Monday 27 April 2015

संविधानवाद बनाम जनसंघर्ष' का अंतर्विरोध : सुभाषचन्द्र बोस की समझ --- Jagadishwar Chaturvedi

22 hrs ·(26-04-2015 )
      सुभाष चन्द्र बोस केबारे में इन दिनों मीडिया में जिस तरह से सनसनी पैदा की जा रही है उससे यह खतरा पैदाहो गया है कि कहीं उनके नजरिए को प्रदूषित न कर दिया जाय। सुभाष के नजरिए कीआधारभूमि है भारत की मुक्ति। वे आजीवन वामपंथी रहे और उनकी वामपंथी विचारधारा में गहरीआस्थाएं थीं। हमारे देश में अनेक किस्म के समाजवादी पहले भी थे और आज भी हैं, पहलेवाले समाजवादी ऐसे थे जो दक्षिणपंथी राजनेताओं के साथ काम करते थे या फिर किताबीसमाजवादी थे। सुभाष का नजरिया इन दोनों से भिन्न था।
     सुभाष आमूल-चूल सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर थे,वे संविधानवादी और सुधारवादी नजरिए से सामाजिक बदलाव की बहुत कम संभावनाएं देख रहेथे, इसलिए उन्होंने संविधानवाद और सुधारवाद से बचने की सलाह दी थी। कांग्रेस मेंये दोनों ही दृष्टियों के मानने वाले लोग बड़ी संख्या में थे।
    सवाल यह है  क्या संविधानवादी और पूंजीवादी सुधारवादी मार्गके सहारे हम समाज में आमूलचूल परिवर्तन कर पाए हैं ? सच यहहै कि ये दोनों ही नजरिए 65साल में अभीप्सित परिणाम पैदा करने में असमर्थ रहे हैं।यह तब हुआ है जबकि देश का शासन पांच दशकों तक कांग्रेस के पास रहा बाद में आएशासकों ने मूलतः कांग्रेस की बनायी नीतियों का ही पालन किया। मोदी भी कांग्रेस कीबनायी नीतियों पर चल रहे हैं।
      सुभाष ने संविधानवाद औरजनसंघर्ष के बीच में अंतर्विरोध की तरफ 19अगस्त सन् 1939 में ध्यान खींचाथा, लेकिनइस अंतर्विरोध की अनदेखी की गयी। आज यही अंतर्विरोध अपने चरम पर है। एक तरह से सभीरंगत की गैर-वाम विचारधाराएं संविधानवाद की आड़ में एकजुट हैं और जनसंघर्षों काखुलकर विरोध कर रही हैं। पहले यही काम कांग्रेस ने किया अब यही काम मोदी सरकार कररही है। जब हमारे सामने जनसंघर्षों को कुचलने के लिए संविधानवाद का खतरा हो तोहमें गंभीरता से देखना होगा कि आखिरकार सुभाष चन्द्र बोस की हमारे लिए आज किस रुपमें प्रासंगिकता बची है।
   देश के आजाद होने के बाद संविधानवाद पर जोर दियागया और तमाम किस्म के जनसंघर्षों और आंदोलनों पर संविधान के तहत ही हमले किए गए।यही वह संविधान है जो तमाम किस्म की पवित्र घोषणाओं की जनसंघर्षों के संदर्भ मेंघनघोर और नंगी अवहेलना करता  है। संविधानके नाम पर आपातकाल आया और संविधान के नाम पर ही अब तक सेज के लिए दस लाख एकड़ जमीनले ली गयी और अब नग्नतम रुप में भूमि अधिग्रहण बिल पेश है, जिसे हर हालत में संसदसे पास कराकर परम पवित्र वाक्य में तब्दील कर दिया जाएगा।
   कायदे से हमें सुभाष चन्द्रबोस को जनसंघर्षों के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करना चाहिए। लेकिन हो यह रहा हैहमारे इतिहासकार बंधु सुभाष को इतिहास की घटना विशेष के संदर्भ में रंग-बिरंगे रुपमें पेश कर रहे हैं इससे सुभाष के बारे में विकृत समझ बन रही है।
    'जनसंघर्षबनाम संविधानवाद' के संदर्भ में यदिसुभाष को देखें तो पाएंगे कि सुभाष जनसंघर्षों के साथ खड़े हैं। सुभाष ने माना किउन्होंने 'संविधानवाद का विरोध करके 'अपराध' किया है और मैं उसकी कीमत अदा कररहा हूँ।' वह मानते थे 'संविधानवाद बनाम जनसंघर्ष' का अंतर्विरोध इस दौर का मूलअंतर्विरोध है और इसकी रोशनी में ही राजनीतिक प्रक्रिया का विकास होगा। सुभाष कीयह समझ इतिहास के अब तक के अनुभव से सही साबित हुई है।
साभार : 
https://www.facebook.com/notes/jagadishwar-chaturvedi/% 

Monday 20 April 2015

मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण का सच--- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी


मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण का सच
किसानों की जमीन छीन कर पूंजीपतियों को सौंपने पर आमादा मोदी सरकार
14 मई को देशव्यापी विरोध
उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर रास्ता रोको
बहनों एवं भाईयों,
किसानों के निरन्तर आन्दोलनों और बलिदानों के कारण 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को 2013 में संसद में सर्वसम्मति से बदला गया था।
बदले कानून में सुनिश्चित किया गया था:
  • जमीन के मालिक किसानों से उनकी रज़ामंदी के बिना जमीन नहीं ली जा सकेगी और जमीन लेने का क्या सामाजिक प्रभाव पड़ेगा, उसका भी पहले आकलन किया जायेगा।
  • किसान को अपनी जमीन के बेहतर मुआवजे के लिए मोल-तोल का अधिकार मिले, उसकी कोई मजबूरी न हो तथा उसका मुआवजा एडवांस में दिया जाये।
  • पूरे मुआवजे के भुगतान के बाद और पुनर्वास एवं पुनः व्यवस्थापन के पूरे इंतजाम के बाद ही जमीन पर कब्जा लिया जाये।
  • किसानों और पंचायतों की रज़ामंदी के बिना जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू नहीं की जायेगी।
  • बहुफसली और सिंचित जमीन का अधिग्रहण नहीं होगा।
  • अधिग्रहण की प्रक्रिया के पहले किसानों, आजीविका के लिए निर्भर अन्य लोगों एवं समुदाय पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभाव का आकलन किया जायेगा।
  • सभी विस्थापित परिवारों को पहले से बेहतर जीवन स्तर सुनिश्चित किया जायेगा।
मोदी सरकार किसानों के इन अधिकारों को छीन कर जमीन को पूंजीपतियों को देना चाहती है। उसने लोकशाही की सारी परम्पराओं को त्याग कर 3 अप्रैल 2015 को पुनः अध्यादेश जारी करके अपने किसान विरोधी इरादों का पुनः परिचय दिया है।
सरकार का यह दावा झूठ और मिथ्यापूर्ण प्रचार है कि विकास कार्य क्योंकि रूके पड़े हैं, इसलिए कानून में संशोधन के लिए अध्यादेश लाना जरूरी है।
दरअसल अध्यादेश का मतलब किसानों से रज़ामंदी के बिना और बिना सामाजिक प्रभाव का आकलन किये जमीनों को किसानों से छीनना है जबकि 2013 का कानून सुनिश्चित करता है कि जिन लोगों से जमीन ली जानी है, उनके 70 प्रतिशत लोग अपनी रज़ामंदी दें और यदि जमीन किसी निजी कम्पनी के लिए ली जा रही है तो उसके लिए 80 प्रतिशत लोगों की रज़ामंदी होनी चाहिए।
सरकारी दावा इससे और भी झूठा साबित हो जाता है कि वर्ष 2013 तक सरकार बड़े पैमाने पर जमीन का अंधाधुंध अधिग्रहण करती रही है। हालत यह है कि बड़ी मात्रा में अधिगृहीत जमीन का कोई इस्तेमाल नहीं हो रहा है। बड़ी मात्रा में भूमि को कारपोरेट भूमाफिया ने हड़प लिया है जो उसे विकास के लिए इस्तेमाल करने के बजाय बढ़े दामों पर बेचकर पैसा कमा रहे हैं।
कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) की रिपोर्ट दिनांक 28 नवम्बर 2014 के अनुसार विशेष आर्थिक परियोजनाओं के लिए ली गई 45,635.63 हेक्टेयर जमीन में से केवल 28,488.49 हेक्टेयर जमीन का ही इस्तेमाल हुआ है। गुजरात में स्वीकृत 50 विशेष आर्थिक क्षेत्रों में से केवल 15 ही आपरेशनल हैं। वहां प्रधानमंत्री के चहेते अडानी को 2009 में 6,472.86 हेक्टेयर जमीन दी गई जिसमें से 87.11 प्रतिशत जमीन का कोई इस्तेमाल नहीं किया गया है। कैग ने रिलायंस, एस्सार, डीएलएफ, यूनीटेक्स आदि डेवलपरों को फटकार लगाते हुए कहा है कि इन्होंने विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना के नाम पर बड़ी मात्रा में जमीनें हथिया ली हैं परन्तु केवल एक मामूली हिस्से का ही इस्तेमाल किया गया है। मुकेश अंबानी ने महाराष्ट्र के द्रोणगिरि में 1,250 हेक्टेयर जमीन ली परन्तु वहां 2006 से अब तक एक भी कारखाना स्थापित नहीं किया गया है। कैग ने स्पष्ट कहा है - ”सरकार द्वारा किसानों से जमीन का अधिग्रहण ग्रामीण आबादी से कारपोरेट जगत को दौलत का हस्तांतरण साबित हो रहा है।“
वास्तविकता, मोदी सरकार के तमाम दावों को खोखला और मिथ्या साबित करती है। वास्तव में मोदी सरकार कारपोरेट घरानों, धन्नासेठों तथा पूंजीपतियों को जमीनें देने और किसानों को बेसहारा करने के लिए ही यह झूठी और खोखली दलीलें देकर देश की जनता की आंख में धूल झोकना चाहती है।
किसान भाईयों,
18 औद्योगिक गलियारों के लिए मोदी सरकार के प्रस्तावों के द्वारा खेती योग्य भूमि का 35 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा आ जायेगा जिससे हजारों गांव लुप्त हो जायेंगे और करोड़ों लोगों को रोजी-रोटी छीनने का रास्ता साफ हो जायेगा। उसके कारण बड़े पैमाने पर सामाजिक विघटन और सामाजिक अराजकता पैदा हो जायेगी।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई किसानों, खेत मजदूरों, ट्रेड यूनियनों, नागरिक समाज एवं आम जनता का आह्वान करती है कि मोदी सरकार के घृणित मंसूबों को नाकाम करने के लिए बड़े पैमाने पर 14 मई 2015 को ”रास्ता रोको“ कार्यक्रम को सफल बना कर किसान एवं देश विरोधी अध्यादेश का विरोध करें।

Thursday 16 April 2015

क्रान्तिकारी : 'स्‍व' से संघर्ष -----कविता कृष्‍णपल्‍लवी

  • क्रान्ति का निश्‍चय ही एक काव्‍यात्‍मक पहलू होता है, लेकिन क्रान्ति कभी भी पूरीतरह कविता नहीं होती। वह जिन्‍दगी का सघन-सान्‍द्र रूप होती है। कभी वह सपाट पठारों की तो कभी बीहड़ पर्वतों-घाटियों की यात्रा जैसी होती है। क्रान्तिकारी जीवन में रोज़ तूफानी उड़ानों का रोमांच नहीं होता। ऐसे तूफानों की लम्‍बी तैयारी एक लम्‍बे श्रमसाध्‍य कालखण्‍ड की माँग करती है, काफी हद तक मज़दूरों की जिन्‍दगी जैसी। क्रान्तिकारी जीवन में ठहराव, मंथर गति और विफलता का भी बार-बार सामना करना पड़ता है।
    अतिशय रूमानियत से भरे युवा क्रान्तिकारी जीवन से कविता जैसे ''निष्‍कलुष'' ''स्‍वर्गीय'' सुंदरता और सतत आवेग की अपेक्षा पालकर आते हैं। उनकी आँखों के सामने क्रान्तिकारियों और क्रांतिकारी कहानियों-उपन्‍यासों के नायकों के जीवन के रूमानी और नायकत्‍व वाले पहलू नाचते रहते हैं। उनकी चयनात्‍मक दृष्टि मनोगतवादी होती है। ऐसे युवा विज्ञान को आत्‍मसात करने के बजाय नायकों की आराधना करने लगते हैं। उनके अवचेतन में स्‍वयं वैसा ही नायक बनने की आकांक्षा छिपी रहती है। प्राय: ऐसे युवक और युवती क्रान्तिकारी जीवन में अपनी 'जेनी', 'क्रुप्‍स्‍काया', या अपने 'मार्क्‍स', 'लेनिन' की भी तलाश करते रहते हैं और विफल होने पर निराश हो जाते हैं। क्रान्ति से उनका मन उचट जाता है। मध्‍यवर्गीय रुमानियत के शिकार लोग एक झोंक में कठिन जीवन भी बिता लेते हैं और शहादत के जज्‍़बे के साथ कुछ साहसिक कामों को भी अंजाम दे डालते हैं, लेकिन अन्‍ततोगत्‍वा वे थकान, अवसाद, बोरियत और निराशा के शिकार हो जाते हैं। ऐसी रुमानियत अक्‍सर पुराने अराजकतावादी मध्‍यवर्गीय क्रान्तिकारियों के जीवन-दर्शन का अंग हुआ करती थी, लेकिन सर्वहारा क्रान्तिकारी के जीवन-दर्शन में इसका कोई स्‍थान नहीं हो सकता।
    सर्वहारा क्रान्तिकारी वही हो सकता है, जो सर्वहारा वर्ग के जीवन, मुक्ति के लक्ष्‍य और संघर्ष को पूरी तरह से आत्‍मसात कर ले, क्रान्ति को तौरे-जिन्‍दगी बना ले, क्रान्ति में भागीदारी  की उसके मन में कोई पूर्वशर्त या पूर्वापेक्षा न हो। क्रान्तिकारी के लिए 'स्‍व' से संघर्ष युद्ध का एक बेहद कठिन मोर्चा है। अपने नायकों के सिद्धान्‍तों को जानना-समझना हमारे लिए सर्वोपरि महत्‍व रखता है। बेशक उनके जीवन के प्रेरणादायी पहलुओं से हम प्रेरणा भी लेते हैं, पर हमारे लिए लेनिन की पालतू बिल्‍ली, स्‍तालिन की पाइप, माओ की चेन-स्‍मोकिंग या चे के सिगार का कोई महत्‍व नहीं हो सकता। उनके निजी जीवन के हर पहलू से मोहाविष्‍ट होना ज़रूरी नहीं। वे अवतार नहीं, हाड़-मांस से बने मनुष्‍य थे जो देश-काल विशेष में रहते थे और जिनकी कुछ विशिष्‍ट निजी आदतें भी थीं। हम सभी मनुष्‍य हैं और हमारी भी अपनी कुछ निजी मौलिक आदतें हो सकती हैं। पर नकल हर मायने में फूहड़ चीज़ होती है। न तो किसी 'कल्‍ट' का अनुसरण करना चाहिए, न ही 'कल्‍ट' का निर्माण किया जाना चाहिए।
    --कविता कृष्‍णपल्‍लवी
  • Arvind Raj Swarup Cpi क्रांति कारी जीवन में ठहराव......आदि आदि।
    फिर तो वामपंथियो के अलग अलग होने का कोई तर्क भी नहीं।
    आप भी सोचिये।

  • Kavita Krishnapallavi आप बात का मर्म नहीं पकड़ पाये और कहाँ की बात कहाँ लेकर चले गये। क्रांतिकारी जीवन के तर्क को पार्टियों पर यूँ लागू मत कीजिए। पार्टियों के बीच फूट और अलगाव के कारण मूलत: विचारधारा और कार्यक्रम से जुड़े होते हैं। ''वामपंथ'' का कम्‍युनिस्‍ट 'जेनेरिक टर्म' की तरह इस्‍तेमाल नहीं करते। कोई अपने को वामपंथी कह सकता है, पर दूसरे की नज़र में संशोधनवादी हो सकता है। संशोधनवाद, यानी लेनिन के अनुसार, समाजवाद की खोल में बुर्जुआ अन्‍तर्वस्‍तु। बोल्‍शेविक-में‍शेविक विभाजन, दूसरे इण्‍टरनेशनल की फूट, सोवियत पार्टी-चीनी पार्टी अलगाव ('महान बहस' 1963-64 के दस्‍तावेज देखें) आदि के कारण विचारधारात्‍मक थे। भाकपा-माकपा में फूट यूँ तो विचारधारात्‍मक (ख्रुश्‍चोवी संशोधनवाद के प्रश्‍न पर) दीखती थी, लेकिन माकपा की मध्‍यमार्गी पोजीशन भी वस्‍तुत: संशोधनवादी ही थी तथा दोनों के कार्यक्रम में थोड़ा अन्‍तर था। कालांतर में माकपा भी पूरी तरह ख्रुश्‍चोवी संशोधनवाद पर पहुँच गयी। आज दोनों ही पार्टियों का ढाँचा-खाँचा लेनिनवादी न होकर यूरोप की काउत्‍स्‍कीपंथी सामाजिक जनवादी पार्टियों जैसा है। संसदीय चुनावों को दोनों ही पार्टियाँ साठ व पचास वर्षों से 'टैक्टिक्‍स' के बजाय 'स्‍ट्रैटेजी' की तरह इस्‍तेमाल कर रही हैं। (वैसे देखें तो इन्‍हें तो एक हो ही जाना चाहिए, लेकिन ये नहीं होंगी और बुर्जुआ संसदीय पार्टियों की तरह प्रतिस्‍पर्द्धा और सहयोग का खेल खेलती रहेंगी) दूसरी ओर बहुतेरे मा-ले ग्रुप भी संशोधनवादी भटकाव के शिकार हैं, जबकि एक बड़ा धड़ा ''वाम'' दुस्‍साहसवाद की राह पर है। विचारधारात्‍मक महत्‍व के प्रश्‍नों को तिलांजलि देकर व्‍यापक वाम एकता की दुहाई देने वाले लोग मार्क्‍सवाद के बुनियादी सिद्धान्‍तों को भी नहीं जानते-समझते। अरविन्‍द राज जी, आप सिद्धान्‍त और इतिहास का अध्‍ययन करके कुछ सोचिये-समझिये, निपट व्‍यवहारवाद और गलदश्रु भावुकता भरी वाम एकता की दुहाइयों से अबतक न कुछ हासिल हुआ है, न ही आगे होगा।

  • Arvind Raj Swarup Cpi कॉम मैने आपकी पोस्ट को पढ़ा।आपके विचारो को मै वामपंथी ही मानता हूँ जेनेरिक टर्म ही सही।वाम पंथ की विशाल सोच में मै आप सरीखे ग्रुप्स को सहयात्री अवश्य मानता हूँ।
    क्या आपके ग्रुप का कोई लिखित" कार्यक्रम" है?

  • Kavita Krishnapallavi सारा साहित्‍य आपको लखनऊ में ही साथियों से मिल जायेगा।
    साभार :
    https://www.facebook.com/notes/kavita-krishnapallavi/ 
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Wednesday 15 April 2015

क्रान्ति- भ्रांति और साम्यवाद --- विजय राजबली माथुर





 14-04-2015 
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पिछले तीन दिनों में छत्तीसगढ़ के बस्तर में हुए तीन माओवादी हमलों में' दर्ज़न भर गरीब सिपाही मारे गए। क्रांतिकारी कामरेडों की नज़र में ज़रूर वो सामंतवाद और पूंजीवाद के बड़े पोषक रहे होंगे। माओवादियों के विवेक पर संदेह करने वाले लोग बुर्जुआ या पेटी बुर्जुआ घोषित किए जा सकते हैं। अपने जन्मकाल से ही 'सर्वहारा की सत्ता' की स्थापना के नाम पर देश के बड़े सामंतों, पूंजीपतियों, ठेकेदारों और भ्रष्ट राजनेताओं के तलवे चाटने वाले, पेट के लिए सत्ता की बंदूक ढोने वाले हजारों सिपाहियों, निर्माण-कार्य में लगे मजदूरों और छोटे किसानों की निर्मम हत्या करने वाले देश के सभी माओवादियों और उनके टुकड़ों पर पलने वाले दलाल बुद्धिजीवियों को क्रान्ति की दिशा में एक और 'बड़ा कदम' मुबारक ! 'जर, जंगल और ज़मीन' की लड़ाई में पूंजीपतियों, सामंतों और निर्माण कार्य में लगे ठेकेदारों से लेवी की बड़ी रकम वसूलने के लिए गरीबों को मारकर दहशत फैलाना भी तो ज़रूरी होता है ! बधाई की पात्र हमारी राज्य सरकारें भी हैं जिन्होंने नक्सल समस्या के नाम पर केंद्र से मिलने वाली बहुत बड़ी धनराशि के लिए जानबूझकर इस समस्या से आंखें फेर रखी हैं। उनकी चिंता यह नहीं कि माओवादी हत्यारों को आतंकी मानकर उनके साथ वैसा ही सलूक किया जाय, बल्कि यह है कि उन्हें आर्थिक मुआवज़े का इतना बड़ा प्रलोभन दिया जाय कि वे खुद-ब-खुद अपने को क़ानून के हवाले कर दें, यह जानते हुए भी कि रंगदारी की बहुत बड़ी कमाई करने वाले किसी भी सक्रिय नक्सली ने आजतक कभी आत्मसमर्पण नहीं किया। आत्मसमर्पण या तो वो मासूम लोग करते हैं जिन्हें पुलिस ने नक्सली के नाम पर झूठे मुक़दमों में फंसा रखा है या जो माओवादी अपनी बढ़ती उम्र या अन्य वज़हों से संगठन से बाहर कर दिए जाते हैं !

खेल अभी बाकी है, दोस्तों। तब तक अगले किसी नरसंहार का इंतज़ार करिए !
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(वस्तुतः 'साम्यवाद' को  जो कि भारतीय वाङ्ग्मय की देंन  है को विदेशी दृष्टिकोण से लागू करवाने की असफल कोशिशें ही इसकी विफलता का हेतु हैं। समय-समय पर इस ओर ध्यानाकर्षण करने का प्रयास करता रहा हूँ परंतु मेरी हैसियत ही क्या है जो उस पर गौर किया जाये?)
विजय राजबली माथुर
http://communistvijai.blogspot.in/2013/09/blog-post.html
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दंतेवाडा त्रासदी - समाधान क्या है?
 17-06-2010 
http://krantiswar.blogspot.in/2010/06/blog-post_17.html 
 

समय करे नर क्या करे,समय बड़ा बलवान.
असर गृह सब पर करे ,परिंदा पशु इनसान


मंगल वार ६ अप्रैल के भोर में छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा में ०३:३० प्रात पर केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल पर नक्सलियों का जो हमला हुआ उसमें ७६ सुरक्षाबल कर्मी और ८ नक्सलियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.यह त्रासदी समय कि देन है.हमले के समय वहां मकर लग्न उदित थी और सेना का प्रतीक मंगल-गृह सप्तम भाव में नीच राशिस्थ था.द्वितीय भाव में गुरु कुम्भ राशिस्थ व नवं भाव में शनि कन्या राशिस्थ था.वक्री शनि और गुरु के मध्य तथा गुरु और नीचस्थ मंगल के मध्य षडाष्टक योग था.द्वादश भाव में चन्द्र-रहू का ग्रहण योग था.समय के यह संकेत रक्त-पात,विस्फोट और विध्वंस को इंगित कर रहे थे जो यथार्थ में हो कर रहा.विज्ञानं का यह नियम है कि,हर क्रिया की  प्रति क्रिया होती है.यदि आकाश मंडल में ग्रहों की इस क्रिया पर शासन अथवा जनता के स्तर से प्रतिक्रिया ग्रहों के अरिष्ट शमन की हुई होती तो इतनी जिन्दगियों को आहुति न देनी पड़ती।
जबहम जानते हैंकि तेज धुप या बारिश होने वाली है तो बचाव में छाते का प्रयोग करते हैं.शीत प्रकोप में ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते हैं तब जानबूझकर भी अरिष्ट ग्रहों का शमन क्यों नहीं करते? नहीं करते हैं तभी तो दिनों दिन हमें अनेकों त्रासदियों का सामना करना पड़ता है.जाँच-पड़ताल,लीपा – पोती ,खेद –व्यक्ति ,आरोप प्रत्यारोप के बाद फिर वाही बेढंगी चल ही चलती रहेगी.सरकारी दमन और नक्सलियों का प्रतिशोध और फिर उसका दमन यह सब क्रिया-प्रतिक्रिया सदा चलती ही रहेगी.तब प्रश्न यह है कि समाधान क्या है?महात्मा बुद्द के नियम –दुःख है! दुःख दूर हो सकता है!! दुःख दूर करने के उपाय हैं!!! दंतेवाडा आदि नक्सली आन्दोलनों का समाधान हो सकता है सर्वप्रथम दोनों और की हिंसा को विराम देना होगा फिर वास्तविक धर्म अथार्त सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रहाम्चार्य का वस्तुतः पालन करना होगा.
सत्य-सत्य यह है कि गरीब मजदूर-किसान का शोषण व्यापारी,उद्योगपति,साम्राज्यवादी सब मिलकर कर रहे हैं.यह शोषण अविलम्ब समाप्त किया जाये.
अहिंसा-अहिंसा मनसा,वाचा,कर्मना होनी चाहिए.शक्तिशाली व सम्रद्द वर्ग तत्काल प्रभाव से गरीब किसान-मजदूर का शोषण और उत्पीडन बंद करें.
अस्तेय-अस्तेय अथार्त चोरी न करना,गरीबों के हकों पर डाका डालना व उन के निमित्त सहयोग –निधियों को चुराया जाना ताकल प्रभाव से बंद किया जाये.कर-अप्बंचना समाप्त की जाये.
अपरिग्रह-जमाखोरों,सटोरियों,जुअरियों,हवाला व्यापारियों,पर तत्काल प्रभाव से लगाम कासी जाये और बाज़ार में मूल्यों को उचित स्तर पर आने दिया जाये.कहीं नोटों को बोरों में भर कर रखने कि भी जगह नहीं है तो अधिकांश गरीब जनता भूख से त्राहि त्राहि कर रही है इस विषमता को तत्काल दूर किया जाये.
ब्रह्मचर्य -धन का असमान और अन्यायी वितरण ब्रहाम्चार्य व्यवस्था को खोखला कर रहा हैऔर इंदिरा नगर लखनऊ के कल्याण अपार्टमेन्ट जैसे अनैतिक व्यवहारों को प्रचलित कर रहा है.अतः आर्थिक विषमता को अविलम्ब दूर किया जाये.
चूँकि हम देखते हैं कि व्यवहार में धर्मं का कहीं भी पालन नहीं किया जा रहा है इसीलिए तो आन्दोलनों का बोल बाला हो रहा है. दंतेवाडा त्रासदी खेदजनक है किन्तु इसकी प्रेरणा स्त्रोत वह सामाजिक दुर्व्यवस्था है जिसके तहत गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है.कहाँ हैं धर्मं का पालन कराने वाले?पाखंड और ढोंग तो धर्मं नहीं है,बल्कि यह ढोंग और पाखण्ड का ही दुष्परिनाम है कि शोषण और उत्पीडन की घटनाएँ बदती जा रही हैं.जब क्रिया होगी तो प्रतिक्रिया होगी ही.

शुद्द रहे व्यवहार नहीं,अच्छे आचार नहीं.
इसीलिए तो आज ,सुखी कोई परिवार नहीं.


समय का तकाजा है कि हम देश,समाज ,परिवार और विश्व को खुशहाल बनाने हेतु संयम पूर्वक धर्म का पालन करें.झूठ ,ढोंग-पाखंड की प्रवृत्ति को त्यागें और सब के भले में अपने भले को खोजें.

यदि करम खोटें हैं तो प्रभु के गुण गाने से क्या होगा?
किया न परहेज़ तो दवा खाने से क्या होगा?

आईये मिलकर संकल्प करें कि कोई किसी का शोषण न करे,किसी का उत्पीडन न हो,सब खुशहाल हों.फिर कोई दंतेवाडा सरीखी त्रासदी भी नहीं दोहराएगी.

Saturday 11 April 2015

वामपंथ की विफलता की विडम्बना --- विजय राजबली माथुर

प्रसिद्ध खगोल विज्ञानी और पर्यावरणविद व् संस्कृति कर्मी अमिताभ पांडे
"जब जब वैज्ञानिक चेतना मनुष्य के अस्तित्व को उसकी सीमाओं का अहसास कराएगी तब तब विज्ञान दर्शन और सामाजिक चेतना के लिए काम आएगा, ये दुनिया भौतिक कारणों से बनी और उन्ही से संचालित होती है और उसी तार्किक परिणति से अपने चरम पर पहुंचेगी इसमें न तो कोई परम सत्ता और ना हीं किसी दैवीय अस्तित्व की गुंजायश है. विज्ञान मनुष्यता के विकास में समाज के लिए तर्कपूर्ण नज़रिए का निर्माण करता है और यही नजरिया हमें सामाजिक सरोकारों से जोड़ता है " ये विचार प्रसिद्ध खगोल विज्ञानी और पर्यावरणविद व् संस्कृति कर्मी अमिताभ पांडे ने आज 6 अप्रैल को कामरेड महादेव नारायण टंडन स्मृति व्याख्यान माला की बारहवीं कड़ी में माथुर वैश्य सभागार आगरा में व्यक्त किया, ये व्याखानमाला प्रसिद्ध वाम चिन्तक और नेता एम् एन टंडन और डॉ. जितेन्द्र रघुवंशी जी को को समर्पित थी आज सभागार में डॉ रघुवंशी जी की कमी खली. सभी ने उनको याद करते हुए दो मिनट की मौन श्रधांजलि अर्पित की, कामरेड टंडन के सुपुत्र व शहर के प्रसिद्ध बाल रोग विशेषज्ञ डॉ जे एन टंडन ने उनको याद करते हुए कहा कि उनकी ऊर्जापूर्ण वाणी हम सभी को बहुत प्रेरणा देती थी अपने मौलिक व्यक्तिव्य के लिए उनको हमेशा याद किया जायेगा ये व्याख्यान उन्ही को समर्पित है! आज उनकी पत्नी श्रीमती भावना जितेन्द्र रघुवंशी भी मंच पर उपस्थित रहीं और उन्होंने बुद्धि और तर्क के सामाजिक उपयोग को एक कहानी द्वरा उद्दृत किया विभिन्न सवालों के उत्तर देते हुए डॉ अमिताभ पाण्डेय ने धर्म और सामाजिकता में उत्पन्न होती अवैज्ञानिक सोच पर चिंता जताई और उन शक्तियों से सावधान रहने को कहा जो धर्म और जातिवाद के नाम पर सामाजिक ताने बाने को छिन्न भिन्न करने में लगी हुयी है इस अवसर
पर  : 

(कामरेड रमेश मिश्र )

कामरेड रमेश मिश्र ,स्वतंत्रता सेनानी रानी सरोज गौरिहार, गाँधीवादी सर्वोदयी नेता श्री शशि शिरोमणि , नगर के कवि श्री सोम ठाकुर , इप्टा आगरा के निर्देशक दिलीप रघुवंशी के साथ मानस रघुवंशी, स्वर्णिमा रघुवंशी, स्वीटी अग्निहोत्री, विशाल रियाज़ अरुण सोलंकी, हरीश चिमटी, मनीष ,अर्पित ,रिषभ सहित शहर के सभी गणमान्य लोग मौजूद थे डॉ जे एन टंडन ने डॉ पाण्डेय का स्मृति चिन्ह कर सम्मान किया आभार रमेश मिश्र और संचालन डॉ. विजय शर्मा ने किया.
https://www.facebook.com/vijay.agra/posts/1070536759627179?pnref=story 
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*:"ये दुनिया भौतिक कारणों से बनी और उन्ही से संचालित होती है और उसी तार्किक परिणति से अपने चरम पर पहुंचेगी इसमें न तो कोई परम सत्ता और ना हीं किसी दैवीय अस्तित्व की गुंजायश है"
पांडे जी के इस कथन सरीखे वक्तव्य इस अवधारणा पर अवलंबित हैं कि शहीद क्रांतिकारी भगत सिंह ने भी महर्षि कार्ल मार्क्स की भांति ही धर्म की आलोचना की है। भगत सिंह जी को 24 वर्ष की अवस्था में फांसी दे दी गई थी फिर भी उनका अध्यन गहन था  और  मार्क्स द्वारा उपलब्ध  ज्ञान पर आधारित था। मार्क्स ने अपने समय के 'रोमन केथोलिक' व 'प्रोटेस्टेंट' के झगड़ों के आधार 'रिलीजन' को अफीम कहा था । भारत में रिलीजन=मजहब=संप्रदाय को धर्म संज्ञा दे दी गई है जो कि नितांत गलत है क्योंकि धर्म का यह अर्थ नहीं है। 
धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की 'धृत' धातु से हुई है जिसका अर्थ है 'धारण करना'अर्थात जो मानव शरीर व समाज को धारण करने हेतु आवश्यक है वही धर्म है और इसके विपरीत जो है वह अधर्म है।  
धर्म= सत्य, अहिंसा(मनसा-वाचा-कर्मणा ), अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य । 
भगवान= भ (भूमि-पृथ्वी ) + ग (गगन-आकाश ) + व (वायु-हवा ) +I (अनल-अग्नि ) + न (नीर-जल ) । 
खुदा= चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी ने बनाया नहीं है अतः ये ही खुदा हैं।  
GOD == और चूंकि इन तत्वों का कार्य : G(जेनरेट- उतपति) + O(आपरेट- पालन) + D(डेसट्राय- संहार) है अतः ये ही गाड हैं।
देवता= जो देता है और लेता नहीं है;जैसेअग्नि,वायु,आकाश,नदी,वृक्ष,समुद्र,तालाब आदि। 

लेकिन पांडे जी जैसे भौतिक विज्ञानी जब खुद ही जनता को विभ्रमित करने की अगुवाई करें तब तो पोंगा-पंडितों की पौ बारह होना ही है। 'एथीस्टवाद' के नाम पर वास्तविक धर्म की उपेक्षा करके अधर्म=ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म कहते रहना पोंगापंडितवाद को प्रोत्साहन देना ही है। सोवियत रूस में साम्यवाद  का पतन होने का कारण (जैसा कि कामरेड रमेश मिश्रा जी ने 2008 में ज़िला काउंसिल,आगरा की रिपोर्ट सम्मेलन हेतु बनाने के दौरान व्यक्तिगत तौर पर बताया था ) यह था कि वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी के पदाधिकारी व सरकारी अधिकारी जनता व कार्यकर्ताओं का शोषण करके अवैध रूप से धन संग्रह में तल्लीन थे तथा जनता त्रस्त थी। ये पदाधिकारी व अधिकारी ही आज के रूस के पूंजीपति हैं। यदि वास्तविक धर्म का पालन किया जाता तो अस्तेय= अवैध धन संग्रह का प्रश्न ही नहीं उठता परंतु भारत में अभी भी कम्युनिस्ट पदाधिकारी कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं और उसी ज़िद्द का नतीजा है मोदी नेतृत्व की फासिस्ट सरकार का सत्तारूढ़ होना। यदि अब भी जनता को जागरूक न किया गया तो विनाश का खतरा सिर पर ही नहीं मँडराता रहेगा बल्कि भारत के कई टुकड़े होते देर नहीं लगेगी जैसे की USSR को बिखरते देर नहीं लगी थी।
कुछ चेतनशील बुद्धिजीवी प्रयास तो कर रहे हैं लेकिन वे भी धर्म और नास्तिकता की उलट बानसियों में ही जकड़े होने के कारण जनता को प्रभावित करने में असमर्थ हैं।
 http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/issue/2015/04/07/

" बशर्ते कि विपरीत परिस्थितियों और बिखरी हुई कमजोर ताकत का रोना रोते हुये हम पहले ही हथियार न डाल दें" --- कात्यायनी जी का कथन तो सटीक है परंतु यदि हथियार उठाने या डालने के बजाए ऐसी शक्तियों के खेवनहार आपसी मनोरंजन में ही फंसे रहें तो? :
जब जिम्मेदार पदाधिकारी गण जन-सरोकारों और कार्यकर्ताओं की समस्याओं की ओर ध्यान न देकर आपसी रिश्ते निभाते रहें और इस ओर ध्यान ही न दें कि जिसके नेतृत्व में सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा बनाते रहे हैं वह खुद कितना बड़ा सांप्रदायिक है एवं मोदी सरकार के गठन के लिए उत्तरदाई है ? :
वैसे अभी भी समय हाथ से निकला नहीं है अब भी संभल जाएँ और वास्तविक धर्म के मर्म को समझ कर जनता को जागरूक करने निकल पड़ें तो जनता लुटेरे अधार्मिकों के चंगुल से निकल सकती है।

Saturday 4 April 2015

एक कम्युनिस्ट का आचरण साम्यवाद के मूल विचार के प्रचारक का होना चाहिए --- जे एस नरुका

"बड़ा सवाल !

एक कम्युनिस्ट की अपने दल विशेष प्रति वफादारी जरुरी है पर उसका आचरण मुख्य रूप से साम्यवाद के मूल विचार के प्रचारक का होना चाहिए जो समाज को बेहतर बना सकता है लोगों को एक बेहतर इंसान बना सकता है। पर आमतौर पर अधिकतर कम्युनिष्ट सैंकड़ो विभाजित दलों में से किसी एक के ही कट्टर प्रचारक होते हैं जो एक भक्त के से ही आचरण के प्रतीत होते हैं और जिस विचार से एक बेहतर इंसान निकलके आना चाहिए आश्चर्यजनक रूप से उसके विपरीत एक आत्ममुग्ध, जिद्दी, तुनकमिजाज, समाज से अलग सा दिखने वाला व्यक्तित्व ही एक कम्युनिष्ट नजर आता है..... न.रुका।"



 *हमारे उत्तर-प्रदेश के कर्णधार व उनके राष्ट्रीय आश्रयदाताओं के विचार :

 मार्क्सवाद /साम्यवाद को भारतीय संदर्भ में प्रस्तुत करना तो गलत घोषित हो गया किन्तु RSS/भाजपा, मोदी उसका विकल्प केजरीवाल एवं उसके फिल्मी प्रचारक का उल्लेख -'गुड वन' । क्या 69 प्रतिशत जनता इससे ही वामपंथ की झोली में आ जाएगी? जबकि प्रकाश करात साहब जो इस समय वामपंथ के भगवान बने हुये हैं  M=मार्क्स की जगह मुलायम तथा L= लेनिन की जगह लालू मानते हैं और ये दोनों पिछड़े के नाम पर मोदी के पीछे खड़े हैं। :
2014 के चुनावों में सपा ने भाजपा को समर्थन दिया था और बदले में उसे 2017 के चुनावों में भाजपा का उसी प्रकार अप्रत्यक्ष सहयोग मिलेगा जिस प्रकार 2015 में दिल्ली में आ आ पा को मिला है। लेकिन पार्टी के मुख-पत्रों ने केजरीवाल की जीत पर खुशी ज़ाहिर की थी, इसका क्या मतलब?

**उपरोक्त विचारों के संदर्भ में युवा कामरेड की उपरोक्त  पीड़ा भी विचारणीय है। साम्यवाद व वामपंथ के हितैषियों की सोच को जहां कर्णधार संघी सोच घोषित कर रहे हैं वहीं उनके विचार जन-मानस में क्या छवी बनाते हैं उसका आभास जोया अंसारी साहिबा की इस टिप्पणी से होता है कि " साम्यवाद को सर्वहारा को सौंपें " । 
वस्तुतः बक़ौल मनीषा पांडे जी ( इलाहाबाद के सी पी एम नेता की पुत्री तथा पत्रकार  ) कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता अपनी पत्नियों की कमाई पर नेतागिरी करते हैं और इस प्रकार महिलाओं के शोषण के लिए उत्तरदाई हैं । व्यवहार में मनीषा जी का कथन सही है। 
वरिष्ठ जागरूक पत्रकार पलाश विश्वास साहब कम्युनिस्ट कर्णधारों  की जनता से दूरी को देश के लिए घातक मानते हैं :
 http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/views/2015/03/23/
ऐसे लोग जन-जागरण वाले विचारों को 'एथीस्टवाद' के विरुद्ध बता कर अप्रत्यक्ष रूप से ढोंग-पाखंड-आडंबर को ही बढ़ावा देते हैं उसे 'ब्राहमणवाद' न कहा जाये तो क्या कहा जाये? राजद के युवा का मानना है कि 1991 से प्रारम्भ उदरवाद को रोकना संभव नहीं है।


तो क्या देश की जनता सशस्त्र क्रान्ति का साथ देगी? क्या सशस्त्र क्रान्ति के लिए समय उपयुक्त है और वह सफल हो सकेगी? 1857 का उदाहरण सामने है तभी तो गांधी जी को 'सत्य-अहिंसा' का सहारा लेना पड़ा था। आज मार्कन्डेय काटजू साहब की गांधी-विरोधी लेखनी व गोडसे के महिमा-मंडन के परिप्रेक्ष्य में नीतियाँ निर्धारित करके जनता को जागरूक करने की नितांत आवश्यकता है तभी 'संघ' के कुचक्र को नष्ट किया जा सकेगा। केवल और केवल 'आर्थिक-आंदोलन' जब तक कि 'सामाजिक-जाग्रति' न उत्पन्न हो कोई क्रान्ति नहीं कर सकता है।
----- विजय  राजबली माथुर
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Wednesday 1 April 2015

ब्राहमणवाद की गिरफ्त में फंसा है : भारत में मार्क्स वाद ----- रामेन्द्र जेनवार





क्रांति-योग पुस्तक (कॉमरेड स्व भोगेन्द्र झा के जीवन पर आधारित) स लेल ज्ञान-त्रयोंदश :

धारण करअ जगत के ,जन के तकरे धर्म कहल जइत छै !
जनहित धर्म ,अधर्म अहित जन , धर्म पाप बुझल जइत छै !! 1 !!

ने राजा-राज , ने जाती-पाति , ने धनिक-गरिबक बर्ग बिभेद !
तकरे आदिम साम्यवाद , सतयुग के स्वणि॔म नाम कहय छै !! 2 !!

धनुय॔ञ में धनुभ॔न्ग जे केलनि तिनके राम कहय छै !
लंका गढ पर चढि जे गर्जल, तिनके सब हनुमान कहय छै !! 3 !!

कुरुक्षेत्र के रणस्थलि में ज्ञान मंत्र देलक से गीता !
"फाटू धरती तार जाई" कहीं रानी पद त्यागल से सीता !! 4 !!

सीता वनवासक अपराधे बान्हल चारु भाई राम के !
वीर शिरोमणि , तै दुनु बालक के लव-कुश नाम कहय छै !! 5 !!

जाती-पाइति केर उंच-नीच केर मध्यम पथ समेट जे चलला !
“धम्मं , बुध्दं , संघं ,शरणं गच्छामि” के बुध्द कहय छै !! 6 !! 

ने राजा ने राज रहत से कहने माता-पिता जहल में !
गर्भ जन्म जहले में जिनकर तिनके सब श्री कृष्ण कहय छै !! 7 !!

सुईयक भूरे ऊँट निकलतइ तैयओ धनिक ने स्वर्ग-द्वार में !
कहइत-कहइत शूली चढला , तिनके ईश मशीह कहय छै !! 8 !!

एककों पाई सुदी जे लेतइ से ने मुसलमान भ सकतइ !
कहने मक्का भले छोड़लइन , रसूला मुहम्मद लोक कहय छै !! 9 !!

धिपल बालु कर्बला में जे वीर बह्ह्तइर नइ झूकला !
तै "चालीसी शहीद" सभक अगुआ के हुसैन इमाम कहय छै !! 10 !!

मजहब, जाति, अछूत-छूत , पूजा-नमाज के कात हटा !
सब मानव के एक बुझय जे , तकरे शंत कबीर कहय छै !! 11 !!

जे कमेंतइ से खेतइ , जे करत काज से कारत राज !
"दुनिया के मजदूर एक हो" उद्घोसक के मार्क्श कहय छै !! 12 !!


अस्त्र-शस्त्र के त्यागि , पकरलइन सत्यं-अहिंसा के हथियार !
स्वातंत्र समर के सेनापति गाँधी के अमर शहीद कहय छै !! 13 !!


---कॉमरेड स्व भोगेन्द्र झा

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=448457125329040&set=gm.286222328168154&type=1&theater 


ये भी पढ़े:
PATHANKOT Incident. 22.03.15.
This is another incident of VIP high handedness,this time they have not spared two serving Army officers & a retired Brigadier.
On the night of 20 Mar, around 2300h, Brig Arun Kaistha, (Reter) of 16 CAV with his wife, daughter, son in law Maj Raul Pallat & Son Maj Arjun Kaistha both serving officers posted at Mamun were returning from a family dinner outing at a restraunt in Pathankot when they accosted a car being driven rashly. On slowing down the erring driver Arjun who was driving the family car was abused and a verbal altercation ensued. The Brigadier got down and tried to calm down the situation but to no avail. The lady in the erring car suddenly started screaming and made calls to someone. Soon a mob gathered and berated the Army Officers of molesting and harasing the civilian couple. The mob was led by one Mr Sahni a BJP Municipal pradhan & the erring driver is some Bakshi. As things got worse a couple of policemen turned up and started to harass the hapless officers with their ladies cowering in the car.
Brigadier Kaistha requested the policemen to call a PCR. Though the call was made no one turned up for an agonising half an hour or so. All this while the crowd continued to heckle and abuse the trio. An ASI finally turned up, made arrangements for the ladies to leave and instructed the policemen to take the two Army Officers to the PS. Brigadier Kaistha, the two officers, two policemen accompanied by the municipal pradhan moved to the PS. The crowd followed raising Anti Army slogans at the behest of the politico.
In the meantime one of the tamasha watchers in the mob not connected with the incident collapsed and subsequently died of natural causes.
This was an opportunity for the politico to earn brownie points. He declared that the man died due to alter cation with the trio and immediately the police who till then were behaving amicably with the faujis turned hostile particularly the SHO. Immediately a charge under section 302 of IPC was levied against the serving officers and they were detained.
Approximately 48h later the officers continue to be detained.
No copy of the FIR has been made available
There is no sign of the PM report of the alleged case of death.
The body has since been cremated.
There is no sign of the concerned magistrate in front of whom they should have been produced within 24h.
Despite Best efforts by the HQ Western & Northern Commands, HQ 9 Corps & Sub Area Commander 21 Sub Area, the police is not relenting possibly at the behest of a light weight politico from the ruling alliance in Punjab.
Video grabs of the incident are reportedly available with reporters of "Dainik Jagran" & a local daily called "AAJ".
The SSP is apparently out of town and an SHO is holding the fort.
A case where a law abiding citizen more so an army officer only wanted to advise the erring individual of the hazards of rash driving specially in the congested roads of mofussil towns.
The officers are still in custody, the army has not been able to take over the case, the offrs are still languisging in the jail for the past 5 days without any solid evidence against them just on the basis of a false FIR by a politician ... This just shows that The citizens of this country would rather trust a corrupt Politician than the army . . .
Please spread the word around.
https://www.facebook.com/arvindrajswarup.cpi/posts/1602424679975664
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कामरेड भोगेंद्र झा साहब काफी समय मधुबनी, बिहार से  लोकसभा सदस्य रहे हैं उनकी रचना जो उनके व्यक्तित्व का दर्पण है  जनता का हृदय जीतने वाली है इसीलिए वह उसका प्रतिनिधित्व करने में सफल हो सके । लेकिन आज उत्तर-प्रदेश में पार्टी नेतृत्व के बारे में निवेदिता श्रीवास्तव जी का आंकलन सत्य का आईना है।   रामेन्द्र जेनवार साहब का कमेन्ट एक हकीकत है। राष्ट्रीय परिषद के लिए उत्तर-प्रदेश से प्रतिनिधित्व करने वालों में 50 प्रतिशत ब्राह्मण जाति के लोग हैं जिसका 66 प्रतिशत (कुल प्रदेशीय प्रतिनिधित्व का 33 प्रतिशत ) एक ही परिवार का है। कर्ण धारों की सोच कैसी है ?इसका एक उदाहरण उपरोक्त फेसबुक नोट व उस पर महाराष्ट्र के प्रबुद्ध कामरेड के कमेन्ट से स्पष्ट होता है। जनता व पार्टी कार्यकर्ताओं की अपेक्षा फिल्मी नायकों का चिंतन किया जाता है और  उस IAS अधिकारी  के लिए सड़क पर प्रदर्शन किया जाता है जो प्रदेश से केडर बदलवा कर चला जाता है। साफ है कि निकट भविष्य में पार्टी लोकप्रियता नहीं अर्जित करने जा रही है फिर कैसे सांप्रदायिकता का मुक़ाबला करेगी? सही सलाह को ठुकरा कर और चापलूसों को आगे बढ़ा कर जनता के बीच पैठ नहीं बनाई जा सकती है -यह एक कटु सत्य है। दलित व पिछड़ा वर्ग से काम तो लो परंतु उनको आगे न बढ्ने दो इस सोच से पार्टी का विस्तार कभी नहीं हो सकता है बल्कि निरंतर संकुचन होता जा रहा है। पूर्व में दो बार पार्टी में इसी कारण विभाजन हो चुके हैं तथा इस वर्ष इसी आधार पर नए आए लोग पार्टी छोड़ गए हैं। उनको मार्क्स वाद समझाने के बजाए उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। स्वार्थी तत्वों को बचाने के लिए सत्यावलंबियों को सतत दबाया जा रहा है। वामपंथ के हितैषियों द्वारा आगाह करने पर उनको संघी का खिताब दे देने से जनता पार्टी के पाले में कैसे खींची जा सकती है? कंवल भारती जी, लालाजी निर्मल और रामेन्द्र जेनवार साहब  ने सटीक सत्य की ओर ही इंगित किया है।

बजाए नेक सलाहों को मानने के यदि इसी प्रकार हितैषियों पर प्रहार जारी रहे तो साफ है कि ऐसा करने वाले दक्षिण पंथी अर्द्ध-सैनिक तानाशाही के लिए लगे लोगों की ही ख़्वाहिश पूरी करने जा रहे हैं जनता का भला करने या पार्टी को मजबूत करने नहीं।
--- विजय राजबली माथुर