Saturday 28 October 2017

शख्शियत : भूपेश गुप्त ------ रोशन सुचान



Roshan Suchan added 4 new photos — with Atul Anjaan.
45 mins

... जब इंदिरा गांधी फ़िरोज़ से शादी के सवाल पर नेहरू को नहीं मना पाईं तो कम्युनिस्ट नेता भूपेश गुप्त बने थे संदेशवाहक
60 -70 के दशक में संसद में सबसे ज़्यादा धाक वाले वक्ता थे CPI के भूपेश गुप्त . कभी शराब नहीं पी माओ और ख्रुशचेव ने बार बार शराब पीने का इसरार किया उनकी बात भी नहीं मानी 
शख्शियत : भूपेश गुप्त
इंदिरा गांधी, उनके होने वाले पति फ़िरोज़ गाँधी और भूपेश गुप्त ब्रिटेन से एक ही पानी के जहाज़ से भारत वापस लौटे थे. वो लन्दन में इकठ्ठे पढ़े थे "तीस के दशक से ही वो इंदिरा गाँधी से बहुत जुड़े हुए थे और उनके और फ़िरोज़ गाँधी के बीच संदेशवाहक का काम करते थे. लेकिन 1977 के बाद से वो उनके सख़्त ख़िलाफ़ हो गए थे, उसके बाद वो उनसे निजी तौर पर कभी नहीं मिले."
इंदिरा गांधी की नज़दीकी दोस्त पुपुल जयकर ने उनपर लिखी जीवनी में लिखा है, "जब इंदिरा गांधी फ़िरोज़ गाँधी से शादी के मुद्दे पर अपने पिता जवाहरलाल नेहरू को नहीं मना पाईं तो वो और फ़िरोज़, कम्युनिस्ट नेता और अपने बहुत अच्छे दोस्त भूपेश गुप्त के पास गए." "जब भूपेश ने ये सुना तो वो फ़िरोज़ की तरफ़ मुड़ कर बहुत गंभीरता से बोले बोले, 'क्या तुम वफ़ादार रह पाओगे?' फ़िरोज़ ज़ोर से हंसे और घुटनों के बल बैठ कर बोले, 'क्या तुम चाहते हो कि मैं वफ़ादारी का प्रण लूँ?' भूपेश गुप्ता ने फ़िरोज़ गांधी को कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि इंदिरा गांधी की तरफ़ मुड़ कर पूछा, 'क्या तुम वास्तव में फ़िरोज़ से शादी करना चाहती हो?' उनको पता था कि इंदिरा ज़िद्दी है और उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ जब इंदिरा ने कहा कि उनका यही इरादा है. भूपेश ने तब दोनों से कहा कि वो महात्मा गांधी से सलाह लें."
इंदिरा गांधी से इतनी निकटता होने के बावजूद उनकी दोस्ती कभी भी उनके राजनीतिक विचारों के आड़े नहीं आई. जब वक्त का तकाज़ा हुआ तो उन्होंने इंदिरा गाँधी पर राजनीतिक हमलों से परहेज़ नहीं किया.
अतुल कुमार अंजान बताते हैं, "इंदिरा गांधी के साथ उनके संबंध नीतियों के सवाल पर कठोर होते थे. मुझे लगता है कि लंदन के अध्ययन काल में दोनों के संबंधों के बीच बहुत जीवंतता और आत्मीयता थी. एक बार मैं उनके निवास स्थान से संसद भवन पैदल जा रहा था."
"अचानक उनके सामने एक एंबेसडर कार आ कर रुकी. शीशा उतार कर एक महिला बोल रही थी भूपेश... भूपेश. मैंने देखा वो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. उन्होंने अपनी कार का दरवाज़ा खोला और उनसे अपनी कार में बैठने का आग्रह करने लगीं. लेकिन भूपेश कार में बैठने में झिझक रहे थे. अंतत: वो कार में नहीं बैठे. जब मुझे लगा कि ये सिर्फ़ एक अद्वितीय सांसद और प्रधानमंत्री के बीच का मामला नहीं है, बल्कि यह बहुत गहरा आत्मीय संबंध है."
जब 1980 में अचानक इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गाँधी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हो गया, तो घोर राजनीतिक विरोधी होते हुए भी भूपेश गुप्त ने संजय गाँधी को जिस तरह की भावभीनी श्रंद्धांजलि दी, वैसी शायद किसी ने भी नहीं दी.
भूपेश गुप्त बोले, "कई मौके ऐसे आते हैं जब नियमों को ताक पर रख दिया जाता है. अगर नियमों को ताक पर नहीं रखा गया होता तो 23 जून को हुई दुर्घटना नहीं हुई होती, तो प्रधानमंत्री के बेटे, सत्ताधारी पार्टी के महासचिव और 25 सालों तक मेरे दोस्त रहे फ़िरोज़ गांधी के छोटे बेटे और अगर मुझ पर चापलूसी का इल्ज़ाम न लगाया जाए, तो मेरी दोस्त इंदिरा गांधी के बेटे के प्राण नहीं जाते. मैं बहुत भरे दिल से यह सब कह रहा हूँ."
साठ और सत्तर के दशक में भारतीय संसद में हीरेन मुखर्जी, नाथ पाई, ज्योतिर्मय बसु और अटल बिहारी वाजपेई के साथ साथ जिस वक्ता की सबसे ज़्यादा धाक होती थी वो थे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भूपेश गुप्त.
एक बार मशहूर रंगमंच आलोचक केनेथ टिनेन ने कहा था, "अंग्रेज़ कंजूसों की तरह लफ़्ज़ों की जमाखोरी करते हैं, जबकि आयरिश एक शराबी की तरह उन्हें बाहर निकाल देते हैं."
भूपेश गुप्त ने अपने जीवन में कभी शराब नहीं पी, लेकिन राज्यसभा में जब भी वो बोलने के लिए खड़े हुए, उनके मुंह से लफ़्ज एक आयरिश मैन की तरह ही निकले.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अतुल कुमार अंजान की भूपेश गुप्त से पहली मुलाकात जब हुई जब वो सिर्फ़ 16-17 साल के हुआ करते थे.
अंजान बताते हैं, "मैं आल इंडिया स्टूडेंट फ़ेडेरेशन के एक प्रदर्शन में दिल्ली आया था 1972 में. बोट क्लब पर हुए उस प्रदर्शन में मैंने भूपेश गुप्त को पहली बार बोलते हुए सुना. वहीं मैंने मधु लिमये, अमृतपद डाँगे और नाथ पाईजी को सुना. मैं इन सबसे प्रभावित हुआ. लेकिन सबसे अधिक प्रभावित हुआ भूपेश गुप्त की सिंहगर्जना से जिसको सुनने से हर्दय, शरीर और रोम में कंपन होता था."
अंजान आगे बताते हैं, "क्या शब्द थे उनके! क्या था उनका उच्चारण ! उस ज़माने में उतनी अंग्रेज़ी नहीं जानता था लेकिन तब भी लगता था कि वो हमारी ही बात कर रहे हैं.जब वो उठ कर जाने लगे तो मैं उनके पास जा कर खड़ा हो गया. उनसे बातचीत की. हाथ मिलाया. उन्होंने अंग्रेज़ी में पूछा कहाँ से? मैंने कहा लखनऊ से. ये मेरी उनकी पहली मुलाकात थी.''
बाद में तो अतुल अंजान का भूपेश गुप्त के साथ काफ़ी साथ रहा. जब भी वो लखनऊ से दिल्ली आते ते, उन्हीं के घर ठहरते थे. सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाते थे भूपेश गुप्त. तभी अख़बार वाला धड़ाप की आवाज़ के साथ अख़बार का बंडल फेंक जाता था.
दैनिक कार्य से निवृत्त होने के बाद वो चार बजे से अख़बार पढ़ना शुरू कर देते थे. पाँच बजे से वो राज्यसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए तैयारी शुरू कर देते थे. एक ही उंगली से अपने पुराने टाइप राइटर पर टाइप करना शुरू कर देते थे. साते साढ़े सात बजे तक उनका काम रोको प्रस्ताव और ज़ीरो आवर में कौन सा सवाल पूछेंगे- इन सब की तैयारी हो जाती थी.
आठ सवा आठ बजे राज्यसभा के सचिवालय में उनका प्रश्न पहुंच जाता था और ठीक दस बजे वो संसद पहुंच जाते थे. कुल मिला कर उन्होंने राज्यसभा में 1500 से 2000 के बीच भाषण दिए हैं.
जब भूपेश बोलते थे तो सभापति तक के बूते की बात नहीं होती थी कि वो उनके भाषण में व्यवधान डाले या उनसे कहे, "योर टाइम इज़ अप मिस्टर भूपेश गुप्त."
जब वो खड़े होते थे तो लोग अपनी कुर्सी से चिपक कर बैठ जाते थे. सुमित चक्रवर्ती मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक और जानेमाने पत्रकार निखिल चक्रवर्ती के बेटे हैं.
वो बताते हैं, "अबू अब्राहम ने एक बार लिखा था कि जब वो राज्यसभा में पहली बार एक सदस्य की हैसियत से घुसे तो उन्होंने देखा कि भूपेश गुप्त सदन में कोई मामला उठा रहे थे. उनका भाषण कुछ लंबा हो चला था. सभापति ने उनसे गुज़ारिश की कि मुद्दे पर आइए."
"भूपेश ने जवाब दिया मैं धीरे धीरे वही कर रहा हूँ. एक मोती से माला नहीं बन जाती. उनको एक एक कर पिरोने से ही माला बनती है. उनकी एक और अदा होती थी कि अपना भाषण देने के बाद वो अपना हियरिंग एड उतार देते थे. लोग मज़ाक में कहते थे कि वो ऐसा इसलिए करते थे ताकि उनके भाषण की आलोचना उनके कानों तक न पहुंच सके. एक बार नेहरू के भाषण के दौरान ही उन्होंने अपना हियरिंग एड उतार दिया था. जब नेहरू ने कहा था कि हम में से बहुतों को ये सौभाग्य नहीं प्राप्त है कि हम वो न सुनें जो हम सुनना नहीं चाहते."
हिरण्मय कार्लेकर हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रह चुके हैं. उन्होंने भूपेश गुप्त के राजनीतिक जीवन को बहुत नज़दीक से देखा है. वे बताते हैं, "अगर आपको उनसे बात करनी होती थी तो आपको बहुत ज़ोर से बोलना पड़ता था, क्योंकि वो ऊंचा सुनते थे. दूसरा वो खुले इंसान थे. जो कुछ कहना होता था साफ़ बोलते थे. तीसरे विवादास्पद बात करने में उन्हें बहुत मज़ा आता था. एक बात करके वो छोड़ देते थे और फिर देखते थे कि उसका उन लोगों पर क्या असर पड़ रहा है जिनके लिए वो बात कही गई थी."
भूपेश शराब को हाथ नहीं लगाते थे. सुमित चक्रवर्ती एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार नववर्ष के मौके पर एक महिला ने उनसे कहा कि आज तो कम से कम आप शैरी पी सकते हैं. भूपेश ने ज़ोर से ठहाका लगाते हुए कहा था कि तुम मुझसे वो काम करने के लिए कह रही हो जो मुझसे माओ त्से तुंग और निकिता ख्रुशचेव भी नहीं करवा पाए. उन्होंने कितनी बार मुझसे शराब पीने का इसरार किया लेकिन मैंने कभी उनकी बात नहीं मानी."
मेनस्ट्रीम के पूर्व संपादक निखिल चक्रवर्ती भूपेश गुप्त को उनके लंदन के दिनों से जानते थे. उनकी मौत के बाद उन्होंने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, "भूपेश संसदीय बहस के लिए बहुत तैयारी करते थे. वो अपने निजी सचिव खुद थे. उनका कमरा हमेशा बेतरतीब रहता था लेकिन वो मेज़ जिस पर वो काम करते थे, हमेशा साफ़ सुथरी होती थी."
"उस ज़माने में संसद में ध्यान आकर्षित करने के कई तरीके हुआ करते थे. एक था राजनारायण स्टाइल जहाँ आप मसखरापन कर सांसदों का ध्यान खींचते थे और दूसरा था संजय गांधी स्टाइल जहां आप ताक़त और ऊँची आवाज़ के ज़ोर पर अपनी बात मनवाते थे. भूपेश इन दोनों से अलग थे. उन्हें इसलिए सुना जाता था क्योंकि वो हमेशा नाइंसाफ़ी और असमानता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते थे."
भूपेश गुप्त की अकेली संपत्ति उनकी किताबें थी. उनके पास बहुत कम कपड़े होते थे. अगर कोई उन्हें कोई कपड़ा देता भी तो वो उसे किसी ज़रूरतमंद को बांट देते थे. कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व नेता मोहित सेन उनके बहुत करीबी थे.
उन्होंने अपनी आत्मकथा 'द ट्रैवलर एंड द रोड' में लिखा है, "जब वो मरे तो उनके बैंक अकाउंट में बहुत कम पैसे थे. उनके पास किताबों, नोटबुक्स और बहुत मामूली वार्डरोब के अलावा कुछ भी नहीं था. मुझे वो बहुत पसंद करते थे और अक्सर हम उनके फ़िरोज़ शाह रोड वाले घर से बंगाली मार्केट पैदल जाया करते थे जहाँ वो गोलगप्पे और मिठाइयां खाते थे."
1981 में जब भूपेश गुप्त का निधन हुआ और उनके पार्थिव शरीर को अजय भवन लाया गया, तो इंदिरा गांधी स्वयं उन्हें श्रद्धांजलि देने कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन पहुंची. उस समय अतुल अंजान भी अजय भवन में मौजूद थे. अतुल बताते हैं, "मैंने देखा कि इंदिरा जी आईं थी. एकदम श्वेत परिधान में थीं...एकदम सफ़ेद. काला चश्मा लगाए हुए थीं."
"जब वो भूपेश के पार्थिव शरीर के पास आईं तो बहुत देर तक खड़ी रहीं. उनका शरीर शीशे के कास्केड में रखा गया था, जिसमें उनका चेहरा दिखाई दे रहा था. वो अपनी लंबी गर्दन निकाल कर बहुत ग़ौर से भूपेश के चेहरे को देखती रहीं. मैं उनकी बगल में खड़ा था. मैंने देखा कि उनके काले चश्मे के नीचे से टप टप आँसू बह रहे थे."
साभार : 
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1664136456984528&id=100001645680180

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Friday 6 October 2017

क्या चीन समाजवादी रह गया है ? अथवा पूंजीवाद का बेलगाम और सफल नेता ? ------ किशन पटनायक

May 18, 2015 at 3:22pm
भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों की जायज आलोचना करने वाले मुख्यधारा के कम्युनिस्ट दल और भाकपा(माले-लिबरेशन) नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा पर महटिया कर पड़े हैं। इन दलों में से कुछ जो 'चीनेर चैरमैन - आमादेर चैरमैन' का नारा लगाते थे अब तक उस प्रतिबद्धता से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
यह छोटा नोट किशन पटनायक की पुस्तिका 'बातचीत के मुद्दे ' (१९९९) से लिया है। पुस्तिका भी पीडीएफ में उपलब्ध है - https://samatavadi.files.wordpress.com/2008/02/batcheet-ke-mudde.pdf
चीन में भारत की तुलना में बहुत ज्यादा विदेशी पूंजी का प्रवेश हो रहा है । चीन के एक निर्धारित इलाके में सघन रूप से पूंजीवादी विकास किया जा रहा है । वहाँ आधुनिक उद्योगों का विकास तीव्रता से हो रहा है । उसको देख कर चीन के औद्योगिक भविष्य के बारे में बहुत बड़ी उम्मीदें लगायी जा रही हैं ।
    चीन के भविष्य के बारे में सन्देह भी पैदा होता है ।संदेह की चर्चा करने के पहले यह समझना होगा कि चीन में पूंजीवादी विकास की सफलता के कारण क्या हैं ?
चीन जैसे विशाल देश का यह औद्योगिक इलाका एक छोटा अंश है । भारत के अनुभव से हम जानते हैं कि एक बड़े देश के छोटे इलाके को आधुनिक उद्योग के द्वारा संपन्न किया जा सकता है। एक बड़े इलाके को पिछड़ा रखकर छोटे हिस्से को समृद्ध करने के सिद्धान्त को ‘आंतरिक उपनिवेश’ का सिद्धान्त कहा जाता है । पिछड़ा अंश उपनिवेश जैसा ही होता है । इस बड़े इलाके में बेरोजगारी बढ़ती है और उद्योगहीनता भी फैलती है ।
विदेशी पूंजी पर चीन सरकार का नियंत्रण अभी भी है । पूंजी निवेश किस क्षेत्र में होगा , किन वस्तुओं के लिए होगा इनका निर्धारण चीन की साम्यवादी सरकार के नियंत्रण से होता है। यानि चीन के अनुशासन के तहत विदेशी पूंजी काम करती है।चीन विश्वव्यापार संगठन का सदस्य नहीं हुआ है ।इसलिए भारत में जिस प्रकार की खुली छूट विदेशी पूंजी को है , वैसी चीन में नहीं है।
    फिर भी कुछ नकारात्मक परिणाम दिखायी देने लगे हैं और चीन के नेतृत्व को चिंतित होना पड़ रहा है । चीन के देहातों में बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है । नयी शिक्षित युवा पीढ़ी में उपभोक्तावादी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं । चीन में राष्ट्रवादी भावना अटूट है । विदेशी पूंजी से खतरा दिखाई देगा तो राष्ट्रवादी भावना विदेशी पूंजी के खिलाफ भी हो सकती है । इसलिए पूंजीवादी शक्तियाँ चीन को बहुत सारी रियायतें दे रही हैं । जब वे देखेंगी कि चीन में पूंजीवाद जड़ जमा चुका है और चीन का मध्यम वर्ग उपभोक्तावाद को छोड़ नहीं पाएगा तब वे चीन की प्रगति को रोकेंगे ; चीन में उनका साम्राज्यवादी शोषण तेज हो जाएगा । यह संभावना इसलिए दिखती है कि पूर्व एशिया के कई देशों के साथ हाल में ऐसा हुआ है ।
    दूसरे विश्व युद्ध के बाद न सिर्फ सोवियत रूस मजबूत हुआ , बल्कि चीन में भी साम्यवाद की स्थापना हो गयी और समूचे पूर्व एशिया में साम्यवाद के फैलने के डर से पश्चिम के पूंजीवादी देश त्रस्त हो गये । इसलिए जहाँ भी पूंजीवाद बच पाया , वहाँ पूंजीवाद को लोकप्रिय बनाने के लिए वहाँ के पूंजीवाद को नाना प्रकार की रियायतें वे देने लगे । उन देशों के जनसाधारण के सामान्य जीवन को बेहतर बनाने के लिए सलाह और आर्थिक सहयोग देने लगे । युद्ध में जापान की शत्रुता को भूलकर अमेरिका ने उसको सहयोग दिया ।इसी कारण जापान अभूतपूर्व ढंग से विकसित हुआ । दक्षिण कोरिया , हांगकांग , सिंगापुर , ताइवान , मलेशिया ,थाइलैंड आदि का किस्सा भी इसी तरह का था । १९९० में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप से साम्यवाद का पराभव हो गया । चीन में भी पूंजीवादी नीतियाँ प्रचलित होने लगीं । तब जाकर साम्यवाद का भय पश्चिम के दिमाग से हटा ।उसके बाद पूर्वी एशिया के देशों को जो सहयोग मिलता था उसका अंत हुआ ।पश्चिम के कुछ पूंजीवादी केन्द्रों से साजिश की गयी थी कि एशिया के देशों के आर्थिक विकास को रोका जाए और उनकी अर्थव्यवस्था में यूरोप अमेरिका की बड़ी कंपनियों का आधिपत्य हो। इसी साजिश के तहत इन देशों में वित्तीय संकट पैदा किया गया। संकट से उबरने के लिए इन देशों को मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा । तब मुद्राकोष उन पर अपनी शर्तें लगा रहा है । इन शर्तों का पालन होने पर जापान छोड़कर बाकी एशियाई देशों में यूरोप अमेरिका की कंपनियों का वर्चस्व बढ़ जाएगा ।
    क्या चीन के साथ भी वैसी साजिश होगी ? इसका उत्तर आसान नहीं है ।चीन के लिए सन्तोष का भी कोई कारण नहीं है ।

साभार : 

https://www.facebook.com/notes/aflatoon-afloo

Wednesday 4 October 2017

प्रगतिशील भ्रम और केजरीवाल ------ विजय राजबली माथुर

दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से स्तीफ़ा देकर बनारस में मोदी के विरुद्ध चुनाव लड़ने का उद्देश्य 2014 में सिर्फ यह था कि, मोदी विरोधी वोटों को केजरीवाल समेट लें और मोदी को आसान जीत दिला दें। ऐसा करके बदले में दिल्ली चुनावों में आर एस एस के प्रचंड समर्थन से  भाजपा को हराकर केजरीवाल पुनः मुख्यमंत्री बन गए। ................................................................................................................................................

 आर एस एस सत्ता पक्ष भाजपा के माध्यम से कब्जा चुका है अब विरोध पक्ष को आ आ पा के माध्यम से कबजाना चाहता है। परंतु 
दुखद तथ्य यह है कि, प्रगतिशील माने जाने वाले विद्वान और दल केजरीवाल और उनके AAP को मोदी / भाजपा विरोधी मानते हुये जनता को गुमराह कर रहे हैं। 
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 हज़ारे को अगुआ बना कर अरविंद केजरीवाल एक लंबे समय से शोषकों -उतपीडकों का बचाव करने हेतु भ्रष्टाचार का राग आलापते  रहे है। पढे-लिखे मूरखों को अपना पिछलग्गू बनाने मे मिली कामयाबी के आधार पर वह फूले नहीं समा रहे हैं और जोश मे होश खो बैठे हैं। उन्होने अपने विभाग से हड़पे नौ लाख रुपए प्रधानमंत्री कार्यालय को लौटाए थे जो उनकी और तत्कालीन  प्रधानमंत्री  की अंतरंगता का ज्वलंत प्रतीक है। हज़ारे  साहब को निजी अस्पताल मे पी एम साहब ने पुष्प गुच्छ भिजवा कर उनके आंदोलन को अपना मूक समर्थन प्रदान किया था।

हज़ारे आंदोलन को कांग्रेस के मनमोहन गुट/आर एस एस/देशी-विदेशी NGOs का भरपूर समर्थन था । रामदेव का आंदोलन  केवल आर एस एस /विदेशी समर्थन पर आधारित था। इसीलिए  रामदेव के आंदोलन पर हज़ारे आंदोलन  बढ़त कायम कर सका। परंतु दोनों का उद्देश्य एक ही था भारत मे संसदीय लोकतन्त्र को नष्ट करके 'अर्द्ध सैनिक तानाशाही' स्थापित करना।

1974 मे चिम्मन भाई पटेल की गुजरात सरकार के भ्रष्टाचार के विरोध मे लोकनायक जय प्रकाश नारायण के आंदोलन मे पहली बार नानाजी देशमुख की अगुआई मे आर एस एस ने घुसपैठ की थी और अपार सफलता प्राप्त  थी।1977 की जनता पार्टी सरकार मे अटल बिहारी बाजपाई ने विदेश विभाग मे तथा एल के आडवाणी ने सूचना एवं प्रसारण विभाग मे आर एस एस के लोगो की घुसपैठ करा दी थी। 1980 मे आर एस एस के सहयोग से इंदिरा गांधी की कांग्रेस पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सकी थी। यह आर एस एस की बहुत बड़ी उपलब्धि थी। वी पी सिंह के 'बोफोर्स कमीशन विरोधी आंदोलन' मे घुस कर आर एस एस ने संतुलंनकारी भूमिका निभा कर अपनी शक्ति मे अपार वृद्धि कर ली थी और 'राम मंदिर आंदोलन' की आड़ मे पिछड़े वर्ग के हित मे लागू 'मण्डल कमीशन' रिपोर्ट की धज्जिये उड़ा दी थी। देश को साम्राज्यवादियों के अस्त्र 'सांप्रदायिकता' से दंगो मे फंसा कर अपार जन-धन की क्षति की गई थी।

1998  -2004 के राजग शासन काल मे गृह मंत्रालय और विशेष कर खुफिया विभागो मे आर एस एस की ज़बरदस्त पैठ बना दी गई। इनही तत्वो ने रामदेव को सहानुभूति दिलाने हेतु राम लीला मैदान कांड अंजाम दिलाया। लेकिन रामदेव की मूर्खताओ के कारण जनता मे उनकी कलई खुल गई। अतः  हज़ारे को आगे खड़ा किया गया। जो कुछ हुआ और हो रहा है सब की आँखों के सामने है। जो लोग व्यापारियों,उद्योगपतियों,ब्यूक्रेट्स के शोषण -उत्पीड़न को ढकने हेतु भ्रष्टाचार का जाप कर रहे थे और जनता को उल्टा भड़का रहे थे उनके मास्टर माइंड हीरो अरविंद केजरीवाल 'मतदान' ही नहीं करना चाहते थे और वह मतदाता तक न बने थे जो उनके 'लोकतन्त्र विरोधी' होने और 'तानाशाही समर्थक' होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। 

तत्कालीन  मनमोहन सरकार के वरिष्ठ मंत्री वीरप्पा मोइली ने खुलासा किया था  कि मनमोहन सिंह ने हड़बड़ी मे 'उदारवाद' अर्थात आर्थिक सुधार लागू किए थे जिनसे 'भ्रष्टाचार' मे अपार वृद्धि हुई है। 

तो यह वजह है कि मनमोहन सिंह जी ने आर एस एस को ताकत पहुंचाने हेतु  हज़ारे के आंदोलन को बल प्रदान किया था। सिर्फ और सिर्फ तानाशाही ही भ्रष्टाचार को अनंत काल तक संरक्षण प्रदान कर सकती है और इसी लिए इन आंदोलनकारियों ने लोकतान्त्रिक मूल्यों को नष्ट करने का बीड़ा उठा रखा है। राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति नफरत भर कर ये लोग जनता को लोकतन्त्र से दूर करना चाहते हैं।
दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से स्तीफ़ा देकर बनारस में मोदी के विरुद्ध चुनाव लड़ने का उद्देश्य 2014 में सिर्फ यह था कि, मोदी विरोधी वोटों को केजरीवाल समेट लें और मोदी को आसान जीत दिला दें। ऐसा करके बदले में दिल्ली चुनावों में आर एस एस के प्रचंड समर्थन से  भाजपा को हराकर केजरीवाल पुनः मुख्यमंत्री बन गए। 
आगामी चुनावों में भाजपा की मदद के लिए केजरीवाल आ आ पा को गुजरात, मध्य प्रदेश, हिमाचल,राजस्थान सभी जगह चुनाव लड़ाएँगे जिससे भाजपा विरोधी वोट बाँट कर उसे आसान जीत उपलब्ध करवा  सकें। आर एस एस सत्ता पक्ष भाजपा के माध्यम से कब्जा चुका है अब विरोध पक्ष को आ आ पा के माध्यम से कबजाना चाहता है। परंतु 
दुखद तथ्य यह है कि, प्रगतिशील माने जाने वाले विद्वान और दल केजरीवाल और उनके AAP को मोदी / भाजपा विरोधी मानते हुये जनता को गुमराह कर रहे हैं। 


Monday 2 October 2017

वैदिक मत में साम्यवाद - कम्यूनिस्ट अवधारणा सहजता से देखी जा सकती है ------ विजय राजबली माथुर

भारतीय कम्यूनिस्टों को जनता के समक्ष जाना चाहिए तभी अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति और जनता का शोषण समाप्त किया जा सकता है.दरअसल भारतीय वांग्मय में ही कम्यूनिज्म सफल हो सकता है ,यूरोपीय वांग्मय में इसकी विफलता का कारण भी लागू करने की गलत पद्धतियाँ ही थीं.सम्पूर्ण वैदिक मत और हमारे अर्वाचीन पूर्वजों के इतिहास में कम्यूनिस्ट अवधारणा सहजता से देखी जा सकती है -हमें उसी का आश्रय लेना होगा तभी हम सफल हो सकते हैं - भविष्य तो उज्जवल है बस उसे सही ढंग से कहने की जरूरत भर है. 






वस्तुतः भारत में कम्यूनिज़्म को जातिवाद की समस्या पर ध्यान न देते हुये और रूसी नेताओं की सलाह को भी ठुकराते हुये केवल आर्थिक आधार पर वर्ग - संघर्ष की अवधारणा को साकार करने का राग अलापते हुये एक दक़ियानूसी ढंग से लागू करने की कोशिशें हुईं और समय की नज़ाकत तथा जनता की नब्ज़ को पहचानने की कोई ज़रूरत नहीं समझी गई जिसका दुष्परिणाम है जनता का सहयोग न प्राप्त कर पाना। कामरेड सुभाषिणी भी सच बोलने के नाम पर सच छिपाती रहीं। 1964 में CPI का विभाजन कर CPM के गठन का कारण पार्टी को ब्राह्मण वादी नेतृत्व में उलझाए रखना था। इसी कारण फिर 1967 में CPM का भी विभाजन हुआ और आज तो केले के तने की भांति अनेकानेक कम्युनिस्ट दल हैं और लगभग सभी का नेतृत्व ब्राह्मणों या ब्राह्मण वादियों के हाथों में है जो चाहते हैं कि, obc व sc कामरेड्स से काम तो लिया जाये लेकिन उनको पद न दिये जाएँ। इसी कारण तमाम कामरेड्स सपा और बसपा, राजद,जद(यू ) आदि में चले गए जिससे कम्युनिस्ट पार्टियों का संगठन कमजोर होता रहा लेकिन इनका नेतृत्व इसलिए आत्म - मुग्ध रहा कि, नेतृत्व ब्राह्मण वाद के अधीन रहा। शीर्ष कम्युनिस्ट नेतृत्व खुद में सांप्रदायिक मनोवृत्ति का होने के कारण जातिवाद के उन्मूलन अथवा obc / sc कामरेड्स के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करना चाहता जिस कारण साधारण जनता को जागरूक भी नहीं करता और वह भटक कर सांप्रदायिक / पूंजीवादी दलों को मजबूत कर देती है जो कारपोरेट घरानों के भले की योजनाएँ बनाते हैं, जन - कल्याण कारी नहीं। 
रूस में साम्यवाद के पतन का कारण भी गलत ढंग से लागू किया जाना था और चीन में तो आज साम्यवाद के नाम पर State capitalism ही चल रहा है।  
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Ashwani Srivastava
पिछले तीन दिन से मास्को शहर घूम रहा हूँ । पर मेरा जो विशेष मक़सद था वह है यहाँ रूस के साम्यवाद को समझना , साम्यवाद के पतन के कारणों को समझना । मैने जो कुछ भी समझा , उसे आपसे साझा करने की शुरुआत कर रहा हूँ । किश्त जारी रहेगी - 
आदमी की बेसिक आवश्यकता होती है रोटी कपड़ा और मकान । सोवियत संघ की साम्यवादी सरकार ने इसकी ब्यवस्था की । 1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन सत्ता में आये । उसने सोवियत संघ में ज़बरदस्त औद्योगीकरण करवाया और केंद्रीय आर्थिक व्यवस्था बनाई। कृषि और अन्य व्यवसायों का सामूहिकीकरण किया गया, यानि खेत किसानों की निजी संपत्ति न होकर राष्ट्र की संपत्ति हो गए । सन ८२ में जे एन यू से रूसी भाषा पढ़ने आये रामेश्वर सिंह , जो आजकल हिंदी रूसी भाषा मैत्री संघ के अध्यक्ष भी है , बताते है कि उस समय सबके पास मकान थे , स्टोर से हम लोग कपड़े ले आते थे , लगभग ९० रूबल स्टाइपेंट भी मिलता था जो महीने भर ठीक ठाक खाने पीने के लिये पर्याप्त था । लगता था कि साम्यवादी सरकार से बेहतर कुछ है ही नहीं । यही बात हमारे मेज़बान पप्पू जी भी बताते है । बताते है कि ९० रूबल से लेकर १५० रूबल तक ज्यादातर लोगो को स्टाइपेंट मिलता था । बचपन से ही किसे क्या पढ़ना है , तय कर दिया जाता था और विद्यार्थियों को किसी फैक्ट्री से सम्बद्ध कर दिया जाता था जो उसकी पढाई का बोझ उठाने लगता था । लोग खुस थे , मस्त थे । जरूरत के मुताबिक़ सबको मकान मिला था । सभी को स्टोर से कपड़े मिलते थे । सामूहिक खेती होती थी , उत्पादन होते थे । सोवियत रूस दुनिया की एक ताकत थी । सोवियत रूस के पास इतनी सम्पन्नता तो थी ही कि वह दुनिया में अपने खेमे के तमाम देशों की मदद करते हुये , उन्हे कड़े पहरे में रखने मे सफल था । शीत युद्ध के दौरान अमेरिका से प्रतिस्पर्धा चली जिसमें सामरिक, आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी क्षेत्रों में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ थी।गुटनिरपेक्ष भारत मे भी ज्यादातर भारी उद्योग सोवियत रूस ने लगवाये थे । अंतरिक्ष में अमेरिका से आगे पहुँचे थे । भारी उद्योग लगाने में, मिसाइले , लड़ाकू जहाज़ , टैंक आदि बनाने में बहुत माहिर हो गये थे । एक तरह से बहुत आत्मसंतुष्ठ थे रूसी । भारत से दोस्ती परवान पर चढ़ी थी । ७१ मे बंगलादेश को स्वतंत्र कराने मे सोवियत रूस की भूमिका भी बहुत सराहनीय थी । हां सोवियत रूस कड़े पहरे ( iron curtains) मे था । बाहरी दुनिया के लोगो को सामंती दृष्टिकोण वाला मानते हुये शंका की दृष्टि से देखा जाता था और यह भी कहीं ये लोग सोवियत रूस के लोगो को बरगला न दे ।
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Saturday, May 14, 2011
भारत में कम्युनिज्म कैसे कामयाब हो ?
वैदिक मत के अनुसार मानव कौन ?

त्याग-तपस्या से पवित्र -परिपुष्ट हुआ जिसका 'तन'है,
भद्र भावना-भरा स्नेह-संयुक्त शुद्ध जिसका 'मन'है.
होता व्यय नित-प्रति पर -हित में,जिसका शुची संचित 'धन'है,
वही श्रेष्ठ -सच्चा 'मानव'है,धन्य उसी का 'जीवन' है.


इसी को आधार मान कर महर्षि कार्ल मार्क्स द्वारा  साम्यवाद का वह सिद्धान्त प्रतिपादित  किया गया जिसमें मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करने का मन्त्र बताया गया है. वस्तुतः मैक्स मूलर सा : हमारे देश से जो संस्कृत की मूल -पांडुलिपियाँ ले गए थे और उनके जर्मन अनुवाद में जिनका जिक्र था महर्षि कार्ल मार्क्स ने उनके गहन अध्ययन से जो निष्कर्ष निकाले थे उन्हें 'दास कैपिटल' में लिपिबद्ध किया था और यही ग्रन्थ सम्पूर्ण विश्व में कम्यूनिज्म  का आधिकारिक स्त्रोत है.स्वंय मार्क्स महोदय ने इन सिद्धांतों को देश-काल-परिस्थिति के अनुसार लागू करने की बात कही है ;परन्तु दुर्भाग्य से हमारे देश में इन्हें लागू करते समय इस देश की परिस्थितियों को नजर-अंदाज कर दिया गया जिसका यह दुष्परिणाम है कि हमारे देश में कम्यूनिज्म को विदेशी अवधारणा मान कर उसके सम्बन्ध में दुष्प्रचार किया गया और धर्म-भीरु जनता के बीच इसे धर्म-विरोधी सिद्ध किया जाता है.जबकि धर्म के तथा-कथित ठेकेदार खुद ही अधार्मिक हैं परन्तु हमारे कम्यूनिस्ट साथी इस बात को कहते एवं बताते नहीं हैं.नतीजतन जनता गुमराह होती एवं भटकती रहती है तथा अधार्मिक एवं शोषक-उत्पीडक लोग कामयाब हो जाते हैं.आजादी के ६३( अब 2017 में 70 ) वर्ष एवं कम्यूनिस्ट आंदोलन की स्थापना के ८६ (अब 2017 में 92 ) वर्ष बाद भी सही एवं वास्तविक स्थिति जनता के समक्ष न आ सकी है.मैंने अपने  ब्लॉग 'क्रान्तिस्वर' के माध्यम से ढोंग,पाखण्ड एवं अधार्मिकता का पर्दाफ़ाश  करने का अभियान चला रखा है जिस पर आर.एस.एस.से सम्बंधित लोग तीखा प्रहार करते हैं परन्तु एक भी बामपंथी या कम्यूनिस्ट साथी ने उसका समर्थन करना अपना कर्तव्य नहीं समझा है.'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता '  परन्तु कवीन्द्र रवीन्द्र के 'एक्ला चलो रे ' के तहत मैं लगातार लोगों के समक्ष सच्चाई लाने का प्रयास कर रहा हूँ -'दंतेवाडा त्रासदी समाधान क्या है?','क्रांतिकारी राम','रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना','सीता का विद्रोह','सीता की कूटनीति का कमाल','सर्वे भवन्तु सुखिनः','पं.बंगाल के बंधुओं से एक बे पर की उड़ान','समाजवाद और वैदिक मत','पूजा क्या?क्यों?कैसे?','प्रलय की भविष्यवाणी झूठी है -यह दुनिया अनूठी है' ,समाजवाद और महर्षि कार्लमार्क्स,१८५७ की प्रथम क्रान्ति आदि अनेक लेख मैंने वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित अभिमत के अनुसार प्रस्तुत किये हैं जो संतों एवं अनुभवी विद्वानों के वचनों पर आधारित हैं.

मेरा विचार है कि अब समय आ गया है जब भारतीय कम्यूनिस्टों को भारतीय सन्दर्भों के साथ जनता के समक्ष आना चाहिए और बताना चाहिए कि धर्म वह नहीं है जिसमें जनता को उलझा कर उसका शोषण पुख्ता किया जाता है बल्कि वास्तविक धर्म वह है जो वैदिक मतानुसार जीवन-यापन के वही सिद्धांत बताता है जो कम्यूनिज्म का मूलाधार हैं.कविवर नन्द लाल जी यही कहते हैं :-

जिस नर में आत्मिक शक्ति है ,वह शीश झुकाना क्या जाने?
जिस दिल में ईश्वर भक्ति है वह पाप कमाना क्या जाने?
माँ -बाप की सेवा करते हैं ,उनके दुखों को हरते हैं.
वह मथुरा,काशी,हरिद्वार,वृन्दावन जाना क्या जाने?
दो काल करें संध्या व हवन,नित सत्संग में जो जाते हैं.
भगवान् का है विशवास जिन्हें दुःख में घबराना क्या जानें?
जो खेला है तलवारों से और अग्नि के अंगारों से .
रण- भूमि में पीछे जा के वह कदम हटाना क्या जानें?
हो कर्मवीर और धर्मवीर वेदों का पढने वाला हो .
वह निर्बल दुखिया बच्चों पर तलवार चलाना क्या जाने?
मन मंदिर में भगवान् बसा जो उसकी पूजा करता है.
मंदिर के देवता पर जाकर वह फूल चढ़ाना क्या जानें?
जिसका अच्छा आचार नहीं और धर्म से जिसको प्यार नहीं.
जिसका सच्चा व्यवहार नहीं 'नन्दलाल' का गाना क्या जानें?


संत कबीर आदि दयानंद सरस्वती,विवेकानंद आदि महा पुरुषों ने धर्म की विकृतियों तथा पाखंड का जो पर्दाफ़ाश किया है उनका सहारा लेकर भारतीय कम्यूनिस्टों को जनता के समक्ष जाना चाहिए तभी अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति और जनता का शोषण समाप्त किया जा सकता है.दरअसल भारतीय वांग्मय में ही कम्यूनिज्म सफल हो सकता है ,यूरोपीय वांग्मय में इसकी विफलता का कारण भी लागू करने की गलत पद्धतियाँ ही थीं.सम्पूर्ण वैदिक मत और हमारे अर्वाचीन पूर्वजों के इतिहास में कम्यूनिस्ट अवधारणा सहजता से देखी जा सकती है -हमें उसी का आश्रय लेना होगा तभी हम सफल हो सकते हैं - भविष्य तो उज्जवल है बस उसे सही ढंग से कहने की जरूरत भर है. 

http://krantiswar.blogspot.in/2011/05/blog-post_14.html


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