Tuesday 7 November 2017

क्या कम्युनिस्टों की अदूरदर्शिता ने मोदी को पी एम बनाया ? ------ विजय राजबली माथुर













 हज़ारे को अगुआ बना कर अरविंद केजरीवाल एक लंबे समय से शोषकों -उतपीडकों का बचाव करने हेतु भ्रष्टाचार का राग आलापते  रहे है। पढे-लिखे मूरखों को अपना पिछलग्गू बनाने मे मिली कामयाबी के आधार पर वह फूले नहीं समा रहे हैं और जोश मे होश खो बैठे हैं। उन्होने अपने विभाग से हड़पे नौ लाख रुपए प्रधानमंत्री कार्यालय को लौटाए थे जो उनकी और तत्कालीन  प्रधानमंत्री  की अंतरंगता का ज्वलंत प्रतीक है। हज़ारे  साहब को निजी अस्पताल मे पी एम साहब ने पुष्प गुच्छ भिजवा कर उनके आंदोलन को अपना मूक समर्थन प्रदान किया था।

हज़ारे आंदोलन को कांग्रेस के मनमोहन गुट/आर एस एस/देशी-विदेशी NGOs का भरपूर समर्थन था । रामदेव का आंदोलन  केवल आर एस एस /विदेशी समर्थन पर आधारित था। इसीलिए  रामदेव के आंदोलन पर हज़ारे आंदोलन  बढ़त कायम कर सका। परंतु दोनों का उद्देश्य एक ही था भारत मे संसदीय लोकतन्त्र को नष्ट करके 'अर्द्ध सैनिक तानाशाही' स्थापित करना।

1974 मे चिम्मन भाई पटेल की गुजरात सरकार के भ्रष्टाचार के विरोध मे लोकनायक जय प्रकाश नारायण के आंदोलन मे पहली बार नानाजी देशमुख की अगुआई मे आर एस एस ने घुसपैठ की थी और अपार सफलता प्राप्त  थी।1977 की जनता पार्टी सरकार मे अटल बिहारी बाजपाई ने विदेश विभाग मे तथा एल के आडवाणी ने सूचना एवं प्रसारण विभाग मे आर एस एस के लोगो की घुसपैठ करा दी थी। 1980 मे आर एस एस के सहयोग से इंदिरा गांधी की कांग्रेस पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सकी थी। यह आर एस एस की बहुत बड़ी उपलब्धि थी। वी पी सिंह के 'बोफोर्स कमीशन विरोधी आंदोलन' मे घुस कर आर एस एस ने संतुलंनकारी भूमिका निभा कर अपनी शक्ति मे अपार वृद्धि कर ली थी और 'राम मंदिर आंदोलन' की आड़ मे पिछड़े वर्ग के हित मे लागू 'मण्डल कमीशन' रिपोर्ट की धज्जिये उड़ा दी थी। देश को साम्राज्यवादियों के अस्त्र 'सांप्रदायिकता' से दंगो मे फंसा कर अपार जन-धन की क्षति की गई थी।

1998  -2004 के राजग शासन काल मे गृह मंत्रालय और विशेष कर खुफिया विभागो मे आर एस एस की ज़बरदस्त पैठ बना दी गई। इनही तत्वो ने रामदेव को सहानुभूति दिलाने हेतु राम लीला मैदान कांड अंजाम दिलाया। लेकिन रामदेव की मूर्खताओ के कारण जनता मे उनकी कलई खुल गई। अतः  हज़ारे को आगे खड़ा किया गया। जो कुछ हुआ और हो रहा है सब की आँखों के सामने है। जो लोग व्यापारियों,उद्योगपतियों,ब्यूक्रेट्स के शोषण -उत्पीड़न को ढकने हेतु भ्रष्टाचार का जाप कर रहे थे और जनता को उल्टा भड़का रहे थे उनके मास्टर माइंड हीरो अरविंद केजरीवाल 'मतदान' ही नहीं करना चाहते थे और वह मतदाता तक न बने थे जो उनके 'लोकतन्त्र विरोधी' होने और 'तानाशाही समर्थक' होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। 

तत्कालीन  मनमोहन सरकार के वरिष्ठ मंत्री वीरप्पा मोइली ने खुलासा किया था  कि मनमोहन सिंह ने हड़बड़ी मे 'उदारवाद' अर्थात आर्थिक सुधार लागू किए थे जिनसे 'भ्रष्टाचार' मे अपार वृद्धि हुई है। 

तो यह वजह है कि मनमोहन सिंह जी ने आर एस एस को ताकत पहुंचाने हेतु  हज़ारे के आंदोलन को बल प्रदान किया था। सिर्फ और सिर्फ तानाशाही ही भ्रष्टाचार को अनंत काल तक संरक्षण प्रदान कर सकती है और इसी लिए इन आंदोलनकारियों ने लोकतान्त्रिक मूल्यों को नष्ट करने का बीड़ा उठा रखा है। राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति नफरत भर कर ये लोग जनता को लोकतन्त्र से दूर करना चाहते हैं।
दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से स्तीफ़ा देकर बनारस में मोदी के विरुद्ध चुनाव लड़ने का उद्देश्य 2014 में सिर्फ यह था कि, मोदी विरोधी वोटों को केजरीवाल समेट लें और मोदी को आसान जीत दिला दें। ऐसा करके बदले में दिल्ली चुनावों में आर एस एस के प्रचंड समर्थन से  भाजपा को हराकर केजरीवाल पुनः मुख्यमंत्री बन गए। 
आगामी चुनावों में भाजपा की मदद के लिए केजरीवाल आ आ पा को गुजरात, मध्य प्रदेश, हिमाचल,राजस्थान सभी जगह चुनाव लड़ाएँगे जिससे भाजपा विरोधी वोट बाँट कर उसे आसान जीत उपलब्ध करवा  सकें। आर एस एस सत्ता पक्ष भाजपा के माध्यम से कब्जा चुका है अब विरोध पक्ष को आ आ पा के माध्यम से कबजाना चाहता है। परंतु 
दुखद तथ्य यह है कि, प्रगतिशील माने जाने वाले विद्वान और दल केजरीवाल और उनके AAP को मोदी / भाजपा विरोधी मानते हुये जनता को गुमराह कर रहे हैं। 

1952 के प्रथम आम चुनाव में  भाकपा लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल थी और 1957 में केरल में संसदीय चुनावों के जरिये सत्ता में आ चुकी थी तब  ' यह आज़ादी अधूरी है ....'  का नारा लगा कर संसदीय भटकाव का राग अलापते हुये और खुद को एथीस्ट घोषित करते हुये जनता से अलग - थलग करने की ज़रूरत क्या थी ? सिर्फ  ब्राह्मण वाद की रक्षा हेतु ही 1964 में पार्टी में विभाजन हुआ और विभक्त हुई पार्टी से 1967 और उसके बाद विभाजन का सिलसिला ही शुरू हो गया। आज केवल आर्थिक संघर्षों के जरिये देश की सत्ता नहीं प्राप्त की जा सकती है जब तक कि, ब्राह्मण वाद की देन  सामाजिक विषमता अर्थात जाति - व्यवस्था पर प्रहार नहीं किया जाता। क्या सभी साम्यवादी दल  / वामपंथ जिन पर ब्राह्मण वादी वर्चस्व है ऐसा होने देंगे ? जब तक ब्राह्मण वाद के विरुद्ध कम्युनिस्ट नहीं खड़े होंगे भारत वर्ष में सफल भी नहीं हो सकेंगे। इस तथ्य को आज सर्वहारा क्रांति की शताब्दी मनाते हुये ध्यान में रख कर आगे बढ़ेंगे तो सफलता चरण चूम लेगी। 
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