Thursday 19 June 2014

वेदों मे निहित समानता की भावना ही साम्यवाद का मूलाधार है ---विजय राजबली माथुर

 यह लेख मूल रूप से पूर्व प्रकाशित है :

Wednesday, April 25, 2012


अधर्म को 'धर्म' मानने की गलती

 

हिंदुस्तान,लखनऊ,23-04-2012 ,पृष्ठ-7

मुद्रा राक्षस जी बुजुर्ग और उच्च कोटि के विद्वान हैं। वह जो कहना चाहते थे उसे समझे बगैर लोगों ने उनका विरोध कर दिया।
* किन्तु थोड़ी सी गलती उनकी भी यह है कि उन्होने 'हिन्दू धर्म' शब्द का प्रयोग किया है। वस्तुतः 'हिन्दू' कोई धर्म है ही नही।बौद्धो के विरुद्ध क्रूर हिंसा करने वालों ,उन्हें उजाड़ने वालों,उनके मठों एवं विहारों को जलाने वाले लोगों को 'हिंसा देने' के कारण बौद्धों द्वारा 'हिन्दू' कहा गया था। फिर विदेशी आक्रांताओं ने एक भद्दी तथा गंदी 'गाली' के रूप मे यहाँ के लोगों को 'हिन्दू' कहा।साम्राज्यवादियों के एजेंट खुद को 'गर्व से हिन्दू' कहते हैं। 

*मुद्रा जी से दूसरी गलती यह हो गई है कि उन्होने आदि शंकराचार्य के बाद 'ज्ञान-विज्ञान'की रचना न किए जाने की बात कही।एक हद तक 'बुद्ध' के विचार 'वैज्ञानिक'थे किन्तु शंकराचार्य ने अविज्ञान का भ्रम फैला कर उन्हें धूलि-धूसरित कर दिया है। आज भारत जो गारत हो गया है वह इन्हीं शंकराचार्य की देंन  है। इन लोगों के बारे मे हकीकत यह है देखें -



*मुद्रा जी ने तीसरी गलती यह कर दी है कि उन्होने कहा कि 'ऋग वेद और अथर्व वेद' मे महिलाओं के लिए निंदनीय शब्द हैं। लगता है कि मुद्रा जी ने आचार्य श्री राम शर्मा सरीखे अवैज्ञानिक लोगों की व्याख्याओं को अपने निष्कर्ष का आधार बनाया है।

लगभग सभी बाम-पंथी विद्वान सबसे बड़ी गलती यही करते हैं कि हिन्दू को धर्म मान लेते हैं फिर सीधे-सीधे धर्म की खिलाफत करने लगते हैं। वस्तुतः 'धर्म'=शरीर को धारण करने हेतु जो आवश्यक है जैसे-सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,और ब्रह्मचर्य।  इंनका का विरोध करने को आप कह रहे हैं जब आप धर्म का विरोध करते हैं तो। अतः 'धर्म' का विरोध न करके  केवल अधार्मिक और मनसा-वाचा- कर्मणा 'हिंसा देने वाले'=हिंदुओं का ही प्रबल विरोध करना चाहिए।

विदेशी शासकों की चापलूसी मे 'कुरान' की तर्ज पर 'पुराणों' की संरचना करने वाले छली विद्वानों ने 'वैदिक मत'को तोड़-मरोड़ कर तहस-नहस कर डाला है। इनही के प्रेरणा स्त्रोत हैं शंकराचार्य। जबकि वेदों मे 'नर' और 'नारी' की स्थिति समान है। वैदिक काल मे पुरुषों और स्त्रियॉं दोनों का ही यज्ञोपवीत संस्कार होता था। कालीदास ने महाश्वेता द्वारा 'जनेऊ'धरण करने का उल्लेख किया है।  नर और नारी समान थे। पौराणिक हिंदुओं ने नारी-स्त्री-महिला को दोयम दर्जे का नागरिक बना डाला है। अपाला,घोशा,मैत्रेयी,गार्गी आदि अनेकों विदुषी महिलाओं का स्थान वैदिक काल मे पुरुष विद्वानों से  कम न था। अतः वेदों मे नारी की निंदा की बात ढूँढना हिंदुओं के दोषों को ढकना है।


वेद जाति,संप्रदाय,देश,काल से परे सम्पूर्ण विश्व के समस्त मानवों के कल्याण की बात करते हैं। उदाहरण के रूप मे 'ऋग्वेद' के कुछ मंत्रों को देखें -

'संगच्छ्ध्व्म .....उपासते'=
प्रेम से मिल कर चलें बोलें सभी ज्ञानी बनें।
पूर्वजों की भांति हम कर्तव्य के मानी बनें। ।


'समानी मंत्र : ....... हविषा जुहोमी ' =


हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों। 
ज्ञान पाते हैं बराबर भोग्य पा सब नेक हों। । 


'समानी व आकूति....... सुसाहसती'=


हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा। 
मन भरे हों प्रेम से जिससे बढ़े सुख सम्पदा। । 


'सर्वे भवनतु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयाः। 
सर्वे भद्राणि पशयन्तु मा कश्चिद दुख भाग भवेत। । '=


सबका भला करो भगवान सब पर दया करो भगवान । 
सब पर कृपा करो भगवान ,सब का सब विधि हो कल्याण। । 
हे ईश सब सुखी हों कोई  न हो दुखारी। 
 सब हों निरोग भगवनधन-धान्यके भण्डारी। । 
सब भद्रभाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों। 
दुखिया न कोई होवे सृष्टि मे प्राण धारी। ।    

ऋग्वेद न केवल अखिल विश्व की मानवता की भलाई चाहता है बल्कि समस्त जीवधारियों/प्रांणधारियों के कल्याण की कामना करता है। वेदों मे निहित यह समानता की भावना ही साम्यवाद का मूलाधार है । जब मैक्स मूलर साहब भारत से मूल पांडुलिपियाँ ले गए तो उनके द्वारा किए गए जर्मन भाषा मे अनुवाद के आधार पर महर्षि कार्ल मार्क्स ने 'दास केपिटल'एवं 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो'की रचना की। महात्मा हेनीमेन ने 'होम्योपैथी' की खोज की और डॉ शुसलर ने 'बायोकेमी' की। होम्योपैथी और बायोकेमी हमारे आयुर्वेद पर आधारित हैं और आयुर्वेद आधारित है 'अथर्ववेद'पर। अथर्ववेद मे मानव मात्र के स्वास्थ्य रक्षा के सूत्र दिये गए हैं फिर इसके द्वारा नारियों की निंदा होने की कल्पना कहाँ से आ गई। निश्चय ही साम्राज्यवादियो के पृष्ठ-पोषक RSS/भाजपा/विहिप आदि के कुसंस्कारों को धर्म मान लेने की गलती का ही यह नतीजा है कि,कम्युनिस्ट और बामपंथी 'धर्म' का विरोध करते हैं । मार्क्स महोदय ने भी वैसी ही गलती समझने मे की जैसी कि मुद्रा राक्षस जी ने यथार्थ को समझने मे कर दी। यथार्थ से हट कर कल्पना लोक मे विचरण करने के कारण कम्युनिस्ट जन-समर्थन प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। नतीजा यह होता है कि शोषक -उत्पीड़क वर्ग और-और शक्तिशाली होता जाता है। 

आज समय की आवश्यकता है कि 'धर्म' को व्यापारियों/उद्योगपतियों के दलालों (तथाकथित धर्माचार्यों)के चंगुल से मुक्त कराकर जनता को वास्तविकता का भान कराया जाये।संत कबीर, दयानंद,विवेकानंद,सरीखे पाखंड-विरोधी भारतीय विद्वानों की व्याख्या के आधार पर वेदों को समझ कर जनता को समझाया जाये तो जनता स्वतः ही साम्यवाद के पक्ष मे आ जाएगी। काश साम्यवादी/बामपंथी विद्वान और नेता समय की नजाकत को पहचान कर कदम उठाएँ तो सफलता उनके कदम चूम लेगी।

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नोट -पिछली पोस्ट पर फुट नोट देखना न भूलें।    और यह लिंक भी देखने का कष्ट करें । 

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