Thursday 28 January 2016

संविधान बचाने का संकल्प लीजिये ------ अतुल कुमार अंजान

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव एवं अखिल भारतीय किसानसभा के राष्ट्रीय महासचिव कामरेड अतुल कुमार अंजान साहब ने देशवासियों से भारतीय गणतंत्र  व  संविधान बचाने का संकल्प  लेने की अपील की है । उनका संदेश निमन्वत है :

" इस बड़े देश भारत को आगे ले जाने के लिए बड़ा दिल रखना होगा। संविधान बचाने का संकल्प लीजिये, गणतंत्र ज़िन्दाबाद" ------ अतुल कुमार अंजान 
27-01-2016 
11:47:25 pm





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Monday 25 January 2016

NEED FOR INDIAN RENAISSANCE : M.N.ROY ------ N.d. Pancholi


N.d. Pancholi
ON THE OCCASION OF 62 DEATH ANNIVERSARY OF 
M.N.ROY (21ST March 1887-25th January 1954):
From his writings :

NEED FOR INDIAN RENAISSANCE :

Our present misfortune is due to the fact that India did not have her renaissance movement. Having had gone ahead of the European people in the earlier stages of intellectual development, she should have gone through the philosophical revolution known as the ‘Renaissance’, if insurmountable obstacles were not inherent in her ancient heritage. Suffice it to say at this moment that, upon the downfall of Buddhism, Indian intellectual life made no room for rationalism, and thus precluded the possibility of the eventual development of scientific thought.
GENUINE SECULARISM :
An alternative development in the democratic and therefore genuinely secular direction will be possible only when the placid background of ignorance, superstition and blind faith will be ploughed up by the spread of knowledge, skepticism and a critical attitude. These are the characteristic features of genuine secularism.
Indian Renaissance Institute

Thursday 21 January 2016

मानवीय मूल्यों की सच्ची प्रतिमूर्ती का ॰ बर्द्धन का भावपूर्ण स्मरण

**जब आज ब्राह्मण वाद और जातीय भेद-भाव निकृष्ट तांडव खेल, खेल  रहा है आज बर्द्धन जी की बेहद ज़्यादा ज़रूरत थी। उनका स्पष्ट कहना था कि बढ़ते ब्राह्मण वादी प्रकोप, जातीय व सांप्रदायिक उत्पीड़न से बचाव के लिए बर्द्धन जी की विचार-धारा पर चलने से ही लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। **

लखनऊ, 21 जनवरी, 2016 --- आज दोपहर भाकपा कार्यालय, 22 क़ैसर बाग पर कामरेड अशोक मिश्रा की अध्यक्षता  में दिवंगत राष्ट्रीय नेता कामरेड ए बी बर्द्धन की स्मृति में एक सभा का आयोजन किया गया जिसका संचालन इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव कामरेड राकेश ने किया। अन्य मंचस्थ लोगों में डॉ गिरीश, प्रेमनाथ राय, रामजी राय, रमेश दीक्षित और ताहिरा हसन शामिल थे। 

राकेश जी द्वारा बर्द्धन जी का संक्षिप्त परिचय दिये जाने के बाद भाकपा के प्रदेश सचिव  डॉ गिरीश ने अपने वक्तव्य में बर्द्धन जी को बहुआयामी व्यक्तित्व का धनी बताया और उनसे संबन्धित अनेक संस्मरणों पर प्रकाश डाला। 

माकपा के प्रदेश सचिव मण्डल की ओर से बोलते हुये प्रेमनाथ राय ने कहा कि वामपंथी एकता की जो पहल बर्द्धन जी ने शुरू की थी उसे आगे बढ़ाना और मजबूत करना ही उनको सच्ची श्रद्धांजली होगी। 

भाकपा ( माले ) के प्रदेश सचिव रामजी राय ने बर्द्धन जी को मानवीय मूल्यों का सच्चा वाहक बताते हुये वामपंथी एकता का उनको प्रेरक घोषित किया। बिहार के विगत चुनावों में वामपंथी एकता के लिए बर्द्धन जी के प्रयासों को उन्होने पूरा-पूरा श्रेय दिया। आगे भी इस मुहिम को चलाते रहने की उन्होने कामना की। 

 राकापा के प्रदेशीय नेता रमेश दीक्षित ने बर्द्धन जी को अद्भुत प्रतिभा का नायक बताया व उनके निजी व्यक्तित्व को श्रेष्ठ्ता का नमूना कहा। 

साहित्यकार - आलोचक वीरेंद्र यादव ने बर्द्धन जी की राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ-साथ उनकी साहित्य व कला पर भी समान पकड़ का उल्लेख किया। अपने साथ हुई बर्द्धन जी की साहित्यिक चर्चा का उल्लेख करते हुये उनकी खोजपूर्ण जिज्ञासा से भी श्रोताओं को अवगत कराया। 

सामाजिक कार्यकर्ता व महिला नेत्री ताहिरा हसन ने बर्द्धन जी को लोकतन्त्र व धर्म निरपेक्षता का सच्चा प्रहरी बताते हुये आज के समय में उनकी अनुपस्थिति से होने वाली रिक्तता का उल्लेख किया। उन्होने आगाह किया कि जब आज ब्राह्मण वाद और जातीय भेद-भाव निकृष्ट तांडव खेल, खेल  रहा है आज बर्द्धन जी की बेहद ज़्यादा ज़रूरत थी। उनका स्पष्ट कहना था कि बढ़ते ब्राह्मण वादी प्रकोप, जातीय व सांप्रदायिक उत्पीड़न से बचाव के लिए बर्द्धन जी की विचार-धारा पर चलने से ही लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। 

आल इंडिया वर्कर्स काउंसिल के ओ पी सिन्हा का कहना था कि बर्द्धन जी की योग्यता, क्षमता व विचारों का पूरा उपयोग नहीं किया गया है। उनके अनुसार बर्द्धन जी का व्यक्तित्व विचार धारा को मजबूत बनाने के लिए एक प्रभावी संबल है। 

बैंक यूनियन के नेता डॉ वी के सिंह ने बर्द्धन जी के व्यक्तित्व को  विचार धारा से ऊपर बताया। उन्होने उदाहरण देते हुये बताया कि भाजपाई विचार धारा का उनका एक साथी बर्द्धन जी की सादगी और महानता से प्रभावित होकर संघी विचार धारा को तिलांजली देकर भाकपा में शामिल हो गया था और अब पक्का कामरेड बन गया है। 

मानवाधिकार आंदोलन की नेता वंदना मिश्रा ने बर्द्धन जी की सादगी, दृढ़ता व प्रतिबद्धता का उदाहरण देते हुये बताया कि उनके पिता श्री ने पी एम राजीव गांधी द्वारा दिये जाने वाले सम्मान को भी ठुकरा दिया था किन्तु लखनऊ के शहीद स्मारक पर कामरेड अतुल अंजान की उपस्थिती में बर्द्धन जी के हाथों दिया गया सम्मान सहर्ष स्वीकार कर लिया था। यह बर्द्धन जी के प्रभावोत्पादक व्यक्तित्व का ही चमत्कार रहा। 

महिला फेडरेशन की नेता कमला वत्स ने उपरोक्त कथन की पुष्टि करते हुये कहा कि वह भी उस समारोह में उपस्थित थीं और वास्तव में बर्द्धन जी का व्यक्तित्व विशाल व महान था।  

रिहाई मंच के शाहनवाज़ ने बर्द्धन जी के व्यक्तित्व  को आत्मिक सम्बन्धों वाला बताया। उन्होने अपने छात्र काल की उस घटना का उल्लेख किया जब यू पी ए सरकार के दौरान वह अपने साथियों के साथ इलाहाबाद के छात्रों की समस्या पर दिल्ली  में समर्थन ढूंढ रहे थे। बर्द्धन जी ने उन लोगों को डेढ़ घंटे समय देकर उनकी समस्याएँ सुनीं, समझीं व निदान हेतु अपना सक्रिय योगदान दिया। बर्द्धन जी ने इलाहाबाद के कामरेड जिया लाल के संबंध में व्यक्तिगत हाल- चाल पूछे व उनसे संपर्क करने को कहा। एक राष्ट्रीय पार्टी के सर्वोच्च नेता रहते हुये व्यक्तिगत सम्बन्धों का ख्याल रखना बर्द्धन जी का मानवीय पक्ष है जिसने युवाओं को उनकी  व उनकी विचार धारा की ओर आकृष्ट किया था। 

प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से शकील सिद्दीकी, बिजली कर्मचारियों की ओर से रामनाथ यादव, रेलवे कर्मचारियों की ओर से अनिल त्रिपाठी ने  श्रद्धान्जली  अर्पित की। 

लखनऊ भाकपा के जिलामंत्री कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ ने बर्द्धन जी के व्यक्तित्व को प्रेरक, विचारवान, सादगीपूर्ण  व आकर्षक बताते हुये उनका अनुसरण किए जाने की अपेक्षा की। 

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कामरेड अशोक मिश्रा ने बर्द्धन जी के व्यक्तित्व के लचीले पक्ष पर प्रकाश डालते हुये आत्म-स्वीकृति की कि, उनकी ज़िद्द व सनक पर डॉ गिरीश को प्रदेश सचिव बनाने के लिए बर्द्धन जी झुक गए थे जबकि वह पहले डेढ़-घंटे बोल कर किसी दूसरे को यह पद सौंपने की गुजारिश कर चुके थे (उनका इशारा बर्द्धन जी के विश्वनाथ शास्त्री जी को समर्थन देने की ओर था ) । 

अंत में दो मिनट मौन खड़े होकर बर्द्धन जी को श्रद्धांजली दी गई। 

इस स्मृति सभा में अन्य लोगों के अलावा बबीता सिंह,  के के शुक्ला, कौशल किशोर, दिनकर कपूर, प्रदीप घोष, डॉ संजय सक्सेना, मोहम्मद अकरम खान, मुख्तार, विजय माथुर आदि भी शामिल रहे। 
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Tuesday 19 January 2016

स्त्रियों की आधी आबादी की जागृति और लामबन्दी के बिना कोई भी सामाजिक परिवर्तन सम्भव नहीं ------ M.s. Rana

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रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी शहादत से पहले जनता के नाम यह वसीयत की थी कि “यदि देशवासियों को हमारे मरने का ज़रा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो हिन्दू-मुस्लिम एकता क़ायम करें। यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।”...........................

शहीदेआज़म भगतसिंह के सन्देश को याद करते हुए क्रान्ति का सन्देश कल-कारखानों और खेतों-खलिहानों तक लेकर जाना होगा। स्त्रियों की आधी आबादी की जागृति और लामबन्दी के बिना कोई भी सामाजिक परिवर्तन सम्भव नहीं। मेहनतकशों, छात्रों-युवाओं, बुद्धिजीवियों सभी मोर्चों पर स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाना सफलता की बुनियादी शर्त्त है। हमें हर तरह के जातीय-धार्मिक-लैंगिक उत्पीड़न और दमन के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा इस संघर्ष को व्यापक सामाजिक बदलाव की लड़ाई का एक ज़रूरी हिससा बनाना होगा।


साथियो,
इक्कीसवीं सदी का एक और साल अतीत का हिस्सा बन चुका है। देश की ऊपरी 10-12 प्रतिशत सम्पन्न आबादी नये साल के जश्न पर अरबों रुपये उड़ा रही है। मगर देश के आम मेहनतकश लोगों के लिए तो आने वाला नया साल हर बार की तरह समस्याओं और चुनौतियों के पहाड़ की तरह खड़ा है। आम मेहनतकशों और ग़रीबों के दुखों और आँसुओं के सागर में बने अमीरी के टापुओं पर रहने वालों का स्वर्ग तो इस व्यवस्था में पहले से सुरक्षित है, वे तो जश्न मनायेंगे ही। मगर “अच्छे दिनों” के इन्तज़ार में साल-दर-साल शोषण-दमन-उत्पीड़न झेलती जा रही देश की आम जनता आख़िर किस बात का जश्न मनाये?
क्या इस बात का जश्न मनाया जाये कि लम्बे-चौड़े वादों और तरह-तरह की घोषणाओं के बावजूद देश के लगभग आधे नौजवान बेकारी में धक्के खा रहे हैं या फिर औनी-पौनी कीमत पर अपनी मेहनत और हुनर को बेचने पर मजबूर हैं? क्या इस बात का जश्न मनाया जाये कि महाशक्ति बनने का दावा करने वाले इस देश की लगभग 50 फीसदी स्त्रियाँ खून की कमी और 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, भूख और कुपोषण के कारण लगभग 7000 बच्चे रोज़ाना मौत के मुँह में समा जाते हैं। बजट का 90 फीसदी अप्रत्यक्ष करों द्वारा आम जनता से वसूला जाता है लेकिन आज़ादी के 68 वर्षों बाद भी स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, पानी, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी आम जनता वंचित है। क्या इस बात की ख़ुशी मनायी जाये कि धर्म और जाति के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाने का गन्दा ख़ूनी खेल गुज़रे साल में नयी नीचताओं तक पहुँच गया?
बेशक, हर नया साल इन सम्भावनाओं से भी भरा हुआ होता है कि हम इस तस्वीर को बदल डालने की राह पर आगे बढ़ें। लेकिन अगर हम बस हाथ पर हाथ धरकर ऐसे ही बैठे रहेंगे और अपनी दुर्दशा के लिए कभी इस कभी उस पार्टी को कोसते रहेंगे या उनके बहकावे में आकर एक-दूसरे को अपनी हालत के लिए दोषी मानते रहेंगे तो सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा, जैसे पिछले सात दशकों से चल रहा है।
1947 के बाद से 68 वर्ष का सफ़रनामा गोरे अंग्रेज़ों की जगह आये काले अंग्रेज़ों के शासन में नयी ग़ुलामी के मज़बूत होने का इतिहास बनकर रह गया है। देश में आज लगभग एक लाख अरबपति हैं। 2006 में दुनिया के 946 खरबपतियों में से 36 भारतीय थे। आज यह संख्या और भी बढ़ गयी है। लेकिन इस तस्वीर का दूसरा अँधेरा पहलू यह है कि दस फ़ीसदी लोगों की यह समृद्धि नब्बे फीसदी लोगों को नर्क के अँधेरे में धकेलकर हासिल की गयी है। 10 प्रतिशत अमीर लोगों का देश की 76.3 प्रतिशत सम्पत्ति पर कब्ज़ा है। उनकी कमाई लगातार बढ़ती जा रही है जिसे उद्योग, शेयर मार्केट, मनोरंजन उद्योग आदि क्षेत्रों में लगाकर मुट्ठीभर लोग बेहिसाब मुनाफ़ा बटोर रहे हैं। एक ओर मुकेश अम्बानी है जिसके 6 लोगों के परिवार के लिए 2700 करोड़ की लागत से बना मकान है और दूसरी ओर पूरे देश में 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं और 18 करोड़ लोग फुटपाथों पर सोते हैं। देश की ऊपर की तीन फ़ीसदी और नीचे की 40 प्रतिशत आबादी की आमदनी के बीच का अन्तर आज 60 गुना हो चुका है। सन सैंतालीस के बाद देश के शासकों ने पूँजीवादी विकास का जो रास्ता चुना उसने एक ऐसा समाज बनाया है जो सिर से पाँव तक सड़ रहा है। चारों ओर लूट-खसोट, अन्धी प्रतिस्पर्द्धा, अपराध, शोषण-दमन-उत्पीड़न, अमानवीयता और भयंकर ग़ैर-बराबरी छाई हुई है।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के गहराते संकट ने हालत बद से बदतर बना दी है। बाज़ार में अपने-अपने सामानों को बेचने की गलाकाटू प्रतियोगिता के चलते हर उद्योगपति अपने सामान की लागत कम करना चाहता है। और लागत कम करने का मतलब है कामगारों को कम से कम कीमत पर ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ना! पिछले 25 वर्षों के दौरान उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ लागू होने के साथ ही मज़दूरों-कर्मचारियों की भारी आबादी को नियमित रोज़गार से बाहर धकेलकर ठेका और दिहाड़ी मज़दूर बना दिया गया है जिनके पास रोज़गार सुरक्षा, न्यूनतम मज़दूरी, पेंशन-पीएफ जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं हैं। निजी कम्पनियों और कारख़ानों में ही नहीं, सरकारी विभागों और सार्वजनिक उद्योगों में भी बड़े पैमाने पर छँटनी की गयी है। नियमित रोज़गार समाप्त किये जा रहे हैं और ज़्यादा से ज़्यादा कामों को ठेके पर दिया जा रहा है। नरेन्द्र मोदी के 10 करोड़ रोज़गार देने और ‘मेक इन इंडिया’ जैसे जुमलों के बावजूद सच्चाई यही है कि चपरासी के 368 पदों के लिए 23 लाख से भी ज़्यादा नौजवान आवेदन करते हैं जिनमें पीएच.डी. और एमबीए के डिग्रीधारक भी शामिल हैं। एम.ए. और बी.एससी. किये हुए नौजवान लेबर चौक पर अपने आप को बेचते हुए मिल जायेंगे! यही है उस “रोज़गारविहीन विकास” की सच्चाई जिसका राग विश्व बैंक और आई.एम.एफ. की शह पर पिछले कई वर्ष से अलापा जा रहा है।
दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पिछले कई वर्ष से घनघोर मन्दी की चपेट में है। मगर इस मन्दी का बोझ कौन उठा रहा है? क्या देश के पूँजीपतियों, अफसरशाहों, नेताओं या उच्च मध्यवर्ग की ऐयाशियों में कोई कमी आयी है? नहीं! बल्कि उनकी दौलत का अश्लील प्रदर्शन पहले से कई गुना बढ़ गया है। वास्तव में इस मन्दी का सारा बोझ भी आम मेहनतकश जनता ही उठा रही है। बेहिसाब महँगाई, छँटनी, बेरोज़गारी, वास्तविक वेतन और मज़दूरी में गिरावट और मूलभूत सुविधाओं में एक-एक करके होने वाली कटौती ने आम लोगों का जीना भी मुहाल कर दिया है। दूसरी ओर, हमारी पीठ पर टैक्सों का पहाड़ लादकर पूँजीपतियों को हज़ारों करोड़ रुपये के पैकेज दिये गये ताकि उनकी कम्पनियों का मुनाफ़ा कम न हो जाये।
इस पूँजीवादी लोकतंत्र की सच्चाई यही है कि सारी सरकारें वास्तव में इन्ही देशी-विदेशी लुटेरों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करती हैं। चाहे जिस पार्टी की सरकार सत्ता में आ जाये, धन्नासेठों के हितों में कोई आँच नहीं आती। सभी चुनावी पार्टियों के चुनाव का ख़र्च बड़े-बड़े धनकुबेर उठाते हैं। देश के सांसदों पर पाँच साल में लगभग 16 अरब 38 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं, संसद की एक मिनट की कार्यवाही में ढाई लाख रुपये का खर्च आम जनता अपना पेट काटकर चुकाती है और वहाँ होता क्या है? सांसदों के सोने, ऊँघने, गाली-गलौच और “तू चोर-तू चोर, तू नंगा-तू नंगा” के शोर-शराबे के अलावा जनता को लूटने-खसोटने और देशी-विदेशी धन्नासेठों की तिजोरियाँ भरने की नयी-नयी तिकड़मों को क़ानून का नाम दिया जाता है।
चुनाव के समय “आम” लोगों के लिए “अच्छे दिन” लाने के नाम पर चुनावी पार्टियों के बीच जो कुत्ताघसीटी होती है, वह वास्तव में जनता के बीच भ्रम पैदा करने के लिए किया जाता है। जनता इस भ्रम का शिकार होकर रावण के दस मुखौटों में से किसी एक मुखौटे के हाथ में अपना भविष्य सौंप देती है। एक मुखौटे से भ्रम टूटने पर दूसरा मुखौटा, दूसरे मुखौटे से भ्रम टूटने पर तीसरा मुखौटा… तब तक पुराना मुखौटा अपना चेहरा थोड़ा बदलकर, जनता के हित का अधिक शोर मचाता हुआ फिर जनता के सामने आ जाता है…! साँपनाथ और नागनाथ का यह खेल आज़ादी के बाद से ऐसे ही बदस्तूर चल रहा है। कांग्रेसी मुखौटे से त्रस्त जनता ने मायावी रावण के जिस मुखौटे पर इस बार दाँव लगाया, उसने ख़ुद को चाय बेचने वाला बताते हुए कहा कि ग़रीब प्रधानमंत्री बनेगा तो ग़रीबों के लिए काम करेगा, अच्छे दिन आयेंगे! लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने अमीरों की तिजोरी भरने में पुरानी सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया। इसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी क्योंकि इस “ग़रीब” को 100 कारपोरेट घरानों में से 74 ने अपनी पहली पसन्द बताया था और चुनाव प्रचार के लिये अपनी तिजोरियों का मुँह खोल दिया था।
महँगाई डायन को मार भगाने का वादा करने वाले मोदी के सत्ता में आने पर रसोई गैस, रेल भाड़ा आदि की कीमतों में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हुई। इस “ग़रीब” ने ग़रीबों की थाली से दाल, सब्ज़ी तक छीन लिया। केंद्र व राज्य स्तर पर मोदी सरकार के मंत्रियों ने भ्रष्टाचार व गुंडागर्दी के पुराने रिकार्ड तोड़ने शुरू कर दिये हैं। मध्य प्रदेश का व्यापम घोटाला तो इसकी एक बानगी भर है। युवा-शक्ति की दुहाई देने वाली भाजपा सरकार इस समय युवा-शक्ति को सड़कों पर पीट रही है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) के समझौते के तहत शिक्षा को देशी-विदेशी लुटेरों की लूट का चरागाह बनाने के ख़ि‍लाफ़ दिल्ली सहित देशभर में सड़कों पर उतरे छात्र-छात्राओं को बुरी तरह पीटा गया है। स्वदेशी व राष्ट्रवाद का नगाड़ा बजाने वाले मोदी ने बीमा, रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट दी है, जबकि यही भाजपा कांग्रेस शासन में एफ.डी.आई. का विरोध कर रही थी। देश के सबसे बड़े धन्नासेठों अम्बानी, अडानी, बिड़ला, टाटा आदि को मोदी सरकार ने करों में भारी छूट दी है। उनके हित में श्रम क़ानूनों में बदलाव किये जा रहे हैं ताकि मज़दूरों-कर्मचारियों को लूटना और भी आसान हो जाये। पिछले बजट में कारपोरेट करों की दर 30 से घटाकर 25 प्रतिशत कर दी गयी जिससे आम जनता पर 23383 करोड़ रुपये का बोझ अप्रत्यक्ष करों के रूप में पड़ेगा। आने वाले बजट में जनता पर और भी कड़ी मार पड़ने वाली है। काले धन के मामले में मोदी, रामदेव सब चुप्पी आसन लगाकर बैठे हैं। ‘अच्छे दिन’ बस एक चुनावी जुमला था यह सच्चाई तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ही उगल चुके हैं। अब ये जुमलेबाज़ अपने विरोध में उठने वाली हर आवाज़ को कुचल डालना चाहते हैं। भाजपा की नीतियों का विरोध करने वालों पर आई.एस.आई. का एजेंट, नक्सलवादी, देशद्रोही आदि का ठप्पा लगा देना आम बात है।
लेकिन इनको भी पता है कि जनता को केवल कानून और डण्डे के दम पर नहीं दबाया जा सकता। इसलिए ये अब अंग्रेजों की देन और पिछले 68 साल के आज़माये नुस्खे ‘फूट डालो राज करो’ पर अमल में पूरी तरह जुट गये हैं। संघ परिवार और उसके तमाम आनुषंगिक संगठनों द्वारा ‘लव जिहाद’, ‘धर्मान्तरण’, ‘बीफ प्रकरण’ जैसी बातों को लेकर साम्प्रदायिक माहौल बनाया जा रहा है। बिहार चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण की सारी कोशिशों के बावजूद बुरी तरह पिटने के बाद भी ये अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इनके पास लोगों को उल्लू बनाने के लिए दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है। डेढ़ वर्ष बाद होने वाले उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव की तैयारी में अयोध्या में मन्दिर निर्माण के नाम पर साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की कोशिशें अभी से शुरू कर दी गयी हैं। समाजवादी पार्टी का ‘धर्मनिरपेक्षता’ का पाखण्ड तो मुज़फ्फ़रनगर में दंगों के समय ही सामने आ चुका था, अब भाजपा के साथ उसकी साँठगाँठ की पोल पूरी तरह खुल चुकी है।
अन्धविश्वास, रूढ़ियों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले प्रो. कलबुर्गी, गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर की कट्टरपन्थी हिन्दू संगठनों द्वारा हत्या के दोषियों पर आजतक कोई कार्रवाई नहीं की गयी है। बच्चों और युवाओं के दिमाग में नफ़रत के बीज बोने के लिए शिक्षा-संस्कृति का भगवाकरण किया जा रहा है। धार्मिक कट्टरपंथ की राजनीति अपने दूसरे छोर पर भी कट्टरपंथ को ही बढ़ावा देती है। जब एक ओर योगी आदित्यनाथ और प्रवीण तोगड़िया जैसे लोग होंगे तो दूसरी ओर ओवैसी जैसे इस्लामिक कट्टरपंथी नेता भी सांप्रदायिक उन्माद के चेहरे के रूप में मौजूद होंगे। ये दोनों एक दूसरे की राजनीति के लिये तो फायदेमन्द होते हैं पर इनके उकसावे में आने वाली आम जनता ही जानमाल का नुकसान उठाती है। ज़रा ठन्डे दिमाग से सोचें कि 1. फूट डालो और राज करो की नीति की ज़रूरत आज किसको है और क्यों? 2. जब चुनाव करीब होते हैं, तभी क्यों लव-जिहाद, बीफ़, मंदिर-मस्जिद, आदि के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे भड़काये जाते हैं? 3. क्या यह सच नहीं है कि इन दंगों में अपने-अपने महलों में बैठे धर्मों के ठेकेदारों पर कोई आँच नहीं आती है, ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा में घूमने वाले नेताओं को कोई चोट नहीं पहुँचती है, हमेशा केवल आम ग़रीब लोग ही मरते हैं, उन्हीं के घर जलते हैं?
साम्प्रदायिकता के ज़हर को दिमाग से हटाकर सोचा जाय तो इन सवालों का जवाब बहुत आसान है। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में क्रान्तिकारियों ने इस चीज़ को शुरू में ही समझ लिया था। 1925 में आर.एस.एस. के स्थापना से पहले ही हिन्दू महासभा आदि के नेतृत्व में साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत हो चुकी थी। आर.एस.एस. की स्थापना के बाद यह बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी। इन्होंने कभी आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया और जब सारा देश एक होकर ब्रिटिश हुकूमत से लड़ रहा था तो ये हिन्दू-मुसलमानों को आपस में लड़ाने में लगे हुए थे। फाँसी पर लटकाये जाने से सिर्फ तीन दिन पहले लिखे ख़त में काकोरी काण्ड के शहीद अशफ़ाकउल्ला ने देशवासियों को आगाह किया था कि इस तरह के बँटवारे आज़ादी की लड़ाई को कमजोर कर रहे हैं। उन्होंने लिखा थाः “सात करोड़ मुसलमानों को ‘शुद्ध’ करना नामुमकिन है, और इसी तरह यह सोचना भी फ़ि‍ज़ूल है कि पच्चीस करोड़ हिन्दुओं से इस्लाम कबूल करवाया जा सकता है। मगर हाँ, यह आसान है कि हम सब ग़ुलामी की ज़ंजीरें अपनी गर्दन में डाले रहें।” इसी तरह रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी शहादत से पहले जनता के नाम यह वसीयत की थी कि “यदि देशवासियों को हमारे मरने का ज़रा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो हिन्दू-मुस्लिम एकता क़ायम करें। यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।”
शहीदेआज़म भगतसिंह ने कहा था कि लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए उनमें वर्ग-चेतना विकसित करने की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकशों व किसानों को यह बात समझानी होगी कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ नहीं करना चाहिए।
आज़ादी और बराबरी के इन मतवालों को आज याद करने का मतलब यही हो सकता है कि हम धर्म और जाति के भेदभाव भूलकर इस देश के लुटेरों के ख़िलाफ़ एकजुट हो जायें. अशपफ़ाक-बिस्मिल-आज़ाद और भगतसिंह की विरासत को मानने का मतलब आज यही है कि हम हर क़ि‍स्म के मज़हबी कट्टरपंथ पर हल्ला बोल दें। आज हम सभी नौजवानों और आम मेहनतकशों को यह समझ लेना चाहिये कि हमें धर्म और जाति के नाम पर बाँटने और हमारी लाशों पर रोटियाँ सेंकने का काम आज हर चुनावी पार्टी कर रही है! हमें इनका जवाब अपनी फ़ौलादी एकजुटता से देना होगा। परिवर्तनकामी छात्रों-युवाओं को नये सिरे से मेहनतकशों के संघर्षों से जोड़ना होगा। उन्हें शहीदेआज़म भगतसिंह के सन्देश को याद करते हुए क्रान्ति का सन्देश कल-कारखानों और खेतों-खलिहानों तक लेकर जाना होगा। स्त्रियों की आधी आबादी की जागृति और लामबन्दी के बिना कोई भी सामाजिक परिवर्तन सम्भव नहीं। मेहनतकशों, छात्रों-युवाओं, बुद्धिजीवियों सभी मोर्चों पर स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाना सफलता की बुनियादी शर्त्त है। हमें हर तरह के जातीय-धार्मिक-लैंगिक उत्पीड़न और दमन के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा इस संघर्ष को व्यापक सामाजिक बदलाव की लड़ाई का एक ज़रूरी हिससा बनाना होगा।
हम जानते हैं कि यह रास्ता लम्बा होगा, कठिन होगा और प्रयोगों से और चढ़ावों-उतारों से भरा होगा। पर यही एकमात्र विकल्प है। यही जन-मुक्ति-मार्ग है। यही इतिहास का रास्ता है। और हर लम्बे रास्ते की शुरुआत एक छोटे से क़दम से ही होती है।

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Wednesday 13 January 2016

Comrade Ajoy Ghosh ------ Anil Rajimwale



 13 Jan.2016  Bangalore 
 

Comrade Ajoy GhoshDay

(20 February 1909–13 January 1962)

Ajoy Kumar Ghosh was born on February 20, 1909. He passed away on January 13, 1962, at the age of only 53, after suffering from TB for nearly twenty years, but the short period, when he was at the helm of the party, covered an entire era of the Indian communist movement, coming out of disruption and disintegration to become one of the foremost political entities in the country. Ajoy Ghosh’s contribution in this transformation was phenomenal.

Chief Characteristics

His greatest strength lay in his a clear Marxist vision and theoretical direction. He would overcome the most difficult situations through theoretical generalisations and their resolution.

In the late 1920s-early 1930s, he sailed for some time with the underground revolutionary movement of Bhagat Singh and others. But he never fully fell for it, and soon came to the conclusion that such a movement, cut off from the movement of the working masses, and based entirely on secret armed squads, could only fail and never succeed. Bhagat Singh was another revolutionary who came to the conclusion that the path he was following was entirely wrong; there is no doubt that had Bhagat Singh lived, he would have joined the communist movement. Chadrashekhar Azad’s death, a result of betrayal by some others in the group, and the break-up of the HSRA (Hindustan Socialist Republican Association) gave a final blow to the anarchist revolutionism. And among those who dealt the blows was Ajoy Ghosh himself, who was evolving into an effective Marxist theoretician and a mass Communist and TU leader.

New India and Crisis in Communist Movement

The Indian Communists heartily welcomed the hard-won freedom of India in 1947. The trend under the leadership of P.C. Joshi considered it as a completion of a stage of the national liberation revolution. Joshi had already become a national figure, a great achievement for a Marxist. Had this trend continued, the position of the Communists in India would have been completely different; perhaps they would have been the leading national force, as in Vietnam and China.

But the very achievement of freedom produced a contradiction in theory. This had been partly reflected long before in the Lenin-M.N. Roy controversy on the colonial countries and the position and role of revolutionary forces therein. The controversy had been very skilfully resolved by Lenin in his thesis on the bourgeois democratic revolution.

But the controversy erupted afresh. There were attempts to remove PCJ from the leadership in 1946 itself by the Left sectarian elements. Thankfully, they did not succeed. The ‘gone over’ thesis returned: Stalin and some others long back had said, the bourgeoisie in the colonial countries had ‘gone over’ to imperialism. Lenin said a firm ‘no’ to this thesis.

But the seeds of Left-sectarian infantile disorder, which had remained dormant, sprouted again, and became a disease. Can the bourgeoisie really lead the country to independence? Can other progressive forces cooperate with it in this endeavour? And can an independent nation be built with the non-working classes in power?

India produced a unique situation. It began creating a nation with a deep-rooted political democracy, a generally progressive path of socio-economic development, a strong infrastructure-based economy, a powerful public sector, an independent foreign policy, an open mass media, multiparty system, mass democratic rights, open mass movements, etc. In other words, all that Marx had visualised as preferable conditions for mass and democratic advance.

Many of these rights were achieved under the pressure of mass movements. Yet they were taking shape when the bourgeoisie of a backward country was in power. What should the Communists do? How to advance?

A section of Communists was totally confused! From their point of view, all this simply was not possible in post-1947 India. Therefore this section chose to declare everything as a hoax. Democracy and basic change could only take place under the leadership of the working class (represented by the Communist Party), or not at all. Elections were a hoax, they said. But the subsequent developments proved they were not a hoax: it was through the ballot box, backed by mass movement, that the Communists came to power in Kerala in 1957.

Thus there was a Left-sectarian, adventurist backlash in the form of the infamous BTR line in 1948-50. It smashed the Indian communist movement to smithereens. The rest is quite well known.

Communist Revival and Ajoy Ghosh

Ajoy Ghosh never gave in to such immaturity and childishness, which went to prove that the Leftwing petty bourgeois ‘revolutionism’ was the best way to smash the revolution. The ultra-Left disorder had never been cured. The Communists managed to cause damage to themselves precisely at a time when the country was advancing.

The “Three Ps Letter” of Ajoy Ghosh, S.A. Dange and S.V. Ghate pointed out that there was a better, creative and healthy way to deal with the contradictions of the situation. The contradictions contained the seeds of communist advance.

The BTR leadership was removed in 1950, replaced ultimately by Ajoy Ghosh and his team. In fact he represented replacement of the pre-war outdated concepts by new ones in accordance with the new situation generated by the movements of freedom and democracy. That was till Maoism made a renewed attack on the world communist movement. Today Maoism itself has been disowned by the Communist Party of China.

Ajoy Ghosh’s period (1951-62) was an eventful one, that of revival of the communist movement and an assertion of Marxist creativity. The party gradually began to come out of the morass of isolation and self-destruction, to become by the late 1950s, a national force. It was a novel experience for a Communist Party—to play a constructive and national class role, rather than a ‘destructive’ one assigned to them by tradition. The understanding of the “Three Ps Letter” gradually evolved into a creative application of Marxism in the concrete Indian conditions. The speeches and writings of Ajoy Ghosh reflect this dialectical combination of national and class analysis. A Communist Party cannot become one in the real sense unless it had a national outlook and national vision. This is particularly true of a backward, colonial country, now a developing one.

Era of Nehruvian Outlook

Nehruvian vision reflected a progressive endeavour of the people of an emerging nation. It was a particular strategy charting the way forward. It no doubt expressed the aspirations of the rising capitalist and middle classes; but it at the same time represented the progressive aspirations of the masses. It also reflected, to an extent, the objective needs of an emerging nation and its economy, society and polity. Therefore, there were many common points, the points of unity and historical compromise, a historic united front against imperialism and oppression. At the same time, the constituent forces contended against each other. While struggling to deepen the Nehruvian strategy, the Communists sought to criticise it for its serious lapses, and in this course evolve their own strategy. The new national democratic strategy sought to bring together the positives of these strategies. The national democratic strategy sought to go beyond the Nehruvian one. Ajoy Ghosh’s criticism of Nehru, as also of Jayaprakash Narayan, sought to emphasise the creative future.

It is a positive comment on the era that the Communists and the Left today seek to remind the Congress of precisely that Nehruvian legacy which it is trying to dilute, and which attempt is being rightly criticised.

Path of Development

Ajoy Ghosh assimilated all that was new in the Indian and world situation. The CPI became the second politico-social force within Parliament and in the larger society, next only to the Congress. More than that, it is the Communists to whom other political forces and people in general turned for the solution of national and class questions. Public sector, nationalisation, abolition of zamindari and princely privileges, heavy industrialisation, development of economic infrastructure and structures, five-year plans, democracy, the communal-fascist menace, struggle for peace and disarmament and peaceful coexistence, rights of the masses, linguistic reorganisation, Delhi marches and bandhs, liberation of Goa and Pondicherry, friendship with socialist countries, and so on—the Communists were everywhere and at the head of the events, often setting the nation’s agenda.

In the meantime, the CPI restructured itself to play a more effective and meaningful role in the country. Its Amritsar Special Congress of 1958 was a world event. The CPI announced that Opposition parties have a role to play in future socialism, gave up the concept of dictatorship of the proletariat, and adopted a three-tier organisational structure, which is in existence even today. E.M.S. Namboodiripad wrote in the very next issue of New Age after the Amritsar Congress that by so doing, the CPI was only carrying the legacy of Mahatma Gandhi forward.

The CPI along with other progressive forces managed to isolate the communal-fascist and Right reactionary forces; the latter were cornered. Ajoy Ghosh in articles and interviews in 1955 and later made it clear that the CPI would not allow the Rightwing reactionary forces to replace the Nehru Government. The Nehru Government could only be replaced by an unity of democratic forces including the progressive forces within the Congress.

The resolution of the CC CPI of June 1955 was a turning-point in the history of the CPI.

Maoist Offensive and World Communist Movement (WCM)

The communist movement in India was growing in a tandem with the international communist movement. Internationalism had always been a strong point of the CPI. Ajoy Ghosh personally, and the CPI collectively, made singular contribution to the creative development of the Marxist evaluation of the new world situation. Destalinisation, peaceful coexistence, peaceful forms of transition to democratic and socialist revolutions, relationship of democracy and socialism, use of mass media and parliamentary structures etc. were some of the novel features. The world communist conferences of 1957, 1960, 1961, 1969 etc. were important milestones. Ajoy Ghosh, along with others, contributed to this process immensely.

Both Indian and international communist movements were on the verge of a huge break-through.

It was precisely at this point that Maoism struck on the world communist movement (WCM) and CPI. Maoism, as a trend of departure from Marxism, was gathering momentum within the CPC (CP China) and the world over. It was a fossilisation of the old understanding that stood in opposition to the WCM. Having first agreed to the formulations of the world communist conferences, the CPC began departing due to several changes within their party and the country. Today they have given up those positions and have discarded Maoism. At that time, China wanted to be a big power in opposition to the USSR.

Maoism gave a call to split the CPs all over the world in the name of armed revolution—‘proletarian’, ‘socialist’ and what not, and disrupted the WCM. Thousands of youth were misled by this pseudo-revolutionism. The process of disruption continues even today.

Ajoy Ghosh’s Sturggle for Party Unity

Ajoy Ghosh played a crucial role in grappling with the Maoist ideology and its splitting activities. He had to strain hard to keep the unity of the CPI intact, even at the cost of his health. He openly criticised Maoism, whenever the situation warranted. He criticised the activities to split the world communist movement, to go against its agreed understanding, and the attempts at creating tensions on the border with India. He went out of the way to plead with the Maoist leaders of the CPC to refrain from such activities, and went to Peking for this purpose.

The Maoists within the CPI were gaining their strength from international Maoism. Tensions were growing, and it almost seemed that the party would split in 1961 itself. It was the painstaking and strenuous, allout efforts and the crucial speech of Ajoy Ghosh at the 1961 Vijayawada Congress that saved the CPI at that time. He was virtually brought on a stretcher, so ill he was.

This famous speech, as amended and adopted by the Sixth Congress of the CPI (April 7-16, 1961), is known as “New Situation and Our Tasks”. It was a balanced and realistic assessment, and it has been broadly vindicated by the subsequent developments.

Yet, the party split could not be prevented in the coming years. Today, the movement is divided into numerous factions and parties, primarily because of Maoism.

It is a positive development that the CP of China has today dissociated itself from Maoism, ‘Cultural Revolution’ and such other phenomena and unfortunate events.

Ajoy Ghosh died only a few months later, on January 13, 1962, in the course of a hectic election campaign. He has left a deep imprint on history as a Communist of a new type.

Nearly five decades have passed since Ajoy Ghosh left us. The period has proved his theoretical understanding to be broadly correct.

Ajoy Ghosh was a Marxist theorist and a leader of a new era.

Article by Comrade :Anil Rajimwale

Friday 8 January 2016

Anti-fascism and a free society : M.N.Roy ------ N.d. Pancholi



Anti-fascism and a free society
“…..We (the ‘radicals’) stand for a thorough reconstruction of the national life. Our political objective is the establishment of democratic freedom which will mean effective political power for the people. We strive not only for national freedom, but also for the social emancipation of the toiling masses. Our task is to spread enlightenment which will dispel obscurantism in the political and the spiritual life of the country. We advocate modernism in every walk of life against revivalism. We want the disinherited to come to their own and enjoy the richness and fullness of life on this earth. We want man to be the master of the world and the maker of his destiny.
…………….. Fascism stands for the destruction of the political, social and cultural ideals of democracy… The war against Fascism can be won only by rousing in the people their urge for freer and fuller life. The supreme task of our movement is to develop that urge, and …………. to lay securely the foundations of a free society which is not only free of foreign rule, but also free of native tyranny, exploitation and injustice.
M.N.Roy -1942


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Must Watch:

रविश कुमार ने जब बोलना शुरू किया तो हर आदमी सोचने पर मजबूर हो गया | ये सच सिर्फ़ एक ईमानदार आदमी की ज़बान से ही निकल सकता है
Posted by Pervez Mohammad on Sunday, January 3, 2016

Thursday 7 January 2016

बी जे पी को सी पी एम का तोहफा ------ महेंद्र मिश्रा



भारतीय वामपंथ को तीन दिनों के भीतर दो बड़े झटके लगे हैं।.....
पहला झटका वामपंथी आंदोलन के आकाश के ध्रुव ए बी बर्धन के तौर पर सामने आया है।..........दूसरा झटका बर्धन जैसे कम्युनिस्टों के सपनों पर चोट करता है। इसलिए ज्यादा बड़ा और ज्यादा गंभीर हो जाता है। वह सीपीएम के कोलकाता में प्लेनम में राजनीतिक और वैचारिक लाइन को लेकर लिया गया नया फैसला है।
बीजेपी की पूरी कोशिश है कि भारतीय राजनीति को दो पार्टियों तक सीमित कर दिया जाए। क्षेत्रीय और वामपंथी दलों को वह इतिहास का विषय बना देना चाहती है। तब सीपीएम का नया रुख उसके लिए किसी मुंहमागे तोहफे से कम नहीं है।

.............. सीपीएम को भी यह समझना चाहिए कि बीजेपी और संघ से आखिरी लड़ाई सड़क पर ही होगी। किसी जोड़-तोड़ के जरिये उससे निपट पाना मुश्किल है।
(1951 में ही 'नया जमाना', सहारनपुर के संस्थापक संपादक कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' जी ने संघ नेता लिमये साहब को कह दिया था कि, शीघ्र ही दिल्ली की सड़कों पर कम्युनिस्टों व संघियों के बीच निर्णायक संघर्ष होगा। यह लेख भी उसी की पुष्टि करता है। ) 
भारतीय वामपंथ को तीन दिनों के भीतर दो बड़े झटके लगे हैं। चरित्र और प्रभाव के लिहाज से दोनों राष्ट्रीय हैं। एक तो वस्तुतः शारीरिक मौत है जबकि दूसरी वैचारिक और सैद्धांतिक। इस बात में कोई शक नहीं कि दोनों बहुत दूरगामी प्रभाव रखते हैं। पहला झटका वामपंथी आंदोलन के आकाश के ध्रुव ए बी बर्धन के तौर पर सामने आया है। 2 जनवरी को 92 साल की आयु में उनका दिल्ली मे निधन हो गया। बर्धन कम्युनिस्ट आंदोलन की पुरानी पीढ़ी की आखिरी विरासत थे। उनके जाने से वाम आंदोलन का एक युग समाप्त हो गया। महाराष्ट्र में एक स्थानीय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता से राजनीतिक जीवन की शुरुआत कर उन्होंने पार्टी में महासचिव पद तक का सफर तय किया। देश के मजदूर आंदोलन को नई ऊंचाई देने में इस तपेतपाए कम्युनिस्ट की भूमिका को हमेशा याद किया जाएगा। सीपीआई भले ही देश में कोई नई दिशा और नया मुकाम न बना पायी हो। लेकिन एक बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि बर्धन की शख्सियत पूरी पार्टी पर भारी थी।
दूसरा झटका बर्धन जैसे कम्युनिस्टों के सपनों पर चोट करता है। इसलिए ज्यादा बड़ा और ज्यादा गंभीर हो जाता है। वह सीपीएम के कोलकाता में प्लेनम में राजनीतिक और वैचारिक लाइन को लेकर लिया गया नया फैसला है। प्रयोग करने वाले गल्तियां करते हैं, हालांकि उन गल्तियों से वो सीखते भी हैं। लेकिन गल्तियां करके नहीं सीखने वाले को शायद भारतीय वामपंथ कहा जाता है। 1942 हो या कि 1962 या फिर रामो-वामो का दौर या न्यूक्लियर डील पर यूपीए से समर्थन वापसी। घटनाओं का एक लंबा इतिहास है। इन सबसे आगे भारतीय समाज और उसमें होने वाले बदलावों को पकड़ने की समझ और दृष्टि। सभी मौकों पर वामपंथ चूकता रहा है। भारत में वामपंथ पैदा हुआ 1920 में लेकिन अपने पैर पर आज तक नहीं खड़ा हो सका। कभी रूस, तो कभी नेहरू, कभी कांग्रेस, तो कभी मध्यमार्गी दलों की बैसाखी ही उसका सहारा रही। एक बार फिर जब देश में वामपंथ के लिए नई संभावना और जमीन बनती दिख रही है। तो उसे कांग्रेस के चरणों में समर्पित करने की सुगबुगाहट भी शुरू हो गई है। कोलकाता में 31 दिसंबर को संपन्न सीपीएम के प्लेनम से इसी बात के संकेत मिले हैं। पांच दिनों तक चले इस मंथन के नतीजे बेहद चिंताजनक हैं। 38 साल बाद हुए इस प्लेनम में पार्टी ने मध्यमार्गी दलों के साथ गठबंधन का प्रस्ताव पारित कर दिया है। ऐसा होने के साथ ही अब कांग्रेस से लेकर दूसरे दलों की सरकारों में पार्टी के शामिल होने का रास्ता साफ हो जाएगा। इतिहास गवाह है जब-जब वामपंथी दलों ने समझौता किया। पाया कम गंवाया ज्यादा। मोर्चे से फायदा लेने के मामले में बीजेपी और वामपंथ में उतना ही अंतर रहा है जितना दोनों के विचारों में है। बीजेपी लगातार आगे बढ़ती गई और वामपंथ अपनी जड़ों से उखड़ता गया। यूपी-बिहार में लालू यादव और मुलायम सिंह उसी जमीन की पैदाइश हैं।
ऐसे दौर में जबकि देश में एक निरंकुश और अधिनायकवादी सरकार है। जो शासन और हालात के मामले में इमरजेंसी को भी बौना साबित कर चुकी है। काम के नाम पर उसके पास कारपोरेट और उच्च वर्ग की सेवा है। देने की जगह उसका हर फैसला जनता से छीनने के लिए होता है। रोजी-रोटी का प्रश्न हो या कि बेरोजगारी, सामाजिक सम्मान हो या कि महिलाओं की इज्जत का सवाल, सामाजिक ताना बाना हो या कि राष्ट्र को एकता में बांधने का सूत्र। हर मोर्चे पर सरकार नाकाम साबित हो रही है। विकल्प के नाम पर एक विखरा विपक्ष है। और कांग्रेस ऐतिहासिक तौर पर कमजोर है। ऐसे में भारतीय राजनीति के इस निर्वात को भरने की जगह अगर कोई बैसाखी की तलाश करता है। तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है? बिहार में एकता की एक छोटी कोशिश ने वामपंथ को चर्चे में ला दिया था। सीपीएम को भी यह समझना चाहिए कि बीजेपी और संघ से आखिरी लड़ाई सड़क पर ही होगी। किसी जोड़-तोड़ के जरिये उससे निपट पाना मुश्किल है। कांग्रेस के साथ एक और समझौते से कुछ मिलने की जगह सीपीएम के सीपीआई बनने का खतरा ज्यादा है। भारतीय वामपंथ चुनावी मोर्चे पर भले कमजोर हो लेकिन राजनीतिक-सामाजिक आधार और संगठन के मामले में इतनी ताकत रखता है कि वह नये सिरे से देश में हलचल पैदा कर सके। ऐसे में उसे वामपंथी एकता के साथ स्वतंत्र पहल का नया संकल्प लेने की जरूरत है। न कि किसी नई बैसाखी की तलाश करने की। क्योंकि उसके पास साख है तो संगठन भी है, सिद्धांत है तो विचार का मजबूत हथियार भी है और इन सबसे आगे देश को एक राजनीतिक विकल्प की जरूरत है।
बिहार के चुनाव में वामपंथ की स्वतंत्र पताका बुलंद करने के बाद अचानक क्या बदलाव आया जिससे सीपीएम को इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा? दरअसल सीपीएम अभी तक बंगाल सिंड्रोम से बाहर निकल ही नहीं पायी है। सत्ता में रहने के दौरान उसे बचाए रखने की उसकी प्राथमिकता थी। अब बाहर है तो हर कीमत पर उसे हासिल करने की जुगत में है। इसके लिए उसे किसी भी तरह की जोड़-तोड़ करनी पड़े। या कोई भी कीमत चुकानी पड़े। यहां तक कि अपने सिद्धांतों और दूरगामी लक्ष्यों की ही क्यों न बलि देनी पड़े। विभ्रम की शिकार सीपीएम के लिए दूरगामी लक्ष्य नजरों से ओझल हो गया है। तात्कालिक लाभ उसकी सबसे बड़ी जरूरत बन गया है। न तो सीपीएम ने पहले ही सबक लिया और न ही अब लेने के लिए तैयार दिखती है। बंगाल को देश में वामपंथी शासन के म़ॉडल के तौर पर पेश करने की उसकी पुरानी रणनीति औंधे मुंह गिर चुकी है। अब यह बात साबित हो चुकी है कि पूंजीवादी व्यवस्था में कोई समाजवादी मॉडल नहीं दिया जा सकता है। हां सरकारें जरूर ईमानदारी से चलाई जा सकती हैं। लेकिन उसकी भी अपनी सीमाएं हैं। इस मामले में सीपीएम अपने रजानीतिक शत्रु बीजेपी भी सीख सकती थी। जिसमें उसने अपने लक्ष्य (बाबरी मस्जिद को गिराने और देश को हिंदू राष्ट्र बनाने ) को हासिल करने के लिए अपनी तीन-तीन सरकारों तक की कुर्बानी दे दी। क्या बीजेपी-संघ को यह नहीं पता था कि बाबरी मस्जिद गिरने के बाद उनकी सरकारों का क्या होगा, लेकिन उन्होंने अपने दूरगामी लक्ष्य को तवज्जो दी।
सीताराम येचुरी के महासचिव बनने के साथ ही इस बात का अंदेशा हो गया था। दरअसल येचुरी को समझौते की लाइन का पक्षधर माना जाता है। इस लिहाज से किसी को संयुक्त मोर्चा सरकार का दौर ही याद दिलाना काफी होगा। जब उसका गठन करवाने में येचुरी ने पार्टी महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत का दाहिना हाथ बन कर काम किया था। बाद में भी उनकी कमोवेश यही लाइन बरकरार रही। यहां तक कि ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के प्रस्ताव के मामले पर चली पार्टी में बहस के दौरान भी येचुरी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में खड़े थे। ये बात अलग है कि प्रकाश करात समेत पार्टी की क्रांतिकारी धारा इस कोशिश को रोकने में कामयाब रही।
हालांकि इस राह में सबसे बड़ी बाधा केरल रहा है। जहां पार्टो को सीधे कांग्रेस से मोर्चा लेना है। लिहाजा यहां की पार्टी इकाई हमेशा से इस तरह के किसी गठबंधन की विरोधी रही है। फिलहाल प्लेनम ने गठबंधन के प्रस्ताव पर अपनी मुहर लगा दी है। उसको आगे बढ़ाने और लागू करने के मामले को पार्टी की केंद्रीय कमेटी के ऊपर छोड़ दिया है। इस मसले पर संवाददाता सम्मेलन में येचुरी की हिचकिचाहट को आसानी से समझा जा सकता है। प्रस्ताव पारित होने के बाद भी वह सीधे तौर पर उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं दिख रहे थे। और उन्होंने मामले को केंद्रीय कमेटी में विचार करने की बात कह कर टाल दिया।
हालांकि पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी ने सामाजिक नीति को लेकर पार्टी की सोच में कुछ बदलाव के संकेत जरूर दिए हैं। इसे एक बड़ी और जरूरी पहल के तौर पर देखा सकता है। क्योंकि इस देश में वामपंथ की यह सबसे बड़ी कमियों में चिन्हित किया जा सकता है। जिसमें भारतीय समाज और राजनीति की ठोस समझ और उसका सटीक विश्लेषण और फिर उसके मुताबिक कार्यनीति और रणनीति का अभाव रहा है। भारत में जितना आर्थिक सवाल जरूरी है उससे कम सामाजिक मुद्दे नहीं हैं। रोजी-रोटी अगर प्राथमिक है तो सामाजिक सम्मान का सवाल उसकी चौखट पर खड़ा हो जाता है। इस लिहाज से जाति एक बड़ी सच्चाई बनकर सामने आ जाती है। भारतीय समाज और राजनीति के बीच की वह ऐसी गांठ है जिसे खोले बगैर सत्ता का कोई भी सवाल हल होना मुश्किल है। जिस सर्वहारा की तलाश वामपंथ को थी वह भारत में दलितों के तौर पर मौजूद था। लेकिन वर्गों को ढूढने के चक्कर में वामपंथ फैक्टरियों और कारखानों से लेकर इधर-उधर भटकता रहा। भारत में क्रांति का रास्ता किसानों से होकर जाता है। लेकिन स्थापित वामपंथ की प्राथमिकता में वह कभी नहीं रहा।
मार्क्सवाद को समाज-राजनीति और व्यवस्था के सबसे अग्रणी दर्शन के तौर पर जाना जाता रहा है। व्यवस्था की आखिरी पैदाइश मजदूर वर्ग की इस पार्टी से किसी बदलाव को सबसे पहले महसूस करने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन एक पूरी सूचना क्रांति सामने से गुजर गई और वामपंथ खड़ा देखता रहा। कहीं थोड़ी जुंबिश भी नहीं दिखी। इस्तेमाल उस पार्टी ने किया जिसे हम समाज की सबसे पिछड़ी, दकियानूस, रुढ़िवादी, आधुनिक और तकनीकी विरोधी करार देते हैं। आखिरी दो मसलों के लिहाज से वामपंथ के लिए ग्राम्सी काफी मददगार साबित हो सकते हैं। उनका आधार और अधिरचना के मामले में अधिरचना के कभी प्राथमिक होने की संभावना का सिद्धांत बेहद कारगर है। भारतीय राजनीति में जाति एक उसी तरह की अधिरचना है। मौजूदा समय में आयी सूचना क्रांति को भी अधिरचना के दायरे में ही परिभाषित किया जा सकता है। है।
राजनीति में साख बहुत मायने रखती है। साख हो तो कोई ताकत जीरो से शुरू कर पूरे जहान को अपने वश में कर सकती है। साख गिरते ही उसके आसमान से जमीन पर गिरने में भी देरी नहीं लगती है। भारतीय राजनीति के इस फलसफे को समझना बहुत जरूरी है। दिल्ली के चुनाव ने इस बात को साबित भी किया है। एक छोटी ताकत बहुत कम समय में कैसे सत्ता की मंजिल तक पहुंच सकती है। उसकी एक जीती जागती मिसाल है आप परिघटना।
भारतीय राजनीति जिस मुकाम पर पहुंच गई है अब उसमें इंतजार और गल्ती के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। और कम से कम वामपंथ के लिए तो कतई नहीं। क्योंकि इस मौके को चूका तो फिर शायद वह कोई नई गल्ती करने लायक ही न रह जाए। ऐसे समय में जबकि बीजेपी की पूरी कोशिश है कि भारतीय राजनीति को दो पार्टियों तक सीमित कर दिया जाए। क्षेत्रीय और वामपंथी दलों को वह इतिहास का विषय बना देना चाहती है। तब सीपीएम का नया रुख उसके लिए किसी मुंहमागे तोहफे से कम नहीं है। ऐसे में शायद यह देश भी तमाम यूरोपीय देशों की तर्ज पर नकली कम्युनिस्टों (यूरोप के मध्यमार्गी दलों) के सहारे चलने और जीने के लिए अभिशप्त ना हो जाए। या फिर सीपीआई (एमएल) जैसी छोटी ताकतों के बड़ी ताकत में तब्दील होने का इंतजार करना होगा। जो अभी भी कम से कम सीपीएम की नई लाइन से इत्तफाक नहीं रखती है।

About The Author

महेंद्र मिश्रा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
साभार : हस्तक्षेप 
http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/2016/01/06/left-at-the-fork
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Wednesday 6 January 2016

बर्धन: एक ईमानदार पुरोधा श्रद्धांजलि ------ अतुल अंजान


 दलितों, आदिवासियों मजदूरों, अंतराराष्ट्रीय राजनैतिक परिस्थितियों और आर्थिक विषयों पर कॉमरेड बर्धन की पकड़ थी और इन विषयों पर उन्होंने लगभग 20 किताबें लिखीं। मार्क्‍सवाद और विवेकानंद के दर्शन पर उनकी लिखी किताब आध्यात्मिक तर्कशास्त्रियों के बीच चर्चित रही। मंडल-कमंडल के विवाद में वो मंडल कमीशन की सिफारिशों के बड़े समर्थक थे। उन्होंने मंदिर-मस्जिद विवाद में, संप्रदायवादियों से विशेषकर संघ परिवार और भाजपा से वैचारिक स्तर पर राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया, आंदोलन किया और सन 2003 में देश में भाजपा की सरकार के खिलाफ ‘‘बचाओ भारत-बनाओ भारत’ को लेकर भाकपा का राष्ट्रीय अभियान चलाया, जिसमें लेखक ने भी (मणिपुर से दिल्ली) चार हजार किमी की यात्रा की। नाइंसाफी के खिलाफ एक बुलंद आवाज थे साथी बर्धन। आप हमेशा अधिकारों के लिए लड़ रहे लोगों के दिलों में रहेंगे। आपको भावभीनी श्रद्धांजलि।---- अतुल अंजान


बर्धन: एक ईमानदार पुरोधा 
श्रद्धांजलि
अतुल अंजान
भारत की आजादी की लड़ाई से जुड़ी हुई विभूतियां एक-एक कर हमसे विदा हो रही हैं। सिर्फ वो हमारे बीच से ही नहीं जा रहे बल्कि संघर्षो की, कुर्बानियों की एक पूरी गाथा हमारी आंखों के सामने से इतिहास का हिस्सा बनती जा रही है। 2016 के आगमन के साथ ही 2 जनवरी को महान वामपंथी नेता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव कॉमरेड ए बी बर्धन 27 दिनों तक जीवन से संघर्ष करते हुए दिल्ली के सरकारी जीबी पंत अस्पताल में (किसी र्नसंिग होम में नहीं) अपने जीवन की अंतिम सांसें साढ़े आठ बजे रात में लेकर कुर्सी की राजनीति से दूर, कुर्बानी का पाठ पढ़ाकर चले गए।उनका चले जाना इरादों के साथ, ईमानदारी का संग लेकर राजनीति करने वाले लोगों की जमात के एक पुरोधा का चले जाना है। 92 वर्षीय एबी बर्धन ने साठ वर्षो से अधिक के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में, विभिन्न क्षेत्रों में बेदाग छवि के साथ मजदूरों, किसानों, अधनंगे भूखों और बुनकरों की लड़ाई लड़कर अपनी जानदार आवाज से उनके संघर्षो को नई धार दी। बर्धन जिन्हें महाराष्ट्र के लोग साथी बर्धन-भाई बर्धन के नाम से पुकारते थे, का जन्म 25 सितम्बर 1925 को हुआ था। कामरेड बर्धन ने एम ए (अर्थशास्त्र) और वकालत की उच्च शिक्षा हासिल की। बीस वर्ष की अवस्था में वे नागपुर विश्विद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने उस समय के प्रमुख कांग्रेसी छात्रनेता-जो बाद में केंद्रीय मंत्री बने-स्वर्गीय बसंत साठे को पराजित किया था। छात्रसंघ अध्यक्ष बनने से पूर्व वह ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य बन चुके थे और बाद में उसके राष्ट्रीय सचिव चुने गए। बर्धन प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य ब्रिटिश काल में बने। पार्टी के होलटाइमर बनकर वो घर-बार छोड़कर पार्टी के विस्तार में नागपुर संभाग में जुट गए। उनका विशेष ध्यान मजदूर वर्ग की दुर्दशा पर था, इसीलिए वो मजदूरों को संभठित करने के लिए उनके ट्रेड यूनियनों को संगठित करने में जुट गए। बिजली कर्मचारियों, रेल मजदूरों, कपड़ा मिलों के मजदूरों, डिफेंस मजदूरों, समाचार पत्रों के प्रेस कर्मचारियों, इंजीनियर कर्मचारियों को संगठित करने में अपनी पूरी शक्ति लगाई। उन्होंने भारत के बुनकरों के शोषण को देखकर विशेष रूप से इस उद्योग में लगे विशाल अल्पसंख्यकों की संख्या और उन्हें नारकीय जीवन से निकालने के लिए राष्ट्र स्तर पर उनका संगठन तैयार किया, फलस्वरूप बुनकरों को उनके उत्पादित माल का संरक्षण और सरकारी बाजार मिल सका। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में हिस्सा लिया और करीब साढ़े चार साल जेल में बिताए। कॉमरेड बर्धन का नाम अत्यंत साहित्यिक नाम है- अध्रेदु भूषण बर्धन। वो उच्च मध्य परिवार में पैदा हुए थे। सिलहट (वर्तमान बांग्लादेश) में उनकी पैदाइश है। उनके पिता रेलवे में बड़े अधिकारी थे और रेल की सेवा के तहत वो नागपुर में ही बस गए थे। फलत: बर्धन का भी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकलाप का क्षेत्र नागपुर बन गया। लंबे दौर तक रायपुर-नागपुर मध्य भारत प्रदेश का बहुत बड़ा केंद्र था। दरअसल बर्धन का विशेष गुण यह था कि वो मार्क्‍सवादी दर्शन और वैज्ञानिक समाजवाद के उद्भट ज्ञाता थे। अर्थशास्त्र की शिक्षा और उनकी कुशाग्र बुद्धिता ने जटिल मार्क्‍सवादी दर्शन के विचारों को गहरी पकड़ के साथ समझने और औरों को समझाने की विलक्षण प्रतिभा विकासित की। श्रमिक आंदोलन में उनकी गहरी रुचि और योगदान दिन-रात उनकी पैरवी करते हुए मालिकों और अधिकारियों के सामने वैज्ञानिक तर्क रखकर मजदूरों के हितों के लिए कुछ हासिल करने का उनका अंदाज मजदूरों को हमेशा अच्छा लगता था, इसीलिए वह उनके प्रिय नेता बन गए। जीवनपर्यत वो महाराष्ट्र के बिजली कर्मचारियों के निद्र्वद्व नेता बने रहे। महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी वकर्स फेडरेशन के पचास साल से भी अधिक वर्षो तक अध्यक्ष या महामंत्री चुने जाते रहे।वर्तमान में विभिन्न राज्यों के बिजली कर्मचारियों के राष्ट्रीय संगठन ऑल इंडिया इलेक्ट्रिसिटी इंप्लायर्स फेडरेशन के अध्यक्ष रहे। वो बीसियों वर्ष से ऑल इंडिया डिफेंस फेडरेशन (जो डिफेंस कर्मियों का एक मात्र संगठन है) के उपाध्यक्ष रहे। 1968 में कॉमरेड बर्धन भाकपा के शीर्षस्थ नीति निर्माता समिति-राष्ट्रीय परिषद-के सदस्य चुने गए और फिर 1978 में वो केंद्रीय कार्यसमिति के सदस्य चुने गए। वैचारिक प्रश्नों पर एवं मजदूरों में काम करने, पार्टी की राजनीतिक कार्यनीति के संबंध में भाकपा के एवं देश की कम्युनिस्ट और मजदूर आंदोलन के शीर्ष नेता कामरेड श्रीपाद अमृत डांगे से उनके गहरे मतभेद भी हुए। जो लोग ये कहते हैं कि भाकपा के संगठन में जनवाद नहीं है और वहां तानाशाही चलती है, उनके लिए यही जवाब है। आंख खोलकर देखने की बात है कि कॉमरेड डांगे से मतभेद के बाद भी कॉमरेड बर्धन संगठन में अपनी जगह बनाते रहे।जन आंदोलनों का नेतृत्व करते हुए साथी बर्धन 1957 में नागपुर शहर से विधानसभा का चुनाव जीते और पांच सालों तक महाराष्ट्र विधानसभा में मजदूरों, कपड़ा मजदूरों, बुनकरों, कपास-मूंगफली-तिलहन पैदा करने वाले किसानों के सवालों को बड़े शानदार तरीके से उठाकर, तर्क के साथ इस समाज की समस्याओं को राजनैतिक और आर्थिक सुधार के एजेंडे में शामिल कर देते थे। 1994 में जब भारत के संसदीय जीवन के सर्वोच्च सांसद एवं ट्रेड यूनियन नेता स्व. कॉमरेड इंद्रजीत गुप्ता भाकपा के महासचिव बने तो देश के सबसे पुराने ट्रेड यूनियन-ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस-के महासचिव के पद पर साथी बर्धन को चुना गया। बाद में कॉमरेड गुप्ता ने 1996 में श्री देवेगौड़ा की सरकार में देश के गृहमंत्री बने तो कॉमरेड बर्धन को भाकपा राष्ट्रीय परिषद ने पार्टी का महासचिव चुना और इस पद को वह सन 2012 तक सुशोभित करते रहे। साथी बर्धन हिंदी, अंग्रेजी और मराठी भाषा के जानकार थे और इन तीनों भाषाओं में विशिष्ट वक्ता भी थे। बोलचाल में वो बांग्ला भाषा भी बहुत साफबोलते और पढ़ते थे। दलितों, आदिवासियों मजदूरों, अंतराराष्ट्रीय राजनैतिक परिस्थितियों और आर्थिक विषयों पर कॉमरेड बर्धन की पकड़ थी और इन विषयों पर उन्होंने लगभग 20 किताबें लिखीं। मार्क्‍सवाद और विवेकानंद के दर्शन पर उनकी लिखी किताब आध्यात्मिक तर्कशास्त्रियों के बीच चर्चित रही। मंडल-कमंडल के विवाद में वो मंडल कमीशन की सिफारिशों के बड़े समर्थक थे। उन्होंने मंदिर-मस्जिद विवाद में, संप्रदायवादियों से विशेषकर संघ परिवार और भाजपा से वैचारिक स्तर पर राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया, आंदोलन किया और सन 2003 में देश में भाजपा की सरकार के खिलाफ ‘‘बचाओ भारत-बनाओ भारत’ को लेकर भाकपा का राष्ट्रीय अभियान चलाया, जिसमें लेखक ने भी (मणिपुर से दिल्ली) चार हजार किमी की यात्रा की। नाइंसाफी के खिलाफ एक बुलंद आवाज थे साथी बर्धन। आप हमेशा अधिकारों के लिए लड़ रहे लोगों के दिलों में रहेंगे। आपको भावभीनी श्रद्धांजलि।


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साथ चलना ही आगे का रास्ता तय करेगा : कॉमरेड बर्धन ------ Hridayesh Joshi


‘अरे भाई ये दाल इतनी पतली है। कोई खा सकता है क्या इसे!’ किचन में बैठे बुज़ुर्ग ने रसोइये से शिकायत की।
‘जितने पैसे आप हमें देते हो उतने में ऐसा ही खाना बन सकता है।’ रसोइये ने पलट कर जवाब दिया।
कुछ देर तक बुज़ुर्ग उसे देखता रहा फिर चुपचाप वही खाना खाने लगा। चुपचाप।.............................
एक साधारण सा रसोइया भी किसी राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया को इस तरह झिड़क सकता है......................बर्धन दादा मुस्कुराये और पास में पड़े एक बड़े से पत्थर पर बैठ गये। उन्होंने कहा कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आदमी पार्टी में राजनीति में कहां पहुंच गया है। सादगी को कभी नहीं छोड़ना चाहिये’। बर्धन के साथ लंबे वक्त तक पार्टी में काम कर चुकी नेता अमरजीत कौर कहती हैं।................................वह जाने जाते थे तो फक्कड़ अंदाज़ में सच बोलने के लिये। उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि उनके बयान अपने ही साथियों को नाराज़ कर सकते हैं।


 


जीवन में सादगी और आक्रामक राजनीति का मेल

Hridayesh Joshi : रविवार जनवरी 3, 2016 08:01 PM IST 











‘अरे भाई ये दाल इतनी पतली है। कोई खा सकता है क्या इसे!’ किचन में बैठे बुज़ुर्ग ने रसोइये से शिकायत की।

‘जितने पैसे आप हमें देते हो उतने में ऐसा ही खाना बन सकता है।’ रसोइये ने पलट कर जवाब दिया।

कुछ देर तक बुज़ुर्ग उसे देखता रहा फिर चुपचाप वही खाना खाने लगा। चुपचाप।

ये 2004 में गर्मी की एक उमस भरी दोपहर थी और मैं उस बुज़ुर्ग के साथ किचन में बैठा इंतज़ार कर रहा था कि ये नेता अपना खाना खत्म करे तो मैं साउंड बाइट लूं, अपनी टीवी की स्टोरी के लिये। उस दिन मुझे भरोसा नहीं हो रहा था कि एक साधारण सा रसोइया भी किसी राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया को इस तरह झिड़क सकता है। वह बुज़ुर्ग वामपंथ के सबसे धाकड़ नेताओं में एक और सीपीआई के महासचिव ए बी बर्धन थे। नियमों के हिसाब से कॉमरेड बर्धन को दिल्ली के शानदार लुटियंस ज़ोन में बंगला दिया गया था, लेकिन वो खुद उसमें कभी नहीं रहे। ये जगह उन्होंने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के लिये छोड़ दी थी। बर्धन आखिरी दिनों तक पार्टी दफ्तर में ही एक छोटे से कमरे में रहे।

शनिवार को लंबी बीमारी के बाद ए बी बर्धन की दिल्ली के जी बी पंत अस्पताल में मृत्यु हो गई। जो लोग उन्हें करीब से जानते हैं वो आपको बतायेंगे कि उनकी राजनीति जितनी आक्रामक थी वह उतना ही सादगी भरा जीवन जीते थे। कट्टर कम्युनिस्ट नेता अक्सर टीवी पत्रकारों के उकसाऊ सवाल पूछने पर भड़क जाते थे। उन्हें नहीं पता था कि ये रिपोर्टर अक्सर उनसे बात करने इसीलिये आया करते क्योंकि उनका गुस्सैल बयान दिल से निकलता था और टीवी स्टोरी को हिट बना देता था, लेकिन पत्रकारों के उनके ‘मूर्खतापूर्ण’ सवालों के लिये फटकारने के बाद बर्धन का गुस्सा भी तुरंत उतर जाता था।

 ‘एक बार हम एक चुनाव प्रचार के लिये एक दूरदराज़ के गांव में थे। कॉमरेड बर्धन चाहते थे कि सड़क के किनारे एक ढाबे पर चाय पी जाये। एक साथी ने कहा कि दादा आप हमारी पार्टी के महासचिव हो। यहां आपको बिठाने के लिये कुर्सी तक नहीं है। कहीं दूसरी ठीकठाक सी जगह पर चाय पीते हैं। इस पर बर्धन दादा मुस्कुराये और पास में पड़े एक बड़े से पत्थर पर बैठ गये। उन्होंने कहा कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आदमी पार्टी में राजनीति में कहां पहुंच गया है। सादगी को कभी नहीं छोड़ना चाहिये’। बर्धन के साथ लंबे वक्त तक पार्टी में काम कर चुकी नेता अमरजीत कौर कहती हैं।

बर्धन के साथ एक युग का अंत हो गया है। वह अपनी पीढ़ी के शायद आखिरी नेता थे। वामपंथ के धाकड़ नेताओं हरिकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु, भूपेश गुप्ता, इंद्रजीत गुप्ता, गीता मुकर्जी और अनिल विश्वास के बाद अब बर्धन भी जा चुके हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दिन महाराष्ट्र में बिताये और उनका जीवन ग्रामीण भारत के लिये काम कर रहे सुदाम देशमुख जैसे नेताओं से प्रभावित रहा। वह अपनी पीढ़ी के साथियों के सहयोगी होने के बाद भी कुछ बातों में बिल्कुल अलग थे। न तो वह सुरजीत की तरह राजनीति के चाणक्य कहे जाते और न ज्योति बसु की तरह प्रशासनिक कुशलता का तमगा उनके पास था। वह जाने जाते थे तो फक्कड़ अंदाज़ में सच बोलने के लिये। उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि उनके बयान अपने ही साथियों को नाराज़ कर सकते हैं।

 


2004 के लोकसभा चुनावों में लेफ्ट फ्रंट ने करीब पांच दर्जन सीटें जीत लीं। ये वामपंथियों के लिये एतिहासिक जीत थी। फिर 2006 में केरल में जीत के साथ लेफ्ट को बंगाल में लगातार सातवीं बार एतिहासिक जीत मिली। वामपंथी राजनीतिक परिदृश्य में मज़बूती से टिके थे। अचानक 2007 में नंदीग्राम और फिर सिंगूर में भड़की हिंसा के बाद ‘किसान विरोधी नीतियों’ के कारण लाल झंडे वालों का सिंहासन डोलने लगा। ऐसे में बर्धन अपने कॉमरेड्स को बेबाकी से चेतावनी देने वाले पहले नेताओं में थे। इसी दौर में बर्धन ने अमेरिका के साथ हो रहे परमाणु करार के खिलाफ यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने की ज़ोरदार वकालत की। यूपीए की पूंजीवादी नीतियों से वह खफा थे ही औऱ सबसे पहले उन्होंने ही इस बात को कहा कि इस सरकार के साथ हमारा हनीमून खत्म हो चुका है। वह ममता बनर्जी की राजनीति से लड़ने में बुद्धदेव भट्टाचार्जी के तौर तरीकों और भाषा से खुश नहीं थे। जब 2009 में लेफ्ट को लोकसभा चुनावों में करारी हार मिली तो बर्धन ने एक इंटरव्यू में मुझसे कहा कि 2011 के बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले भट्टाचार्जी को सीएम के पद से हटाया जाना चाहिये।

‘बर्धन दादा को किसी तरह का घमंड या घमंडी भाषा पसंद नहीं है... अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ भी नहीं।’ सीपीआई के एक नेता ने उस वक्त मुझसे कहा जब बंगाल में वामपंथियों और ममता बनर्जी के बीच घमासान चल रहा था। सीपीआई के नेता बर्धन कुछ बहुत विवादित फैसलों के लिये भी याद रखे जायेंगे, जैसे उन्होंने 2005 के विधानसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के साथ गठबंधन किया, जबकि सीपीएम लालू की छवि को लेकर नाराज़ थी और उसने अलग लड़ने का फैसला किया।

इसके बावजूद ए बी बर्धन वामपंथी एकता के सबसे मुखर समर्थक रहे। अक्सर सीपीएम-सीपीआई के एकजुट होने की बात होती रही है। बर्धन खुलकर कहते कि दोनों पार्टियों में ऐसे नेता हैं जो नहीं चाहते कि सीपीएम और सीपीआई का विलय हो, लेकिन साथ चलना ही आगे का रास्ता तय करेगा।

आज जब लेफ्ट फ्रंट संसद में कमज़ोर है और सड़क पर उसकी आवाज़ कम सुनी जा रही है, उन लोगों के लिये कॉमरेड बर्धन के ये शब्द रास्ता दिखा सकते हैं जो वामपंथी राजनीति को प्रासंगिक बनाये रखना चाहते हैं।


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