Saturday 15 August 2015

'देश की तस्वीर' : एक चर्चा स्वतन्त्रता दिवस पर भाकपा,लखनऊ द्वारा --- विजय राजबली माथुर



 लखनऊ, 15 अगस्त 2015 : आज प्रातः 10,30 पर पार्टी कार्यालय, 22 क़ैसर बाग परिसर में राष्ट्र ध्वज का आरोहण वयोवृद्ध कामरेड मुख्तार साहब के कर कमलों से सम्पन्न हुआ। राष्ट्र गान के पश्चात जिलामंत्री कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ द्वारा उपस्थित सभी जनों को मिष्ठान्न वितरण किया गया। इसके उपरांत सभागार में एक गोष्ठी 'देश की तस्वीर' विषय पर आयोजित की गई जिसकी अध्यक्षता कामरेड कनहाई राम जी ने व संचालन कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ ने किया।गोष्ठी - सभा के प्रमुख वक्ताओं में सर्व कामरेड मधुकर मदुराम, परमानंद दिवेदी, बाल गोविंद, अमर, राम पाल गौतम, रामदेव तिवारी, मोहम्मद अकरम खान, राम इकबाल उपाध्याय, शकिर, कल्पना पांडे, एननूद्दीन, शिवानी, कांति मिश्रा, आशा मिश्रा, विजय माथुर, मोहम्मद ख़ालिक़ तथा कनहाई राम जी  एवं दो अन्य साथी रहे। 

प्रारम्भ में जिलामंत्री कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ ने बताया कि झन्डारोहण तो पार्टी कार्यालय में पहले भी होता रहा है किन्तु इस प्रकार की विचार गोष्ठी का आयोजन पहली बार किया जा रहा है और इसका कारण यह है कि हम जनता की इस निर्मूल धारणा को बदलना चाहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी विदेश से प्रेरित है । उन्होने ज़ोर दे कर कहा कि हमारे कार्यकर्ताओं को दृढ़तापूर्वक जनता को समझाना चाहिए कि हम कम्यूनिस्टो ने देश की आज़ादी के लिए बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ दी हैं तथा जन सरोकार से जुड़े हर मुद्दे पर आज भी संघर्ष में सबसे आगे रहते हैं। बावजूद इसके अनेकों वक्ताओं ने विषय से हट कर केवल स्थानीय या व्यक्तिगत मुद्दों पर ही चर्चा की। सबसे पहले कामरेड राम इकबाल उपाध्याय ने ध्यान आकृष्ट किया कि कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक एम एन राय एक बड़े क्रांतिकारी भी थे।उनकी बात का समर्थन कांति मिश्रा जी ने भी किया और आशा मिश्रा जी ने तो विषय की विशद चर्चा करते हुये तमाम क्रांतिकारियों का नामोल्लेख करते हुये बताया कि उनका संबंध कम्युनिस्ट पार्टी से रहा है । इसी क्रम में  कुछ साहित्यकारों की भूमिका की चर्चा करते हुये उनको भी कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध बताया। उनका कहना था कि आज़ादी से पहले और आज भी कम्युनिस्टो का मुख्य संघर्ष सांप्रदायिक शक्तियों से रहा है। हम लोगों के कमजोर पड़ने से आज सांप्रदायिक शक्तियाँ सत्ता में हैं उन्होने आह्वान किया कि हमें एक जुट होकर उनको उखाड़ फेंकना होगा। 
विशेष उल्लेखनीय वक्तव्य युवा कामरेड शिवानी का रहा जो अपने पिता मधुकर मदुराम की तुलना में भी श्रेष्ठ बोलीं और जिलमंत्री महोदय को टिप्पणी करनी पड़ी कि बच्चा होकर 'दादी' की तरह बोली। मज़ाक-मज़ाक में जब आशा मिश्रा जी ने कहा कि आप 'दादी' शब्द को वापिस लें तो उनका कहना था कि यह शब्द इसलिए वापिस नहीं लिया जा सकता क्योंकि उनकी ओर से यह आशीर्वाद है  क्योंकि शिवानी ने पूरी परिक्वता का परिचय दिया है जबकि पुराने लोग भी उतना ध्यान नहीं दे पाते हैं । उन्होने नए लोगों से उम्मीद की कि वे शिवानी से प्रेरणा लेंगे। शिवानी के वक्तव्य में खास ज़ोर  इस बात पर था कि हमारे पूर्वजों ने जो कुर्बानी दी थी उसी का नतीजा है कि हम आज आज़ाद हैं और पूरी स्वतन्त्रता से अपनी बात रख पा रहे हैं। अतः आज़ादी को आधा-अधूरा न कह कर उसकी रक्षा की ओर सन्नद्ध होना चाहिए। पार्टी को कैसे मजबूत किया जाये इस विषय पर भी शिवानी ने अपनी बेबाक राय रखी। उनका खास तौर पर  कहना था हमें जनता के बीच जाकर उसकी बात सुनना चाहिए। 
कामरेड ख़ालिक़ ने अपनी इस टिप्पणी के साथ कि अब तक सबकी राय को लेखनीबद्ध कर रहे विजय माथुर को अब हम सुनना चाहते हैं बोलने को कहा। जबकि सुनने के उपरांत उनकी टिप्पणी थी कि बड़ी समझदारी के साथ विजय माथुर ने उत्तेजित कर दिया है हो सकता है उनका अंदाज़ सही हो कि जब हम सब विफल हो जाएँ तो युवा वर्ग क्रांति का मार्ग अपना ले और आगे बढ़ जाये। 
विजय माथुर ने अपनी बात की शुरुआत 15 अगस्त 1947 के भारत/पाक विभाजन से की और बताया कि इसे 'सांप्रदायिक विभाजन' की संज्ञा दी जाती है जबकि यह 'साम्राज्यवादी विभाजन' था। वस्तुतः सांप्रदायिकता साम्राज्यवाद की ही सहोदरी है। विभाजन का फार्मूला व्हाइट हाउस में तय किया गया था जिस पर अमल ब्रिटिश सरकार ने किया। क्योंकि अंग्रेजों ने सत्ता मुगलों से हासिल की थी इसलिए शुरू-शुरू में मुसलमानों को कुचला गया था किन्तु 1857 की क्रांति का नेतृत्व बहादुर शाह जफर ने किया था जिनको शिवाजी के वंशज मराठों का भी समर्थन हासिल था अतः क्रांति को निर्ममता से कुचल देने के बाद ब्रिटिश सरकार ने 'फूट डालो' की नीति चलाई जिसके अंतर्गत 1905 में पहले बंगाल का 'मुस्लिम' व 'हिन्दू' आधार पर विभाजन किया जिसे जनता की एकता के चलते रद्द करना पड़ा। अतः ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को भड़का कर 'मुस्लिम लीग' की स्थापना 1906 में मदन मोहन मालवीय की मार्फत 'हिंदूमहासभा' की स्थापना 1920 में तथा हेद्गेवार की मार्फत आर एस एस की स्थापना 1925 में अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ती के लिए करवाई थी और इन संगठनों की मदद से ही देश विभाजन को अंजाम दिया गया था। आज़ादी के तुरंत बाद से ही पाकिस्तान तो अमेरिकी प्रभाव में चला गया था किन्तु भारत 'तटस्थ' नीति पर चल रहा था। 1975 की एमर्जेंसी के कारण 1977 की करारी हार के बाद 1980 में इंदिरा गांधी की वापिसी 'इन्दिरा-देवरस' गुप्त समझौते के अंतर्गत आर एस एस के समर्थन से हुई थी। 1989 में राजीव गांधी ने बाबरी मस्जिद/ राम जन्म भूमि का ताला खुलवा कर पूजा शुरू करवाई थी। 2012 के उत्तर प्रदेश के चुनावों में सपा को भाजपा का समर्थन था तो 2014 के लोकसभा चुनावों में सपा का समर्थन भाजपा को था।इसकी रूपरेखा व्हाईट हाउस में तय की गई थी और उस बैठक में भाग लेने वालों में एक प्रोफेसर लखनऊ के भी रहे थे।  2017 के चुनावों में 'मुलायम-मोदी' गुप्त समझौते के अंतर्गत भाजपा द्वारा सपा का फिर सपा द्वारा 2019 के चुनावों में भाजपा का समर्थन किया जाएगा जबकि माकपा के पूर्व महासचिव प्रकाश करात साहब मुलायम सिंह को तीसरे मोर्चे का पी एम प्रत्याशी बनाना चाहते थे।2019 में 'निष्पक्ष' चुनावों की संभावना क्षीण है और वर्तमान प्रवृति से सांप्रदायिकता का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता है।  हमको अपनी नीतियाँ बदलनी चाहिए ड्राईङ्ग रूम में तय करके सड़कों पर प्रदर्शन करने और आर्थिक लड़ाइयों को लड़ने से ही हमें जनता का समर्थन नहीं मिल जाएगा।यदि लोकतान्त्रिक  तरीके से साम्राज्यवाद समर्थक सांप्रदायिक सरकार को हटाना संभव न हुआ तो दिल्ली की सड़कों पर कम्युनिस्टों व सांप्रदायिक शक्तियों में निर्णायक  रक्त-रंजित संघर्ष होगा  जिसके बाद ही तय होगा कि केंद्रीय सत्ता पर सांप्रदायिक शक्तियों का कब्जा बरकरार रहेगा या कि वामपंथियों के नेतृत्व में जन-हितैषी सरकार सत्ता में आएगी। 
जिलामंत्री ख़ालिक़ साहब ने  अपने उद्बोद्धन में बताया कि हम एक-एक मुद्दे को लेकर और एक स्थान का चयन करके अंजाम होने तक संघर्ष की रण-नीति पर चलेंगे। उन्होने 15 अगस्त, 02 अक्तूबर और 26 जनवरी पर पार्टी की ओर से कार्यक्रम आयोजित किए जाने की श्रंखला में डॉ अंबेडकर, कबीर दास, स्वामी विवेकानंद आदि की जयंती को भी जोड़ा। उन्होने कुछ आगामी कार्यक्रमों को दृढ़ता पूर्वक सफल करने की अपील की जिसमें एक पहली सितंबर को 'बख्शी का तालाब' तहसील पर किसान समस्याओं पर प्रदर्शन करना भी है। 
सभापति कामरेड कनहाई राम जी ने सभी को धन्यवाद देने के साथ-साथ यह भी कहा कि हमें विधानसभा और संसद की सभी सीटों पर 'चुनाव' भी लड़ना चाहिए केवल सड़कों पर संघर्ष करने से ही जनता हमारे साथ नहीं जुड़ सकती । जनता को लगना चाहिए कि कम्युनिस्ट सरकार बना कर उसकी समस्याओं को हल कर सकते हैं तभी वह हमारा साथ देगी।  
 
        

Sunday 9 August 2015

इतिहास को व्याख्यापित करता मानवीय चेहरा : भीष्म साहनी - -वीर विनोद छाबड़ा

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10 अप्रैल 1986 को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के स्वर्णजयंती समारोह के अवसर पर भीष्म साहनीजी और ज्ञानरंजन जी के साथ वीरेंद्र यादव जी .

भीष्म साहनी - इतिहास को व्याख्यापित करता मानवीय चेहरा। :
-वीर विनोद छाबड़ा 

०८ अगस्त २०१५. इसी दिन सौ वर्ष पूर्व प्रख्यात कथाकार, नाट्य लेखक और अभिनेता दिवंगत भीष्म साहनी का जन्म हुआ था। इस सिलसिले में इप्टा के तत्वाधान में लखनऊ में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ - महत्व भीष्म साहनी।
अध्यक्षता दूरदर्शन के पूर्व निदेशक और नाट्य लेखन से जुड़े और भीष्म साहनी के करीबी रहे विख्यात लेखक विलायत जाफ़री ने की।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश ने याद करते हुए बताया कि भीष्म १५ अगस्त १९४७ को बड़े उत्साह से रावलपिंडी से दिल्ली आये लालकिले पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को तिरंगा फहराते देखने और उन्हें सुनने। लेकिन विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न भीषण दंगों के रहते लौट नहीं पाये। उनका परिवार ही विभाजित हो। १९७० में जब महाराष्ट्र के भिवंडी सांप्रदायिक दंगो की विभीषिका को भीष्म ने बड़े करीब से देखा तो उनकी प्रतिक्रिया थी - मैंने ये सब पहले भी देखा है। विभाजन के ज़ख्म हरे हो गए। इसकी परिणीति हुई ऐतिहासिक 'तमस' की रचना के रूप में। गोविंद निहलानी ने टीवी फ़िल्म भी बनाई।उनकी संघटन क्षमता अद्भुत थी। पूर्णतया समर्पित। उनकी कहानियों के पात्र निर्धन और निर्भीक मिलते हैं।
सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव को भीष्म साहनी में एक बहुआयामी और विरल व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। 'तमस' और भीष्म साहनी एक-दूसरे का पर्याय हैं। विभाजन पर हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में कई दस्तावेज़ी उपन्यास और कहानियां लिखी गयीं हैं लेकिन 'तमस' उपन्यास उन सब में अलग दिखता है। यह उस उस दौर के क्रूर पहलू को उजागर करता है कि उपनिवेशवादी शक्तियां समाज को बांटने और स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के लिए के सांप्रदायिकता का इस्तेमाल करती थीं। विभाजन की भयावहता आज भी मंडरा रही है। इसी को भीष्म ने भिवंडी के दंगों में देखा। वो सिर्फ लेखक नहीं थे। फ्रीडम फाईटर भी थे। उन्होंने पीड़ितों की वेदनाओं को सुना और दर्ज किया। सैकड़ों सफ़े भर गए। 'तमस' में उन्होंने इन सबका ज़िक्र करते हुए उस क्षेत्र की मिली-जुली संस्कृति को भी व्याख्यापित किया। उन्होंने 'तमस' में विभाजन की त्रासदी को सांप्रदायिकता की दृष्टि से नहीं देखा। उनके हिंदू-मुस्लिम पात्र एक-दूसरे की मदद करते हुए नज़र आते हैं। सांप्रदायिकता और विभाजनकारी शक्तियों से लड़ते हुए और मरते हुए दिखते हैं। इन घटनाओं को उन्होंने विश्वसनीय बना कर पेश किया। यह बात दूसरी है कि सांप्रदायिक शक्तियां असरदार हो गयीं। आज के समय की सांप्रदायिकता और बहुसंख्यकवाद के खतरे को समझने के लिए 'तमस. एक ज़रूरी पठनीय कथाकृति है।
युवा लेखन नलिन रंजन सिंह ने भीष्म के महत्व को उनकी कहानियां के कथानक और पात्रों में तलाश किया। 'अमृतसर आ गया' से विभाजन के दौर का पता चलता है। यह उस वक़्त की याद दिलाता है जब भीष्म आजादी का जश्न देखने रावलपिंडी से दिल्ली जा रहे होते हैं। मुस्लिम इलाकों से गुज़रते हुए डर लगना और अमृतसर आते-आते राहत की सांस का मिलना। 'चीफ़ की दावत' में मध्यवर्गीय पारिवारिक ढांचे और आडंबरों की बात करते हुए एक वृद्ध मां की मनोस्थिति का दर्शन। उस पर तंज करना। 'गंगो का दाया' में घर का खर्च चलाने के लिए छह साल का बच्चा काम पर निकलता है। वो लौट कर नहीं आता। ऐसी दुःख की घड़ी में भी पिता सोचता है अब तीन के जगह सिर्फ़ के दो के खाने का इंतज़ाम करना होगा। 'माता-विमाता' में संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। गरीब मां बच्चे का पालन-पोषण विमाता के ज़िम्मे डाल देती है। बच्चे के स्वस्थ होने पर माता उसे लेने आती है। विमाता में माता जाग उठती है। वो देने से मना करती है। लेकिन हक़ तो माता का है। बच्चा रोने लगता है। वो भूख से बिलख रहा है। माता विमाता को दूध पिलाते हुए देखती है। भीष्म की कहानियां पाठक को उस परिवेश से जोड़ देती हैं। समय को लेकर भी वो बड़े सजग रहे हैं। इसलिए भीष्म बड़े रचनाकार हैं।
वरिष्ठ कथाकार शकील सिद्दीकी ने भीष्म में शालीनता, विनम्रता और दूसरों की बात सुनने का धैर्य देखा। अपनी आलोचना को भी उन्होंने धैर्य से सुना। दूसरों को आगे आने का मौका दिया, दूसरों का दिल नहींदुखाया और खुद को कभी प्रचारित नहीं किया। प्रगतिशीलता उनके व्यक्तित्व की हिस्सा थी। जहां कहीं भी नाटक हुआ वो उससे जुड़ गए। उसकी हर गतिविधि का हिस्सा बने। दरी बिछाने से लेकर अख़बार में खबर बना कर उसे पहुंचाने तक का काम पूर्णतया समर्पित हो कर किया। प्रगतिशील लेखक आंदोलन का सर्वाधिक व्यापक प्रचार और प्रसार भीष्म के राष्ट्रीय महासचिव काल में ही हुआ। भीष्म का व्यक्तित्व इतना विशाल था कि उनके समय में प्रगतिशील लेखक आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी का हस्तक्षेप न्यूनतम रहा। उनका कथन था कि अच्छा लेखक किसी विचारधारा से प्रभावित होकर नहीं बनता, अपनी मेघा से बनता है।
युवा लेखक सूर्य बहादुर थापा ने भीष्म को उनके नाटकों के ज़रिये याद किया। भीष्म ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से लिखा लेकिन जो देखा उसे मार्क्सवादी खांचे में नहीं रखा। वो देखते हैं, आत्मसात करते हैं और फिर रचते हैं। समाज की पीड़ा और वेदना को प्राथमिकता दी। 'हानूश' का पात्र जनता को नया जीवन देने के लिए एक घड़ी का अविष्कार करने में सत्रह साल लगाता है। आर्थिक परेशानियों से जूझती उसकी पत्नी उसे कोसती है - यह कैसा आदमी है। जो दो वक़्त की रोटी नहीं कम सकता वो अविष्कार क्या करेगा? लेकिन वो दिल से उसके पीछे है। जब घड़ी का अविष्कार हो गया तो हानुश कहता है कि तुम जैसी स्त्री साथ न होती तो यह अविष्कार मुमकिन नहीं था। इस अविष्कार का ईनाम भी मिला। हानुश की आंखें निकाल दी गयीं ताकि वो दोबारा ऐसी घड़ी न बना सके। 'मुआवज़ा' भीष्म का दस्तावेज़ी नाटक है। यह उस काल में लिखा गया जब बाबरी मस्जिद का विध्वसं हो चुका था। यह दंगे की कहानी है। दंगे की पृष्ठभूमि में सफेदपोश, नेता, अफ़सर, व्यापारी, दलालों की मिली भगत और उसमें मारा जाता बेक़सूर आम आदमी। भीष्म ने इन सब पात्रों के अमानवीय चेहरे बेनकाब किये। भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का कच्चा चिट्ठा खोल दिया। 'माधवी' और 'कबीरा खड़ा बाज़ार में' में भीष्म नाटक लिखते हुए नहीं बल्कि अपना काम करते हुए दिखते हैं। लेखक की स्वीकार्यता तभी होती है जब जनता में उसे पढ़ा जाये। भीष्म जिस सहजता के साथ परिदृश्य पर छा जाते हैं वो अद्भुत है।
सुप्रसिद्ध अभिनेता और निर्देशक जुगल किशोर ने भीष्म साहनी के 'तमस' के अभिनेता भीष्म का ज़िक्र करते हुए कहते हैं भीष्म हरमिंदर सिंह के रूप में कोई पात्र नहीं और न ही अभिनेता हैं, बल्कि वो हरमिंदर को जी रहे नज़र आते हैं। सईद मिर्ज़ा ने 'मोहन जोशी हाज़िर हैं' में भीष्म का चयन इसलिए किया क्योंकि उनके चेहरे में उनको एक 'इतिहास' नज़र आया। भीष्म भीड़ में पात्र तलाशते हैं और फिर उसे गढ़ते हैं। भीष्म वो कलाकार हैं कि काम में इतना डूब जाते हैं कि अविलंब गंदे और बदबूदार पानी में पैंट ऊंची करके घुस जाते हैं और बड़ी सहजता से शॉट देकर चले आते हैं।
अंत में भीष्म और दूरदर्शन के नाट्य संसार से जुड़े और सभा के अध्यक्ष विलायत जाफ़री ने दिवंगत पंडित नेहरू को उद्धृत करते हुए बताया कि इंसान मर जाता है लेकिन किताबों में वो ज़िंदा रहता है। भीष्म भी हमेशा ज़िंदा रहेंगे। 'तमस' का असर इस मुल्क पर भी है और और उन पर भी रहेगा जिन पर और जिन के लिए लिखी गयी है। 'तमस' के टेलीकास्ट लेकर कई विवाद और टकराव हुए। सुप्रीम कोर्ट तक मामला गया। उस दिन याद है। रात आखिरी एपिसोड टेलीकास्ट होना था। माननीय जज ने उसे देखा और इज़ाज़त दे दी। कोई भी कृति ईमानदारी से बनी हो और अच्छी हो तो ज़रूर लोगों तक पहुंचती है।
और अंत में मैं। एक वक्ता के रूप में नहीं बल्कि अपने दिवंगत पिता के पुत्र के रूप में जिनके सौजन्य से मैंने भीष्म साहनी को देखा और पढ़ा ही नहीं छुआ भी। और उन्हें समझा भी। और मैं स्वयं को सौभाग्शाली समझाता हूं कि इप्टा ने मुझे आज उनके जन्मशती के प्रोग्राम की रपट लिखने का मौका दिया।
कार्यक्रम के बीच-बीच में भीष्म साहनी और कृतियों से संबंधित कुछ वीडियो क्लिपिंग भी दिखाई गयी।
सभा में सुभाष राय, केके चतुर्वेदी, राजबली माथुर, अनिल वत्स, ऋषि श्रीवास्तव, कौशल किशोर, उर्मिल कुमार थपलियाल आदि अनेक गणमान्य लोग भी उपस्थित थे।
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०९-०८-२०१५

https://www.facebook.com/virvinod.chhabra/posts/1664213497145606?pnref=story 



तीनों फोटो वीर विनोद छाबड़ा जी के सौजन्य से 
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आज साँय क़ैसर बाग स्थित राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह के जयशंकर प्रसाद सभागार में IPTA द्वारा 'महत्व  भीष्म साहनी ' विषयक एक गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता विलायत जाफरी साहब ने की व संचालन राकेश जी ने किया। मंचस्थ विद्वत जनों में वीरेंद्र यादव, शकील सिद्दीकी, नलिन रंजन सिंह, सूर्य बहादुर थापा थे। अन्य गण मान्य लोगों के अलावा सुभाष राय ( प्रधान संपादक- जन संदेश ), प्रदीप घोष, मुख्तार, ओ पी अवस्थी, रूप रेखा वर्मा, वीर विनोद छाबड़ा, कौशल किशोर, के के चतुर्वेदी आदि की उपस्थिती भी विशेष उल्लेखनीय है।

राकेश जी ने प्रारम्भ में भीष्म साहनी जी पर एक लघु वृत्त चित्र के माध्यम से विभाजन की त्रासदी और 'तमस' पर उनके विचारों का अवलोकन कराते हुये प्रकाश डाला। 08 अगस्त 1915 को  रावलपिंडी में जन्में भीष्म साहनी जी का यह शताब्दी वर्ष है और पूरे वर्ष उनकी कृतियों व साहित्य पर आधारित कार्यक्रमों का आयोजन करके उनकी यादगार मनाए जाने का ऐलान राकेश जी द्वारा किया गया।
 वीरेंद्र यादव जी ने 'तमस' की रचना से संबन्धित घटनाक्रमों का उल्लेख करते हुये बताया कि 1947 के विभाजन के समय के दंगों के बाद 1970 में भिवंडी में हुये व्यापक दंगों का इस पर प्रभाव पड़ा है। 1974-75 तक यह उपन्यास पूर्ण हुआ और 1987 में गोविंद निहलानी ने इस पर इसी नाम से एक टी वी सीरियल बनाया जिसमे एक पात्र की भूमिका का अभिनय खुद भीष्म साहनी जी ने ही किया है।
नलिन रंजन सिंह जी ने भीष्म जी की चुनिन्दा कहानियों का ज़िक्र किया जिसमें 'मुआवजे' को उन्होने तमस के बाद के प्रभाव को समाहित किए जाने की ओर इंगित किया। शकील सिद्दीकी साहब ने भीष्म जी के सांगठनिक कौशल पर प्रकाश डालते हुये बताया कि IPTA से तो वह रावलपिंडी में रहते हुये 1943 में इसकी स्थापना के समय से ही जुड़े हुये थे। 1975 में 'गया' में सम्पन्न 'प्रलेस' के अधिवेन्शन में उनको इसका राष्ट्रीय महासचिव चुना गया जिस पद पर वह 1986 तक लगातार बने रहे। उनकी विशेष खासियत छोटे से छोटे कार्यकर्ता को भी महत्व देने व आलोचकों की बातों को भी धैर्य से सुनने की थी।
सूर्य बहादुर थापा जी ने भीष्म जी के लिखे नाटकों की व्यापक चर्चा करते हुये 'हानुष' की विशेषता पर प्रकाश डाला। इसके मुख्य पात्र हानुष और उसकी पत्नी के सहयोग की भी चर्चा उन्होने की। जबकि जुगल किशोर जी ने भीष्म जी के 'अभिनय' पक्ष पर प्रकाश डाला। उन्होने बताया कि बंबई की एक चाल के पास गंदे पानी में भी खड़े रह कर उन्होने फिल्म का शाट बे हिचक दे दिया और कोई शिकवा भी न किया।
अपने अध्यक्षीय भाषण में विलायत जाफरी साहब ने अपने दूरदर्शन के कार्यकाल में 'तमस' के प्रसारण से संबन्धित घटनाक्रम का उल्लेख करते हुये बताया कि तत्कालीन  डायरेक्टर भास्कर घोष साहब ने  इसके प्रसारण के बाद होने वाली किसी भी स्थिति की ज़िम्मेदारी उन पर डालते हुये अनुमति दे दी थी। जब इसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका प्रस्तुत हुई तब संबन्धित जज साहब ने उनको अपने चैंबर में बुलाकर अंतिम कड़ी के प्रसारण की तारीख का पता किया और फिर खुद देखने के बाद फैसला देने की बात कही। जब जज साहब ने तमस को देखा तब तक प्रसारण समाप्त हो चुका था अतः प्रसारण पर रोक लगाने की बात ही खत्म हो गई थी। जाफरी साहब का कहना था कि हर समय अच्छे लोग भी रहते हैं और उनके कारण अच्छी बातों के पूरा होने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती है। धन्यवाद ज्ञापन ज्ञान शुक्ला जी ने किया। 
------ विजय राजबली माथुर 
08-08-2015 
 https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/922170021178308?pnref=story

Wednesday 5 August 2015

यह सरकार जनता की जीविका और देश की सम्पदा की लूट को सुनिष्चित करने के लिए ही ------Drag Chandra Prajapati



जनता को मूर्ख बनाने का मिथ्या अभियान:
कुल मिलाकर झूंठे प्रचार में हिटलर के प्रचारमंत्री गोयबल्स को भी पछाड़ते हुए, सरकार मजदूरों पर इतने अमानवीय हमलों को भी उचित ठहराने के लिए मिथ्या प्रचार कर रही है। यह दावा किया जा रहा है कि श्रम कानूनों में संशोधन से पूँजी निवेश आकर्षित होगा और रोजगार का सृजन होगा। कुल मिलाकर कहा ये जा रहा है कि मजदूरों की छंटनी की पूरी छूट मालिकों को देने से वो अधिक रोजगार देने के लिए उत्साहित होंगे। प्राप्त सबूतों से जाहिर है कि यह कथन आधारहीन व औचित्य हीन है। वास्तविकता इसके ठीक उलट ही है। जैसा कि उल्लिखित है कि हमारे देश में श्रम कानूनों का क्रियान्वन कम, उल्लंघन अधिक हुआ है। इसके बावजूद भी पिछले तीन दशकों के दौरान रोजगार सृजन की वृद्धि दर न के बराबर ही रही है। वर्ष 2005-2010 के दौरान सकल घरेलू उत्पादन की वृद्धि दर औसतन 8.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही है। परन्तु रोजगार वृद्धि दर 2000-2005 के दौरान 2.7% से घटकर 2005-2010 के दौरान मात्र 0.7% ही रह गयी।
नवउदारवादी निजाम के तीन दशक लम्बे दौर में, संगठित क्षेत्र में मजदूरों की उत्पादकता में लगातार वृद्धि हुई है। लेकिन वास्तव में वेतन के रुप में उनकी हिस्सेदारी लगातार कम ही होती गयी है। इसके साथ ही साथ संगठित क्षेत्र में स्थायी रोजगार में भारी गिरावट दर्ज हुई है। असंगठित क्षेत्र में लगातार वृद्धि होती गयी है जो इस समय देश की कुल श्रम “शक्ति का 90 प्रतिशत हो गयी है। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि संगठित क्षेत्र के स्थायी मजदूरों के स्थान पर, ठेका मजदूरों व अस्थायी मजदूरों को रखा जा रहा है, जिनकी कार्य दशाऐं असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के समान ही हैं। इससे यह स्पष्ट है कि आर्थिक मंदी के दौर में भी उद्योगपतियों ने अपने मुनाफों को बनाए रखने के लिए श्रम मूल्य में भारी कटौती की है। देश के कुशल व नौजवान श्रम “शक्ति की बेरोजगारी का फायदा उठाते हुए अनौपचारिक कम वेतन के रोजगार का रास्ता अपनाया है।
लेकिन अधिकांश आम जनता में बढ़ती व गहराती गरीबी के चलते आर्थिक मन्दी और धीमेपन को व्यवस्थित करने की सीमाऐं हैं। पूरे देश में कम वेतन के बावजूद भी विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि दर में लगातार गिरावट दर्ज होते हुए पिछले वित्तीय वर्ष की अन्तिम तिमाही में नकारात्मक स्तर पर पहुँच गयी। इससे काल्पनिक दुष्प्रचार की पोल खुल जाती है कि मनमर्जी से ‘नौकरी पर रखो और निकालो’ की व्यवस्था और श्रमिकों के दमन से रोजगार में वृद्धि हो जाएगी।
यह एक वास्तविकता है। न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनियाँ में यही हालत है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार रोजगार के परिदृश्य में जिन देशों में श्रम कानूनों को अत्यधिक लचीला बनाया गया है, वहाँ रोजगार में कोई वृद्धि दर्ज नहीं हुई है। उसके बाद भी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने लगातार नजर रखने के बाद भी यही पाया है। इस प्रकार के मिथ्या प्रचार से, श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी एवं मालिकान समर्थक संशोधनों के बारे में झूंठा प्रचार, सरकार की देशी-विदेशी कॉरपोरेटस्@बड़े व्यापारिक घरानों की अन्धी पक्षधरता का पूरा ही खुलासा कर देता है।
यह एक सच्चाई है कि मजदूर वर्ग पर ये घातक हमले और उन पर कॉरपोरेटस् गुलामी थोपना, आर्थिक संकट में आकंठ डूबी सम्पूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था के गहराते संकट से निकलने का प्रयास ही है। केन्द्र में बैठी दक्षिणपंथी सरकार देशी-विदेशी कॉरपोरेटस् की चाण्डाल चौकड़ी की समर्थक है। यह सरकार जनता की जीविका और देश की सम्पदा की लूट को सुनिष्चित करने के लिए ही, मजदूरों की जीविका और अधिकारों पर घातक हमले करके, मजदूर वर्ग के आन्दोलन को कमजोर करने पर उतारु है। श्रम कानूनों में मालिकान समर्थक जिन संशोधनों को पिछले 60 वर्षों में करना संभव न हो सका वह नरेन्द्र मोदी सरकार ने एक वर्ष में ही कर डाला है। जनता और देश के खिलाफ बेलगाम साजिशें करने के लिए ही मजदूर आन्दोलन को निशाना बनाया गया है।

साभार :
https://www.facebook.com/groups/cpibihar/permalink/1099623373400879/