Thursday 26 March 2015

पार्टी के लिए लेनिन और भाषा के प्रश्‍न की कोई अहमियत नहीँ थी --- Ramendra Jenwar


भारतीय वामदल और भाषा का प्रश्‍न:
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हिँदी को जब कुत्‍तोँ और सुवरोँ की -----------------------------------------भाषा कहने पर छात्रोँ ने काल्‍विन ------------------------------------------कालेज के प्रिँसिपल को जूतोँ से मारा..
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इसी मुद्‍दे पर वामदल से हुआ किनारा
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आज भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के 22वेँ अधिवेशन की पोस्‍ट देखी तो एक बार फिर भारतीय वामदलोँ के सँदर्भ मेँ भाषा का सवाल जेहन मेँ आ गया...
1985 मेँ मैँ लखनऊ विश्‍वविद्यालय छात्रसँघ का महामँत्री चुना गया । उस समय मैँ भाकपा की छात्र शाखा आल इँडिया स्‍टूडेँट्स फेडरेशन का प्रदेश अध्‍यक्ष भी था और चुनाव से ठीक पहले तत्‍कालीन सोवियत सँघ की राजधानी मास्‍को मेँ आयोजित अँतर्राष्‍ट्रीय युवा महोत्‍सव मेँ भाग लेकर लौटा था.....
भाषा को लेकर सोवियत सँघ मेँ मुझे जो देखने को मिला उससे मैँ बहुत प्रभावित था ( यहाँ लेनिन और भाषा के सवाल को लेकर कोई सैद्धातिक बात कर पोस्‍ट को बोझिल नहीँ बनाना चाहता ) 
सोवियत सँघ मेँ सिर्फ रूसी भाषा का इस्‍तेमाल किया जाता था अगर हमारे साथियोँ ने कभी रूसी मित्रोँ से अँग्रेजी बोलने की कोशिश भी की तो टोक दिया जाता था कि हिँदी आपके देश की भाषा और रूसी हमारे देश की तो या हिँदी बोलिए या रूसी..ये अँग्रेजी बीच मेँ कहाँ से आ गई....बहुत अच्‍छा लगता था..मैँ एक साल रशियन पढकर गया था इसलिए थोडी थोडी बोल समझ भी लेता था 
बहरहाल वापस आते हैँ घटना पर..छात्रसँघ महामँत्री रहने के दौरान एक ऎसी घटना हो गई कि भाषा का बवाल सीधे सीधे सर पर आ पडा...
वि.वि. के कुछ छात्र किसी एडमीशन के सिलसिले मेँ बात करने वि.वि. के सामने काल्‍विन तालुक्‍केदार्स कालेज गए थे । रिटायर्ड मेजर जनरल ई. हबीबुल्‍ला उस समय काल्‍विन के प्रिँसिपल हुआ करते थे उनकी बेगम हामिदा हबीबुल्‍ला इँदिरा जी की करीबी रही थीँ....
वि.वि. के छात्रोँ ने हिँदी मैं बात शुरू की प्रिँसिपल साहब ने तुरँत टोका और अँग्रेजी मेँ बात करने को बोला..बात कुछ बढ गई..छात्रोँ ने कहा आप ही हिँदी मेँ बात क्‍योँ नहीँ कर लेते...गुस्‍से मेँ प्रिँसिपल के मुँह से अँग्रेजी मेँ ही निकल गया कि हिँदी कुत्‍तोँ और सुवरोँ की भाषा है....बस फिर क्‍या था प्रिँसिपल रूम युद्ध के मैदान मेँ बदल गया..वि.वि. के छात्रोँ ने जूते निकाल कर प्रिँसिपल महोदय पर जमकर चटकाए और वहाँ से निकल लिए...बडी घटना...बडे रसूख वाले प्रिँसिपल...तुरँत रिपोर्ट दर्ज हुई उन छात्रोँ की खोज शुरू हो गई....बात तुरँत ही छात्रसँघ भवन पहुची....मुझे लगा कि अब इन हिँदी के दीवानोँ को बचाने के लिए राजनीति के रँग की जरूरत है...आनन फानन मेँ छात्रसँघ भवन मेँ प्रेस काँफ्रेस बुलाई गई और मैने पूरी घटना की जानकारी प्रेस को देते हुए घोषणा कर दी का ये हिँदी पर हमले का त्‍वरित जवाब था और हिँदी पर इस तरह का कोई हमला बर्दाश्‍त नहीँ किया जाएगा....
हम लोगोँ ने प्राथमिकी तत्‍काल निरस्‍त ना करने की दशा मेँ अँग्रेजी स्‍कूलोँ पर ताला लगाने की घोषणा कर दी..अब दोनोँ तरफ से तलवारेँ खिँच चुकी थीँ ।
ऎसे मौके पर सबसे बडा साथ जल्‍दी ही दिल्‍ली से निकलना शुरू हुए राष्‍ट्रीय दैनिक " जनसत्‍ता " ने दिया जिसने अगले ही दिन फ्रँट पेज पर चार कालम मेँ बाक्‍स मेँ खबर छापी " हिँदी को कुत्‍तोँ और सुवरोँ की भाषा कहने पर प्रिँसिपल को जूतोँ से मारा " पूरे देश की हिँदी पट्‍टी मेँ खबर पहुँच गई..व्‍यापक समर्थन मिलना शुरू हुआ...अगले दिन हम लोग पाँच अलग अलग गाडियोँ मेँ निकल कर छापामार शैली मेँ अँग्रेजी स्‍कूलोँ मेँ पहुँच कर तालाबँदी कर वहाँ से निकलने लगे...दूसरे दिन ही आँदोलन को प्रदेशव्‍यापी बनाने का आवाहन किया गया....
अगले दिन तक प्रशासन भी गेयर मेँ आ चुका था...प्रशासन की मध्‍यस्‍थता मेँ बात हुई....प्रिँसिपल बेचारे वैसे ही हक्‍का बक्‍का थे उन्‍होने अपनी एफ.आई.आर. वापस लेकर क्षमायाचना की और हमने आँदोलन स्‍थगित करने की घोषणा की..उसे वापस नहीँ लिया क्‍योँकि हम पूरी तरह मुतमइन होना चाहते थे कि छात्रोँ के खिलाफ बाद मेँ कोई कार्यवाही ना हो जाए....
बहरहाल अगले दिन जब सीपीआई के 22 कैसरबाग स्‍थित कार्यालय गये तो पता चला कि मुँशी गुरु प्रसाद जी की तरफ से जिलोँ मेँ एक परिपत्र भेजा गया है कि यह हिँदी समर्थक आँदोलन छात्रसँघ का आँदोलन है पार्टी का इससे कोई लेना देना नहीँ है पार्टी से सँबद्ध सँगठन इससे दूर रहेँ...मुझे बहुत शर्मिँदगी हुई कि अगर यह परिपत्र वि.वि. के छात्रोँ सँज्ञान मेँ आ गया तो क्‍या सोचेँगे....पार्टी को आँध्र ,केरल , त्रिपुरा आदि राज्‍योँ के मतदाताओँ की चिँता थी यहाँ उनके लिए लेनिन और भाषा के प्रश्‍न की कोई अहमियत नहीँ थी..ना ही सोवियत सँघ के रूसी भाषा के प्रेम की.....
वहीँ से पार्टी से दूरी बढना शुरू हुई जो पार्टी से अलग ही ले गई....

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फेसबुक पर प्राप्त कमेन्ट :
 

Wednesday 25 March 2015

वामपंथी ख़ुद विकल्प बनने को तैयार नहीं तो कोई क्या कर सकता है ? --- ध्रुव गुप्त

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क्या बांये से कोई रास्ता निकलता है ? :

देश की मौज़ूदा फिरकापरस्त, पूंजीवादी और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था में भी सी.पी.आई, सी.पी.एम, माले सहित सभी वामपंथी पार्टियां अगर विमर्श के बाहर हैं तो यह चिंता का सबब है। न लोग उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं और न वे ख़ुद अपने को लेकर गंभीर है। अपने देश की परिस्थितियों के अनुरूप ख़ुद को ढालने के बजाय लेनिन, माओ, स्टालिन और चे ग्वेवारा में अपना रास्ता तलाशने वाले, अपनी ज़मीन और जड़ों से कटे उनके मौज़ूदा किताबी, आत्ममुग्ध और अहंकारी नेतृत्व ने देश में न सिर्फ वामपंथ को टुकड़ों में बांटा है, बल्कि उसकी लुटिया भी लगभग डुबा दी है। पिछले कई दशकों से वे देश की दिशाहीन राजनीति को न तो कोई विकल्प दे सके, न परिवर्तनकामी युवाओं-किसानों-मज़दूरों को कोई दिशा। एक क़ायदे का विपक्ष भी नहीं खड़ा कर सके ये लोग। कभी इन्होंने वंशवादी और भ्रष्ट कांग्रेस की पूंछ पकड़ी तो कभी अवसरवादी लालू, मुलायम, नीतीश, करूणानिधि जैसे नेताओं का पिछलग्गू बनकर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश की। यह राजनीतिक अवसरवाद उनके लिए आत्मघाती साबित हुआ। मगर अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है। वामपंथ अभी हाशिए पर ज़रूर है, मगर अप्रासंगिक नहीं। वामपंथ से असहमत लोग भी मानते हैं कि देश के वर्त्तमान अधोगामी, भ्रष्ट, फ़िरक़ापरस्त राजनीतिक परिदृश्य में नीतियों के प्रति निष्ठां और आम तौर पर व्यक्तिगत ईमानदारी अगर कही बची है तो इन्ही वामपंथी दलों में बची है। अपने छोटे-मोटे मतभेद और असहमतियां भुलाकर अगर सभी वामपंथी दल अपने हवा-हवाई नेताओं के बजाय ज़मीन से जुड़े संघर्षशील लोगों को नेतृत्व सौपकर एक साझा देशी मैनिफेस्टो के तहत चुनाव लड़ सकें तो अभी भी वे देश को एक सार्थक विकल्प या कम से कम एक मज़बूत विपक्ष दे सकने की स्थिति में हैं।

लेकिन अगर वामपंथी ख़ुद विकल्प बनने को तैयार नहीं तो कोई क्या कर सकता है ?


साभार :
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=833885430021390&set=a.379477305462207.89966.100001998223696&type=1&theater 

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आज भाकपा महासचिव कामरेड सुधाकर रेड्डी साहब का जन्मदिन है और आज से ही पुद्दीचेरी में 22वां राष्ट्रीय अधिवेन्शन प्रारम्भ हुआ है हम दोनों मंगल कार्यक्रमों की सफलता की शुभकामनायें करते हैं । 

और अपेक्षा करते हैं कि हमारे हमारे हमदर्दों द्वारा व्यक्त विचारों की गंभीर समीक्षा करके सकारात्मक प्रगति  की ओर बढ़ा जाएगा। किन्तु उत्तर प्रदेश भाकपा के कर्ण धारों को फिल्मी नायकों की चिंता के बजाए जन-चिंतकों की चिंता को दूर करने के प्रयास करने होंगे तभी सफलता हमारे चरण चूम सकेगी।


IAS अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के अवेद्ध निलंबन के विरुद्ध तो लखनऊ में भाकपा ने विरोध-प्रदर्शन किया था जिसमें प्रादेशिक नेताओं की उल्लेखनीय उपस्थिती थी किन्तु उनमें एक प्रादेशिक नेता जो बैंक कर्मचारियों के भी नेता हैं खुद ही अपने ज़िला स्तरीय कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न करने में मशगूल रहते हैं जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जनता की कितनी असली फिक्र हो सकती है? सिर्फ सैद्धान्तिक नहीं ठोस रूप में जनता व कार्यकर्ताओं का समर्थन करके ही पार्टी को विकल्प के रूप में आगे बढ़ाया जा सकता है। बढ़ाया जाना ही चाहिए जो देश और देश की जनता की सामयिक मांग भी है। 
----- विजय राजबली माथुर  
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फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणी :

Friday 20 March 2015

मजदूर के पास विकल्प नहीं है, लेकिन रचनाकार -कलाकार के पास विकल्प होते हैं --- जगदीश्वर चतुर्वेदी

 https://www.facebook.com/jagadishwar9/posts/1030196967009010
Jagadishwar Chaturvedi :
 भारतीय समाज रेफ्रीजरेटर समुदाय होता जा रहा है। 
 Sudhendu Gupta and 17 others like this.
 डाॅ. राजरानी शर्मा : 
बासी परोसनेवाला !!! 5  Like · 1
 Arvind Raj Swarup Cpi : 
वामपंथियों पर आपकी टिप्प्णी का भावार्थ क्या है।बड़ा जनरल स्टेटमेंट है।ज़रा प्रकाश डाले।  Like · 2 
 Pawan Pandit : 
सर जरा स्पष्टीकरण देंगे तो सुविधा होगी तथ्य को समझने में •••••  Like · 1 
Sushil Chaturvedy : 
Dimagh ka bhee yahee haal hai!  Like · 1
 Jagadishwar Chaturvedi: 
 अरविंदजी, क्रांतिकारी लेखक को अपने संचार के गैर-बुर्जुआ उपकरण निर्मित करने होंगे, हमारे अनेक वामलेखकों ने बुर्जुआ माध्यमों में जाकर वस्तुतःबुर्जुआजी की सेवा की, इससे क्रांतिकारी आंदोलन को लाभ कम हुआ। मैं यहां नाम लिखना नहीं चाहता । लेखन में साध्य और साधन के बीच में साम्य जरुरी है। Like · 2 
Arvind Raj Swarup Cpi : 
 जगदीश जी धन्यवाद।आम जनता के विभिन्न वर्गों को पूंजीवादी समाज में ही तो काम करना पड़ता है।उनकी अपनी सीमा होती है। फैक्ट्री का मज़दूर पूंजीपति के कारखाने में काम करता है तो क्या हम कहे गए उस कम्युनिस्ट मज़दूर को कि वह गलत काम करता है। उसी तरह मध्यम वर्ग से निकला बुद्धिजीवी है। उसके पास भी संपत्ति नहीं है। संपत्ति के वर्गीय रिशतो में वह भी मज़दूर है। जीवन चलाने के लिये नौकरी या काम करना पड़ेगा और अपनी अपनी परिस्थितयो के अनुकूल समाज को पूँजीवाद से मुक्ति दिलाने के लिए काम करना पड़ेगा। कौन कितना करता है कर पाता है ये उस व्यक्ति की क्षमताओ पर निर्भर करता है। ज़रूरी नहीं सब वामपंथी लेखक पार्टी के होल टाइमर हो। मेरे सरीखे जो लेखक नहीं हैं और पार्टी के होल टाइमर हैं उनका जीवन अलग है। गैर बुर्जुआ उपकरण समाजवाद ही पैदा करेगा  
 Jagadishwar Chaturvedi : 
मजदूर के पास विकल्प नहीं है, लेकिन रचनाकार -कलाकार के पास विकल्प होते हैं । विकल्प की कम्युनिकेशन प्रणाली चुनने में कोई असुविधा नहीं है, मसलन् कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो किसी बड़े प्रकाशक ने नहीं छापा था ।  Like · 1 
Asha Upadhyaya : 
क्या बात कही है आपने।एक नितान्त नवीन प्रयोग

Thursday 19 March 2015

क्या सचमुच मार्क्स सही थे ? --- जितेंद्र रघुवंशी



उपरोक्त में एक तो कामरेड जितेंद्र रघुवंशी जी लिखित उनका लेख है जिससे उनके क्रांतिकारी विचारों का परिचय होता है दूसरा 'ताज महोत्सव' के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त उनके नाट्य- कला के प्रति वेदनात्मक अभिव्यक्ति।
भाकपा,आगरा की कार्यकारिणी में मुझे जितेंद्र जी के साथ कार्य करने का अवसर मिला है IPTA के उनके कार्यक्रमों को देखने भी अधिकांशतः जाते ही थे। उनके साथ व्यक्तिगत रूप से भी विचारों का आदान-प्रदान होता रहता था।

 आगरा से मेरे लखनऊ आने के बाद भी वास्तविकता जानने हेतु मुझ पर ही उन्होने भरोसा किया जबकि बड़े-बड़े दिग्गजों से उनके यहाँ पर संपर्क पहले से ही मौजूद थे। पी एच डी होल्डर एक ब्राह्मण कामरेड ने 60-70 sms भेज कर राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान साहब के बारे में अनर्गल-भ्रामक अफवाह उड़ा दी थी जो कि उनके आश्रयदाता वरिष्ठ ब्राह्मण कामरेड द्वारा एक इंगलिश मेगज़ीन में छ्पवाई गई थी :
  • January 11, 2014
  • Jitendra Raghuvanshi
    1/11, 10:53pm
    Jitendra Raghuvanshi

    Anjan ji kee kya nayee khabar hai?
  • January 12, 2014
  • Vijai RajBali Mathur
    1/12, 3:41pm
    Vijai RajBali Mathur

    भाई साहब, लाल सलाम , मैं आपके प्रश्न का आशय समझ नहीं पाया था इसलिए आपके मोबाईल व घर पर फोन किया था। आप शायद कार्यक्रम में होंगे। 10-12-2014 का उनका यह बयान जो उन्होने खुद शेयर किया है आपको संलग्न कर रहा हूँ। वैसे आपको कोई नई बात ज्ञात हो तो सूचित करने का कष्ट करें।

उनका फेसबुक पर लिखा  यह संदेश ही उनका अंतिम संदेश बन गया है। उनकी बातों व यादों को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। :
(विजय राजबली माथुर )
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Friday 13 March 2015

भारत में राजनैतिक अस्थिरता के लिए ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मूवमेंट खड़ा हुआ


--------------------------"आआप" की हकीक़त--------------------------------
अरविंद लंबे अरसे तक राजस्व विभाग से छुटटी लेकर भी सरकारी तनख्वाह ले रहे थे और एनजीओ से भी वेतन उठा रहे थे, जो ‘श्रीमान ईमानदार’ को कानूनन भ्रष्‍टाचारी की श्रेणी में रखता है। वर्ष 2006 में ‘परिवर्तन’ में काम करने के दौरान ही उन्हें अमेरिकी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ ने ‘उभरते नेतृत्व’ के लिए ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार दिया, जबकि उस वक्त तक अरविंद ने ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिसे उभरते हुए नेतृत्व का प्रतीक माना जा सके। इसके बाद अरविंद अपने पुराने सहयोगी मनीष सिसोदिया के एनजीओ ‘कबीर’ से जुड़ गए, जिसका गठन इन दोनों ने मिलकर वर्ष 2005 में किया था।
अरविंद को समझने से पहले ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को समझ लीजिए!
अमेरिकी नीतियों को पूरी दुनिया में लागू कराने के लिए अमेरिकी खुफिया ब्यूरो ‘सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए)’ अमेरिका की मशहूर कार निर्माता कंपनी ‘फोर्ड’ द्वारा संचालित ‘फोर्ड फाउंडेशन’ एवं कई अन्य फंडिंग एजेंसी के साथ मिलकर काम करती रही है। 1953 में फिलिपिंस की पूरी राजनीति व चुनाव को सीआईए ने अपने कब्जे में ले लिया था। भारतीय अरविंद केजरीवाल की ही तरह सीआईए ने उस वक्त फिलिपिंस में ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को खड़ा किया था और उन्हें फिलिपिंस का राष्ट्रपति बनवा दिया था। अरविंद केजरीवाल की ही तरह ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ का भी पूर्व का कोई राजनैतिक इतिहास नहीं था। ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के जरिए फिलिपिंस की राजनीति को पूरी तरह से अपने कब्जे में करने के लिए अमेरिका ने उस जमाने में प्रचार के जरिए उनका राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘छवि निर्माण’ से लेकर उन्हें ‘नॉसियोनालिस्टा पार्टी’ का उम्मीदवार बनाने और चुनाव जिताने के लिए करीब 5 मिलियन डॉलर खर्च किया था। तत्कालीन सीआईए प्रमुख एलन डॉउल्स की निगरानी में इस पूरी योजना को उस समय के सीआईए अधिकारी ‘एडवर्ड लैंडस्ले’ ने अंजाम दिया था। इसकी पुष्टि 1972 में एडवर्ड लैंडस्ले द्वारा दिए गए एक साक्षात्कार में हुई।
ठीक अरविंद केजरीवाल की ही तरह रेमॉन मेग्सेसाय की ईमानदार छवि को गढ़ा गया और ‘डर्टी ट्रिक्स’ के जरिए विरोधी नेता और फिलिपिंस के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘क्वायरिनो’ की छवि धूमिल की गई। यह प्रचारित किया गया कि क्वायरिनो भाषण देने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ड्रग का उपयोग करते हैं। रेमॉन मेग्सेसाय की ‘गढ़ी गई ईमानदार छवि’ और क्वायरिनो की ‘कुप्रचारित पतित छवि’ ने रेमॉन मेग्सेसाय को दो तिहाई बहुमत से जीत दिला दी और अमेरिका अपने मकसद में कामयाब रहा था। भारत में इस समय अरविंद केजरीवाल बनाम अन्य राजनीतिज्ञों की बीच अंतर दर्शाने के लिए छवि गढ़ने का जो प्रचारित खेल चल रहा है वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा अपनाए गए तरीके और प्रचार से बहुत कुछ मेल खाता है।
उन्हीं ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के नाम पर एशिया में अमेरिकी नीतियों के पक्ष में माहौल बनाने वालों, वॉलेंटियर तैयार करने वालों, अपने देश की नीतियों को अमेरिकी हित में प्रभावित करने वालों, भ्रष्‍टाचार के नाम पर देश की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने वालों को ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ मिलकर अप्रैल 1957 से ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ अवार्ड प्रदान कर रही है। ‘आम आदमी पार्टी’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल और उनके साथी व ‘आम आदमी पार्टी’ के विधायक मनीष सिसोदिया को भी वही ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार मिला है और सीआईए के लिए फंडिंग करने वाली उसी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड से उनका एनजीओ ‘कबीर’ और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मूवमेंट खड़ा हुआ है।
भारत में राजनैतिक अस्थिरता के लिए एनजीओ और मीडिया में विदेशी फंडिंग!
‘फोर्ड फाउंडेशन’ के एक अधिकारी स्टीवन सॉलनिक के मुताबिक ‘‘कबीर को फोर्ड फाउंडेशन की ओर से वर्ष 2005 में 1 लाख 72 हजार डॉलर एवं वर्ष 2008 में 1 लाख 97 हजार अमेरिकी डॉलर का फंड दिया गया।’’ यही नहीं, ‘कबीर’ को ‘डच दूतावास’ से भी मोटी रकम फंड के रूप में मिली। अमेरिका के साथ मिलकर नीदरलैंड भी अपने दूतावासों के जरिए दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में अमेरिकी-यूरोपीय हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए वहां की गैर सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ को जबरदस्त फंडिंग करती है।
अंग्रेजी अखबार ‘पॉयनियर’ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक डच यानी नीदरलैंड दूतावास अपनी ही एक एनजीओ ‘हिवोस’ के जरिए नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार को अस्थिर करने में लगे विभिन्‍न भारतीय एनजीओ को अप्रैल 2008 से 2012 के बीच लगभग 13 लाख यूरो, मतलब करीब सवा नौ करोड़ रुपए की फंडिंग कर चुकी है। इसमें एक अरविंद केजरीवाल का एनजीओ भी शामिल है। ‘हिवोस’ को फोर्ड फाउंडेशन भी फंडिंग करती है।
डच एनजीओ ‘हिवोस’ दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में केवल उन्हीं एनजीओ को फंडिंग करती है,जो अपने देश व वहां के राज्यों में अमेरिका व यूरोप के हित में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की क्षमता को साबित करते हैं। इसके लिए मीडिया हाउस को भी जबरदस्त फंडिंग की जाती है। एशियाई देशों की मीडिया को फंडिंग करने के लिए अमेरिका व यूरोपीय देशों ने ‘पनोस’ नामक संस्था का गठन कर रखा है। दक्षिण एशिया में इस समय ‘पनोस’ के करीब आधा दर्जन कार्यालय काम कर रहे हैं। ‘पनोस’ में भी फोर्ड फाउंडेशन का पैसा आता है। माना जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल के मीडिया उभार के पीछे इसी ‘पनोस’ के जरिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ की फंडिंग काम कर रही है। ‘सीएनएन-आईबीएन’ व ‘आईबीएन-7’ चैनल के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई ‘पॉपुलेशन काउंसिल’ नामक संस्था के सदस्य हैं, जिसकी फंडिंग अमेरिका की वही ‘रॉकफेलर ब्रदर्स’ करती है जो ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार के लिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के साथ मिलकर फंडिंग करती है।
माना जा रहा है कि ‘पनोस’ और ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ की फंडिंग का ही यह कमाल है कि राजदीप सरदेसाई का अंग्रेजी चैनल ‘सीएनएन-आईबीएन’ व हिंदी चैनल ‘आईबीएन-7’ न केवल अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ने’ में सबसे आगे रहे हैं, बल्कि 21 दिसंबर 2013 को ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ का पुरस्कार भी उसे प्रदान किया है। ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ के पुरस्कार की प्रयोजक कंपनी ‘जीएमआर’ भ्रष्‍टाचार में में घिरी है।
‘जीएमआर’ के स्वामित्व वाली ‘डायल’ कंपनी ने देश की राजधानी दिल्ली में इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा विकसित करने के लिए यूपीए सरकार से महज 100 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन हासिल किया है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ‘सीएजी’ ने 17 अगस्त 2012 को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जीएमआर को सस्ते दर पर दी गई जमीन के कारण सरकारी खजाने को 1 लाख 63 हजार करोड़ रुपए का चूना लगा है। इतना ही नहीं, रिश्वत देकर अवैध तरीके से ठेका हासिल करने के कारण ही मालदीव सरकार ने अपने देश में निर्मित हो रहे माले हवाई अड्डा का ठेका जीएमआर से छीन लिया था। सिंगापुर की अदालत ने जीएमआर कंपनी को भ्रष्‍टाचार में शामिल होने का दोषी करार दिया था। तात्पर्य यह है कि अमेरिकी-यूरोपीय फंड, भारतीय मीडिया और यहां यूपीए सरकार के साथ घोटाले में साझीदार कारपोरेट कंपनियों ने मिलकर अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ा’ है, जिसका मकसद आगे पढ़ने पर आपको पता चलेगा।
‘जनलोकपाल आंदोलन’ से ‘आम आदमी पार्टी’ तक का शातिर सफर!
आरोप है कि विदेशी पुरस्कार और फंडिंग हासिल करने के बाद अमेरिकी हित में अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया ने इस देश को अस्थिर करने के लिए ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का नारा देते हुए वर्ष 2011 में ‘जनलोकपाल आंदोलन’ की रूप रेखा खिंची।
इसके लिए सबसे पहले बाबा रामदेव का उपयोग किया गया, लेकिन रामदेव इन सभी की मंशाओं को थोड़ा-थोड़ा समझ गए थे। स्वामी रामदेव के मना करने पर उनके मंच का उपयोग करते हुए महाराष्ट्र के सीधे-साधे, लेकिन भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध कई मुहीम में सफलता हासिल करने वाले अन्ना हजारे को अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली से उत्तर भारत में ‘लॉंच’ कर दिया। अन्ना हजारे को अरिवंद केजरीवाल की मंशा समझने में काफी वक्त लगा, लेकिन तब तक जनलोकपाल आंदोलन के बहाने अरविंद ‘कांग्रेस पार्टी व विदेशी फंडेड मीडिया’ के जरिए देश में प्रमुख चेहरा बन चुके थे। जनलोकपाल आंदोलन के दौरान जो मीडिया अन्ना-अन्ना की गाथा गा रही थी, ‘आम आदमी पार्टी’ के गठन के बाद वही मीडिया अन्ना को असफल साबित करने और अरविंद केजरीवाल के महिमा मंडन में जुट गई।
विदेशी फंडिंग तो अंदरूनी जानकारी है, लेकिन उस दौर से लेकर आज तक अरविंद केजरीवाल को प्रमोट करने वाली हर मीडिया संस्थान और पत्रकारों के चेहरे को गौर से देखिए। इनमें से अधिकांश वो हैं, जो कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के द्वारा अंजाम दिए गए 1 लाख 76 हजार करोड़ के 2जी स्पेक्ट्रम, 1 लाख 86 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक आवंटन, 70 हजार करोड़ के कॉमनवेल्थ गेम्स और ‘कैश फॉर वोट’ घोटाले में समान रूप से भागीदार हैं।
आगे बढ़ते हैं…! अन्ना जब अरविंद और मनीष सिसोदिया के पीछे की विदेशी फंडिंग और उनकी छुपी हुई मंशा से परिचित हुए तो वह अलग हो गए, लेकिन इसी अन्ना के कंधे पर पैर रखकर अरविंद अपनी ‘आम आदमी पार्टी’ खड़ा करने में सफल रहे। जनलोकपाल आंदोलन के पीछे ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड को लेकर जब सवाल उठने लगा तो अरविंद-मनीष के आग्रह व न्यूयॉर्क स्थित अपने मुख्यालय के आदेश पर फोर्ड फाउंडेशन ने अपनी वेबसाइट से ‘कबीर’ व उसकी फंडिंग का पूरा ब्यौरा ही हटा दिया। लेकिन उससे पहले अन्ना आंदोलन के दौरान 31 अगस्त 2011 में ही फोर्ड के प्रतिनिधि स्टीवेन सॉलनिक ने ‘बिजनस स्टैंडर’ अखबार में एक साक्षात्कार दिया था, जिसमें यह कबूल किया था कि फोर्ड फाउंडेशन ने ‘कबीर’ को दो बार में 3 लाख 69 हजार डॉलर की फंडिंग की है। स्टीवेन सॉलनिक के इस साक्षात्कार के कारण यह मामला पूरी तरह से दबने से बच गया और अरविंद का चेहरा कम संख्या में ही सही, लेकिन लोगों के सामने आ गया।
सूचना के मुताबिक अमेरिका की एक अन्य संस्था ‘आवाज’ की ओर से भी अरविंद केजरीवाल को जनलोकपाल आंदोलन के लिए फंड उपलब्ध कराया गया था और इसी ‘आवाज’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ को फंड उपलब्ध कराया। सीरिया, इजिप्ट, लीबिया आदि देश में सरकार को अस्थिर करने के लिए अमेरिका की इसी ‘आवाज’ संस्था ने वहां के एनजीओ, ट्रस्ट व बुद्धिजीवियों को जमकर फंडिंग की थी। इससे इस विवाद को बल मिलता है कि अमेरिका के हित में हर देश की पॉलिसी को प्रभावित करने के लिए अमेरिकी संस्था जिस ‘फंडिंग का खेल’ खेल खेलती आई हैं, भारत में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और ‘आम आदमी पार्टी’ उसी की देन हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील एम.एल.शर्मा ने अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया के एनजीओ व उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ में चुनावी चंदे के रूप में आए विदेशी फंडिंग की पूरी जांच के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल कर रखी है। अदालत ने इसकी जांच का निर्देश दे रखा है, लेकिन केंद्रीय गृहमंत्रालय इसकी जांच कराने के प्रति उदासीनता बरत रही है, जो केंद्र सरकार को संदेह के दायरे में खड़ा करता है। वकील एम.एल.शर्मा कहते हैं कि ‘फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-2010’ के मुताबिक विदेशी धन पाने के लिए भारत सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। यही नहीं, उस राशि को खर्च करने के लिए निर्धारित मानकों का पालन करना भी जरूरी है। कोई भी विदेशी देश चुनावी चंदे या फंड के जरिए भारत की संप्रभुता व राजनैतिक गतिविधियों को प्रभावित नहीं कर सके, इसलिए यह कानूनी प्रावधान किया गया था, लेकिन अरविंद केजरीवाल व उनकी टीम ने इसका पूरी तरह से उल्लंघन किया है।
बाबा रामदेव के खिलाफ एक ही दिन में 80 से अधिक मुकदमे दर्ज करने वाली कांग्रेस सरकार की उदासीनता दर्शाती है कि अरविंद केजरीवाल को वह अपने राजनैतिक फायदे के लिए प्रोत्साहित कर रही है।

साभार :

https://www.facebook.com/dhruva.n.gupta/posts/10153868256385752
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प्रस्तुत लेख आ आ पा और कांग्रेस में मिलीभगत को इंगित करता है। 2011 से ही अपने ब्लाग http://krantiswar.blogspot.in/ के माध्यम से स्पष्ट करता रहा हूँ कि हज़ारे/केजरीवाल/रामदेव  के कारपोरेट भ्रष्टाचार संरक्षण आंदोलन को कांग्रेस के मनमोहन सिंह गुट/RSS का समान समर्थन रहा है। जब मनमोहन जी को तीसरी बार पी एम बनाने का आश्वासन नहीं मिला तो मोदी को पी एम बनवा दिया गया है और मोदी के विकल्प के रूप में केजरीवाल को तैयार किया जा रहा है। RSS के कांग्रेस मुक्त भारत की परिकल्पना को अमेरिका प्रवास के दौरान जस्टिस काटजू साहब बखूबी संवार रहे हैं महात्मा गांधी,नेताजी सुभाष और जिन्नाह साहब के विरुद्ध विष-वमन करके।
मनमोहन जी के विकल्प के रूप में मोदी व मोदी के विकल्प के रूप में केजरीवाल की ताजपोशी की रूप रेखा व्हाईट हाउस में बराक ओबामा के निर्देश पर तैयार की गई थी और निर्वाचन प्राणाली की खामियों तथा ई वी एम के करिश्मे के जरिये उस पर जनता की मोहर लगवा ली गई है। परंतु साम्यवादियों/वामपंथियों का केजरीवाल की परिक्रमा करना आत्मघाती तो है ही बल्कि देश के लिए भी अहितकर है।
---विजय राजबली माथुर 
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Thursday 12 March 2015

कॉमरेड धर्म अफीम है और दंगे का आधार धर्म है तो आप घोषित नास्तिक कैसे उसे रोक लेंगे!----- अनिल यादव


20 hrs ·(11 मार्च 2015)
एक कॉमरेड की डायरी-
By अनिल यादव
मुझे लगता है पार्टी क्लास और जार्गनबाजी से कम्युनिस्टों के मतभेदों को नहीं समझा जा सकता, इसके बजाय उनके खानपान, बॉडी लैंग्वेज, उपन्यास-कहानियों से ज्यादा मदद मिलती है. पार्टी क्लास में बंगाल से केंद्रीय कमेटी के एक नेता आए थे जो अजीब भाषा में बोल रहे थे. अधिरचना, प्रतिक्रियावादी, प्रोलेतेरियत, सिन्थेसिस, पेटी बोर्जुआ, त्रात्सकाइट, लुम्पनाइजेशन वगैरह अनजानी मिट्टी के बड़े बड़े ढेले किसानों पर फेंके जा रहे थे. ये प्राइमरी स्कूल में भी मास्टर से पिटने के डर से ऐसे ही झूठ मूठ मुंडी हिलाते रहे होंगे. हमारे सूबे के एक नेता हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे अकेले हैं जिन्होंने पंखे में चुटिया बांध कर कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल पढ़ी है, उन्हीं को आर्थिक प्रश्नों पर अमूर्त प्रवचन के लिए हर बार खड़ा कर दिया जाता है. वे ज्ञान के गुमान से तने रहते हैं लेकिन सच तो यह है कि पढ़े लिखे मूर्ख हैं. किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद सरस्वती की किताब के पहले पन्ने पर लिखा है हमको ऐसा समाजवाद चाहिए जो खैनी की पिचपिच और रजाई की चीलर से पैदा हुआ हो, राहुल सांकृत्यायन तो छत्तीस भाषाएं जानते थे लेकिन उन्होंने “भागो नहीं दुनिया को बदलो” भोजपुरी में लिखी, सव्यसाची की कितबिया को भी जोड़ लें तो यही तीन अपने पल्ले पड़ी बाकी पार्टी क्लास कचहरी की मिसिल है जिसको बूझने के लिए पहले बैरिस्टरी फिर फारसी की पढ़ाई करनी पड़ेगी. हद तो यह है कि बिना समझे कॉमरेड लोग बहस भी करने से लगे हैं और उन्हीं पहेली जैसे शब्दों से डराकर चुप भी करा देते हैं.
कम्युनिस्ट समाज की व्यावहारिक सचाइयों को मार्क्सवादी फर्में में कसकर देखने के बजाय उन सचाइयों के फर्में में सिद्धांत को परखते तो बाजी पलट सकते थे. एक अच्छी बात है कि कम्युनिस्ट वंशवादी नहीं हो सकते क्योंकि कम्यूनिज्म कभी पारिवारिक मूल्य नहीं बन पाया. कम्युनिस्ट नेताओं के बच्चे या तो नौकरी करते हैं या उन पार्टियों की ओर लपकते हैं जिनके नेताओं से तुलना करते हुए वे बचपन से अपने बाप को कोस रहे होते हैं.
नकली कम्युनिस्ट नेताओं की पहचान है कि उनके ओसारे के एक कोने में कुल्हड़ और शीशे के गिलास रखे रहते हैं ताकि घर आने वाले दलित और मुसलमान कार्यकर्ताओं को चाय पिलाई जा सके. अक्सर निचली जाति का कोई कॉमरेड जिला कमेटी की बैठक में छुआछूत बनाम मेहनतकश कतारों से नेतृत्व की दूरी का सवाल उठाता है तो नेता किचकिचाते हैं कि डी-क्लास वे हुए उनका परिवार नहीं, क्या आप लोग मुझे घर से ही निकलवा देना चाहते हैं? ज्यादातर ऐसे नेता इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी में आए थे कि उनके परिवारों को खेती के लिए समय पर सस्ते मजदूर मिल सकें, उन्हीं के बच्चे फादरलैंड के स्वर्णकाल में डाक्टरी, इंजीनियरी पढ़ने सोवियत रूस गए. मंहगी मुसहर मजाक करता है- अगर लेनिन जी के कहनाम से कामरेड आंख की पुतली होता है तो हम लोगों को अलग बरतन में काहे चाय पिलाते हैं.
अजीब नारा है-यूपी भी बंगाल बनेगा बलिया ही शुरुआत करेगा. यूपी अपनी कद काठी और पहचान के साथ क्यों नहीं वामपंथियों के साथ खड़ा हो सकता है.
ट्रेड यूनियन का नेता अंततः लेबर कोर्ट का वकील होकर समाप्त हो जाता है. सिर्फ वेतन, भत्ते, और काम की परिस्थितियां सुधारने की लड़ाई लड़ने के कारण मजदूर तभी तक यूनियन के साथ रहते हैं जब तक आर्थिक मसलों पर लड़ाई चलती है. बाकी समाज से अलगाव रेलवे, बैंक, बीमा से छोटे कारखानों तक की यूनियनों में महसूस किया जा सकता है. इन मजदूरों का भी कोई वर्ग नहीं है क्योंकि वे जाति से ही गांव और यहां जाने जाते हैं. इस प्रश्न से कम्युनिस्टों को टकराना ही होगा, वे कैसी भी बुल्गागिन कट दाढ़ी रख लें लेकिन जाति उनका पीछा नहीं छोड़ेगी. ऐसा तभी संभव है जब अनगढ़, देसी, मौलिक सोच वाले नेताओं को उभरने का मौका दिया जाएगा.
भारतीय राजनीति के इतिहास का सबसे बड़ा मोतियाबिन्द है कि कम्युनिस्टों को जाति नहीं दिखाई देती और उनके कार्यकर्ता पिछड़े मुलायम सिंह और दलित कांशीराम के साथ जा रहे हैं. क्या यह अपवाद था कि केरल में एके गोपालन जैसे नेता ने गुरूवयूर मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलाने के लिए पुजारियों के घंटे से मार खाई थी. उन्हीं के नाम पर बने गोपालन भवन में पार्टी का हेडक्वार्टर है. पोलित व्यूरो में गोपालन जैसे कम लोग पहुंच पाए ज्यादातर कैम्ब्रिज, आक्सफोर्ड, एडिनबर्ग और देश के इलीट कालेजों से पढ़कर आए नेताओं ने मार्क्सवाद के द्वारा उपलब्ध कराए वर्ग के फर्मे में कसकर जाति को देखने की कोशिश की. वाकई यह मास्को में बारिश-भारत में छाता जैसी गलती थी जिसका नतीजा रहा कि भूमिहीन खेत मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी दिलाने का नारा कांशीराम के सम्मान और सत्ता में भागीदारी के नारे के आगे नहीं चल पाया. मंडल कमीशन लागू हुआ, सर्वण लड़के आत्मदाह करने लगे, कम्युनिस्टों ने गजब किया. नेताओं ने कहा-“आरक्षण पौधों में वाष्पोत्सर्जन जैसी आवश्यक बुराई है.” यहां बौखलाए छात्र और युवा पूछ रहे हैं मंडल के साथ हो या खिलाफ हो लेकिन कॉमरेड लोग वनस्पतिशास्त्र पढ़ाकर अपना मजाक बना रहे हैं. अलग बात है चुनाव में जाति के आधार पर टिकट पाया कामरेड भी इतनी सफाई से बात करता है कि वर्ग संघर्ष को आगे बढाता नजर आता है. किताब पढकर राजनीति करने वाले नेताओं को जाति से मुंह इसलिए चुराना पड़ता है क्योंकि मार्क्स से लेकर माओ तक ने जाति पर कुछ नहीं कहा है.
तिरूवनन्तपुरम में बड़ी पार्टी कांग्रेस होने वाली है. अगर किसान सभा की दस हजार मेम्बरशिप नहीं हुई तो पार्टी के जिला सचिव डेलीगेट नहीं बन पाएंगे. आज चाय की गुमटी पर एक डोली रूकी तो उन्होंने पास के गांव के कहारों से मेम्बर बन जाने के लिए कहा. कहारों ने कहा उनके टोले में किसी के भी पास एक धूर जमीन नहीं है वे किसान सभा के मेंबर कैसे बन सकते हैं. नेताजी ने कहा अभी किसान सभा में हो जाओ बाद में खेत मजदूर सभा में भी कर देंगे. उन्होंने कहा, नेताजी हमारे रसीद लेने से आपकी इज्जत बढ़ती है तो बना दीजिए लेकिन हम लोग फीस नहीं दे पाएंगे. नेताजी ने कहारों से दुलहिन का नाम पूछ कर उसकी भी रसीद काट दी जिसे कभी पता नहीं चल पाएगा कि उस पर कितनी भारी जिम्मेदारी आ पड़ी है. सम्मेलनों में जब जनसंगठनों की बढ़ती सदस्यता का जिक्र आता है तो मुझे उन कहारों और दुलहिन की याद आती है.
आज समझ में आया कि दलित औरतें पार्टी के बारे में क्या सोचती हैं. एक महिला ने पार्टी के एक नेता पर बलात्कार का आरोप लगाया था जिसके लिए पंचायत बुलाई गई थी और मुझे जिला कमेटी ने आब्जर्वर बना कर भेजा था. नेताजी एक साल से अक्सर उसके घर पर रूकते थे, उसके दो बच्चों को पढ़ा दिया करते थे. महिला ने कॉमरेडों के बीच बेधड़क कहा, सवर्ण जमींदार हमारे साथ कुछ करते हैं तो बदले में ज्यादा मजदूरी, साबुन, साड़ी या नकद रूपया देते हैं. इनसे पूछो कि मुझे क्या दिया जो साल भर से हैंडपंप चला रहे हैं. मुझसे कुछ कहते नहीं बना. क्या पार्टी का उससे संबंध कुछ लेने देने का ही है. वह ऐसा सोचती है तो कुछ गलत नहीं है क्योंकि बोर्जुआ पार्टियां उन्हें लालच देककर मुफ्त की बस से रैली, धरने में ले जाती हैं. पहले चुनाव के समय से ही इस गांव में वोट के लिए पैसा और शराब चलते हैं. उसे हम बता ही कहां पाए हैं कि वह पार्टी में किसी दूसरे का काम नहीं करती बल्कि अपने हक के लिए लड़ रही है.
जब सोवियत संघ का अमेरिका से शीतयुद्ध चला करता था तब कम्युनिस्टों का प्रिय कर्तव्य दिल्ली में रैली कर विश्वशांति की कामना और साम्राज्यवाद का विरोध हुआ करता था. राममंदिर मुद्दे से भाजपा के उभार के बाद से वे सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए किसी भी सामंतवादी, पूंजीवादी, वंशवादी पतनशील पार्टी के साथ जनवादी मोर्चा बना लेते हैं और न्यूनतम साझा कार्यक्रम की लग्गी लगाकर किसी भी सरकार का समर्थन कर देते हैं. यह पिछली सीट पर बैठकर ड्राइवर को निर्देश देने का सुखद काल होता है. जल्दी ही ड्राइवर आवश्यक बहुमत का जुगाड़ कर उन्हें सड़क किनारे उतार देता है और वे धकियाए जाने के बाद कहते हैं भाजपा, कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है लेकिन फिर गठबंधन का अवसर आते ही शामिल हो जाते हैं जिससे उनकी विश्वसनीयता जबरदस्त नुकसान हुआ है. ताज्जुब है कि जितनी आसानी से वे बोर्जुआ पार्टियों से गठजोड़ कर लेते हैं आपस में नहीं कर पाते. वाम मोर्चा का न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने की बैठकों में जूते में दाल बंटती है. वर्तमान को दफना कर अतीत को जिलाया जाता है प्रतिक्रियावादी, संशोधनवादी, नक्सलवादी और छद्म जनवादी आपस में लड़कर अपने दफ्तरों को लौट जाते हैं. पूछने का मन करता है- कॉमरेड धर्म अफीम है और दंगे का आधार धर्म है तो आप घोषित नास्तिक कैसे उसे रोक लेंगे!

साभार :
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=10203889290779272&id=1431218059
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Monday 9 March 2015

मेरे भाई की जान इतनी सस्ती नही थी... आगरा स्वास्थय प्रशासन अब तो जागे----- ज्योत्स्ना रघुवंशी


अमर उजाला, आगरा, 08 मार्च 2015




4 hrs ·(09 march 2015)

अब इस हवा में आप साँस आप अपनी जान की कीमत पर ही लें ,क्यों कि आगरा के सी एम ओ इस बात को नकारते हैं कि आगरा में स्वाइन फ्लू से किसी की मृत्यु हुई,Jitendra Raghuvanshi मेरे भाई की जान इतनी सस्ती नही थी... ये ठीक वैसा ही अपराध है जैसे पुलिस केस दर्ज नही करती ,जब दर्ज नही तो कुछ हुआ ही नही, हरसंभव कोशिश की पर भैया तुम्हें बचा नही सके ..अंत तक तुमने संघर्ष किया..प्यारे भैया ..अपूर्णीय क्षति ..आगरा स्वास्थय प्रशासन अब तो जागे ..सचेत हो जाए..इस तरह अब तो न हो

https://www.facebook.com/jyotsna.raghuvanshi.3/posts/597017707102445

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बहन ज्योत्स्ना रघुवंशी जी के उद्गार व्यक्तिगत दुख और पीड़ा के बावजूद सार्वजनिक हितचिंतन की प्रेरक अभिव्यक्ति हैं। सार्वजनिक हितचिंतन रघुवंशी जी के परिवार के संस्कार हैं जिनका पालन जितेंद्र भाई साहब सतत करते रहे थे। 

अमर उजाला, आगरा के 08 मार्च के अंक में प्रकाशित स्वस्थ्य विभाग के सेंपिल प्रभारी डॉ साहब के बयान के अनुसार डॉ जितेंद्र रघुवंशी जी के स्वाईन-फ्लू से ग्रस्त होने की सूचना विभाग को नहीं भेजी गई थी। यह भी तो स्वास्थ्य विभाग की ही कमी है कि उसका नगर के चिकित्सकों व चिकित्सालयों पर कोई नियंत्रण ही नहीं है। यदि सरकारी आदेश के मुताबिक इस रोग की संभावना होने पर एस एन मेडिकल कालेज को सूचना मिलनी चाहिए थी तो 'पुष्पांजली' नर्सिंग होम ने क्यों नहीं दी? यह जांच का विषय है। जितेंद्र जी सिर्फ इप्टा के ही वरिष्ठ  नेता नहीं थे वरन भाकपा, आगरा के भी वरिष्ठ नेता तथा भाकपा राष्ट्रीय काउंसिल के भी सदस्य थे अतः पार्टीगत -स्तर पर आगरा के स्वास्थ्य विभाग की इस लापरवाही पर कारवाई की मांग की जानी चाहिए। यह केवल बहन ज्योत्स्ना रघुवंशी  जी का पारिवारिक विषय नहीं है अतः स्थानीय,प्रादेशिक व राष्ट्रीय स्तर पर भी पार्टी को इस विषय को जोरदार ढंग से उठाना चाहिए जिससे शेष जनता लाभान्वित हो सके ।
---विजय राजबली माथुर 
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केजरीवाल/आ आ पा समर्थक वामपंथियों के लिए

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साभार :
http://greatgameindia.com/was-aap-victory-in-delhi-elections-planned/

News Politics

The ‘Modi As PM Kejriwal As CM’ Project

The results of the Delhi Legislative Assembly election, 2015 with the Aam Aadmi Party securing absolute majority winning 67 of the 70 seats came as a major shock to many of the BJP supporters. Many theories started floating about what might have gone wrong with some blaming it on BJP’s poor performance at the Centre while others claimed it was the Congress support that helped AAP win the elections. However, while the supporters were in a deep state of shock the party leaders looked cool and composed as if the defeat was anticipated in advanced.
According to BJP local body party workers of Krishnanagar where BJP has been winning for 22 years the defeat was planned months ago. Local body party workers were not allowed to campaign, panna pramukhs (door to door campaigners) lists included migrated or even dead persons. Many panna pramukhs didn’t even know that they were made pramukhs.
To understand what really happened we will need to go back a couple of years in history. It all started with a tea with terrorist as the media termed it. Mr Ved Pratap Vaidik, a freelance journalist, had met the Jamaat-ud-Dawa chief in Lahore on July 2 2014 while touring Pakistan with a group of journalists and politicians invited by a peace research institute. The meeting opened up a can of worms and soon the spotlight came to think tank based in Delhi with which Mr Vaidik was affiliated with.
According to a report published in BodhitaNews in July last year Vivekananda International Foundation was already on the radar of Intelligence Bureau for anti-national activities since 2012. The Intelligence Bureau (IB) has been keeping tabs on one of its former directors, Ajit Doval, and Vivekananda International Foundation (VIF), of which he is a director. Based on IB reports Doval and his team at VIF, which include prominent RSS ideologues, are the brain behind the anti-corruption movement in the country, especially the one led by Baba Ramdev. It was in April 2011 that VIF organised a seminar on corruption and black money. Soon after, Anna Hazare’s fast began and Ramdev announced his June 4 Ramlila Maidan protest. IB men have since been keeping a keen eye on VIF.
The Indian Express has more details on the issue in its report published in Aug of 2012.
A high profile institute-cum-think tank in the heart of New Delhi’s diplomatic area in Chanakyapuri, set up on land allotted by the then Narasimha Rao government, a clutch of former intelligence officials running the place, and a group of well-known RSS swayamsewaks — they are the silent force behind the recent anti-corruption movements in the country, especially the one led by Baba Ramdev.
In fact, it was at the Vivekananda International Foundation last year that a decision was taken to form an anti-corruption front under Baba Ramdev — this was just days before Anna Hazare sat on his first fast. The foundation’s director is Ajit Doval, a former director of the Intelligence Bureau. It was at the foundation again that the first serious attempt was made to bring Ramdev and Team Anna members together.
Inaugurated in 2009, the Vivekananda International Foundation is a project of the Vivekananda Kendra, founded in the early 1970s by former RSS general secretary Eknath Ranade and headed now by RSS pracharak P Parameswaran.
It was in April last year that the foundation, together with RSS ideologue K N Govindacharya’s Rashtriya Swabhiman Andolan, organised a seminar on corruption and black money attended by both Ramdev and Team Anna members Arvind Kejriwal and Kiran Bedi.
At the end of the two-day seminar, held on April 1 and 2, an “anti-corruption front” was formed with Ramdev as patron and Govindacharya as convenor. The members included Doval; RSS swayamsewak S Gurumurthy; Bhishm Agnihotri, who was India’s ambassador-at-large during the NDA regime; and Prof R Vaidyanathan of IIM-Bangalore, who co-authored a BJP task force’s report on black money along with Doval and Ved Pratap Vaidik.
Soon after the seminar, Hazare’s fast began, and in April end, Ramdev announced his June 4 Ramlila Maidan protest — his first public showdown with the UPA government.
Source : Tehelka
Source of image: Tehelka
So here we have Baba Ramdev, Kiran Bedi, Anna Hazare, Arvind Kejriwal, Subramaniyan Swamy with former Intelligence officials brainstorming together even before the launch of India Against Corruption or the Aam Aadmi Party. What is more shocking is many of these and other top AAP candidates joining the BJP including Shazia Ilmi and Kiran Bedi going to the extent of contesting against AAP itself from BJP. It begs a simple question, was AAP really BJP2 in disguise?
The answer to the question may be found in the book 26/11 Probe Why Judiciary Also Failed by former Inspector General of Police, Maharashtra and a close friend of ATS Chief Hemanth Karkare assassinated during the 26/11 Mumbai Attacks in Operation Kill K. In the book he writes about what goes on inside of the Vivekananda International Foundation.
Though its advisory board and executive council consists of a host of former intelligence officials, retired bureaucrats, diplomats and ex-military men, for all practical purposes it is run by a small group of former IB officers and hard-core RSS swayamsewaks. Among the frequent visitors to the centre are some retired judges and selected media persons, especially high-profile TV channel anchors, owing allegiance to their ideology.
Which issue is to be highlighted, which political leader is to be grilled in TV channels’ panel-discussions and on which issue; what strategy is to be adopted in court cases etc. are among the subjects discussed at the centre. It is common knowledge that the decisions to lift the likes of Anna Hazare and Baba Ramdev to dizzy heights and then drop them from there, were taken at this centre.
But the core activity of the centre is to influence government decisions with the objective of attaining their agenda. With this view in mind, seminars are organized at the centre on innocuous issues like corruption, black money, performance paralysis, but actually, the participants discuss sensitive subjects like national security, foreign affairs, defense, Kashmir and so on. These seminars are followed by secret meetings in which strategies to influence government decisions are discussed. What is worrying is that some important bureaucrats of PMO attend such seminars and meetings.
The participants do not merely discuss sensitive issues but also take decision and devise strategies to influence government to implement them. PMO officials, who attend the meetings, come handy in this regard.
It is fool hardy to think that having such a control over the media and the kind of persona management strategies employed through western intelligence managed PR agencies; that AAP could still win over BJP and Congress with such a landslide. Unless ofcourse it is by design and not just a spontaneous organic reaction of people merely dissatisfied by the poor performance and extremism of the BJP government. The truth however is that AAP and the India Against Corruption campaigns before it’s birth were a brainchild of a small group of BJP think tank itself. The same group floated the theory that AAP was infact a Congress B team while all evidence pointed otherwise; to distance themselves from it and posed as enemies blowing hollow accusations at each other that do not stand the merit of a thorough investigation. While the public was hoodwinked and kept busy fighting among themselves at ridiculous issues of blame game and even name calling that became national news; the agenda that played all along was Modi as PM & Kejriwal as CM.
Isn’t it ironic that the meaning of Arvind in sanskrit is – Lotus.
As the father of propaganda Edward Bernays explained in 1995 “Professionally, [public relations] activities are planned and executed by trained practitioners in accordance with scientific principles, based on the findings of social scientists. Their dispassionate approach and methods may be likened to those of the engineering professions which stem from the physical sciences.”
The conscious and intelligent manipulation of the organized habits and opinions of the masses is an important element in democratic society. Those who manipulate this unseen mechanism of society constitute an invisible government which is the true ruling power of our country.
We are governed, our minds are molded, our tastes formed, our ideas suggested, largely by men we have never heard of. This is a logical result of the way in which our democratic society is organized. Vast numbers of human beings must cooperate in this manner if they are to live together as a smoothly functioning society.
However any sort of propaganda is successful only when the targeted population chooses to sleep and remain ignorant of the facts around them. It is this very same reason that Indians are kept in a perpetual state of fear, ignorance and hatred so as whoever the regime of the day could remain in power.
GreatGameIndia
Image credit: Ben Sutherland
Notes:
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Tuesday 3 March 2015

डॉ गिरीश की सफलता का रहस्य --- विजय राजबली माथुर



"समय करे,नर क्या करे,समय बड़ा बलवान ।
असर ग्रह सब पर करें ,परिंदा-पशु-इंसान। । "
किसी विद्वान के उपरोक्त  निष्कर्ष के आधार पर मैंने  यह सूत्र निर्धारित किया है :
 "Man is the product of his/her environment controlled by his/her Stars & Planets". 

इन निष्कर्ष और सूत्र का प्रत्यक्ष प्रमाण डॉ गिरीश को प्राप्त हो रही सफलताओं में स्पष्ट देखा जा सकता है। ग्रह-नक्षत्र एथीस्ट और नान-एथीस्ट में कोई विभेद नहीं करते हैं और किसी भी व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए कर्मानुसार  फल प्रदान करते ही हैं उनकी महादशा व अंतर्दशा के अनुसार निरूपित समय पर ।

 23 जून 2006 से 22 अप्रैल 2012 तक का समय काफी चिन्तायुक्त परेशानी का था।** इसी कारण मार्च 2012 में सम्पन्न 21वें राष्ट्रीय सम्मेलन, पटना में आपको राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल किए जाने की घोषणा के बावजूद मित्रों की मेहरबानी से मात्र आमंत्रित सदस्य ही रखा गया था।

 23 अप्रैल 2012 से 22 सितंबर 2013 तक का समय उन्नत्ति,प्रमोशन,धन लाभ का था । अतः इस काल में राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पूर्ण सदस्य का दर्जा प्राप्त करने में सफल हो गए ।

 23 सितंबर 2013 से 22 अप्रैल 2014 तक का समय अनुकूल  था ।अतः 30 सितंबर 2013 की लखनऊ में सफल रैली करवा सके किन्तु मित्रों ने इसकी सफलता का कोई लाभ प्राप्त नहीं होने दिया ।

 23 अप्रैल 2014 से 22 दिसंबर 2015 तक लाभ,हर्षदायक समाचार प्राप्ति का समय रहेगा और इसी वजह से लगातार तीसरी बार भाकपा, उत्तर प्रदेश के राज्यसचिव निर्वाचित होने में सफल रहे हैं।

 23 दिसंबर 2015 से 04 मार्च 2026 तक समय शुभ,धन लाभ ,अनुकूल तथा उत्तम रहेगा। लेकिन यह भी निश्चित है कि मित्र आपके नाम का दुरुपयोग करते होंगे। शत्रु व्यर्थ परेशान करते होंगे बावजूद इसके कि   शत्रुओं को वश मे करने का विशेष गुण आपमे मौजूद होगा।
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Comment on page :
** उत्तर-प्रदेश विधानसभा चुनाव फरवरी 2012 में हुये थे-




Sunday 1 March 2015

हिन्दी भाषी क्षेत्र को लाल रंगने के लिए फैसलों को अमलीजामा पहनाना पड़ेगा --- जितेंद्र हरि पांडे


वैसे तो केंद्र सरकार को कारपोरेट कंपनियों की तर्ज़ पर चलाने की शुरुआत लगभग तीस वर्ष पूर्व राजीव गांधी ने की थी ।  परंतु वर्तमान केंद्र सरकार कारपोरेट जगत की रहनुमा है इस तथ्य को भाकपा के राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल कुमार सिंह 'अंजान' ने भी 22वें राज्य सम्मेलन के मौके पर माना है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों विशेष कर उत्तर प्रदेश व बिहार में सफल हुये बगैर पार्टी देश में एक मजबूत विकल्प नहीं बन सकती है यह एक अकाट्य सत्य है। आर के शर्मा जी की कामना है कि यह सम्मेलन हिन्दी भाषी क्षेत्रों को लाल रंग से भर दे। इस सदिच्छा को लागू करने हेतु जितेंद्र हरि पांडे जी का बिलकुल सही  आंकलन है कि " लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाना पड़ेगा तभी संभव होगा। "

इस संबंध में भावेश भारद्वाज जी द्वारा व्यक्त विचार भी बहुत महत्व रखते हैं :
1987 में कामरेड रमेश सिन्हा द्वारा बताया गया ' चमकता-दमकता  युवा चेहरा ' जो अब पार्टी का उत्तर-प्रदेश में स्वमभू 'किंग मेकर' के रूप में कार्य करने का अभ्यस्त हो चुका है प्रदेश में पार्टी को मजबूत न होने देने के लिए अपने अनुकूल नेतृत्व चुनवाता रहा है जिस कारण दो बार पार्टी-विभाजन भी हो चुका है। ऐसे ही लोग वाम -पंथ में टूटन के लिए उत्तरदाई हैं। यदि सम्मेलन इन लोगों की तिकड़म से बचने में सफल रहता है तो निश्चय ही हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में पार्टी को मजबूती दिलाने व लिए गए निर्णयों को लागू कराने के कार्य सम्पन्न हो सकेंगे। इस हेतु हमारी हार्दिक शुभकामनायें -----
(विजय राजबली माथुर )
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