Friday 31 May 2019

वाम को जनता व मजदूर वर्ग से उनकी भाषा में संपर्क करना होगा ------ आकृति भाटिया







वाम को जनता व मजदूर वर्ग से उनकी भाषा में संपर्क करना होगा  ------ आकृति भाटिया   : 





पहले से निश्चित था कि , भाजपा की मोदी सरकार 2019 के चुनावों में छल - छद्यम से पुनः सत्तारूढ़ होने की जुगत में है जिसमें उसे सफलता इसीलिए मिल गई क्योंकि वामपंथी दल और नेता अपनी पोंगा - पंथी सोच को बदलने व जनता से उसकी भाषा में संपर्क करने को उद्यत नहीं हुये। 2024 में भी यदि चुनाव हुये तो इसी की पुनरावृत्ति होगी यदि वामपंथ ने खुद को न बदला तो। 
 ' कृणवंतो विश्वमार्यम ' का वैदिक  उद्घोष   सम्पूर्ण विश्व को देश - काल  से परे  श्रेष्ठ बनाने को है  और साम्यवाद भी सम्पूर्ण विश्व के कल्याण की ही बात करता है। यदि साम्यवादी  / वामपंथी प्रचार भारतीय  संदर्भों के आधार पर होता तब आर एस एस  / भाजपा का छल कामयाब कैसे होता  ? 
( विजय राजबली माथुर )
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Monday 27 May 2019

हर जनादेश स्वागत के लायक नहीं होता ------ हेमंत कुमार झा

*लखनऊ की सड़कों पर पेंशन के लिये लड़ते सरकारी कर्मचारियों का समूह हो या पटना की सड़कों पर अपने हक और सम्मान के लिये लड़ते नियोजित शिक्षकों की जमात हो, आउटसोर्सिंग के अमानुषिक शोषण का शिकार होते कर्मी हों या कर्ज से दबे किसान हों, सरकारी वैकेंसी के इंतजार में उम्र गंवाते पढ़े-लिखे बेरोजगार हों या बेहद अल्प वेतन पर 12-15-16 घण्टे की ड्यूटी करते असमय बूढ़े और बीमार होते सिक्युरिटी गार्ड, सेल्स मैन और डिलीवरी ब्वायज हों...सबने "देश के लिये" वोट किया और उस "मजबूत नेता" को फिर से सत्ता सौंपने में अपनी भूमिका निभाई जिसके प्रायोजित महानायकत्व के सामने विपक्ष का हर नेता बौना था।
**  वे उन नवउदारवादी शक्तियों के राजनीतिक ध्वज वाहक हैं जिन्हें दुनिया के अनेक ज़िंदा देशों में अब वैचारिक चुनौतियों का सामना है लेकिन भारत में जिनके लिये मैदान खुला है। 
संस्कृतिवाद, धर्मवाद के साथ राष्ट्रवाद का सुविचारित, सुनियोजित घालमेल किस तरह जनविरोधी शक्तियों का हथियार बन सकता है, संवैधानिक संस्थाएं किस तरह किसी नेता के राजनीतिक हितों की खातिर दंडवत हो सकती हैं, ज़िन्दगी से जूझते लोग किस तरह सम्मोहन का शिकार हो खुद अपने ही बालबच्चों के लिये खंदक खोद सकते हैं, नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सफलताओं में इसे समझा जा सकता है।
Hemant Kumar Jha
विश्व इतिहास के कई अध्याय हमें सचेत करते हैं कि हर जनादेश स्वागत के लायक नहीं होता, भले ही लोकतांत्रिक विवशताओं और मर्यादाओं के तहत आप सिर झुका कर उसे स्वीकार करें।

ऐसे जनादेश के साथ अगर 'प्रचंड' विशेषण जुड़ जाए तो आशंकाएं और सघन होती हैं, चिंताएं और बढ़ती हैं क्योंकि सत्ताधारी दल ने जिस वैचारिक धरातल पर यह आम चुनाव लड़ा उसमें आम लोगों की ज़िंदगी से जुड़े सवालों का कोई वजूद नहीं था।

भले ही आप..."यह मोदी है...घर में घुस कर मारेगा"...जैसे डायलॉग्स बोल कर चुनावी सभाओं में उन्माद का संचार करने में सफल रहे हों, खुद के व्यक्तित्व को आक्रामक नायकत्व की आभा प्रदान करने में सफल रहे हों, लोगों का ध्यान उनकी मौलिक समस्याओं से हटाने में सफल रहे हों, लेकिन जब सरकार चलाने की बारी आएगी तो जमीनी चुनौतियों से सामना करना ही पड़ेगा।

फिर...नई सरकार इन वास्तविक चुनौतियों का सामना कैसे करेगी?

इस मायने में इनका पिछला कार्यकाल कोई सही दृष्टांत पेश नहीं करता जिसमें मौलिक समस्याओं से जूझ रही वंचित जमात के दिमाग में "देश...सेना...राष्ट्र...संस्कृति...आदि" शब्दों से जुड़े मनोवैज्ञानिक प्रभावों का जम कर उपयोग किया गया और इनकी आड़ में कारपोरेट के लिये खुल कर बैटिंग करते हुए जनविरोधी राजनीति के सफल प्रयोगों का नायाब उदाहरण पेश किया गया।

खैरातों के रूप में वंचितों को कुछ देने-दिलाने के सिवा इनके पिछले कार्यकाल की उपलब्धि यही है कि आबादी के बड़े हिस्से की क्रय शक्ति में अपेक्षाओं और आश्वासनों के बावजूद कोई इज़ाफ़ा नहीं हुआ, जिसकी परिणति में देश आज आर्थिक मंदी के मुहाने पर खड़ा है। देश-दुनिया के अखबारों के आर्थिक पेज इसके गवाह हैं जिन्हें उन मतदाताओं का बड़ा वर्ग बिल्कुल नहीं पढ़ता जिन्होंने "देश के लिये" इन्हें अपना वोट दिया है।

राजनीति का यह रूप बेहद खतरनाक है कि कोई सरकार अर्थव्यवस्था की गिरती हालत और अपनी विफलताओं को कृत्रिम मुद्दों से ढंकने की कोशिश करे और इसमें सफल भी हो जाए।

यकीनन, मोदी-शाह की जोड़ी की यह राजनीतिक सफलता "अद्भुत...अविश्वसनीय...अकल्पनीय" है, जिसे एक चर्चित भोंपू चैनल ने अपना हेडलाइन बनाया था। हमें मानना होगा कि उन्होंने विपक्ष की अकर्मण्यताओं और सामाजिक न्याय की राजनीति में उभरे अंतर्विरोधों का जितना राजनीतिक लाभ उठाया उससे भी अधिक सफलता लोगों के दिलो-दिमाग पर कब्जा करने में हासिल की।

दरअसल, पिछले चुनाव में जीत हासिल करने के साथ ही मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स के रणनीतिकारों ने अगले चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी। 2015 आते-आते दृश्य यह बना कि एकाध को छोड़ कर प्राइम टाइम में आप कोई भी चैनल खोलें, पाकिस्तान, कश्मीर, आतंकवाद आदि से जुड़ी खबरों से ही आपका सामना होता था। चीखते एंकर, उन्माद फैलाते हेडलाइन्स, पता नहीं किन सूत्रों के हवाले से एक से एक झूठी खबरें...।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ऐसा माहौल बनाया कि जैसे इस विशाल देश की अपार जनसंख्या के समक्ष समस्या अगर कोई है तो वह कश्मीर है, आतंकवाद है, पाकिस्तान है। खबरों के टोन को बेहद शातिराना अंदाज में इस तरह प्रस्तुत किया जाने लगा कि विदेशी आतंकियों को अपने देश के कुछ वर्गों की सहानुभूति और सहयोग प्राप्त है। कुछेक उदाहरणों को सामने ला कर किसी खास समुदाय को पूरी तरह संदेहों के घेरे में लाने का उपक्रम जितना मीडिया ने किया उतना तो नेताओं ने भी नहीं किया, विभाजनकारी मानसिकता के निर्माण में इन चैनलों ने जितनी बड़ी भूमिका निभाई उतनी तो नेता भी नहीं निभा सके।

महंगी होती शिक्षा, वंचितों के लिये दुर्लभ होती स्वास्थ्य सेवाएं, बढ़ती बेरोजगारी, हताश और मनोरोगी होते युवा, कुपोषित बच्चों-माताओं की बढ़ती संख्या आदि कोई समस्या ही नहीं रह गई।

बस...उन्माद। बढ़ता उन्माद...मारो...पकड़ो...ये पकड़ा...वो मारा। एक मसूद अजहर को इन चैनलों ने इतनी बार मारा कि अब गिनना भी सम्भव नहीं, उन चैनलों के लिये भी नहीं... कि मसूद अजहर को कितनी बार मारा जा चुका है।

135 करोड़ की जनसँख्या, दर्जनों राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों वाले इस देश में कश्मीर भी एक समस्या है, बड़ी समस्या है, आतंकवाद तो देश ही नहीं, दुनिया की बड़ी समस्या है। किंतु, समस्याएं और भी हैं, चुनौतियां और भी हैं।

भाजपा के थिंक टैंक ने सफलता पूर्वक यह सुनिश्चित किया कि देश की सामूहिक चेतना सिर्फ कश्मीर, पाकिस्तान आदि समस्याओं में उलझ कर रह जाए और जीवन से जुड़े जरूरी मामले गौण रह जाएं।

और फिर...पुलवामा की वह दुर्भाग्यपूर्ण घटना, जिसके बारे में देश को अभी तक पता नहीं कि वह कौन से 'सिक्युरिटी लैप्सेज' थे जो इसके लिये जिम्मेवार थे। पता नहीं, जांच की क्या स्थिति है।

उसके बाद...बालाकोट। इस एयर स्ट्राइक में कोई चैनल 350 आतंकियों को मार रहा था, कोई 300, कोई मसूद अजहर के भाई, भतीजों, बहनोइयों के मारे जाने की खबरें चला रहा था। सत्य से कोई वास्ता नहीं, सुनियोजित झूठ फैलाना ही एकमात्र लक्ष्य बन गया। यहां तक कि अमित शाह ने भी चुनावी रैलियों में 250 आतंकियों के मारे जाने की बातें की।

अधिकाधिक हाथों में पहुंच चुके सस्ते स्मार्टफोन और फ्री डाटा की भूमिका यहीं से निर्णायक होने लगती है। डेली हंट टाइप कोई भी न्यूज एप खोलिये... एक से एक भ्रामक, झूठी खबरें। स्रोतों की विश्वसनीयता से कोई मतलब नहीं।

"घुस कर मारा...मोदी है तो मुमकिन है...पाकिस्तान को उसकी औकात दिखा दी...फलां आतंकी कैम्प ध्वस्त कर दिया...आतंकियों की कमर तोड़ दी...इमरान खान गिड़गिड़ा रहा है...चीन डर कर पाकिस्तान से भाग रहा है...।"

'नमो अगेन' की सस्ती टीशर्ट पहने बेरोजगार, कुपोषित युवाओं की जमात स्मार्टफोन की स्क्रीन पर छद्म खबरों, भ्रामक वीडियोज आदि देख-देख कर उन्माद से भरती गई और नतीजे में ईवीएम पर नमो अगेन का बटन दबा कर आ गई।

जातियों की सीमाएं टूट गईं, वर्गों की दीवारें धराशायी हो गईं।

लखनऊ की सड़कों पर पेंशन के लिये लड़ते सरकारी कर्मचारियों का समूह हो या पटना की सड़कों पर अपने हक और सम्मान के लिये लड़ते नियोजित शिक्षकों की जमात हो, आउटसोर्सिंग के अमानुषिक शोषण का शिकार होते कर्मी हों या कर्ज से दबे किसान हों, सरकारी वैकेंसी के इंतजार में उम्र गंवाते पढ़े-लिखे बेरोजगार हों या बेहद अल्प वेतन पर 12-15-16 घण्टे की ड्यूटी करते असमय बूढ़े और बीमार होते सिक्युरिटी गार्ड, सेल्स मैन और डिलीवरी ब्वायज हों...सबने "देश के लिये" वोट किया और उस "मजबूत नेता" को फिर से सत्ता सौंपने में अपनी भूमिका निभाई जिसके प्रायोजित महानायकत्व के सामने विपक्ष का हर नेता बौना था।

अपने देश, अपनी मातृभूमि के प्रति करोड़ों वंचितों, शोषितों की भावनाओं का इस तरह सुनियोजित दोहन कर उन्हीं का खून चूसने वाली व्यवस्था के निर्माण की यह अनोखी गाथा है जिसके नायक नरेंद्र भाई मोदी हैं और स्क्रिप्ट राइटर अमित भाई शाह हैं

बाकी... वंचितों के शोषण में व्यवस्था के साथ सक्रिय भागीदारी निभाते और 'नेशन फर्स्ट' का राग अलापते इलीट क्लास के लोगों के लिये तो मोदी अपरिहार्य थे ही, क्योंकि मोदी भी उनके लिये ही हैं।

नरेंद्र मोदी को बधाई दीजिये क्योंकि वे इसके हकदार हैं, लेकिन यह उम्मीद अधिक मत पालिये कि इस दूसरे कार्यकाल में उनका हृदय परिवर्त्तन होगा और वे वंचितों की शिक्षा, चिकित्सा के लिये, उनके जीवन के मौलिक संदर्भों के लिये कुछ ठोस और सकारात्मक करेंगे। नहीं, वे ऐसा कर ही नहीं सकते क्योंकि इसके लिये वे हैं ही नहीं। वे उन नवउदारवादी शक्तियों के राजनीतिक ध्वज वाहक हैं जिन्हें दुनिया के अनेक ज़िंदा देशों में अब वैचारिक चुनौतियों का सामना है लेकिन भारत में जिनके लिये मैदान खुला है। 
संस्कृतिवाद, धर्मवाद के साथ राष्ट्रवाद का सुविचारित, सुनियोजित घालमेल किस तरह जनविरोधी शक्तियों का हथियार बन सकता है, संवैधानिक संस्थाएं किस तरह किसी नेता के राजनीतिक हितों की खातिर दंडवत हो सकती हैं, ज़िन्दगी से जूझते लोग किस तरह सम्मोहन का शिकार हो खुद अपने ही बालबच्चों के लिये खंदक खोद सकते हैं, नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सफलताओं में इसे समझा जा सकता है।
साभार : 
https://www.facebook.com/hemant.kumarjha2/posts/2163805170394051

Sunday 26 May 2019

साम्यवाद ' सर्व हारा ' छोड़ कर ' दिशा हारा ' हो गया ------ राजेश जोशी











Published on May 23, 2019

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा लेकिन बीजेपी ने उन्हें चित कर दिया. बीजेपी  यूपी में करीब 60 सीटें जीतती दिख रही है. आखिर यूपी में गठबंधन को करारी हार क्यों झेलनी पड़ी, इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी से बात कर रहे हैं बीबीसी संवाददाता मोहम्मद शाहिद.







इस साक्षात्कार में वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी  ने स्पष्ट स्वीकार  किया है कि सामंत वादी  / ब्राह्मण वादी  सोच के लोगों को मायावती का प्रधानमंत्री बनना मंजूर नहीं था इसलिए सपा - बसपा गठबंधन को हराने के लिए भाजपा को वोट किया गया। 
इसी सोच के लोग उत्तर प्रदेश भाकपा के  डिफ़ेक्टों नियंता हैं  जिनका साफ - साफ कहना है कि sc और obc कामरेड्स से काम तो लिया जाये लेकिन उनको कोई पद न दिया जाये और इसी वजह से प्रदेश में दो - दो बार भाकपा का विभाजन भी हो चुका है। एक भाग  1994 में सपा में विलय हो गया और दूसरा भाग  2014 में  भाजपा में  विलीन हो गया है। 



14 मई 2011 में  ही प्रस्तुत लेख के माध्यम से मैंने भारत में कम्यूनिज़्म को सफल बनाने हेतु  कुछ सुझाव दिये थे किन्तु  ब्राह्मण वाद से ग्रस्त नेतृत्व कैसे मेरे विचारों पर ध्यान देकर साम्यवाद के लिए संभावनाएं मजबूत कर सकता था ? : 

https://krantiswar.blogspot.com/2011/05/blog-post_14.html
वैदिक मत के अनुसार मानव कौन ?

त्याग-तपस्या से पवित्र -परिपुष्ट हुआ जिसका 'तन'है,
भद्र भावना-भरा स्नेह-संयुक्त शुद्ध जिसका 'मन'है.
होता व्यय नित-प्रति पर -हित में,जिसका शुची संचित 'धन'है,
वही श्रेष्ठ -सच्चा 'मानव'है,धन्य उसी का 'जीवन' है.


इसी को आधार मान कर महर्षि कार्ल मार्क्स द्वारा  साम्यवाद का वह सिद्धान्त प्रतिपादित  किया गया जिसमें मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करने का मन्त्र बताया गया है. वस्तुतः मैक्स मूलर सा : हमारे देश से जो संस्कृत की मूल -पांडुलिपियाँ ले गए थे और उनके जर्मन अनुवाद में जिनका जिक्र था महर्षि कार्ल मार्क्स ने उनके गहन अध्ययन से जो निष्कर्ष निकाले थे उन्हें 'दास कैपिटल' में लिपिबद्ध किया था और यही ग्रन्थ सम्पूर्ण विश्व में कम्यूनिज्म  का आधिकारिक स्त्रोत है.स्वंय मार्क्स महोदय ने इन सिद्धांतों को देश-काल-परिस्थिति के अनुसार लागू करने की बात कही है ;परन्तु दुर्भाग्य से हमारे देश में इन्हें लागू करते समय इस देश की परिस्थितियों को नजर-अंदाज कर दिया गया जिसका यह दुष्परिणाम है कि हमारे देश में कम्यूनिज्म को विदेशी अवधारणा मान कर उसके सम्बन्ध में दुष्प्रचार किया गया और धर्म-भीरु जनता के बीच इसे धर्म-विरोधी सिद्ध किया जाता है.जबकि धर्म के तथा-कथित ठेकेदार खुद ही अधार्मिक हैं परन्तु हमारे कम्यूनिस्ट साथी इस बात को कहते एवं बताते नहीं हैं.नतीजतन जनता गुमराह होती एवं भटकती रहती है तथा अधार्मिक एवं शोषक-उत्पीडक लोग कामयाब हो जाते हैं.आजादी के ६३ वर्ष एवं कम्यूनिस्ट आंदोलन की स्थापना के ८६ वर्ष बाद भी सही एवं वास्तविक स्थिति जनता के समक्ष न आ सकी है.मैंने अपने इस ब्लॉग 'क्रान्तिस्वर' के माध्यम से ढोंग,पाखण्ड एवं अधार्मिकता का पर्दाफ़ाश  करने का अभियान चला रखा है जिस पर आर.एस.एस.से सम्बंधित लोग तीखा प्रहार करते हैं परन्तु एक भी बामपंथी या कम्यूनिस्ट साथी ने उसका समर्थन करना अपना कर्तव्य नहीं समझा है.'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता'  परन्तु कवीन्द्र रवीन्द्र के 'एक्ला चलो रे ' के तहत मैं लगातार लोगों के समक्ष सच्चाई लाने का प्रयास कर रहा हूँ -'दंतेवाडा त्रासदी समाधान क्या है?','क्रांतिकारी राम','रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना','सीता का विद्रोह','सीता की कूटनीति का कमाल','सर्वे भवन्तु सुखिनः','पं.बंगाल के बंधुओं से एक बे पर की उड़ान','समाजवाद और वैदिक मत','पूजा क्या?क्यों?कैसे?','प्रलय की भविष्यवाणी झूठी है -यह दुनिया अनूठी है' ,समाजवाद और महर्षि कार्लमार्क्स,१८५७ की प्रथम क्रान्ति आदि अनेक लेख मैंने वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित अभिमत के अनुसार प्रस्तुत किये हैं जो संतों एवं अनुभवी विद्वानों के वचनों पर आधारित हैं.

मेरा विचार है कि अब समय आ गया है जब भारतीय कम्यूनिस्टों को भारतीय सन्दर्भों के साथ जनता के समक्ष आना चाहिए और बताना चाहिए कि धर्म वह नहीं है जिसमें जनता को उलझा कर उसका शोषण पुख्ता किया जाता है बल्कि वास्तविक धर्म वह है जो वैदिक मतानुसार जीवन-यापन के वही सिद्धांत बताता है जो कम्यूनिज्म का मूलाधार हैं.कविवर नन्द लाल जी यही कहते हैं :-

जिस नर में आत्मिक शक्ति है ,वह शीश झुकाना क्या जाने?
जिस दिल में ईश्वर भक्ति है वह पाप कमाना क्या जाने?
माँ -बाप की सेवा करते हैं ,उनके दुखों को हरते हैं.
वह मथुरा,काशी,हरिद्वार,वृन्दावन जाना क्या जाने?
दो काल करें संध्या व हवन,नित सत्संग में जो जाते हैं.
भगवान् का है विशवास जिन्हें दुःख में घबराना क्या जानें?
जो खेला है तलवारों से और अग्नि के अंगारों से .
रण- भूमि में पीछे जा के वह कदम हटाना क्या जानें?
हो कर्मवीर और धर्मवीर वेदों का पढने वाला हो .
वह निर्बल दुखिया बच्चों पर तलवार चलाना क्या जाने?
मन मंदिर में भगवान् बसा जो उसकी पूजा करता है.
मंदिर के देवता पर जाकर वह फूल चढ़ाना क्या जानें?
जिसका अच्छा आचार नहीं और धर्म से जिसको प्यार नहीं.
जिसका सच्चा व्यवहार नहीं 'नन्दलाल' का गाना क्या जानें?

संत कबीर आदि दयानंद सरस्वती,विवेकानंद आदि महा पुरुषों ने धर्म की विकृतियों तथा पाखंड का जो पर्दाफ़ाश किया है उनका सहारा लेकर भारतीय कम्यूनिस्टों को जनता के समक्ष जाना चाहिए तभी अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति और जनता का शोषण समाप्त किया जा सकता है.दरअसल भारतीय वांग्मय में ही कम्यूनिज्म सफल हो सकता है ,यूरोपीय वांग्मय में इसकी विफलता का कारण भी लागू करने की गलत पद्धतियाँ ही थीं.सम्पूर्ण वैदिक मत और हमारे अर्वाचीन पूर्वजों के इतिहास में कम्यूनिस्ट अवधारणा सहजता से देखी जा सकती है -हमें उसी का आश्रय लेना होगा तभी हम सफल हो सकते हैं -भविष्य तो उज्जवल है बस उसे सही ढंग से कहने की जरूरत भर है. 
(विजय राजबली माथुर )   
https://krantiswar.blogspot.com/2011/05/blog-post_14.html

Wednesday 22 May 2019

मेहनतक़शों का जुझारू प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके ही फ़ासिज़्म को पीछे धकेला जा सकता है ------ कविता कृष्णपल्लवी

* नतीजों में अंधेरगर्दी साफ़ नज़र आयेगी और तब, जनता बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतर सकती है ! इससे सामाजिक अराजकता फ़ैल जायेगी जो अभी भारत का शासक पूँजीपति वर्ग कत्तई नहीं चाहता है I
**हाल के दिनों में गोदरेज, बजाज, महिन्द्रा आदि कई बड़े पूँजीपतियों के रुख में अहम बदलाव देखने को मिले हैं ! कुल मिलाकर देखें, तो ये फासिस्ट खुदमुख्तार नहीं हैं । 
***किसी भी सूरत में भाजपा के हिन्दुत्ववादी फासिस्ट अगर फिर से सत्ता में आते हैं तो यह न सिर्फ़ देश के इतिहास में, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल के विश्व-इतिहास में एक खूँख्वार फासिस्ट सत्ता के सबसे आततायी दौर की शुरुआत होगी ! रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद की सारी संस्थाएँ नेस्तनाबूद कर दी जायेंगी और दमन का पाटा पूरे देश को रौंदता हुआ चलेगा I 





Kavita Krishnapallavi New Id
May 20 at 10:05 AM
तीन दिनों बाद आम चुनावों के जो भी नतीजे आयेंगे, उनके बाद एक नाटकीय घटना-क्रम की शुरुआत होगी I
अगर कोई बड़े पैमाने का घपला नहीं होगा तो भाजपा और एन.डी.ए. गठबंधन की करारी हार तय है ! पर ई.वी.एम. में अबतक पायी गयी गड़बड़ी की दर्ज़नों खबरों और 20 लाख ई.वी.एम. मशीनों के ग़ायब होने की खबर तथा चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के अबतक के प्रदर्शित रुख के बाद ई.वी.एम. घपला की प्रचुर संभावना है ! गोदी मीडिया के सभी चैनलों ने एग्जिट पोल्स में एन.डी.ए. गठबंधन की जो भारी जीत दिखाई है, वह एक बहुत बड़े कपट-प्रबंध का ही हिस्सा मालूम पड़ता है I
एक ही बात से फासिस्टों के सरगना घबराये हुए हैं ! अगर घपला कुछ कांटे की टक्कर वाली सीटों पर न होकर अधिकांश सीटों पर होगा तो नतीजों में अंधेरगर्दी साफ़ नज़र आयेगी और तब, जनता बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतर सकती है ! इससे सामाजिक अराजकता फ़ैल जायेगी जो अभी भारत का शासक पूँजीपति वर्ग कत्तई नहीं चाहता है I हाल के दिनों में गोदरेज, बजाज, महिन्द्रा आदि कई बड़े पूँजीपतियों के रुख में अहम बदलाव देखने को मिले हैं ! कुल मिलाकर देखें, तो ये फासिस्ट खुदमुख्तार नहीं हैं, बल्कि इनकी स्थिति जंज़ीर से बंधे कुत्ते जैसी है और उस जंज़ीर को पूँजीपति वर्ग थाम्हे हुए है I यह शासक वर्ग नव-उदारवाद की नीतियों पर बेधड़क अमल के लिए फासिस्टों को चाहता है, पर देश में ऐसी विस्फोटक अराजकता की स्थिति भी नहीं चाहता कि पूँजी-निवेश के लिए ही संकट पैदा हो जाए, या व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो जाए ! लेकिन इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि विशेष स्थितियों में जंज़ीर से बंधा कुत्ता जंज़ीर छुड़ाकर सड़कों पर खूनी उत्पात मचा दे I
बहरहाल, किसी भी सूरत में भाजपा के हिन्दुत्ववादी फासिस्ट अगर फिर से सत्ता में आते हैं तो यह न सिर्फ़ देश के इतिहास में, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल के विश्व-इतिहास में एक खूँख्वार फासिस्ट सत्ता के सबसे आततायी दौर की शुरुआत होगी ! रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद की सारी संस्थाएँ नेस्तनाबूद कर दी जायेंगी और दमन का पाटा पूरे देश को रौंदता हुआ चलेगा I यह समय होगा जब असली-नकली प्रगतिशीलता की पहचान दिन के उजाले की तरह साफ़ हो जायेगी ! सरे सूफियाना मिजाज़ वाले शांतिप्रेमी, बुर्जुआ लिबरल और सोशल डेमोक्रेट बिलों में घुस जायेंगे I चूँकि फासिस्टों के विरुद्ध व्यापक जुझारू सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने में पहले ही क्रांतिकारी शक्तियाँ अपनी कमजोरी, नासमझी और बेपरवाही के चलते काफ़ी देर कर चुकी हैं, अतः उन्हें भारी कुर्बानियाँ देकर और अकूत कीमत चुकाकर फासिस्टों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए जनता को संगठित करना होगा !
अगर हिन्दुत्ववादी गिरोह इसबार सत्ता में नहीं आ पाता है, तो याद रखिये, मोदी चाहे जहाँ भी रहे, इनका उन्मादी-खूनी उत्पात सड़कों पर जारी रहेगा, जैसा कि ये 1986-87 के बाद से लगातार करते रहे हैं ! अब वैसा उत्पात और ज़मीनी षडयंत्र वे और बड़े पैमाने पर करेंगे, क्योंकि 2014 से लेकर अबतक के बीच राज्य-मशीनरी का भरपूर लाभ उठाकर इन्होने अपने ज़मीनी नेटवर्क को बहुत व्यापक और मज़बूत बनाया है !
अगर कांग्रेस-नीत या कांग्रेस-समर्थित क्षेत्रीय पार्टियों और संसदीय वाम का कोई गठबंधन सत्ता में आयेगा भी तो वह नव-उदारवाद के फ्रेमवर्क में ही कुछ कीन्सियाई नुस्खों को लागू करेगा और तात्कालिक राहत और सुधार के कुछ कामों को अंजाम देकर यह दिखलाने की कोशिश करेगा कि वह अपने चुनावी वायदों को पूरा कर रहा है I पर भारत की और पूरी दुनिया की पूँजीवादी व्यवस्था जिस दीर्घ, ढांचागत आर्थिक संकट के दौर से गुज़र रही है (और भविष्य में जिसके और गहराने की संभावना है), उसे देखते हुए अब बुर्जुआ "कल्याणकारी राज्य" की ओर वापसी असंभव है I नवउदारवादी नीतियों का दौर जारी रहेगा और कुछ विराम और मंथर गति के बाद फिर और अधिक रफ़्तार से आगे बढ़ेगा I यह सही है कि कांग्रेस एक फासिस्ट पार्टी नहीं है, वह एक पुरानी, क्लासिक बुर्जुआ पार्टी है, लेकिन नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए सीमित बुर्जुआ जनवाद को भी ताक पर रखकर उसे भी बोनापार्टवादी किस्म की निरंकुश स्वेच्छाचारी और दमनकारी सत्ता चलाने से कोई परहेज़ नहीं होगा ! जो लोग फासिस्टों के विकल्प के रूप में कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों को देख रहे हैं, उनके हवाई किले भी चन्द वर्षों में ही ज़मींदोज़ हो जायेंगे और वे फिर रुदालियों के काले कपड़े पहनकर छाती पीटते नज़र आयेंगे !
फासिस्टों को चुनावों में हराकर पीछे नहीं धकेला जा सकता I हर किस्म का फासिज्म निम्न-बुर्जुआ वर्ग का धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है और समाज में, सड़कों पर, तृणमूल स्तर से मेहनतक़शों का जुझारू प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके ही उसे पीछे धकेला जा सकता है और पूँजीवाद के विरुद्ध आर-पार की लड़ाई लड़ते हुए ही उसे निर्णायक शिकस्त दी जा सकेगी !

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Kavita Krishnapallavi New Id
May 15 at 7:50 PM
यह अगर फासिस्ट हत्यारों का एक सरगना नहीं होता तो गाँव के भकचोन्हर गपोड़ियों-गंजेड़ियों और कूपमंडूकों जैसा मनोरंजक प्राणी होता I लेकिन मत भूलिए कि इस भांड के चेहरे के पीछे एक ख़तरनाक षड्यंत्रकर्ता और ठंडा हत्यारा छिपा बैठा है जो पूँजी की सत्ता का एक मोहरा है ! यह भी मत भूलिए कि लोकतांत्रिक लबादा पहने इस महामूर्ख, लम्पट और स्वेच्छाचारी तानाशाह की आर्थिक नीतियाँ वे "सम्मानित" थिंक टैंक बनाते हैं जो पूँजीपतियों के भाड़े के टट्टू हैं, और यह भी मत भूलिए कि यह हत्यारा मंच पर जो राजनीतिक नाटक करता है उसका पटकथा-लेखन और निर्देशन नागपुर के संघ- शकुनियों की शीर्ष मंडली करती है ! अतिपतनशील पूँजीवाद की राजनीतिक संस्कृति के इस विदूषक प्रतीक-पुरुष का और इक्कीसवीं सदी के फासिज्म के इस सबसे प्रतिनिधि-चरित्र की खूब खिल्ली उड़ाइए, लेकिन इसके खतरनाक इरादों और खूँख्वार मंसूबों के कभी भी कम करके मत आँकिये !
चुनाव हारने के बाद, हो सकता है कि फासिस्ट रणनीतिकारों का शीर्ष गिरोह गुजरात के इस कसाई और तड़ीपार की जोड़ी की जगह कोई और चेहरा आगे करें, पर वे अपनी खूनी, विभाजनकारी, साज़िशाना कार्रवाइयाँ जारी रखेंगे I राजनीतिक पटल पर फासीवाद अपनी पूरी ताक़त के साथ मौजूद रहेगा क्योंकि नवउदारवादी नीतियों और असाध्य ढाँचाग़त आर्थिक संकट के अनुत्क्रमणीय दौर में पूँजीपति वर्ग ज़ंजीर से बंधे कुत्ते की तरह फासिस्ट विकल्प को हमेशा अपने पास बनाए रखेगा ! फासिज्म को चुनावों में हराकर शिकस्त नहीं दिया जा सकता I उसे सड़कों की जुझारू लड़ाई में पीछे धकेलना होगा और फिर अंतिम तौर पर ठिकाने लगाना होगा ! जो लोग फासिज्म-विरोधी संघर्ष को पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष के अविभाज्य अंग के रूप में नहीं देखते और सारे संघर्ष को बुर्जुआ लोकतंत्र और संविधान बचाने की रट लगाते हुए, तथा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों के साथ किसिम-किसिम के चुनावी मोर्चा बनाने में "चाणक्य" की भूमिका निभाते हुए बुर्जुआ जनवाद के दायरे तक ही सीमित कर देते हैं वे सभी या तो कायर और पराजितमना, या निहायत शातिर क़िस्म के बुर्जुआ लिबरल और सोशल डेमोक्रेट्स हैं जो इस व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा-पंक्ति का काम करते हैं I ये लोग जन-समुदाय की क्रांतिकारी चौकसी को कमज़ोर करते हैं, फासिज्म-विरोधी दीर्घकालिक संघर्ष की चुनौतीपूर्ण तैयारियों के प्रति उसे लापरवाह और अनमना बनाते हैं, तथा, उसकी क्रांतिकारी संकल्प-शक्ति को ढीला करते हैं ! ये संसदमार्गी छद्म-वामपंथी जड़वामन अपनी पुछल्लापंथी नीतियों की कीमत बंगाल में चुका रहे हैं I देश के स्तर पर तो मेहनतक़शों ने इन्हें एक विकल्प के रूप में देखना दशकों पहले बंद कर दिया था ! अब इनसे यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि ये हिटलर-मुसोलिनी-तोजो के वंशजों से उसीतरह आर-पार की लड़ाई लड़ सकते हैं जैसे बीसवीं सदी के सर्वहारा योद्धाओं और कम्युनिस्टों ने लड़ी थी ! हाँ, ये हँसिया-हथौड़े वाला झंडा फिर भी उड़ाते रहेंगे और अपने घरों और ऑफिसों की दीवारों पर मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन के चित्र लटकाते रहेंगे क्योंकि वही तो इनकी वह पहचान है जिसके बूते इनकी झोली में मज़दूरों के भी कुछ वोट पड़ जाते हैं और यूनियनों की इनकी दूकानदारी भी चलती रहती है Iअन्यथा इनका मार्क्सवाद, इनकी प्रतिबद्धता, इनकी कुर्बानियों का जज़्बा और लड़ने की संकल्प-शक्ति तो ज़माने पहले तेल लेने चली गयी थी !
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1136448993201512&id=100005092666366 

Saturday 11 May 2019

ऐसा ' वामपंथी ' आंदोलन बरबाद न होता तो क्या होता ? ------ मुकेश असीम





नागपूर का भी समर्थन पूर्व राष्ट्रपति को पी एम पद के लिए मिल सकता है इस आधार पर उनका नाम भी विचाराधीन है कह कर CPM महासचिव ने अपनी पुरानी नीति का ही पुष्टीकरण किया है। पूर्व में केरल व बंगाल में CPM से BJP एवं BJP से CPM में कार्यकर्ताओं का आवागमन हो चुका है। 
यदि 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में  डॉ मनमोहन सिंह  पी एम पद पर अड़े रहने की ज़िद्द न करके  राष्ट्रपति बन गए होते तब  तभी  प्रणब  मुखर्जी  पी एम बन जाते  जिनको रिलायंस का समर्थन प्राप्त था। इसी ज़िद्द का परिणाम था  कि  हज़ारे , रामदेव , RSSने 2014 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को उखाड़  फेंका और मोदी सत्तासीन हो सके। जैसाकि , 11 मई 2019 को शाजापुर , मध्य प्रदेश में NDTV के रवीश कुमार को साक्षात्कार देते हुये राहुल गांधी ने स्वीकार किया कि 1991 से चल रही नीतियाँ जो 2004 और 2009 के चुनावों में भी सफल रही थीं 2012  में ही विफल सिद्ध हो चुकी थीं। (संदर्भ: https://www.youtube.com/watch?v=B_bC7rN5Pm4  )
2014 के चुनावों में  आने वाली मोदी सरकार ने  उन विफल नीतियों को ही जारी रखा जिस कारण  आलोकप्रिय  होते देर न लगी। 
चुनाव परिणामों  के बाद ममता बनर्जी , मायावती , यशवंत सिन्हा सरीखे अनुभवी प्रशासक पी एम न बन सकें इसीलिए  रिलायंस  का समर्थन प्राप्त  पूर्व राष्ट्रपति का नाम उछाला गया है जिनको RSS का भी समर्थन संभावित बताया जा रहा है। 
CPI , Cpm आदि वामपंथी पार्टियां जब जनता की नब्ज न पकड़ कर पूँजीपतियों के हितैषियों का समर्थन करने लग जाएँ   'वामपंथी ' आंदोलन  को तो बरबाद होना ही है। 
(------ विजय राजबली माथुर ) 

Tuesday 7 May 2019

बाजारवाद के दौर में बाजार ही संकट में है उसे उबारेगी ' न्यूनतम आय ' योजना ------ हेमंत कुमार झा

Hemant Kumar Jha
March 28

सवाल यह है कि 'न्यूनतम आय' जैसी योजनाओं के मौलिक उद्देश्य क्या हैं? क्या इनके केंद्र में मनुष्य हैं? या कि बाजार?
भारत के विशेष संदर्भ में यह सवाल और जरूरी हो जाता है।

बाजार के लिये जरूरी है कि उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ती रहे, उनकी क्रय शक्ति बढ़ती रहे। लेकिन, बाजार की प्रवृत्तियों में जो अमानुषिक तत्व हैं वे पूंजी को असीमित शक्ति प्रदान करते हैं कि वह श्रम का अधिकाधिक दोहन और शोषण करे। यहीं पर सरकारों की भूमिका शुरू होती है कि वह उचित कानून और सक्षम नियामक तंत्र बना कर बाजार की मनमानियों पर रोक लगाए और श्रमिक अधिकारों की रक्षा करे।

जिस देश और समाज में श्रमिक आबादी की संख्या अधिक है वहां यह शोषण चरम पर पहुंचता है और श्रम का मूल्य इतना भी नहीं दिया जाता कि कोई दिहाड़ी पर मजदूरी करके अपने परिवार की मौलिक जरूरतों को पूरी कर सके। भारत में ऐसे श्रमिकों की ही बड़ी संख्या है। फिर, काम-रोजगार की उपलब्धता का संकट भी है।

भारत के उभरते बाजार के सामने संकट यह है कि उसकी उत्पादन क्षमता लगातार बढ़ रही है, बाजार उपभोक्ता सामग्रियों से अटे पड़े हैं लेकिन उस अनुपात में खरीदारों का अभाव है। अंतिम पंक्ति की बड़ी आबादी तो बाजार से बाकायदा बाहर ही है।

बीते दो-ढाई दशकों में सत्ता-संरचना में कारपोरेट के बढ़ते प्रभाव ने आर्थिक नीतियों को उनके हितों के अनुरूप बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। नतीजा में उनकी समृद्धि में बीते वर्षों में बेहिंसाब इज़ाफ़ा हुआ है, जबकि आधी से अधिक आबादी विकास के लाभों से वंचित होती गई है। अभी पिछले वर्ष की ही ऑक्सफेम की रिपोर्ट ने बताया कि बीते वर्ष में देश की कुल आमदनी का 73 प्रतिशत ऊपर के मात्र एक प्रतिशत धनी लोगों की जेब में गया। जाहिर है, निर्धन आबादी की आमदनी ही जब अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं बढ़ी तो उनकी क्रयशक्ति में इज़ाफ़ा होने का सवाल ही नहीं।

बाजार में घबराहट है। तमाम ऑफर्स की बौछारों के बावजूद बाजार में गति नहीं आ रही। कस्बाई और ग्रामीण बाजारों की हालत तो बेहद खराब है। तीन चौथाई आबादी को विकास की मुख्यधारा से बाहर कर देने वाली कारपोरेट परस्त आर्थिक नीतियों के दुष्परिणाम इस रूप में सामने आ रहे हैं कि बाजारवाद के दौर में बाजार ही संकट में है।

रोजगारों का सृजन, श्रमिकों के हितों की सुरक्षा और उन्हें बेहतर मजदूरी दिलाने आदि के मामले में सरकारें विफल रही हैं। बीते वर्षों में भारत की विकास दर बेहतर रही है लेकिन विशेषज्ञ इसे 'जॉबलेस ग्रोथ' की संज्ञा से नवाज़ रहे हैं। यानी, देश की अर्थव्यवस्था का तो विस्तार होता गया लेकिन उस अनुपात में न रोजगार मिले न निर्धनता कम हुई। ग्रामीण और कस्बाई बाजारों में चमक आए तो कैसे...?

अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग न्यूनतम आय की गारंटी का पक्षधर होकर सामने आया है। राहुल गांधी के सौजन्य से भारत के राजनीतिक विमर्श में भी यह मुद्दा शामिल हुआ है।अच्छी बात है। निर्धनों के एकाउंट में कुछ पैसे आएंगे और बाजार को भी कुछ राहत मिलेगी।

लेकिन, कितनों के खाते में पैसे डाले जा सकेंगे? भारत में अभी भी अपरंपार गरीबी है। रोजगारों के सृजन में विफलता ने हालात विस्फोटक बना दिये हैं और विकास की कारपोरेट केंद्रित अवधारणाओं ने निर्धनों का अधिक भला नहीं किया है। सरकारी शिक्षा और चिकित्सा की बदहाली ने उनकी जिंदगियों को और अधिक कठिन बना रही है।

लेकिन, सरकारी स्कूलों, अस्पतालों और सार्वजनिक परिवहन की बेहतरी के मुद्दे विमर्श के दायरों से ही बाहर कर दिए गए हैं।

यानी, सरकारें इतना करने के लिये तैयार हो सकती हैं कि निर्धनों के खाते में नकदी जमा करवा दें ताकि न्यूनतम पोषण उन्हें मिलता रहे, वे कुछ पैसे बाजार में भी खर्च कर सकें ताकि बाजार को भी थोड़ा सहारा मिलता रहे। न्यूनतम पोषण मिलेगा तो निर्धनों के बच्चे मरियल नहीं, कुछ बेहतर स्वास्थ्य के साथ बड़े होंगे ताकि स्वस्थ और सक्षम श्रमिकों की आपूर्त्ति होती रहे।

लेकिन... सरकारी अस्पतालों के बड़े पैमाने पर निर्माण, उनके बेहतर संचालत पर ध्यान देने के बदले निर्धनों को सरकारी हेल्थ बीमा का लॉलीपॉप थमाया जाएगा। कुछ गम्भीर बीमारियों में हेल्थ बीमा निर्धनों के लिये सहारा हो सकता है, लेकिन आवश्यक संसाधनों से युक्त सरकारी अस्पतालों का कोई विकल्प नहीं हो सकता।

अगर मनुष्य के बारे में सोचा जाए, निर्धनों के बारे में सोचा जाए तो सार्वजनिक शिक्षा, चिकित्सा और परिवहन के तंत्र को बेहतर करने पर व्यवस्था का दिमाग और संसाधन खर्च होगा, नीतियां ऐसी बनेंगी कि अंतिम पंक्ति के लोगों को उनके आर्थिक-सामाजिक अधिकार मिलेंगे। 
रोजगारों के निरन्तर सृजन और वाजिब मजदूरी का विकल्प कुछ और नहीं हो सकता। कम्पनियों को न्यूनतम पारिश्रमिक कानून के दायरे में लाना होगा, श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करनी होगी।

वरना, क्या ऐसा नहीं लगता कि न्यूनतम आय की गारंटी आदि की बातें मनुष्य के लिये कम, बाजार की चिंता से अधिक प्रेरित हैं?
वैसे, अगर जमीन पर उतर सकी तो भारत में इस योजना का स्वागत है...क्योंकि अंतिम पंक्ति के निर्धनों की आर्थिक बदहाली सामाजिक अराजकताओं को ही आमंत्रित करती है।
लेकिन तब भी...सवाल अपनी जगह कायम रहेंगे क्योंकि शिक्षा का, इलाज का, रोजगार के अधिकार का कोई विकल्प नहीं हो सकता और....वास्तविक कल्याण भी इन्हीं अधिकारों की प्राप्ति में निहित है।


साभार : 

https://www.facebook.com/hemant.kumarjha2/posts/2073636309410938

Sunday 5 May 2019

जनता से अपनी अदूरदर्शिता के कारण दूर हैं साम्यवादी दल ------ विजय राजबली माथुर


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उक्त बैठक में लखनऊ और वाराणासी की गठबंधन की ओर से महिला प्रत्याशियों को सांप्रदायिक भी बताया गया था जबकि हकीकत यह है कि दोनों स्थानों पर कांग्रेस प्रत्याशी ही सांप्रदायिक पृष्ठभूमी के हैं उनको समर्थन उनके ब्राह्मण होने के कारण दिया गया है जबकि दिल्ली में कामरेड बिरजू नायक द्वारा CPI, CPM और CPIML से संपर्क किए जाने के बावजूद उनके गैर - ब्राह्मण होने के कारण उनको समर्थन नहीं दिया गया है। 
यही वजह है कि ब्राह्मणवाद  से ग्रस्त होने के कारण साम्यवादी दल जनता से अलग - थलग हैं। 
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