Thursday 29 November 2018

अतुल अंजान साहब को जन्मदिन की बधाई व शुभकामनायें





*अतुल अंजान साहब का स्पष्ट कहना है कि, 2014 के लोकसभा चुनाव में 35 हजार करोड़ रुपए खर्च करके सत्तारूढ मोदी सरकार कारपोरेट घरानों की सरकार है। 
** जब मोहन भागवत बन्छ आफ थाट  को गुजरे जमाने की किताब बता सकते हैं तब गांधी जी की हत्या के लिए देश से माफी क्यों नहीं मांगते ? 
*** सबरीमाला पर भाजपा की रक्तपात यात्रा जन विरोधी और देश विरोधी और संविधान विरोधी है। 
**** यह देश जितना हिंदुओं का है उतना ही मुसलमानों,सिखों,बौद्धों,जैनियों,पारसियों आदि - आदि का भी है। 
***** इस सरकार के कार्यकाल को यों समझें कि, ''बड़ी - बड़ी बातों के चक्कर में छोटी भी गयी । पतलून की चाहत में लंगोटी भी गई। । "
****** जनता से अनुरोध है कि, जाति, मजहब,धर्म को देख कर वोट न दें बल्कि, बेरोजगारी,मंहगाई,किसान और मजदूरों की समस्याओं को ध्यान में रख कर वोट दें वरना अगली पीढ़ियाँ तबाह हो जाएंगी। 

Saturday 24 November 2018

चरित्र भ्रष्ट मोदी सरकार चला चली की बेला में ------ अतुल अंजान

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान ने भारत वॉयस को दिये साक्षात्कार में बड़े बुलंद अंदाज के साथ मोदी सरकार की विदाई को रेखांकित किया है। उनका स्पष्ट मानना है कि देश की जनता इस चारित्रिक व आर्थिक रूप से पूर्ण भ्रष्ट सरकार को हटा कर देश , देश के संविधान और लोकतन्त्र की रक्षा के लिए कटिबद्ध है । 
(क्रमश: ) 


Monday 5 November 2018

‘बेटर दैन कैश एलायंस’ का वायदा पूरा करने के लिए हुई थी नोटबंदी ------ नॉरबर्ट हेयरिंग

* नोटबंदी के थोड़े समय बाद अमेरिकी सलाहकार कंपनी बीसीजी और गूगल ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें भारतीय लेन-देन के बाजार को ‘500 अरब डॉलर के सोने का बर्तन’ कहा गया। नोटबंदी के बाद अमेरिकी निवेशक बैंक ने संभावित मुख्य लाभार्थियों में वीजा, मास्टरकार्ड और एमेजॉन को शामिल किया । 
** नोटबंदी के घोषित उद्देश्य नहीं हुए पूरे
बचत के आधुनिक तरीकों और भुगतान के विकल्पों तक पहुंच देकर गरीबों की मदद करने की बजाय नोटबंदी ने बड़े पैमाने पर गरीबों का नुकसान किया। नगदी के रूप में उनके पास जो भी बचत था, जिससे उनका काम चल रहा था वह भी उनके हाथ से निकल गया।

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नोटबंदी के घोषित उद्देश्य नहीं हुए पूरे, लेकिन असली लक्ष्य था कुछ और!
 नॉरबर्ट हेयरिंग

मुझे प्रधानमंत्री मोदी के नोटबंदी के फैसले की ‘असफलता’ पर लिखने के लिए कहा गया है। यह सच है, अगर नोटबंदी की कार्रवाई को आतंकवाद, भ्रष्टाचार और करचोरी रोकने के इसके घोषित उद्देश्यों के आधार पर परखा जाए तो यह एकदम असफल माना जाएगा।एक तो अवैध घोषित किए गए लगभग सारे नोट बैंकों में वापस जमा हो गए और वैध अर्थव्यवस्था में फिर से डाल दिए गए। अगर समावेशी अर्थव्यवस्था बनाने के दूसरे उद्देश्य के पैमाने पर इसे देखा जाए तो वहां भी यह असफल साबित हुआ। बचत के आधुनिक तरीकों और भुगतान के विकल्पों तक पहुंच देकर गरीबों की मदद करने की बजाय नोटबंदी ने बड़े पैमाने पर गरीबों का नुकसान किया। नगदी के रूप में उनके पास जो भी बचत था, जिससे उनका काम चल रहा था वह भी उनके हाथ से निकल गया।जिन लोगों के पास सहायता का अच्छा सामाजिक तंत्र था, उन्हें तो इसे झेलने का तरीका मिल गया। लेकिन विस्थापित मजदूरों जैसे समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों को अस्थायी रूप से मौद्रिक अर्थव्यवस्था से बाहर रहने के कारण काफी नुकसान हुआ।अमेरिकी सरकार 4 घंटे के नोटिस पर ज्यादातर नगदी को सर्कुलेशन से बाहर निकालने के बारे में सोच भी नहीं सकती। हालांकि, अगर यह भारत में भारत के लोगों के साथ किया गया है, तो यह उनके लिए ठीक है!अमेरिकी सरकार के प्रतिनिधियों ने इस कदम की तारीफ की थी। दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक संस्था के मुखिया बिल गेट्स ने घोषणा की कि कुल जमा लाभ गरीबों की अस्थायी परेशानी से काफी ज्यादा होगा। ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ नाम की संस्था ने भी यही किया। अमेरिकी सरकार और गेट्स फाउंडेशन इस संस्था के मुख्य सदस्य हैं।अमेरिका में नोटबंदी को लेकर जो उत्साह था उसे समझा जा सकता है, अगर समावेश का मतलब यह माना जाए कि सारा पैसा वाणिज्य औद्योगिक क्षेत्र में डाल दिया जाए। 2015 में वाशिंगटन में आयोजित हुए फाइनेंसियल इन्क्लूजन फोरम में ‘पे पाल‘ के सीईओ डैन शूलमैन ने बताया: “वित्तीय समावेश एक उत्साह बढ़ाने वाला शब्द है जिससे कि लोगों को व्यवस्था का अंग बनाया जाए।” और उसी मौके पर बिल गेट्स ने इस बात को विस्तार से बताते हुए कहा कि अमेरिकी सरकार को यह सुनिश्चित करना था कि वित्तीय लेन-देन डिजिटल व्यवस्था के तहत हो जिसमें अमेरिकी सरकार “उन लेन-देन का पता लगा सके जिनके बारे में वह जानना चाहती है या ब्लॉक करना चाहती है।”गेट्स ने यह भी कहा: “यह निश्चित रूप से हमारा लक्ष्य है कि अगले 3 सालों में बड़े विकासशील देशों में डिजिटलीकरण पूरा हो जाए। हमने पिछले तीन सालों से वहां (भारत) के केंद्रीय बैंक के साथ सीधे तौर पर काम किया है।” भारत में गेट्स फाउंडेशन के मुखिया नचिकेत मोर हैं। वे अभी हाल तक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के केंद्रीय बोर्ड के सदस्य थे और उनके पास वित्तीय देख-रेख की जिम्मेदारी थी।नोटबंदी भारतीय लोगों को ‘व्यवस्था’ का हिस्सा बनाने में काफी सफल रही, जिसमें उनका पता लगाया जा सकता है। यह अनुमान लगाने में ज्यादा दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि नोटबंदी का असली लक्ष्य यही था। नोटबंदी के लगभग तीन सप्ताह बाद अपने मासिक संबोधन ‘मन की बात’ में नरेन्द्र मोदी ने कहा था: “हमारा सपना है कि एक कैशलेस समाज बने।”2014 में चुनाव जीतने के बाद जब वे वाशिंगटन गए तो उन्होंने इस लक्ष्य को लेकर एक वादा किया था। उनकी यात्रा के दौरान ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में अमेरिकी सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था यूएसएआईडी, भारत के वित्त मंत्रालय और डिजिटल लेन-देन में शामिल कई अमेरिकी और भारतीय कंपनियों के बीच एक भागीदारी की घोषणा हुई थी। जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा 2015 में भारत आए तो उनका स्वागत करते हुए भारत ने एक उपहार यह दिया कि भारत ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में शामिल हो गया।अमेरिकी सरकार और गेट्स फाउंडेशन के अलावा ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में अपने हितों को लेकर मौजूद कई मुख्य वाणिज्यिक सदस्य भी हैं। वे अमेरिका के लेन-देन कारोबार के महारथी वीजा और मास्टरकार्ड हैं जिनका बड़ा दखल विश्व बाजार और सीआईटीआई समूह पर है। सीआईटीआई यानी सिटी बैंक इस एलायंस के शुरू होने के वक्त दुनिया का सबसे बड़ा बैंक था।नोटबंदी के थोड़े समय बाद अमेरिकी सलाहकार कंपनी बीसीजी और गूगल ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें भारतीय लेन-देन के बाजार को ‘500 अरब डॉलर के सोने का बर्तन’ कहा गया। नोटबंदी के बाद अमेरिकी निवेशक बैंक ने संभावित मुख्य लाभार्थियों में वीजा, मास्टरकार्ड और एमेजॉन को शामिल किया।सिटी बैंक जैसे वाणिज्यिक बैंक नगद को उतना ही नापसंद करते हैं जितना क्रेडिट कार्ड कंपनियां करती हैं। इसमें पैसा कमाने की बजाय नगद का प्रबंधन करने में पैसे लग जाते हैं, जबकि वे डिजिटल लेन-देन में पैसा कमा लेते हैं। ज्यादा बुरी बात यह है कि लोग बैंकिंग व्यवस्था से अपना पैसा निकाल सकते हैं अगर उनका भरोसा खत्म हो गया। बड़े वित्तीय खेल में घुसने की बैंकिंग व्यवस्था की क्षमता को यह सीमित करता है।जितना कम नगद इस्तेमाल होता है, उतना ज्यादा बैंक में जमा राशि का रूप लेता है। बैंक में जितना ज्यादा पैसा जमा होगा, वे उतने फायदेमंद धंधों में घुस सकते हैं। जर्मनी के एक अखबार को दिए साक्षात्कार में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तत्कालीन सीईओ अरुंधती भट्टाचार्य इस बात को लेकर बेहद उत्साहित थीं कि बैंकिंग व्यवस्था में बहुत ज्यादा पैसे आ गए हैं। उन्होंने कहा कि जितने पैसे जमा हुए हैं वैसा पहले कभी नहीं देखा गया था, “सुधार के पहले हम हर महीने 950 मिलियन डेबिट कार्ड लेन-देन करते थे। नोटबंदी के 50 दिन बाद हम 3.9 बिलियन लेन-देन कर रहे हैं।अमेरिकी-भारतीय भागीदारी के वाणिज्यिक सदस्यों के दृष्टि में नोटबंदी बहुती बड़ी सफलता थी। नोटबंदी के 18 महीनों बाद मोबाइल वॉलेट का उपयोग तीन गुना बढ़ गया, बिक्री में डेबिट कार्ड का उपयोग दुगुना हो गया और क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल में काफी बढ़ोतरी हुई।

भास्कर चक्रवर्ती अमेरिका के टफ्ट्स विश्वविद्यालय में इंस्टीट्यूट फॉर बिजनेस इन ग्लोबल कॉन्टेक्स्ट के निदेशक हैं। इस संस्था को गेट्स फाउंडेशन और सिटी समूह वित्तीय सहायता देता है। हार्वर्ड बिजेनस रिव्यू में उन्होंने नोटबंदी पर लिखते हुए माना कि नोटबंदी अपने घोषित उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रहा और गरीब लोगों और अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान हुआ।उन्होंने आगे कहा कि यह कोई समस्या नहीं थी क्योंकि नोटबंदी की मुख्य बात पूरी तरह अलग है। नोटबंदी में जनता को इतनी तकलीफ होने के बावजूद मोदी की बड़ी चुनावी सफलताओं को नोट करते हुए उन्होंने लिखा, “जब लोगों को लगता है कि आप उनके लिए लड़ रहे हैं, तो बहुत ठोस तथ्यों का भी कम से कम असर होता है। आखिरकार, भारत में नोटबंदी की कहानी का सबसे बड़ा सबक आंकड़ों के खिलाफ प्रचार की जीत है।”बिना तथ्यों के बड़े वादे करना बेटर दैन कैश एलायंस की रणनीति है जिस पर वह काफी मजबूती से आगे बढ़ रहा है। वे लगातार दावा कर रहे हैं कि लेन-देन का डिजिटलीकरण गरीबी को मिटाने में मदद करेगा और विकास की गति बढ़ाएगा। उनके लिए इसका कोई मतलब नहीं है कि इस तर्क के खिलाफ कई सारे तथ्य मौजूद हैं।
साभार : 
https://www.navjivanindia.com/india/demonetisation-was-a-failure-in-terms-of-its-announced-goals-but-the-real-aim-something-else?utm_source=one-signal&utm_medium=push-notification
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Sunday 4 November 2018

न्यायिक सक्रियता, संघ की बौखलाहट और मन्दिर राग ------ डा॰ गिरीश


Girish CPI

Nov 3, 2018, 1:38 PM
न्यायिक सक्रियता, संघ की बौखलाहट और मन्दिर राग  : 


अदालतों के हाल के कुछ निर्णयों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसके आनुसांगिक संगठनों खासकर भाजपा की बौखलाहट निरंतर बढ़ती जारही है। इस बौखलाहट के चलते एक ओर वह सर्वोच्च न्यायालय पर हमलावर हुये हैं वहीं उन सबने अयोध्या में मन्दिर निर्माण का कीर्तन पुनः तेज कर दिया है। सारी सीमायें लांघ कर सर्वोच्च न्यायालय पर जिस भौंडे ढंग से हमले किये जारहे हैं वे देश और लोकतान्त्रिक समाज के लिये बेहद चिंता का सबब बनते जारहे हैं। अंततः ये हमले हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली और संविधान के ऊपर हैं।

इसी बीच संघ, विश्व हिन्दू परिषद और संघ के तमाम सहोदरों ने चार साल की हैरान करने वाली चुप्पी को तोड़ते हुये अयोध्या में मन्दिर आंदोलन को धार देना शुरू कर दिया है। अब बात यहां तक पहुंच गयी है कि अध्यादेश लाकर और कानून बना कर मन्दिर बनाने की मांग की जारही है। यह मांग किसी और ने नहीं विजयादशमी पर अपने परंपरागत भाषण में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने स्वयं की। नाटकीयता की हद यह है कि सरकार का नियंता संघ अपनी ही सरकार से मांग करने का अभिनय कर रहा है।

लेकिन  महामुख के खुलते ही दसों मुख खुल गये हैं। कथित विहिप और संत समाज तो पहले ही अभियान की रूपरेखा तैयार कर चुके थे अब गिरराज किशोर और सुब्रह्मण्यम स्वामी सरीखे भाजपा के वाचाल भी सक्रिय होगये हैं। एक दो नहीं संवैधानिक पदों पर बैठे कोई दर्जन भर दुर्मुख एक ही भाषा बोल रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो यहां तक कह डाला कि मन्दिर निर्माण तो जारी है। उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य ने कहाकि 2019 से पहले ही मन्दिर का निर्माण अवश्य होगा भले ही उसके लिये कानून बनाना पड़े। राम भक्त दर्शाने की होड़ मची है। तोगड़िया और शिवसेना प्रमुख देखने में भले ही अलग दिखाई देते हों पर उनका मन्दिर राग भाजपा और संघ के लिये आधार तैयार करने वाला ही नजर आरहा है।

केरल के सबरीमाला मन्दिर के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी स्त्रियों के प्रवेश के निर्णय पर संघ और भाजपा ने सारी सीमायें लांघ कर अपनी फौजें सड़कों पर उतार दीं। इतना ही नहीं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सर्वोच्च न्यायालय को खुल्लमखुला नसीहत दे डाली कि सर्वोच्च न्यायालय को ऐसे निर्णय नहीं देने चाहिये जो जनता की आस्था के विपरीत हों और जिन्हें लागू नहीं किया जासके। यह सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्चता और हमारे संविधान पर खुला हमला है जिसके तहत व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सर्वोच्चता स्थापित की गयी है। इस प्रकरण ने संघ और भाजपा के नारी सम्मान और स्वातंत्र्य के प्रति ढोंग को भी उजागर कर दिया। एक केन्द्रीय महिला मन्त्री ने तो बेहद फूहड़ बयान देकर नारी की निजता पर घ्रणित हमला बोला।

ऐसा नहीं कि भाजपा ऐसा पहली बार कर रही है। वह ऐसा बार- बार और लगातार करती आयी है। आस्था और श्रध्दा उसके राजनीतिक कवच- कुंडल हैं। इन्हीं की आड़ में इस समूह ने 6 दिसंबर 1992 को राष्ट्रीय एकता परिषद को दिये अपने वचन और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की धज्जियां बिखेरते हुये अयोध्या के विवादित ढांचे को ही ज़मींदोज़ कर दिया था।

सर्वोच्च न्यायालय पर संघ परिवार का ताज़ा हमला उसके अधीन विचारधीन अयोध्या विवाद की सुनवाई जनवरी 2019 में शुरू करने के फैसले को लेकर है। संघ भली प्रकार जानता है कि 29 अक्तूबर को सक्षम बेंच के अभाव में सुनवाई संभव नहीं थी और एक सक्षम बेंच के गठन के लिये भी वक्त चाहिये होता है। लेकिन संघ को तो राजनीति करनी थी। पहले कहा गया कि यह सब कांग्रेस के दबाव में किया जारहा है। जब यह पटाखा फुस्स होगया तो कहा जाने लगाकि सर्वोच्च न्यायालय करोड़ों हिंदुओं की भावना से खिलवाड़ न करे। यह सर्वोच्च न्यायालय को खुली धमकी है जो अपने वोट बैंक को बरगलाने के लिये की जारही है।

सर्वोच्च न्यायालय ही नहीं तमाम स्वायत्त संस्थाओं को भी संघ परिवार तहस नहस कर रहा है। निर्वाचन आयोग, सीबीआई, सीवीसी और अब रिजर्व बैंक को निशाने पर लिया गया है।

संघ और भाजपा की इस बौखलाहट और कारगुजारियों के लिये पर्याप्त कारण भी हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा और मोदीजी द्वारा जनता को तमाम सब्जबाग दिखाये गये थे। आज उनकी कलई पूरी तरह खुल गयी है। दो करोड़ नौजवानों को हर वर्ष रोजगार देने का वायदा अब उन्हें पकौड़े तलने की नसीहत में बदल गया है। किसानों की आमदनी दोगुनी करने, विदेशों से कालाधन वापस लाकर हर खाते में रुपये- 15 लाख पहुंचाने, आतंकवाद की रीड़ तोड़ने, पाकिस्तान की आँखों में आँखें डाल कर बात करने जैसे झांसे और “न खाऊँगा न खाने दूंगा” जैसी कसमें सभी तार- तार होचुके हैं। भाजपा स्वयं इन्हें चुनावी जुमला बता चुकी है।

नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के दुष्परिणाम सभी के सामने हैं। पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में अभूतपूर्व व्रध्दी और कमरतोड़ महंगाई, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में रुपये की निरंतर गिरती कीमत और भ्रष्टाचार के मोर्चे पर मोदी सरकार की विफलता ने भाजपा के पैरों तले से जमीन खिसका दी है। राफेल विमान सौदे में सीधे प्रधानमंत्री की लिप्तता ने डूबते जहाज की पैंदी में एक और छेद कर दिया। इसे भाजपा भी समझ रही है और संघ भी। विकास, स्वच्छता अभियान और विदेशों में छवि निर्माण के ढोंग भी परवान नहीं चड़ सके। सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा पर चढ़ कर फायदा उठाने का मंसूबा आरएसएस के बारे में सरदार पटेल के स्पष्ट विचारों ने धराशायी कर दिया।

हाल के कुछ न्यायिक फैसलों ने भी संघ और भाजपा की कथनी करनी और दोगलेपन को उजागर किया है। सबरीमाला मन्दिर में सभी आयु की महिलाओं के प्रवेश, शहरी नक्सल के नाम पर गिरफ्तार बुध्दिजीवियों की गिरफ्तारी के मामले को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विचार के लिये स्वीकार करना, सीबीआई प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता, दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा 31 वर्ष पुराने हाशिमपुरा मामले में दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाना और उत्तर प्रदेश में 68,500 शिक्षकों की भर्ती में हुये घोटाले की इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई से जांच के आदेश पारित करना आदि तमाम मामले हैं जो भाजपा, संघ और उनकी सरकारों की कारगुजारियों को बेनकाब करते हैं।

इन सब से बौखलाया संघ परिवार मन्दिर मुद्दे की सुनवाई को जनवरी तक बढ़ाए जाने को कुटिलता से आस्था का प्रश्न बना कर सर्वोच्च न्यायालय पर हमले बोल रहा है। हर तरफ से घिरे और पूरी तरह बेनकाब संघ के सामने “मन्दिर शरणम गच्छामि” के अलाबा कोई रास्ता नहीं है। अतएव अध्यादेश लाकर अथवा कानून बना कर मन्दिर बनाने की आवाजें तेज हो गईं हैं। मोहन भागवत और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बीच हुई गुफ्तगू भी इसी उद्देश्य से है। संघ के महासचिव ने 1992 जैसा आंदोलन छेड़ने की धमकी दी है। यह साख बचाने और चेहरा छिपाने की कवायद भी होसकती हैं।  

अब देखना यह है कि क्या संघ के निर्देशों का पालन करते हुये केन्द्र सरकार संसद के शीतकालीन सत्र से पहले मन्दिर निर्माण के लिये अध्यादेश लाएगी? या फिर संसद में कोई बिल लाकर यह जताने का प्रयास करेगी कि वह तो मन्दिर निर्माण के लिये प्रतिबध्द है। लेकिन इस बिल के अधर में लटक जाने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। पर भाजपा को लोगों को भ्रमित करने का बहाना तो मिल ही जाएगा। कानूनी पेंच यह भी है कि अयोध्या के विवादित भूखंड का अदालती निर्णय आने से पहले वहाँ कोई निर्माण संभव नहीं है। भाजपा और संघ यह भली प्रकार जानते हैं। अतएव मन्दिर राग अलापना उनकी मजबूरी है तो न्यायपालिका को धमकाना उनकी राजनैतिक जरूरत। इसे वे निरंतर जारी रखेंगे भले ही देश के लोकतान्त्रिक ढांचे को कितनी ही क्षति क्यों न उठानी पड़े।

डा॰ गिरीश