Friday 13 July 2018

कोई शक्ति अब सहारा नहीं ; व्यवस्था पूंजी की दासी बन चुकी है ------ हेमंत कुमार झा

* सबसे पहले श्रमिक आंदोलनों की धार को भोथरा करने की कोशिशें शुरू हुई और उनके अधिकारों को पुनर्परिभाषित करने के नाम पर उन्हें पूंजी का गुलाम बनाने की तमाम साजिशें रची जाने लगी। मध्य वर्ग ने इसमें सत्ता का साथ दिया।
* * नई सदी आते-आते हवा में घुले जहर ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और जब विभिन्न सरकारी निर्माण इकाइयों, होटलों, सेवा प्रदाता कंपनियों आदि के निजीकरण के बाद लुब्ध पूंजी की निगाहें सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन आदि के क्षेत्र पर पड़नी शुरू हुई तो खतरे की घण्टियां बजने लगीं।
*** निजीकरण के जयजयकार के दौर को याद करिये। और...आज के दौर की दुर्गतियों का उत्स उस दौर में तलाशिये। शायद...कोई रास्ता नजर आए। अपने लिये न सही, अपने बच्चों की पीढ़ी के लिये नए रास्तों की तलाश बेहद जरूरी है।
Hemant Kumar Jha
12 -07-2018 
1990 के दशक में आर्थिक सुधारों के नाम पर जब निजीकरण और विनिवेशीकरण का दौर शुरू हुआ तो उसका स्वागत और समर्थन करने वालों में मध्य वर्ग सबसे आगे था। अब, 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध में जब सत्ता संपोषित निर्मम मुनाफाखोरों के हाथ इस वर्ग की जेब से लेकर गिरेबान तक पहुंच चुके हैं तो लुटने के अलावा इनके पास और कोई विकल्प नहीं।

आर्थिक उदारवाद के नाम पर स्थापित होती कारपोरेट संस्कृति का यह तार्किक निष्कर्ष ही तो है... जिसमें निम्न वर्ग को तो स्वाभाविक शिकार बनना ही था, मध्य वर्ग को भी पूरी तरह निचोड़ने की तैयारी हो चुकी है।

यूरोप की जितनी जनसंख्या है उतनी तो भारत में सिर्फ मध्य वर्ग के लोग रहते हैं। इनकी बढ़ती क्रय शक्ति और बढ़ते लालच पर दुनिया भर की कंपनियों की निगाहें लगी रही हैं। सत्ता-संरचना के बदलते स्वरूप ने निजी पूंजी को नियंता की भूमिका में ला दिया। प्रभावी शक्ति से नियंता बनने की निजी पूंजी की यह यात्रा ढाई-तीन दशकों में मील के कई पत्थरों को पार कर चुकी है।

सबसे पहले श्रमिक आंदोलनों की धार को भोथरा करने की कोशिशें शुरू हुई और उनके अधिकारों को पुनर्परिभाषित करने के नाम पर उन्हें पूंजी का गुलाम बनाने की तमाम साजिशें रची जाने लगी। मध्य वर्ग ने इसमें सत्ता का साथ दिया।

ठहरी हुई सी अर्थव्यवस्था में उदारवाद एक ताजा हवा के झोंके की तरह था और मध्य वर्ग को यह सुहाना लग रहा था। इस ताजी हवा में घुले जहर का अंदाजा लोग नहीं कर पा रहे थे। यही कारण था कि उस दौर में जब निजीकरण की संभावित विभीषिकाओं पर कोई आलेख या कोई वक्तव्य आता था तो लोग उनकी खिल्ली उड़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते थे। निजीकरण का हर विरोधी सीधे कम्युनिस्ट ही नजर आता था और उसे सोवियत विघटन सहित पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट शासनों के ढहने के ताने दिए जाते थे।

नई सदी आते-आते हवा में घुले जहर ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और जब विभिन्न सरकारी निर्माण इकाइयों, होटलों, सेवा प्रदाता कंपनियों आदि के निजीकरण के बाद लुब्ध पूंजी की निगाहें सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन आदि के क्षेत्र पर पड़नी शुरू हुई तो खतरे की घण्टियां बजने लगीं। 
खतरे की इन घण्टियों की आवाज को मन्दिरवाद, मंडलवाद, राष्ट्रवाद आदि के शोर से दबाने की पुरजोर और कामयाब कोशिशें होने लगीं। नई सदी का भारतीय समाज धर्म और जाति के आधार पर अधिक विभाजित था क्योंकि यही राजनीतिक संस्कृति की मांग बन गई थी।

श्रमिकों और निम्न वर्ग के लोगों के साथ सत्ता-संरचना के सुनियोजित अन्याय के खिलाफ मध्यवर्ग ने कभी मुंह नहीं खोला क्योंकि उदारवाद की फसल काटने वालों में ये भी शामिल रहे। इनकी आमदनी बढ़ी और वित्तीय संस्थानों की उदार शर्त्तों के तहत प्राप्त ऋण से इन्होंने उपभोक्ता सामग्रियों से अपना घर भरना शुरू किया।

"...जो भी सरकारी है वह बेकार है..." की अवधारणा को जब बहुत व्यवस्थित और साजिशपूर्ण तरीके से स्थापित किया जा रहा था तो मध्य वर्ग ने इसका भी पूरा साथ दिया। चाहे सार्वजनिक परिवहन का मामला हो या सरकारी स्कूल और अस्पतालों का, इस वर्ग ने यथासंभव उनकी उपेक्षा की। मान लिया गया कि सरकारी स्कूल और अस्पताल सिर्फ गरीबों के लिये हैं और इनकी बदहाली उनकी समस्या नहीं है। जिसे जितना पैसा, उसके बच्चे उतने महंगे सरकारी स्कूल में, उसके बीमार परिजन उतने महंगे अस्पताल में। जिसे कम पैसा...तो उसके लिये बी या सी ग्रेड के प्राइवेट स्कूल या अस्पताल।

देश की विशाल वंचित आबादी के संघर्षों से अपने को पूरी तरह काट कर मध्य वर्ग ने अपने अलग सरोकार विकसित किये। इसलिये... प्रतिगामी राष्ट्रवाद को भी खाद पानी देने में इस वर्ग ने कोई अधिक गुरेज नहीं किया। नई सदी का भारतीय मध्य वर्ग वैचारिक स्तरों पर जितना खोखलेपन का शिकार है और जिस कदर आत्मकेंद्रित है, अतीत में ऐसा कभी नहीं हुआ।

तो...अब...मुनाफाखोर पूंजी के हाथ मध्य वर्ग की जेब से आगे बढ़ कर गिरेबान तक पहुंच चुके हैं। बच्चे को मेडिकल की पढ़ाई करानी है तो जीवन भर की कमाई के साथ ही पैतृक संपत्ति का भी होम कर दो तो ही बात बनेगी, अच्छे संस्थान में इंजीनियरिंग पढ़ाना है तो इतना खर्च करना होगा जितना कभी सोचा भी न था। बच्चे में प्रतिभा होने के बावजूद अगर नहीं दे सकते इतना पैसा तो भाड़ में जाओ। कोई सरकार, कोई अदालत, कोई शक्ति अब सहारा नहीं। व्यवस्था पूंजी की दासी बन चुकी है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को स्वायत्तता देने के नाम पर कारपोरेट कंपनियों में तब्दील किया जा रहा है, जहां से बच्चों को बी ए और एम ए करवाने में भी लाखों का खर्च आएगा। नहीं है औकात तो मत पढ़ाओ अपने बच्चों को और भेज दो उन्हें महानगरों में, जहाँ वे दिहाड़ी पर काम करते हुए एड़ियां घिसते रहेंगे।
सरकारी अस्पतालों की बदहाली पर चुप रहने वाले लोग अब बीमार पड़ते हैं तो निजी अस्पतालों के अलावा विकल्प नहीं। बीमारी कहीं गम्भीर निकली तो लुटने और बिकने के लिये तैयार रहो।

मध्य वर्ग लुट कर भी, बिक कर भी अपने बच्चों को पढ़ाएगा, अपने परिजनों का इलाज करवाएगा...। तो...उन्हें लूटने के लिये, खरीदने के लिये पूंजी की शक्तियां तैयार बैठीं हैं। इसी की तो तैयारी हो रही थी ढाई तीन दशकों से। यही तो है उदारवाद के नाम पर निजीकरण...और फिर अंधाधुंध निजीकरण का निष्कर्ष। राष्ट्र-राज्य के नागरिक के रूप में हमारे अधिकारों का अतिक्रमण कर हमें पूंजी की निर्मम शक्तियों के हवाले कर दिया गया है और हम खुद को विकल्पहीन पा रहे हैं।

बीते चार-पांच वर्षों में विभिन्न टैक्सों का जितना बोझ लादा गया है, मध्य वर्ग पर इतना बोझ अतीत में कभी नहीं था। निम्न वर्ग को तो इंसान समझने से भी इंकार करने वाली यह व्यवस्था मध्य वर्ग को भी हर स्तर पर निचोड़ने के लिये अब पूरी तरह तैयार है। 
निजीकरण के जयजयकार के दौर को याद करिये। और...आज के दौर की दुर्गतियों का उत्स उस दौर में तलाशिये। शायद...कोई रास्ता नजर आए। अपने लिये न सही, अपने बच्चों की पीढ़ी के लिये नए रास्तों की तलाश बेहद जरूरी है।
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