Friday 22 June 2018

चुनाव में बहुमत प्राप्त करना प्राथमिक लक्ष्य ------ अतुल अंजान



संबित पात्रा ने जब पंडित नेहरु का अपमानजनक शब्दों से उल्लेख किया तब कामरेड  अतुल अनजान ने उनकी  बखियाउखेडते हुये कहा कि, आखिरकार पंडित जवाहर लाल नेहरू आज़ाद भारत के पहले प्रधामन्त्री थे और उनका इस प्रकार अपमान बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। बाद में संबित पात्रा  को नेहरू जी कहना पड़ा। 
इसी प्रकार कामरेड अंजान ने पंडित मोतीलाल नेहरू के स्वतन्त्रता आंदोलन में योगदान का ज़िक्र करते हुये बताया कि उन्होने क्रांतिकारियों के मुकदमे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़े थे जिनमें सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद आदि के साथ उनके अपने पिताजी भी शामिल थे। 
कामरेड अंजान ने भाजपा की इस मांग को ठुकराते हुये कि, विपक्ष पहले अपने संभावित पी एम का नाम घोषित करे कहा कि चुनाव में बहुमत प्राप्त करना प्राथमिक लक्ष्य है उसके बाद निर्वाचित सांसद अपना नेता चुन लेंगे जो प्रधानमंत्री बनेगा। 



Monday 18 June 2018

आ आ पा ( AAP ) को समर्थन देने वाले मोदी और भाजपा को मजबूत कर रहे हैं ------ विजय राजबली माथुर







समाजशास्त्र (सोशियोलाजी ) में ज़िक्र आता है कि, प्राचीन समाजों के इतिहास का अध्यन  करने हेतु प्रतीकों  का अवलोकन करके निष्कर्ष निकाला जाता है। हालांकि, आधिकारिक  रूप से पुष्टि तो इसकी भी नहीं की जा सकती है। बी ए के कोर्स की पुस्तक में दो उदाहरण देकर इसे सिद्ध किया गया है।
 ( 1 ) जंगल में धुआँ  देख कर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि, आग लगी है। 
( 2 ) किसी गर्भिणी को देख कर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि, संभोग हुआ है। 
जबकि आधिकारिक रूप से कहने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है किन्तु ये अनुमान बिलकुल सटीक होते हैं। 
 साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा के स्वार्थ लोलुप लोग आसानी से आर एस एस की चाल का शिकार खुद - ब - खुद बन चुके हैं । ऐसे लोग न घर के होते हैं न घाट के।
 सन 2011 में जब राष्ट्रपति चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी  और मनमोहन सिंह जी को राष्ट्रपति बना कर प्रणव मुखर्जी साहब को पी एम बनाने की कवायद शुरू हुई तब जापान की यात्रा से लौटते में विमान में सिंह साहब ने पत्रकारों से कहा था कि , वह जहां हैं वहीं ठीक हैं बल्कि , तीसरी बार भी पी एम बनने के लिए प्रस्तुत है। जब सोनिया जी इलाज के वास्ते विदेश गईं तब सिंह साहब की प्रेरणा से हज़ारे / रामदेव आदि ने कारपोरेट भ्रष्टाचार के संरक्षण में जनलोकपाल आंदोलन खड़ा कर दिया जिसका उद्देश्य संघ / भाजपा / कारपोरेट जगत को लाभ पहुंचाना था। आज की एन डी ए  सरकार के गठन में सौ से भी अधिक भाजपाई बने कांग्रेसियों का प्रबल योगदान है। 
जनसंघ युग में ब्रिटेन व यू एस ए की तरह दो पार्टी शासन की वकालत उनका उद्देश्य था। उस पर अमल करने का मौका उनको अब मिला है जब भाजपा केंद्र की सत्ता में और आ आ पा उसके विरोध की मुखर पार्टी के रूप में सामने है। 
आ आ पा का उद्देश्य कांग्रेस, कम्युनिस्ट, समाजवादी,अंबेडकरवादी आदि समेत सम्पूर्ण विपक्ष को ध्वस्त कर खुद को स्थापित करना है। भाजपा के विपक्ष में आ आ पा और आ आ पा के विपक्ष में भाजपा को दिखाना आर एस एस की रणनीति है। बनारस में मोदी साहब को आसान जीत दिलाने के लिए केजरीवाल साहब ने वहाँ पहुँच कर भाजपा विरोधियों को ध्वस्त कर दिया था और पुरस्कार स्वरूप दिल्ली में थमपिंग मेजारिटी से उनकी सरकार का गठन हो गया तथा कांग्रेस समेत सम्पूर्ण विपक्ष ध्वस्त हो गया। 
अभी भी जो लोग आ आ पा में विश्वास बनाए रखते हैं वे वस्तुतः अप्रत्यक्ष रूप से मोदी और भाजपा को ही मजबूत बनाने में लगे हुये हैं। 
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Friday 15 June 2018

जनता की सहानुभूति व समर्थन पाने में विफल क्यों कम्यूनिज़्म ? ------ विजय राजबली माथुर

वर्ष 1978 - 79 में सहारनपुर के 'नया जमाना'के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1951  - 52 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व.लिमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि,कम्युनिस्टों  और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई  दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।
प्रोफेसर निष्ठा के विचार उसी तथ्य की ओर इंगित कर रहे लगते हैं। 
छात्रों-नौजवानों को देश के सामने आई विकट समस्याओं पर भी विचार करना चाहिए क्योंकि भविष्य मे फासिस्ट तानाशाही से उन्हें ही टकराना पड़ेगा। अतः आज ही कल के बारे मे भी निर्णय कर लेना देश और जनता के हित मे उत्तम रहेगा।
ब्राह्मणवादी, ढ़ोंगी-पाखंडी तो कहते ही हैं दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि, वामपंथी, साम्यवादी औरे एथीस्ट भी 'हिन्दू ' को  'धर्म ' ही  मानते हैं। जबकि वस्तुतः 'हिन्दू ' शब्द सर्वप्रथम बौद्ध ग्रन्थों में हिंसक गतिविधियों में संलिप्त लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ था। फिर फारसी या ईरानी आक्रांताओं ने एक गंदी व भद्दी गाली के रूप में भारतवासियों के लिए 'हिन्दू ' शब्द का प्रयोग प्रारम्भ किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने ' हिन्दू ' एक राजनीति का शब्द माना है कोई ' धर्म ' नहीं। परंतु सरकारी कागजों में, ब्राह्मण वादियों के प्रचार में व वामपंथी, साम्यवादी के साथ साथ एथीस्ट संप्रदाय भी 'हिन्दू ' को 'धर्म ' की संज्ञा दे रहा है।
क्यों नहीं जनता को 'धर्म ' का वास्तविक ' मर्म ' समझाया जाता ? क्यों नहीं जनता को बताया जाता कि, हिन्दू,इस्लाम,ईसाइयत,सिख,पारसी आदि कोई धर्म नहीं हैं ? जब तक आप जनता को अध्यात्म, भगवान,धर्म,ईश्वर की सही व्याख्या नहीं बताएँगे जनता आपकी बातें सुनने को तैयार ही नहीं होगी। भारत में सशस्त्र क्रांति संभव होती तो 1857 में ही सफल हो जाती तब गांधी जी को  ' सत्य व अहिंसा ' को हथियार न बनाना पड़ता। सम्पूर्ण मार्क्स वाद सही होते हुये भी भारत में मार्क्स और लेनिन / स्टालिन के बताए मार्ग से प्रस्तुत न किए जाने के कारण भारत की जनता की सहानुभूति व समर्थन पाने में विफल है। आपको जनता के बीच समझाना होगा कि , धर्म का नाम लेने वाले खुद ही अधार्मिक हैं क्योंकि , :
समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है ? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है। 
* धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
* भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
* चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं।
 * इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
* ईश्वर = जो ऐश्वर्यशाली हो अर्थात आज की इस दुनिया में कोई भी नहीं। 
* अध्यात्म = अध्ययन + आत्मा अर्थात अपनी आत्मा का अध्ययन न कि ढोंगियों  का आडंबर। 
* ' सन्त ' = संतुलित हो जीवन जिसका वह सन्त है।
* 'साधू ' = साध लिया हो अपना जीवन जिसने ( who have balanced his / her life ) साधू होता है।
लेकिन समाज में इन शब्दों के मर्म को न समझ कर गलत अर्थ में लिया जाता है तभी समाज व राष्ट्र को दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं।









Wednesday 13 June 2018

Indian Democracy Under Attack : Atul Kumar Anjaan



biju mohan
Published on May 1, 2018
Com.Atul Kumar Anjaan is a senior CPI leader and national secretary of the Communist Party of India. He talks about the growing fascist politics and its impact on democracy.




India Today Social
Published on May 26, 2018
CPI नेता अतुल अंजान पहुँचे पंचायत आजतक पर, Sweta Singh के साथ बातचीत में उन्होंने शायराना अंदाज में मोदी सरकार पर बोला हमला.

Friday 1 June 2018

सिनेमा में समाजवादी नजरिये को स्थापित किया ख्वाजा अहमद अब्बास ने ------ इकबाल रिजवी






* अपनी ही एक कहानी पर उन्होंने 1946 में इप्टा के लिये ‘धरती के लाल’ बनायी। यह भारत की पहली नवयथार्थवादी फिल्म मानी जाती है। 1951 में ख्वाजा ने अपनी मर्जी की फिल्में बनाने के लिये नया संसार नाम से एक फिल्म कंपनी खड़ी की जिसके बैनर तले उन्होंने अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ (1970) सहित 13 फिल्में बनायीं।
** हिंदी सिनेमा जगत को कई बेहद सार्थक फिल्में देने वाले ख्वाजा अहमद अब्बास को भुला दिया गया 
*** सबसे पहले ख्वाजा ने ‘मुन्ना’ नाम से एक बिना गीतों वाली फिल्म बना कर सबको चौंका दिया था।
**** अपने निर्देशन की फिल्मों में उन्होंने गरीबी, अकाल, छुआ-छूत, सांप्रदायिकता और समाजिक असमानता जैसे मुद्दों को केंद्र में रखा। हर फिल्म जो उन्होंने बनायी उसके पीछे एक मकसद हुआ करता  था।
***** राजकपूर के साथ मिल कर ख्वाजा ने हिंदी सिनेमा को नयी दृष्टि दी, लेकिन इसका सारा श्रेय राजकपूर को ही दिया जाता है।






ख्वाजा अहमद अब्बास ने कई बेहद सार्थक और शानदार फिल्में बनायीं जो न सिर्फ भारतीय फिल्मों के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गयीं, बल्कि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी सराहना मिली। लेकिन आज एक फिल्मकार के रूप में उनको यानी ख्वाजा अहमद अब्बास को भुला सा दिया गया है।ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्म 1914 में पानीपत में हुआ था। 1934 में अलीगढ़ विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान ही वे दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘नेशनल सेल’ और अलीगढ़ से निकलने वाले समाचारपत्र ‘अलीगढ़ ओपीनियन’ में कॉलम लिखने लगे। फिर उन्होंने ‘बॉम्बे क्रानिकल’ में लिखना शुरू किया, जहां उन्हें फिल्मों की समीक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। इससे फिल्मी क्षेत्र में उनका नाम चर्चित होने लगा।
शुरूआती दौर में फिल्म समीक्षाओं के लिये ख्वाजा ने करीब 300 देशी विदेशी फिल्में देखीं। उनका समीक्षा लिखने का अपना अंदाज, था जो बहुतों को चुभता था। वी शांता राम की फिल्म ‘आदमी’ की रिलीज डेट कई बार टाली जा रही थी। इस पर उन्होंने लिखा कि शायद शांताराम का आदमी पूना से पैदल चल कर बम्बई आ रहा है और ऐसा लगता है कि राह में थक कर किसी पेड़ के नीचे सो गया है। इस टिप्पणी से शांताराम खासे नाराज हुये। इसीलिये जब ‘आदमी’ रिलीज हुई तो फिल्म समीक्षक होने की हैसियत से ख्वाजा को फिल्म का पास नहीं भेजा गया। लेकिन अब्बास ने अपने पैसे खर्च कर ये फिल्म 18 बार देखी और फिल्म की तारीफ में 7 कॉलम का लंबा चौड़ा लेख लिखा।
लेकिन इसके बावजूद उनकी बेबाक फिल्म समीक्षाओं से तिलमिलाए कई फिल्मकार तंज कसा करते थे कि फिल्म समीक्षा लिखना आसान होता है लेकिन फिल्म बनाना बहुत मुशकिल। ख्वाजा ने इसे चुनौती की तरह लिया और एक कहानी लिखी। बॉम्बे टॉकीज ने इस कहानी पर ‘नया संसार ( 1941)’ नाम से एक फिल्म बनायी। इसमें अशोक कुमार और रेणुका देवी ने अभिनय किया था। फिल्म ने रजत जयंती मनायी। फिर ख्वाजा ने तीन और फिल्मों की कहानियां लिखीं, लेकिन जब ये फिल्में रिलीज हुईं तो ख्वाजा को यह देख कर हैरत हुई कि जो कहानी उन्होंने लिखी थी, उसके कुछ अंशों को छोड़ कहानी पूरी तरह बदल दी गयी थी। उन्होंने इसकी शिकायत निर्देशकों से की तो उन्हें जवाब मिला की अपनी लिखी कहानी पर हू ब हू वैसी ही फिल्म देखना चाहते हो तो फिल्म का निर्देशन खुद कर लो।
ख्वाजा ने इस चुनौती को भी स्वीकार किया। अपनी ही एक कहानी पर उन्होंने 1946 में इप्टा के लिये ‘धरती के लाल’ बनायी। यह भारत की पहली नवयथार्थवादी फिल्म मानी जाती है। 1951 में ख्वाजा ने अपनी मर्जी की फिल्में बनाने के लिये नया संसार नाम से एक फिल्म कंपनी खड़ी की जिसके बैनर तले उन्होंने अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ (1970) सहित 13 फिल्में बनायीं।
ख्वाजा ने पत्रकारिता की हो, साहित्य रचा हो या फिर फिल्में बनायीं हों, उन्होंने बुरे से बुरे हालात में भी सामाजिक प्रतिबद्धता से मुंह नहीं मोड़ा। अपने निर्देशन की फिल्मों में उन्होंने गरीबी, अकाल, छुआ-छूत, सांप्रदायिकता और समाजिक असमानता जैसे मुद्दों को केंद्र में रखा। हर फिल्म जो उन्होंने बनायी उसके पीछे एक मकसद हुआ करता था।
फिल्म ‘राही’ में ख्वाजा ने चाय बागानों के मजदूरों के हालात को दिखाया तो ‘ग्यारह हज़ार लड़कियां’ (1962) में कामकाजी महिलाओं की परेशानियों को उजागर किया। ‘शहर और सपना’ (1963) में फुटपाथ पर जिंदगी बिताने वालों की समस्याओं का वर्णन है और ‘बम्बई रात की बाहों में’ (1967) बना कर महानगरों में रात में चलने वाले गैर कानूनी धंधों का चित्रण किया। इसी क्रम में उन्होंने नक्सल समस्या पर ‘दी नक्सलाइट’ (1980) बनायी। बिना गीतों के हिंदी फिल्मों की कल्पना भी नहीं की जी सकती है, लेकिन सबसे पहले ख्वाजा ने ‘मुन्ना’ नाम से एक बिना गीतों वाली फिल्म बना कर सबको चौंका दिया था।
ख्वाजा अहमद अब्बास ने करीब 40 फिल्मों की कहानियां और स्क्रीन प्ले लिखे। अपने बैनर के अलावा उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में अपने प्रशंसक राजकपूर के लिये लिखीं। राजकपूर ने उनसे 1951 में पहली फिल्म ‘आवारा’ लिखवायी। यहीं से ख्वाजा और राजकपूर की दोस्ती शुरू हुई जो ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) से होती हुई राजकपूर की मौत तक कायम रही। इस बीच ख्वाजा ने राजकपूर के लिये एक मात्र मसालेदार फिल्म ‘बॉबी’ (1973) लिखी, लेकिन इसमें भी वो समाजवादी नजरिये को स्थापित करने में सफल रहे।
राजकपूर के साथ मिल कर ख्वाजा ने हिंदी सिनेमा को नयी दृष्टि दी, लेकिन इसका सारा श्रेय राजकपूर को ही दिया जाता है। 1 जून 1987 को इस दुनिया को अलविदा कहने से ठीक पहले तक बीमारी से जूझ रहे ख्वाजा अपनी फिल्म ‘एक आदमी’ की डबिंग का काम पूरा करने में जुटे थे। ये फिल्म उनके निधन के बाद रिलीज हुई। फिल्मी दुनिया के अधिकांश दिग्गज और बुद्धिजीवी सिने समीक्षक उनकी फिल्मों को साधरण डाक्यूमेंट्री ही मानते रहे। उनकी फिल्मों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा। इस फिल्मकार को फिल्म जगत ने वो सम्मान कभी नहीं दिया जिसके वो असल हकदार थे।

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