Sunday 21 May 2017

व्यवस्था की सड़न समाज को बर्बरता के रास्ते प्रकृति को नष्ट कर पूरे जीवन को ही खतरे में डाल रही है ------ मुकेश त्यागी

 निजी संपत्ति की समाप्ति और सामाजिक उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व में सामूहिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए उत्पादन के लिए विज्ञान-तकनीक का भरपूर प्रयोग ही ना सिर्फ सबको रोजगार दे सकता है बल्कि अमानवीय श्रम से मुक्ति भी......................लेकिन यह खुद ब खुद होगा नहीं, करना पड़ेगा, नहीं तो इस व्यवस्था की सड़न अब समाज को बर्बरता के रास्ते पर ले जा रही है और प्रकृति को नष्ट कर पूरे जीवन को ही खतरे में डाल रही है ।  
Mukesh Tyagi
विकल्प का अर्थ क्या है? बेरोज़गारी के समाधान के लिए क्या वर्तमान व्यवस्था में कुछ तात्कालिक सुधार जैसे पब्लिक सेक्टर को मजबूत करना, सरकारी खर्च बढ़ाना, पूँजीपति मालिकों पर कुछ रोकथाम करना, छँटनी पर रोक लगाना, सरकार द्वारा पूँजी केंद्रित के बजाय श्रम केंद्रित अर्थात आधुनिक तकनीक के बजाय पुरानी तकनीक पर आधारित उद्योगों में निवेश करना, आदि वास्तव में विकल्प हैं? आर्थिक ग़ैरबराबरी के लिए क्या आयकर की ऊँची दर, सम्पत्ति कर, विरासत पर कर, कर्मचारियों का वेतन, मजदूरी बढ़ाना, किसानों को फसल की ऊँची कीमतें देना क्या वास्तव में आज विकल्प है? सामाजिक-जनवाद या संसदीय वाम धारा की नजर में यह विकल्प है, लेकिन क्या यह वास्तविकता में एक विकल्प है? समझने के लिए हमें उपरोक्त नीति किस ऐतिहासिक परिस्थिति में लागू की गई, यह जानना जरुरी है| 
जॉन मेनार्ड कींस के कल्याणकारी राज्य और उसके साथ जुड़े ब्रेटन वुड्स के आर्थिक ढाँचे की नीति निम्न विशेषताओं वाले वक़्त में आई थी-
1. द्वितीय विश्व युद्ध में विकसित पूँजीवादी और अन्य देशों में उत्पादक शक्तियों का भारी विनाश और पुनर्निर्माण का दौर 
2. युद्ध द्वारा यूरोप/जापान के उत्पादक उम्र के करोड़ों श्रमिकों की हत्या और अपंग किया जाना
3. दुनिया भर के अविकसित देशों में पूँजीवादी बाज़ार के विस्तार की अपार सम्भावना
4. दुनिया भर में जुझारू मजदूर आंदोलनों के उभार और समाजवादी खेमे की शक्ति का भय
इस विशेष परिस्थिति में एक तो तात्कालिक तौर पर उत्पादन का विस्तार मुमकिन था, बेरोजगारों की बड़ी फ़ौज मौजूद नहीं थी, अविकसित देशों के शोषण से प्राप्त मुनाफ़े से विकसित देशों के मजदूरों को एक हिस्सा देना मुमकिन था और साथ में, उनको जुझारू मजदूर आंदोलन के रास्ते जाने रोककर वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही सौदेबाज़ी के जरिये अपनी स्थिति में सुधार का भ्रम पैदा करना भी जरुरी था| इस स्थिति में कल्याणकारी राज्य और ऊपर दी गई नीतियों को लागू किया गया| 
भारत में भी 1930 के दशक में ही स्पष्ट हो गया था कि देश को आजाद होना ही है और कांग्रेस उसके बाद के लिए एक राष्ट्रीय योजना समिति बना चुकी थी| 1942 के जनांदोलनों ने पूँजीपतियों को बुरी तरह डरा दिया था कि यह निजी संपत्ति के खिलाफ आंदोलन में बदल सकता है| उस वक्त के एक बड़े उद्योगपति लाला श्रीराम (DCM) ने दूसरे पुरुषोत्तम ठाकुरदास को लिखा था 'यह तोड़फोड़ निजी संपत्ति के खिलाफ भी जा सकती है| एक बार ये गुंडे ('आजादी के योद्धा!') यह समझे तो हुकूमत इन्हें बाँध नहीं पायेगी| आज तो महात्मा गाँधी इन्हें रोक पा रहे हैं, पर मुमकिन है आगे न रोक पायें|'
साथ ही पूँजीपति वर्ग को अपनी पूँजी और मुक्त बाज़ार की सीमाओं का भी पता था| उन्हें अपने विकास के लिए सत्ता के समर्थन की जरुरत महसूस हो रही थी| ऐसे में 8 उद्योगपतियों-प्रबंधकों ने कांग्रेस को जनवरी 1944 में बॉम्बे प्लान (A Brief Memorandum Outlining a Plan of Economic Development for India)  * नामक योजना दी जिसका दूसरा संस्करण 1945 में बना| इसके लेखक थे जेआरडी टाटा, घनश्यामदास बिड़ला, लाला श्रीराम, पी ठाकुरदास, कस्तूरभाई लालभाई, एड़ी श्रॉफ, अर्देशिर दलाल और जॉन मथाई| इनमें से श्रॉफ ब्रेटन वुड्स की बैठक में भी शामिल होकर आये थे और विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की दिशा से भी परिचित थे| इन्होने आजादी के बाद पहले 15 वर्ष की आर्थिक नीतियों के लिए क्या सुझाव दिए?
1. बाजार और पूँजी का सरकार द्वारा नियमन और विनियोजन
2. पब्लिक सेक्टर में भारी, पूँजी केंद्रित उद्योगों की स्थापना
3. घाटे के बजट द्वारा सरकारी खर्च को बढ़ाना 
4. विदेशी प्रतियोगिता से देशी उद्योगों की सुरक्षा 
5. समानता और न्यायपूर्ण विकास की योजना
6. कृषि आधारित से उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था में संक्रमण 
कहने की जरुरत नहीं कि ठीक यही पूँजीवादी सुझाव नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने समाजवादी विकास के नाम पर अपनाये और पहली तीनों पँचवर्षीय योजनायें पूरी तरह इस बॉम्बे प्लान पर ही आधारित थीं और इसके परिणामस्वरूप देशी पूँजीपतियों की पूँजी में तेजी से वृद्धि हुई| साथ ही मजदूर वर्ग के संगठित अभिजात हिस्से को भी कुशल तकनीकी श्रमिकों की माँग के कारण शेष जनता की तुलना में बेहतर सुविधायें प्राप्त हुईं| 
पर पूँजीवादी विकास और वृद्धि का यह दौर अस्थाई सिद्ध हुआ| दुनिया और भारत में 1965 के बाद ही इसके नतीजे में संकट की स्थिति पैदा होने लगी, असंतोष फ़ैलने लगा| सबसे बुरी बात यह कि इस दौर में कम्युनिस्ट पार्टियों और ट्रेड यूनियनों ने संशोधनवादी धारा हावी हुई जिसने मजदूर वर्ग को इस अस्थाई दौर की वास्तविकता बताने के बजाय इसे पूँजीवाद के चरित्र में बदलाव बताया और सिखाया कि अब पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने, क्रांति करने की जरुरत ख़त्म; कल्याणकारी पूँजीवाद में संगठित सौदेबाजी के द्वारा ही शांति से मज़दूर अपनी स्थिति में सुधार कर सकते हैं| विकास के दौर में तो यह शांति की बात बड़ी अच्छी लगी, यूनियनें भी बढ़ीं, संसद में सीटें भी मिलीं, कम्युनिस्ट मंत्री बनकर पूँजीवादी सरकार भी चलाने लगे| लेकिन पूँजीपति हमेशा अधिक वर्ग सचेत होता है| संकट का दौर आते ही और कम्युनिस्ट आंदोलन की वैचारिक कमजोरी को भाँपते ही उसने कल्याणकारी राज्य का विध्वंस और नव-उदारवाद नीतियों को लागू करना शुरू कर दिया, मजदुरी कम होने लगी, सरकारी खर्च में कटौती चालू, कल्याण कार्यक्रम कम, पब्लिक सेक्टर का निजीकरण, युनियनों पर दमन और छँटनी जारी हुई| गलत शिक्षा दे चुका संसदीय वाम अब मजदूरों को सचेत कैसे करता, वे उसको छोड़कर सत्ता के करीबी कांग्रेस, समाजवादी और फिर संघ की यूनियनों में जाने लगे| यही विभ्रम का दौर संसदीय वाम को आज की हताशा की स्थिति तक ले आया है|
मार्क्सवाद के क्रांतिकारी विचार को छोड़ चुका और लेनिनवाद को अप्रासंगिक मान चुका संसदीय वाम फिर भी एक निश्चित दौर की पूँजीवादी शासक वर्ग की नीति को ही अपनी नीति माने बैठा है, पूँजीवाद के अंदर ही पब्लिक सेक्टर और सरकारी नियमन-योजना के द्वारा पूँजीवाद में सुधार को ही अपना रास्ता माने हुए है अर्थात क्रांति का रास्ता अब उसका रास्ता नहीं है|
आज जब पूरा विश्व पूँजीवाद ही एक अनंत आर्थिक संकट में है, एक संकट से निकलने का यत्न उसे और गहरे संकट में ले जाता है, बाज़ार के विस्तार की और कोई सम्भवनायें समाप्त हैं, तकनीक के द्वारा अधिक पूँजी निवेश और श्रम शक्ति के कम प्रयोग के रास्ते ही मुनाफे को बढ़ाने प्रयास कर रहा है, उस स्थिति में वह कल्याणकारी राज्य के दौर में वापस नहीं जा सकता बल्कि हर देश में इन सब कल्याण योजनाओं को बंद कर खुली लूट की नीति पर जा रहा है और इससे पैदा असंतोष के मुकाबले के लिए कमोबेश फासीवादी प्रवृत्तियों को ही आगे बढ़ा रहा है| 
इस स्थिति में अब निजी संपत्ति की समाप्ति और सामाजिक उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व में सामूहिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए उत्पादन के लिए विज्ञान-तकनीक का भरपूर प्रयोग ही ना सिर्फ सबको रोजगार दे सकता है बल्कि अमानवीय श्रम से मुक्ति भी| ऊपर ज़िक्र किये गए कोई भी सुझाव द्वारा निजी संपत्ति से श्रमिकों की श्रम शक्ति की खरीद द्वारा अधिकतम मुनाफे अर्जित करने के लिए वर्तमान पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के दायरे में इन समस्याओं का समाधान मुमकिन नहीं, सिर्फ तात्कालिक भ्रम पैदा ही पैदा कर सकते हैं|
यही एकमात्र विकल्प है| लेकिन यह खुद ब खुद होगा नहीं, करना पड़ेगा, नहीं तो इस व्यवस्था की सड़न अब समाज को बर्बरता के रास्ते पर ले जा रही है और प्रकृति को नष्ट कर पूरे जीवन को ही खतरे में डाल रही है|
https://www.facebook.com/MukeshK.Tyagi/posts/1785861101440363
 Mukesh Tyagi बॉम्बे प्लान के विस्तृत विवरण के लिए लिंक https://nzsac.files.wordpress.com/.../bombayplanfornzsac.pdf

Author's Introduction : 

Sunday 7 May 2017

नव वाम पंथियो को होश की दवा की जरूरत है.................... गिरीश मालवीय





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मार्क्सवाद का एक भारतीय संस्करण न खड़ा कर पाना मेरी नजर मे वाम पंथियो की सबसे बड़ी नाकामी है....................रूस मे लेनिन और चीन मे माओ, आदि नेताओ ने अपने विशिष्ट सिद्धान्त सामने रखे जो उस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत के अनुकूल थे लेकिन भारत में क्या हुआ........................दरअसल 1990 के दशक मे इस देश मे कुछ क्रन्तिकारी राजनितिक सामाजिक परिवर्तन आये, जिस से कदम ताल मिला पाने मे वामपंथ असफल रहा वह अब भी घिसे पिटे ढर्रे को लेकर चल रहा है जो अब बिलकुल प्रासंगिक नही रहा , आपको लग रहा है क़ि यह पीढ़ी पूंजीवाद, वर्गसंघर्ष,द्वंदात्मक भौतिकवाद को ठीक वैसा समझेगी जैसा वामपंथी सदियों से समझते आये है तो उन्हें नही नव वाम पंथियो को होश की दवा की जरूरत है....................
Girish Malviya
आज एक महत्वपूर्ण विषय उठा रहा हूँ क़ि भारत मे वाम दलों की राजनीति क्यो अप्रासंगिक हो गयी है ?
कुछ दिन पहले मार्क्स का जन्मदिन था भारत मे और विशेष कर फ़ेसबुक के कई मित्रो ने उन्हें याद किया लेकिन यहाँ प्रश्न मार्क्स की विचारधारा पर नही है प्रश्न मार्क्स के नामलेवा दल की कथनी और करनी पर है…..............
वैसे यह वाम दलों की जन प्रतिबध्दताओ की अच्छी मिसाल है क़ि जैसे ही आप जनता की समस्याओं को लेकर सत्ता की आलोचना करते है आप को सबसे पहले आपको कॉमरेड की उपाधि से विभूषित किया जाता है.................
लेकिन इसी के साथ यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि यदि वाम दल इतने ही लोकप्रिय रहे है तो भारत की राजनीति मे आज क्यों हाशिये पर धकेल दिए गए है यह एक बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रश्न है ..............
कही पर पढ़ा था क़ि , किसी बड़े वाम नेता ने भविष्य वाणी की थी जिस दिन काँन्ग्रेस सत्ता से बाहर हो जायेगी उसके दस वर्ष के अंदर ही देश मे वामदलो का अस्तित्व संकट मे आ जायेगा, आज देखते है तो यह बात सही प्रतीत होती है क्या देश के सभी कम्युनिस्ट नेताओ ने इस बारे मे कोई चिंतन मंथन करने की कोशिश की....................
बंगाल जैसे राज्य मे वाम दल लंबे समय के लिए सत्ता से बाहर हो गए क्योकि उन्होंने खुद पूंजीपतियों से गठजोड़ करने मे कोई कोर कसर नही छोड़ी टाटा का सिंगुर विवाद इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, ...........
क्या वाम दलों को उत्तर और मध्य भारत मे हुए छोटे स्तर के जन आंदोलनों मे क्या अपना कोई योगदान दिखाई पड़ता है,........
हमे यह भी देखना चाहिए क़ि जिन देशों मे भी साम्यवाद आया वहा पर मार्क्सवाद का देशी संस्करण तैयार किया गया रूस मे लेनिन और चीन मे माओ, आदि नेताओ ने अपने विशिष्ट सिद्धान्त सामने रखे जो उस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत के अनुकूल थे लेकिन भारत में क्या हुआ........................
भारत मे मार्क्सवादी इन देशों की पोलित ब्यूरो से निर्देश लेने मे लगे रहे जिससे भारतीय जनमानस मे यह विचार बना क़ि यह विदेशी शक्तियो की गुलामी करते है और यह विचार वाम दलों से इतना चिपक गया है कि वह इस दाग से पीछा छुड़ाना चाहे भी तो नही छुड़ा सकते
मार्क्सवाद का एक भारतीय संस्करण न खड़ा कर पाना मेरी नजर मे वाम पंथियो की सबसे बड़ी नाकामी है....................
ऐसे ही विचारो को लेकर मैंने एक अच्छे मित्र की वाल पर कॉमेंट किया कि इस देश मे कभी कम्युनिज्म आएगा इसकी कोई सम्भावना ही नही बची है, ............
दरअसल 1990 के दशक मे इस देश मे कुछ क्रन्तिकारी राजनितिक सामाजिक परिवर्तन आये, जिस से कदम ताल मिला पाने मे वामपंथ असफल रहा वह अब भी घिसे पिटे ढर्रे को लेकर चल रहा है जो अब बिलकुल प्रासंगिक नही रहा , आपको लग रहा है क़ि यह पीढ़ी पूंजीवाद, वर्गसंघर्ष,द्वंदात्मक भौतिकवाद को ठीक वैसा समझेगी जैसा वामपंथी सदियों से समझते आये है तो उन्हें नही नव वाम पंथियो को होश की दवा की जरूरत है....................



यह भारत की जनता का दुर्भाग्य ही है कि, जिस प्रकार मजहबी तीरथों  की यात्रा कर आए लोगों की पूजा होती है उसी प्रकार मास्को रिटर्नड कामरेड्स भी पूजे जाते हैं और उनकी विद्वता के साथ ही उनकी नीयत पर भी शक करने की गुंजाईश नहीं रहती है। वे चाहे साम्यवाद / वामपंथ को जनप्रिय बनाने के प्रयासों को 'कूड़ा फैलाने ' की संज्ञा दें अथवा एथीज़्म के फतवे से उनको खारिज कर दें उनके निर्णय को प्रश्नांकित नहीं किया जा सकता है और यही वजह है कि, साम्यवाद / वामपंथ प्रगति करने के बजाए विखंडित होता गया है। 
वामपंथ को जनप्रिय बनाने के प्रयासों को 'कूड़ा फैलाने ' की संज्ञा देने वाले मास्को रिटर्नड एक कामरेड के व्यक्तिगत इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि, जब रूस से लौटते समय उनके पुत्र डिग्री के साथ- साथ उनके लिए रूसी पुत्र - वधू लाने की सूचना प्रेषित करते हैं तब उनका आंतरिक जातिवाद उनको ग्लानिग्रस्त कर देता है। इतना ही नहीं दूसरे पुत्र के लिए जब वह सपत्नीक रिश्ता तय करने जाते हैं तब उनकी कामरेड पत्नी ( जो महिला विंग की नेता के रूप में दहेज विरोधी भाषण देकर वाहवाही बटोर चुकी थीं ) एक लाख रुपयों की मांग पेश करती हैं। वह लड़की जो उनको पसंद थी उनके भाषण वाला अखबार उनको दिखाते हुये विवाह से इंकार कर देती है। तब उनका पुत्र ही माता - पिता से बगावत करके उसी लड़की से दहेज रहित विवाह कर लेता है। रोजगार छिनने पर जब वह अपने इन मास्को रिटर्नड कामरेड श्वसुर साहब से जायदाद में अपने हक की मांग करती है तब ये लोग उसे पीट कर भगा देते हैं  थाने में इनकी पहुँच के चलते इनकी पुत्र वधू की FIR नहीं लिखी जाती है। इनके जैसे मास्को रिटर्नड कामरेड करोड़ों की संपत्तियाँ बटोरने में मशगूल हैं और पार्टी के नियंता भी बने हुये हैं तब कैसे  कम्यूनिज़्म कामयाब हो ?
वामपंथ /साम्यवाद का भारत में प्रस्तुतीकरण (WAY OF PRESENTATION) नितांत गलत है जिसे जनता ठुकरा देती है। यदि अपनी बात को भारतीय संदर्भों व भारतीय महापुरुषों के दृष्टांत देकर प्रस्तुत किया जाये तो निश्चय ही जनता की सहानुभूति व समर्थन मिलेगा। उदाहरणार्थ खुद को नास्तिक - एथीस्ट कहते हैं और जनता के कोपभाजन का शिकार होते हैं। मजहब धर्म नहीं है वह पंथ या संप्रदाय है जबकि, समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं।
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
पोंगापंथी वेद और पुराण को एक कहते हैं और वामपंथ भी जबकि, पुराण कुरान की तर्ज़ पर विदेशी शासकों द्वारा ब्राह्मणों से लिखवाये वे ग्रंथ हैं जिनमें भारतीय महापुरुषों का चरित्र हनन किया गया है। 'वेद ' कृणवन्तो विश्वमार्यम की बात करते हैं अर्थात सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने की बात इसमें देश- काल- लिंग-जाति-
वर्ण का कोई भेद नहीं है यह समानता का भाव है। लेकिन वामपंथ / साम्यवाद के द्वारा उस ढोंग का समर्थन किया जाता है कि, 'आर्य ' एक विदेशी जाति है जो बाहर से आई थी। जबकि, 'आर्य ' न कोई जाति है न ही धर्म बल्कि मानवता को श्रेष्ठ बनाने की समष्टिवादी ( समानता पर आधारित ) व्यवस्था है। जिस दिन वामपंथ / साम्यवाद लेनिन व स्टालिन की बात मान कर भारतीय संदर्भों का अवलंबन शुरू कर देगा उसी दिन से जनता इसे सिर - माथे पर ले लेगी। महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी 'साम्यवाद' को देश - काल - परिस्थितियों के अनुसार लागू करने की बात कही है लेकिन भारत के वामपंथी / साम्यवादी न मार्क्स की बात मानते हैं न ही लेनिन व स्टालिन की। केवल चलनी में दूध छानते रहेंगे और दोष अपनी कार्य प्रणाली को न देकर जनता को देते रहेंगे तब क्या जनता का समर्थन हासिल कर सकते हैं ?
(विजय राजबली माथुर )

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