कोई पद न दिया जाये वस्तुतः फासिस्टों का ही अप्रत्यक्ष सहयोग कर रहे हैं और वे ही लोग उत्तर प्रदेश में हावी हैं। ऐसी परिस्थितियों में अंजान साहब के सारे संघर्ष पर पानी फिर जाता है। पहले अपने मोर्चे पर भी WAY OF PRESENTATION को बदलना होगा । थोड़ी सी  ही तबदीली करके हम जनता के बीच से फासिस्टों का आधार ही समाप्त करने में कामयाब हो जाएँगे। किन्तु इसके लिए पहले ब्राह्मण वादी कामरेड्स को काबू करना होगा। 
( विजय राजबली माथुर )
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Wednesday 22 June 2016

यहाँ उस पार्टी लाईन की ही उपेक्षा हुई, जिसे हमारे पुरोधाओं ने अपने खून पसीने से सींचकर आगे बढ़ाया ------ जगमती सांगवान

Jagmati Sangwan


प्रिय साथियो,
मैं 1986 से सीपीआई एम की सदस्या थी और जीवन में कोई भी व्यक्ति अपनी राजनीति, सिद्धान्तों और मूल्यों के लिए जितना संघर्ष कर सकता है या जो कीमत दे सकता है, वो मैंने ईमानदारी से करने की कोशिश की। लेकिन आज जब मैं एडवा की सचिव थी व केन्द्रीय कमेटी की सदस्या थी, तब पार्टी से इस्तिफा देने की क्या नौबत आ गई, वह मैं अपने साथियों, मित्रों व शुभचिन्तकों के साथ साझा करना चाहती हूं। ऐसा इसलिए क्योंकि मेरे साथी परेशान हैं व वो जानना चाहते हैं कि मैंने अंदरूनी संघर्ष का रास्ता ही क्यों नहीं अपनाया। परेशान मैं भी अत्याधिक हूं। और हर कोशिश की कि पूरे मसले को पार्टी के अन्दर उपलब्ध तौर तरीकों से ही डील किया जाए। वरना हकीकत में बोलते हुए जिसदिन से सीपीएम ने बंगाल में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने का फैसला किया उसी दिन से आत्मा परेशान थी। क्योंकि हम शुरू से अपने नेताओं से सुनते आए हैं कि बंगाल में ;इसमें व्यक्तियों की बात नहीं है ।वर्ग संघर्ष की राजनीति का इतिहास रहा है, कि वहां कांग्रेस के हाथ हमारे गरीब, प्रतिबद्ध साथियों के खून से रंगे हुए हैं। वर्गीय राजनीति को छोड़ दें तो कांग्रेस में भी कई नेक लोग हो सकते हैं, पर सवाल व्यक्तियों का नहीं है। 
आज आप उसी वर्ग विरोधी राजनीति से हाथ मिला रहे हैं। वो भी भाजपा के खिलाफ नहीं जो वर्ग विरोधी और साम्प्रदायिक दोनों ही है, बल्कि कांग्रेस से टूट कर अलग हुए एक हिस्से तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ। केन्द्रीय कमेटी की विशेष बैठक बुलाई गई इस पूरे सवाल पर विमर्श के लिए। पीबी में महासचिव तथा बंगाल के 4 साथियों के अलावा इस लाईन को किसी का भी समर्थन नहीं था। केन्द्रीय कमेटी ने भी दो-तिहाई से भी ज्यादा के बहुमत से उस प्रस्ताव को ठुकराया। लेकिन बंगाल की पार्टी ने फिर भी वही किया। उस वक्त जब हम सवाल उठा रहे थे तो हमें कहा गया कि चुनाव के बाद बोलना, बीच में डिस्टर्ब मत करो। हमने ठीक वैसा ही किया। और एक बात और यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि अगर मेरी ईमानदारी के कोई मायने हैं तो मैंने यह सोचा था कि अगर पार्टी जीत भी जाती है तो भी मैं गलत को गलत कहने में सबकुछ दाव पर लगा दूंगी। दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य से बंगाल की जनता ने भी इस अवसरवादिता को नकार दिया। 
फिर 18-20 जून को केन्द्रीय कमेटी की बैठक हुई। उसमें पोलिट ब्यूरो का ;बहुमत का नोट रखा गया जिसमें इस फैसले को राजनीतिक-कार्यनीतिक लाईन का उल्लं घन बताया गया। मीटिंग में उसे सुनकर बहुत राहत मिली कि आखिर पार्टी सही जगह पर आई। परन्तु उसके साथ-साथ पार्टी महासचिव ने अपना अलग नोट रखा जिसमें उन्होंने कहा कि बंगाल कमेटी द्वारा कांग्रेस के साथ जाने की सारी कवायदें पार्टी के लाईन से मेल भर नहीं खाती तथा यह इसका उल्लंघन नहीं है। बंगाल के दो मुख्य नेता यहां तक बोल गए कि अगर पीबी का नोट माना गया तो वे इस्तिफा दे देंगे। इसके बावजूद केन्द्रीय कमेटी के दो-तिहाई सदस्यों ने इसे पार्टी कार्यक्रम, राजनीतिक-कार्यनीतिक लाईन व केन्द्रीय कमेटी के फैसले का उल्लंघन बताया तथा साथ में उन्होंने इस समझौतावादी रूख से उनके अपने राज्यों में हुए नुक्सान को भी बयां किया। इसके बावजूद बहस को सुनकर पीबी ने जो प्रस्ताव अंत में रखा उसमें बहुमत की भावना के बजाय अल्पमत की भावना को दर्ज करते हुए ‘उल्लंघन‘ को हटाकर ‘मेल नहीं खाता है‘ कर दिया। मतलब राजनीतिक-कार्यनीतिक लाईन से समझौते के लिए किसी की भी जवाबदेही तय नहीं की जाएगी। इस पर कुछ साथियों ने सवाल उठाए व इसे पास नहीं किया, जिनमें मैं भी शामिल थी। साथी जब बोलने की कोशिश कर रहे थे तो उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा था। इसके बाद मुझे अंदरूनी संघर्ष की जगह खत्म लगी। अतः मैंने प्रोटैस्ट करते हुए कहा कि मैं इस व्यवहार के खिलाफ व इस प्रस्ताव के खिलाफ केन्द्रीय कमेटी व पार्टी सदस्यता से इस्तिफा देती हूं।
हमने पार्टी में आते ही यही सीखा था कि हमारी पार्टी लाईन व जनवादी केन्द्रीयतावाद पार्टी की जीवन रेखा है तथा इनसे समझौता व छेड़छाड़ सबसे बड़ा अपराध है। सबसे बड़े अपराध की जवाबदेही तक अगर तय न हो तो इसे हजम कैसे किया जा सकता है? आज पार्टी में अपने ही राजनीतिक सिद्धान्तों से समझौता करने की प्रवृत्तियों से पार्टी व उसकि राजनीति को बचाने की जरूरत है। और मैंने वही किया है सभी उपयुक्त नाॅर्म और फोरम का प्रयोग करते हुए। पार्टी कार्यक्रम, पार्टी लाईन व केन्द्रीय कमेटी के फैसले को यूं तोड़ने की गलती को कोई गलती न माने और उसे हजम करने के रास्ते पर चलने का काम करे तो ये उनका अपना फैसला हो सकता है। लेकिन मैं ये नहीं कर पाई व न ही करूंगी। ये कोई भावुकता या गुस्से का सवाल नहीं है। 
मैं पार्टी कारयकर्म से मतभेद नहीं रखती । पर यहाँ उस पार्टी लाईन की ही उपेक्षा हुई, जिसे हमारे पुरोधाओं ने अपने खून पसीने से सींचकर आगे बढ़ाया व आज भी हमारे हज़ारों प्रतिबद्ध साथी वही काम कर रहे हैं। मैं उनके उस जज्बे को उसी जज्बे के साथ सलामी देना चाहती हूं चाहे कितनी भी बड़ी कीमत देनी पड़े।
जगमती सांगवान
21 जून, 2016

https://www.facebook.com/jagmati.sangwan/posts/738711109603548

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27-06-2016 

Tuesday 21 June 2016

मैं मार्क्सवाद से बाहर नही हो पाया हूँ. ------ वीरेंद्र यादव


Virendra Yadav
 21 june 2016  · 
रवीश ने जगमाति सांगवान से कहा कि आपसे बातचीत करके "'लग रहा है कि आप सीपीएम से नहीं बल्कि सीपीएम आपसे बाहर निकल गयी है."
हाँ ,होता है बिलकुल यही होता है आप जो हैं वही रहते हैं लेकिन पार्टी आपसे बाहर हो जाती है. आज वह सब शिद्दत से याद आ रहा है जब ठीक तीस साल पहले मुझसे भी पार्टी बाहर हो गयी थी. हुआ यह था कि अप्रैल 1986 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का स्वर्ण जयन्ती समारोह उत्सवी वातावरण में अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित किया गया था. मैं इसके आयोजकों में से एक था. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के हस्तक्षेप के चलते कुछ ऐसा घटनाक्रम हुआ कि हम कुछ साथी खिन्न हुए .मैंने इस समूचे प्रकरण पर 'हंस' पत्रिका (जनवरी,1987) में 'प्रगतिशील लेखन आन्दोलन -दशा और दिशा ' शीर्षक से लेख लिख दिया ,जिस पर कई अंकों तक लम्बी बहस चली..सीपीआई उ.प्र. के तत्कालीन महासचिव कामरेड सरजू पांडे ने मुझे लेख लिखने पर कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया . मैंने उन्हें लम्बा-चौड़ा सैद्धांतिक जवाब दे दिया. कामरेड पांडे अच्छे व्यक्ति थे उन्होंने मुझसे हँसते हुए कहा कि ' तुमने तो जवाब के बजाय मुझसे ही इतने सवाल पूछ कर मेरा ही एक्क्सप्लेनेशन काल कर लिया है. अब इसका जवाब कौन देगा !.' बहरहाल अंततः हुआ यह कि का.पांडे ने चार लाईन का पत्र लिखकर मुझे यह सलाह दी कि .'बाहर की पत्र- पत्रिकाओं' में मैं पार्टी से जुड़े मसलों को सार्वजानिक न करूं. लेखकीय स्वतंत्रता और दलीय अनुशासन के बीच मैंने लेखकीय स्वतंत्रता का वरण करते हुए अपनी पार्टी की सदयस्ता का नवीनीकरण नही कराया और पार्टी ने भी मुझे ड्राप कर दिया. इस तरह पार्टी से मेरी सोलह वर्ष सदस्यता का रिश्ता विछिन्न हुआ और पार्टी मुझसे बाहर हो गयी . लेकिन अभी भी मैं मार्क्सवाद से बाहर नही हो पाया हूँ. आज जगमति सांगवान की रवीश से बातचीत सुनते हुए वह समूचा घटनाक्रम याद आ गया .
https://www.facebook.com/virendra.yadav.50159836/posts/1151148181602546


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Wednesday 15 June 2016

उसने इस बहाने मेरा घर जला दिया ------ अतुल कुमार अंजान






EK  KADUWA   SACH. ............ PYASSI  THI   ZAMEEN  SARA  LAHOO   PILA   DIYA                   MUJHPER  WATAN   KA  KARZ  THHA  MAINE  USSE  CHUKAA  DIYA                                                MAINE  USSE   KAHA   JALANE  KO  IKK   CHIRAG        USSNE  ISS  BAHANE  MERA  GHAR   JALA   DIYA..RGDS...    ATUL    KUMAR    ANJAAN


"प्यासी थी ज़मीन    सारा   लहू  पिला   दिया 
मुझ पर वतन का कर्ज़ था मैंने उसे चुका दिया 
मैंने उसे कहा जलाने को        इक      चिराग 
उसने इस      बहाने मेरा घर       जला दिया "

अतुल कुमार अंजान साहब भाकपा के राष्ट्रीय सचिव होने के साथ-साथ किसानसभा के राष्ट्रीय महासचिव भी हैं  जिसके नाते  किसानों से उनका निरंतर जीवंत संपर्क बना रहता है। रात  के नौ-नौ बजे तक उनको कार्यालय  में  किसान समस्याओं पर मंथन करते देखा जा सकता है। उनका ख्याल है जो किसान इतनी दूर से उनको अपनी समस्या बताने आया है  तो उसकी  बात  सुनना  उनका फर्ज़ है और जो मदद वह दिला सकते हैं  उसको दिलवा देते हैं। 

किसानों की बातें सुनते-सुनते उनके दिमाग में आया कि, बड़े अरमानों से किसान व साधारण जनता ने मोदी सरकार को सत्तारूढ़ किया था पर बदले में उसे क्या मिला ? उसी का उत्तर है यह शेर । देश में महाराष्ट्र हो या बुंदेलखंड या फिर कालाहांडी सब जगह किसानों  के घर जल रहे हैं, किसान आत्म- हत्यायेँ  कर रहे हैं। किसानों  की झोंपड़ियाँ  सूनी हैं  और सूना है उनका जीवन। किसान दिन  रात  कड़ी मेहनत करके अपना खून सुखा कर  फसल उगाता है लेकिन उसे उसका लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता है। 

यह स्थिति  कामरेड अंजान को व्यथित करती है और उनके कवि हृदय  से छंद  निकल पड़ता है। अंजान साहब का ज्ञान कंजूस का धन नहीं है उनके मन में जो विचार आ जाते हैं उनको वह कुछ चुनिन्दा लोगों  से साझा कर डालते हैं। लखनऊ  के उन लोगों में से एक मैं भी हूँ। और लोग इसका क्या प्रयोग करते हैं मुझे मालूम नहीं , लेकिन  मैं  अंजान साहब द्वारा व्यक्त विचारों को अपने ब्लाग्स में  संग्रहित करने का लोभ नहीं छोड़ पाता। हो सकता है कवि  के कहने का आशय भिन्न हो  किन्तु मैंने जो निष्कर्ष निकाला उसके अनुसार व्याख्या कर डाली। प्राप्त करने के बाद इतना अधिकार मैंने स्वतः हासिल कर लिया। 
(विजय राजबली माथुर )
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Thursday 9 June 2016

कन्हैया को डूटा द्वारा बुला कर बोलने से रोकना ;रोशन सुचान की चिंता ------ विजय राजबली माथुर





" वहां एक महिला शिक्षक ( जो संघ और ईरानी के चेली होंगी ) ने कन्हैया के हाथ से माइक छीन लिया और बोलने नहीं दिया और जोर जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया । तब एआईफुक्टो - फेडकुटा द्वारा समर्थित डूटा की ओर से बिलकुल विरोध नहीं किया गया और वहां मौजूद अन्य वामपंथी - लोकतान्त्रिक शिक्षक - छात्र संगठनों से जुड़े शिक्षक भी मौन होकर तमाशबीन बने रहे जो गैरजिम्मेदाराना और निंदनीय है। कन्हैया डूटा के निमंत्रण पर जेएनयू छात्रसंघ का समर्थन देने गए थे. इसके लिए शिक्षक संगठनों को जिम्मेदारी और जवाबदेही लेते हुए जवाब देना होगा कि ऐसा क्यों हुआ ? "
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1142935679104611&id=100001645680180

Sataynarayan Tripathi लिजलिजा सगठनो की हालत पैदा करने का कौन जिम्मेदार है ॽ सगठनो का बैनर वाम प्रगति शील पर कब्जा दछिण पन्थ विचारको का ॽ तब यह स्थिति पैदा होगी ़ॽट्रेड यूनियनो व एशियोसियसनो पर जब वे लोग पदासीन होगे जिन्हे वर्ग मित्र वर्ग शत्रु की पहिचान न होगी या उद्देश्य कलुसित ट्रेड करने के होगे ॽ सगठनो पर आम जन पर होल्ड नही होगा तब यह स्थितियॉ आयेगी ॽ
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जे एन यू एस यू अध्यक्ष कन्हैया से जितना खतरा कार्पोरेटी ब्राह्मण वादी कामरेड्स को है उतना दूसरे किसी को नहीं, इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखना होगा तभी सच्चाई तक पहुंचा जा सकेगा। जबसे 04 मार्च 2016 को जेल से आने पर कन्हैया ने 'नीली' कटोरी और ' लाल ' कटोरी का उदाहरण दे कर  वामपंथ व अंबेडकरवाद की एकता की बात कही है तभी से वह वामपंथ के अश्लीलता समर्थक बाजारवादी ब्राह्मण कामरेड्स के निशाने पर चल रहे हैं। भारत में 'सर्व हारा ' वर्ग का मतलब उस तबके से है जिसे यहाँ दलित कहा जाता है और जो डॉ अंबेडकर का अनुयाई माना जाता है। कन्हैया इसी वर्ग के साथ एकता करके वामपंथ को मजबूत करना चाहते हैं। उनका उद्देश्य पवित्र है। लेकिन इतना तो सच है ही कि, वामपंथी संगठनों पर 'दक्षिण पंथी विचारकों' का ही कब्जा है जिनको कन्हैया की बात कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकती क्योंकि वास्तविक सर्व हारा के वामपंथ के साथ आने से इन संगठनकर्ता ब्राह्मणों का अस्तित्व गौड़ हो जाएगा। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सिद्धांतों की रट लगा कर इन लोगों ने 1964 में  CPM का गठन कर लिया था। उत्तर प्रदेश में इसी लिए 1994 के बाद से दो-दो बार पार्टी में टूटन हो चुकी है। इसका सीधा -सीधा लाभ बाजरवादी ब्राह्मण कामरेड्स को हुआ है। यू पी से CPI की नेशनल काउंसिल में 7 प्रतिनिधि हैं जिनमें से 4 ब्राह्मण हैं और इन चार में 3 एक ही परिवार से संबन्धित हैं। क्या अंबेद्कर वादियों के वामपंथ से जुडने पर ऐसा हो सकेगा? निश्चय ही नहीं। इन ब्राह्मण वादी कामरेड्स को कार्पोरेटी/ मोदीइस्ट कहना अधिक उपयुक्त होगा। ये ही अप्रत्यक्ष रूप से कन्हैया विरोधी अभियान के सूत्रधार हैं। जब तक ऐसे लोगों को वामपंथ से साईडट्रेक नहीं किया जाता तब तक कन्हैया का पवित्र अभियान सफल होना संदिग्ध बना रहेगा। डूटा आंदोलन के दौरान कन्हैया के साथ बदसलूकी इसी का नतीजा है। 

जब तक वामपंथ का शुद्धिकरण नहीं हो जाता फासिस्ट शक्तियाँ निरंतर मजबूत होती जाएंगी। IAS आदि सरकारी सेवाओं में संघी मानसिकता के लोग भरते जाएँगे। यदि केंद्र में गैर फासिस्ट सरकार बन भी जाएगी तब भी ये संघी ब्यूरोक्रेट्स उस सरकार को पंगु करके संघी एजेंडा लागू करते रहेंगे। क्या वामपंथ ने इस लूट के विरुद्ध आवाज़ उठाई ? उठाएँ तो कैसे? संगठनों पर बाजारवादी ब्राह्मण कामरेड्स कब्जा किए हुये हैं, वे अपने वर्ग हित का विरोध करेंगे, ऐसा सोचना भारी भूल होगी। 
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17-06-2016 

Wednesday 1 June 2016

पूंजी के व्यापारियों का अर्थशास्त्र और उदारीकरण की लूट :तथा नव उदारवाद की समाप्ती के कयास ------ विजय राजबली माथुर /आदित्य चक्रबोरती




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पूंजी के व्यापारियों का अर्थशास्त्र
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बैंक वस्तुतः पूंजी के व्यापारी हैं। बैंक पहले साधारण जनता से उसे छोटी-छोटी बचत को प्रोत्साहित करने हेतु बहुत थोड़े धन से सेविंग्स अकाउंट खोलते थे । जनता को सभी सुविधाएं मुफ्त देते थे जबकि व्यापारिक सेवाओं पर शुल्क तब भी लेते थे। चेकबुक मुफ्त मिलती थी दूसरी ब्रांच या दूसरे शहर की ब्रांच में अकाउंट का ट्रांसफर आसानी से होता था और निशुल्क ही। कर्मचारी जनता से मित्रवत व्यवहार करते थे।
जैसे-जैसे 'उदारीकरण ' बढ़ा और 'विकास' का शोर बुलंद हुआ। कर्मचारियों का व्यवहार जनता के साथ रूखा-दर- रूखा होता गया। ब्याज दरों में कटौती होती रही लेकिन सुविधाओं पर शुल्क वसूला जाने लगा। आगामी पहली जून से बैंक व्हाईट कालर्ड डाकू की भूमिका अख़्तियार करने जा रहे हैं। फासिस्ट पूंजीवादी सरकार अब जनता को अपनी बचत बैंकों में रखने के प्रति हतोत्साहित करने के ध्येय से अपने ही पैसों को जमा करने और निकालने पर शुल्क लाद  रही है। नतीजा यह होगा बैंक के बजाए लोग अपनी बचत ज़्यादा ब्याज देने वाले निजी संस्थानों में जमा करने लगेंगे। इस तरह निजी व्यापारियों को पूंजी का व्यापार बढ़ाने का अवसर मिलेगा और बैंक घाटे का उपक्रम बन कर रह जाएँगे तब सरकार इनको औने- पौने दामों पर कारपोरेट कंपनियों को बेच डालेगी। इस ओर न जनता ध्यान दे रही है न ही बैंक कर्मचारी नेता गण। सब के सब हिन्दू राष्ट्र के आगमन की धमक में निमग्न हैं । जनता की फिक्र उनको भी नहीं हो रही है जो जन-वादी होने का दंभ भरते हैं। 
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1075751852486790

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उदारीकरण की लूट 
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May 24 at 10:02pm · 
दो सप्ताह पूर्व टाटा डोकोमो ने sms के जरिये सूचित किया कि, वे 15 मई 2016 से CDMA सर्विस बंद कर रहे हैं जब उनसे कहा कि, GSM सर्विस में इसे ट्रांसफर कर दें तो तमाम अड़ंगे खड़े कर दिये। अखबार से पता लगा कि, रिलायंस ने अपने ग्राहकों को GSM की सिम CDMA के बदले खुद ही दे दी थीं। लेकिन फिर भी तमाम लोगों को हैंड सेट तो नए खरीदने ही पड़े। भले ही हमने दूसरे आपरेटर पर mnp करा लिया और अपना पुराना नंबर सुरक्षित बचा लिया लेकिन दस दिन झंझट तो रहा ही बेवजह नया हैंड सेट व सिम खरीदने में अतिरिक्त व्यय हुआ ही।

इस तरह ये कारपोरेट घराने जब तब जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ते रहते हैं। बाजारवाद व्यापार जगत पर ही नहीं राजनीति पर भी हावी है। अब विधानसभाओं व संसद में प्रतिनिधि कारपोरेट घरानों के चहेते ही आसानी से चुन जाते हैं और जन पक्षधरता वाले लोग बड़ी कठिनाई से वहाँ पहुँच पा रहे हैं। फिर भला जनता के हितार्थ काम कैसे हो? श्रम कानूनों को उदारीकरण के आवरण में कारपोरेट हितैषी एवं श्रमिक विरोधी बनाया जा रहा है।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1087992924596016

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लेकिन आदित्य चक्रबोरती साहब लिखते हैं कि, नव उदारवाद भीतर से ही समाप्त होने जा रहा है :
You’re witnessing the death of neoliberalism – from within
Aditya Chakrabortty

Tuesday 31 May 2016 06.59 BST

What does it look like when an ideology dies? As with most things, fiction can be the best guide. In Red Plenty, his magnificent novel-cum-history of the Soviet Union, Francis Spufford charts how the communist dream of building a better, fairer society fell apart.


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Even while they censored their citizens’ very thoughts, the communists dreamed big. Spufford’s hero is Leonid Kantorovich, the only Soviet ever to win a Nobel prize for economics. Rattling along on the Moscow metro, he fantasises about what plenty will bring to his impoverished fellow commuters: “The women’s clothes all turning to quilted silk, the military uniforms melting into tailored grey and silver: and faces, faces the length of the car, relaxing, losing the worry lines and the hungry looks and all the assorted toothmarks of necessity.”

But reality makes swift work of such sandcastles. The numbers are increasingly disobedient. The beautiful plans can only be realised through cheating, and the draughtsmen know it better than any dissidents. This is one of Spufford’s crucial insights: that long before any public protests, the insiders led the way in murmuring their disquiet. Whisper by whisper, memo by memo, the regime is steadily undermined from within. Its final toppling lies decades beyond the novel’s close, yet can already be spotted.

When Red Plenty was published in 2010, it was clear the ideology underpinning contemporary capitalism was failing, but not that it was dying. Yet a similar process as that described in the novel appears to be happening now, in our crisis-hit capitalism. And it is the very technocrats in charge of the system who are slowly, reluctantly admitting that it is bust.

You hear it when the Bank of England’s Mark Carney sounds the alarm about “a low-growth, low-inflation, low-interest-rate equilibrium”. Or when the Bank of International Settlements, the central bank’s central bank, warns that “the global economy seems unable to return to sustainable and balanced growth”. And you saw it most clearly last Thursday from the IMF.

It is the very technocrats in charge of the system who are slowly, reluctantly admitting that it is bust
What makes the fund’s intervention so remarkable is not what is being said – but who is saying it and just how bluntly. In the IMF’s flagship publication, three of its top economists have written an essay titled “Neoliberalism: Oversold?”.

The very headline delivers a jolt. For so long mainstream economists and policymakers have denied the very existence of such a thing as neoliberalism, dismissing it as an insult invented by gap-toothed malcontents who understand neither economics nor capitalism. Now here comes the IMF, describing how a “neoliberal agenda” has spread across the globe in the past 30 years. What they mean is that more and more states have remade their social and political institutions into pale copies of the market. Two British examples, suggests Will Davies – author of the Limits of Neoliberalism – would be the NHS and universities “where classrooms are being transformed into supermarkets”. In this way, the public sector is replaced by private companies, and democracy is supplanted by mere competition.

The results, the IMF researchers concede, have been terrible. Neoliberalism hasn’t delivered economic growth – it has only made a few people a lot better off. It causes epic crashes that leave behind human wreckage and cost billions to clean up, a finding with which most residents of food bank Britain would agree. And while George Osborne might justify austerity as “fixing the roof while the sun is shining”, the fund team defines it as “curbing the size of the state … another aspect of the neoliberal agenda”. And, they say, its costs “could be large – much larger than the benefit”.

 IMF managing director Christine Lagarde with George Osborne.
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 IMF managing director Christine Lagarde with George Osborne. ‘Since 2008, a big gap has opened up between what the IMF thinks and what it does.’ Photograph: Kimimasa Mayama/EPA
Two things need to be borne in mind here. First, this study comes from the IMF’s research division – not from those staffers who fly into bankrupt countries, haggle over loan terms with cash-strapped governments and administer the fiscal waterboarding. Since 2008, a big gap has opened up between what the IMF thinks and what it does. Second, while the researchers go much further than fund watchers might have believed, they leave in some all-important get-out clauses. The authors even defend privatisation as leading to “more efficient provision of services” and less government spending – to which the only response must be to offer them a train ride across to Hinkley Point C.

Even so, this is a remarkable breach of the neoliberal consensus by the IMF. Inequality and the uselessness of much modern finance: such topics have become regular chew toys for economists and politicians, who prefer to treat them as aberrations from the norm. At last a major institution is going after not only the symptoms but the cause – and it is naming that cause as political. No wonder the study’s lead author says that this research wouldn’t even have been published by the fund five years ago.

From the 1980s the policymaking elite has waved away the notion that they were acting ideologically – merely doing “what works”. But you can only get away with that claim if what you’re doing is actually working. Since the crash, central bankers, politicians and TV correspondents have tried to reassure the public that this wheeze or those billions would do the trick and put the economy right again. They have riffled through every page in the textbook and beyond – bank bailouts, spending cuts, wage freezes, pumping billions into financial markets – and still growth remains anaemic.

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William Keegan
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And the longer the slump goes on, the more the public tumbles to the fact that not only has growth been feebler, but ordinary workers have enjoyed much less of its benefits. Last year the rich countries’ thinktank, the OECD, made a remarkable concession. It acknowledged that the share of UK economic growth enjoyed by workers is now at its lowest since the second world war. Even more remarkably, it said the same or worse applied to workers across the capitalist west.

Red Plenty ends with Nikita Khrushchev pacing outside his dacha, to where he has been forcibly retired. “Paradise,” he exclaims, “is a place where people want to end up, not a place they run from. What kind of socialism is that? What kind of shit is that, when you have to keep people in chains? What kind of social order? What kind of paradise?”


Economists don’t talk like novelists, more’s the pity, but what you’re witnessing amid all the graphs and technical language is the start of the long death of an ideology.
http://www.theguardian.com/commentisfree/2016/may/31/witnessing-death-neoliberalism-imf-economists?CMP=fb_gu