Tuesday 21 July 2015

डा० बशेषर प्रदीप : IPTA की स्मरण सभा

लखनऊ, 21 जूलाई 2015 --- आज साँय इप्टा कार्यालय, 22- क़ैसर बाग में एक सभा द्वारा 19 जूलाई को दिवंगत हुये  डा० बशेषर प्रदीप साहब को भावभीनी श्रद्धांजली दी गई। राकेश जी द्वारा प्रारम्भिक परिचय दिये जाने के बाद शकील सिद्दीकी साहब ने बताया कि उनकी पहली कहानी 1949 में छ्पी थी। वह 'भूगर्भ विज्ञानी' थे और पी डब्लू डी के निदेशक रहे थे। उनका सारा लेखन तरक्की पसंद लेखन रहा है भले ही वह सांगठनिक रूप से जुड़े नहीं थे। लेकिन इप्टा के साथ उनका लगाव रहा था और इसके कार्यक्रमों में शरीक भी हुये थे। रूपरेखा वर्मा जी, वीरेंद्र यादव साहब भी अन्य लोगों के साथ वक्ताओं में शामिल थे। रूपरेखा जी ने 1980 में सांप्रदायिक गतिविधियों के उभार के समय उनके व रामलाल जी के साथ बशेषर प्रदीप साहब के सक्रिय योगदान का उल्लेख किया। सभापति  महोदय ने भी उनकी सक्रियता का समर्थन अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में किया। सभापति महोदय ने यह भी सूचित किया कि उनका जन्म सात जूलाई 1925 को हुआ था और निधन 19 जूलाई 2015 को हुआ।उनके पिताजी का निधन 17 जूलाई को और माताजी  का निधन 18 जूलाई को हुआ था। जूलाई का महीना उनके लिए वियोग का रहा हालांकि उनके बड़े बेटे का निधन जून 2014 को हुआ था तभी से उन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा लेकिन फिर भी उनकी लेखनी अनवरत चलती रही। उन्होने यह भी कहा कि जब आर के धवन साहब का इंदिरा जी पर गहरा प्रभाव था तब खानदानी प्रभाव का उपयोग करके  डॉ बी एल धवन  उर्फ बशेशर प्रदीप साहब अपने लिए लाभ उठा सकते थे, राज्यसभा सदस्य भी बन सकते थे। लेकिन उन्होने अपने लेखन को सिर्फ कर्म तक सीमित रखा फल की इच्छा नहीं की। 1996 में उनको 'उर्दू हिन्दी साहित्य एकेडमी अवार्ड' से नवाजा गया था। बच्चों पर आधारित 'सुखं गुलाल' के लिए भी उनको नेशनल अवार्ड मिला था।
सभापति महोदय से पूर्व राकेश जी ने बताया कि उनसे बशेशर जी की मुलाक़ात 20-25 दिनों के अंतराल में होती रहती थी। जब राकेश जी ने वीरेंद्र यादव जी के साथ त्रैमासिक पत्रिका 'प्रयोजन' निकाली थी तब बशेशर जी की एक कहानी उसमें छ्पी थी। उर्दू-हिन्दी के लेखकों की एक मासिक बैठक दिवतीय शनिवार को नियमतः किए जाने का सुझाव राकेश जी ने दिया जिसे उपस्थित लोगों ने स्वीकार कर लिया। 
अंत में खड़े होकर दो मिनट का मौन रख कर उनको श्रद्धांजली दी गई। 

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बशेशर जी पर वीर विनोद छाबड़ा साहब का यह लेख भी पठनीय है ---


और अब ब्रह्मलीन हुए डा० बशेषर प्रदीप भी।
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बड़े दुःख के साथ इत्तला दे रहा हूं उर्दू इल्मो-अदब की दुनिया के मशहूर अफ़सानानिगार डा० बशेषर प्रदीप अब इस दुनिया में नहीं हैं। आज तड़के चार बजे नींद में ही वो ब्रह्मलीन हो गए।
प्रदीप साहब उर्दू अदब की दुनिया में किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं। उर्दू में १४ और हिंदी में ०३ कहानी संग्रह अब तक छप चुके हैं। आत्मकथा 'चनाब से गोमती तक' का पहला हिस्सा आ चुका और दूसरा हिस्सा बस आने को तैयार है। आध्यात्म की दुनिया के परमहंस श्री श्री योगानंद जी की अंग्रेज़ी में प्रकाशित ऑटोबायोग्राफी का उर्दू अनुवाद (५६६ सफ़े) भी किया। उनके अफ़साने भारत के अनेक ज़बानों में ट्रांसलेट हुए हैं, देश-विदेश की अनेक सरकारों और अकादमियों ने कई बार उन्हें पुरुस्कृत किया है।
उत्तर प्रदेश उर्दू अकादेमी कौंसिल और एक्सिक्यूटिव कमेटी के मेंबर रहे हैं। प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन यूपी (उर्दू सेक्शन) के प्रेजिडेंट भी रहे हैं। डायरेक्टर, रिसर्च डेवलपमेंट, यूपी पीडब्लूडी की पोस्ट से रिटायर हुए मुद्दत गुज़र चुकी है।
अभी पिछली ०६ जुलाई को नब्बे साल के हुए थे प्रदीप साहब। दिली ख्वाईश कि उन्हें रूबरू होकर ज़िंदगी के इस अहम पड़ाव को पार करने की मुबारक़ दूं। लेकिन मैं आज-कल करता रह गया। वक़्त किसी का इंतज़ार नहीं करता। हसरत दिल में ही रह गयी।
आज सुबह उनके इंतकाल की ख़बर मिली तो बड़ी तक़लीफ़ हुई। फौरन उनके घर पहुंचा। प्रदीप साहब के दर्शन तो हुए, मगर सिर्फ़ जिस्म के। आत्मा तो ब्रह्मलीन हो चुकी थी।
सन १९२५ को चिन्योट (अब पाकिस्तान) में जन्मे प्रदीप साहब कल तक ज़िंदगी की सबसे लंबी पारी खेल रहे एकलौते गैर-मुस्लिम उर्दू अफ़सानानिगार थे।
मैं प्रदीप साहब को प्रदीप चाचाजी कहता था। जबसे मैंने होश संभाला है तब से मैं उनको जानता हूं । वो मेरे पिताजी (स्वर्गीय रामलाल) के अज़ीज़ दोस्तों में थे। पिछले एक साल में उनसे कई बार मिला।
वो बहुत इमोशनल शख़्स थे। बात करते-करते वो सालों पीछे की दुनिया में खो जाते। उन पलों को याद करते, जिनमे सुख और दुःख दोनों होते। उनकी आंख से बरबस आंसू टपकने लगते। ज़िंदगी में कई कठिन दौर से गुज़रे। ज़िंदगी के आख़िर में भी बेहद कठिन दौर देखा जब पिछले साल जून में उनका बड़ा बेटा भुकेश उर्फ़ टोनी गुज़र गया। वो बताते थे - मैंने उसे हर चरण में बड़ा होते देखा।
मुझे याद है जब मैं अफ़सोस करने गया था तो उन्हें बिलकुल टूटा हुआ पाया। मुझे फटी-फटी आंखों से देखते हुए बोले थे - अब तो जिस्म के साथ-साथ आंसू भी सूख चुके हैं।
मैं खामोश था। सिर्फ़ उनको देख और सुन रहा था।
वो बता रहे थे - उस दिन मुझे सुबह-सुबह छोटे बेटे ने बताया कि टोनी की डेथ हो गयी है। मैं बहुत देर तक उसका मुंह देखता रहा था। जड़ हो गया था। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि डेथ का मतलब क्या होता है.…मुझे झिंझोड़ कर ज़िंदगी में वापस लाया गया था। तुम अंदाज़ा लगा सकते हो उस बाप के दिल पर क्या गुज़री होगी जिसके सामने उसके बेटे की लाश पड़ी हो। इन बूढ़े कंधों ने कैसे कंधा दिया होगा। मेरी आध्यात्मिक शक्ति ने मुझे हिम्मत दी। वरना… ईश्वर किसी बाप को ऐसा दिन न दिखाए…
मैं जब उनसे मिलता था तो मुझे लगता था वो उस ट्रॉमा से कभी बाहर नहीं आ पाये।
वो अक़्सर बड़ी तक़लीफ़ से शिक़ायत करते थे - अब कोई अदीब नहीं आता यहां। तुम भी कभी-कभी ही आते हो.…और हां, तुमने मेरी आत्मकथा 'चनाब से गोमती तक' पढ़ी कि नहीं?
मैं उन्हें बताता था - जी, दो बार पढ़ चुका हूं। अब दूसरे पार्ट का इंतज़ार है। कहानी संग्रह 'जलती बुझती आंखें' भी तकरीबन पूरा पढ़ चुका हूं।
फिर वो पूछते थे - यह उर्दू की दुनिया वाले क्या कर रहे हैं? न ख़ैर और न ख़बर। हिंदी वाले तो कभी कभार ख़बर ले लेते हैं। अभी कुछ दिन पहले वीरेंद्र यादव और राकेश आये थे। मेरी किताब 'चनाब से गोमती तक' वीरेंद्र को दे थी न।
मुझे लगता था कि उर्दू की दुनिया को उन्होंने जितना दिया, उर्दू की दुनिया ने उतना नहीं दिया। उन्हें मलाल रहा कि आख़िरी सफ़र के दौरान, चंद लोगो को छोड़ कर, कोई कोई पूछने वाला नहीं रहा। सबने उन्हें भुला दिया।
मुझे देख कर उन्हें तसल्ली मिलती थी। उन्हें मेरे पिता की और उनके साथ गुज़ारे लाखों पल याद आते थे। वो बताते थे - रामलाल साहब से मैं १५ अक्टूबर की शाम को मिला था। चलने लगा तो मेरे मना करने के बावजूद वो मुझे थोड़ी दूर तक छोड़ने भी आये। उसी रात मैं बाहर चला गया। अगले दिन सुबह मुझे ख़बर मिली कि रामलाल साहब नहीं रहे। वो मेरे आदर्श थे। मलाल रहा कि उन्हें कंधा नहीं दे पाया। मेरी जगह टोनी गया था।
यह कहते हुए उनकी आंखों से टप-टप आंसू टपकने लगते।
याद है मुझे, कुछ महीने पहले आख़िरी बार मिला था। ढेर बातें की। रुखसत होते हुए एक पलट कर उन्हें देखा था। वो मुझे बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहे थे।
मैं सोच रहा था मुझे अब जल्दी-जल्दी आना पड़ेगा। चाचाजी अभी बहुत कुछ कहना चाहते हैं। उनका मन अभी भरा नहीं है। इल्मो-अदब पर चर्चा से उनको बड़ी तसल्ली मिलती है। और ज़िंदा रहने का टॉनिक भी।
अपने पिता की भी याद आ रही है। पिताजी को करीब से जानने बहुत कम लोग बचे हैं। अब वो छोटी सी फ़ेहरिस्त और छोटी हो गयी है।

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