Tuesday 31 December 2013

नगर काउंसिल,लखनऊ का गठन- भाकपा के बढ़ते कदम:---विजय राजबली माथुर


 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, ज़िला काउंसिल,लखनऊ के निर्णयानुसार 30 दिसंबर 2013 को  श्री जगदेव यादव की अध्यक्षता में दाऊद नगर चौराहा फैजुल्ला गंज पर पार्टी कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन एवं जनसभा सम्पन्न हुई। भारी संख्या मे लोग इकट्ठा हुए,सभा को सर्वप्रथम कामरेड परमानंद दिवेदी ने अपने सम्बोधन में कहा कि आज समय आ गया है, जब हम सब को मिल कर एक हो कर- गरीब मजदूर,किसान मेहनतकश लोगों को इन भ्रष्टाचारियों को किनारे करना होगा। नौजवान सभा के अध्यक्ष कामरेड मो. अकरम ने कहा कि बेरोजगार नौजवानों को सरकार ने रोजगार देने का कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया उस दिशा में शीघ्र संघर्ष किया जाएगा।सभा को संबोधित करने वालों मे सच्चिदानंद,अशोक रावत,मो. शरीफ  आदि भी थे सभा का संचालन कामरेड महेंद्र रावत ने किया।
कामरेड विजय माथुर ने क्षेत्र की जनता को भाकपा के गठन का संक्षिप्त इतिहास बताया कि किस प्रकार 1857 की क्रांति के परस्पर फूट के चलते विफल हो जाने के बाद क्रांतिकारी लोग छिट-पुट अङ्ग्रेज़ी सत्ता से संघर्ष करते रहे थे। इन लोगों को संगठित करके स्वामी दयानंद सरस्वती (जो स्वंय 1857 की क्रांति में भाग ले चुके थे और रानी लक्ष्मी बाई के संपर्क मे भी रहे थे) ने 07 अप्रैल 1875 ई (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा-नव-संवत्सर दिवस)पर 'आर्यसमाज' का गठन करके सबसे पहले स्वराज्य का उद्घोष किया था। आर्यसमाज की शाखाएँ ब्रिटिश छावनी वाले नगरों में सबसे पहले खोली गईं थीं।  ब्रिटिश सरकार स्वामी दयानन्द को 'क्रांतिकारी सन्यासी'-REVOLUTIONARY SAINT कहती थी। आर्यसमाज के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए  गवर्नर जनरल लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से रिटायर्ड़ ICS एलेन आक्टावियन(A.O.)हयूम ने वोमेश चंद्र (W.C.) बनर्जी की अध्यक्षता में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करवाई थी जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के सेफ़्टी वाल्व के रूप में काम करना था।दादा भाई नैरोजी आदि नेता खुद को नस-नस में राजभक्त बताते थे। अतः स्वामी दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गए और उसे स्वतन्त्रता संघर्ष की ओर मोड़ दिया। डॉ पट्टाभि सीतारमईय्याने 'कांग्रेस का इतिहास' पुस्तक में लिखा है कि गांधी जी के 'सत्याग्रह'आंदोलन में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। इस स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिक आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया जिसके विरुद्ध सारे देश में जोरदार आंदोलन चला और हालांकि इस विभाजन को रद्द भी करना पड़ा किन्तु ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को आगे करके 1906 में मुस्लिम लीग,1916 में मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय को आगे करके हिन्दू महासभा,1925 में वीर सावरकर और हेद्गेवार को आगे करके RSS की स्थापना ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिक आधार पर देश की जनता को विभाजित करके अपनी सत्ता मजबूती के लिए करवाई थी।

क्रांतिकारी आर्यसमाजियों ने 1924 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना विदेश में की थी । 1925 में कानपुर में मौलाना  हसरत मोहानी की अध्यक्षता में एक सम्मेलन 25 दिसंबर को बुलाया गया था। उस सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष थे गणेश शंकर विद्यार्थी। 26 दिसंबर को विधिवत प्रस्ताव पास करके 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की घोषणा कर दी गई। ब्रिटिश सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था इसलिए इसके कुछ कार्यकर्ता तो गांधी जी के असहयोग आंदोलन में शामिल रहे किन्तु कुछ क्रांतिकारी कार्यकर्ता सरदार भगत सिंह,चंद्र शेखर आज़ाद,रामप्रसाद बिस्मिल,अशफाक़ उल्ला खाँ,बटुकेश्वर दत्त आदि के नेतृत्व में क्रांतिकारी संघर्ष करते रहे। 

1947 में देश को सांप्रदायिक/साम्राज्यवादी आधार पर विभाजित करके पाकिस्तान की संरचना ब्रिटिश सरकार ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर की थी। अमेरिका हमेशा पाकिस्तान की समप्रभुत्ता का उल्लंघन करता रहा है और अब हमारी बानिज्य राजनयिक देवयानी खोबरागड़े को गिरफ्तार व अपमानित करके भारत की  सम्प्रभुत्ता को भी चुनौती दे रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिकापरस्ती बेनकाब होने के बाद पहले मोदी को आगे किया गया था किन्तु उन पर सांप्रदायिक नर-संहार का ठप्पा लगा होने के कारण 'आप' व केजरीवाल को अमेरिकी साम्राज्यवाद की रक्षा के लिए आगे लाया गया है। अतः कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं एवं क्षेत्र की जनता को आगामी लोकसभा चुनावों में इस खतरे को ध्यान में रख कर ही मतदान  में भाग लेना चाहिए। 

मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुये जिलामंत्री कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ ने क्षेत्रीय जनता को झकझोरते हुये कहा कि देवी दुर्गा का झण्डा भी लाल है, हनुमान का झण्डा भी लाल है और हमारी कम्युनिस्ट पार्टी का झण्डा भी लाल है। जिस प्रकार दुर्गा व हनुमान ने दुष्टों का नाश किया था उसी प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी भी किसानों/मजदूरों का शोषण करने वाले दुष्टों का नाश करने के लिए संघर्ष करती है। अतः लोगों को अपनी कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत करने के लिए इसमें शामिल होना चाहिए। कामरेड ख़ालिक़ ने यह भी कहा कि जनता को ईमानदार भी बनना पड़ेगा और अपने वोट को जाति,धर्म,संप्रदाय के आधार पर बिकने नहीं देना होगा तभी कम्युनिस्ट पार्टी चुनावों में सफल हो सकेगी और विधायिका से जनता के हक़ के कानून पास करा सकेगी। कामरेड ख़ालिक़ ने लोगों से अपील की कि वे महिलाओं को भी आगे लाएँ क्योंकि महिलाओं की भागीदारी के बिना कोई भी संघर्ष सफल नहीं हो सकता है। उन्होने रानी लक्ष्मीबाई,दुर्गा भाभी का ज़िक्र करते हुये महिलाओं के बलिदान की सराहना की। 

कामरेड ख़ालिक़ ने भी जनता को आगाह करते हुये समझाया कि कांग्रेस सरकार तो अमेरिका के इशारे पर जनता की लूट कर ही रही है उसके विकल्प के रूप में पहले अमेरिका ने मोदी को बढ़ाया था लेकिन मोदी को सफल होते न देख कर अमेरिकी साम्राज्यवाद और कारपोरेट घरानों ने केजरी वाल को आगे बढ़ा दिया है। उन्होने बताया कि तीन साल पहले उनकी अध्यक्षता में सम्पन्न हुई एक घोष्ठी में बोलने केजरीवाल भी आए थे तब उनको कोई जानता भी न था और आज वह दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए हैं। कैसे?उन्होने कहा कि हमारी कम्युनिस्ट पार्टी को एक रुपया भी चन्दा न देने वाले कारपोरेट घरानों ने केजरीवाल को एक ही दिन में बीस करोड़ रुपया जुटा दिया  और उनको और अधिक चन्दा लेने से मना करना पड़ा। कामरेड ख़ालिक़ ने जनता को समझाया कि जिनका रुपया लेकर केजरीवाल नेता बने हैं उनको ही लाभ पहुंचाएंगे,आम जनता को नहीं। जनता को अपनी कम्युनिस्ट पार्टी का साथ देना चाहिए और किसी के भी बहकावे में भटकना नहीं चाहिए।

कामरेड ख़ालिक़ ने बताया कि कोर्ट के आदेशों के विपरीत बिजली विभाग किसानों व गरीब बस्तियों में रहने वाले मजदूरों का शोषण-उत्पीड़न कर रहा है जिसके विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्होने महिलाओं से भी आगे आने का निवेदन व आह्वान किया।उन्होने घोषणा की कि कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य कौंसिल के निर्णय के अनुसार आज से 10 जनवरी 2014 तक बिजली की दरों में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी और तत्काल लागू करने के खिलाफ जन जागरण अभियान किया जाएगा और दिनांक 11 जनवरी 2014 को गांधी प्रतिमा हजरतगंज में धरना दिया जाएगा जिसमें क्षेत्रीय नागरिक भी बढ़-चढ़ कर भाग लेंगे।

 सभा के अंत में नगर कौंसिल का चुनाव किया गया जिसमें कामरेड  राजपाल यादव को नगर मंत्री, भाकपा लखनऊ तथा  कामरेड बलवंत लोधी व  कामरेड राम चंदर को सह सचिव चुना गया। अन्य 15 लोगों की नगर कौंसिल चुनी गयी। नगर कौंसिल भाकपा के पैनल में पर्यवेक्षक ऐनूद्दीन व संयोजक अशोक रावत का  मार्ग दर्शन रहा।

Monday 30 December 2013

कैसे और क्‍यों बनाया अमेरिका ने अरविंद केजरीवाल को--- संदीप देव(आधी आबादी डाट काम )

कैसे और क्‍यों बनाया अमेरिका ने अरविंद केजरीवाल को, 

प्रस्तुत  अंश आधी आबादी डाट काम में प्रकाशित संदीप देव, नई दिल्‍ली के लेख से साभार  :

 कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली एनजीओ  गिरोह ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी)’ ने घोर सांप्रदायिक ‘सांप्रदायिक और लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम’ का ड्राफ्ट तैयार किया है। एनएसी की एक प्रमुख सदस्य अरुणा राय के साथ मिलकर अरविंद केजरीवाल ने सरकारी नौकरी में रहते हुए एनजीओ की कार्यप्रणाली समझी और फिर ‘परिवर्तन’ नामक एनजीओ से जुड़ गए। अरविंद लंबे अरसे तक राजस्व विभाग से छुटटी लेकर भी सरकारी तनख्वाह ले रहे थे और एनजीओ से भी वेतन उठा रहे थे, जो ‘श्रीमान ईमानदार’ को कानूनन भ्रष्‍टाचारी की श्रेणी में रखता है। वर्ष 2006 में ‘परिवर्तन’ में काम करने के दौरान ही उन्हें अमेरिकी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ ने 'उभरते नेतृत्व' के लिए ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार दिया, जबकि उस वक्त तक अरविंद ने ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिसे उभरते हुए नेतृत्व का प्रतीक माना जा सके।  इसके बाद अरविंद अपने पुराने सहयोगी मनीष सिसोदिया के एनजीओ ‘कबीर’ से जुड़ गए, जिसका गठन इन दोनों ने मिलकर वर्ष 2005 में किया था। 

अरविंद को समझने से पहले ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को समझ लीजिए!
अमेरिकी नीतियों को पूरी दुनिया में लागू कराने के लिए अमेरिकी खुफिया ब्यूरो  ‘सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए)’ अमेरिका की मशहूर कार निर्माता कंपनी ‘फोर्ड’ द्वारा संचालित ‘फोर्ड फाउंडेशन’ एवं कई अन्य फंडिंग एजेंसी के साथ मिलकर काम करती रही है। 1953 में फिलिपिंस की पूरी राजनीति व चुनाव को सीआईए ने अपने कब्जे में ले लिया था। भारतीय अरविंद केजरीवाल की ही तरह सीआईए ने उस वक्त फिलिपिंस में ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को खड़ा किया था और उन्हें फिलिपिंस का राष्ट्रपति बनवा दिया था। अरविंद केजरीवाल की ही तरह ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ का भी पूर्व का कोई राजनैतिक इतिहास नहीं था। ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के जरिए फिलिपिंस की राजनीति को पूरी तरह से अपने कब्जे में करने के लिए अमेरिका ने उस जमाने में प्रचार के जरिए उनका राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘छवि निर्माण’ से लेकर उन्हें ‘नॉसियोनालिस्टा पार्टी’ का  उम्मीदवार बनाने और चुनाव जिताने के लिए करीब 5 मिलियन डॉलर खर्च किया था। तत्कालीन सीआईए प्रमुख एलन डॉउल्स की निगरानी में इस पूरी योजना को उस समय के सीआईए अधिकारी ‘एडवर्ड लैंडस्ले’ ने अंजाम दिया था। इसकी पुष्टि 1972 में एडवर्ड लैंडस्ले द्वारा दिए गए एक साक्षात्कार में हुई।
ठीक अरविंद केजरीवाल की ही तरह रेमॉन मेग्सेसाय की ईमानदार छवि को गढ़ा गया और ‘डर्टी ट्रिक्स’ के जरिए विरोधी नेता और फिलिपिंस के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘क्वायरिनो’ की छवि धूमिल की गई। यह प्रचारित किया गया कि क्वायरिनो भाषण देने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ड्रग का उपयोग करते हैं। रेमॉन मेग्सेसाय की ‘गढ़ी गई ईमानदार छवि’ और क्वायरिनो की ‘कुप्रचारित पतित छवि’ ने रेमॉन मेग्सेसाय को दो तिहाई बहुमत से जीत दिला दी और अमेरिका अपने मकसद में कामयाब रहा था। भारत में इस समय अरविंद केजरीवाल बनाम अन्य राजनीतिज्ञों की बीच अंतर दर्शाने के लिए छवि गढ़ने का जो प्रचारित खेल चल रहा है वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा अपनाए गए तरीके और प्रचार से बहुत कुछ मेल खाता है।
उन्हीं ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के नाम पर एशिया में अमेरिकी नीतियों के पक्ष में माहौल बनाने वालों, वॉलेंटियर तैयार करने वालों, अपने देश की नीतियों को अमेरिकी हित में प्रभावित करने वालों, भ्रष्‍टाचार के नाम पर देश की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने वालों को ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ मिलकर अप्रैल 1957 से ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ अवार्ड प्रदान कर रही है। ‘आम आदमी पार्टी’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल और उनके साथी व ‘आम आदमी पार्टी’ के विधायक मनीष सिसोदिया को भी वही ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार मिला है और सीआईए के लिए फंडिंग करने वाली उसी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड से उनका एनजीओ ‘कबीर’ और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मूवमेंट खड़ा हुआ है।

भारत में राजनैतिक अस्थिरता के लिए एनजीओ और मीडिया में विदेशी फंडिंग!
‘फोर्ड फाउंडेशन’ के एक अधिकारी स्टीवन सॉलनिक के मुताबिक ‘‘कबीर को फोर्ड फाउंडेशन की ओर से वर्ष 2005 में 1 लाख 72 हजार डॉलर एवं वर्ष 2008 में 1 लाख 97 हजार अमेरिकी डॉलर का फंड दिया गया।’’ यही नहीं, ‘कबीर’ को ‘डच दूतावास’ से भी मोटी रकम फंड के रूप में मिली। अमेरिका के साथ मिलकर नीदरलैंड भी अपने दूतावासों के जरिए दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में अमेरिकी-यूरोपीय हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए वहां की गैर सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ को जबरदस्त फंडिंग करती है।
अंग्रेजी अखबार ‘पॉयनियर’ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक डच यानी नीदरलैंड दूतावास अपनी ही एक एनजीओ ‘हिवोस’ के जरिए नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार को अस्थिर करने में लगे विभिन्‍न भारतीय एनजीओ को अप्रैल 2008 से 2012 के बीच लगभग 13 लाख यूरो, मतलब करीब सवा नौ करोड़ रुपए की फंडिंग कर चुकी है।  इसमें एक अरविंद केजरीवाल का एनजीओ भी शामिल है। ‘हिवोस’ को फोर्ड फाउंडेशन भी फंडिंग करती है।
डच एनजीओ ‘हिवोस’  दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में केवल उन्हीं एनजीओ को फंडिंग करती है,जो अपने देश व वहां के राज्यों में अमेरिका व यूरोप के हित में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की क्षमता को साबित करते हैं।  इसके लिए मीडिया हाउस को भी जबरदस्त फंडिंग की जाती है। एशियाई देशों की मीडिया को फंडिंग करने के लिए अमेरिका व यूरोपीय देशों ने ‘पनोस’ नामक संस्था का गठन कर रखा है। दक्षिण एशिया में इस समय ‘पनोस’ के करीब आधा दर्जन कार्यालय काम कर रहे हैं। 'पनोस' में भी फोर्ड फाउंडेशन का पैसा आता है। माना जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल के मीडिया उभार के पीछे इसी ‘पनोस' के जरिए 'फोर्ड फाउंडेशन' की फंडिंग काम कर रही है। ‘सीएनएन-आईबीएन’ व ‘आईबीएन-7’ चैनल के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई ‘पॉपुलेशन काउंसिल’ नामक संस्था के सदस्य हैं, जिसकी फंडिंग अमेरिका की वही ‘रॉकफेलर ब्रदर्स’ करती है जो ‘रेमॉन मेग्सेसाय’  पुरस्कार के लिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के साथ मिलकर फंडिंग करती है।
माना जा रहा है कि ‘पनोस’ और ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ की फंडिंग का ही यह कमाल है कि राजदीप सरदेसाई का अंग्रेजी चैनल ‘सीएनएन-आईबीएन’ व हिंदी चैनल ‘आईबीएन-7’ न केवल अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ने’ में सबसे आगे रहे हैं, बल्कि 21 दिसंबर 2013 को ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ का पुरस्कार भी उसे प्रदान किया है। ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ के पुरस्कार की प्रयोजक कंपनी ‘जीएमआर’ भ्रष्‍टाचार में में घिरी है।
‘जीएमआर’ के स्वामित्व वाली ‘डायल’ कंपनी ने देश की राजधानी दिल्ली में इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा विकसित करने के लिए यूपीए सरकार से महज 100 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन हासिल किया है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ‘सीएजी’  ने 17 अगस्त 2012 को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जीएमआर को सस्ते दर पर दी गई जमीन के कारण सरकारी खजाने को 1 लाख 63 हजार करोड़ रुपए का चूना लगा है। इतना ही नहीं, रिश्वत देकर अवैध तरीके से ठेका हासिल करने के कारण ही मालदीव सरकार ने अपने देश में निर्मित हो रहे माले हवाई अड्डा का ठेका जीएमआर से छीन लिया था। सिंगापुर की अदालत ने जीएमआर कंपनी को भ्रष्‍टाचार में शामिल होने का दोषी करार दिया था। तात्पर्य यह है कि अमेरिकी-यूरोपीय फंड, भारतीय मीडिया और यहां यूपीए सरकार के साथ घोटाले में साझीदार कारपोरेट कंपनियों ने मिलकर अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ा’ है, जिसका मकसद आगे पढ़ने पर आपको पता चलेगा।
‘जनलोकपाल आंदोलन’ से ‘आम आदमी पार्टी’ तक का शातिर सफर!
आरोप है कि विदेशी पुरस्कार और फंडिंग हासिल करने के बाद अमेरिकी हित में अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया ने इस देश को अस्थिर करने के लिए ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का नारा देते हुए वर्ष 2011 में ‘जनलोकपाल आंदोलन’ की रूप रेखा खिंची।  इसके लिए सबसे पहले बाबा रामदेव का उपयोग किया गया, लेकिन रामदेव इन सभी की मंशाओं को थोड़ा-थोड़ा समझ गए थे। स्वामी रामदेव के मना करने पर उनके मंच का उपयोग करते हुए महाराष्ट्र के सीधे-साधे, लेकिन भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध कई मुहीम में सफलता हासिल करने वाले अन्ना हजारे को अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली से उत्तर भारत में ‘लॉंच’ कर दिया।  अन्ना हजारे को अरिवंद केजरीवाल की मंशा समझने में काफी वक्त लगा, लेकिन तब तक जनलोकपाल आंदोलन के बहाने अरविंद ‘कांग्रेस पार्टी व विदेशी फंडेड मीडिया’ के जरिए देश में प्रमुख चेहरा बन चुके थे। जनलोकपाल आंदोलन के दौरान जो मीडिया अन्ना-अन्ना की गाथा गा रही थी, ‘आम आदमी पार्टी’ के गठन के बाद वही मीडिया अन्ना को असफल साबित करने और अरविंद केजरीवाल के महिमा मंडन में जुट गई।
विदेशी फंडिंग तो अंदरूनी जानकारी है, लेकिन उस दौर से लेकर आज तक अरविंद केजरीवाल को प्रमोट करने वाली हर मीडिया संस्थान और पत्रकारों के चेहरे को गौर से देखिए। इनमें से अधिकांश वो हैं, जो कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के द्वारा अंजाम दिए गए 1 लाख 76 हजार करोड़ के 2जी स्पेक्ट्रम, 1 लाख 86 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक आवंटन, 70 हजार करोड़ के कॉमनवेल्थ गेम्स और 'कैश फॉर वोट' घोटाले में समान रूप से भागीदार हैं।
आगे बढ़ते हैं...! अन्ना जब अरविंद और मनीष सिसोदिया के पीछे की विदेशी फंडिंग और उनकी छुपी हुई मंशा से परिचित हुए तो वह अलग हो गए, लेकिन इसी अन्ना के कंधे पर पैर रखकर अरविंद अपनी ‘आम आदमी पार्टी’ खड़ा करने में सफल  रहे।  जनलोकपाल आंदोलन के पीछे ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड  को लेकर जब सवाल उठने लगा तो अरविंद-मनीष के आग्रह व न्यूयॉर्क स्थित अपने मुख्यालय के आदेश पर फोर्ड फाउंडेशन ने अपनी वेबसाइट से ‘कबीर’ व उसकी फंडिंग का पूरा ब्यौरा ही हटा दिया।  लेकिन उससे पहले अन्ना आंदोलन के दौरान 31 अगस्त 2011 में ही फोर्ड के प्रतिनिधि स्टीवेन सॉलनिक ने ‘बिजनस स्टैंडर’ अखबार में एक साक्षात्कार दिया था, जिसमें यह कबूल किया था कि फोर्ड फाउंडेशन ने ‘कबीर’ को दो बार में 3 लाख 69 हजार डॉलर की फंडिंग की है। स्टीवेन सॉलनिक के इस साक्षात्कार के कारण यह मामला पूरी तरह से दबने से बच गया और अरविंद का चेहरा कम संख्या में ही सही, लेकिन लोगों के सामने आ गया।
सूचना के मुताबिक अमेरिका की एक अन्य संस्था ‘आवाज’ की ओर से भी अरविंद केजरीवाल को जनलोकपाल आंदोलन के लिए फंड उपलब्ध कराया गया था और इसी ‘आवाज’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ को फंड उपलब्ध कराया। सीरिया, इजिप्ट, लीबिया आदि देश में सरकार को अस्थिर करने के लिए अमेरिका की इसी ‘आवाज’ संस्था ने वहां के एनजीओ, ट्रस्ट व बुद्धिजीवियों को जमकर फंडिंग की थी। इससे इस विवाद को बल मिलता है कि अमेरिका के हित में हर देश की पॉलिसी को प्रभावित करने के लिए अमेरिकी संस्था जिस ‘फंडिंग का खेल’ खेल खेलती आई हैं, भारत में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और ‘आम आदमी पार्टी’ उसी की देन हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील एम.एल.शर्मा ने अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया के एनजीओ व उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ में चुनावी चंदे के रूप में आए विदेशी फंडिंग की पूरी जांच के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल कर रखी है। अदालत ने इसकी जांच का निर्देश दे रखा है, लेकिन केंद्रीय गृहमंत्रालय इसकी जांच कराने के प्रति उदासीनता बरत रही है, जो केंद्र सरकार को संदेह के दायरे में खड़ा करता है। वकील एम.एल.शर्मा कहते हैं कि ‘फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-2010’ के मुताबिक विदेशी धन पाने के लिए भारत सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। यही नहीं, उस राशि को खर्च करने के लिए निर्धारित मानकों का पालन करना भी जरूरी है। कोई भी विदेशी देश चुनावी चंदे या फंड के जरिए भारत की संप्रभुता व राजनैतिक गतिविधियों को प्रभावित नहीं कर सके, इसलिए यह कानूनी प्रावधान किया गया था, लेकिन अरविंद केजरीवाल व उनकी टीम ने इसका पूरी तरह से उल्लंघन किया है। बाबा रामदेव के खिलाफ एक ही दिन में 80 से अधिक मुकदमे दर्ज करने वाली कांग्रेस सरकार की उदासीनता दर्शाती है कि अरविंद केजरीवाल को वह अपने राजनैतिक फायदे के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
अमेरिकी ‘कल्चरल कोल्ड वार’ के हथियार हैं अरविंद केजरीवाल!
फंडिंग के जरिए पूरी दुनिया में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की अमेरिका व उसकी खुफिया एजेंसी ‘सीआईए’ की नीति को ‘कल्चरल कोल्ड वार’ का नाम दिया गया है। इसमें किसी देश की राजनीति, संस्कृति  व उसके लोकतंत्र को अपने वित्त व पुरस्कार पोषित समूह, एनजीओ, ट्रस्ट, सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि, मीडिया और वामपंथी बुद्धिजीवियों के जरिए पूरी तरह से प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है। अरविंद केजरीवाल ने ‘सेक्यूलरिज्म’ के नाम पर इसकी पहली झलक अन्ना के मंच से ‘भारत माता’ की तस्वीर को हटाकर दे दिया था। चूंकि इस देश में भारत माता के अपमान को ‘सेक्यूलरिज्म का फैशनेबल बुर्का’ समझा जाता है, इसलिए वामपंथी बुद्धिजीवी व मीडिया बिरादरी इसे अरविंद केजरीवाल की धर्मनिरपेक्षता साबित करने में सफल रही।
एक बार जो धर्मनिरपेक्षता का गंदा खेल शुरू हुआ तो फिर चल निकला और ‘आम आदमी पार्टी’ के नेता प्रशांत भूषण ने तत्काल कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का सुझाव दे दिया। प्रशांत भूषण यहीं नहीं रुके, उन्होंने संसद हमले के मुख्य दोषी अफजल गुरु की फांसी का विरोध करते हुए यह तक कह दिया कि इससे भारत का असली चेहरा उजागर हो गया है। जैसे वह खुद भारत नहीं, बल्कि किसी दूसरे देश के नागरिक हों?
प्रशांत भूषण लगातार भारत विरोधी बयान देते चले गए और मीडिया व वामपंथी बुद्धिजीवी उनकी आम आदमी पार्टी को ‘क्रांतिकारी सेक्यूलर दल’ के रूप में प्रचारित करने लगी।  प्रशांत भूषण को हौसला मिला और उन्होंने केंद्र सरकार से कश्मीर में लागू एएफएसपीए कानून को हटाने की मांग करते हुए कह दिया कि सेना ने कश्मीरियों को इस कानून के जरिए दबा रखा है। इसके उलट हमारी सेना यह कह चुकी है कि यदि इस कानून को हटाया जाता है तो अलगाववादी कश्मीर में हावी हो जाएंगे।
अमेरिका का हित इसमें है कि कश्मीर अस्थिर रहे या पूरी तरह से पाकिस्तान के पाले में चला जाए ताकि अमेरिका यहां अपना सैन्य व निगरानी केंद्र स्थापित कर सके।  यहां से दक्षिण-पश्चिम व दक्षिण-पूर्वी एशिया व चीन पर नजर रखने में उसे आसानी होगी।  आम आदमी पार्टी के नेता  प्रशांत भूषण अपनी झूठी मानवाधिकारवादी छवि व वकालत के जरिए इसकी कोशिश पहले से ही करते रहे हैं और अब जब उनकी ‘अपनी राजनैतिक पार्टी’ हो गई है तो वह इसे राजनैतिक रूप से अंजाम देने में जुटे हैं। यह एक तरह से ‘लिटमस टेस्ट’ था, जिसके जरिए आम आदमी पार्टी ‘ईमानदारी’ और ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का ‘कॉकटेल’ तैयार कर रही थी।
8 दिसंबर 2013 को दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतने के बाद अपनी सरकार बनाने के लिए अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा आम जनता को अधिकार देने के नाम पर जनमत संग्रह का जो नाटक खेला गया, वह काफी हद तक इस ‘कॉकटेल’ का ही परीक्षण  है। सवाल उठने लगा है कि यदि देश में आम आदमी पार्टी की सरकार बन जाए और वह कश्मीर में जनमत संग्रह कराते हुए उसे पाकिस्तान के पक्ष में बता दे तो फिर क्या होगा?
आखिर जनमत संग्रह के नाम पर उनके ‘एसएमएस कैंपेन’ की पारदर्शिता ही कितनी है? अन्ना हजारे भी एसएमएस  कार्ड के नाम पर अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा की गई धोखाधड़ी का मामला उठा चुके हैं। दिल्ली के पटियाला हाउस अदालत में अन्ना व अरविंद को पक्षकार बनाते हुए एसएमएस  कार्ड के नाम पर 100 करोड़ के घोटाले का एक मुकदमा दर्ज है। इस पर अन्ना ने कहा, ‘‘मैं इससे दुखी हूं, क्योंकि मेरे नाम पर अरविंद के द्वारा किए गए इस कार्य का कुछ भी पता नहीं है और मुझे अदालत में घसीट दिया गया है, जो मेरे लिए बेहद शर्म की बात है।’’
प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और उनके ‘पंजीकृत आम आदमी’  ने जब देखा कि ‘भारत माता’ के अपमान व कश्मीर को भारत से अलग करने जैसे वक्तव्य पर ‘मीडिया-बुद्धिजीवी समर्थन का खेल’ शुरू हो चुका है तो उन्होंने अपनी ईमानदारी की चासनी में कांग्रेस के छद्म सेक्यूलरवाद को मिला लिया। उनके बयान देखिए, प्रशांत भूषण ने कहा, ‘इस देश में हिंदू आतंकवाद चरम पर है’, तो प्रशांत के सुर में सुर मिलाते हुए अरविंद ने कहा कि ‘बाटला हाउस एनकाउंटर फर्जी था और उसमें मारे गए मुस्लिम युवा निर्दोष थे।’ इससे दो कदम आगे बढ़ते हुए अरविंद केजरीवाल उत्तरप्रदेश के बरेली में दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार हो चुके तौकीर रजा और जामा मस्जिद के मौलाना इमाम बुखारी से मिलकर समर्थन देने की मांग की।
याद रखिए, यही इमाम बुखरी हैं, जो खुले आम दिल्ली पुलिस को चुनौती देते हुए कह चुके हैं कि ‘हां, मैं पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का एजेंट हूं, यदि हिम्मत है तो मुझे गिरफ्तार करके दिखाओ।’ उन पर कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, अदालत ने उन्हें भगोड़ा घोषित कर रखा है लेकिन दिल्ली पुलिस की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह जामा मस्जिद जाकर उन्हें गिरफ्तार कर सके।  वहीं तौकीर रजा का पुराना सांप्रदायिक इतिहास है। वह समय-समय पर कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के पक्ष में मुसलमानों के लिए फतवा जारी करते रहे हैं। इतना ही नहीं, वह मशहूर बंग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की हत्या करने वालों को ईनाम देने जैसा घोर अमानवीय फतवा भी जारी कर चुके हैं।

http://www.aadhiabadi.com/.../867-who-is-arvind-kejriwal

Sunday 29 December 2013

जो लोग भ्रम फैला रहे हैं उनका पर्दाफ़ाश करें---आनंद सिंह

https://www.facebook.com/notes/anand-singh/

'आम आदमी पार्टी' की चुनावी सफलता पर लट्टू हो रहे साथियों से दो बातें

December 26, 2013 at 9:28pm
'आम आदमी पार्टी' की हालिया चुनावी सफलता से भारतीय मध्‍य वर्ग के अच्‍छे-खासे हिस्‍से में एक नयी उम्‍मीद का संचार हो गया है। मजे की बात तो यह है कि दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों धाराओं की ओर झुकाव रखने वाले तमाम ढुलमुल लोगों को अन्‍तत: एक साफ-सुथरा नायक मिल गया है जिसके दामन पर कोई दाग़ भी नहीं है। प्रतिबद्ध दक्षिणपंथी तो अभी भी फासिस्‍ट मोदी के खून से सने दामन से ही चिपके हुए हैं लेकिन वे ढुलमुल दक्षिणपंथी जो मोदी के खून से रंगे हाथों को छिपाने में शर्म महसूस करते थे, उनके लिए केजरीवाल के रूप में उन्‍हें ऐसा नायक मिला है जो देशभक्ति की बातें भी करता है और जिसका नाम अब तक किसी क़त्‍ले-आम या भ्रष्‍टाचार में नहीं सामने आया है। लेकिन उससे भी मजे की बात तो यह है कि वामपंथियों के ढुलमुल धड़े को भी अन्‍तत: मौजूदा व्‍यवस्‍था में ही आम आदमी की बातें करने वाला और धर्मनिरपेक्षता की पैरोकारी करने वाला नायक मिल गया है जिसकी वजह से वे विचारधारा, जो उन्‍हे पहले ही बोझिल लगती थी, का परित्‍याग कर विचारधाराविहीन सा‍माजिक परिवर्तन का जश्‍न मनाने में तल्‍लीन हो गये हैं। ऐसे लोग इन दिनों भारतीय वामपंथी धारा को समाज में अपनी पैठ न बना पाने पर पानी पी-पी कर कोस रहे हैं और 'आम आदमी पार्टी' से सीखने की नसीहतें दे रहे हैं।

ऐसे तमाम ढुलमुल और अप्रतिबद्ध साथियों से मेरा आग्रह है कि वे मीडिया की 'हाइप' के आधार पर नायकों को चुनने की बजाय भारतीय समाज के इतिहास और मौजूदा परिस्थिति का संजीदगी से विश्‍लेषण करके ही कोई राय बनायें क्‍योंकि पूंजी के दम पर टिकी मीडिया के अस्तित्‍व की शर्त ही यही है कि वह आये दिन नायकों को निर्माण करे, पुराने नायक का ब्राण्‍ड जब घिस जाये तो नये नायक का ब्राण्‍ड सामने लाये। क्‍या आपको याद नहीं कि अभी ज्‍़यादा दिन नहीं हुए जब उप्र विधानसभा चुनाव के बाद अखिलेश यादव को मीडिया ने एक नायक की तरह उभारा था। उससे पहले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद पूरा मीडिया ममता बनर्जी के गुणगान में लगा था। अब ये ब्राण्‍ड पिट चुके हैं। पिछले कुछ महीनों से मोदी ब्राण्‍ड तमाम कॉरपोरेट संचालित मीडिया में जीवन संचार का काम कर रहा है इससे तो तो आप वाकिफ़ ही हैं। लेकिन इसी बीच 'आम आदमी पार्टी' की जीत के बाद उन्‍हें नायक का एक नया ब्राण्‍ड मिला है जिसमें एक बंबइया फिल्‍म के नायक में होने वाले गुण भी हैं और वह साफ सुथरी छवि का भी है जिसको समर्थन देने में धर्मनिरपेक्षता में यकीन रखने वाले (या फिर ऐसा दिखावा करने वाले) मध्‍यवर्ग को कोई दिक्‍कत नहीं होगी। इसलिए अब मार्केट में नायकों के दो तगड़े ब्रांड आ चुके हैं। और हमें इनमें से अपना नायक चुनने के लिए कहा जा रहा है।

शायद आप में से कुछ लोग यह कहेंगे कि आप मीडिया की 'हाइप' की वजह से नहीं बल्कि 'आम आदमी पार्टी' की ऐतिहासिक जीत की वजह से उसका समर्थन कर रहे हैं। चलिये देखते हैं कि इस पार्टी की जीत कितनी ऐतिहासिक है। यह जीत का निश्चित रूप से एक नई पार्टी के लिए यह एक बड़ी जीत है, परन्‍तु ऐसा भारतीय पूंजीवादी राजनीति के इतिहास में पहली बार तो नहीं हुआ है। अगर आज़ाद भारत के इतिहास पर एक सरसरी निगाह भर दौड़ा ली जाये तो हमें पता चलेगा कि जब जनता का भरोसा लूट-खसोट और भ्रष्‍टाचार पर टिकी इस पूंजीवादी व्‍यवस्‍था से उठने लगता है तब व्‍यवस्‍था के भीतर से ही व्‍यवस्‍था-परिवर्तन की बात करने वाले किस्‍म-किस्‍म के मदारी अपना चुनावी डमरू बजाते हुए कांग्रेस का विकल्‍प प्रस्‍तुत करने के नाम पर जनता को गुमराह करते हैं, उसे असली मुद्दों से भटकाते हैं और उसके गुस्‍से पर ठंडा पानी डालते हुए जनता को यकीन दिलाते हैं कि दिक्‍कत व्‍यवस्‍था में नहीं बल्कि एक पार्टी विशेष या नेता विशेष में है। अगर चुनावी जीत को ही ऐतिहासिकता का पैमाना बनाया जाय तो  'आम आदमी पार्टी' ने जो इतिहास रचा है उससे कहीं बड़े इतिहास इस देश में रचे जा चुके हैं। इस पैमाने से चलें तो जयप्रकाश नरायण, एनटी रामाराव, वीपीसिंह और यहां तक कि आडवाणी, लालू, मुलायम, मायावती सभी ने इतिहास रचा जो केजरीवाल की तुलना में कहीं बड़ा था। ऐसे इतिहासों से किस किस्‍म की व्‍यवस्‍था बनती है वह हम सबके सामने है।

शायद आपमें से कुछ लोग कहेंगे कि आप सिर्फ जीत से ही नहीं बल्कि 'आम आदमी पार्टी' की नीतियों की वजह से उसका समर्थन कर रहे हैं। चलिये इस पार्टी की नीतियों पर भी बात कर ली जाय। पिछले कुछ वर्षों में जो घपले-घोटाले सामने आये उनसे अब साफ़ जाहिर हो चुका है कि इस देश में विकास के नाम पर एक बेतहाशा लूट मची हुई है। बड़े-बड़े पूंजीपति घराने इस देश की अकूत प्राकृतिक सम्‍पदा और श्रमशक्ति का शोषण करके अपनी तिजोरियां भर रहे हैं और देश की आम मेहनकश जनता शोषण की चक्‍की मे पिसती हुई नरक जैसी जिन्‍दगी बिताने को मज़बूर है। ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण के मामले में भारत का रिकार्ड तमाम सब सहारन अफ्रीकी देशों से भी आगे है और वहीं दूसरी ओर धनकुबेरों की संख्‍या में भी  कीर्तिमान बनाये हैं।  इस घनघोर अन्‍याय का एक द्वितीयक पहलू यह भी है कि इस बेतहाशा लूट का एक छोटा सा टुकड़ा (जो 'आइसबर्ग के टिप' के समान है) पूंजीपति वर्ग अपने चाकरों यानी नेताओं और नौकरशाहों को घूस और कमीशन के रूप में देता है जिसको भ्रष्‍टाचार का नाम दिया जाता है। इस परिदृश्‍य में 'आम आदमी पार्टी', जो इन घोटालों के बाद उभर कर आयी, किस प्रकार का समाधान प्रस्‍तुत कर रही हैं? यह पार्टी मुख्‍य लूट यानी प्राकृतिक संसाधनों और श्रम शक्ति की अंधी पूंजीवादी लूट (जो कानून के दायरे में होती है) के बारे में तो चुप्‍पी साधे रहती है लेकिन द्वितीयक लूट यानी भ्रष्‍टाचार पर बहुत चिल्‍ल पों मचाती है। इससे क्‍या साबित होता है? वास्‍तव में इस पार्टी को इस मुख्‍य पूंजीवादी लूट से कोई दिक्‍कत नहीं है बशर्ते कि वह लूट के नियमों (यानी कानून) के दायरे में हो। बेशक हर इंसाफ़पसन्‍द व्‍यक्ति चाहेगा कि भ्रष्‍टाचार ख़त्‍म हो परन्‍तु उसके लिए भी हमें उसकी जड़ (यानी लोभ-लालच और निजी संपत्ति पर टिकी पूंजीवादी व्‍यवस्‍था) पर प्रहार करना होगा। परन्‍तु यह पार्टी जड़ों पर प्रहार करने की बजाय फुनगियों को कतरने को ही व्‍यवस्‍था परिवर्तन का नाम देती है। इस प्रक्रिया में यह जनता में एक झूठी उम्‍मीद भी पैदा कर रही है जो अन्‍तत: निराशा ही पैदा करती है और राजनीतिक स्‍तर पर फासीवाद की ही जमीन तैयार करती है। यह पार्टी दरअसल इसी व्‍यवस्‍था द्वारा पैदा किये गये तमाम सेफ्टी वाल्‍व और स्‍पीड ब्रेकरों में से एक है। यह जनता के बीच इस भ्रम का कुहरा फैला रही है कि एक भ्रष्‍टाचार रहित संत-पूंजीवाद संभव है।

शायद आपमें से कुछ लोग कहेंगे कि और कोई विकल्‍प ही नहीं है। आखिर किया क्‍या जाये? अगर आप व्‍यवस्‍था परिवर्तन को 'टवेंटी टवेंटी' मैच या 'फास्‍टफूड' जैसा नहीं समझते और तो आप मानेंगे कि विकल्‍प आसमान से नहीं टपकते, बल्कि उन्‍हें सचेतन प्रयासों से गढ़ना पड़ता है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि इस देश में क्रांतिकारी ताकतें तमाम शहादतों और कुर्बानियों के बावजूद अपनी विचारधारात्‍मक कमज़ोरी और दूसरे देशों की क्रान्तियों का अंधानुकरण करने की प्रवृत्ति की वजह से इतिहास के मौजूदा दौर में बिखराव और भटकाव का शिकार हैं। लेकिन हमें  यह भी जानना होगा कि ऐसे ही गतिरोध की स्थिति को तोड़ने के लिए ही शहीदे आज़म भगतसिंह ने क्रान्ति की 'स्पिरिट' ताज़ा करके इंसानियत की रूह में हरकत करने की बात कही थी। हमें अपने हठी मताग्रहों और संकीर्णताओं को त्‍याग कर साहसिक तरीके से क्रान्ति के विज्ञान को आत्‍मसात करना होगा। हमें  कल-कारखानों , खेत खलिहानों , गंदी बस्तियों में क्रान्ति का संदेश ले जाकर आम मेहनतकश जनता को एकजुट, लामबंद और संगठित करना होगा। मौजूदा व्‍यवस्‍था द्वारा फैलाई जा रही मानवद्रोही संस्‍कृति के बरक्‍स हमें एक वैज्ञानिक तथा मानवीय सोच से लैस नयी पीढ़ी को भी तैयार करने के भगीरथ प्रयास में जी जान से जुटना होगा। शायद आप कहेंगे कि यह तो बहुत मुश्किल और लंबा काम है। लेकिन साथी , धर्म-अंधविश्‍वास की जकड़न में फंसे एक पिछडे हुए पूंजीवादी देश में क्रान्तिकारी विकल्‍प खड़ा करने का कोई आसान और शार्टकट तरीका तो है ही नहीं। इसके लिए उबड़-खाबड़, पथरीली, लंबी और साहसिक यात्राओं से तो गुज़रना ही होगा। शायद आप में से कुछ लोग कहेंगे कि यह आपके बस की बात नहीं। लेकिन आप इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने आप अपनी इस कमज़ोरी को छिपाने के लिए समाज में किसी भ्रम को (मसलन 'आम आदमी पार्टी' के द्वारा फैलाये जाने वाले ईमानदार पूंजीवाद के भ्रम को) न बढ़ावा दें। और साथ ही साथ जो लोग भ्रम फैला रहे हैं उनका पर्दाफ़ाश करें।

Saturday 28 December 2013

वाम से आप बन जाने का आग्रह भी कम दिलचस्प नहीं है--- धीरेश सैनी



December 24 at 10:28am · Edited
https://www.facebook.com/dheeresh.saini/posts/590603941005459
केजरीवाल लिमिटेड का किस्सा कई मायनों में दिलचस्प है। अरुंधति और कई अन्य विश्लेषकों ने इस बात को शुरू में ही भांप लिया था कि अन्ना की डोर किसके हाथ में है और केजरीवाल की महत्वकांक्षाएं इस डोर से बंधी नहीं रह सकती हैं। भ्रष्टाचार के मूल स्रोत कॉरपोरेट पर अन्ना एंड केजरीवाल की खामोशी के अर्थ भी बताए गए थे। लेकिन अन्ना और उनकी डोर थाम रही ताकत शुरू में केजरीवाल को समझने में गच्चा खा गई। बाद में संघ संभला और उसके शावकों ने अपने हर तरीके से हमले शुरू भी किए लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। हालांकि, उनके इन अभियानों ने इतना जरूर किया कि केजरीवाल लिमिटेड पूर्ण बहुमत से जरा दूर रह गई। कांग्रेस को अपनी हार का गुमान तो था लेकिन उसे दिल्ली असेंबली चुनाव में केजरीवाल के इतनी बड़ी ताकत बनकर उभर आने का अहसास तो कतई नहीं था। मीडिया की दुविधा भी दोहरी रही। `मेकिंग ऑफ केजरीवाल` में मीडिया की भूमिका बहुत बड़ी थी लेकिन अब यह कहना मुश्किल है कि मीडिया ने केजरीवाल को यूज किया या केजरीवाल ने मीडिया को। क्योंकि मीडिया की बड़ी प्रतिबद्धता इन दिनों मोदी से भी है और जब तक केजरीवाल सिर्फ कांग्रेस की नैया डुबो रहे थे, तब तक ठीक था लेकिन जैसे ही दिल्ली में मोदी कंपनी का जहाज डगमगाया तो मीडिया के लिए दुविधा बढ़ गई। नतीजों के बाद मीडिया बीजेपी को नहीं ललकार रहा था बल्कि केजरीवाल को ही जिम्मेदारी से न भागने की नसीहत दे रहा था। कांग्रेस की हालत जूते और प्याज दोनों खाने वाली कहानी जैसी है। लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों के ही नेताओं के बयान भी दिलचस्प और दुर्भाग्यपूर्ण हैं। वे कह रहे हैं कि केजरीवाल सरकार बनाएं और फिर बिजली-पानी और दूसरे लोकलुभावन वादे पूरा करके दिखाएं। मतलब, उन्हें जनता को जरूरी सुविधाएं न मिल पाने का पूरा यकीन है और उनकी यही इच्छा है। दोनों को लगता है कि इस तरह केजरीवाल औंधे मुंह गिरेंगे। क्या होगा, कौन जानता है लेकिन जिस व्यवस्था में जनता को उसका निरीह अधिकार मिलना दूभर कर दिया गया है, अगर वहां मामूली अधिकार भी कुछ समय के लिए मुहैया करा दिए जाएं तो बड़ा आश्चर्य मान लिया जाता है। लोकसभा चुनाव से पहले केजरीवाल अगर इस तरह के लोकलुभावन कामों की झड़ी लगा दें और इस बीच उनकी सरकार गिरा भी दी जाए तो नुकसान कांग्रेस को ही होगा। तब केजरीवाल को तो फायदा ही फायदा होगा। वैसे भी जनता को तात्कालिक लाभ देने के लिए जरूरी नहीं कि कंपनियों की लूट पर अंकुश लगाना जरूरी हो। गन्ना मिल मालिकों को हरामखोरी से बाज आने के लिए बाध्य करने के बजाय केंद्र सरकार ने उन्हें बड़े पैकेज मुहैया करा दिए। मतलब जनता का और पैसा उन्हें थमा दिया गया। यानी मियां की जूती, मियां के सिर। कहने का मतलब यह कि भयंकर लूट की इस व्यवस्था में अगर थोड़ा भी इधर-उधर कर लिया जाए तो जनता को तात्कालिक रूप से खुश किया जा सकता है। केजरीवाल लि. इस खेल को कितना साध पाती है, यह आने वाला समय बताएगा? प्रोग्रेसिव ताकतों की हालत भी अजब है। एक क्रांतिकारी संगठन तो अन्ना की जय-जयकार में इतना आगे था कि इस प्रायोजति आंदोलन पर कुछ तार्किक सवाल उठा देने भर से अरुंधति पर सरकंडे के तीर बरसाने में जुट गया था फेसबुक पर प्रो. आशुतोष इसकी अगुआई कर रहे थे। सामाजिक न्याय के विमर्शकार योगेंद्र यादव तो आरक्षण विरोध के हीरो रहे केजरीवाल के विमर्शकार ही बन बैठे। लेकिन, सीपीआई और सीपीआईएम में आस्था रखने वाले लोगों ने भी केजरीवाल को वोट नहीं किए हैं, यह कहना गलत होगा। आखिर वाम पार्टियों को दिल्ली में मिले वोट उनकी पार्टी सदस्यता और विभिन्न सहयोगी संगठनों की सदस्यता संख्या जितने तो होनी ही चाहिए थे। बहुत से बुद्धिजीवी तो आप पार्टी से वाम को कुछ बौद्धिक खुराक लेने की नसीहतें भी दे रहे हैं। वे यह तो जानते ही होंगे कि वाम की संशोधनवादी से संशोधनवादी पार्टी भी आर्थिक और सामाजिक-साम्प्रदायिक मसलों पर वैसी चुप्पी या पलटी नहीं साध सकती जैसी कि केजरीवाल लि. साध सकती है। वाम पार्टियों के दिल्ली तक के बड़े से बड़े आंदोलनों-रैलियों के लिए उस मीडिया में कोई जगह नहीं होती है, जिसमें केजरीवाल और अन्ना के आंदोलन बाकायदा प्रायोजित किए जाते थे। इन बुद्धिजीवियों का वाम से आप बन जाने का आग्रह भी कम दिलचस्प नहीं है।*

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 *धीरेश सैनी जी का कथन सत्य है:
 देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के हितों में चलाये जा रहे NGOS के बलबूते बनी 'आप' पार्टी कैसे बामपंथ की नीतियों के सहारे चलने वाली बताई गई है?क्या बामपंथ ने कारपोरेट हितों के पक्ष में अपनी नीतियों को परिवर्तित कर लिया है?
 यह फोटो जो कह रहा है क्या CPI की अधिकृत नीति अब 'आप' को समर्थन देने की है?:
'आप ' के संबंध में CPM नेता के विचार ये हैं:
https://www.facebook.com/shriram.tiwari1/posts/686707368028027
 यह दृष्टिकोण यथार्थ का वास्तविक चित्रण है अतः जो वामपंथी 'आप'की वकालत कर रहे हैं वे निश्चय ही निजी स्वार्थों के वशीभूत होकर ही कर रहे हैं न कि 'जनहित'में।
(विजय राजबली माथुर)

Thursday 26 December 2013

हमारा सफर और वर्तमान -भाकपा के स्थापना दिवस पर ---विजय राजबली माथुर

हमारा सफर :



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी :

इस दल की स्थापना तो 1924 ई में विदेश में हुई थी। किन्तु 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर में एक सम्मेलन बुलाया गया था जिसके स्वागताध्यक्ष  गणेश शंकर विद्यार्थी जी थे। 26 दिसंबर 1925 ई  को एक प्रस्ताव पास करके  'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की विधिवत घोषणा की गई थी। 1931 ई में इसके संविधान का प्रारूप तैयार किया गया था किन्तु उसे 1943 ई में पार्टी कांग्रेस के खुले अधिवेन्शन में स्वीकार किया जा सका क्योंकि तब तक ब्रिटिश सरकार ने इसे 'अवैध'घोषित कर रखा था और इसके कार्यकर्ता 'कांग्रेस' में रह कर अपनी गतिविधियेँ चलाते थे। 

वस्तुतः क्रांतिकारी कांग्रेसी ही इस दल के संस्थापक थे। 1857 ई की क्रांति के विफल होने व निर्ममता पूर्वक कुचल दिये जाने के बाद स्वाधीनता संघर्ष चलाने हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती (जो उस क्रांति में सक्रिय भाग ले चुके थे)ने 07 अप्रैल 1875 ई (चैत्र शुक्ल  प्रतिपदा-नव संवत्सर)को 'आर्यसमाज' की स्थापना की थी। इसकी शाखाएँ शुरू-शुरू में ब्रिटिश छावनी वाले शहरों में ही खोली गईं थीं। ब्रिटिश सरकार उनको क्रांतिकारी सन्यासी (REVOLUTIONARY SAINT) मानती थी। उनके आंदोलन को विफल करने हेतु वाईस राय लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से एक रिटायर्ड ICS एलेन आकटावियन (A.O.)हयूम ने 1885 ई में वोमेश चंद (W.C.) बैनर्जी की अध्यक्षता में 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना करवाई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा करना था। दादा भाई नैरोजी तब कहा करते थे -''हम नस-नस में राज-भक्त हैं''। 

स्वामी दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गए और उसे स्वाधीनता संघर्ष की ओर मोड दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' में डॉ पट्टाभि सीता रमइय्या ने लिखा है कि गांधी जी के सत्याग्रह में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1906 में 'मुस्लिम लीग'फिर 1916 में 'हिंदूमहासभा' का गठन भारत में सांप्रदायिक विभाजन कराने हेतु करवाया। किन्तु आर्यसमाजियों व गांधी जी के प्रभाव से सफलता नहीं मिल सकी। तदुपरान्त कांग्रेसी डॉ हेद्गेवार तथा क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने अपनी ओर मिला कर RSS की स्थापना करवाई जो मुस्लिम लीग के समानान्तर सांप्रदायिक वैमनस्य भड़काने में सफल रहा। 

इन परिस्थितियों में कांग्रेस  में रह कर क्रांतिकारी आंदोलन चलाने वालों को एक क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना की आवश्यकता महसूस हुई जिसका प्रतिफल 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी'के रूप में सामने आया। ब्रिटिश दासता के काल में इस दल के कुछ कार्यकर्ता पार्टी के निर्देश पर  कांग्रेस में रह कर स्वाधीनता संघर्ष में सक्रिय भाग लेते थे तो कुछ क्रांतिकारी गतिविधियों में भी संलग्न रहे। उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश को मुक्त कराना था। किन्तु 1951-52 के आम निर्वाचनों से पूर्व इस दल ने संसदीय लोकतन्त्र की व्यवस्था को अपना लिया था। इन चुनावों में 04.4 प्रतिशत मत पा कर इसने लोकसभा में 23 स्थान प्राप्त किए और मुख्य विपक्षी दल बना। दूसरे आम चुनावों में 1957 में केरल में बहुमत प्राप्त करके इसने सरकार बनाई और विश्व की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनाने का गौरव प्राप्त किया। 1957 व 1962 में लोकसभा में साम्यवादी दल के 27 सदस्य थे। 


आलोचना :

डॉ  परमात्मा शरण (पूर्व अध्यक्ष,राजनीतिशास्त्र विभाग एवं प्राचार्य,मेरठ कालेज,मेरठ) ने अपनी पुस्तक में जवाहर लाल नेहरू के एक भाषण के हवाले से इस दल की निम्न वत आलोचना की है---

*साधारण व्यक्तियों के लिए इसके सिद्धांतों को समझना कठिन है तथा दल ने अपनी नीति का निर्धारण देश की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं किया है।  

**इसके सिद्धांतों व कार्यकर्ताओं के विचारों में 'धर्म' का कोई महत्व नहीं है,किन्तु अभी तक अधिकांश भारतवासी धर्म को महत्व देते हैं। 
***इसके तरीके भारतीयों को अधिक पसंद नहीं हैं क्योंकि यह हिंसात्मक व विनाशकारी कार्यों में विश्वास रखता है। 
****चीन की आपत्तीजनक कार्यवाहियों के कारण साम्यवादी दल की लोकप्रियता को बड़ा धक्का लगा है। 
*****1964 में वामपंथी,साम्यवादी दल से अलग हो गए हैं, उनका रुख भारत-चीन विवाद के संबंध में राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कहा जा सकता है। लेकिन जनता इस दल और उस दल में विभेद नहीं कर पाती है। 

 दल का कार्यक्रम :

प्रथम आम चुनावों के अवसर पर दल के घोषणा-पत्र में कहा गया था :
कांग्रेस नेताओं ने हमारी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं की है,उसने हमारे स्वातंत्र्य संघर्ष को धोखा दिया है और उसने विदेशियों व प्रतिगामी सन्निहित हितों (Vested intrests) को पूर्ववत जनता को लूटने खसोटने का अवसर दिया है। कांग्रेसी स्वयं लूट-खसोट में सम्मिलित हो गए हैं। कांग्रेस सरकार ने राष्ट्र को धोखा दिया है। यह तो जमींदारों,एकाधिकार प्राप्त व्यक्तियों की सरकार है और भ्रष्टाचार व घूसख़ोरी कांग्रेस शासन के मुख्य चिह्न हो गए हैं। सरकार ने लाठियों और गोलियों व दमनकारी क़ानूनों का प्रयोग किया है। सरकार की नीति शांति की नहीं वरन 'आंग्ल -अमरीकी साम्राज्यवादियों' का समर्थन करने वाली रही है। 

*नेहरू सरकार हटा कर देश में लोकतंत्रात्मक शासन स्थापित किया जाएगा। किसानों और मजदूरों के प्रतिनिधियों का शासन स्थापित किया जाएगा। 
*दल ब्रिटिश साम्राज्य से संबंध-विच्छेद करेगा,किसानों को ऋण भार से मुक्त करेगा,सभी भूमि और कृषि साधनों को किसानों को बिना प्रतिकर दिलाएगा। 
*यह राष्ट्रीयकृत पूंजी द्वारा देश के उद्योगों का विकास करेगा,जिसमें वह निजी पूँजीपतियों को उचित लाभ और मजदूरों को जीवन वेतन का आश्वासन देकर उनका सहयोग प्राप्त करेगा। 
*दल देश में एक राष्ट्रीय सेना की रचना करेगा और पुलिस के स्थान पर जनता का नैतिक दल संगठित करेगा। 
*प्रान्तों के पुनर्गठन व रियासतों के निर्मूलन द्वारा राष्ट्रीय राज्यों का निर्माण,
*अल्प-संख्यकों के हितों और अधिकारों का संरक्षण,
*सभी सामाजिक और आर्थिक अयोग्यताओं का अंत,नि:शुल्क और अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा,  
*सभी देशों से व्यापारिक और आर्थिक सम्बन्धों की स्थापना,
*विश्व की सभी बड़ी शक्तियों में शांति के लिए समझौता कराना आदि  बातें इसके कार्यक्रम में सम्मिलित थी।   

1958 ई में अमृतसर में साम्यवादी दल की असाधारण कांग्रेस हुई थी उसमें प्रमुख रूप से ये प्रस्ताव पास हुये थे:
*विश्व में शांति चाहने वाली शक्तियों-राष्ट्रीय स्वाधीनता व समाजवाद की प्रगति हो रही है;
*देश में लोकतंत्रात्मक आंदोलन की प्रगति हुई है,जैसा कि केरल तथा अनेक औद्योगिक निर्वाचन क्षेत्रों में हुये चुनावों के परिणामों से स्पष्ट है,कई राज्यों में कांग्रेस कमजोर पड़ी है;
*योजना की पूर्ती में बड़े व्यवसाय संयुक्त राज्य अमरीका पर अधिक निर्भर होते जा रहे हैं,जिसे दल उचित नहीं मानता;
*दल साम्यवाद के आदर्शों के प्रचार और शिक्षा प्रसार को अधिक मानता है (Importance of sustained,systematic and all sided ideological struggle by the Communist Party,a struggle conducted on the basis of the principles of Marxism,Leninism and proletarian internationalism)
*इन उद्देश्यों की पूर्ती के लिए साम्यवादी दल के संगठन में सर्वसाधारण जनता अधिक से अधिक भाग ले इस हेतु दल को कार्य करना चाहिए (communist Party as a mass political force,a party which will unite and rally the popular masses by its initiatve in every sphere of national life);
*दल दो वर्ष पूर्व हुई कांग्रेस के कार्यक्रम को फिर से दोहराता है,किन्तु इन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर तत्काल राष्ट्रीय अभियानों (National Champaigns) की आवश्यकता पर बल देता है---

(अ)अमरीकी पूंजी का भारत में लगाए जाने का विरोध,
(इ)बड़े बैंकों,खाद्यानों में थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण,राजकीय व्यापार का विस्तार,
(ई )भूमि और किसानों संबंधी नीति में महत्वपूर्ण सुधार,
(उ )लोकतंत्रात्मक अधिकारों व नागरिक स्वतंत्रताओं  की रक्षा और विस्तार ,
(ऊ )भ्रष्टाचार का विरोध,
(ए )जातिवाद,संप्रदायवाद और अस्पृश्यता का विरोध इत्यादि। 

इन उद्देश्यों की पूर्ती के लिए दल को किसान सभाएं कायम करनी चाहिए और संयुक्त मोर्चे (United Front) को सुदृढ़ करना चाहिए। 

1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से ब्रिटिश सरकार हिल गई थी अतः उसकी चालों के परिणाम स्वरूप 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' की स्थापना डॉ राम मनोहर लोहिया,आचार्य नरेंद्र देव आदि द्वारा की गई। इस दल का उद्देश्य भाकपा की गतिविधियों को बाधित करना तथा जनता को इससे दूर करना था। इस दल ने धर्म का विरोधी,तानाशाही आदि का समर्थक कह कर जनता को दिग्भ्रमित किया। जयप्रकाश नारायण ने तो एक खुले पत्र द्वारा  'हंगरी' के प्रश्न पर साम्यवादी नेताओं से जवाब भी मांगा था  जिसके उत्तर में तत्कालीन महामंत्री कामरेड अजय घोष ने कहा था कि वे स्वतन्त्रता को अधिक पसंद करते हैं किन्तु उन्होने विश्व समाजवाद के हित में सोवियत संघ की कार्यवाही को उचित बताया।  


वर्तमान परिस्थिति : 

 भाकपा स्थापना दिवस की पूर्व वेला में 25 दिसंबर 2013 को  22-क़ैसर बाग,लखनऊ में भाकपा ज़िला काउंसिल के तत्वावधान में एक विचार गोष्ठी का आयोजन'हमारा सफर और वर्तमान परिस्थिति'विषय पर किया गया जिसका संचालन प्रदेश कार्य समिति के एक सदस्य द्वारा किया गया। प्रवर्तन IPTA के प्रदेश महासचिव कामरेड राकेश ने किया तथा कामरेड शकील सिद्दीकी एवं साहित्यकार वीरेंद्र यादव जी ने भी संबोधित किया। बाराबंकी के सह-जिलामंत्री,हाई कोर्ट के वकील और प्रदेश सचिव अन्य वक्ताओं में थे। लखनऊ ज़िला काउंसिल की ओर से एकमात्र वक्ता के रूप में जिला मंत्री को  मात्र धन्यवाद ज्ञापन का अवसर दिया गया। 

अध्यक्षीय सम्बोधन में कामरेड एस पी सिंह ने नए-नए लोगों को विचार-धारा के आधार पर पार्टी से जोड़ने की आवश्यकता बताई। उनका सुदृढ़ अभिमत था कि 'कम्यूनिज़्म' एक विचार धारा है और जब तक इसका प्रसार-प्रचार नहीं होगा तब तक लोग हमसे नहीं जुड़ेंगे। उनकेअनुसार पहले पार्टी संघर्ष-शील थी। 1978 में हुये विकलांगों के एक प्रदर्शन में उन पर भी लाठी चार्ज हुआ था और कामरेड अतुल अनजान,राकेश जी एवं लोहित जी उनके संघर्ष में शामिल हुये थे।

डॉ परमात्मा शरण द्वारा की गई आलोचना कि  'धर्म' का विरोध करने के कारण भाकपा जनता में लोकप्रिय न हो सकी तथा वक्ताओं द्वारा उठाए वर्णाश्रम व्यवस्था/जातिवाद को बाधक तत्व बताना इस पार्टी के संकुचन के कारण होते हैं। 

इस संबंध में मेरा विचार है कि 'लकीर के फकीर' बन कर चलना ही पार्टी के पिछड़ने का कारण है। हालांकि 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता' फिर भी 'एकला चलो रे' की तर्ज पर मैं अपने ब्लाग 'क्रांतिस्वर'

के माध्यम इन बाधक तत्वों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्पष्ट करता रहा हूँ।

'धर्म'=जो शरीर को धरण करने के लिए आवश्यक है जैसे-'सत्य','अहिंसा','अस्तेय','अपरिग्रह'और 'ब्रह्मचर्य'।
(क्या मार्क्स ने इन सद्गुणों को अफीम बताया है?जी नहीं मार्क्स ने उस समय यूरोप मे प्रचलित 'ईसाई पाखंडवाद'को अफीम कह कर उसका विरोध किया था। पाखंडवाद चाहे ईसाइयत का हो,इस्लाम का हो या तथाकथित हिन्दुत्व का उन सब का प्रबल विरोध करना ही चाहिए परंतु 'विकल्प' भी तो देते चलिये। )

'भगवान'=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल) का समन्वय।

'खुदा'=चूंकि ये पाँच तत्व खुद ही बने हैं इन्हे किसी ने बनाया नहीं है इसलिए इन्हे खुदा भी कहते हैं।

GOD=G(जेनेरेट)+O(आपरेट)+D(देसट्राय)। 'भगवान' या 'खुदा' सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन,पालन और 'संहार' भी करते हैं इसलिए इन्हें GOD भी कहा जाता है।

क्या मार्क्स ने प्रकृति के इन पाँच तत्वों को अफीम कहा था?'साम्यवाद' को संकुचित करने वाले वीर-विद्वान क्या जवाब देंगे?  


देवता=जो देता है और लेता नहीं है जैसे-वृक्ष ,नदी,समुद्र,वायु,अग्नि,आकाश,ग्रह-नक्षत्र आदि न कि कोई व्यक्ति विशेष। क्या मार्क्स ने प्रकृति प्रदत्त इन उपादानों का कहीं भी विरोध किया है?'साम्यवाद' के नाम पर साम्यवाद का अवमूल्यन करने वाले दिग्गज विद्वान क्या जवाब देंगे?


 गोष्ठी में वक्ताओं और प्रदेश सचिव ने भी 'आप' की सफलता का ज़िक्र किया था। मैं अपने आंकलन देता रहा हूँ-



'रत्ना सिंह'जी ने वाजिब प्रश्न किया है कि 'CPI और अन्य वाम  दल क्यों नहीं कर पाते यह एक गहरे आत्म-मंथन का विषय है'।

 वस्तुतः निम्नांकित फोटो द्वारा प्रदेश के एक वरिष्ठ नेता द्वारा राष्ट्रीय नेताओं के विरुद्ध की गई  टिप्पणियाँ कुछ प्रकाश डाल देंगी। इन्हीं के एक दूसरे जाति-बंधु  कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न और टांग-खिंचाई करके पार्टी को आगे नहीं बढ्ने देना चाहते हैं। जिस प्रदेश से कभी सर्व कामरेड मोहानी,इशहाक संभली,ज़ेड ए अहमद भीखा लाल,ऊदल,सरजू पांडे,जंग बहादुर,झारखण्डे राय,रुस्तम सैटिन  आदि ने पार्टी को बुलंदियों पर पहुंचाया था और जिस प्रदेश के लाल बहादुर शास्त्री,राम मनोहर लोहिया,नरेंद्र देव आदि नेता जनता के बीच भाकपा की आलोचना धर्म के नाम पर करने में कामयाब रहे हैं उसी प्रदेश के पार्टी नेता अब खुद ही अपनी पार्टी की बढ़त को रोक रहे हैं। यही है वर्तमान परिस्थिति जिसे बदले और सुधारे बिना पार्टी को जन-प्रिय नहीं बनाया जा सकता है।









 छिप कर अपनी ही पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं पर किए गए इनके प्रहार को ब्लाग द्वारा सार्वजनिक करने पर :

राष्ट्रीय हितों से ऊपर अपने निजी हितों को साधने वाले ये लोग कार्यकर्ताओं के प्रति किस हद तक क्रूर हो सकते हैं इसका एक नमूना इस लिंक पर मिल जाएगा ---

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=517718558336136&set=a.423703111071015.1073741825.100002939890884&type=1


  ~विजय राजबली माथुर ©

Sunday 22 December 2013

वाम दलों का कांग्रेस को समर्थन नहीं:---अतुल कुमार अनजान

https://www.facebook.com/atul.anjaan.9/posts/3793208564589




एक प्रसिद्ध वामपंथी नेता (मैं नाम नहीं लूंगा) ने कहा था कि ‘जब दूसरे दल गलती करते हैं तो जनता उस दल को सजा देती है लेकिन जब कांग्रेस गलती करती है, तब देश सजा पाता है।’ यह कहते हुए ही वे वरिष्ठ नेता 2000 में कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को सम्बोधित करते हुए हार्ट अटैक के शिकार हुए और काल के गाल में समा गए। साल 1991 के बाद से गुलामी दर गुलामी का जाल बुनने, लोगों को लुटने व लुटाने, आत्महत्या करने पर मजबूर करने वाली नव- उदारवादी जिस आर्थिक नीति को कांग्रेस पार्टी लेकर चली है और जिसे सोनिया-मनमोहन की टीम ने परवान चढ़ाकर लोगों के गर्दन पर बेतहाशा संगीन हमले किये, उसने तीन लाख से अधिक किसानों को आत्महत्या करने पर ही मजबूर नहीं किया वरन् लाखों लोगों को सोते हुए हृदयाघात देकर प्राण पखेरू छीन लिये। बारम्बार लुढ़कते-डूबते सूचकांक से मध्यम वर्ग की पूंजी लुट जाने के कारण वे हमेशा के लिए लम्बी नींद में चले गए।

‘मिलने पर हॉय, जुदा होने पर बॉय’:

शायद ये सब कांग्रेस समझ न पाये क्योंकि कांग्रेस में नये नेताओं की जो कुलांच भरती हुई टीम खड़ी हुई है, वह संवेदनाओं को समझ ही नहीं सकती। उन्होंने युवा होने का मतलब बताया है कि ‘रात गई बात गई’। उन्होंने एक नया मंत्र बताया है कि उत्तर आधुनिकता का अर्थ है ‘मिलने पर हॉय, जुदा होने पर बॉय’। पश्चिम की संस्कृति और हमारी संकीर्णता के दौर से पैदा फूहड़पन न हमें आधुनिक बना पा रहा है और न पुरातन होने दे रहा है। यह संघर्ष वैचारिक भी नहीं रहा और पारम्परिक भी नहीं रहा। हमारी विरासत को नव बाजारवादी नीतियों ने मसल दिया और आदशर्ों के नये प्रतीक कांग्रेस पार्टी ने हर्षद मेहताओं में देखे। पिछले पांच साल में कांग्रेस की नीतियों से देश का बारह लाख करोड़ खजाना नुकसान हुआ है। 8.5 फीसद विकास दर लिए चेहरे का एक गाल हम दुनिया को मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दिखा रहे थे कि हम कितने गतिशील हुए हैं और उसी सरकार की नीतियों के चलते चेहरे के दूसरे गाल पर ‘ब्लैक जापान’ जैसा काला रंग लगाकर हम दुनिया में थू-थू करा रहे हैं। वे कहने लगे कि संसदीय जनतंत्र की आवश्यक उपज भ्रष्टाचार है, देखो भारत का हाल। अगर सुप्रीम कोर्ट नहीं होता तो कांग्रेस के भ्रष्ट नेता देश को खूंटी पर टांगकर सरेबाजार नीलामी का डंका पीट रहे होते। बाजार के संकट में सेंसेक्स गिरता है और जब राजनीति में संकट आता है तो लोकतंत्र से लोगों का विश्वास घटता है। कांग्रेस की भूमिका अब लोगों की भलाई में नहीं रही। इंदिरा गांधी में तो नैतिक साहस था कि वह ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दे सकती थीं। लेकिन आज की कांग्रेस में नारा देने का भी साहस नहीं रहा। पिछले साल दामिनी के लिए हुए आंदोलन के समय कांग्रेस के तथाकथित युवराज ने एक शब्द नहीं बोला, क्या वे देश के महिलाओं की रक्षा कर पाएंगे? आज जनदबाव में और अपने ही संकट से लोकपाल पास करना पड़ा तो कॉरपोरेट मीडिया के जरिए श्रेय ले रहे हैं।

अभी और सिमटेगी कांग्रेस:

कांग्रेस अपनी टूटी हुई छत में बांस का सहारा लगाए या बल्लम का किनारा खोल दे, यह कांग्रेसियों का निजी अधिकार है। लेकिन कई लंगड़े मिलकर एक मिल्खा सिंह नहीं बन सकते। क्या राहुल गांधी अभी पीएम घोषित नहीं हैं ? दर्जन भर मंत्री कब से उन्हें अपना पीएम बता रहे हैं। वामपंथ ने कई बार कांग्रेस को देश के कहने पर समर्थन दिया और उसे जनविरोधी काम नहीं करने दिया। वामपंथ का साथ छूटने के बाद कांग्रेस न केवल बदनाम हुई बल्कि उसकी जवानी भी खत्म हो गई। 2014 में कांग्रेस 100-110 सीट तक सिमट जाएगी। भाजपा भी 130-140 पर रहेगी। इसलिए देश में गैर कांग्रेस व गैर भाजपा सरकार के आसार बढ़ते जा रहे हैं। कांग्रेस को तब विघटित भी होने को तैयार रहना चाहिए। किसी भी दशा में वामपंथी दल दोबारा कांग्रेस को समर्थन नहीं दे सकते। ऐसा करके क्या वे अपनी सार्थकता पर ही प्रश्न चिह्न नहीं लगाएंगे। एक समय कांग्रेस उत्साह का नाम था, त्याग का प्रतीक था, नौजवान उसके सिद्धांतों पर चलने के लिए हर खतरे मोल लेने के लिए आगे बढ़ता था, कांग्रेस की बांह थामकर वह गरीब की जिंदगी में बहार लाने का स्वप्न बुनता था। आज वह सपनों का लुटेरा ही नहीं, सपनों के बलात्कारियों की एक जमात बन कर रह गई है। मेरे ये तर्क कांग्रेस विरोध की भावना से नहीं उपजे हैं बल्कि एक लंबे संघर्षो के इतिहास से निकली उस जमात से आशा और उम्मीद की किरणों से बावस्ता होने के कारण निकल रहे हैं।

दर्शन, विचारधारा और विज्ञान---_कविता कृष्‍णपल्‍लवी


प्रकृति विज्ञान में किसी भी वैज्ञानिक खोज
का सत्‍यापन जब प्रकृति के प्रेक्षण या वैज्ञानिक प्रयोग के द्वारा हो जाये, तभी उसे अन्तिम तौर पर स्‍थापित माना जाता है । दर्शन स्‍वत्‍व (प्रकृति और समाज) और चिंतन एवं संज्ञान के सामान्‍य नियमों का अध्‍ययन और सूत्रीकरण करता है, प्रायोगिक सत्‍यापन उसके लिए अनिवार्य शर्त नहीं है । विचारधारा सामाजिक यथार्थ का सच्‍चा या मिथ्‍या प्रतिबिम्‍बन होती है । विरोधी वर्गों वाले समाज में अलग-अलग वर्गों की अलग-अलग विचारधाराएँ अनिवार्यत: होती हैं, वे सचेतन हो या अचेतन । हर वर्ग, सचेतन या अचेतन तौर पर, अपनी विचारधारा से निर्देशित होता है और उन्‍नत चेतना के स्‍तर पर, कला-साहित्‍य-संस्‍कृति-दर्शन आदि के क्षेत्र में जो विचारधारात्‍मक संघर्ष होता है, वह वर्ग संघर्ष का ही एक रूप है ।

* विज्ञान प्रकृति, समाज और चिन्‍तन के क्षेत्र में नये अनुसंधान और फिर प्रेक्षण और प्रयोग द्वारा उनके सत्‍यापन का क्षेत्र है। यह भी सामाजिक चेतना का ही एक रूप है ।
*मार्क्‍सवाद एक दर्शन है, क्‍योंकि यह वस्‍तुगत जगत और चेतना की गतिकी के सामान्‍य नियमों का अध्‍ययन और सूत्रीकरण करता है ।

* मार्क्‍सवाद एक विचारधारा है, क्‍योंकि यह सामाजिक यथार्थ को सर्वहारा के अवस्थिति-बिन्‍दु से प्रतिबिम्बित करता है । 
*लेकिन सर्वोपरि तौर पर मार्क्‍सवाद एक विज्ञान है, क्‍योंकि यह सैद्धान्तिक प्रस्‍थापना के प्रायोगिक सत्‍यापन पर बल देता है । यह वस्‍तुगत जीवन के प्रेक्षण और व्‍यवहार से आसवित (डिस्टिल्‍ड) सिद्धान्‍त को व्‍यवहार में उतारने और फिर उस व्‍यवहार के सार-संकलन के आधार पर सिद्धान्‍त को उन्‍नत एवं परिष्‍कृत करने की बात करता है । 'पुडिंग की अन्तिम सार्थकता तो उसका स्‍वाद लिए जाने के बाद ही सिद्ध होती है' -- यह सामान्‍य मार्क्‍सवादी उक्ति है ।
* व्‍यवहार -- सिद्धान्‍त -- व्‍यवहार श्रृंखला का ऊर्ध्‍ववर्ती कुण्‍डलाकार विकास मार्क्‍सवादी संज्ञान-सिद्धांत की बुनियादी बात है । मार्क्‍सवाद एक विज्ञान है, जो प्रकृति और समाज दोनों में, अलग-अलग रूपों एवं प्रतीतियों के बावजूद, बुनियादी तौर पर गति के सामान्‍य नियमों के सक्रिय होने की बात करता है ।
* द्वंद्वात्‍मक भौतिकवाद के सूत्र गति के यही सामान्‍य नियम हैं । इन नियमों को इतिहास और समाज-विकास पर लागू करना ऐतिहासिक भौतिकवाद है। द्वंद्वात्‍मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद एक विज्ञान है, इसलिए प्रकृति और समाज में होने वाले हर परिवर्तन के साथ यह निरन्‍तर विकसित होता रहता है ।
जो मार्क्‍सवादी विज्ञान की गतिमानता को नकारकर, उसे कठमुल्‍लासूत्र बना देते हैं, वे मार्क्‍सवाद से उसकी आत्‍मा को निकाल देते हैं । जिनका मार्क्‍सवाद सामाजिक व्‍यवहार के बजाय मात्र किताबी ज्ञान से अर्जित है और केवल मार्क्‍सवाद को कहते-लिखते रहना, भाष्‍य करते रहना ही जिनका काम है और जो इसे सामाजिक व्‍यवहार में नहीं उतारते, वे मार्क्‍सवादी वैज्ञानिक नहीं, दार्शनिक पण्डित हैं, ''मार्क्‍सविद्याविद'' (''मार्क्‍सो‍लॉजिस्‍ट'') हैं ।

* मार्क्‍सवाद क्रान्ति का विज्ञान है और क्रान्तिकारी व्‍यवहार द्वारा सत्‍यापन और विकास की माँग करता है।

Saturday 21 December 2013

Indian revolutionary:Baba Sohan Singh Bhakna ---Sanjog Walter



Baba Sohan Singh Bhakna (1870–21 December 1968) was as Indian revolutionary, the founding president of the Ghadar Party, and a leading member of the party involved in the Ghadar Conspiracy of 1915. Tried at the Lahore Conspiracy trial, Sohan Singh served sixteen years of a life sentence for his part in the conspiracy before he was released in 1930. He later worked closely with the Indian labour movement, devoting considerable time to the Kisan Sabha and the Communist Party of India.In 1921, Sohan Singh was transferred to Coimbatore jail and then to Yervada. Here however, Singh embarked on a hunger strike in protest against Sikh prisoners not being allowed to wear turbans and their Kacchera, amongst their religious obligations. In 1927, he was shifted to the Central Jail at Lahore, where he again went on hunger strike in June 1928 to protest against the segregation of the so-called low-caste Mazhabi Sikhs from other 'high-caste' Sikhs during meals. In 1929, while still interned, he went on a hunger strike in support of Bhagat Singh. He ultimately served sixteen years before he was released early in July 1930.
After his release, he continued working in the nationalist movement and labour politics. His works were identified closely with the works of the Communist party of India, devoting most of his time to organizing the Kisan Sabhas. He also made the release of interned Ghadarites a key part of his political work.
He was interned a second time during World War II, when he was jailed at the Deoli Camp in what is today Rajasthan. He remained incarcerated for nearly three years. After Independence he veered decisively towards the Communist Party of India. He was arrested on 31 March 1948, but released on 8 May 1948. However, he was seized again, but jail-going ended for him finally at the intervention of Independent India's first Prime Minister, Jawaharlal Nehru. Bent with age and ravaged by pneumonia, Baba Sohan Singh Bhakna died, at Amritsar, on 21 December 1968.
 
 

Friday 20 December 2013

क्रान्तिकारी विरासत और फासिस्‍टों का फ्रॉड---कविता कृष्णपल्लवी

काकोरी के शहीदों को याद करते हुए :
 https://www.facebook.com/kavita.krishnapallavi/posts/601782409877304
फासिस्‍टों के पास जनसंघर्षों में, राष्‍ट्रीय मुक्ति-संघर्षों में भागीदारी की कोई विरासत नहीं है। फासिस्‍ट भीड़ की हिंसा और उन्‍माद को भड़काकर बर्बर नरसंहार करवा सकते हैं, पर वे किसी उदात्‍त लक्ष्‍य के लिए लड़ने और कुर्बानी देने का साहस जुटा ही नहीं सकते। आर.एस.एस. और किसी भी ब्राण्‍ड के हिन्‍दुत्‍ववादी ने राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन में कभी हिस्‍सा नहीं लिया। अंग्रेजों से इनकी वफादारी के वायदों, मुखबिरी और माफीनामों के दस्‍तावेजी प्रमाण मौजूद हैं।
राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन की दौर की अपनी शर्मनाक़ भूमिका को झूठे प्रचारों से ढँकने के तरह-तरह के उपक्रम करते हुए ये फासिस्‍ट जनता की गौरवशाली विरासत को चुराने हड़पने का भी काम करते हैं। कभी उग्र राष्‍ट्रवादी तिलक के पुरातनपंथी धार्मिक विचारों के पक्ष को 'हाइलाइट' करके उनसे अपने को जोड़ते हैं, कभी अनुदारवादी बुर्ज़ुआ नेता पटेल को अपना नायक बताते हैं, कभी 'गाँधीवादी समाजवाद' की दुहाई देने लगते हैं, तो कभी बिस्मिल, राजेन्‍द्र लाहिड़ी, जतिन दास, भगतसिंह आदि की क्रान्तिकारी परम्‍परा से अपने को जोड़ने लगते हैं। ऐसा करते हुए इन क्रान्तिकारियों के विचारों को छिपाकर फासिस्‍ट उन्‍हें केवल राष्‍ट्रवादी नायक के रूप में प्रस्‍तुत करते हैं।
आज के दिन फासिस्‍ट हिन्‍दुत्‍ववादी भी काकोरी के शहीदों को ''शत-शत नमन'' करने का पाखण्‍ड कर रहे हैं। लेकिन ये कपटी यह नहीं बताते कि बिस्मिल, अशफ़ाकुल्‍ला, राजेन्‍द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह आदि साम्राज्‍यवाद विरोधी होने के साथ ही एक सच्‍चे सेक्‍युलर लोकतांत्रिक गणराज्‍य के पक्षधर थे और साम्‍प्रदायिकता की राजनीति के धुर-विरोधी थे। 'हिन्‍दुस्‍तान रिपब्लिकन एसोसियेशन' के इन्‍हीं आदर्शों को 1928 में स्‍थापित 'हिन्‍दुस्‍तान सोशलिस्‍ट रिपब्लिकन एसोसियेशन' ने आगे विकसित किया जब भगतसिंह और उनके साथियों ने 'डेमोक्र‍ेटिक रिपब्लिक ऑफ इण्डिया' के स्‍थान पर 'सोशलिस्‍ट डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ इण्डिया' की स्‍थापना को अपना लक्ष्‍य घोषित किया।
बिस्मिल, अशफ़ाकुल्‍ला और उनके साथियों की विरासत को आज वास्‍तव में स्‍वीकार करने का सर्वोपरि अर्थ है 'सेक्‍युलरिज्‍़म' के क्रान्तिकारी अर्थ को ग्रहण करना और साम्‍प्रदायिक राजनीति का खूनी खेल खेलने वाले उन्‍मादी हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍टों के मंसूबों को नाक़ाम करने के लिए व्‍यापक जन-समुदाय को लामबंद करना।
संघियों को हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, हेडगेवार, गोलवरकर, सावरकर, मुंजे, गोडसे, श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी आदि की जयंतियाँ मनानी चाहिए। ऐसे लोग बिस्मिल, राजेन्‍द्र लाहिड़ी आदि का नाम लेकर क्रांतिकारी विरासत को कलंकित करते हैं, उसकी वास्‍तविक पहचान पर कालिख पोतते हैं।

Thursday 19 December 2013

क्या कम्युनिस्ट 'आप' के खतरे को पहचानेंगे?






कितना सटीक है यह कथन कि 'एक मूर्ख को सही बात बताना गलत है वह इस पर घृणा करेगा'। आजकल क्या बुजुर्ग पत्रकार, क्या उतावले कम्युनिस्ट सभी एक स्वर से 'आप'/केजरी भक्ति में तल्लीन हैं जैसे उन्होने परमात्मा को प्राप्त कर लिया है और उनको अब कुछ नहीं चाहिए। इनको मधुकर दत्तात्रेय उर्फ बाला साहब देव रस की तिकड़म सफल होने पर खुशी हो रही है। पहले केवल 'जनसंघ' ही RSS का राजनीतिक विंग था फिर 1980 में आपात काल के दौरान देवरस/इन्दिरा के मध्य हुये 'गुप्त समझौते'के अंतर्गत कांग्रेस में संघियों की पैठ हुई और इंदिराजी की सत्ता वापिसी भी। कालांतर में 'जनसंघ' को जनता पार्टी में विलीन करके समाजवादियों में भी संघ की पैठ बना ली गई जो 'भाजपा' में स्पष्ट देखी जा सकती है। पूर्व सोशलिस्ट सुषमा स्वराज जी आज भाजपा की वरिष्ठ नेता हैं। जब कांग्रेस और भाजपा दोनों की पोल खुलने लगी तो संघ ने हज़ारे/केजरी को आगे करके एक नया प्रयोग/विकल्प खड़ा किया जिसकी परिणति 'आप' है। अब यदि कुछ कम्युनिस्ट भी 'आप' के गीत गाते हैं तो समझना चाहिए कि या तो वे निकट अतीत से अपरिचित हैं या फिर उनके निजी स्वार्थ अब संघ के साथ जाने में हैं। 'उत्पादन और वितरण के साधनों पर समाज का स्वामित्व 'चाहने वाला कोई भी व्यक्ति कारपोरेट/RSS के चहेते 'आप' की वकालत नहीं कर सकता।

क्या है देवरस तिकड़म?

माधव राव सदाशिव गोलवलकर अपने जीवन काल में केंद्र में संघ को सत्ता पर जब काबिज न करा सके तो उनके उत्तराधिकारी मधुकर दत्तात्रेय देवरस ने शहरों के 2 प्रतिशत और गांवों के 3 प्रतिशत वोटों के सहारे संघियों को सत्ता के दरवाजे तक पहुंचाने का नया सूत्र खोजा था । आपातकाल की गिरफ्तारी के दौरान उन्होने इंदिराजी से एक गुप्त सम्झौता किया जिसके अनुसार उनको समर्थन देकर अपना एजेंडा कार्यान्वित करवाने का भरोसा उनको मिला। 1980 में पहली बार RSS के शुद्ध समर्थन से इन्दिरा कांग्रेस की सरकार बनी और 'समाजवाद' की नीति का परित्याग हुआ। 'श्रम न्यायालयों'में श्रमिकों के विरुद्ध फैसले सुनाये जाने की प्रक्रिया इसी का प्रतिफल थी। 1984 में भी संघ का समर्थन इन्दिरा कांग्रेस को मिला जिसके फलस्वरूप  राजीव गांधी  ने बाबरी मस्जिद/रामजन्म भूमि का ताला खुलवा कर पूजा प्रारम्भ कारवाई। 1992 में पूर्व संघी एवं इन्दिरा कांग्रेसी प्रधानमंत्री के आशीर्वाद से कल्याण सिंह ने बाबरी मस्जिद को ढहवा दिया। 

1996 में 13 दिनी सरकार के गृह मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने संघ को घेरने वाली तमाम फ़ाईलो को जलवा डाला। 1998 से 2004 तक के गृह मंत्री आडवाणी ने पुलिस,सी बी आई आदि-आदि में संघियों को भर्ती करा दिया। आज के अनेक जांच परिणाम इसी सांप्रदायिक सोच को दर्शाते हैं। यही नहीं सेना मे भी संघी सोच के लोग प्रविष्ट करवाए गए। 

प्रो . बलराज माधोक ने तो खुल कर भाजपा को कांग्रेस की 'बी' टीम बताया ही था दोनों की सरकारों द्वारा समान नीतियाँ अपनाने से जब जनता को भी ऐसा ही आभास होने लगा तब शातिर संघियों ने देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के सहयोग से NGOs का मोर्चा 'आप' पार्टी के रूप में गठित करा दिया जो NGOs एवं कारपोरेट घरानों को 'लोकपाल'के दायरे से मुक्त रखने का ज़बरदस्त अभियान चलाये है और अभी सफल भी है। 

भ्रष्टाचार के जनक उद्योगपति/व्यापारी,IAS/IPS होते हैं और इनकी ही पत्नियाँ अधिकांश NGOs की संचालक हैं। स्पष्ट है कि 'आप' पार्टी श्रमिकों/किसानों का शोषण करने वाले व्यापारियों/उद्योगपतियों एवं उनके सहयोगी IAS/IPS का बचाव करने वाली पार्टी है न कि आम जनता की हितैषी। इस सबके बावजूद जो लोग खुद को 'कम्युनिस्ट' बताते हुये भी 'आप' का घोषणा-पत्र प्रचारित कर रहे हैं उसकी वकालत कर रहे हैं तो साफ है कि वे RSS को ही संरक्षण प्रदान कर रहे हैं। 

एक ओर कम्युनिस्ट खुद परस्पर बंटे हुये हैं उस पर उनके बीच ऐसे संघियों का प्रवेश भविष्य की राजनीतिक परिस्थितियों का एक भयावह संकेत प्रस्तुत करता है। पुलिस,सेना,विभिन्न सरकारी विभागों में बैठे संघी भाजपा,कांग्रेस,आप के संघियों की खुल कर मदद करेंगे तथा कम्युनिस्टों के बीच घुस आए संघी तोड़-फोड़ करेंगे। तब एकमात्र मार्ग हिंसक और रक्त-रंजित क्रांति का ही बचेगा जैसा कि 'नया ज़माना',सहारनपुर के संस्थापक संपादक कन्हैया लाल मिश्र'प्रभाकर' ने RSS प्रचारक लिंमये से दिल्ली में कहा था और अपने एक समपादकीय मे इसका उल्लेख किया था। 

1925 में स्थापित सर्वाधिक पुराने राजनीतिक दल 'भाकपा' जिसने संसदीय लोकतन्त्र को अख़्तियार किया है से यह अपेक्षा है कि आगे आ कर संसदीय लोकतन्त्र की रक्षा हेतु समस्त कम्युनिस्ट शक्तियों को एकजुट करे व अपने बीच से संघियों की छुट्टी करे। अन्यथा आने वाले समय में भूखी जनता जब क्रांति करेगी तो नेतृत्व छोटे-छोटे गुटों के हाथ में होगा। भाकपा को उनका अनुसरण करना तब मजबूरी होगी। अभी समय है कि 'आप' के समर्थकों से पार्टी किनारा कर ले। 
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Wednesday 18 December 2013

भोजपुरी का शेक्सपीयर: भिकारी ठाकुर ---संजोग वाल्टर/प्रकाश कुमार







भिखारीठाकुर (18 दिसम्बर 1887 -10 जुलाई, 1971) 
  भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी लोक जागरण के सन्देश वाहक, नारी विमर्श एवं दलित विमर्श के उद्घोषक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक थे। भिखारी ठाकुर बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया। उनको 'भोजपुरी का शेक्सपीयर' भी कहा गया।




फ्रेंच अभिनेत्री लेया और भोजपुरी गायिका देवी





 भारत के कलरफुल कल्चर और हैप्पी पीपुल की आतिथ्य सत्कार को दिल से नमन : लेया
भोजपरी के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर की 126वीं जयंती समारोह में शिकरत करेंगी फ्रांस की अभिनेत्री

भारत की संस्कृति और भोजपुरिया माटी की सुगंध के आकर्षण ने फैशन सिटी पेरिस की कलाकार लेया पर कुछ इस तरह जादू किया कि वह बरबस छपरा खींची चली आयी। फ्रांस का पेरिस शहर दुनिया भर में अपने फैशन के अंदाज और एफिल टावर के लिए प्रसिद्ध है। देश-दुनिया के लोगों की दिली तमन्ना खासकर सिने कलाकारों की इच्छा जीवन में एक बार इस जगह पर पहुंचने और करीब से देखने की होती है। पेरिस में जन्मीं और पली-बढ़ी इस खूबसूरत बाला को इस शहर का मोह पाश भी नहीं बांध पाया। बचपन से लेकर आज तक कई टीवी सीरियलों में काम कर चुकीं इस अभिनेत्री को शुरू से ही भारतीय संस्कृति की सहजता ने मन मोह लिया था। सिने स्टार व भोजपुरी की प्रसिद्ध गायिका देवी के छपरा स्थित आवास पर मुलाकात के दौरान दिलकश मुस्कान बिखेरती इस अभिनेत्री हाथ जोड़ते हुए बोल पड़ती हैं नमस्कार! भारत के कलरफुल कल्चर और हैप्पी पीपुल की आतिथ्य सत्कार को वह दिल से नमन करती है। उनका कहना है कि दुनिया में ऐसा आतिथ्य देखने को नहीं मिलता। यहां के लोगों की आत्मीयता की वे कायल हो गयी हैं। फ्रांस की कई टीवी सीरियल और डाक्यूमेंट्री की यह अदाकारा एक अच्छी बैले डांसर भी हैं। बावजूद इसके कत्थक, भरत नाट्यम और अन्य कई शास्त्रीय नृत्यों की वह दीवानी हैं। रामलीला, देवदास, वीरजारा जैसी हिंदी फिल्म उसे काफी पसंद आयी। हिंदी फिल्मों में काम करने के लिए उसे आफर मिलने शुरू हो गये हैं लेकिन अभी वह भारतीय संस्कृति, भाषा और यहां के अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य को सहेज लेना चाहती हैं। वाराणसी, ऋषिकेष के बाद देवी की भोजपुरी फिल्मों ने उसे छपरा आने पर मजबूर कर दिया। हिंदी और भोजपुरी गानों को सुन वह झूम उठती हैं। कहती हैं- ठोड़ा-ठोड़ा अन्डर स्टैण्ड, दीज लैंग्वेजेज वेरी इंटरेस्टिंग। भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर जयंती समारोह में शिरकत करने आयीं है। बुधवार को वे इस महान नाटककार और सामाजिक प्रणोता की 126वीं जयंती पर उन्हें अपना भाव पुष्प अर्पित करेंगी।

Monday 16 December 2013

कमजोर तबके को पूर्ण रूप से जागरूक करना होगा, तभी हम समाजवाद या वैदिक काल के साम्यवाद की कल्पना कर सकते हैं ??---Jagdish Chander

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 http://communistvijai.blogspot.in/2013/12/blog-post_15.html

दिये लिंक (हमारे पिछले पोस्ट ) पर कामरेड  Jagdish Chanderजी ने 'जनवादी जन मंच'ग्रुप में जो टिप्पणियाँ दी हैं उनको संयुक्त रूप से यहाँ आलेख रूप में दिया जा रहा है :---
Jagdish Chander :
 सुधा सिंह जी का सवाल और धर्मेन्द्र प्रताप सिंह जी का नजरिया पर आनंद प्रकाश तिवारी जी स्पष्ट रूप से आम आदमी पार्टी को भारत का भविष्य मान रहे हैं, दुःख इस बात का है कि यदि कोई वरिष्ट कामरेड अपने को एक वाम विचारधारा का मानते हैं तो क्या वे कम्युनिस्ट के सिद्धांतो से भली भाँती परिचित नहीं हैं हम तो आपको वाम विचारधारा का मार्गदर्शक समझते हैं और हम आपके विचारों को पढ़ कर हताशा के भंवर में फंश जाते हैं, किन्तु हम यह भी समझते हैं कि बहुत से आप जैसे कामरेड हताशा में अपना यह मार्ग छोड़ जाते हैं, हो सकता है वे भी आपके सामान अपने ही जीवन में समाजवाद और साम्यवाद पूरे देश और दुनिया में स्थापित होते देखना चाहता हो , ऐसा होना स्वाभाविक ही है, हम वाम विचारधारा के सामाजिक कार्यकर्ता जब अपने को तथाकथित किसी भी धर्म का अनुयायी मानते हैं तो ऐसा ही होता है ? क्योंकि तथाकथित धार्मिक विचार हमें हताशा की ही और ले जाते है इसी कारण वहुत से वाम विचारधारा के मित्र वाम मार्ग को हताशा में छोड़ कर चले गए , कहाँ गए कुछ पता नहीं चलता ?? वामपंथी विचारधारा में मैंने सबसे पहले जो सिक्षा ली है वह है कि :- " हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है , किन्तु पाने के लिए सारा संसार पढ़ा है" ? कम्युनिस्म एक विज्ञान है ? इसलिए उसे हमें विज्ञानिक नजरिये से ही देखना , पढ़ना और समझना होगा ? उत्पादन के साधनों का स्वामी समाज होगा ? क्या हमने इसे विज्ञानिक नजरिये से समझा है ? सायद नहीं ? उत्पादन के साधन क्या हैं ? और इन उत्पादन के साधनों का स्वामी वर्त्तमान में कौन है ? और समाज क्या है और कैसे यह समाज उत्पादन के साधनों का स्वामी बनेगा आदि आदि ?
इतिहास के थोड़ा सा गर्भ में जाते हैं, कहा जाता है कि वैदिक काल यानि आदिम मानव जब जंगलों में रहता था, पेट भरने के लिए वह जीवों और जीव न मिलने पर अपने मानव साथियों को भी मार कर खा जाता था, काल परिवर्तन में वह उस जीवन से निकल कर जब मानव सभ्य होने लगा तो वह कबीलों और फिर काल परिवर्तन यानि हर बार कालपरिवर्तन का अर्थ है कि उसकी बुद्धि विकसित होती गयी, और धीरे धीरे उसे विद्द्या ज्ञान यानि वैदिक ज्ञान प्राप्त होने लगा, यानि वह भोजन के लिय़े जंगली जीवों को अपने उपयोग के लिए पालने लगा और उसे मांश के लिए जंगलों में नहीं जाना पढता था, सो उसे भोजन के लिए मानवों का मांश खाने की जरूरत नहीं पढ़ी ?? ??????????


 2 ---- - इस प्रकार उस काल के मानव समाज की बुद्धि का जब विकास होने लगा तो वह अपनी विकसित बुद्धि के जरिये खेती बाड़ी करने लगा, तब तक सायद मानव कबीलों में ही रहता था, जनसंख्या के बढ़ते कबीलों के क्षेत्र निर्धारित होने लगे, फिर भी वही जंगली प्रवृति नहीं छोड़ पा रहे थे, बुद्धि और विकसित हुयी, विज्ञानिक सिद्धांत है कि आवस्यकता अविस्कार की जननी है, तब लेखनी का जन्म हुआ, प्रारम्भिक लेखनी में मानव चित्रों में ही अपने विचार ब्यक्त करता था, और फिर कालपरिवर्तन में विकसित कबीलो की रचना होने लगी, अधिक विकसित बुद्धि के मनुष्यों ने सोचा कि यह कबीलों का आपसी संघर्ष बंद होना चाहिए वे संगठित होने लगे, और उस लेखनी को रेखाओं आदि विकसित तरीके से विचार ब्यक्त करने लगे, उस ज्ञान से विचारों को उस काल के ताल पत्रों यानि ताड़ के बृक्षों के बड़े बड़े पत्तों में , आदि में रचना करने लगे और उसके बाद सायद रेखाओं को जोड़कर अक्षरों का ज्ञान और काल परिवर्तन में धातु का अविस्कार और तब धातुओं के ताम्रपत्रों में विचार संचित होने लगे, यही वह काल था जब मानवों की जनसंख्या बहुत अधिक बढ़ने लगी , और आवस्यकता की वस्तुओं को पाने के लिए दुसरे दुर्बल कबीलों से युद्ध करके उसे छीन लिया जाता था, इस प्रकार युद्धों में बहुत से मानवों की हत्याओं से बाद में वस्तुओं की आपूर्ति तो होनी ही थी क्योंकि जिस वास्तु का वह कबीला उत्पादन करता था जरूरी नहीं कि उसका ज्ञान उस दुसरे कबीले को रहता होगा ? क्रमानुसार विकास के सिद्धांत में मनुष्य ने वर्ण ब्यवस्था को जन्म दिया , मनुष्य के सरीर की रचना के सिद्धांत पर मनुष्य के ब्रह्म यानि सर के भाग को एक हिस्सा, दूसरा मनुष्य के वक्षसतल यांनी मनुष्य की छाती, और तीसरा मनुष्य के पेट यानि रूद्र, और चौथा सरीर का सबसे निचला भाग उसके पैर, इस प्रकार मनुष्य सरीर के हिस्सों के आधार पर चार वर्णो की स्थापना की ??? ????????????????????..........................

 3---- मनुष्य सरीर का सबसे ऊपरी हिस्सा मस्त यानि मनुष्य का सिर यानि मस्तिक में ही बुद्धि यानि ब्रह्म ज्ञान का द्रव्य होता है, इस लिए पहले वर्ण का नाम ब्राह्मण यानि ज्ञान देने वाला उसका कार्य लिखने और ज्ञान देने और विचारों के आदान प्रदान का था, दूसरा क्षत्रिय यानि जंगली जानवरों से रक्षा, चौकीदारी, और सिपाही, का कार्य, तीसरा , जिस प्रकार मनुष्य भोजन करता है और पेट के अंदर सुरक्षित रहकर सरीर के सभी हिस्सों में अनुपात के अनुसार खुराक भेजता है, उसी प्रकार तीसरे वर्ण का नाम वैश्य रखा गया, यानि वह उत्पादित सामान या वास्तु को समाज में अनुपात के अनुसार सामान रूप से वितरित करे,, और चौथा वर्ण बनाया सूद्र, मनुष्य के सरीर का सबसे निचला हिस्सा पैर का है, जो सरीर का सारा भार सम्भालता है, उस वर्ण का नाम सूद्र रखा गया ? वर्ण व्यवस्था वह ब्यवस्था थी जिसमे मनुष्यों के समूहों को उनकी योग्यता के अनुसार कार्य बाँट दिए गए ? सायद इसी काल को हम वैदिक काल कह सकते हैं, सायद वर्ण ब्यवस्था काफी विकसित ब्यवस्था थी ? तब उस काल में निश्चित रूप से किसी भी वर्ण की संतान के जन्म के पश्चात जब उसे ज्ञान प्राप्ति के लिए आश्रम में भेजा जाता तो उसकी बुद्धि और कर्म यानि उसकी शारीरिक बुद्धि या क्षमता या योग्यता के अनुसार उसे सिक्षा दी जाती थी, इस सन्दर्भ में हम यह स्पष्ट कर दें कि कालांतर में भी ऐसा निश्चित नहीं था और वर्त्तमान में भी ऐसा नहीं होता कि डाक्टर का पुत्र डाक्टर ही बनेगा, और शिक्षक का पुत्र शिक्षक ही और सैनिक का पुत्र सैनिक ही बनेगा, वैसे भी तब भी और आज भी योग्यता और सरीर की सक्षमता के अनुसार ही उसे उस का ज्ञान दिया जाता था , इसलिए वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण का पुत्र सूद्र के कार्य के योग्य होता तो उसे सूद्र का ही कार्य करना पढता था, क्षत्रिय का पुत्र भी यदि किसी भी ऊपर की तीनों वर्णों की योग्यता नहीं रखता तो उसे भी सूद्र का ही कार्य करना पड़ता था, इसी प्रकार वैश्य के पुत्र को भी ऊपर के तीनों वर्णों की अयोग्यता होने पर उसे भी सूद्र का ही कार्य करना पढता था, और कोई सूतपुत्र पुत्र यदि बुद्धिमान होता तो उसे उसकी योग्यता के अनुसार ब्राह्मण के वर्ण का कार्य दिया जाता था ?????????????????????????????/-----.........

 -4------ कामरेड्स यदि पढ़ने वाले बुरा न माने तो हम वर्त्तमान में यह कह सकते हैं कि कौन सी जाती का इंसान किस वर्ण की संतान है, कोई दावा नही कर सकता, क्योंकि जैसे ही जाती ब्यवस्था का चालाकी से जन्म होने लगा, सब कुछ मिक्स होने लगा , वर्ण ब्यवस्था के चौथे वर्ण सूद्र के पास उस काल में सबसे अधिक कार्य था, उत्पादन के तमाम साधन उसके ही हाथ में थे वह मालिक नहीं था क्योंकि उत्पादित वस्तुओं का वर्ण ब्यवस्था के काल में समाज के सभी वर्णो में बराबर की हिस्सेदारी होती थी, उस काल में सभी के पास रहने के लिए घर पहनने के लिए वस्त्र, और खाने के लिए अनाज होता था, उत्पादित वस्तुओं का आदान प्रदान वैश्य के सुपुर्द था क्योंकि उसे हिसाब किताब का ज्ञान दिया जाता था यानि वह एक स्थान से उत्पादित वास्तु को दुसरे स्थान पर विनिमय के आधार पर लाने और ले जाने का कार्य करता था, क्योंकि उस काल में सायद आवा गमन के साधन कम ही थे , यानि वह कुली का भी कार्य करता था, और क्षत्रिय का कर्म यानि कार्य तो उसकी सरीर की सक्षमता के अनुसार सिपाही, चौकीदार, और सुरक्षा गार्ड का ही होता था, कबीलों के प्रमुखों में सभी वर्णों की बराबर सामान भागेदारी हुआ करती थी कोई बड़ा और छोटा प्रमुख नहीं होता था, उम्र के हिसाब से सबसे बृद्ध ही प्रमुख होता होगा, वह चाहे सूद्र हो, इस प्रकार वही प्रमुख वर्ण ब्यवस्था को मजबूत बनाये रखते थे ??? इसी विकसित समाज में ब्राह्मणों के कार्य करने वाले विद्वानों ने वेदों की रचना की, यानि ज्ञान को कलम बांध करने लगे, लेकिन काल परिवर्तन में वर्णों में स्वार्थ पनपने लगा विशेषकर ब्राह्मण ने सोचा कि अपनी संतान को ऊपर के तीनों वर्णों की अयोग्यता होते हुए भी उसे ब्राह्मण का ज्ञान जबर्दस्ती देने लगा, क्योंकि तब उसकी समाज की एकता और समानता की सोच के विरुद्ध अपने खून के प्रति स्वार्थ पनपने लगा, और वह अज्ञानी पुत्र को ब्राह्मण का ज्ञान देने लगा, और वह अज्ञानी अधूरा ज्ञान प्राप्त करके , जिन रचित वेदों से वर्ण ब्यवस्था की रचना की गयी थी और उन वेदों के माध्यम से वर्ण व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही थी, उन वेदों में वह मन्त्रों के स्थान पर कुमन्त्रों को जोड़ने लगा ???????????????????????????????????????????...

 5------क्योंकि ज्ञान में रूचि न रखने वाला मनुष्य कुपरिवृतियों में निपुण हो जाता है, और तब हुयी पुराणों की रचना, जिसमे मन्त्रों को बदल कर कुमन्त्रों में उलटे सीधे संस्कार और कर्म काण्डों की रचना होने लगी, , यानि वेदों के पश्चात जन्म ,मृत्य, यात्रा ,किसी भी प्रकार का निर्माण, बीमारी, दुर्घटना आदि के कारणों को अज्ञात शक्ति के हाथों में नियंत्रित मानते हुए उनके निवारण के लिए पूजा पाठ,आदि कर्म काण्ड करने का उलटा ज्ञान दिया जाने लगा, क्योंकि बाकी सामान को तो आवस्यकता अनुसार ही ही दिया जाता था, आदि किसी भी प्रकार के कार्यों के आरंभ को कुमन्त्रों से पूजा पाठ आदि की ब्यवस्था की रचना कर दी , और तब जन्म हुआ वर्ण व्यवस्था के कार्यों के हिस्सेदारी पर अधिकार की सुरुआत , क्योंकि सूद्र की संख्या यानि कह सकते हैं आज के दलित , पिछड़े, और ट्राईबल उस काल में यह वर्ण कुल जनसंख्या का सायद, ९०% रहा होगा, क्योंकि यही वर्ण मेहनती था, और उत्पादन के सभी साधन उसी के हाथ में थे, ब्राह्मण ने उसे ज्ञान देना बंद कर दिया और कहा कि तुम मेहनत करते हो तुम्हारे पास समय कम होता है, इसलिए तुम अपने काम में लगे रहो,पढ़ने की कोई आवस्यकता नहीं और वह बेचारा उस चतुर अज्ञानी ब्राह्मण की चतुरता को नहीं समझ पाया, और काल परीवर्तन में वह अज्ञान के अँधेरे में ही सोया और पढ़ा रहा, तब उस चतुर तथाकथित अज्ञानी ब्रहामण ने चातुरता से उत्पादन के साधनों पर लेखनी द्वारा अपना स्वामित्व कायम करना आरम्भ कर दिया, और कालांतर में उस तथाकथित चतुर ब्राह्मण ने राजतंत्र की स्थापना करनी आरम्भ कर दी ?? ????????????????????????????????/-----.....

--6---------- और इस प्रकार us kaal me ताकतवर चौकीदार, सिपाही, और सुरक्षा गार्ड में से एक को राजा बना दिया और वैश्य को उत्पादन रखने के भांडारों का मालिक बना दिया, और चतुर्थ वर्ण को मेहनत के लालच में उलझाये रखा, तब होता है जाती ब्यवस्था का जन्म, और तब ब्राह्मण राजा को नियुक्त करता है, और समाज की आवस्यकता के अनुसार वर्णों को जाती में बदलने के पश्चात उसकी आवस्यकता के अनुसार ज्ञान देने लगा, और तब उसने राजा की परिभाषा देनी आरम्भ कर दी कि राजा भगवान् का भेजा हुआ प्रतिनिधि है, क्योंकि कर्म काण्ड, तो वह कुमन्त्रों की रचना करते हुए ही आरम्भ कर चुका था, सो राजा भगवान् का भेजा हुआ प्रतिनिधि है, यानि राजा का आदेश भगवान् का आदेश माना जाएगा, क्योंकि परिभाषा तो तथाकथित ब्राह्मण ने निश्चित कर दी थी इस लिए वह जब चाहे राजा और प्रजा को को भगवान् के भय से कहीं भी घुमा सकता था, क्योंकि समाज को उसके कार्य की योग्या के अनुसार ही ज्ञान दिया जाता था, यानि उस तथाकथित ब्राह्मण ने सभी वर्णों को परिवर्तित जातियों में रचना करते हुए उसके कार्य पुराणों में निर्धारित कर दिए थे, और वह ताकत के साथ मिलकर बाकी समाज का शोषण और उत्पीड़न करने लगा, काल परिवर्तन में उसके हाथ में हमेशा ही लड्डू रहते हैं ? अब हम उक्त सही विषय में आते हैं, कि जाती ब्यवस्था और फिर बाद में तथाकथित धर्म का जन्म , इस प्रकार हमारे अंदर आदिम काल की कुप्रवृति के बीज तो हैं, इस लिए हम अपनी ऊंची जाती के होने पर अपने को सभी मनुष्यों में सर्वश्रेष्ट मानते हैं, और दूसरों का दमन और शोषण करने से नहीं हिचकिचाते,क्योंकि हमारे अंदर आदिम कुप्रवृति जीवित है,हम प्रतेक वास्तु पर अपना अधिकार या वर्चस्व चाहते हैं, सब कुछ एक साथ पाना चाहते हैं , इस कुप्रवृति को समाज से दूर करने के लिए समाज को पूरे इतिहास का सही ज्ञान यानि जागरूक कर सही दिशा देनी होगी , वर्ण व्यवस्था का पूरा ज्ञान सही तरीके से पढ़ाना होगा, हाँ यह भी सत्य है कि सदियों से दलितों और पिछड़ों को ज्ञान से वंचित रखा गया था और उनसे सभी अधिकार छीन लिए गए थे, इस लिए दलित और पिछड़े समाज को सर्वप्रथम जागरूक करना होगा, कालांतर पूर्व ताकतवर समाज प्रतेक उत्पादन के साधनों पर अपना वर्चस्व कायम कर चुका था, इसी लिए आज भारत के गावो में रहने वाले ८०% लोग निर्धन ही हैं, उसमे भी सबसे अधिक निर्धन दलित और पिछड़े ही हैं क्योंकि वह वर्णव्यवस्था के काल से ही मेहनत करते रहे हैं, और इसी कारण वह अज्ञानता के अन्धकार में ही डूबे रहे क्योंकि उन्हें ज्ञान से वंचित ही रखा गया था यानि उन्हें ज्ञान दिया ही नहीं गया था इसी प्रकार सवर्ण वर्ग के कमजोर तबके को पूर्ण रूप से जागरूक करना होगा, तभी हम समाजवाद या वैदिक काल के साम्यवाद की कल्पना कर सकते हैं ??