Tuesday 19 January 2016

स्त्रियों की आधी आबादी की जागृति और लामबन्दी के बिना कोई भी सामाजिक परिवर्तन सम्भव नहीं ------ M.s. Rana

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रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी शहादत से पहले जनता के नाम यह वसीयत की थी कि “यदि देशवासियों को हमारे मरने का ज़रा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो हिन्दू-मुस्लिम एकता क़ायम करें। यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।”...........................

शहीदेआज़म भगतसिंह के सन्देश को याद करते हुए क्रान्ति का सन्देश कल-कारखानों और खेतों-खलिहानों तक लेकर जाना होगा। स्त्रियों की आधी आबादी की जागृति और लामबन्दी के बिना कोई भी सामाजिक परिवर्तन सम्भव नहीं। मेहनतकशों, छात्रों-युवाओं, बुद्धिजीवियों सभी मोर्चों पर स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाना सफलता की बुनियादी शर्त्त है। हमें हर तरह के जातीय-धार्मिक-लैंगिक उत्पीड़न और दमन के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा इस संघर्ष को व्यापक सामाजिक बदलाव की लड़ाई का एक ज़रूरी हिससा बनाना होगा।


साथियो,
इक्कीसवीं सदी का एक और साल अतीत का हिस्सा बन चुका है। देश की ऊपरी 10-12 प्रतिशत सम्पन्न आबादी नये साल के जश्न पर अरबों रुपये उड़ा रही है। मगर देश के आम मेहनतकश लोगों के लिए तो आने वाला नया साल हर बार की तरह समस्याओं और चुनौतियों के पहाड़ की तरह खड़ा है। आम मेहनतकशों और ग़रीबों के दुखों और आँसुओं के सागर में बने अमीरी के टापुओं पर रहने वालों का स्वर्ग तो इस व्यवस्था में पहले से सुरक्षित है, वे तो जश्न मनायेंगे ही। मगर “अच्छे दिनों” के इन्तज़ार में साल-दर-साल शोषण-दमन-उत्पीड़न झेलती जा रही देश की आम जनता आख़िर किस बात का जश्न मनाये?
क्या इस बात का जश्न मनाया जाये कि लम्बे-चौड़े वादों और तरह-तरह की घोषणाओं के बावजूद देश के लगभग आधे नौजवान बेकारी में धक्के खा रहे हैं या फिर औनी-पौनी कीमत पर अपनी मेहनत और हुनर को बेचने पर मजबूर हैं? क्या इस बात का जश्न मनाया जाये कि महाशक्ति बनने का दावा करने वाले इस देश की लगभग 50 फीसदी स्त्रियाँ खून की कमी और 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, भूख और कुपोषण के कारण लगभग 7000 बच्चे रोज़ाना मौत के मुँह में समा जाते हैं। बजट का 90 फीसदी अप्रत्यक्ष करों द्वारा आम जनता से वसूला जाता है लेकिन आज़ादी के 68 वर्षों बाद भी स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, पानी, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी आम जनता वंचित है। क्या इस बात की ख़ुशी मनायी जाये कि धर्म और जाति के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाने का गन्दा ख़ूनी खेल गुज़रे साल में नयी नीचताओं तक पहुँच गया?
बेशक, हर नया साल इन सम्भावनाओं से भी भरा हुआ होता है कि हम इस तस्वीर को बदल डालने की राह पर आगे बढ़ें। लेकिन अगर हम बस हाथ पर हाथ धरकर ऐसे ही बैठे रहेंगे और अपनी दुर्दशा के लिए कभी इस कभी उस पार्टी को कोसते रहेंगे या उनके बहकावे में आकर एक-दूसरे को अपनी हालत के लिए दोषी मानते रहेंगे तो सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा, जैसे पिछले सात दशकों से चल रहा है।
1947 के बाद से 68 वर्ष का सफ़रनामा गोरे अंग्रेज़ों की जगह आये काले अंग्रेज़ों के शासन में नयी ग़ुलामी के मज़बूत होने का इतिहास बनकर रह गया है। देश में आज लगभग एक लाख अरबपति हैं। 2006 में दुनिया के 946 खरबपतियों में से 36 भारतीय थे। आज यह संख्या और भी बढ़ गयी है। लेकिन इस तस्वीर का दूसरा अँधेरा पहलू यह है कि दस फ़ीसदी लोगों की यह समृद्धि नब्बे फीसदी लोगों को नर्क के अँधेरे में धकेलकर हासिल की गयी है। 10 प्रतिशत अमीर लोगों का देश की 76.3 प्रतिशत सम्पत्ति पर कब्ज़ा है। उनकी कमाई लगातार बढ़ती जा रही है जिसे उद्योग, शेयर मार्केट, मनोरंजन उद्योग आदि क्षेत्रों में लगाकर मुट्ठीभर लोग बेहिसाब मुनाफ़ा बटोर रहे हैं। एक ओर मुकेश अम्बानी है जिसके 6 लोगों के परिवार के लिए 2700 करोड़ की लागत से बना मकान है और दूसरी ओर पूरे देश में 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं और 18 करोड़ लोग फुटपाथों पर सोते हैं। देश की ऊपर की तीन फ़ीसदी और नीचे की 40 प्रतिशत आबादी की आमदनी के बीच का अन्तर आज 60 गुना हो चुका है। सन सैंतालीस के बाद देश के शासकों ने पूँजीवादी विकास का जो रास्ता चुना उसने एक ऐसा समाज बनाया है जो सिर से पाँव तक सड़ रहा है। चारों ओर लूट-खसोट, अन्धी प्रतिस्पर्द्धा, अपराध, शोषण-दमन-उत्पीड़न, अमानवीयता और भयंकर ग़ैर-बराबरी छाई हुई है।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के गहराते संकट ने हालत बद से बदतर बना दी है। बाज़ार में अपने-अपने सामानों को बेचने की गलाकाटू प्रतियोगिता के चलते हर उद्योगपति अपने सामान की लागत कम करना चाहता है। और लागत कम करने का मतलब है कामगारों को कम से कम कीमत पर ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ना! पिछले 25 वर्षों के दौरान उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ लागू होने के साथ ही मज़दूरों-कर्मचारियों की भारी आबादी को नियमित रोज़गार से बाहर धकेलकर ठेका और दिहाड़ी मज़दूर बना दिया गया है जिनके पास रोज़गार सुरक्षा, न्यूनतम मज़दूरी, पेंशन-पीएफ जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं हैं। निजी कम्पनियों और कारख़ानों में ही नहीं, सरकारी विभागों और सार्वजनिक उद्योगों में भी बड़े पैमाने पर छँटनी की गयी है। नियमित रोज़गार समाप्त किये जा रहे हैं और ज़्यादा से ज़्यादा कामों को ठेके पर दिया जा रहा है। नरेन्द्र मोदी के 10 करोड़ रोज़गार देने और ‘मेक इन इंडिया’ जैसे जुमलों के बावजूद सच्चाई यही है कि चपरासी के 368 पदों के लिए 23 लाख से भी ज़्यादा नौजवान आवेदन करते हैं जिनमें पीएच.डी. और एमबीए के डिग्रीधारक भी शामिल हैं। एम.ए. और बी.एससी. किये हुए नौजवान लेबर चौक पर अपने आप को बेचते हुए मिल जायेंगे! यही है उस “रोज़गारविहीन विकास” की सच्चाई जिसका राग विश्व बैंक और आई.एम.एफ. की शह पर पिछले कई वर्ष से अलापा जा रहा है।
दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पिछले कई वर्ष से घनघोर मन्दी की चपेट में है। मगर इस मन्दी का बोझ कौन उठा रहा है? क्या देश के पूँजीपतियों, अफसरशाहों, नेताओं या उच्च मध्यवर्ग की ऐयाशियों में कोई कमी आयी है? नहीं! बल्कि उनकी दौलत का अश्लील प्रदर्शन पहले से कई गुना बढ़ गया है। वास्तव में इस मन्दी का सारा बोझ भी आम मेहनतकश जनता ही उठा रही है। बेहिसाब महँगाई, छँटनी, बेरोज़गारी, वास्तविक वेतन और मज़दूरी में गिरावट और मूलभूत सुविधाओं में एक-एक करके होने वाली कटौती ने आम लोगों का जीना भी मुहाल कर दिया है। दूसरी ओर, हमारी पीठ पर टैक्सों का पहाड़ लादकर पूँजीपतियों को हज़ारों करोड़ रुपये के पैकेज दिये गये ताकि उनकी कम्पनियों का मुनाफ़ा कम न हो जाये।
इस पूँजीवादी लोकतंत्र की सच्चाई यही है कि सारी सरकारें वास्तव में इन्ही देशी-विदेशी लुटेरों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करती हैं। चाहे जिस पार्टी की सरकार सत्ता में आ जाये, धन्नासेठों के हितों में कोई आँच नहीं आती। सभी चुनावी पार्टियों के चुनाव का ख़र्च बड़े-बड़े धनकुबेर उठाते हैं। देश के सांसदों पर पाँच साल में लगभग 16 अरब 38 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं, संसद की एक मिनट की कार्यवाही में ढाई लाख रुपये का खर्च आम जनता अपना पेट काटकर चुकाती है और वहाँ होता क्या है? सांसदों के सोने, ऊँघने, गाली-गलौच और “तू चोर-तू चोर, तू नंगा-तू नंगा” के शोर-शराबे के अलावा जनता को लूटने-खसोटने और देशी-विदेशी धन्नासेठों की तिजोरियाँ भरने की नयी-नयी तिकड़मों को क़ानून का नाम दिया जाता है।
चुनाव के समय “आम” लोगों के लिए “अच्छे दिन” लाने के नाम पर चुनावी पार्टियों के बीच जो कुत्ताघसीटी होती है, वह वास्तव में जनता के बीच भ्रम पैदा करने के लिए किया जाता है। जनता इस भ्रम का शिकार होकर रावण के दस मुखौटों में से किसी एक मुखौटे के हाथ में अपना भविष्य सौंप देती है। एक मुखौटे से भ्रम टूटने पर दूसरा मुखौटा, दूसरे मुखौटे से भ्रम टूटने पर तीसरा मुखौटा… तब तक पुराना मुखौटा अपना चेहरा थोड़ा बदलकर, जनता के हित का अधिक शोर मचाता हुआ फिर जनता के सामने आ जाता है…! साँपनाथ और नागनाथ का यह खेल आज़ादी के बाद से ऐसे ही बदस्तूर चल रहा है। कांग्रेसी मुखौटे से त्रस्त जनता ने मायावी रावण के जिस मुखौटे पर इस बार दाँव लगाया, उसने ख़ुद को चाय बेचने वाला बताते हुए कहा कि ग़रीब प्रधानमंत्री बनेगा तो ग़रीबों के लिए काम करेगा, अच्छे दिन आयेंगे! लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने अमीरों की तिजोरी भरने में पुरानी सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया। इसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी क्योंकि इस “ग़रीब” को 100 कारपोरेट घरानों में से 74 ने अपनी पहली पसन्द बताया था और चुनाव प्रचार के लिये अपनी तिजोरियों का मुँह खोल दिया था।
महँगाई डायन को मार भगाने का वादा करने वाले मोदी के सत्ता में आने पर रसोई गैस, रेल भाड़ा आदि की कीमतों में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हुई। इस “ग़रीब” ने ग़रीबों की थाली से दाल, सब्ज़ी तक छीन लिया। केंद्र व राज्य स्तर पर मोदी सरकार के मंत्रियों ने भ्रष्टाचार व गुंडागर्दी के पुराने रिकार्ड तोड़ने शुरू कर दिये हैं। मध्य प्रदेश का व्यापम घोटाला तो इसकी एक बानगी भर है। युवा-शक्ति की दुहाई देने वाली भाजपा सरकार इस समय युवा-शक्ति को सड़कों पर पीट रही है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) के समझौते के तहत शिक्षा को देशी-विदेशी लुटेरों की लूट का चरागाह बनाने के ख़ि‍लाफ़ दिल्ली सहित देशभर में सड़कों पर उतरे छात्र-छात्राओं को बुरी तरह पीटा गया है। स्वदेशी व राष्ट्रवाद का नगाड़ा बजाने वाले मोदी ने बीमा, रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट दी है, जबकि यही भाजपा कांग्रेस शासन में एफ.डी.आई. का विरोध कर रही थी। देश के सबसे बड़े धन्नासेठों अम्बानी, अडानी, बिड़ला, टाटा आदि को मोदी सरकार ने करों में भारी छूट दी है। उनके हित में श्रम क़ानूनों में बदलाव किये जा रहे हैं ताकि मज़दूरों-कर्मचारियों को लूटना और भी आसान हो जाये। पिछले बजट में कारपोरेट करों की दर 30 से घटाकर 25 प्रतिशत कर दी गयी जिससे आम जनता पर 23383 करोड़ रुपये का बोझ अप्रत्यक्ष करों के रूप में पड़ेगा। आने वाले बजट में जनता पर और भी कड़ी मार पड़ने वाली है। काले धन के मामले में मोदी, रामदेव सब चुप्पी आसन लगाकर बैठे हैं। ‘अच्छे दिन’ बस एक चुनावी जुमला था यह सच्चाई तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ही उगल चुके हैं। अब ये जुमलेबाज़ अपने विरोध में उठने वाली हर आवाज़ को कुचल डालना चाहते हैं। भाजपा की नीतियों का विरोध करने वालों पर आई.एस.आई. का एजेंट, नक्सलवादी, देशद्रोही आदि का ठप्पा लगा देना आम बात है।
लेकिन इनको भी पता है कि जनता को केवल कानून और डण्डे के दम पर नहीं दबाया जा सकता। इसलिए ये अब अंग्रेजों की देन और पिछले 68 साल के आज़माये नुस्खे ‘फूट डालो राज करो’ पर अमल में पूरी तरह जुट गये हैं। संघ परिवार और उसके तमाम आनुषंगिक संगठनों द्वारा ‘लव जिहाद’, ‘धर्मान्तरण’, ‘बीफ प्रकरण’ जैसी बातों को लेकर साम्प्रदायिक माहौल बनाया जा रहा है। बिहार चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण की सारी कोशिशों के बावजूद बुरी तरह पिटने के बाद भी ये अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इनके पास लोगों को उल्लू बनाने के लिए दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है। डेढ़ वर्ष बाद होने वाले उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव की तैयारी में अयोध्या में मन्दिर निर्माण के नाम पर साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की कोशिशें अभी से शुरू कर दी गयी हैं। समाजवादी पार्टी का ‘धर्मनिरपेक्षता’ का पाखण्ड तो मुज़फ्फ़रनगर में दंगों के समय ही सामने आ चुका था, अब भाजपा के साथ उसकी साँठगाँठ की पोल पूरी तरह खुल चुकी है।
अन्धविश्वास, रूढ़ियों के ख़िलाफ़ लड़ने वाले प्रो. कलबुर्गी, गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर की कट्टरपन्थी हिन्दू संगठनों द्वारा हत्या के दोषियों पर आजतक कोई कार्रवाई नहीं की गयी है। बच्चों और युवाओं के दिमाग में नफ़रत के बीज बोने के लिए शिक्षा-संस्कृति का भगवाकरण किया जा रहा है। धार्मिक कट्टरपंथ की राजनीति अपने दूसरे छोर पर भी कट्टरपंथ को ही बढ़ावा देती है। जब एक ओर योगी आदित्यनाथ और प्रवीण तोगड़िया जैसे लोग होंगे तो दूसरी ओर ओवैसी जैसे इस्लामिक कट्टरपंथी नेता भी सांप्रदायिक उन्माद के चेहरे के रूप में मौजूद होंगे। ये दोनों एक दूसरे की राजनीति के लिये तो फायदेमन्द होते हैं पर इनके उकसावे में आने वाली आम जनता ही जानमाल का नुकसान उठाती है। ज़रा ठन्डे दिमाग से सोचें कि 1. फूट डालो और राज करो की नीति की ज़रूरत आज किसको है और क्यों? 2. जब चुनाव करीब होते हैं, तभी क्यों लव-जिहाद, बीफ़, मंदिर-मस्जिद, आदि के नाम पर साम्प्रदायिक दंगे भड़काये जाते हैं? 3. क्या यह सच नहीं है कि इन दंगों में अपने-अपने महलों में बैठे धर्मों के ठेकेदारों पर कोई आँच नहीं आती है, ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा में घूमने वाले नेताओं को कोई चोट नहीं पहुँचती है, हमेशा केवल आम ग़रीब लोग ही मरते हैं, उन्हीं के घर जलते हैं?
साम्प्रदायिकता के ज़हर को दिमाग से हटाकर सोचा जाय तो इन सवालों का जवाब बहुत आसान है। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में क्रान्तिकारियों ने इस चीज़ को शुरू में ही समझ लिया था। 1925 में आर.एस.एस. के स्थापना से पहले ही हिन्दू महासभा आदि के नेतृत्व में साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत हो चुकी थी। आर.एस.एस. की स्थापना के बाद यह बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी। इन्होंने कभी आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया और जब सारा देश एक होकर ब्रिटिश हुकूमत से लड़ रहा था तो ये हिन्दू-मुसलमानों को आपस में लड़ाने में लगे हुए थे। फाँसी पर लटकाये जाने से सिर्फ तीन दिन पहले लिखे ख़त में काकोरी काण्ड के शहीद अशफ़ाकउल्ला ने देशवासियों को आगाह किया था कि इस तरह के बँटवारे आज़ादी की लड़ाई को कमजोर कर रहे हैं। उन्होंने लिखा थाः “सात करोड़ मुसलमानों को ‘शुद्ध’ करना नामुमकिन है, और इसी तरह यह सोचना भी फ़ि‍ज़ूल है कि पच्चीस करोड़ हिन्दुओं से इस्लाम कबूल करवाया जा सकता है। मगर हाँ, यह आसान है कि हम सब ग़ुलामी की ज़ंजीरें अपनी गर्दन में डाले रहें।” इसी तरह रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी शहादत से पहले जनता के नाम यह वसीयत की थी कि “यदि देशवासियों को हमारे मरने का ज़रा भी अफसोस है तो वे जैसे भी हो हिन्दू-मुस्लिम एकता क़ायम करें। यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।”
शहीदेआज़म भगतसिंह ने कहा था कि लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए उनमें वर्ग-चेतना विकसित करने की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकशों व किसानों को यह बात समझानी होगी कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ नहीं करना चाहिए।
आज़ादी और बराबरी के इन मतवालों को आज याद करने का मतलब यही हो सकता है कि हम धर्म और जाति के भेदभाव भूलकर इस देश के लुटेरों के ख़िलाफ़ एकजुट हो जायें. अशपफ़ाक-बिस्मिल-आज़ाद और भगतसिंह की विरासत को मानने का मतलब आज यही है कि हम हर क़ि‍स्म के मज़हबी कट्टरपंथ पर हल्ला बोल दें। आज हम सभी नौजवानों और आम मेहनतकशों को यह समझ लेना चाहिये कि हमें धर्म और जाति के नाम पर बाँटने और हमारी लाशों पर रोटियाँ सेंकने का काम आज हर चुनावी पार्टी कर रही है! हमें इनका जवाब अपनी फ़ौलादी एकजुटता से देना होगा। परिवर्तनकामी छात्रों-युवाओं को नये सिरे से मेहनतकशों के संघर्षों से जोड़ना होगा। उन्हें शहीदेआज़म भगतसिंह के सन्देश को याद करते हुए क्रान्ति का सन्देश कल-कारखानों और खेतों-खलिहानों तक लेकर जाना होगा। स्त्रियों की आधी आबादी की जागृति और लामबन्दी के बिना कोई भी सामाजिक परिवर्तन सम्भव नहीं। मेहनतकशों, छात्रों-युवाओं, बुद्धिजीवियों सभी मोर्चों पर स्त्रियों की भागीदारी बढ़ाना सफलता की बुनियादी शर्त्त है। हमें हर तरह के जातीय-धार्मिक-लैंगिक उत्पीड़न और दमन के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा इस संघर्ष को व्यापक सामाजिक बदलाव की लड़ाई का एक ज़रूरी हिससा बनाना होगा।
हम जानते हैं कि यह रास्ता लम्बा होगा, कठिन होगा और प्रयोगों से और चढ़ावों-उतारों से भरा होगा। पर यही एकमात्र विकल्प है। यही जन-मुक्ति-मार्ग है। यही इतिहास का रास्ता है। और हर लम्बे रास्ते की शुरुआत एक छोटे से क़दम से ही होती है।

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