Friday 29 April 2016

" जे एन यू के सौरभ शर्मा के नाम एक टीचर का खुला खत " ------ बोलता हिंदुस्तान / दखल की दुनिया








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“मेरी बेटी ABVP से भी जुड़ सकती थी, लेकिन अब नहीं जुड़ेगी।”

April 27, 2016bh
(ये ख़त 19 मार्च को लिखा गया है। लेखिका ने अभी भेजा तो देर से छाप रहा हूं- मॉडरेटर )

प्रिय सौरभ शर्मा,



मैं बहुत दिनों से तुमसे बात करने की सोच रही थी। परसों जब मैं JNU में अपनी बेटी से मिलने गई थी तो तुम मुझे दिखे भी थे। अनुपम खेर के लिए इंतजाम करने में मशगूल। सोचा भी कि तुमसे मिलकर आऊं, लेकिन तभी उमर और अनिर्बान की ज़मानत की ख़बर आई और देखते ही देखते एडमिन ब्लॉक पर लगने वाले नारों में मैंने ख़ुद को बह जाने दिया। उस खुशी का हिस्सा बन गई, जिसमें हमारी अगली पीढ़ी महफूज़ रहती है। पिछले कई दिनों (11 फरवरी ) से मैं ठीक से सो नहीं पाई थी। चिंता, परेशानी, डर, घृणा, अफ़सोस के साथ हतप्रभ थी। मैंने सोचा नहीं था मैं अपने जीवन में यह दिन देखूंगी। इमरजेंसी के समय मैं बहुत छोटी थी, कुछ भी याद नहीं है। बस सुना ही है उसके बारे में। लेकिन यह जो गुज़री हम सब पर यह भी कम ख़ौफ़नाक नहीं था। युद्ध जब युद्ध के नाम पर हो तब अपना पक्ष तय करना आसान होता है पर जब युद्ध प्रेम, संस्कृति, आस्था, शिक्षा, देश और विकास के नाम पर हो तो लड़ने के लिए बहुत ताक़त लगानी पड़ती है। सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन इस लड़ाई की शुरुआत तुमने कर दी है। हालांकि मैं यह मानती हूँ कि तुम सिर्फ एक मोहरा हो और तुम्हारा इस्तेमाल किया गया है। जिन्होंने यह किया है उनका इतिहास दाग़दार है, हम सब यह जानते हैं। नमो गंगे से नमो दंगे तक की सारी प्रक्रिया से हम सब, पूरा देश वाकिफ़ है।

दूसरी तरफ मैं यह भी मानती हूं कि तुम्हारा विश्वविद्यालय भी अल्टीमेट नहीं है वहाँ भी ज़रूर कुछ कमियां, कुछ ज्यादतियां और परेशानियां होंगी। इसका साफ प्रमाण है कि तुम वहां से चुनाव जीते और तुम्हारे विश्वविद्यालय ने तुम्हें JNU में काम करने का एक बेहतरीन मौका दिया लेकिन अफ़सोस तुमने यह बड़ा मौका गवां दिया और उस जमात में जा शामिल हुए जो बहुत दिनों से रंगे सियार की तरह तुम्हारे विश्वविद्यालय पर नज़रें गड़ाए हुए थे। JNU की सारी कमियों के बावजूद तुम्हें भी यह मानने में परहेज़ नहीं होगा कि JNU हमेशा से सत्ता विरोधी रहा है। नंदीग्राम से लेकर पता नहीं कितने मुद्दों पर हर वक़्त बहस करने को भी तैयार रहता है। वैचारिक विरोध का मतलब वहां दुश्मनी तो कतई नहीं है। सौरभ मैं तुम्हें बताऊं मेरी बेटी तीन साल से वहाँ पढ़ रही है। मैं और उसके बाबा दोनों ही वहाँ पढ़ना चाहते थे पर पढ़ नहीं सके। जिसका अफ़सोस थोड़ा कम हुआ जब हमारी बेटी ने वहां का एंट्रेंस क्लियर किया। हमने उसे शुरू से ही तार्किक और वैज्ञानिक सोच रखने वाला इंसान बनाने की कोशिश की है और उसका व्यक्तित्व स्वतंत्र हो, किसी की छाया नहीं, दूसरों की बात सुनने-समझने का माद्दा हो। गलत चीज पर उसे बहुत गुस्सा आए। झूठ-फरेब से नफरत करे। ऐसी कोशिश हमारी रही है। (कितनी पूरी हो पाई नहीं जानती, क्योंकि सीखने का कोई अंतिम दिन नहीं होता)। कुल मिलाकर मोटे तौर पर तुम यह कह सकते हो कि कुछ वामपंथियों जैसी विचारधारा वाला घर उसे मिला।

JNU, जिसे वामपंथियों का गढ़ कहा जाता है बड़ा ही स्वाभाविक था कि वह जाते ही किसी वामपंथी स्टूडेन्ट यूनियन से जुड़ जाती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और किसी वाम धड़े ने उसे बाध्य भी नहीं किया। उसने तय किया कि अभी वो सबको, सबके काम को देखेगी फिर सोचेगी कि किसके साथ जुड़ना है, हो सकता था कि तुमसे जुड़ती। ‘था’ इसलिए लिख रही हूं कि अब ऐसा कभी नहीं होगा। तार्किक, समझदार और ईमानदार लोगों के लिए तुमने अपने रास्ते बंद कर लिए हैं।



मैं ये पत्र इसलिए लिख रही हूं कि मैं तुम्हारी, तुम जैसे युवा की पूरी बनावट समझना चाहती हूं। मैं आज तक नहीं समझ पाई कि एक युवा दिमाग जो सबसे ज्यादा सवाल पूछता है, असहमतियां दर्ज करता है। लड़ता है, जूझ़ता है, ग़लत चीजों से सीधे जाकर भिड़ जाता है। कैसे, किसके प्रभाव से षड़यंत्र करने लगा, साम्प्रदायिक हो गया और सबसे बड़ी बात कि वर्ग शत्रु बन गया। दिल पर हाथ रख कर कहो सौरभ जब तुम्हारे साथियों (विरोधी ही सही) को पुलिस घसीट कर ले जा रही थी। तुम्हारे दिल की धड़कने बढ़ नहीं गई थीं? आंखें भर नहीं आईं थी? जब कन्हैया को बेरहमी से मारा जा रहा था। असहाय होने की पीड़ा से तुम गुस्से से छटपटा नहीं रहे थे? जब उमर सिर्फ एक मुसलमान में बदल दिया गया और ‘मास्टर माइंड’ जैसी गालियों से मर रहा था। तुम्हारा दिमाग क्या शांत रह पाया था? वहाँ कोई हलचल नहीं हुई? रामा नागा, अनंत, अनिर्बान, आशुतोष तुम्हारे ही जैसे हाड़-मांस के स्टूडेन्ट जब ‘देशद्रोही’ में बदल दिए गए। तुम्हे अपने आकाओं से घृणा नहीं हुई? रामा तो शायद तुमसे भी ज्यादा ग़रीब परिवार का लड़का है। चलो इन सबको छोड़ो, शायद इन नामों से तुम्हे गुस्सा आता हो, कि ये सब तुम्हारे विरोधी हैं। लेकिन तुम्हें रोहित वेमुला से भी कोई लेना-देना नहीं है? टी.वी. पर जब तुमने कहा कि खेतों में पानी देकर तुमने पढ़ाई की है तो मुझे सुनकर अच्छा लगा, आज तुम अपनी मेहनत से JNU में हो यह जानकर और अच्छा लगा। लेकिन इसी तरह से रोहित के पढ़ने से तुम्हें खुशी क्यूं नहीं होती? उसकी मेहनत और तुम्हारी मेहनत में क्या फर्क रह जाता है? ऐसा क्या गुज़रता है कि रोहित की संस्थागत हत्या होती है और तुम एक लोकतांत्रिक संस्था की हत्या के अगुआ या चेहरा बन जाते हो? अपराध तुमसे हुआ है सौरभ लेकिन तुम स्टूडेन्ट हो इसलिए हम हमेशा इसे एक गलती कह कर सम्बोधित करेंगे क्योंकि अपराध की सज़ा होती है और गलतियां सुधारी जाती हैं। अपराधी से घृणा होती है और गलती करने वाले को सुबह का भूला कह कर सब कुछ भूल जाने का मन करता है।




हो सकता है अभी कुछ लोग तुमसे नफरत कर बैठे हों पर एक टीचर होने के नाते मैं तुमसे नफरत नहीं कर सकती। हां तुमसे नाराज़ हूं और बेहद नाराज़ हूं। हो सकता है तुम भी अपनी संस्था से नाराज़ हो और अलग पार्टी, अलग विचारधारा को अपना कर तुम अपनी नाराज़गी जता ही रहे थे फिर ऐसा क्या हुआ कि नाराज़ होते-होते तुम व्यक्तियों (कन्हैया, उमर, बान, अनंत, आशुतोष, शेहला, रामा आदि) से नफरत करने लगे। इतनी नफरत कि चुपके से तुमने ज़ी न्यूज़ को अपनी संस्था में सेंध लगाने के लिए बुला लिया। बहुत कुछ गुज़र गया सौरभ और जो कुछ घट चुका उसे लौटाया नहीं जा सकता-रोहित वेमुला को नहीं लौटाया जा सकता, कन्हैया, उमर और बान के जेल में बिताए दिन नहीं लौटाए जा सकते, कन्हैया की पिटाई का अपमान नहीं लौटाया जा सकता, उनके परिवारों पर जो गुज़री वो नहीं लौटाया जा सकता, तुम्हारे लोगों द्वारा दी गई भद्दी गालियों का दंश नहीं लौटाया जा सकता लेकिन फिर भी एक चीज़ है जो लौटाई जा सकती है और वो है तुम्हारी समझ और तुम्हारी मरी हुई आत्मा।

अगर ये लौट आए तो JNU  के बेलौस बेफिक्र दिन और रात लौट आएंगे। इस देश के दिलों में पड़ी दरार भर जायेगी। बसंत का मौसम लौट आएगा। राधिका वेमुला के होठों की मुस्कान लौट आयेगी। संघ अपने दड़बे में लौट जायेगा और एमएचआरडी के फरमान लौट जायेंगे। सौरभ तुम्हें लौटना इसलिए भी चाहिए कि जिस तरफ तुम खड़े हो उधर नफरत, घृणा, हिंसा, झूठ, कायरता, साम्प्रदायिकता और फासिज़्म है जिसे अंत में खुद की कनपटी पर गोली मारकर आत्महत्या करनी पड़ती है। और एक टीचर होने के नाते मैं कभी नहीं चाहूंगी कि तुम्हारा नाम इतिहास में एक धोखेबाज़ और विभीषण के तौर पर दर्ज़ हो क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो जब मेरी बेटी की बेटी JNU में पढ़ने जायेगी तो उसके सीनियर भी उसे सुनायेंगे ये कथा कि एक समय में यहाँ एक सौरभ शर्मा हुआ करता था……………।

नोट: मेरा एक सुझाव है कि रबीन्द्र नाथ टैगौर का उपन्यास “गोरा” पढ़ लेना। शायद तुम्हें वापस लौटने में मदद मिले।

साभार- दख़ल की दुनिया (ब्लॉग)


http://boltahindustan.com/a-open-letter-to-saurabh-sharma-from-a-teacher/

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29-04-2016 


3 comments:

  1. बहुत ही मार्मिक और सार्थक चिट्ठी...काश सौरभ शर्मा इसे सचमुच में पढ़ें...पढ़ना माने घृणा से मुठ्ठियों का भिंच जाना नहीं बल्कि पेशानी पर कुछ चिंता कुछ दुविधा के चिन्ह...पढ़ना माने शब्दों के भीतर की ऊर्जा को समझना...एक गोटी से इंसान में बदलना...

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  2. Saurbh shayad ise padhe par is par sochega, ye kahna mushkil hai kyoki is samay wo us paksha me khada hai janhan sochne samajhne ki manahi hai.

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  3. Bahut hi marmik letter to Saurabh

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