Thursday, 26 December 2024

साम्यवाद भारतीय अवधारणा है--- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 100 वें स्थापना दिवस पर विशेष ----- विजय राजबली माथुर

 



हिंदुस्तान,लखनऊ,16-12-2012  मे राजेन्द्र जी के इस कार्टून ने एक बार फिर से 'साम्यवाद' को विदेशी अवधारणा सिद्ध करने का प्रयास किया है और इसके लिए सिर्फ उनको ही दोष नहीं दिया जा सकता है। हमारे अपने देश के साम्यवादी विद्वान खुद-ब-खुद अपने को 'मार्कसवाद' का अंध-भक्त बताने हेतु भारतीय वांगमय की निंदा करना अपना नैतिक धर्म समझते हैं। इनकी खसूसियत यह है कि ये खुद अपने को 'धर्म विरोधी' होने का फतवा जारी करते हैं और बिना सोचे-विचारे धर्म की निर्मम आलोचना करते हैं। कभी 'धार्मिक भटकाव' तो कभी 'संस्थागत धर्म' जैसे मुहावरों को गढ़ते और प्रचारित करते रहते हैं।


धर्म=जो मानव शरीर और मानव सभ्यता को धारण करने हेतु आवश्यक है। जैसे-सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। अब जब मार्क्स वादी होने की धुन मे धर्म की आलोचना की जाएगी तो स्पष्ट है कि इन सद्गुणों से दूर रहने को कहा जा रहा है। खुद को महान चिंतक सिद्ध करने की हवस मे ये विद्वान खुद-ब-खुद अपने दृष्टिकोण को ध्वस्त करते व प्रतिपक्षी को फतह हासिल करने के लिए खुला मैदान छोडते जाते हैं।


रोज़ी -रोटी के लिए खड़ी की गई दुकानों को ये विद्वान 'धर्म' की संज्ञा देते हैं। जबकि जनता को वास्तविक धर्म समझा कर उनसे दूर रखा जा सकता था। हमारे विद्वानों यथा-कबीर,रेदास,दयानन्द,विवेकानंद आदि के विचारों द्वारा हम अपनी बात को ज़्यादा अच्छे  ढंग से जनता को समझा सकते हैं और जनता मानेगी भी। जब खुराफात को साम्यवादी विद्वान ही धर्म की संज्ञा देंगे तब जनता तो उनके प्रति आकृष्ट होगी ही। शोषक-उत्पीड़क वर्ग के हित मे शासन -सत्ता से मिल कर जिन तत्वों ने वास्तविक धर्म को  जनता से ओझल  करके धन कमाई की तिकड़मे की हैं उन ही लोगों को हमारे अपने इन विद्वानों से बल मिलता है। आज का समय 'आत्मालोचना' का है की,1952 की संसद का मुख्य विपक्षी दल अब दलों के दल-दल मे मे कैसे फंसा है और गुड़ से चिपके चीटों की तरह लुटेरे कैसे सत्ता पर हावी हैं?कहने की आवश्यकता नही है कि इसके लिए ऐसे अहंकारी साम्यवादी विद्वान ही उत्तरदाई हैं। 'साम्यवाद' मूलतः भारतीय अवधारणा है और यहीं से मेक्समूलर साहब की मार्फत जर्मनी पहुंची है जिसके जर्मन भाषा मे अनुवाद पर कार्ल मार्क्स साहब ने अपना सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। उन्होने विश्लेषण मे जो गलती की वह इंग्लैण्ड और जर्मनी की सामाजिक व्यवस्था पर आधारित है। हमे भारत मे उस गलती को क्यों दोहराना चाहिए?


और फिर खुद कामरेड  जोसेफ स्टालिन का मानना था कि भारत मे 'साम्यवाद' का रास्ता तथा तौर-तरीका वह नहीं होना चाहिए था जैसा कि सोवियत रूस मे था। निम्नलिखित संदर्भ से इस बात की पुष्टि की जा सकती है---


 

Record of the Discussions of J.V. Stalin with the Representatives of the C.C. of the Communist Party of India Comrades, Rao, Dange, Ghosh and Punnaiah

9th February 1951




 Taken down by V. Grigor’yan 10.II.51.

(Signed) V. Grigor’yan Typescript.

RGASPI F. Op. 11 D. 310, LL. 71-86.

Published with the kind permission of the authorities of the Russian State Archive of Social and Political History.

Translated from the Russian by Vijay Singh


स्टालिन साहब ने कहा था- Stalin’s understanding of the problems before the CPI exerted a profound effect on the course of the history of the party as it led to the recasting of the party approach to the understanding of the character of the Indian state, the stage of revolution, the path of revolution, and the nature of armed revolution and armed struggle, the role of the working class and the peasantry in the revolutionary process in India. This found its expression in the formulation of the new party documents which were drafted in 1951 shortly after the Moscow meetings between the representatives of the CPI and the CPSU

लेकिन हमारे तब के नेताओं ने स्टालिन साहब के सुझावों को स्थाई रूप से स्वीकार नहीं किया- The resolution of the questions of the Indian revolution worked out in 1951, however, proved to be short-lived. With the changes in the Soviet Union after 1953 and the 20th Congress of the CPSU three years later there occurred a corresponding change in the programmatic and tactical perspectives of the CPI: the stage of people’s democratic revolution was dropped in favour of a national democratic revolution which would have an enhanced role for the national bourgeoisie, and revolutionary strategies were replaced by peaceful and parliamentary ones.



 परिणामस्वरूप 1964 मे तेलंगाना आंदोलन की लाईन को सही मानने और चीन की पद्धति पर अमल करने व चीन को आक्रांता न मानने के कारण एक तबका अलग हो गया जिसे आज CPM के नाम से जाना जाता है। 1967 मे पश्चिम बंगाल मे कामरेड ज्योति बासु के उप मुख्यमंत्री व गृह मंत्री रहते हुये 'नक्सल बाड़ी आंदोलन'को कुचले जाने के कारण CPM से फिर एक तबका अलग हो गया और अब तो उस तबके के अलग-अलग आठ-दस और तबके हो चुके हैं। 


चाहे जितने तबके व गुट हों सबमे एक ज़बरदस्त समानता है कि वे 'साम्यवाद' को खुद भी विदेशी अवधारणा मानते हैं। 'Man has created the GOD for his Mental Security only'-मार्क्स साहब का यह वाक्य सभी के लिए 'ब्रह्म वाक्य' है इस कथन को कहने की परिस्थियों व कारणों की तह मे जाने की उनको न कोई ज़रूरत है और न ही समझने को तैयार हैं। उनके लिए धर्म अफीम है। वे न तो धर्म का मर्म जानते हैं और न ही जानना चाहते हैं। वस्तुतः धर्म=जो मानव शरीर एवं मानव सभ्यता को धरण करने हेतु आवश्यक है जैसे ---

'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य'। अब इन सद्गुणों की मुखालफत करके हम समाज से शोषण और उत्पीड़न को कैसे समाप्त कर सकते हैं?और यही वजह है कि इन सद्गुणों को ठुकराने के कारण सोवियत रूस मे साम्यवाद उखड़ गया और जो चीन मे चल रहा है वह वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी के संरक्षण मे चल रहा 'पूंजीवाद' ही है। 


 प्रकृति में जितने भी जीव हैं उनमे मनुष्य ही केवल मनन करने के कारण श्रेष्ठ है,यह विशेष जीव ज्ञान और विवेक द्वारा अपने उपार्जित कर्मफल को अच्छे या बुरे में बदल सकता है.कर्म तीन प्रकार के होते हैं-सद्कर्म का फल अच्छा,दुष्कर्म का फल बुरा होता है.परन्तु सब से महत्वपूर्ण अ-कर्म होता है  जिसका अक्सर लोग ख्याल ही नहीं करते हैं.अ-कर्म वह कर्म है जो किया जाना चाहिए था किन्तु किया नहीं गया.अक्सर लोगों को कहते सुना जाता है कि हमने कभी किसी का बुरा नहीं किया फिर हमारे साथ बुरा क्यों होता है.ऐसे लोग कहते हैं कि या तो भगवान है ही नहीं या भगवान के घर अंधेर है.वस्तुतः भगवान के यहाँ अंधेर नहीं नीर क्षीर विवेक है परन्तु पहले भगवान को समझें तो सही कि यह क्या है--किसी चाहर दिवारी में सुरक्षित काटी तराशी मूर्ती या  नाडी के बंधन में बंधने वाला नहीं है अतः उसका जन्म या अवतार भी नहीं होता.भगवान तो घट घट वासी,कण कण वासी है उसे किसी एक क्षेत्र या स्थान में बाँधा नहीं जा सकता.भगवान क्या है उसे समझना बहुत ही सरल है-भ-अथार्त भूमि,ग-अथार्त गगन,व्-अथार्त वायु, I -अथार्त अनल (अग्नि),और न-अथार्त-नीर यानि जल,प्रकृति के इन पांच तत्वों का समन्वय ही भगवान है जो सर्वत्र पाए जाते हैं.इन्हीं के द्वारा जीवों की उत्पत्ति,पालन और संहार होता है तभी तो GOD अथार्त Generator,Operator ,Destroyer  इन प्राकृतिक तत्वों को  किसी ने बनाया नहीं है ये खुद ही बने हैं इसलिए ये खुदा हैं.


जब भगवान,गाड और खुदा एक ही हैं तो झगड़ा किस बात का?परन्तु झगड़ा है नासमझी का,मानव द्वारा मनन न करने का और इस प्रकार मनुष्यता से नीचे गिरने का.इस संसार में कर्म का फल कैसे मिलता है,कब मिलता है सब कुछ एक निश्चित प्रक्रिया के तहत ही होता है जिसे समझना बहुत सरल है किन्तु निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा जटिल बना दिया गया है.हम जितने भी सद्कर्म,दुष्कर्म या अकर्म करते है उनका प्रतिफल उसी अनुपात में मिलना तय है,परन्तु जीवन काल में जितना फल भोग उसके अतिरिक्त कुछ शेष भी बच जाता है.यही शेष अगले जनम में प्रारब्ध(भाग्य या किस्मत) के रूप में प्राप्त होता है.अब मनुष्य अपने मनन द्वारा बुरे को अच्छे में बदलने हेतु एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा समाधान कर सकता है.यदि समाधान वैज्ञानिक विधि से किया जाए तो सुफल परन्तु यदि ढोंग-पाखंड विधि से किया जाये तो प्रतिकूल फल मिलता है.


लेकिन अफसोस यही कि इस वैज्ञानिक सोच का विरोध प्रगतिशीलता एवं वैज्ञानिकता की आड़ मे साम्यवाद के विद्वानों द्वारो भी किया जाता है और पोंगापंथी ढ़ोंगी पाखंडियों द्वारा भी। अतः नतीजा यह होता है कि जनता धर्म के नाम पर व्यापारियो/उद्योगपतियों/शोषकों के बुने जाल मे फंस कर लुटती रहती है। साम्यवाद-समाजवाद के नारे लगते रहते हैं और नतीजा वही 'ढाक के तीन पात'। 

Saturday, 21 December 2024

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गौरवशाली सौ वर्ष- ------ डा. गिरीश

 शताब्दी वर्ष समारोह के आयोजन की तैयारियां ज़ोरों पर


भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आगामी 26 दिसंबर 2024 को अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश करने जा रही है। पूरे देश में शताब्दी वर्ष को भव्य से भव्य बनाने की तैयारियां ज़ोरों पर हैं। भाकपा ने इस संबंध में काफी समय पहले ही निर्णय ले लिया था और आयोजनों की व्यापक कार्य योजना तैयार की गई थी। इसी माह के प्रारंभ में संपन्न हुयी राष्ट्रीय परिषद की बैठक के बीच पार्टी के राष्ट्रीय सचिव मंडल के सदस्यों द्वारा शताब्दी वर्ष समारोह के लिये एक ‘लोगो’ जारी किया गया।


पार्टी के शताब्दी वर्ष समारोहों का शुभारंभ कानपुर में 26 दिसंबर 2024 को एक भव्य समारोह के साथ होगा। सभी जानते हैं कि कानपुर में ही 25, 26 एवं 27 दिसंबर को पार्टी की स्थापना कांग्रेस हुयी थी। अतएव कानपुर को इस मौके के लिये खासतौर पर चुना गया है। वहां इसके आयोजन की जोरदार तैयारियां चल रही हैं। कानपुर ही नहीं अधिकतर राज्यों की राजधानियों में उस दिन भव्य कार्यक्रम आयोजित किए जायेंगे। कई राज्यों में यह आयोजन अगली तिथियों में होगा। ऐसा नेत्रत्व की उपलब्धता को ध्यान में रख कर किया गया है।


जिला स्तरों पर भी अनेकों जगह अनेक कार्यक्र्म आयोजित किए जायेंगे, जो विभिन्न रूपों में पूरे वर्ष चलते रहेंगे। मुख्य उद्देश्य पार्टी के गौरवशाली इतिहास को जन जन तक पहुंचाना तथा देश की बड़ी आबादी को भाकपा की आज प्रासंगिकता से अवगत कराना है। उत्तर प्रदेश जिसे कि भाकपा की स्थापना का गौरव हासिल है, की पार्टी राज्य समिति ने हर जिले में कम से कम 100 बैठकें आयोजित करने का निश्चय किया है, जहां कम से एक नया सदस्य बनाया जाएगा। इस तरह सौ नई शाखाओं की नींव रखी जायेगी। इसके अलावा हर जिले में कई कई बड़े कार्यक्रम आयोजित किए जायेंगे।


समापन स्थल के रूप में किसान- सशस्त्र संघर्षों की तपोभूमि- तेलांगाना के खम्मम को चुना गया है, जहां 26 दिसंबर 2025 को एक विशाल रैली और जनसभा आयोजित की जायेगी। 21 से 25 सितंबर के बीच चंडीगढ़ में पार्टी का आगामी महाधिवेशन होने जा रहा है। महाधिवेशन को सफल बनाने और पार्टी के पुनर्निर्माण और कायाकल्प के लिये शताब्दी वर्ष को एक यादगार अवसर बनाने का द्रढ़ निश्चय राष्ट्रीय परिषद में दोहराया गया है।


इस सारी कवायद के गंभीर कारण भी हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी देश की पहली और एकमात्र पार्टी है जिसकी स्थापना उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के तपे- तपाये नेताओं ने की। देश की आजादी के संघर्ष को व्यापक और जुझारू रुप प्रदान करने तथा “संपूर्ण आजादी” को आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य निर्धारित कराने में इसने उल्लेखनीय भूमिका निभाई।


ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मात्रभूमि को स्वतंत्र कराने की अदम्य इच्छा से लैस विभिन्न क्रांतिकारी समूहों के अगुवा और उत्साही कामरेड्स 25 से 27 दिसंबर 1925 को तत्कालीन मजदूर आंदोलन के प्रमुख केन्द्र  कानपुर में एकत्रित हुये और देश की पहली राष्ट्र- स्तरीय कम्युनिस्ट पार्टी- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ( Communist Party of India ) के नाम, नीतियों, लक्ष्यों और सांगठनिक ढांचे का निरूपण किया।


1917 के अक्तूबर माह में संपन्न रूस की समाजवादी क्रान्ति की सफलता ने भी इन्हें एकजुट होने और आजादी के संघर्ष को धार देने के लिये प्रेरित किया था। यहां यह रेखांकित किया जाना चाहिये कि आजादी की लड़ाई में मजदूर वर्ग की भूमिका के महत्व को समझते हुये मार्क्सवाद- लेनिनवाद से अनुप्राणित क्रान्तिकारी- भगत सिंह ने कानपुर में डेरा डाला था और एक समूह का गठन किया था।


तत्कालीन वस्तुगत परिस्थितियों ने भी भाकपा की स्थापना हेतु परिस्थितियों का निर्माण किया था। गांधीजी की अगुवाई और कांग्रेस के नेत्रत्व में चल रहे 1920- 22 के असहयोग आंदोलन और कई अन्य आंदोलनों ने साम्राज्यवाद के खिलाफ जन भागीदारी वाला आकार ग्रहण कर लिया था। लेकिन गोरखपुर के चौरी- चौरा में मुक्तियोद्धाओं के सशस्त्र संघर्ष से विचलित गांधीजी ने आंदोलन को वापस ले लिया था।


इससे हताश नौजवानों ने नई राह तलाशना शुरू कर दिया। इसी तरह अद्वितीय वीरता और बलिदानों के बावजूद संघर्षरत भूमिगत क्रान्तिकारी साम्राज्यवाद के खिलाफ जनता को लामबंद करने में असफल रहे। इससे मोहभंग होने पर युवाओं ने मार्क्सवाद- लेनिनवाद की ओर रुख किया और परिणाम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन था।


देश भर में किसान- मजदुर्रों  और छात्रों के जुझारू और वर्गीय आंदोलनों के उभार ने भी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के लिये प्रष्ठभूमि तैयार की थी। क्रांतिकारियों पर विभिन्न षडयंत्रों के झूठे केस लगाने से भी साम्राज्यवादियों द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न के खिलाफ वातावरण निर्मित हुआ।


राष्ट्रीय आजादी और वर्ग संघर्ष को आधार बनाते हुये भाकपा ने- जोतने वालों को जमीन, विदेशी साम्राज्यवादी पूंजी का राष्ट्रीयकरण, वयस्क मताधिकार एवं प्रजातन्त्र, राष्ट्र की संपदा राष्ट्र के हाथों, में, काम के घंटे आठ, संगठन बनाने का लोकतान्त्रिक अधिकार,  सभाएं प्रदर्शन एवं हड़ताल, महिलाओं को सामाजिक बराबरी, अछूतों को सामाजिक न्याय आदि मांगों को राष्ट्रीय एजेंडे का रूप दिया।


निर्धारित लक्ष्यों की ओर बढ़ते हुये कम्युनिस्टों की पहलकदमी से 1920 में देश के प्रथम राष्ट्रव्यापी मजदूर संगठन- एआईटीयूसी की स्थापना हुयी जिसमें आज भी वे प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। ये कम्युनिस्ट ही थे जिन्होंने 1921 में कांग्रेस के भीतर पूर्ण स्वतन्त्रता हेतु प्रस्ताव पेश किया और बाद में अपने संघर्षों के बल पर स्वीक्रत कराया।


भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और उसके अनुयायियों की सक्रिय भागीदारी से 1936 में तीन संयुक्त जन संगठनों की स्थापना की गयी। वे हैं- आल इंडिया किसान सभा (AIKS), आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (AISF) एवं प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन (PWA)। 1941 में इंडियन प्यूपिल्स थ्येटर एसोशिएसन (IPTA) की स्थापना की गयी । सभी संगठनों ने देश के जाने माने बुध्दिजीवियों और आमजनों को आजादी के आंदोलन में उतारा और जनजागरण किया। महिला कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने 1954 में नेशनल फेडरेशन आफ इंडियन वीमेन (NFIW) के गठन में निर्णायक भूमिका निभाई।


1946 में निजाम के सामन्तवादी शासन को उखाड़ कर ज़मीनों को कब्जा कर जनता में बांटने का काम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने किया। इसे तेलांगाना सशस्त्र आंदोलन के नाम से जाना जाता है। 1940 में हुये कय्यूर, पुन्नप्रा- वायलार, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान संघर्ष और ऐसे ही कई और बलिदानी आंदोलन इसकी झोली में हैं। राजशाही राज्यों को स्वतंत्र भारत में मिलाने के लिये भी भाकपा ने मजबूत आवाज उठायी।


1946 में हुये चुनावों में भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने वाकायदा हिस्सा लिया। स्पष्ट है भाकपा ने जन आंदोलनों, चुनावों और सशस्त्र संघर्षों को लक्ष्य प्राप्ति हेतु माध्यम बनाया।


हिटलर के फासीवाद पर ऐतिहासिक विजय के परिणामस्वरूप उत्पन्न जन उभार ने भारत की स्वतन्त्रता के लिये अंतिम संघर्ष के द्वार खोल दिये थे। युध्द के बाद के काल में 1945- 47 के साम्राज्यवाद विरोधी ज्वार में कम्युनिस्ट निर्णायक भूमिका में थे।


स्वतन्त्रता के बाद 1952 में हुये देश के प्रथम आम चुनावों में सीपीआई विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। आगे के कई चुनावों में भी पार्टी शानदार जीत हासिल कर विपक्ष की भूमिका में रही। पार्टी की विपक्षी भूमिका को निरूपित करते हुये पार्टी के तत्कालीन महासचिव अजय घोष ने कहा कि हम केवल विरोध के ही लिये नहीं, इतिहास के नवनिर्माण हेतु विपक्ष की भूमिका निभायेंगे। यह है विपक्ष की भूमिका में कम्युनिस्टों का द्रष्टिकोण।


1957 में देश की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार केरल में स्थापित हुयी।


भाषा के आधार पर राज्यों के निर्धारण हेतु भी सीपीआई ने अहम भूमिका निभाई। दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की आकांक्षाओं को सम्पूर्ण महत्व देते हुये भी सीपीआई जातिवाद का प्रबल विरोध करती है। शोषण और दमन से मुक्त वर्गविहीन और जातिविहीन समाज का निर्माण ही हमारा भविष्य का द्रष्टिकोण है।


व्यापक विविधता और बहुलवाद की भारत की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुकूल संसदीय प्रणाली की रक्षा में भाकपा ने अद्भुत कार्य किया है। साथ ही संसद को जनता की सही आकांक्षाओं को पूरा करने वाला संस्थान बनाने को वह चुनाव सुधारों के लिये अभियान चला रही है ताकि चुनावों में धनबल और बाहुबल के प्रभाव को रोका जा सके। फासीवादी लक्ष्यों की ओर बढ़ रही मौजूदा सरकार द्वारा संविधान पर बोले जा रहे हमलों को वह अन्य शक्तियों के साथ मिल कर विफल करने के प्रयासों में जुटी है।


देश की एकता अखंडता की रक्षा में वह किसी से पीछे नहीं। खालिस्तानी आतंकवाद हो या कश्मीर का प्रायोजित आतंकवाद, सभी के खिलाफ लड़ते हुये उसके तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं ने शानदार शहादतें दी हैं। सांप्रदायिकता के खतरे को सर्वप्रथम पहचानते हुये इसने इसके विरूध्द संघर्ष को राजनीति के केन्द्र में ला दिया। सांप्रदायिक फासीवादी शासन की कुटिल मंशा को विफल बनाने को भाकपा ने ‘हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई एकता’ को वजूद में लाने के लिये कार्य किया है। वहीं किसानों- कामगारों के मुद्दा आधारित संघर्षों की अगुवाई कर उन्हें आजादी और लोकतन्त्र की रक्षा के संघर्ष में उतारा है।


100 वर्षों के विशाल और सम्रध्द इतिहास को कुछ पन्नों में नहीं समेटा जा सकता। भावी पीढ़ियाँ उसे पढ़ेंगी जानेंगीं और समझेंगीं। वे यह भी समझेंगीं कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन न केवल कम्युनिस्ट आंदोलन बल्कि देश की शोषित पीढ़ित जनता की पीठ में छुरा भौंकने के अतिरिक्त कुछ न था। विभाजन की चपेट में पार्टी ही नहीं जन संगठनों को भी लाया गया। यहां तक कि स्थापना दिवस पर भी नाहक विवाद खड़ा किया गया। जबकि संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी की का. बी. टी. रणदीवे की अध्यक्षता में संपन्न केंद्रीय सेक्रेटरियट की एक बैठक में अंतिम रूप से तय पाया गया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 26 दिसंबर 1925 को कानपुर में हुयी थी।


भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वैचारिक एवं राजनैतिक मतभेदों को दूर करते हुये अंतिम रूप से कम्युनिस्ट एकीकरण पर ज़ोर दे रही है। कारपोरेट- सांप्रदायिक- फासीवाद से निर्णायक संघर्ष के लिये ये अति आवश्यक है। उतना ही आवश्यक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गौरवशाली इतिहास को जनता के बीच ले जाना है, ताकि पार्टी कतारों और आमजन को समाजवाद के लक्ष्य को हासिल करने को तैयार किया जा सके।


डा. गिरीश


19.12.2024   

Saturday, 20 August 2022

'बिहार इप्टा के पहले 14 साल' ------ डाॅ० ए० के० सेन

 




1946 में बिनय राय के नेतृत्व में इप्टा का केन्द्रीय जत्था पटना आया था, जिसने पटना मेडिकल काॅलेज में ‘अमर भारत’ नामक बैले प्रस्तुत किया था। इस प्रस्तुति में रविशंकर, शांतिवर्द्धन, दशरथलाल जैसे कलाकारों ने भाग लिया था। यह बंगाल के अकाल की राहत के लिए चंदा एकत्र करने के दौरान अखिल भारतीय स्तर पर गठित इप्टा की स्थापना के एक साल के बाद की बात है।

1947 में ‘बिहार इप्टा’ की स्थापना हुई, जिसके महासचिव दशरथ लाल थे और जिसने स्वतंत्रता-संग्राम के आधार पर अपनी पहली प्रस्तुति की थी।

1948 के बाद, लगभग 4-5 साल तक इप्टा सरकारी तौर पर एक ‘विध्वंसक’ संगठन बना रहा, फिर भी इसकी सक्रियता बनी हुई थी और 1952 के बाद तो यह विशेष रूप से लोकप्रिय होने लगा।

1954 में महान मराठी गायक जनगायक अमर शेख आमंत्रित किये गये। अमर शेख ने पटना और आस-पास के शहरों में जोशिले गीतों से एक समाँ बांध दिया और इप्टा को नयी गरिमा प्रदान की।

इसी साल चंद्रा हाउस, कदमकुँआ (पटना) में बिहार इप्टा का पहला राज्य सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में बिहार के कई हिस्सों से इप्टा की 12 शाखाओं ने भाग लिया और अपनी प्रस्तुतियाँ कीं। इसी सम्मेलन में डाॅ० एस० एम० घोषाल अध्यक्ष चुने गये और सिस्टर पुष्पा महासचिव बनीं।

1955 में बिहार इप्टा ने भोजपुरी में एक बैले प्रस्तुत किया-‘सभ्यता का विकास’। यह सांस्कृतिक क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने राजधानी में हलचल मचा दी। इस बैले में प्रमुख भूमिकाओं में विश्वबंधु, कुमुद छुगानी और अरूण पालित थें; श्याम सागर और कुमुद अखौरी मुख्य गायक थे और सतीश्वर सहाय तथा उमा शंकर वर्मा ने मिलकर इसका आलेख तैयार किया था। सबने इस प्रस्तुति को सफल बनाने के लिए महीनों कड़ी मेहनत की थी।

1955 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर ‘राजभवन’ में राज्यस्तर  पर एक बैले-प्रतियोगिता आयोजित की गई, जिसमें इप्टा को भी आमंत्रित किया। हमलोगों ने ‘सभ्यता का विकास’ प्रस्तुत किया और प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया।

बिहार इप्टा का दूसरा सम्मेलन 1956 में कलामंच (पटना) में हुआ। इस सम्मेलन में पहली बार असम, आगरा, कलकत्ता, मणिपुर, पंजाब और राजस्थान के कलाकारों ने भी काफी संख्या में भाग लिया। इसी साल गौतम बुद्ध की 2500 की जयंती के उपलक्ष्य में कलकत्ता के प्रसिद्ध नृत्य निर्देशक शंभू भट्टाचार्य के निर्देशन में ‘बोधिलाभ’ नामक एक बैले तैयार किया गया, जिसमें विश्वबंधु और अर्चना मजूमदार प्रमुख भूमिकाओं में थें।

1957 में 1857 की क्रांति की शतवार्षिक मनाई गयी। इस एतिहासिक अवसर पर पटना इप्टा ने विशेष रूप से काफी शोध के बाद एक पूर्णकालिक नाटक ‘पीर अली’ प्रस्तुत किया।

नाट्यालेख लक्ष्मी नारायण ने तैयार किया था और निर्देशन किया था-डाॅ० एस० एम० घोषाल ने। रामेश्वर सिंह कश्यप सह निर्देषक थें और आर० एस० चोपड़ा ने केन्द्रीय भूमिका अभिनीत की थी। पटना में इस नाटक के नौ प्रदर्शन किये गये, जिन्हें हजारों दर्शकों ने देखा। इसके उक्त प्रदर्शन में तत्कालीन राज्यपाल डाॅ० जाकिर हुसैन मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थें।

1958 में इप्टा को बिहार सरकार दिल्ली में आयोजित ‘अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता’ में बिहार की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति के रूप में ‘पीर अली’ का प्रदर्शन करने का आमंत्रण मिला। इप्टा ने यह आमंत्रण स्वीकार किया और ‘पीर अली’ को दिल्ली में ‘द्वितीय सर्वश्रेष्ठ नाट्य प्रस्तुति’ का पुरस्कार मिला। विद्वान निर्णायकों का तो यही कहना था कि यदि ‘इप्टा’ का नाम बदल दिया जाता, तो ‘पीर अली’ को निश्चित रूप से पहला पुरस्कार मिलता।

सन् 1961 में बिहार इप्टा के कलाकारों ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर-जयंती समारोह में बड़े उत्साह के साथ भाग लिया और ‘रक्तकरबी’ का हिन्दी अनुवाद ‘लाल कनेर’ मंचित किया। इस प्रस्तुति में रामेश्वर सिंह कश्यप और अर्चना मजुमदार प्रमुख भूमिकाओं में थें। ‘लाल कनेर’ का प्रदर्शन कलकत्ता और बनारस में भी विशाल दर्शक समुदाय के बीच सफलतापूर्वक किया गया।

1947 से 1960 तक बिहार इप्टा की गतिविधियों में स दौरान काम करने वाले - निरंजन सेन, राधे श्याम, टी०एन० शुक्ल, जी०सी० सामंत, ए० के० नंदी, कमल किशोर, गौर गोस्वामी, पेणु दा, आर० सी० हाल्दार, मंटू दा, ब्रज किशोर प्रसाद, कन्हैया और ललित किशोर सिन्हा अदि महत्वपूर्ण व्यक्तियों के प्रयास से ही संभव हुई। 

(बिहार इप्टा के 8वें राज्य सम्मेलन, सासाराम 1984 की स्मारिका से साभार)

          द्वारा  ------ Firoz Ashraf Khan














 








 






 




  



Friday, 22 July 2022

क्यों 'साम्राज्यवादी/सांप्रदायिक' ताकतों के हवाले जनता को कर रखा है? ------ विजय राजबली माथुर

 तुलसी दास का प्रादुर्भाव जब हुआ तब देश में पहले 'सलीम' का अकबर के विरुद्ध विद्रोह हो चुका था फिर जहांगीर के विरुद्ध 'खुर्रम' का विद्रोह भी हुआ था। 'साहित्य समाज का दर्पण होता है' अर्थात अपने ग्रंथ 'रामचरित मानस' के माध्यम से तुलसी दास ने राम और भरत के राजसत्ता के प्रति त्याग भावना पर बल देकर जनता का आव्हान किया है कि ऐसे विलासी शासन को उखाड़ फेंके। तुलसी दास ने रावण के विस्तार वादी -साम्राज्यवादी शासन तंत्र को जन-नायक राम द्वारा परास्त कर लोक शासन की स्थापना का चित्रण किया है। यही वजह थी कि 'काशी' के पंडों ने उनकी 'संस्कृत' में लिखी पाण्डुलिपियों को जला डाला तब उनको भाग कर अयोध्या में 'मस्जिद' में शरण लेनी पड़ी और फिर उनको ग्रंथ भी लोकभाषा 'अवधी' में लिखना पड़ा ।  ( कैसे रहे ? खुद तुलसी के शब्दों में ‘ माँग के खईबो , मसीद में सोईबो ‘ । मसीद यानी मस्जिद । कहा जाता है)---

http://kashivishvavidyalay.wordpress.com/.../banarastuls.../

दुर्भाग्य से 'एथीस्ट वादी' भी पोंगापंथियों की भांति ही तुलसी दास को बदनाम करने में आगे हैं। पोंगापंथियों ने तो प्रेक्षकों के माध्यम से रामचरित मानस में अनर्गल ठूँसा ही है और राम को अवतार घोषित करके एक क्रांतिकारी ग्रंथ को ढ़ोंगी ग्रंथ में परिवर्तित कर ही दिया है। क्रांतिकारियों विशेषकर वामपंथियों को राम-रावण संघर्ष को साम्राज्यवाद और जनता के बीच संघर्ष के रूप में व्याख्यायित करके जनता को अपने पक्ष में तथा पोंगापंथियों के विरुद्ध खड़ा करना चाहिए था। किन्तु अफसोस कि वे ऐसा न करके खुद तुलसी दास को ही ब्राह्मणवादी ठहरा कर ढोंगियों का मनोबल बढ़ा देते हैं। 

तुलसी दास ने जातिवाद पर करारा प्रहार किया है जब वह 'काग भुशुंडी' अर्थात 'कौआ' से 'गरुँण' को उपदेश के रूप में मानस का आख्यान चलाते हैं। स्त्री-पुरुष समानता का उदाहरण है 'सीता' का वन-गमन प्रसंग और फिर 'अशोक वाटिका' से चलाया गया कूटनीतिक अभियान। सीता द्वारा प्रेषित सूचनाओं के आधार पर ही एयर मार्शल (वायु-नर) 'हनुमान' ने लंका के समुद्री 'राडार'-सुरसा का ध्वंस कर दिया था जिससे आसन्न युद्ध के समय राम पक्ष के विमान लंका की सीमा में निर्बाध प्रवेश कर सकें। विदेशमंत्री 'विभीषण' को तोड़ना,कोषागार  तथा शस्त्रालयों को अग्नि बमों द्वारा राख़ करके हनुमान ने रावण को पहले ही खोकला कर दिया था। अपने विमान की पूंछ पर रावण की सेना के प्रहार से 'आग' लग जाने पर भी सकुशल वापिस लौट आना हनुमान का रणनीतिक व कूटनीतिक कौशल था।

लेकिन जनता को गुमराह करके पोंगापंडित जनता को जागरूक नहीं होने देते हैं व उल्टे उस्तरे से ठगने हेतु 'मानस' की पूजा-आरती व राम के अवतारी होने में उलझाए रखते हैं-उनका तो निहित स्वार्थ है। लेकिन खुद को वामपंथी कहने वाले 'एथीस्ट वाद' के नाम पर सच्चाई को सामने लाने से क्यों बचना छाते हैं?इसमें तो जन-संघर्षों की एकता हेतु सहायता ली जा सकती थी ,जनता को जागरूक करके संगठित किया जा सकता था फिर क्यों 'साम्राज्यवादी/सांप्रदायिक' ताकतों के हवाले जनता को कर रखा है?