Tuesday 28 June 2016

वामपंथ को किसी ने परास्त नहीं किया, वह अपने बौद्धिक और व्यावहारिक अंतरविरोधों का ही शिकार हो गया ------ हरजिंदर

***एक सच यह भी है कि वामपंथ को किसी ने परास्त नहीं किया, वह अपने बौद्धिक और व्यावहारिक अंतरविरोधों का ही शिकार हो गया। और जो खाली जगह बनी, उसमें दक्षिणपंथ धीरे-धीरे पसर गया। *** 


मंगलवार, 28 जून, 2016 | 16:04 | IST
हिंदी के प्रतिष्ठित कवि शमशेर बहादुर सिंह ने 1945 में एक कविता लिखी थी- वाम, वाम, वाम दिशा/ समय साम्यवादी। इस कविता को बाद में अज्ञेय ने ‘दूसरा सप्तक’ में भी शामिल किया था। दुनिया के लिहाज से देखें, तो यह कविता बहुत बाद में लिखी गई, बीसवीं सदी ने वामपंथ के तेवर को तो अपने बचपन में ही अपनाना शुरू कर दिया था। 1917 में रूस में बाकायदा लेनिन की साम्यवादी क्रांति हो गई थी। उस सदी ने अपने बचपन और जवानी में जिन संस्कारों को पाया और अपनाया, वे बुढ़ापे तक उसका प्रारब्ध रचते रहे। लंबे समय तक दुनिया दो ही तरह की रही।

एक वह, जो वामपंथ को जीना या अपनाना चाहती थी और दूसरी वह, जो वामपंथ से खुद को बचाना चाहती थी। गति और दिशा चाहे जो भी हो, वामपंथ का कोई पहलू सबके सारतत्व में शामिल था। साम्यवादी देशों, दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों में तो वह था ही, वह मिस्र के नासिर में भी था, लीबिया के कर्नल गद्दाफी में भी था, इंडोनेशिया के सुकर्णो भी साम्यवादी थे, म्यांमार के आंग सान, कंबोडिया के पोलपोट, ब्रिटेन की लेबर पार्टी और पूरी दुनिया के तरह-तरह के रंग-बिरंगे समाजवादी दलों को भी इसमें शामिल कर लें, तो यह सूची बहुत लंबी हो जाती थी।

तालिबान से पहले तक अफगानिस्तान भी वामपंथी ही था, सोवियत संघ की बेचैनी और अमेरिका के प्रतिशोध ने इसे दूसरे दरवाजे पर पहुंचा दिया। वामपंथ कहीं व्यवस्था था, कहीं आरोप था, कहीं निठल्ला राष्ट्रीयकरण था और कहीं कल्याणकारी राज्य के नाम का मिलावटी तंत्र था। और तो और, अमेरिका में डेमोक्रेट किसी सख्ती की बात करते, तो उन पर यह आरोप लगता था कि वे वामपंथ लाना चाहते हैं। अपने देश में तो हाल यह था कि जिस किसी के कंधे पर हाथ धर दो, वह वामपंथी ही निकलता था, फिर नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे घोषित वामपंथी तो देश का नेतृत्व संभाले हुए थे ही। लेकिन 21वीं सदी में बहुत कुछ बदल गया है। पिछली सदी के विपरीत दुनिया अब दक्षिणपंथ की ओर बढ़ती दिख रही है। पिछली सदी के अंतिम दो दशक तक यही लगता था कि दुनिया खुद को वामपंथी जकड़न से मुक्त कर रही है, पर शायद वह विपरीत दिशा के नए सफर की तैयारी थी, जो ठीक तरीके से इसी दशक में शुरू हुआ। इस समय यूरोप के 39 देशों में से 26 देशों में दक्षिणपंथी सरकारें हैं। जहां नहीं हैं, वहां भी उनका असर तेजी से बढ़ रहा है।

यहां तक कि स्वीडन में हमेशा से हाशिये पर रहने वाले दक्षिणपंथी दल अब तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। सबसे अच्छा उदाहरण ब्रिटेन है, जहां लोगों ने अभी पिछले ही साल कंजरवेटिव पार्टी को सत्ता में पहुंचाया था, जो खुद दक्षिणपंथी पार्टी है। लेकिन ब्रेग्जिट मुद्दे पर अब वही कंजरवेटिव पार्टी अपने से भी ज्यादा दक्षिणपंथी इंडिपेंडेंस पार्टी से मात खा गई। जर्मनी की चांसलर एंजला मर्केल भी दक्षिणपंथी हैं, लेकिन शरणार्थियों के मसले पर धुर दक्षिणपंथी नेता फ्राउके पीटरी उनका जीना हराम किए हुए हैं। यही फ्रांस में हो रहा है, ऑस्ट्रिया में हो रहा और रूस वगैरह में तो खैर हो ही चुका है। बात सिर्फ यूरोप की नहीं है, ब्रिटिश पत्रिका न्यू स्टेट्समैन ने 43 एंग्लो-सैक्सन देशों की सूची बनाई, तो उनमें 30 देशों में दक्षिणपंथी सरकारें हैं। वेनेजुएला के ह्यूगो शावेज का तो लोग नाम तक भूलने लग गए हैं। क्यूबा और चीन भले ही खुद को आज भी साम्यवादी कहते हों, लेकिन आधी सदी पहले की परिभाषाओं में वे या तो दक्षिणपंथी कहलाते या प्रतिक्रियावादी। आप चाहें, तो पिछले कुछ साल में भारत में हुए परिवर्तनों को भी इसमें जोड़ सकते हैं।

दक्षिणपंथी राजनीति के तेवर किस तरह से आगे बढ़ रहे हैं, इसे अमेरिका के उदाहरण से ज्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है। अमेरिका में मुख्यधारा की राजनीति कभी वामपंथी नहीं रही। वहां वामपंथी शब्द अक्सर विरोधियों के लिए गाली की तरह इस्तेमाल होता रहा है। लेकिन यह भी सच है कि वहां की राजनीति को कभी उतने उग्र दक्षिणपंथी नेता की जरूरत नहीं पड़ी, जितने कि राष्ट्रपति पद के दावेदार डोनाल्ड ट्रंप हैं। यह उनके तेवर ही थे, जिनके चलते उनकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी हिलेरी क्लिंटन को यह बयान देना पड़ा कि अगर ईरान परमाणु समझौते से मुकरता है, तो उसके खिलाफ सैनिक कार्रवाई होनी चाहिए। तेवर की इसी राजनीति का नतीजा था कि उदार माने जाने वाले बर्नी सैंडर्स अमेरिकी राष्ट्रपति पद की दौड़ से कब बाहर हो गए, किसी को खबर भी नहीं हुई। अमेरिका ही नहीं, उग्र तेवर पूरी दुनिया की राजनीति में किसी छूत की बीमारी की तरह फैल रहे हैं, बिना इस बात को सोचे कि अंजाम क्या होगा।

दुनिया इस तरह से अचानक दक्षिणपंथ के पाले में क्यों चली गई? यह समझना ज्यादा कठिन है, बजाय यह समझने के कि पिछली सदी में दुनिया अचानक वामपंथ के पाले में क्यों चली गई थी? औद्योगिक क्रांति के बाद की दुनिया उस दुखों से मुक्ति चाहती थी, जिन पर इस क्रांति की इमारत बुलंद हुई थी। मजदूरों के अधिकारों की मांग के साथ जो आंदोलन शुरू हुए, वे सिर्फ मांग तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने अपना एक संपूर्ण दर्शनशास्त्र तैयार किया, और भविष्य की दुनिया के सच्चे से लगने वाले आकर्षक सपने भी बुने। इस सोच और सपनों ने अगर पूरी दुनिया को वामपंथी बना दिया, तो हैरत की कोई बात नहीं है। लेकिन हैरत की बात यह जरूर है कि इस समय जो दुनिया का दक्षिण गमन है, उसमें न तो कोई उतनी बड़ी सोच है और न ही नए हसीन सपने हैं। बल्कि अक्सर बौद्धिक दिवालियापन उछल-उछलकर बाहर आता जरूर दिखता है।

बेशक, इसका एक कारण अफगानिस्तान, पश्चिम एशिया और दुनिया के कुछ दूसरे हिस्सों में पनप रहा आतंकवाद है। आतंकवादी क्रूरता के मुकाबले के लिए लोगों को दक्षिणपंथी हठधर्मी सख्ती ज्यादा कारगर लगती है, बजाय उस वामपंथी उदारता के, जिसके हल अक्सर अबूझ होते दिखते हैं। आर्थिक संकट भी एक कारण हो सकता है। कुछ साल पहले जब दुनिया में आर्थिक मंदी का झटका आया था, तो अपनी नींद से जगे वामपंथियों ने कहा था कि पूंजीवादी व्यवस्था खोटा सिक्का साबित हो गई है और अब यह ज्यादा नहीं चलने वाली। लेकिन इसके बाद पूरी दुनिया में खोटे सिक्के की तरह जो सबसे पहले तिरस्कृत हुए, वे वामपंथी ही थे।

यह अलग बात है कि जो हुआ, वह भी कोई बहुत अच्छा नहीं है। वीजा नियमों को सख्त करो, आव्रजन रोको, शरणार्थियों को भगाओ जैसे संकीर्ण तेवर अपनाने वाली धाराएं ही आगे आ रही हैं। एक सच यह भी है कि वामपंथ को किसी ने परास्त नहीं किया, वह अपने बौद्धिक और व्यावहारिक अंतरविरोधों का ही शिकार हो गया। और जो खाली जगह बनी, उसमें दक्षिणपंथ धीरे-धीरे पसर गया। वैसे यह तय करना कभी आसान नहीं होता कि दुनिया में जो हो रहा है, वह क्यों हो रहा है? सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है- वह भी एक दौर था, यह भी एक दौर है।

http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-changed-the-direction-of-world--541715.html

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***साम्यवाद अथवा वामपंथ के पुरोधा यह मानने को तैयार नहीं हैं कि यह मूलतः भारतीय अवधारणा है और वे विदेशी नक्शे-कदम चल कर इसे भारत में लागू करने की घोषणा तो करते हैं किन्तु खुद ही उन सिद्धांतों का पालन नहीं करते जिंनका उल्लेख अपने प्रवचनों में करते हैं। इसी वजह से जनता को प्रभावित करने में असमर्थ हैं और जिस दिन जाग जाएँगे और सही दिशा में चलने लगेंगे जनता छ्ल-छ्द्यम वालों को रसातल में पहुंचा कर उनके पीछे चलने लगेगी। लेकिन सबसे पहले साम्यवाद व वामपंथ के ध्वजावाहकों को अपनी सोच को 'सम्यक' बनाना होगा।***

Sunday, September 18, 2011
बामपंथी कैसे सांप्रदायिकता का संहार करेंगे? 
आज संघ और उसके सहायक संगठनों ने सड़कों पर लड़ाई का बिगुल बजा दिया है,बामपंथी अभी तक कागजी तोपें दाग कर सांप्रदायिकता का मुक़ाबला कर रहे हैं;व्यापक जन-समर्थन और प्रचार के बगैर क्या वे संघियों के सांप्रदायिक राक्षस का संहार कर सकेंगे?
भारत मे इस्लाम एक शासक के धर्म के रूप मे आया जबकि भारतीय धर्म आत्मसात करने की क्षमता त्याग कर संकीर्ण घोंघावादी हो चुका था। अतः इस्लाम और अनेक मत-मतांतरों मे विभक्त और अपने प्राचीन गौरव से भटके हुये यहाँ प्रचलित धर्म मे मेल-मिलाप न हो सका। शासकों ने भारतीय जनता का समर्थन प्राप्त कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए इस्लाम का ठीक वैसे ही प्रचार किया जिस प्रकार अमीन सायानी सेरोडान की टिकिया का प्रचार करते रहे हैं। जनता के भोलेपन का लाभ उठाते हुये भारत मे इस्लाम के शासकीय प्रचारकों ने कहानियाँ फैलाईं कि,हमारे पैगंबर मोहम्मद साहब इतने शक्तिशाली थे कि,उन्होने चाँद के दो टुकड़े कर दिये थे। तत्कालीन धर्म और  समाज मे तिरस्कृत और उपेक्षित क्षुद्र व पिछड़े वर्ग के लोग धड़ाधड़ इस्लाम ग्रहण करते गए और सवर्णों के प्रति राजकीय संरक्षण मे बदले की कारवाइया करने लगे। अब यहाँ प्रचलित कुधर्म मे भी हरीश भीमानी जैसे तत्कालीन प्रचारकों ने कहानियाँ गढ़नी शुरू कीं और कहा गया कि,मोहम्मद साहब ने चाँद  के दो टुकड़े करके क्या कमाल किया?देखो तो हमारे हनुमान लला पाँच वर्ष की उम्र मे सम्पूर्ण सूर्य को रसगुल्ला समझ कर निगल गए थे---
"बाल समय रवि भक्षि लियौ तब तींन्हू लोक भयो अंधियारों।
............................ तब छाणि दियो रवि कष्ट निवारों। "
(सेरीडान  की तर्ज पर डाबर की सरबाइना जैसा सायानी को हरीश  भीमानी जैसा जवाब था यह कथन)
इस्लामी प्रचारकों ने एक और अफवाह फैलाई कि,मोहम्मद साहब ने आधी रोटी मे छह भूखों का पेट भर दिया था। जवाबी अफवाह मे यहाँ के धर्म के ठेकेदारों ने कहा तो क्या हुआ?हमारे श्री कृष्ण ने डेढ़ चावल मे दुर्वासा ऋषि और उनके साठ हजार शिष्यों को तृप्त कर दिया था। 'तर्क' कहीं नहीं था कुतर्क के जवाब मे कुतर्क चल रहे थे।
अभिप्राय यह कि,शासक और शासित के अंतर्विरोधों से ग्रसित इस्लाम और यहाँ के धर्म को जिसे इस्लाम वालों ने 'हिन्दू' धर्म नाम दिया के परस्पर उखाड़-पछाड़ भारत -भू पर करते रहे और ब्रिटेन के व्यापारियों की गुलामी मे भारत-राष्ट्र को सहजता से जकड़ जाने दिया। यूरोपीय व्यापारियों की गुलामी मे भारत के इस्लाम और हिन्दू दोनों के अनुयायी समान रूप से ही उत्पीड़ित हुये बल्कि मुसलमानों से राजसत्ता छीनने के कारण शुरू मे अंग्रेजों ने मुसलमानों को ही ज्यादा कुचला और कंगाल बना दिया।
ब्रिटिश दासता
साम्राज्यवादी अंग्रेजों ने भारत की धरती और जन-शक्ति का भरपूर शोषण और उत्पीड़न किया। भारत के कुटीर उदद्योग -धंधे को चौपट कर यहाँ का कच्चा माल विदेश भेजा जाने लगा और तैयार माल लाकर भारत मे खपाया  जाने लगा। ढाका की मलमल का स्थान लंकाशायर और मेंनचेस्टर की मिलों ने ले लिया और बंगाल (अब बांग्ला देश)के मुसलमान कारीगर बेकार हो गए। इसी प्रकार दक्षिण भारत का वस्त्र उदद्योग तहस-नहस हो गया।
आरकाट जिले के कलेक्टर ने लार्ड विलियम बेंटिक को लिखा था-"विश्व के आर्थिक इतिहास मे ऐसी गरीबी मुश्किल से ढूँढे मिलेगी,बुनकरों की हड्डियों से भारत के मैदान सफ़ेद हो रहे हैं। "
सन सत्तावन की क्रान्ति
लगभग सौ सालों की ब्रिटिश गुलामी ने भारत के इस्लाम और हिन्दू धर्म के अनुयायीओ को एक कर दिया और आजादी के लिए बाबर के वंशज बहादुर शाह जफर के नेतृत्व मे हरा झण्डा लेकर समस्त भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति कर दी। परंतु दुर्भाग्य से भोपाल की बेगम ,ग्वालियर के सिंधिया,नेपाल के राणा और पंजाब के सिक्खों ने क्रान्ति को कुचलने मे साम्राज्यवादी अंग्रेजों का साथ दिया।
अंग्रेजों द्वारा अवध की बेगमों पर निर्मम अत्याचार किए गए जिनकी गूंज हाउस आफ लार्ड्स मे भी हुयी। बहादुर शाह जफर कैद कर लिया गया और मांडले मे उसका निर्वासित के रूप मे निधन हुआ। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वीर गति को प्राप्त हुयी। सिंधिया को अंग्रेजों से इनाम मिला। असंख्य भारतीयों की कुर्बानी बेकार गई।
वर्तमान सांप्रदायिकता का उदय
सन 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों को बता दिया कि भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को लड़ा कर ही ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षित  रखा जा सकता है। लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य का सेफ़्टी वाल्व कांग्रेस राष्ट्र वादियों  के कब्जे मे जाने लगी थी। बाल गंगाधर 'तिलक'का प्रभाव बढ़ रहा था और लाला लाजपत राय और विपिन चंद्र पाल के सहयोग से वह ब्रिटिश शासकों को लोहे के चने चबवाने लगे थे। अतः 1905 ई मे हिन्दू और मुसलमान के आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया गया । हालांकि बंग-भंग आंदोलन के दबाव मे 1911 ई मे पुनः बंगाल को एक करना पड़ा परंतु इसी दौरान 1906 ई मे ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को फुसला कर मुस्लिम लीग नामक सांप्रदायिक संगठन की स्थापना करा दी गई और इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप 1920 ई मे हिन्दू महा सभा नामक दूसरा सांप्रदायिक संगठन भी सामने आ गया। 1932 ई मे मैक्डोनल्ड एवार्ड के तहत हिंदुओं,मुसलमानों,हरिजन और सिक्खों के लिए प्रथक निर्वाचन की घोषणा की गई। महात्मा गांधी के प्रयास से सिक्ख और हरिजन हिन्दू वर्ग मे ही रहे और 1935 ई मे सम्पन्न चुनावों मे बंगाल,पंजाब आदि कई प्रान्तों मे लीगी सरकारें बनी और व्यापक हिन्दू-मुस्लिम दंगे फैलते चले गए।

बामपंथ का आगमन
1917 ई मे हुयी रूस मे लेनिन की क्रान्ति से प्रेरित होकर भारत के राष्ट्र वादी कांग्रेसियों ने 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर मे 'भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'की स्थापना करके पूर्ण स्व-राज्य के लिए क्रांतिकारी आंदोलन शुरू कर दिया और सांप्रदायिकता को देश की एकता के लिए घातक बता कर उसका विरोध किया। कम्यूनिस्टों से राष्ट्रवादिता मे पिछड्ता पा कर 1929 मे लाहौर अधिवेन्शन मे जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस का लक्ष्य भी पूर्ण स्वाधीनता घोषित करा दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग,हिन्दू महासभा के सैन्य संगठन आर एस एस (जो कम्यूनिस्टों का मुकाबिला करने के लिए 1925 मे ही अस्तित्व मे आया) और कांग्रेस के नेहरू गुट को प्रोत्साहित किया एवं कम्यूनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया । सरदार भगत सिंह जो कम्यूनिस्टों के युवा संगठन 'भारत नौजवान सभा'के संस्थापकों मे थे भारत मे समता पर आधारित एक वर्ग विहीन और शोषण विहीन समाज की स्थापना को लेकर अशफाक़ उल्ला खाँ व राम प्रसाद 'बिस्मिल'सरीखे साथियों के साथ साम्राज्यवादियों से संघर्ष करते हुये शहीद हुये सदैव सांप्रदायिक अलगाव वादियों की भर्तस्ना करते रहे।
वर्तमान  सांप्रदायिकता
1980 मे संघ के सहयोग से सत्तासीन होने के बाद इंदिरा गांधी ने सांप्रदायिकता को बड़ी बेशर्मी से उभाड़ा। 1980 मे ही जरनैल सिंह भिंडरावाला के नेतृत्व मे बब्बर खालसा नामक घोर सांप्रदायिक संगठन खड़ा हुआ जिसे इंदिरा जी का आशीर्वाद पहुंचाने खुद संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह पहुंचे थे। 1980 मे ही संघ ने नारा दिया-भारत मे रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा जिसके जवाब मे काश्मीर मे प्रति-सांप्रदायिकता उभरी कि,काश्मीर मे रहना होगा तो अल्लाह -अल्लाह कहना होगा। और तभी से असम मे विदेशियों को निकालने की मांग लेकर हिंसक आंदोलन उभरा।
पंजाब मे खालिस्तान की मांग उठी तो काश्मीर को अलग करने के लिए धारा 370 को हटाने की मांग उठी और सारे देश मे एकात्मकता यज्ञ के नाम पर यात्राएं आयोजित करके सांप्रदायिक दंगे भड़काए। माँ की गद्दी पर बैठे राजीव गांधी ने अपने शासन की विफलताओं और भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने हेतु संघ की प्रेरणा से अयोध्या मे विवादित रामजन्म भूमि/बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा कर हिन्दू सांप्रदायिकता एवं मुस्लिम वृध्दा शाहबानों को न्याय से वंचित करने के लिए संविधान मे संशोधन करके मुस्लिम सांप्रदायिकता को नया बल प्रदान किया।
बामपंथी कोशिश
भारतीय कम्यूनिस्ट,मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट,क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी और फारवर्ड ब्लाक के 'बामपंथी मोर्चा'ने सांप्रदायिकता के विरुद्ध व्यापक जन-अभियान चलाया । बुद्धिजीवी और विवेकशील  राष्ट्र वादी  सांप्रदायिक सौहार्द के प्रबल पक्षधर हैं,परंतु ये सब संख्या की दृष्टि से अल्पमत मे हैं,साधनों की दृष्टि से विप्पन  हैं और प्रचार की दृष्टि से बहौत पिछड़े हुये हैं। पूंजीवादी प्रेस बामपंथी सौहार्द के अभियान को वरीयता दे भी कैसे सकता है?उसका ध्येय तो व्यापारिक हितों की पूर्ती के लिए सांप्रदायिक शक्तियों को सबल बनाना है। अपने आदर्शों और सिद्धांतों के बावजूद बामपंथी अभियान अभी तक बहुमत का समर्थन नहीं प्राप्त कर सका है जबकि,सांप्रदायिक शक्तियाँ ,धन और साधनों की संपन्नता के कारण अलगाव वादी प्रवृतियों को फैलाने मे सफल रही हैं।
सड़कों पर दंगे
अब सांप्रदायिक शक्तियाँ खुल कर सड़कों पर वैमनस्य फैला कर संघर्ष कराने मे कामयाब हो रही हैं। इससे सम्पूर्ण विकास कार्य ठप्प हो गया है,देश के सामने भीषण आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है । मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ कर सांप्रदायिकता के पोषक पूंजीपति वर्ग का हित-साधन कर रही है। जमाखोरों,सटोरियों और कालाबाजारियों की पांचों उँगलियाँ घी मे हैं। अभी तक बामपंथी अभियान नक्कार खाने मे तूती की आवाज की तरह चल रहा है। बामपंथियों ने सड़कों पर निपटने के लिए कोई 'सांप्रदायिकता विरोधी दस्ता' गठित नहीं किया है। अधिकांश जनता अशिक्षित और पिछड़ी होने के कारण बामपंथियों के आदर्शवाद के मर्म को समझने मे असमर्थ है और उसे सांप्रदायिक शक्तियाँ उल्टे उस्तरे से मूंढ रही हैं।
दक्षिण पंथी तानाशाही का भय
वर्तमान (1991 ) सांप्रदायिक दंगों मे जिस प्रकार सरकारी मशीनरी ने एक सांप्रदायिकता का पक्ष लिया है उससे अब संघ की दक्षिण पंथी असैनिक तानाशाही स्थापित होने का भय व्याप्त हो गया है। 1977 के सूचना व प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी ने आकाशवाणी व दूर दर्शन मे संघ की कैसी घुसपैठ की है उसका हृदय विदारक उल्लेख सांसद पत्रकार संतोष भारतीय ने वी पी सरकार के पतन के संदर्भ मे किया है। आगरा पूर्वी विधान सभा क्षेत्र मे 1985 के परिणामों मे संघ से संबन्धित क्लर्क कालरा ने किस प्रकार भाजपा प्रत्याशी को जिताया ताज़ी घटना है।
पुलिस और ज़िला प्रशासन मजदूर के रोजी-रोटी के हक को कुचलने के लिए जिस प्रकार पूंजीपति वर्ग का दास बन गया है उससे संघी तानाशाही आने की ही बू मिलती है।
बामपंथी असमर्थ
वर्तमान परिस्थितियों का मुक़ाबला करने मे सम्पूर्ण बामपंथ पूरी तरह असमर्थ है। धन-शक्ति और जन-शक्ति दोनों ही का उसके पास आभाव है। यदि अविलंब सघन प्रचार और संपर्क के माध्यम से बामपंथ जन-शक्ति को अपने पीछे न खड़ा कर सका तो दिल्ली की सड़कों पर होने वाले निर्णायक युद्ध मे संघ से हार जाएगा जो देश और जनता के लिए दुखद होगा।

परंतु बक़ौल स्वामी विवेकानंद -'संख्या बल प्रभावी नहीं होता ,यदि मुट्ठी भर लोग मनसा- वाचा-कर्मणा संगठित हों तो सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते हैं। 'आदर्शों को कर्म मे उतार कर बामपंथी संघ का मुक़ाबला कर सकते हैं यदि चाहें तो!वक्त अभी निकला नहीं है।
परंतु बक़ौल स्वामी विवेकानंद -'संख्या बल प्रभावी नहीं होता ,यदि मुट्ठी भर लोग मनसा- वाचा-कर्मणा संगठित हों तो सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते हैं। 'आदर्शों को कर्म मे उतार कर बामपंथी संघ का मुक़ाबला कर सकते हैं यदि चाहें तो!वक्त अभी निकला नहीं है।
http://krantiswar.blogspot.in/2011/09/blog-post_18.html
( विजय राजबली माथुर )
लगभग   35   वर्ष पूर्व सहारनपुर के 'नया जमाना'के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1952 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि,कम्यूनिस्टों और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई  दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।

भारत विविधता मे एकता वाला एक अनुपम राष्ट्र है। विभिन्न भाषाओं,पोशाकों,आचार-व्यवहार आदि के उपरांत भी भारत अनादी  काल से एक ऐसा राष्ट्र रहा है जहां आने के बाद अनेक आक्रांता यहीं के होकर रह गए और भारत ने उन्हें आत्मसात कर लिया। यहाँ का प्राचीन आर्ष धर्म हमें "अहिंसा परमों धर्मा : "और "वसुधेव कुटुम्बकम" का पाठ पढ़ाता रहा है। नौवीं सदी के आते-आते भारत के व्यापक और सहिष्णू स्वरूप को आघात लग चुका था। यह वह समय था जब इस देश की धरती पर बनियों और ब्राह्मणों के दंगे हो रहे थे। ब्राह्मणों ने धर्म को संकुचित कर घोंघावादी बना दिया था । सिंधु-प्रदेश के ब्राह्मण आजीविका निर्वहन के लिए समुद्री डाकुओं के रूप मे बनियों के जहाजों को लूटते थे। ऐसे मे धोखे से अरब व्यापारियों को लूट लेने के कारण सिंधु प्रदेश पर गजनी के शासक महमूद गजनवी ने बदले की  लूट के उद्देश्य से अनेकों आक्रमण किए और सोमनाथ को सत्रह बार लूटा। महमूद अपने व्यापारियों की लूट का बदला जम कर लेना चाहता था और भारत मे उस समय बैंकों के आभाव मे मंदिरों मे जवाहरात के रूप मे धन जमा किया जाता था। प्रो नूरुल हसन ने महमूद को कोरा लुटेरा बताते हुये लिखा है कि,"महमूद वाज ए डेविल इन कार्नेट फार दी इंडियन प्यूपिल बट एन एंजिल फार हिज गजनी सबजेक्ट्स"। महमूद गजनवी न तो इस्लाम का प्रचारक था और न ही भारत को अपना उपनिवेश बनाना चाहता था ,उसने ब्राह्मण लुटेरों से बदला लेने के लिए सीमावर्ती क्षेत्र मे व्यापक लूट-पाट की । परंतु जब अपनी फूट परस्ती के चलते यहीं के शासकों ने गोर के शासक मोहम्मद गोरी को आमंत्रित किया तो वह यहीं जम गया और उसी के साथ भारत मे इस्लाम का आगमन हुआ।
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मेरा आज भी सुदृढ़ अभिमत है कि यदि कम्युनिस्ट -वामपंथी जनता को 'धर्म' का मर्म समझाएँ और बताएं कि जिसे धर्म कहा जा रहा है वह तो वास्तव में अधर्म है,ढोंग,पाखंड,आडंबर है जिसका उद्देश्य साधारण जनता का शोषण व उत्पीड़न करना है तो कोई कारण नहीं है कि जनता वस्तु-स्थिति को न समझे।लेकिन जब ब्राह्मणवादी-पोंगापंथी जकड़न से खुद कम्युनिस्ट-वामपंथी निकलें तभी तो जनता को समझा सकते हैं? वरना धर्म का विरोध करके व एथीस्ट होने का स्वांग करके उसी पाखंड-आडम्बर-ढोंगवाद को अपनाते रह   कर तो जनता को अपने पीछे लामबंद नहीं किया जा सकता है। 
परमात्मा  या प्रकृति के लिए सभी प्राणी व मनुष्य समान हैं और उसकी ओर से  सभी को जीवन धारण हेतु समान रूप से वनस्पतियाँ,औषद्धियाँ,अन्न,खनिज आदि-आदि बिना किसी भेद-भाव के  निशुल्क उपलब्ध हैं। अतः इस जगत में एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण करना परमात्मा व प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है और इसी बात को उठाने वाले दृष्टिकोण को समष्टिवाद-साम्यवाद-कम्यूनिज़्म कहा जाता है और यह पूर्णता: भारतीय अवधारणा है। आधुनिक युग में जर्मनी के महर्षि कार्ल मार्क्स ने इस दृष्टिकोण को पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से पुनः प्रस्तुत किया है। 'कृणवन्तो विश्वमार्यम' का अभिप्राय है कि समस्त विश्व को आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना है और यह तभी हो सकता है जब प्रकृति के नियमानुसार आचरण हो। कम्युनिस्ट प्रकृति के इस आदि नियम को लागू करके समाज में व्याप्त मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करने हेतु 'उत्पादन' व 'वितरण' के साधनों पर समाज का अधिकार स्थापित करना चाहते हैं। इस आर्ष व्यवस्था का विरोध शासक,व्यापारी और पुजारी वर्ग मिल कर करते हैं वे अल्पमत में होते हुये भी इसलिए कामयाब हैं कि शोषित-उत्पीड़ित वर्ग परस्परिक फूट में उलझ कर शोषकों की चालों को समझ नहीं पाता है। उसे समझाये कौन? कम्युनिस्ट तो खुद को 'एथीस्ट' और धर्म-विरोधी सिद्ध करने में लगे रहते हैं। 


काश सभी बिखरी हुई कम्युनिस्ट शक्तियाँ  दीवार पर लिखे को पढ़ें और  यथार्थ को समझें और जनता को समझाएँ तो अभी भी शोषक-उत्पीड़क-सांप्रदायिक शक्तियों को परास्त किया जा सकता है। लेकिन जब धर्म को मानेंगे नहीं अर्थात 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का पालन नहीं करेंगे 'एथीस्ट वाद' की जय बोलते हुये ढोंग-पाखंड-आडंबर को प्रोत्साहित करते रहेंगे अपने उच्च सवर्णवाद के कारण तब तो कम्यूनिज़्म को पाकर भी रूस की तरह खो देंगे या चीन की तरह स्टेट-कम्यूनिज़्म में बदल डालेंगे।
http://krantiswar.blogspot.in/2014/05/blog-post_22.html
(विजय राजबली माथुर )

1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'बेबाकी और फकीरी की पहचान बाबा नागार्जुन - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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