Thursday 30 April 2020

घर वापसी के आईने में- सरकार और उसके निर्णय ------ डा॰ गिरीश




आपरेशन पहले  एनेस्थिया बाद में :  आखिर प्रवासी मजदूरों, छात्रों और जहां तहां फंसे तीर्थ यात्रियों की घर वापसी का फैसला सरकार द्वारा ले लिया गया जिसका बेसब्री से इंतज़ार किया जा रहा था। दिग्भ्रमित शासन ने जो कदम अब उठाया है वह 40 दिन पहले उठाया जाना चाहिये था। पर यह सरकार आपरेशन पहले करती है एनेस्थिया बाद में देती है। इससे मरीज का जो हाल होना है, आसानी से समझा जा सकता है। नोटबंदी सहित सरकार के इसी तरह के कई फैसले अवाम के लिये बेहद पीड़ा दायक रहे हैं, ये आज सभी जानते हैं।

ऐसा नहीं है कि यह बात आज पहली बार कही जा रही है। ऐसे लोगों की कमी न थी जो पहले ही दिन से बिना तैयारी के किये गये लाक डाउन की आलोचना कर रहे थे। खासतौर से इसलिये कि अचानक और पूर्व तैयारी के लिये गये इस तुगलकी निर्णय ने करोड़ों- करोड़ मेहनतकशों, उनके परिवार और रिशतेदारों, लाखों प्रवासी छात्रों और असंख्य पर्यटकों/ श्रध्दालुओं को पलक झपकते ही जीवन के सबसे बड़े संकट में डाल दिया था।

कोई शायद ही भूला हो कि चीन के बुहान से उद्भूत कोविड- 19 ने जनवरी के अंत तक यूरोप अमेरिका और अन्य अनेक देशों में दस्तक दे दी थी। भारत में भी यह फरबरी के शुरू में ही प्रकट हो चुका था। लेकिन यह भी कोई शायद ही भूला हो कि जिस वक्त कोरोना भारत में अपने कदम बड़ा रहा था, भारत के मगरूर शासक श्री ट्रंप की मेहमाननवाजी में जुटे थे जो खुद अपने देश की जनता को कोरोना के हाथों मरता छोड़ भारत में घूम रहे थे। कोरोना से निपटने की तैयारी करने के वक्त हमारे शासक मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार  को अपदस्थ करने में जुटे थे। अल्पसंख्यकों से सीएए- एनपीआर- एनआरसी विरोधी आंदोलन का बदला चुकाने को दिल्ली के दंगों में हाथ आज़मा रहे थे।
खुली जेलों में बंद प्रवासी मजदूर :  यह तब भी मालूम था और आज भी कि कोविड- 2019 का आयात हवा- पानी से नहीं अपितु विदेशों से लौट रहे कुलीन वर्ग के माध्यम से हो रहा है। लेकिन तब यह सरकार क्यों नहीं चेती और क्यों विदेशों से लौट रहे संप्रभुओं को क्वारंटाइन नहीं किया, यह आज कोई अबूझ पहेली नहीं है। लोग व्योम मार्ग से आते रहे, लाये जाते रहे है और मामूली खाना- पूरी करके घरों को भेजे जाते रहे। इनमें से अधिकतर उद्योगपति, व्यापारी, डाक्टर्स, इंजीनियर्स और अधिकारी थे। अगले ही दिन से ही ये महानुभाव अपने कार्यस्थलों पर सक्रिय होगये और बड़े पैमाने पर वायरस को इन्हीं ने फैलाया। याद करिये कि लाक डाउन लागू होने के प्रारंभ के तीन दिनों तक तबलीगी जमात कोई मुद्दा नहीं था। सोची समझी रणनीति के तहत यह मुद्दा तब उछाला गया जब खुली जेलों में बंद प्रवासी मजदूर सड़कों पर उतर आए।

फरवरी के प्रारंभ में जिस तरह से विदेशों में फंसे कुलीनों को घर पहुंचाने की तत्परता दिखाई गयी, ऐसी ही तत्परता इस मामले में भी दिखाई गयी होती तो मजदूरों कर्मचारियों, छात्रों, पर्यटकों और जहां तहां फंसे अन्य लोगों की यह दर्दनाक दशा न होती। स्पेशल ट्रेन चला कर बसों के द्वारा अथवा अन्य साधनों से उन्हें फरबरी के मध्य तक घरों को भेजा जा सकता था। हम बार बार कहते आए हैं कि उन्हें उनके घर पहुंचने पर क्वारंटाइन किया जा सकता था। इससे प्रवास में फंसे करोड़ों प्रवासी अंडमान जेल जैसे काले पानी की सजा से बच जाते। उनके परिवारी भी उस यातना से बच जाते जो उन्होने संकट की इस घड़ी में अपनों के बिना और अर्थभाव में झेली है।
भूख, भय, उपेक्षा, यातना और कैद :  बंबई, हैदराबाद, सूरत, चेन्नई, दिल्ली, नोएडा, बनारस, हरिद्वार और देश के कोने कोने में फंसे प्रवासीजन भूख, भय, उपेक्षा, यातना और कैद की जिन्दगी जीने को अभिशप्त थे। जब भी वे यातनाओं की जंजीरों को तोड़ कर सड़कों पर उतरे उन्हें लाठियों से पीटा गया, खदेड़ा गया और जेलों में डाल दिया गया। उसके बावजूद उनमें से अनेक- स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग पैदल, साइकिल, रिक्शों से हजारों किलो मीटर की दूरी पार कर घरों को निकल लिये। उनमें से अनेक ने भूख, प्यास और बीमारी के चलते घर पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया। असंख्य थे जिन्हें राज्यों की सीमाओं पर रोक दिया गया। अथवा जहां पुलिस के हत्थे चढ़े , बीच मार्ग में क्वारंटाइन कर दिया गया। लग ही नहीं रहा था कि वे इसी देश के वही मजदूर हैं जो इस देश के लिये दौलत पैदा करते हैं और उनकी दुर्गति बनाने वाली सरकार वही है जिसे बनाने को उन्होने भी मतदान किया है।

इस बीच हरिद्वार से गुजराती पर्यटकों, वाराणसी से दक्षिण भारतीय पर्यटकों और कोटा से छात्रों को घर पहुंचाने की खबरें गरीब और साधारण प्रवासियों को उनकी बेबसी की याद दिलाती रहीं। अनेक थे जो अलग अलग कारणो से प्रवास में फंसे थे। झारखंड से आयी एक बारात पूरे एक माह तक अलीगढ़ जनपद के एक गाँव में फंसी रही। कोई नहीं समझ पारहा था कि जिस तालाबंदी की घोषणा 22 फरबरी को की गयी, उसकी पूर्व सूचना एक माह पूर्व क्यों नहीं दे दी गयी।

यदि लोगों को सप्ताह भर पहले आगाह किया गया होता और अतिरिक्त रेल गाडियाँ चला दी गईं होतीं तो निश्चय ही लोग सकुशल घरों तक पहुँच गये होते। हमें मालूम है कि बंगला देश और कई अन्य देशों ने ऐसा ही किया था। अगर ऐसा हुआ होता तो पहले ही घर पहुँच कर ग्रामीण मजदूर फसल कटाई करके जीवनयापन हेतु कुछ कमाई तो कर ही सकते थे बार बार बदल रहे मौसम से फसलों की हानि को उसकी कटाई कम कर सकते थे। आज वे जब घर पहुंचेंगे उन्हें लंबे समय तक बेरोजगारी और भूख के दंश को झेलना पड़ेगा।
आक्रोश का परिणाम :  बेहद देर से लिया गया यह फैसला प्रवासियों के उस आक्रोश का परिणाम है जो अनेक रूपों में प्रकट होरहा था। उन्हें वापस लाने के लिये तमाम सांसदों, विधायकों और अन्य जन प्रतिनिधियों पर उनके क्षेत्र की जनता का दबाव लगातार बढ़ रहा था। थाली, ताली और आतिशबाजियों के माध्यम से रचा कुहासा जीवन की बढ़ती कठिनाइयों से छंटने लगा था। कोरोना फैलाने की जमातियों के ऊपर मढ़ी गयी तोहमत भी कालक्रम से धूमिल होने लगी थी।

इतना ही नहीं बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूर और छात्र सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करने लगे थे। विपक्षी दल खास कर वामपंथी दल प्रवासियों को उनके घरों को पहुंचाने के लिये लगातार मुखरित होरहे थे। अतएव जनाक्रोश से बचने को कई मुख्यमंत्री अपने यहाँ के प्रवासियों को वापस लाने की योजना बनाने में जुट गये थे। सतह के नीचे ही सही शासक दल में दो फाड़ नजर आने लगे थे।
भूख, अभाव और बेकारी :  अब इन्हें घरों तक पहुंचाने/ लाने की कठिन चुनौती दरपेश है। उन्हें मानवीय हालातों में क्वारंटाइन में रखे जाने की चुनौती है। उनके इलाज और उनके परिवारों के भरण- पोषण की चुनौती है। उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने की चुनौती है। कोविड 2019 का वायरस आया है और चला जायेगा, पर भूख, अभाव और बेकारी का यह वायरस लंबे समय तक हमें चुनौती देता रहेगा। हम देख रहे हैं कि शासन और शासक वर्ग की नीतियाँ और कारगुजारियाँ लगातार बेनकाव होरही हैं। अतएव हमें एक न्यायसंगत सामाजिक- आर्थिक प्रणाली के निर्माण पर ज़ोर देना होगा। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस- मई दिवस पर हमें एक विश्वसनीय और सर्वग्राही आर्थिक- सामाजिक प्रणाली को विकसित करने के संकल्प को दृढ़  करना होगा।

दिनांक- 30- 4 2020

Monday 20 April 2020

कॉमरेड लेनिन की 150 वीं जयंती पर कॉमरेड डी राजा का संदेश ------ अरविन्द राजस्वरूप



कॉमरेड लेनिन की 150 वीं जयंती पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महामंत्री कॉमरेड डी राजा का कार्यकर्ताओं/ काडर के नाम संदेश।
कामरेड वी आई लेनिन को लाल सलाम और समस्त कामरेडों को क्रांतिकारी अभिवादन।
प्रिय कामरेड,

22 अप्रैल को कामरेड वीआई लेनिन की 150 वी जयंती हम लोग मना रहे होंगे। कार्ल मार्क्स की मृत्यु के पश्चात वो सबसे प्रमुख सिद्धांत कार और विचारक थे तथा एक अत्यंत कुशल रणनीतिज्ञ एवं कार्यनीति में माहिर व्यक्ति थे। उन्होंने 1917 की समाजवादी क्रांति का नेतृत्व किया जिसको आमतौर से लोग महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति के नाम की जानते हैं। उस क्रांति नें विश्व में पहली बार मजदूर वर्ग की
राज व्यवस्था और देश की स्थापना की , जिसका नाम यूएसएसआर पड़ा । बावजूद इसके कि वह पहली कम्युनिस्ट सरकार समाप्त हो चुकी है और सोवियत यूनियन बिखर गया है पर महान कामरेड लेनिन आज भी ना सिर्फ रूस के लिए बल्कि पूरे विश्व के लोगों के लिए उत्साह का स्रोत है।

कार्ल मार्क्स के बाद उनोहने मार्क्स के सिद्धांत- दर्शन ( द्वंदात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद), राजनीतिक अर्थशास्त्र एवं वैज्ञानिक समाजवाद- को विकसित किया। लेनिन ने पूंजीवाद के विकास की नई मंजिल का विश्लेषण किया। लेनिन की रचना 'साम्राज्यवाद पूंजीवाद का अंतिम चरण' में उन्होंने पूंजीवाद की परजीवी एवं मरणासन्न प्रवृत्ति का उल्लेख किया और यह भी बताया कि किस तरीके से पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण होगा। महा मंदी के शुरू में और उसके दौरान उन्होंने साम्राज्यवाद का विश्लेषण करते हुए उस रास्ते का उल्लेख किया जो एक वैकल्पिक मजदूर वर्ग के राज की स्थापना और समाजवाद की तामीर करने के लिए खुलता था तथा समस्त शोषण और गैर बराबरी से मुक्ति का रास्ता दिखाता था।

लेनिन मजदूर वर्ग की एक नई प्रकार की पार्टी की स्थापना करने वाले व्यक्ति भी थे और वह नई पार्टी बोल्शेविक पार्टी थी , जो बाद में परिवर्तित होकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ सोवियत यूनियन कहलाई ।(सीपीएसयू) लेनिन की ' हम क्या करें ' नामक पुस्तक इस प्रकार की पार्टी बनाने के लिए मार्गदर्शक बनी।

लेनिन अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के उत्कृष्टतम नेता थे। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय भाईचारा मजबूत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने तीसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को स्थापित करने में भी अपना बहुमूल्य योगदान प्रदान किया।

कोविड-19 की महामारी ने भारत समेत समूचे विश्व में लाकडाउन की स्थिति पैदा कर दी है। इस कारण लेनिन की जयंती की प्रससन्ता के उल्लास को आम जनता के बीच मनाने में एक सीमा रेखा खिंच गई है। लेकिन कम्युनिस्ट होने के नाते दरवेश परिस्थितियों में हमको निर्धनों और गरीबों, प्रवासी मजदूरों , समाज में भेदभाव से ग्रसित जनता के हिस्सों की समस्याओं से मुखातिब होना है। कम्युनिस्टों को अपनी प्रतिबद्धता और अपना मजबूत इरादा उत्पीड़ित जनता से अपने को आत्मसात करते हुए अभिव्यक्त करना है।

मजदूर वर्ग के मनीषी पुत्र के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हुए हमको समाजवाद के सिद्धांत को देश की स्थानीय एवं ठोस सामयिक परिस्थितियों में लागू करना पड़ेगा। लॉक डाउन एक ऐसी बाधा नहीं बननी चाहिए कि हम उत्पीड़ित जनता तक पहुंच ही न पाएं और राज्य सरकारों तथा केंद्रीय सरकार को समुचित कार्य करने के लिए बाध्य न कर पाए।

सरकारों को यह समझ लेना चाहिए कि उनका साबका अपने नागरिकों से है ,उनसे है जो राष्ट्र की संपत्ति के निर्माता है ।सरकारें इसलिए सत्ता में नहीं है कि वह नागरिकों को अपनी ऐसी रियाया समझें जो उनकी कृपा पर निर्भर हों।

मैं पार्टी के हर स्तर के काडर से यह अपील करता हूं कि वह जरूरत मंद जनता की मदद करने की चुनौती को स्वीकार करें।

आइए हम कामरेड लेनिन को अपनी श्रधांजलि सम्मान पूर्वक अर्पित करें।

मैं पार्टी नेतृत्व की जानिब से आप सब लोगों को और जनता को अपना क्रांतिकारी अभिवादन भी प्रेषित करता हूँ।

आपका साथी।

डी राजा


महामंत्री
https://www.facebook.com/arvindrajswarup.cpi/posts/2615933648624757

***************************************************************************
फ़ेसबुक कमेंट्स : 

Saturday 18 April 2020

लाकडाउन से भी ज्यादा जरूरी है जांच और भोजन ------ वामपंथी दल




कोरोना से पैदा हुये हालातों पर उत्तर प्रदेश के वामपंथी दलों का बयान : 
लखनऊ- 18 अप्रेल 2020, कोरोना वायरस की महामारी को पराजित करने के लिये लाकडाउन से भी ज्यादा जरूरी है कि बड़े पैमाने पर जांच कराई जाये, संक्रमित पाये गये  लोगों का समुचित इलाज कराया जाये और उन्हे दरम्याने इलाज शेष जनमानस से अलग थलग रखा जाये। परन्तु खेद की बात है कि उत्तर प्रदेश में इस प्रक्रिया को ठीक से अंजाम नहीं दिया जारहा। यहाँ तक कि कोरोना से जूझ रहे योद्धाओं- डाक्टर, नर्स, पेरामेडिकल स्टाफ आदि के पास जरूरी उपकरण- पीपीई किट आदि उपलब्ध नहीं हैं।

इस महामारी को पराजित करने को हम सब अपने स्तर से जीजान से जुटे हैं, पर उत्तर प्रदेश सरकार इस लड़ाई को साझा लड़ाई बनाने को तैयार नहीं है। इस नाजुक दौर में भी सांप्रदायिक नफरत की मुहिम चलाई जारही है। लोकतान्त्रिक तौर तरीकों पर कुठाराघात करते हुये आलोचना और असहमति को तानाशाही तरीकों से कुचलने की कोशिश की जारही है। सामाजिक एकता, जनता का सहयोग और विश्वास हासिल करने की जगह उत्तर प्रदेश सरकार केवल जनता को भयभीत कर, दंडित कर और धमकियाँ देकर इस लड़ाई को लड़ना चाहती है। शासन- प्रशासन के जरिये भाजपा और संघ परिवार की गतिविधियों को जारी रखते हुये विपक्ष की गतिविधियों को पंगु बनाए रखना चाहती है।

अतएव वामदल मांग करते हैं कि जनता की आजीविका और जीवनयापन के उपादानों की भरपाई प्राथमिकता के आधार पर की जाये-

सभी को बीमा संरक्षण की व्यवस्था की जाये।

सभी को कम से कम 35 किलो राशन और अन्य जरूरी चीजें निशुल्क तत्काल उपलब्ध कराया जाये। जिनके पास राशंकार्ड नहीं हैं उन्हें भी राशन दिया जाये। ऐसे गरीबों की कुछ क्षेत्रों में सूचियाँ बनाई गयी हैं किन्तु उन्हें राशन अभी तक उपलब्ध नहीं कराया गया। तुरंत कराया जाये।

सभी गरीबों, पंजीक्रत, अपंजीक्रत दिहाड़ी मजदूरों, खेत मजदूरों, मनरेगा मजदूरों आदि के खाते में कम से कम 5,000 रुपये तत्काल ट्रांसफर किए जायें। मनरेगा का भुगतान कराया जाये और काम को चालू कराया जाये।

संगठित- असंगठित सभी क्षेत्र के मजदूरों की नौकरियों और वेतन की सुरक्षा कीजिये।

गेहूं की सरकारी खरीद देर से शुरू किए जाने के कारण बहुत से किसानों को समर्थन मूल्य से कम कीमतें मिली हैं। अभी भी सरकारी क्रय केन्द्र समुचित रूप से काम नहीं कर रहे हैं। लाकडाउन में अवाम की क्रय क्षमता के घटने के कारण किसानों को फल- सब्जियाँ सस्ती बेचनी पड़ रही हैं। किसानों के सभी उत्पादों को समुचित मूल्यों पर खरीदे जाने की व्यवस्था करें।

प्राक्रतिक और कोरोना की आपदाओं को देखते हुये किसान सम्मान निधि रु॰ 12 हजार वार्षिक की जाये, किसान क्रेडिट कार्ड की लिमिट बड़ाई जाये, ब्याज दर 1 प्रतिशत की जाये  और किसानों के सभी प्रकार के कर्जों की वसूली 1 साल के लिये स्थगित की जाये।

छोटे व्यापारियों, लघु उद्यमियों और फुटकर व्यापार करने वालों का जीवन बचाने को राहत की घोषणा कीजिये।

दूसरे प्रदेशों व जनपदों में फंसे उत्तर प्रदेश के मजदूरों और उत्तर प्रदेश में फंसे अन्य प्रदेशों के मजदूरों को सरकारी खर्चे पर उनके घरों को जल्द से जल्द पहुंचाया जाये। वहां उन्हें कोरोंटाइन में रखा जा सकता है।

वरिष्ठ नागरिकों की देखरेख के लिये विशेष रक्षा दल  गठित कीजिये।

बिजली , फोन, गृह कर और जल कर के बिल फिलहाल स्थगित रखे जायें।

सभी राजनैतिक दलों के पदाधिकारियों के साथ परामर्श हेतु राज्य स्तरीय बैठक बुलाई जाये।

जिलों के स्तर पर राजनैतिक दलों के नुमाइंदों के साथ प्रशासन के अधिकारी समन्वय बनायेँ।

सरकार, प्रशासन, भाजपा और मीडिया द्वारा कोरोना को मुस्लिमों से जोड़ कर चलाई जारही मुहिम फौरन बन्द की जाये। मुहिम चलाने वालों के विरूध्द कड़ी से कड़ी कार्यवाही की जाये। या फिर किसको कहाँ से संक्रमण लगा, इसकी  व्यापक जानकारी सार्वजनिक की जाये।

डा॰ गिरीश, सचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश।  

हीरालाल यादव, सचिव, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी), उत्तर प्रदेश।

सुधाकर यादव, सचिव, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-माले- लिबरेशन, उत्तर प्रदेश।  

अभिनव कुशवाहा, महासचिव, फारवर्ड ब्लाक ,उत्तर प्रदेश । 

Wednesday 15 April 2020

लाकडाउन- 2 के दौर की चुनौतियां ------ डा॰ गिरीश





जैसी कि अपेक्षा थी प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी  ने 14 अप्रेल की प्रातः एक टीवी भाषण के जरिये 19 दिनों के लाकडाउन-2 की घोषणा कर दी। 3 मई 2020 तक के लिये घोषित इस नये लाकडाउन का यह दौर मजदूरों, प्रवासी मजदूरों, गरीबों, किसानों, छोटे व्यापारियों, लघु उद्यमियों, वरिष्ठ नागरिकों और बीमारों के लिये और अधिक कठिनाइयों भरा रहने वाला है।

केन्द्र और राज्य सरकारों की आधी अधूरी तैयारियों और युद्धदकाल सरीखे मनमाने फैसलों से अनेक कठिनाइयाँ पैदा हो रही हैं जिसका सारा खामियाजा आम जनता और कोरोना से जूझ रहे सेवकों को भुगतना पड़ रहा है। लेकिन अब लाकडाउन-2 से यह सब असहनीय स्थिति में पहुँच चुका है। इन कठिनाइयों से जनता को उबारने के लिये तत्काल आवश्यक कदम उठाने की जरूरत है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री अपने नये भाषण में अपनी पुरानी गलतियों पर पर्दा डालते नजर आये। यह सर्वविदित है कि लाकडाउन की पिछली घोषणा से पहले यदि प्रवासी मजदूरों को घर पहुंचाने की व्यवस्था कर दी गयी होती तो न तो  उन प्रवासी मजदूरों की कठिनाइयाँ बढ़तीं न उस राज्य की जहां वे लगभग एक माह से कोरोंटाइन जैसी स्थिति में कैद हैं। उनको लाकडाउन से पहले उनके घरों तक पहुंचा कर 14 दिन तक कोरोंटाइन में रखना मौजूदा व्यवस्था से सस्ता और सुविधाजनक होता। पर तब सरकार चूक गयी और नतीजा सभी के सामने है।

अब एक बार फिर सरकार ने एक और बड़ी चूक की है। सरकार ने रेलवे का आरक्षण खोल दिये। लगातार इस आशय की खबरें मीडिया में आती रहीं कि 15 अप्रेल से रेल, बस और हवाई सेवाओं के चालू होने की पूरी तैयारी है। अतएव तमाम प्रवासी मजदूरों ने घर पहुँचने के लिये टिकिटें आरक्षित करा लीं। मुंबई में तो वे स्टेशनों पर पहुँच गये और शारीरिक दूरी का उल्लंघन हुआ। रेलवे ने टिकिटें क्यों बुक कीं इसकी जबावदेही सरकार की है। लाकडाउन खुलने के आभास से मुंबई में तमाम मजदूरों ने घर आने को सामूहिक रूप से बसें तक तय कर ली थीं।  

दूसरे राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूर दोहरी समस्याएँ झेल रहे हैं। उनमें से अनेक फुटकर मजदूर हैं जो लाकड़ाऊन से पहले ही काम से हाथ धो बैठे थे। छोटे बड़े उद्योगों में कार्यरत मजदूरों को काम पर से हटा दिया गया है और उन्हें भुगतान तक नहीं किया। मोदीजी बड़े भोलेपन से बार बार अपील कर रहे हैं कि मजदूरों को काम पर से हटाया न जाये और उन्हें उनके वेतन का भुगतान किया जाये। पर जो उद्योगपति सामान्यकाल में मजदूरों को काम का पूरा मेहनताना नहीं देते वे भला बिना काम के मजदूरों का भुगतान करेंगे यह एक कोरी कल्पना मात्र है। छोटे व्यापारी और उद्यमी तो उन्हें भुगतान करने की स्थिति में भी नहीं हैं। मजदूरों पर जो धनराशि थी वो अब पूरी तरह खर्च होचुकी है।

अधिकांश प्रवासी मजदूरों को खाने योग्य और भरपूर खाना नहीं मिल पा रहा। अधिकतर जगह यह एक पहर ही मिल पा रहा है। हर राज्य वहां प्रचलित खाने के पैकेट सप्लाई कर रहे हैं जिसे वे लगातार खाने से ऊब गये हैं। वे दाल, आटा, आलू, चावल की मांग कर रहे हैं ताकि अपना भोजन खुद पका सकें। उनके रहने, नहाने- धोने की भी उचित व्यवस्था नहीं है।   इसके अलाबा दूर दराज गांव, शहर, कस्बों में रह रहे उनके परिवार भी संकट में आ गए हैं। परदेश में बेरोजगार बने ये मजदूर अपने घरों को वह धन नहीं भेज पा रहे। उन्हें उम्मीद थी कि 14 अप्रेल को लाकडाउन खुल जायेगा और वे घर जाकर फसल की कटाई करके कुछ कमाई कर लेंगे। लेकिन उनकी यह चाहत भी पूरी नहीं होसकी।

स्थानीय मजदूर और किसान भी संकट में हैं। हर तरह के रोजगार समाप्त हो गए हैं। मनरेगा का काम भी ठप पड़ा है। अलबत्ता फसल की कटाई चालू है जिससे ग्रामीण मजदूर और किसानों को कुछ राहत मिली है। परंतु सरकार के तमाम दाबों के बावजूद औसत गरीब परिवारों तक खाद्य पदार्थ पहुँच नहीं सके हैं। खाद्य पदार्थों के अभाव में आत्महत्याओं की खबरें कोरोना से हो रही मौतों की खबरों के तले दब कर रह गयी हैं। गोदामों में पर्याप्त अनाज भरे होने के दाबे अभावग्रस्तों को और भी मुंह चिढ़ा रहे हैं।

कोरोना से निपटने में जांच और चिकित्सा संबंधी उपकरणों की कमी की खबरें सुनने के हम अब आदी हो चले हैं। लेकिन दूसरे मरीजों की दुर्दशा की खबरें दिल दहलाने वाली हैं। गंभीर रूप से बीमारों को अस्पताल तक लाने को एंबुलेंस नहीं मिल पा रही हैं। हताश परिजन गंभीर मरीजों यहाँ तक कि प्रसव पीडिताओं को ठेले, साइकिल अथवा कंधे पर लाद कर ला रहे हैं। टीवी, ह्रदय, किडनी आदि के गंभीर मरीज दवा और इलाज के अभाव में जीवन से हाथ धो रहे हैं। घर तक दवा पहुंचाने और टेलीफोन पर दवा पूछने के दाबे भी हवा हवाई साबित होरहे हैं।  निजी अस्पताल और नर्सिंग होम जो आम दिनों में मरीजों की खाल तक खींच लेते हैं, शटर गिरा कर भूमिगत हो गये। सरकार ने निजी चिकित्सकों और उनके अस्पतालों से इस आपात्काल में सेवायेँ लेने का कोई प्रयास नहीं किया।

मौजूदा सामाजिक व्यवस्था में अधिकांश सीनियर सिटीजन्स अकेले रहने को अभिशप्त हैं। उन्हें तमाम नसीहतें दी जारही हैं। लेकिन उनकी जरूरतों को पूरा करने को कोई सिस्टम तैयार नहीं किया गया। वे दवा, फल सब्जी और दूसरी जरूरत की चीजों को हासिल नहीं कर पा रहे। उनमें से कई तो धनाभाव की पीड़ा झेल रहे हैं।

मोदी सरकार ने विभिन्न श्रेणियों के गरीबों के लिये रु॰ 500 उनके खातों में डाल दिया। अनेक लोग खाता अथवा रजिस्ट्रेशन न होने के कारण इस लाभ से वंचित रह गये। लेकिन जिनके खातों में पैसा आया वे अपनी जरूरतों को पूरा करने को पैसा निकालने को बैंकों और जनसेवा केन्द्रों लाइनों में खड़े होगए। शारीरिक दूरी बनाए रखने की धज्जियां तो बिखर ही गईं, अनेक जगह उन्हें पुलिस की लाठियां तक खानी पड़ीं। अनेक जगह संघ के कार्यकर्ताओं की लाठियाँ भी गरीबों पर बरसीं। इस धन को डाक विभाग के माध्यम से घर घर भिजवाने का विकल्प सरकार को सूझा ही नहीं।

कोरोना के संक्रमितों की संख्या बढ़ने से लाक डाउन बढ़ाना आवश्यक था यह सभी समझ रहे थे। लेकिन इस फैसले को दो दिन पहले भी तो सुनाया जा सकता था। इससे अचानक घोषणा से फैली अफरा- तफरी से बचा जा सकता था। घोषणा से दिन दो दिन पहले राज्य सरकारों को भी बता दिया जाना चाहिए था। लेकिन सभी को दुविधा में रखा गया। इससे मुंबई और सूरत जैसी घटनाएँ सामने आयीं।

श्री मोदी  खुद ही हर चीज की घोषणा करते हैं। अपने मंत्रिमंडल में भी शायद ही विचार करते हों। अचानक टीवी पर प्रकट होते हैं और एक लच्छेदार भाषण हमारे कानों में उंडेल दिया जाता है। पहले दो बार हमें तंत्र थमाये गये तो इस बार सात मंत्र। पर तंत्र- मंत्र से न पेट भरता है न इलाज होता है। कोरोना से लड़ाई देश के लोग मुस्तैदी से लड़ रहे हैं। पर उन्हें पर्याप्त भोजन, इलाज दवाएं जरूरी सामान और रहने की उचित व्यवस्था भी तो चाहिये। ये सब भाषण से नहीं मिलते। अच्छा होता आप एक समग्र राहत पैकेज के साथ सामने आते।

अतएव समय की मांग है कि आप एक व्यापक और समग्र पैकेज की तत्काल घोषणा करें। सभी की मुफ्त जांच और इलाज की घोषणा कीजिये। मनरेगा सहित सभी कामकाजी लोगों को अग्रिम वेतन भुगतान कराइए और करिए। सभी को बीमा संरक्षण की व्यवस्था करिए। संगठित और असंगठित सभी क्षेत्रों के मजदूरों की नौकरियों और वेतनों की सुरक्षा करिए। सभी के लिये सभी जरूरी चीजें सार्वजनिक प्रणाली से मुफ्त उपलब्ध करने की व्यवस्था कीजिये। वरिष्ठ नागरिकों के लिये विशेष रक्षा दल गठित कीजिये। किसानों की फसलों की कटाई और फसल की सही कीमत दिलाने की गारंटी कीजिये। छोटे व्यापारियों, उद्यमियों और फुटकर व्यापार करने वालों को राहत की घोषणा कीजिये। नियंत्रित हालातों में उद्योग खुलवाने और प्रवासियों को घर पहुंचाने की व्यवस्था कीजिये।

उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड जहां के सर्वाधिक मजदूर दूसरे राज्यों में फंसे हैं, की राज्य सरकारों को उनके और उनके परिवार के भोजन वस्त्र रहन सहन की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर तत्काल उठानी चाहिये।

सामान्य समय में कुछ भी चल जाता है और चल रहा भी था। पर शासन की जन जबावदेही की परीक्षा तो आपात्काल में ही होती है। इस परीक्षा में अब तक सफल नहीं हैं आप। आगे सफल रहने का प्रयास अवश्य कीजिये।


डा॰ गिरीश

दिनांक- 15 अप्रेल 2020

Tuesday 14 April 2020

कामरेड पूरन चंद्र जोशी : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ------ अरविन्द राजस्वरूप


Arvind Raj Swarup Cpi
कामरेड पूरन चंद्र जोशी ।

(जन्म 14 अप्रैल 1907 - मृत्यु 9 नवंबर 1980).

पार्टी के राज्य सचिव ने फेसबुक पर सब लोगों को ठीक ही याद दिलाया कि 14 अप्रैल तो काम पूरन चंद्र जोशी , पार्टी के पूर्व महामंत्री एवं एक अद्वितीय व्यक्तित्व का भी जन्मदिन है।

उस दिन हम उनको भी याद करेंगे।
उसी दिन जब कि हम डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को भी याद करते होंगे।

कामरेड पी सी जोशी को मैंने व्यक्तिगत रूप से जाना था , क्योंकि मेरे पिता और माता पर उनका अनन्य स्नेह था।

मैं कम से कम 2 बार अपने बाल्य काल में अपनें पिता के साथ दिल्ली में उनके घर पर गया था।

मेरी स्मृति में उनकी वह छवि है कि जिसमें वह हाफ पैंट और आधी बाहों की शर्ट पहने हैं और उनके कंधे पर कपड़े का एक झोला है।

दिल्ली में कहीं रैली हो रही थी तो वह उस रैली में साधारण लोगों की तरह घूम रहे थे।
जो लोग उनको जानते हैं उनसे वह बातें कर रहे थे।उस भीड़ भाड़ में।

मुझे याद पड़ता है चाहे तो दिल्ली का रामलीला मैदान हो या लाल किले का मैदान किसी एक रैली में वह अपनी इसी पोशाक में और झोला कंधे पर डालें लोगों से बातें करते हुए टहल रहे थे।
मैंने उनको देखा और उनके पास गया और जाकर उनको नमस्ते की।उनको अपने पिता का नाम बताया ।
वह बहुत खुश हुए उन्होंने पीठ थपथपाई ।मेरे से पूछा कि कौन सी क्लास में पढ़ते हो ।मैंने भी उनको बताने में यह कतई चूक नहीं की कि मैं ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन का नेता हूं और कानपुर के एक महाविद्यालय में अध्ययन करता हूं।
उन्होंने मेरे माता पिता दोनों ही के बारे में पूछा।दिल्ली से घर लौटने के पश्चात मैंने अपने पिता और माता दोनों को बताया कि मैं कामरेड जोशी से मिला था और उन्होंने आप दोनों के बारे में मेरे से पूछा था।
तो इतना तो मेरा उनसे व्यक्तिगत इंटरेक्शन हुआ।

हमारी पीढ़ी के लोगों के लिए तो कामरेड पीसी जोशी एक इतिहास का हिस्सा हैं। उन पर लिखे गए लेखों, पुस्तकों अथवा उनके द्वारा लिखे गए लेखों एवं कृतियों को पढ़कर ही हम कुछ अपनी राय कायम कर सकते हैं।
या प्राचीन तरीका है श्रुति , पुराने नेताओं से उनके बारे में सुना या किसी से भी उनके बारे में सुना और वह बातें स्मृति में बैठा लीं ।

महापुरुषों के बारे में मूल रचना लिखना यकायक ही आसान बात नहीं और ऐसा संभव भी नहीं।

वैसे भी करोना काल में उन पर मेटेरियल उपलब्ध हो सके वह आसान नहीं फिर भी जो कुछ उपलब्ध है और पुराने नेताओं के द्वारा उनके बारे में लिखा जा चुका है , इस समय उसका उल्लेख कर देने से काम तो चलेगा।

कामरेड पी सी जोशी का जन्म अल्मोड़ा में एक शिक्षित परिवार में हुआ था। उनके पिता अध्यापक थे ।
स्वतंत्रता आंदोलन के प्रभाव ,रूस की क्रांति की सफलता से प्रेरित समाजवाद के संघर्ष के फल स्वरूप 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म कानपुर में हुआ था ।
रूसी क्रांति ने उस काल के अनेकों चैतन्य मस्तिष्कों को प्रभावित किया था। उसमें पी सी जोशी जैसे नवयुवक को मार्क्सवाद और
कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ आकर्षित किया ।ठीक उसी तरह जिस तरह भगत सिंह और उनके साथी उस दिशा में आकर्षित हुए थे ।
इस प्रकार कामरेड जोशी एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में विकसित हुए।
दिसंबर 1925 में कानपुर में पार्टी की स्थापना कान्फ्रेंस के बाद एक के बाद दूसरा जल्दी-जल्दी पार्टी के कई महासचिव चुने गए कामरेड बगरहट्टा, एस वी घाटे ,एस वी देशपांडे ,डॉक्टर गंगाधर अधिकारी।

महामंत्री
अंत में 1936 में पी सी जोशी पार्टी के सर्वोच्च पद पर चुने गए।
पी सी जोशी को उनके सहयोगी और पार्टी के कार्यकर्ता प्यार से पीसीजे के नाम से बुलाते थे। पार्टी के गठन के उन प्रारंभिक वर्षों में पी सी जोशी एक सर्वमान्य पार्टी निर्माता और पार्टी नेता के रूप में जाने जाते थे।
महासचिव के रूप में कामरेड जोशी के कार्यकाल में देश स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम और निर्णायक चरण में प्रवेश कर रहा था। ऐसा समय था जब राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़े गंभीर एवं महत्वपूर्ण घटनाक्रम चल रहे थे। निसंदेह कामरेड जोशी में अपने आप को इस अवसर की चुनौतियों का मुकाबला करने में समर्थ साबित किया और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में स्वयं को साबित किया जो इन चुनौतियों को समझता था और उनका मुकाबला कर सकता था।

भारतीय कम्युनिस्टों के नेता की हैसियत से कॉमरेड जोशी ने विश्व के अंदर हो रहे घटनाक्रम का विश्लेषण किया और इन्हें ठीक तरह से समझा।

आगे वह सन 42 से 47 तक का समय था जब कामरेड पीसी जोशी ने बड़े पैमाने पर गतिविधियां चलाईं। उन्होंने लेखों, पुस्तिकाओं, पर्चों,रिपोर्टों के प्रकाशन की एक झड़ी सी लगा दी। अन्य पार्टियों के नेताओं से पत्र व्यवहार किया, साहित्यिक हस्तियों, कलाकारों, वैज्ञानिकों से मुलाकात की ।पार्टी के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने और पार्टी की नीतियों को उन सबके सामने रखने के लिए अनेकानेक कांफ्रेंसों और रैलियों में हिस्सा लिया। कोई भी चीज ऐसी न थी जिस पर उनका ध्यान न गया हो या जिस पर उन्होंने लिखा ना हो।

महात्मा गांधी से पत्र व्यवहार।

उस समय महात्मा गांधी से जो उनका पत्र व्यवहार हुआ वह विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। कम्युनिस्टों के विरुद्ध तमाम अफवाहों और झूठी निंदा को देखते हुए महात्मा गांधी ने उनसे कई सवाल पूछे थे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव होने के नाते उनसे उनका जवाब एवं स्पष्टीकरण मांगा था।
कामरेड जोशी ने राष्ट्रीय नेता के प्रति अत्यंत शिष्टाचार लेकिन एक कम्युनिस्ट की शालीन गरिमा एवं आत्म सम्मान के साथ उनके हर सवाल का विस्तार से जवाब दिया।
गांधी जी ने जो सवाल पूछ रहे थे उनमें एक सवाल पार्टी की वित्त व्यवस्था के संबंध में था। पार्टी के निन्दकों की जिनकी जबान साँप से भी अधिक लंबी और जहरीली होती है आरोप लगाया था की पार्टी को सरकार से या संभव है रूस से पैसा मिलता है।

जवाब
कॉमरेड जोशी का जवाब सबके लिए जानने योग्य है:
उन्होंने लिखा यदि आप यानी गांधीजी जी पार्टी के अकाउंट की व्यक्तिगत रूप से जांच परख करना चाहते हैं तो जब आप चाहे वह यानी पार्टी कोषाध्यक्ष कामरेड सुंदरिया और अकाउंटेंट लीला तमाम रजिस्टरों के साथ आपके सामने हाजिर हो जाएंगे। यदि आप किसी प्रतिनिधि को नियुक्त करने का तय करें तो वह ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसे हम भी एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में जानते हो और जो हमारे खिलाफ पहले से ही पूर्वाग्रह से ग्रसित न हो।
आप नहीं पाएंगे कि हमारे अकाउंट किसी वाणिज्य फर्म की तरह सही तरीके से रखा गया है
और मुझे पूरा विश्वास है कि इस बात पर ध्यान रखते हुए आप हमें सही पाएंगे कि हम अभी भी सीख रहे हैं की अकाउंट को कैसे रखा जाए क्योंकि गैरकानूनी होने के सालों में हमारा विवाद या रहा है कि रजिस्टरों और सही अकाउंट को रखना है आपराधिक बेवकूफी है।
उसमें आपको कुछ अनाम चंदा देने वाले मिलेंगे। पर मुझे विश्वास है कि आप भी अनाम चंदा देने वालों को स्वीकार करते हैं पर किसी ऐसे संदेह की अनाम सरकारी पैसे का कोड हो सकता है को दूर करने के लिए मैं आपको (आपके प्रतिनिधि को नहीं )उनके नाम बताने को तैयार हूं।
अपने अगले पत्र में गांधीजी ने माना कि आपका जवाब जितना है उसे मैं पूरी तरह संतोषजनक मानता हूं ।मैं आप की वित्त व्यवस्था के बारे में आगे कोई सबूत नहीं मांगूंगा।

बंगाल आकाल

कामरेड जोशी की और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की, उस समय राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्थिति में फासिस्ट विरोधी पीपुल्स वार यानी जन युद्ध को चलाने में और भारत के लोगों को संघर्ष के लिए लामबंद करने में व्यस्तता , के बावजूद उनकी नजर में यह भयानक त्रासदी ओझल नहीं हुई जो अत्याधिक तबाही वाले अकाल के रूप में बंगाल में आई थी । आकाल में 2 लाख से अधिक लोग मर गए थे। लाखों लोग बेसहारा और भिखारी के रूप में भीख मांगते हुए सड़कों पर आ गए थे।

पार्टी ने और अन्य संगठनों में उस समय बड़े पैमाने पर राहत कार्य हाथ में लिया ।पैसा और राहत और सामग्री के लिए देशभर में स्वयंसेवकों को पूरी तरह लामबंद किया ।डॉक्टरों के दस्ते बंगाल भेजे गए।
कलाकारों एवं गायक दलों को लामबंद किया गया और जनता की मुसीबत को दिखाने वाले नुक्कड़ नाटक किए गए ।
यह सब बातें पीसीजे के जबरदस्त संगठन कौशल का सबूत है।
इस अभियान के दौरान ही इंडियन पीपल थियेटर एसोसिएशन ने जिसकी स्थापना की गई थी नें शुरुआती शोहरत और लोकप्रियता पाई।

कामरेड जोशी ने चित्र प्रसाद और सुनील जाना जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों की खोज की ।
चित्र प्रसाद की एक कार्टूनिस्ट के रूप में और जाना की मानव जीवन और समाज के लिए फोटोग्राफर के रूप में।
पृथ्वीराज कपूर ,बलराज साहनी ,ख्वाजा अहमद अब्बास और अनेक अन्य लोग इप्टा के झंडे के तले काम कर रहे थे और उन्होंने उन दिनों अत्यंत सराहनीय कार्य किया।

डंके की चोट पर कहा जा सकता है कि कॉमरेड जोशी ने कम्युनिस्ट पत्रकारिता की प्रवृत्ति को भी तय किया।
वे स्वयं एक कुशल पत्रकार थे जिन्होंने लेनिन के उस कथन का मर्म समझ लिया था की पार्टी की पत्र पत्रिकाएं पार्टी के प्रचार कर्ता,आंदोलन कर्ता, और संगठन कर्ता, का काम करती हैं। वह कयूर के कैदियों से फांसी होने से ठीक पहले मिले थे। उस मुलाकात की उन्होंने जो रिपोर्टिंग की वह पत्रकारिता का एक श्रेष्ठतम उदाहरण है।

कुछ आलोचना।

एक रिवाज है कि जब किसी एक बड़े व्यक्तित्व के बारे में लिखा जाता है जो अब जीवित नहीं है तो उनकी खामियां और गलतियों का जिक्र नहीं किया जाता।
परंतु ऐसा करना वास्तव में वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन नहीं कहलाएगा। एक ऐसे व्यक्तित्व द्वारा की गई गलतियों तथा खामियों को बताते हुए भी सकारात्मक गुणों से अलग नहीं किया जा सकता है ।इसके विपरीत वह केवल उनके मानवीय पहलू को ही रेखांकित करता है।

स्टॅलिन ग्राद में जर्मनी की पराजय के बाद यह साफ हो गया था कि युद्ध में फासिस्टों की पराजय सुनिश्चित है ।ऐसे में कार्य नीति में काफी लचीलापन दिखाना था जो संभव ना हुआ होगा।

पार्टी उस उत्कट एवं ज्वलंत देशभक्ति को समझने में भी असफल रही जिस नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपने सभी कार्यकलापों में प्रेरित किया था।
लेकिन इन सब मसलों पर कहीं दूसरी जगह ही विचार करना समीचीन होगा।

1947 के उत्तरार्ध में केंद्रीय समिति ने उन्हें महासचिव के पद से हटा दिया और उनकी जगह कामरेड बीटी रणदिवे को पदस्थापित कर दिया।
कामरेड बीटी रणदिवे के कार्यकाल में पार्टी एक दुस्साहस वादी भटकाव में चली गई ।

पर  यह भी यहां पर बहुत महत्वपूर्ण बिंदु नहीं है कहीं अन्यत्र ही इसकी चर्चा की जा सकती है।

1857 का विद्रोह ।

कामरेड पीसी जोशी ने 1957 में 1857 के विद्रोह की शताब्दी पर एक अत्यंत मूल्यवान संगोष्ठी - जिसका सार तत्व स्वयं उन्हीं का 1857 पर सौ पृष्ठों का लेख था- का संपादन किया ।

वह एक विद्वतापूर्ण निबंध था जिसमें कुछ सिपाहियों द्वारा एक तथाकथित विद्रोह के बारे में साम्राज्यवादी एवं ब्रिटिश समर्थक लेखन और उसके पीछे बदनाम करने वाले इरादों को उद्घाटित किया एवं आलोचना की ।उसमें उन कुछ प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकारों के योगदान को धारा शाही कर दिया जिन्होंने उसमें अपने खोए विश्व को पुनः प्राप्त करने के लिए शयोन्मुख सामंती स्वामियों सरदारों एवं उनके परिजनों के अंतिम हताश प्रयास को देखा था। उन्होंने इस मसले पर स्वयं जवाहरलाल नेहरू से भी विवाद किया जिनका इतिहास में इस घटना के बारे में वह उभयभावी दृष्टिकोण था। उन्होंने अपने इस निबंध में 200 से अधिक स्रोतों का उल्लेख किया जिनमें अनेक भारतीय थे और यह दिखाने के लिए ब्रिटिश स्रोतों की आलोचनात्मक जांच की कि वह एक राष्ट्रीय विद्रोह था जो विदेशी शासन एवं शोषण के खिलाफ भारतीय जनता के संघर्ष का अग्रदूत था सेना के विद्रोह ने उसे एक सशस्त्र टकराव का स्वरूप प्रदान किया।

कामरेड पी सी जोशी और उनके सहयोगी सहयोगियों की टीम ने उस अवधि के लोकगीतों, मौखिक परंपराओं का संग्रह किया जो उस समय सामान्य जनता के मिजाज तथा मनोविज्ञान को प्रदर्शित करने वाला मूल्यवान स्रोत है। इतिहास में जोशी के योगदान की खास विशेषता यह थी कि उन्होंने 1857 को उसके ऐतिहासिक परिपेक्ष में रखा और स्वतंत्रता के लिए उभरते राष्ट्रीय आंदोलन पर उसके प्रभाव को सामने प्रस्तुत किया।
कानपुर से संबंध।

कामरेड पीसी जोशी कानपुर से भी बहुत अरसे तक जुड़े रहे ।ऐसा मुझको कानपुर के पुराने नेताओं ने ज़बानी बताया था । कानपुर में 1955 में हुई टेक्सटाइल मिलों की 80 दिन की हड़ताल में भी कामरेड पीसी जोशी का बहुत योगदान रहा। कानपुर की पार्टी में सदैव ही कामरेड पी सी जोशी का नाम अत्यंत सम्मान पूर्वक लिया जाता रहा और मेरी से पहले की पीढ़ी के नेतागण जो उनको नजदीक से जानते थे ,उनके कृतित्व की चर्चा आम मीटिंगों में करते रहे जिसको हमने पार्टी के एक साधारण कार्यकर्ता होने के नाते और विद्यार्थी एक्टिविस्ट होने के नाते जाना।

गांधी जी का मेरठ जेल में कम्युनिस्ट नेताओं से मिलना।

एक उल्लेख और भी महत्वपूर्ण है वो यह कि कांग्रेस के लाहौर सत्र के बाद गांधी जी सीधे मेरठ जेल जाकर कम्युनिस्ट बंधुओं से मिले।कामरेड जोशी भी मेरठ जेल में ही थे।गांधी जी ने कहा:
मैंने अपना वादा पूरा कर दिया है ।हम अब स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करने जा रहे हैं। जेल के बाहर अपने साथियों से इसका समर्थन करने के लिए कहिए। कम्युनिस्ट नेताओं की ओर से कामरेड डॉक्टर गंगाधर अधिकारी ने उनसे पूछा क्या हम आशा करें कि आप इसे वापस नहीं लेंगे जैसा आपने चौरी चौरा में किया था।
महात्मा गांधी ने कहा ।
नहीं।
तो ऐसे थे हमारे नेता ,कामरेड पीसी जोशी ।एक मानव ,कम्युनिस्ट और भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माता एवं नेता।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को निर्मित करने में उनके योगदान को कभी भूला नहीं जा सकता। किसी भी पार्टी को बनाने में और उसको चलाने में गलतियां भी हो सकती हैं !पर किससे वह गलतियां नहीं होती!

(संदर्भ साहित्य: स्मृतिशेष कामरेड ए बी बर्धन ,स्मृतिशेष कॉमरेड हरबंस सिंह और कॉमरेड अनिल राजिमवाले।)
कानपुर
13 अप्रैल 2020
https://www.facebook.com/arvindrajswarup.cpi/posts/2610656415819147

14 अप्रैल डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती पर स्मरण ------ अरविन्द राजस्वरूप





Arvind Raj Swarup Cpi is with Sunita Chawla Renke.

14 अप्रैल डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती पर।

कोई भी विद्वान महापुरुष अपने जीवन काल में इतना काम कर जाता है कि दूसरों को उसकी प्रतिभा के विभिन्न आयामों को आत्मसात करते ही पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है।

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ऐसे ही कुछ चुनिंदा महापुरुषों में एक हैं।

हम विश्व विद्यालय में जब तक पढ़ते थे तो तब पॉलिटिकल साइंस के विद्यार्थी होने के नाते डॉक्टर अंबेडकर के इस पक्ष की जानकारी थी कि वह भारत के संविधान को लिखने वाली ड्राफ्टिंग कमिटी के चेयरमैन थे।

उन्होंने बहुत ही विद्वतापूर्ण एवं अर्जित ज्ञान के प्रकाश में संविधान सभा में हुई बहसों के आधार पर संविधान का प्रारूप तैयार किया था।

विद्यार्थी जीवन तक हम डॉक्टर अंबेडकर के बारे में सिर्फ इतना ही ज्ञान रखते थे।

पार्टी के नेतागण भी डॉक्टर अंबेडकर के बारे में बहुत अधिक चर्चा नहीं करते थे ।

सीपीआई नें बाद में और हमारे जीवन काल में ही अपने विचारों को परिवर्तित किया और पार्टी के एक महाधिवेशन में 14 अप्रैल के दिन डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के सामाजिक और राजनीतिक योगदान के बारे में चर्चा की।

पार्टी के उस महाधिवेशन में मुझको भी एक प्रतिनिधि होने के नाते जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
पार्टी महाधिवेशन में चर्चा के पश्चात ये वड़ा स्वाभाविक था कि हमारी पीढ़ी के कम्युनिस्टों को डॉक्टर अंबेडकर के विचारों को जानने की उत्सुकता हुई।

कम्युनिस्टों की एक विशेषता है वह अपनी सोची-समझी लाइन पर चलते रहते हैं। उनके विचार बड़े स्थिर होते हैं। विचार स्थिर होने से यह अभिप्राय नहीं कि यदि परिस्थिति बदलती है तो उन विचारों को परिस्थिति के अनुकूल परिवर्तित नहीं किया जाता।
कम्युनिस्टों के विचारों का स्थायित्व उनकी राजनैतिक एवं दार्शनिक सोच के आधार पर निर्मित होता है। इसलिए उनको बड़ी आसानी होती है कि वह नवीन विचारों को भी ग्रहण कर सकें और यदि कुछ विचार पुराने हो गए हैं तो उनको त्याग दें या उनको त्यागने की कोशिश करें।

शुरुआती वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था लचीली रही होगी यानी आपस में तब्दील होने वाली हो, अर्थात पेशे या काम के आधार पर स्थापित वर्णों में बदलाव हो सकता हो । परंतु परिवर्ती काल में जो व्यवस्था बन गई और जातियों का जिस तरीके से स्थायित्व हो गया उसमें दूसरे वर्ण में परिवर्तित होने की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई।भले ही पेशे के आधार पर वह कुछ भी काम करते हो।

परवर्ती काल में जिसको हम मनुवादी व्यवस्था का भी काल कहते हैं उसमें जातियों की व्यवस्था इतनी स्थायित्व की हो गई उसमें तीन जातियों को छोड़कर बाकी तो सभी जातियां शूद्र ठहरा दी गई। इन 3 जातियों नें अपनें आप को द्विज घोषित कर दिया और शूद्रों के लिए उस सामाजिक व्यवस्था में कोई स्थान ही नहीं रह गया।

आधुनिक भारत में , विशेष रूप से जब पश्चिमी दुनिया से मानव की बराबरी का विचार आया और एक आधुनिक जनतंत्र के जीवन का प्रादुर्भाव हुआ तो उसमें इस मनुवादी व्यवस्था को, उसकी ना टूटने वाली जाति व्यवस्था को और उस जाति व्यवस्था के आधार पर करोड़ों गरीब लोगों को जिनको समाज में शूद्र का स्थान दिया गया था ,के विरुद्ध आवाजें उठनीं शुरू हो गई।

विश्व भर में उन आवाजों का अलग अलग विकास क्रम सामने आया।

कम्युनिस्ट लोग तो अपनी विचारधारा के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था ,जातिवाद और धर्म के आधार पर शोषण के विरुद्ध थे और कम्युनिस्ट पार्टी के पीछे लाखों ऐसी जनता थी जो समाज सत्ता के द्वारा परित्यक्त थी।

ब्रिटिश काल में जब आजादी के आंदोलन का संघर्ष शुरू हुआ तो एक तरफ राजनीतिक अभियान प्रारंभ हुआ और समानांतर रूप से सामाजिक संघर्ष भी प्रारंभ हुआ।

इन परिस्थितियों में हम कम्युनिस्ट डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण समझते हैं।

आज के दिन यह  कहा जा सकता है कि अनेकों समाज सुधारकों नें जो आंदोलन किए उनमें यदि दलित जातियों को समाज में बराबरी का और सम्मान जनक स्थान दिलवाने का संघर्ष डॉक्टर अंबेडकर ने ना प्रारंभ किया होता तो संभवत दलितों की हालात में ईतना भी सुधार ना हुआ होता जितना अभी कुछ दिखता है।


1950 में संविधान बनने के साथ-साथ दलितों को 22.5% का आरक्षण मिला परंतु मनुवादी जातियों को और शक्तियों को वह आरक्षण कभी भी हजम नहीं हुआ ।

आजादी के इतिहास को पढ़ने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि हिंदुत्ववादी मनुवादी पोंगा पंथी शक्तियों ने देश के हर सामाजिक सुधार का विरोध किया है।
आज भी हम देख सकते हैं कि अगर इस आरक्षण का विरोध सबसे प्रबल कहीं से उठता है तो हम पाते हैं कि वह जो तथाकथित ऊंची जातियां हैं ,उनके संगठन हैं और उनका जो फलसफा है उसके आधार पर चलकर वही उसका सबसे अधिक विरोध करती हैं।

भारतीय जनता पार्टी के राज सत्ता में आने के बाद वो शक्तियां निर्द्वंद हो गई है।

अलग बात है बीजेपी अनेकों जातियों को एकत्रित करके शासन तो चला रही है परंतु यह आसानी से देखने में आता है कि वह पूरा शासन मनुवादी शक्तियों के आधार पर ही समाज को चलाने के लिए उद्यत रहता है।

सामाजिक न्याय के नाम पर भारत में राजनैतिक एक्सपेरिमेंट सरकारों के रूप में देखा गया है।

अगर हम ओबीसी आरक्षण के बाद के राज को इस समय ना देखें और सिर्फ एससी / एसटी आरक्षण के बाद के समय को देखें तो हम पाते हैं जो कि सामाजिक वैज्ञानिकों के लिए एक विश्लेषण की बात भी है कि बावजूद इसके कि श्री कांशीराम एवं सुश्री मायावती ने राजनैतिक सत्ता उत्तर प्रदेश में प्राप्त कर ली और सुश्री मायावती चार बार ,उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी रह चुकी जिनमें एक बार तो पूरे 5 साल तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थी।
परंतु हम  कम्युनिस्ट, दावे के साथ ये कह सकते कि उनके राज में दलितों की स्थिति , जिनके नाम पर वह सत्ता में आई, गांवों में वही की वही रही। चाहे उनकी आर्थिक हालत हो या उनका समाज में सामाजिक स्थान।
अलग बात है कि राज्य सत्ता से कुछ पाने के लिए मनुवादी उच्च जातियों के अनेकों लोग सुश्री मायावती जी के चरण स्पर्श करते दिखे।
चरण स्पर्श करने से उनको भले ही कुछ लाभ, आर्थिक सामाजिक अथवा राजनैतिक मिल गया हो परंतु उन समस्त शक्तियों ने कभी भी मनु
वादी गैर बराबरी की व्यवस्था को समूल नष्ट करने की चेष्टा नहीं की और इसके साथ साथ भले ही कांशीराम जी का और सुश्री मायावती जी का राज कायम हो गया हो परंतु दलितों के सामाजिक स्तर में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ।
ऐसा सुधार जिसकी परिकल्पना डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने की थी।
हम कम्युनिस्ट आज के दिन डॉक्टर अंबेडकर के उस भाषण का हवाला देना चाहते हैं जो वो दे नहीं पाए थे और फिर उन्होंने अपने संबोधन को एक पुस्तिका के रूप में छपवाया था।वर्ष था 1936.

पाठक के लिए इस भाषण के संबंध में भी कुछ अगर कह दिया जाए तो उचित होगा। डॉक्टर अंबेडकर का यह भाषण स्वागत समिति द्वारा सम्मेलन को इस आधार पर रद्द कर दिए जाने के परिणाम स्वरूप नहीं पढ़ा जा सका की भाषण में व्यक्त विचार सम्मेलन के लिए असहनीय होंगे।

अनादि काल से चलने वाला सेंसर ही तो यह था! इसकी प्रवृत्ति संभवत है वही थी जिसमें एक धनुर्विद्याविद्या में पारंगत युवक का अंगूठा कटवा दिया जाता था।

डॉक्टर अंबेडकर के हिंदी में 21 वॉल्यूम के उपलब्ध वांग्मय में उनके भाषण का टाइटल "जाति प्रथा उन्मूलन " छपा है उनकी यह कृति एक पुस्तिका के रूप में भी बाजार में मिलती है और बहुत पॉपुलर है ।वो इस आलेख में एक जगह उल्लेख करते हैं:

" जाति व्यवस्था समाप्त करने की एक और कार्य योजना है कि अंतर्जातीय खानपान का आयोजन किया जाए। मेरी राय में यह उपाय भी पर्याप्त नहीं है। ऐसी अनेक जातियां हैं जो अंतरजातीय खानपान की अनुमति देती हैं। इस विषय में सामान्य अनुभव यह रहा है कि अंतरजातीय खानपान की व्यवस्था जाति भावना या जाति बोध को समाप्त करने में सफल नहीं हो पाई है। मुझे पूरा विश्वास है कि इसका वास्तविक उपचार अंतरजातीय विवाह ही है। केवल खून के मिलने से ही रिश्ते की भावना पैदा होगी और जब तक सजातीयता की भावना को सर्वोच्च स्थान नहीं दिया जाता तब तक जाति व्यवस्था द्वारा उत्पन्न की गई पृथकता की भावना अर्थात पराये पन की भावना समाप्त नहीं होगी। हिंदुओं में अंतरजातीय विवाह सामाजिक जीवन में निश्चित रूप से महान शक्ति का एक कारक सिद्ध होगा। गैर हिंदुओं में इसकी आवश्यकता नहीं है। जहां समाज संबंधों के ताने-बाने में सुगठित होगा वहां विवाह जीवन कि एक साधारण घटना होगी। लेकिन जहां समाज छिन्न-भिन्न हो वहां बाध्यकारी शक्ति के रूप में विवाह की परम आवश्यकता होती है। अतः जाति व्यवस्था को समाप्त करने का वास्तविक उपाय अंतरजातीय विवाह ही है। जाति व्यवस्था समाप्त करने के लिए जाति विलय ऐसे उपाय को छोड़कर और कोई उपाय कारगर सिद्ध नहीं होगा...
जात पात तोड़क मंडल को संबोधित करते हुए वह आगे लिखते हैं कि :

"आपके जात पात तोड़क मंडल ने आक्रमण की सही नीति अपना रखी है। यह सीधा और सामने का आक्रमण है। मैं आपके सही निदान और हिंदुओं से कहने का साहस दिखाने के लिए आपको बधाई देता हूं ।वास्तव में उनमें (हिंदुओं में) क्या दोष है। सामाजिक अत्याचार के मुकाबले राजनीतिक अत्याचार कुछ भी नहीं है और वह सुधारक जो समाज का विरोध करता है उस राजनीतिज्ञ से अधिक साहसी होता है जो सरकार का विरोध करता है। आपका यह कहना सही है की जाति व्यवस्था उसी स्थिति में समाप्त होगी जब रोटी बेटी का संबंध सामान्य व्यवहार में आ जाए आपने बीमारी की जड़ का पता लगा लिया है। लेकिन क्या बीमारी के लिए आपका नुस्खा ठीक है ?यह प्रश्न अपने आप से पूछिए। अधिसंख्य हिंदू रोटी बेटी का संबंध क्यों नहीं बनाते ?आपका उद्देश्य लोकप्रिय क्यों नहीं है? उसका केवल एक ही उत्तर है और वह है रोटी बेटी का संबंध उन आस्था और धर्म सिद्धांतों के प्रतिकूल है, जिन्हें हिंदू पवित्र मानते हैं।

तो यह सन 1936 था यानी आज से 84 वर्ष पहले।
सुश्री मायावती जी की सरकार आई चली गई।

पर क्या इन रिश्तो में यानी डॉक्टर अंबेडकर के बताए गए रास्ते से समाज में कोई मूलभूत परिवर्तन आया।
संभवतः बहुत कम।
आज भी खाप पंचायतों का व्यवहार देखकर और सुनकर शरीर कांप उठता है। खाप पंचायतें और कथित 'सम्मान की खातिर हत्याएं' न केवल सगोत्र विवाह के खिलाफ हैं बल्कि मिली जुली जातियों के ऐसे विवाहों के भी विरुद्ध हैं जिनमें निम्न जाति का कोई प्राणी किसी दूसरी उच्च जाति के प्राणी से विवाह करें।ये हकीकत में घातक किस्म के षड्यंत्रकारी हत्यारे हैं। समाज द्वारा उनका इलाज अपेक्षित है।

हम कम्युनिस्ट, डॉक्टर अंबेडकर के इन विचारों का अनुमोदन करते हैं और हम यह जानते हैं कि चाहे कोई भी सामाजिक न्याय के आवरण में किन्ही जातियों को एकत्रित करके सत्ता प्राप्त कर ले परंतु वह बिना डॉक्टर अंबेडकर के इन विचारों के पालन किए समाज में परिवर्तन नहीं ला सकता।
कम्युनिस्टों को यह भी भली प्रकार से ज्ञात है कि बिना सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष किए समाज में शक्तियों का बैलेंस बदला नहीं जा सकता ।
इसलिए कम्युनिस्ट मेहनत कश जन समुदाय की वर्ग एकता कायम करते हुए और शासकों के खिलाफ वर्ग संघर्ष विकसित करते हुए जरूरी समझते हैं कि सभी तरह के जातीय भेदों और शत्रुता का दृढ़ता से विरोध किया जाए ताकि दलित और तथाकथित नीची जातियों के खिलाफ किए जाने वाले किसी भी प्रकार के अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध लड़ा जा सके तथा जातिवाद के खिलाफ लगातार वैचारिक, राजनैतिक संघर्ष चलाया जा सके। कम्युनिस्टों के लिए संघर्ष के यह विभिन्न आयाम है।

तो आइए आज 14 अप्रैल को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती के अवसर पर हम यह फिर हलफ़ उठाएं कि हम वर्गीय संघर्षों के साथ-साथ सामाजिक संघर्षों को भी मजबूती से लड़ते रहेंगे और उन लोगों की भी नकाब उतारते रहेंगे जो सामाजिक न्याय के वास्तविक उसूलों से हटकर सामाजिक न्याय के नारे को सिर्फ जाति वर्चस्व का अस्त्र बनाना चाहते हैं या बना रहे हैं।
जय भीम!
लाल सलाम!!
इंकलाब जिंदाबाद!!!
अरविन्द राज स्वरूप
कानपुर 14 अप्रैल 2020
https://www.facebook.com/arvindrajswarup.cpi/posts/2610865835798205

Thursday 9 April 2020

कोरोना काल की राजनीति ------ डा॰ गिरीश



Girish CPI

2:35 PM (4 hours ago)
 me, विजय

   जब सारा देश एकजुटता के साथ अभूतपूर्व कोरोना संकट से जूझ रहा है और संपूर्ण विपक्ष  पूरी तरह सरकार के प्रयासों का समर्थन कर रहा है, वहीं भारतीय जनता पार्टी, उसकी केन्द्र और राज्यों की सरकारें और समूचा संघ समूह आज भी अपनी तुच्छ और संकीर्ण राजनीति को आगे बढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं।

भाजपा और संघ की दलीय हितों में संलिप्त रहने की कारगुजारियों का ही परिणाम था कि भारत में कोरोना के खिलाफ जंग लगभग एक माह लेट शुरू हुयी। जनवरी के प्रारंभ में ही जब पहले कोरोना ग्रसित की पहचान हुयी, केरल सरकार ने उसे अंकुश में रखने की जो फुलप्रूफ व्यवस्था की उसकी सर्वत्र प्रशंसा होरही है। लेकिन केन्द्र सरकार और भाजपा की  राज्य सरकारों ने फरबरी के अंत तक कोई नोटिस नहीं लिया।

इस पूरे दौर में वे सीएए, एनपीआर एवं एनआरसी के विरोध में चल रहे  आंदोलनों को सांप्रदायिक करार देने में जुटे रहे। दर्जनों की जान लेने वाले और अरबों- खरबों की संपत्ति को विनष्ट करने वाले सरकार संरक्षित दिल्ली के दंगे भी इसी दौर में हुये। मध्य प्रदेश की पूर्ण बहुमत वाली सरकार को षडयंत्रपूर्वक अपदस्थ करने का खेल भी इसी दरम्यान खेला गया। कोरोना की संभावित भयावहता पर फोकस करने के बजाय संपूर्ण सरकारी तंत्र और मीडिया चीन, पाकिस्तान और मुसलमान पर ही अरण्यरोदन करता रहा।

लोगों की आस्था के दोहन की गरज से सारा फोकस राम मंदिर निर्माण की तैयारियों पर केन्द्रित था। जब देश को कोरोना से जूझने के लिये तैयार करने की जरूरत थी, तब हमारी केन्द्र सरकार और कई राज्य सरकारें, सपरिवार निजी यात्रा पर भारत भ्रमण को आये अमेरिकी राष्ट्रपति के भव्य और बेहद खर्चीले स्वागत की तैयारियों में जुटी थीं। यूरोप और अमेरिका में भी जब कोरोना पूरी तरह फैल चुका था, श्री ट्रंप ने अमेरिकी नागरिकों की रक्षा से ज्यादा निजी यात्रा को प्राथमिकता दी। परिणाम सामने है।

जनवरी और फरबरी में ही कोरोना ने चीन, यूरोप, अमेरिका आदि अनेक देशों को बुरी तरह चपेट में ले लिया था, तब उच्च और उच्च मध्यम वर्ग के तमाम लोग धड़ाधड़ इन देशों से लौट रहे थे। इन वर्गों के लिये पलक- पांबड़े बिछाने वाली सरकार ने एयरपोर्ट पर मामूली जांच के बाद उन्हें घरों को जाने दिया। ये ही लोग भारत में कोरोना के प्रथम आयातक और विस्तारक बने। चिकित्सा और बचाव संबंधी तमाम सामग्री का निर्यात भी 19 मार्च तक जारी रहा।

सरकार को होश तब आया जब कोरोना भारत में फैलने लगा। अपनी लोकप्रियता और छवि निर्माण के लिये हर क्षण प्रयत्नशील रहने वाले प्रधान मंत्री श्री मोदी ने 22 मार्च को 14 घंटे के लाक डाउन और और शाम को थाली- ताली पीटने का आह्वान कर डाला। निशाना कोरोना से जूझ रहे उन स्वास्थ्यकर्मियों के कंधे पर रख कर साधा गया जिन्हें आज तक सुरक्षा किटें नहीं मिल सकी हैं और उसकी मांग करने पर उन्हें बर्खास्तगी जैसे दंडों को झेलना पड़ रहा है।

यह ध्रुव सत्य है कि कोरोना अथवा किसी भी महामारी और बीमारी का निदान विज्ञान के द्वारा ही संभव है, उन मंदिर, मस्जिद, चर्च से नहीं जिन पर आज ताले लटके हुये हैं। लेकिन शोषक वर्ग खास कर धर्म, पाखंड और टोने- टोटकों के बल पर वोट बटोरने वाली जमातों को वैज्ञानिक सोच से बहुत डर लगता है। सभी जानते हैं कि श्री दाभोलकर, गोविन्द पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याओं के पीछे इन्हीं विज्ञान विरोधी कट्टरपंथियों का हाथ रहा है।

भारत में साँप के काटने पर लोग आज भी थाली बजाते हैं। आज भी पशुओं में बीमारी फैलने पर तंत ( तंत्र ) कर खप्पड़ निकालते हैं और थाली ढोल मंजीरा पीटते हैं। तमाम ओझा, फकीर और मौलवी- मुल्ले कथित भूत्त- प्रेत बाधा का निवारण और कई बीमारियों का इलाज भी झाड फूक और थाली लोटा बजा कर करते हैं। प्रधानमंत्री ने आम जन को इसी तंत्र मंत्र में उलझा कर विज्ञान की वरीयता को निगीर्ण करने की चेष्टा की। अति उत्साही उनके अनुयायियों ने उसमें आतिशबाज़ी का तड़का भी लगा दिया। वैज्ञानिक द्रष्टिकोण रखने वाले लोगों ने स्वास्थ्यकर्मियों को सैल्यूट कर उनके प्रति क्रतज्ञता का इजहार किया।

प्रधानमंत्री जी का रात आठ बजे टीवी पर प्रकट होना और आधी रात से लागू होने वाले उनके फैसले देश के लिये संकट का पर्याय बन चुके हैं। नोटबंदी और जीएसटी से मिले घाव अभी देश भुला नहीं पाया था कि अचानक प्रधानमंत्री टीवी पर पुनः प्रकट हुये और 25 मार्च से 3 सप्ताह के लिये लाक डाउन की घोषणा कर दी। अधिकतर ट्रेनें, बसें और एयर लाइंस पहले ही बंद किए जाचुके थे। अचानक और बिना तैयारी के उठाये इस कदम से सभी अवाक रह गये।

कल- कारखाने, व्यापार- दुकान बन्द होजाने से करोड़ों मजदूर सड़क पर आगये। रोज कमा कर खाने वाले और गरीबों के घर में तो अगले दिन चूल्हा जलाने को राशन तेल भी नहीं था। बदहवाश लोग बाज़ारों की ओर दौड़े। अधिकांश बाजार बंद हो चुके थे। जो दुकानें खुली थीं उन्होने भीड़ बढ़ती देख मनमानी कीमत बसूली। गंभीर बीमारियों से पीड़ितों के पास पर्याप्त दवा तक नहीं थी।

अनेकों सेवायोजकों ने मजदूरों को काम पर से हठा दिया। मकान मालिकों ने उन्हें घरों से निकाल दिया। धनाढ्य लोगों के कहने पर दिल्ली पुलिस ने उनकी झौंपड़ियों को उजाड़ दिया और उन्हें दिल्ली की सीमाओं के बाहर छोड़ दिया। सरकार की इस अदूरदर्शिता ने करोड़ों लोगों को सड़क पर ला दिया। बहु प्रचारित सोशल डिस्टेन्सिंग तार तार होगयी और विस्थापन को मजबूर मजदूर और अन्य गरीबों ने पहाड़ जैसी पीड़ा झेलते हुये जन्मभूमि का रुख किया। भूख- प्यास और थकान से तीन दर्जन लोगों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। सरकार की कड़ी आलोचना हुयी। तब भाजपा और उसकी सरकार हानि की भरपाई के रास्ते तलाशने में जुट गयी।

सीएए विरोधी आंदोलन और बाद में हुये दिल्ली के दंगों के चलते दिल्ली में धारा 144 लागू थी। सारे देश में राजनैतिक दलों के कार्यक्रमों के आयोजन की इजाजत दी नहीं जा रही थी। तमाम वामपंथी जनवादी दलों एवं संगठनों ने कोरोना की भयावहता को भाँप कर अपने अनेकों कार्यक्रम रद्द कर दिये थे। पर ये केन्द्र सरकार थी जो विपक्ष के आगाह करने के बावजूद संसद को चलाती रही। भाजपा के लिये राजनीतिक जमीन तैयार करने वाले धर्मध्वजधारी समूह अपने कार्यक्रमों को अंजाम देते रहे।

दफा 144 के बावज़ूद दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज में जमात चलती रही। लाक डाउन लागू होने के बाद भी जमातियों को हटाने और गंतव्य तक पहुंचाने को कदम उठाए नहीं गये। जब जमाती बीमार पड़ने लगे तब भी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। आखिर क्यों?

फिर क्या था, सरकार और मीडिया को आखिर वह नायाब शैतान मिल ही गया जिस के ऊपर कोरोना के विस्तार की सारी ज़िम्मेदारी डाल कर वह सरकार की मुजरिमाना नाकामियों पर पर्दा डाल सकते थे। सरकार, उसके मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री, भाजपा और संघ के प्रवक्ता, भाजपा की मीडिया सेल और सारा गोदी मीडिया जनता के कोरोना विरोधी संघर्ष को सांप्रदायिक बनाने में जुट गये। स्वाष्थ्य मंत्रालय के मना करने के बावजूद भी यह आज तक उसी रफ्तार से जारी है।

दूसरे धर्मों के ठेकेदार भी उन दिनों वही सब कर रहे थे जो जमात कर रही थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री आदित्यनाथ जी सोशल डिस्टेन्सिंग की धज्जियां उड़ाते हुये अयोध्या में अगली कार सेवा का आगाज कर रहे थे। कोरोना की विभीषिका की फिक्र से कोसों दूर वे पूरे दो दिनों तक अयोध्या में थे। इससे पहले वे मथुरा में वे लठामार होली का आनंद ले रहे थे।

इस बीच कई बार भाजपा के जन प्रतिनिधियों के बयानों और कारगुजारियों से भाजपा का जन विरोधी, गरीब विरोधी, फासिस्ट चेहरा उजागर हुआ। एक विधायक लाक डाउन में पुलिस की मार खारहे लोगों को गोली से उड़ाने का आदेश देते दिखे तो एक अन्य विधायक तब्लीगियों को कोरोना जेहादी बता रहे थे। यूपी के बलरामपुर की भाजपा जिलाध्यक्ष ने खुलेआम पिस्तौल से फायरिंग कर कानून की धज्जियां बिखेरीं।

मोदीजी 3 अप्रेल को फिर टीवी पर नमूदार हुये। उन्होने एक बार फिर 5 अप्रेल को रात 9 बजे घर की बत्तियाँ बंद कर 9 मिनट तक घर के दरवाजे या बालकनी में रोशनी करने का आह्वान किया। किसी की समझ में नहीं आया कि इस नए टोने से कोरोना पर क्या असर पड़ेगा? प्रबुध्द जनों ने खोज निकाला कि 40 वर्ष पूर्व 5 अप्रेल को विगत जनसंघ के शूरमाओं ने नई पार्टी- भाजपा बनाने का निर्णय लिया था, जिसकी घोषणा 6 अप्रेल को की गयी थी। यह लाक डाउन में भी पार्टी के स्थापना दिवस को भव्य तरीके से मनाने की जुगत थी।

यूं तो कार्यक्रम को स्वैच्छिक बताया गया लेकिन केन्द्र और राज्यों की कई सरकारें इसकी  कामयाबी के लिये पसीना बहाती दिखीं। संगठन और मीडिया तो और भी आगे थे। ठीक 9 बजे सायरन भी बजाए गए। जागरूक लोगों को यह समझने में देर नहीं लगी कि कोरोना की आड़ में यह एक राजनीतिक कार्यक्रम है। अतएव वैज्ञानिक सोच के लोगों, तार्किक लोगों, पोंगा पंथ विरोधी लोगों और सामाजिक न्याय की ताकतों ने इससे दूरी बनाए रखी।

लेकिन 5 अप्रेल की रात को जो सामने आया वह केवल वह नहीं था जिसकी भावुक अपील श्री मोदी  ने की थी। मोदी जी ने स्ट्रीट लाइट्स जलाये रखने को कहा था, पर अति उत्साही प्यादों ने अनेक जगह वह भी बुझा दी। गांवों में अनेक जगह ट्रांसफार्मर से ही बिजली उड़ा दी गयी। दीपक, मोमबत्तियाँ, टार्च जलीं यहाँ तक तो ठीक था। पर जय श्रीराम एवं मोदी जिंदाबाद के नारे लगे और सोशल डिस्टेन्सिंग की धज्जियां बिखेरते हुये कैंडिल मार्च निकाले गये।

और इस सबसे ऊपर वह था जिसकी गम के इस माहौल में कल्पना नहीं की जा सकती। कोरोना प्रभावित कई दर्जन लोगों की मौतें होचुकी थीं। अपने घरों की राह पकड़े भूख प्यास से मरे लोगों की संख्या भी तीन दर्जन हो चुकी थी। पर 9 बजते ही बेशुमार पटाखों की आवाजों से आसमान गूंज उठा। आतिशबाज़ी का यह क्रम 20 से 25 मिनट तक जारी रहा। सोशल मीडिया के माध्यम से मिनटों में पता लग गया कि यह आतिशबाज़ी पूरे देश में की जारही थी। मध्यवर्ग का अट्टहास तो देखते ही बनता था। वे गरीब भी पीछे नहीं थे जिनके घरों में मुश्किल से चूल्हे जल पारहे थे। वे युवा भी थे जो अपनी नौकरियाँ गंवा बैठे थे। लाशों पर ऐसा उत्सव पहले कभी देखा सुना नहीं गया।

सवाल उठता है कि जब सारे देश में लाक डाउन था इतनी बारूद लोगों तक कैसे पहुंची? क्या लोगों के घरों में आतिशबाज़ी की इस विशाल सामग्री का जखीरा जमा था? दीवाली पर शहरों की सुरक्षित जगहों पर आतिशबाज़ी के बाज़ार सजते हैं, पर अब तो बाज़ार ही बंद थे।  छान बीन से नतीजा निकला कि आम लोगों तक दीपक और पटाखे पहुंचाये गये थे। संघ समूह का खुला एजेंडा रोशनी करना- कराना था, पर छुपा एजेंडा था बड़े पैमाने पर आतिशबाज़ी कराकर जनता पर मोदी जी के कथित प्रभाव का प्रदर्शन कराना। गणेश जी को दूध पिलाने जैसा यह जनता की विवेकशक्ति को परखने का एक और हथकंडा था।

लेकिन इसकी पहुँच में सरकारी अधिकारी और अर्ध सैनिक बल भी थे। तमाम पुलिस प्रशासनिक अधिकारियों ने ड्यूटी छोड़ घरों पर सपरिवार रोशनी करने की तस्वीरें सगर्व सार्वजनिक कीं।

एक जाने माने हिन्दी कवि श्री कुमार विश्वास ने इस पूरे कथानक पर अपनी गहन पीड़ा व्यक्त करते हुये इसे “विपदा का प्रहसन” करार दिया। पर जिन लोगों ने फासीवाद का इतिहास पड़ा है वे जानते हैं कि फासीवादी शक्तियाँ अपनी भावुक अपीलों से जनता को छलती रहीं हैं।

किसी मुद्दे पर विपक्ष के मुंह खोलते ही उस पर राजनीति का आरोप जड़ने वाली भाजपा आज भी अपनी परंपरागत राजनीति धड़ल्ले से चला रही है। सत्ता और मीडिया के बल पर झूठ और दुष्प्रचार की सारी सीमाएं लांघ रही है। पूरे देश में एक साथ लाइटें बंद करने से ग्रिड पर संकट मंडराने लगा था। ग्रिड के अधिकारियों ने इस स्थिति से निपटने को वाकायदा तैयारियां कीं और अधिकारी कर्मचारियों को मुस्तैद रहने के लिखित निर्देश जारी किये। विपक्ष ने जब आवाज उठायी तो सरकार सकपकाई। फ्रिज, एसी आदि चालू रखने की अपीलें की गईं। भले ही वो विपक्ष पर आरोप लगाये कि वह अफवाह फैला रहा है, पर इससे यह खुलासा तो हो ही गया कि अति उत्साह में मोदीजी ने ग्रिड को संकट में डाल दिया था।

कोरोना के विरूध्द इस जंग में विज्ञान की प्रभुता और धर्मों का खोखलापन उजागर होगया है। धीरे धीरे धर्मों के नाम पर समाज को बांटने की साज़िशों की कलई खुलती जारही है। भाजपा और संघ इससे परेशान हैं। वे कोरोना के विरूध्द जनता के संयुक्त संघर्ष को अकेले मोदी जी का संघर्ष बताने में जुटे हैं। विपक्ष की गतिविधियों को पिंजड़े में बंद कर अपने एजेंडे पर वे पूर्ववत कार्य कर रहे हैं।

डा॰ गिरीश

दिनांक- 9 अप्रेल 2020