Wednesday 23 November 2016

सर्वहारा कम्युनिस्ट पार्टियों से निराश क्यों ? ------ हिम्मत सिंह


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Himmat Singh
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आखिरी जंग के लिए आखिरी बेड़ी को तोड़ने का वक्त आ गया है
*बहुजन कम्युनिस्ट पार्टी का ऐलान *
आपको क्या लगता है कि सरकार बहादुर बेवक़ूफ़ है, नया नोट अच्छी तरह से छाप भी नहीं पाई कि विमुद्रीकरण की घोषणा हड़बड़ी में कर दिया. नहीं साहेब नहीं, यह सब बहुत सोच समझ कर और पूरी तैयारी तथा पूरी लाव-लश्कर के साथ उठाया गया कदम है. ब्राह्मणवादी और वह भी आरएसएस के रक्तसंबंध वाली राजनीतिक पार्टी इतनी बेवक़ूफ़ नहीं है. एटीएम में पैसा की कमी, नए नोट के प्रारूप वाले एटीएम मशीन को ढालने में कोताही, कैश की कमी यही तो यह सरकार बहादुर करना चाहती थी. 
सारा बदल देंगे तो फ़ायदा क्या हुआ. अब बाभन (मतलब ब्राह्मणवादी) थोड़े ही चाहेगा कि शूद्रों और मलेच्छों के पास किसी भी प्रकार का संसाधन हो. ये कांग्रेस को जो पानी पी पी कर कोसते हैं, इसलिए नहीं कि भ्रष्टाचार का मसला है बल्कि कांग्रेस्सियों ने थोड़ा बहुत ही सही आजादी के बाद मामूली संख्या में शूद्रों और मलेच्छों को संसाधन रखने का अधिकार क्यों दे दिया था. (मनुस्मृति में साफ़-साफ़ लिखा है कि इन्हें किसी भी प्रकार की संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है.) 
अब ये दबे सुर में ही सही आजाद भारत का जैसा भी संविधान है (हमारा मानना है कि और भी जनाधिकार संपन्न संविधान की जरूरत है) को निरर्थक बनाने और इसकी आलोचना शुरू कर चुके हैं. और मनुस्मृति के अनुसार कायदा कानून लाने की कवायद शुरू कर चुके हैं. तो किस्सा ए कोताह ये है कि 70 साल बाद सीधे जब यह मौका मिला है तो महान मनुस्मृति के अनुसार कार्य आरंभ करने से क्यों चूकें?
लइनों में खड़ी भीड़ के प्रति अजीब सी नफ़रत ब्राह्मणवादी सामाज और सरकार बहादुर की ओर से साफ़-साफ़ देखा जा सकता है. जिस प्रकार से कतार में खड़े बहुजन समाज पर लाठियां भांजी जा रही हैं, सेना बनाम कतार में लगना, मालिकों के पैसे लेकर नए नोट बदलवाने वालों की लाइन आदि कह कर लानत-मलामत की जा रही है, यह वही ब्राह्मणवादी मानसिकता है, और अब तो पूरी पूँजी का संकेन्द्रण ब्राह्मणवादी ताकतों के हाथों में है.
यह ब्राह्मणवाद अपने पूरे चरित्र में फासीवादी और नस्ली वैमनष्यता पर टिका हुआ है. कई ऐसे उदाहरण रोज देखने को मिल जायेंगे जब मोदी की तारीफ करने वाला 95 परसेंट सवर्ण हिन्दू ही मिलेगा, इसमें सवर्ण मजदूर भी शामिल है.
अब सवाल ये उठता है कि इसका काट क्या है? इसका सिर्फ और सिर्फ काट बहुजन जनवादी क्रांति में निहित है जो ब्राह्मणवादी पूंजीवाद, ब्राह्मणवादी सामंती उत्पीडन, ब्राह्मणवादी वर्नाश्रमी दर्शन, मान्यता को समूल नष्ट करे. बहुजनों की एक कम्युनिस्ट पार्टी ही इस हमले का कारगर और मुंहतोड़ जवाब देगा, जहाँ बहुजन सामाज को हज़ारों सालों से चली आ रही हर प्रकार की गुलामी से निजात दिलाएगा.
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हिम्मत सिंह जी के बेबाक विचार भारत में वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व जन्मजात ब्राह्मणों के हाथ में होने से उपजी निराशा व हताशा का स्व्भाविक परिणाम हैं। वस्तुतः लगभग सभी कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व ऐसे ब्राह्मण या ब्राह्मण वादी नेताओं के हाथ में है जिनका अभिमत है कि, sc व obc कामरेड्स से सिर्फ काम लिया जाये लेकिन उनको कोई पद न सौंपा जाये। जबकि भारत में सर्वहारा  दलित व पिछड़ा वर्ग से ही संबन्धित है। यही कारण है कि, 1925 से आज तक कम्युनिस्ट पार्टियां देश के जनमानस के समर्थन से वंचित चली आ रही हैं। 
केवल आर्थिक आधार पर जनता को भारत में लामबंद नहीं किया जा सकता है जब तक कि सामाजिक असमानता को भी दूर करने की बात न उठाई जाये जिस कारण '*बहुजन कम्युनिस्ट पार्टी का ऐलान *' की बात सामने आई है। छात्र नेता कन्हैया कुमार ने 'जय भीम, लाल सलाम ' का नारा असली सर्वहारा को कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ जोड़ने के लिए दिया है लेकिन शीर्ष नेतृत्व इस पर अमल करने का इच्छुक नहीं है। इसीलिए फ़ासिज़्म तेज़ी से अपने पैर मजबूती के साथ फैलाता जा रहा है जो भारत के भविष्य के लिए दुखद है जिसके लिए सभी कम्युनिस्ट पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व उत्तरदाई है। 
(विजय माथुर )
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24-11-2016 

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