Sunday 12 January 2014

कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी को लाल सलाम...कैलाश पांडे

  1. कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी को लाल सलाम...! ( 11 जनवरी शहादत दिवस ):
    11 जनवरी 1948 को टिहरी गढ़वाल राजशाही के खिलाफ लड़ते हुए कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी कीर्तिनगर में शहीद हुए थे और इसके साथ ही लगभग 1200 साल की सामंती हकूमत से टिहरी की जनता को मुक्ति मिली थी । टिहरी की जनता एक साथ राजा और ब्रिटिश राज दोनों का दमन झेल रही थी । 1920 को जन्मे नागेन्द्र सकलानी 16 वर्ष की उम्र में ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता बन चुके थे । इसी बीच टिहरी रियासत में अकाल पड़ा तो राजा ने जनता को राहत देने के बजाय अपने राजकोष को भरना ज्यादा मुनासिब मानते हुए भू-व्यवस्था एवं पुनरीक्षण के नाम पर जनता को ढेरों करों से लाद दिया । इस राजसी क्रूरता के खिलाफ़ नागेन्द्र ने गांव-गांव अलख जगा आंदोलन को नयी धार दी। नतीजतन, राजा का बंदोबस्त कानून क्रियान्वित नहीं हो सका।
    राजशाही से क्षुब्ध लोगों ने सकलानी व अन्य आन्दोलनकारियों के नेतृत्व में कड़ाकोट (डांगचौरा) से बगावत शुरू कर दी और करों का भुगतान न करने का ऐलान कर डाला। किसानों व राजशाही फौज के बीच संघर्ष का दौर चला। नागेन्द्र को राजद्रोह में 12 साल की सजा सुनाई गई। नागेन्द्र सकलानी ने जेल में 10 फरवरी 1947 से आमरण अनशन शुरू किया। मजबूरन राजा को नागेन्द्र सकलानी को साथियों सहित रिहा करना पड़ा। सुमन की शहादत पहले ही जेल में हो चुकी थी, राजा जानता था कि सुमन के बाद सकलानी की जेल में ही शहादत का अंजाम क्या हो सकता है।
    इसके साथ ही जनता ने वनाधिकार कानून संशोधन, बराबेगार, पौंणटोंटी जैसी कराधान व्यवस्था को समाप्त करने की मांग की। मगर राजा ने इसे अनसुना कर दिया। सकलाना की जनता ने स्कूलों, सड़कों, चिकित्सालयों की मौलिक मांगों के साथ ही राजस्व अदायगी को भी रोक डाला। विद्रोह को दबाने के लिए विशेष जज के साथ फौज सकलाना पहुंची। यहां उत्पीड़न और घरों की नीलामी के साथ निर्दोंष जेलों में ठूंस जाने लगे। ऐसे में राजतंत्रीय दमन के खिलाफ़ संघर्ष तेज़ हुआ और आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए सत्याग्रहियों की भर्ती शुरू हुई। सकलाना में आजाद पंचायत की स्थापना हुई तो इसका असर कीर्तिनगर परगना तक पहुंचा । आन्दोलन के इस बढ़ते दौर में बडियार में भी आजाद पंचायत की स्थापना हुई।
    10 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर में सामंती बंधनों से मुक्ति को जनसैलाब उमड़ पड़ा। राजा के चंद सिपाहियों ने जनाक्रोश के भय से अपनी हिफाजत की एवज में बंदूकें जनता को सौंप दी। इसी बीच जनसभा में कचहरी पर कब्जा करने का फैसला हुआ और कचहरी पर ‘तिरंगा’ फहरा दिया गया । गौरतलब है कि इससे 5 महीने पहले 15 अगस्त 1947 को अंग्रेज भारत छोड़कर जा चुके थे । कीर्तिनगर में झंडा फहराने की खबर जैसे ही नरेन्द्रनगर पहुंची तो वहां से फौज के साथ मेजर जगदीश, पुलिस अधीक्षक लालता प्रसाद व स्पेशल मैजिस्ट्रेट बलदेव सिंह 11 जनवरी को कीर्तिनगर पहुंचे। राज्य प्रशासन ने कचहरी को वापस हासिल करने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन जनाक्रोश के चलते उन्हें मुंह की खानी पड़ी। फौज ने आंसू गैस के गोले फेंके तो भीड़ ने कचहरी को ही आग के हवाले कर दिया।
    हालातों को हदों से बाहर होता देख अधिकारी जंगल की तरफ भागने लगे। आंदोलनकारियों के साथ जब यह खबर नागेन्द्र को लगी तो उन्होंने साथी भोलू भरदारी के साथ पीछा करते हुए दो अधिकारियों को दबोच लिया। सकलानी बलदेव के सीने पर चढ़ गये। खतरा भांपकर मेजर जगदीश ने फायरिंग का आदेश दिया। जिसमें दो गोलियां नागेन्द्र सकलानी व मोलू भरदारी को लगी, और इस जनसंघर्ष में दोनों क्रांतिकारी शहीद हो गये। कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य कामरेड नागेन्द्र सकलानी पार्टी के निर्देश पर ही टिहरी राजशाही के विरूद्ध संघर्ष को तेज़ करने कीर्तिनगर पहुंचे थे । मोलू भरदारी भी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार सदस्य थे। शहादत के गमगीन माहौल में राजतंत्र एक बार फिर हावी होता कि पेशावर विद्रोह के नायक कामरेड चन्द्रसिंह गढ़वाली ने नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया ।
    12 जनवरी 1948 के दिन शहीद नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी की देहों को लेकर आंदोलनकारी टिहरी रवाना हुए । जनता ने पूरे रास्ते अमर बलिदानियों को भावपूर्ण विदाई दी। 15 जनवरी को शहीद यात्रा के टिहरी पहुंचने से पहले ही वहां भारी जन-आक्रोश फैल चुका था । जिससे डरकर राजा मय लश्कर नरेन्द्रनगर भाग खड़ा हुआ। कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत सामंतशाही के ताबूत में अंतिम कील साबित हुई और टिहरी की जनता को राजशाही से मुक्ति मिली । अंततः 1 अगस्त 1949 को टिहरी रियासत का भारत में विलय हो गया ।
    11 जनवरी को कीर्तिनगर में हर साल कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की याद में शहीद मेला लगता है और भाजपाई-कांग्रेसी इस शहीद मेले के कर्ता-धर्ता होते हैं....जबकि इन दोनों पार्टियों ने ही कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी के हत्यारे राजा और उसके वंशजों को अपनी-अपनी पार्टियों का टिकट देकर संसद में भेजा । पहले ‘राजा’ मानवेन्द्र शाह कांग्रेस के टिकट पे चुनकर संसद जाता रहा और जब वो एक बार हारा तो फिर जो गायब हुआ तो भाजपा के राम ध्वजा रथ पर ही सवार नजर आया और मरते दम तक भाजपा का सांसद रहा और अब उसी राजा की पुत्र-वधु भाजपा से सांसद है.... इसलिए न तो उनको कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी के क्रांतिकारी इतिहास से कोई लेना-देना है और न ही वो चाहते हैं कि जनता इस इतिहास को जाने-समझे इसलिए वो उनकी शहादत को मेला-खेला आयोजित करने तक सीमित कर देना चाहते हैं.... ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले’ कहने वाले की मंशा जो भी रही हो पर भाजपाईयों-कांग्रेसियों ने इसे इस तरह अपनाया है कि मेले जरूर लगें पर विचार गायब हो जाय । शहीदेआज़म भगत सिंह तक को भी विचारहीन दिखाने की...बम-पिस्तौल तक सीमित करने की...आतंकवादी के बतौर प्रचारित करने की...उनका विचार जनता तक न पहुँचने देने की भरसक कोशिशें शासक-वर्ग ने की हैं पर भगत सिंह भारत की आज़ादी की लड़ाई के ऐसे प्रकाश-स्तम्भ हैं जो इस देश में मेहनतकश वर्ग के आन्दोलन को, नए भारत के निर्माण की लड़ाई में लगे क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को हमेशा प्रेरित करते रहेंगे और शासक-वर्ग की कुचेष्टाएं भी उनकी लोकप्रियता को, उनके राष्ट्रनायक के दर्जे को कभी भी कम नहीं कर सकेंगी । कामरेड नागेन्द्र सकलानी को भी मूर्ति और मेले तक सीमित करने की साजिशें कभी सफल नहीं हो सकतीं । कामरेड नागेन्द्र सकलानी की शहादत, उनकी क्रांतिकारी प्रतिबद्धता और जनता पर अटूट विश्वास भारत में नए जनवाद और बेहतर उत्तराखण्ड की लड़ाई में उन्हें हमेशा हमारा नायक बनाये रखेंगी ।
    उत्तराखण्ड के इतिहास में राजाओं-सामंतों के खिलाफ़ किसान संघर्षों की लम्बी परंपरा रही है । उत्तराखण्ड में जनता के संघर्ष को आगे बढ़ा रहे क्रांतिकारी-कम्युनिस्टों को जरूर ही उत्तराखंड के सामंतवाद विरोधी-उपनिवेशवाद विरोधी किसान संघर्षों के इतिहास की विरासत को प्रतिष्ठित करना होगा । उत्तराखण्ड में क्रांतिकारी संघर्षों को आगे बढ़ाने में यह महत्वपूर्ण साबित होगा ।

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