Monday 3 September 2018

' न दैन्यम न पलायनम ' के शिक्षक योगीराज श्री कृष्ण ------ विजय राजबली माथुर



श्री कृष्ण का साम्यवाद विभेद नहीं करता । यह सभी को समान दृष्टि से देखता है। --- बृजेश शुक्ल


डॉ हजारी प्रसाद दिववेदी ने अपने एक निबंध में बताया है कि, श्री कृष्ण ने महाभारत - युद्ध के समय अर्जुन को जो शिक्षा दी उसका मूल उद्देश्य उनको यह समझाना था कि   ' न दैन्यम न पलायनम ' अर्थात  किसी भी समस्या के आने पर न तो दीनता दिखानी चाहिए और न ही पलायन करना चाहिए बल्कि समय और परिस्थिति के अनुसार उस का डट कर मुक़ाबला करना चाहिए और ऐसा करने से सफलता तो स्वतः ही मिल जाती है। श्री कृष्ण के जन्म समय का जो प्रतीकात्मक वर्णन मिलता है लगभग वैसी ही काली - काली घटाएँ आज भी सामाजिक परिदृश्य पर छाई हुई हैं। युवा -  वर्ग को अपने मानस - पटल पर श्री कृष्ण के चरित्र और उनकी दी हुई शिक्षा को उतारना होगा न कि ढोंगवाद में उलझ कर अपने जीवन को नारकीय बनाना तब ही श्री कृष्ण जन्माष्टमी मनाने की सार्थकता सम्पन्न हो सकती है। 
*जब श्री कृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ उस समय गावों का शहरों द्वारा शोषण चरम पर था और बालक श्री कृष्ण को यह गवारा न हुआ  कि, ग्रामीण संपदा गांवों को मोहताज व शहरों को समृद्ध करे अतः उन्होने शहरों की ओर 'मक्खन ' ले जाती ग्वालनों की मटकियाँ फोड़ने का कार्यक्रम अपने बाल साथियों के साथ चलाया था। 
योगीराज श्री कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन शोषण-उत्पीड़न और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करते हुये ही बीता किन्तु ढ़ोंगी-पोंगापंथी-पुरोहितवाद ने आज श्री कृष्ण के संघर्ष को 'विस्मृत' करने हेतु उनको अवतार घोषित करके उनकी पूजा शुरू करा दी। कितनी बड़ी विडम्बना है कि 'कर्म' पर ज़ोर देने वाले श्री कृष्ण के 'कर्मवाद ' को भोथरा करने के लिए उनको अलौकिक बता कर उनकी शिक्षाओं को भुला दिया गया और यह सब किया गया है शासकों के शोषण-उत्पीड़न को मजबूत करने हेतु। अनपढ़ तो अनपढ़ ,पढे-लिखे मूर्ख ज़्यादा ढोंग-पाखंड मे उलझे हुये हैं।
**कुछ एथीस्ट सांप्रदायिक तत्वों द्वारा निरूपित सिद्धांतों को धर्म मान कर धर्म को त्याज्य बताते हैं। जबकि धर्म=जो शरीर को धारण करने के लिए आवश्यक है वही 'धर्म' है;जैसे-सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । अब यदि ढ़ोंगी प्रगतिशीलों की बात को सही मान कर धर्म का विरोध किया जाये तो हम लोगों से इन सद्गुणों को न अपनाने की बात करते हैं और यही कारण है कि सोवियत रूस मे साम्यवाद का पतन हो गया (सोवियत भ्रष्ट नेता ही आज वहाँ पूंजीपति-उद्योगपति हैं जो धन जनता और कार्यकर्ता का शोषण करके जमा किया गया था उसी के बल पर ) एवं चीन मे जो है वह वस्तुतः पूंजीवाद ही है।दूसरी ओर थोड़े से पोंगापंथी केवल 'गीता ' को ही महत्व देते हैं उनके लिए भी 'वेदों ' का कोई महत्व नहीं है।
***'पदम श्री  'डॉ कपिलदेव द्विवेदी जी कहते हैं कि,'भगवद गीता' का मूल आधार है-'निष्काम कर्म योग' 
"कर्मण्ये वाधिकारस्ते ....................... कर्मणि। । " (गीता-2-47)

इस श्लोक का आधार है यजुर्वेद का यह मंत्र-

"कुर्वन्नवेह कर्मा................... न कर्म लिपयाते नरो" (यजु.40-2 )

इसी प्रकार सम्पूर्ण बाईबिल का मूल मंत्र है 'प्रेम भाव और मैत्री ' जो यजुर्वेद के इस मंत्र पर आधारित है-

"मित्रस्य मा....................... भूतानि समीक्षे। ....... समीक्षा महे । । " (यजु .36-18)

एवं कुरान का मूल मंत्र है-एकेश्वरवाद-अल्लाह की एकता ,उसके गुण धर्मा सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान,कर्त्ता-धर्त्तासंहर्त्ता,दयालु आदि(कुरान7-165,12-39,13-33,57-1-6,112-1-4,2-29,2-96,87-1-5,44-6-8,48-14,1-2,2-143 आदि )।


इन सबके आधार मंत्र हैं-


1-"इंद्रम मित्रम....... मातरिश्चा नामाहू : । । " (ऋग-1-164-46)

2-"स एष एक एकवृद एक एव "। । (अथर्व 13-4-12)
3-"न द्वितीयों न तृतीयच्श्तुर्थी नाप्युच्येत। । " (अथर्व 13-5-16)
****पहले के विदेशी शासकों ने हमारे महान नेताओं -राम,कृष्ण आदि को बदनाम करने हेतु तमाम मनगढ़ंत कहानियाँ यहीं के चाटुकार विद्वानों को सत्ता -सुख देकर लिखवाई जो 'पुराणों ' के रूप मे आज तक पूजी जा रही हैं। बाद के अंग्रेज़ शासकों ने तो हमारे इतिहास को ही तोड़-मरोड़ दिया। यूरोपीय इतिहासकारों ने लिख दिया आर्य एक जाति-नस्ल थी जो मध्य यूरोप से भारत एक आक्रांता के रूप मे आई थी जिसने यहाँ के मूल निवासियों को गुलाम बनाया। इसी झूठ को ब्रह्म वाक्य मानते हुये 'मूल निवासियों भारत को आज़ाद करो'  आंदोलन चला कर भारत को छिन्न-भिन्न करने का कुत्सित प्रयास चल रहा है। अंग्रेजों ने लिख दिया कि 'वेद  गड़रियों के गीत हैं ' और साम्राज्यवाद विरोधी होने का दंभ भरने वाले पंडित सरीखे उद्भट विद्वान उसी आधार पर वेदों को अवैज्ञानिक बताते नहीं थकते हैं।
*****हिटलर ने खुद को आर्य घोषित करते हुये दूसरों के प्रति नफरत फैलाई जो कि आर्यत्व के विपरीत है। 'आर्य'=श्रेष्ठ अर्थात वे स्त्री पुरुष जिनके आचरण और कार्य श्रेष्ठ हैं 'आर्य' है इसके विपरीत लोग अनार्य हैं। न यह कोई जाति थी न है।
******'आर्य ' सार्वभौम शब्द है और यह किसी देश-काल की सीमा मे बंधा हुआ नहीं है। आर्यत्व का मूल 'समष्टिवाद ' अर्थात 'साम्यवाद ' है। प्रकृति में संतुलन को बनाए रखने हेतु हमारे यहाँ यज्ञ -हवन किये जाते थे।  पदार्थ विज्ञान - Material- Scince के अनुसार अग्नि में डाले गए पदार्थ परमाणुओं में विभक्त हो कर वायु द्वारा प्रकृति में आनुपातिक रूप से संतुलन बनाए रखते थे। 
इस प्रकार ' भगवान ' = 'भ'(भूमि)ग (गगन)व (वायु) ।(अनल-अग्नि)न (नीर-जल)को अपना समानुपातिक भाग प्राप्त होता रहता था। 
Generator,Operator ,Destroyer भी ये  ही तत्व होने के कारण यही GOD है और किसी के द्वारा न बनाए जाने तथा खुद ही बने होने के कारण यही 'खुदा 'भी है। अब भगवान् का अर्थ मनुष्य की रचना -मूर्ती,चित्र आदि से पोंगा -पंथियों के स्वार्थ में कर दिया गया है और प्राकृतिक उपादानों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है जिसका परिणाम है-सुनामी,अति-वृष्टि,अनावृष्टि,अकाल-सूखा,बाढ़ ,भू-स्खलन,परस्पर संघर्ष की भावना आदि-आदि.
(विजय राजबली माथुर )
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03-09-2018 


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