Saturday 12 March 2016

राष्ट्रवाद देशभक्ति का गला दबाने की स्थिति में ------ विजय शंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार


स्वामी विवेकानंद ने कहा था- जब तक लाखों लोग भूखे और अशिक्षित हैं तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को गद्दार मानता हूं जो उनके बल पर शिक्षित हुआ और अब वह उनकी ओर ध्यान नहीं देता.


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पहले देशभक्ति और राष्ट्रवाद में फर्क़ तो समझ लीजिए!

By: विजय शंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार | Last Updated:Friday, 11 March 2016 9:28 PM



गुरुवार 10 मार्च, 2016 की शाम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ (जेएनयूएसयू) के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की कैम्पस में ही घुसकर ज़ुबान ख़ामोश करने की कोशिश की गई. थप्पड़ मारने का प्रयास करने वाले शख़्स विकास चौधरी का कहना था कि वह कन्हैया को सबक़ सिखाना चाहता था. इससे पहले कथित पूर्वांचल सेना के अध्यक्ष आदर्श शर्मा ने कन्हैया की जान लेने के लिए 11 लाख का ईनाम घोषित किया था. उससे भी पहले भारतीय जनता युवा मोर्चा के नौनिहाल कुलदीप वार्ष्णेय कन्हैया की ज़बान काटने वाले को 5 लाख का ईनाम घोषित कर चुके हैं. उससे पहले के पहले कुछ युवा वकीलों ने अदालत परिसर में कन्हैया को पीटने का तमग़ा अपनी छाती में जड़ा था.

गौर करने की बात यह है कि ये सभी कथित देशभक्त युवा हैं और कन्हैया को पहले से ही देशद्रोही मानकर उसे सबक़ सिखाना चाहते हैं जबकि दिल्ली हाईकोर्ट ने उसे जमानत पर रिहा कर रखा है. उन्हें देश की न्याय व्यवस्था पर रंचमात्र यकीन नहीं है जबकि कन्हैया ने हज़ारहा कहा है कि वह इस महान देश के संविधान और न्यायपालिका पर पूरी आस्था रखता है. भारत विरोधी नारे लगाने से साफ इंकार करने के बाद उसने इतना ज़रूर कहा था कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की समाज को बांटने वाली नीतियों का विरोध करता है. क्या आज इस देश में सरकार का विरोध करना इतना बड़ा गुनाह हो गया है कि लोगों को देशद्रोही करार दे दिया जाए!

आख़िर कन्हैया इन सबका दुश्मन कैसे बन गया? जबकि इसी देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो उसे अपनी आंखों का तारा मानने लगे हैं. वजह यह है कि जमानत पर रिहा होने के बाद कन्हैया ने कैम्पस में जो भाषण दिया वह करोड़ों दिलों की आवाज़ थी. यह आवाज़ जिन लोगों को पसंद नहीं आई वे कौन लोग हैं? क्या ये वही लोग नहीं हैं जो एक षड़यंत्रकारी योजना के तहत इस देश की ‘अनेकता में एकता’ पसंद करने वाली जनता को कई दशकों से मोनोलिथ बनाना चाहते हैं? क्या ये हमलावर लोग देशभक्त हैं? कतई नहीं, ये राष्ट्रवादी हैं. देशभक्त होने तथा राष्ट्रवादी होने में फर्क़ होता है. क्या है ये फर्क़, ज़रा महापुरुषों की ज़बानी सुन लीजिए:

अल्बर्ट आइंस्टाइन ने कहा था- राष्ट्रवाद एक बचकाना बीमारी है, यह मानव जाति का चेचक है.

देशभक्ति और राष्ट्रवाद के उपर्युक्त उद्धरणों से तो यह शीशे की तरह साफ हो जाता है कि देशभक्त कौन है और राष्ट्रवादी कौन. यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कन्हैया को मारने की कोशिश करने वाले और उनके पीछे की शक्तियां राष्ट्रवादी हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि राष्ट्रवाद को भारत जैसी विविधता वाले देश में प्रश्रय क्यों मिलना चाहिए? हर देशवासी को देशभक्ति की जगह राष्ट्रवाद की घुट्टी क्यों पिलाई जानी चाहिए?

सच्चाई यह है कि राष्ट्रवाद इस देश के सभी नागरिकों को देशभक्त नहीं मानता. वह अपनी विचारधारा से असहमति जताने वाले को देशद्रोही का प्रमाणपत्र जारी कर देता है. यहां तक कि उसकी जान लेने की कोशिश करता है और कई बार कामयाब भी हो जाता है. वह युवकों का ब्रेनवॉश करके अपनी विचारधारा का उन्माद भरता है और उनसे देशविरोधी गतिविधियां करवाता है. राष्ट्रवाद देशवासियों की भूख और शिक्षा पर ध्यान न देकर शिक्षा के केंद्रों को ही निशाना बनाता है जबकि देशभक्ति खेतों और सीमा पर संघर्ष करती है.

स्वामी विवेकानंद ने कहा था- जब तक लाखों लोग भूखे और अशिक्षित हैं तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को गद्दार मानता हूं जो उनके बल पर शिक्षित हुआ और अब वह उनकी ओर ध्यान नहीं देता.

राष्ट्रवाद भी इसकी तरफ ध्यान नहीं देता बल्कि वह इस पर ध्यान देता है कि भूख और अशिक्षा के ख़िलाफ जो आवाज़ उठे उसे हर तरह के ‘छल-छद्म’ से ख़ामोश करा दो. गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर भी इस राष्ट्रवाद के खिलाफ़ थे. वह भारत ही नहीं जापान और अमेरिका के राष्ट्रवाद के भी खिलाफ़ थे. सन 1916-17 के दौरान जब वह अमेरिका प्रवास पर थे तो उन्होंने चेतावनी दी थी कि राष्ट्रवाद एक बहुत बड़ा ख़तरा है. उनका कहना था कि भारत इतना विशाल और वैविध्यपूर्ण देश है कि मानो अनेक देश एक भौगोलिक इकाई में समा गए हों. उनका यह भी मानना था कि राष्ट्रवाद भारत में कई समस्याओं की जड़ है.

आज स्थिति यह है कि राष्ट्रवाद देशभक्ति का गला दबाने की स्थिति में पहुंच गया है. राष्ट्रवाद का स्वरूप यह है कि वह एक राजनैतिक सिद्धांत है. इसे स्वीकार करने पर किसी पार्टी विशेष का सदस्य बनना पड़ता है जबकि देशभक्त व्यक्ति को किसी भी प्रकार की सदस्यता नहीं लेनी पड़ती. उसका नागरिक होना ही पर्याप्त है. राष्ट्रवाद को चिल्ला-चिल्ला कर सबको बताना पड़ता है कि वह राष्ट्र से प्रेम करता है जबकि देशभक्त को इसकी ज़रूरत नहीं पड़ती. देश का मजदूर, किसान, व्यापारी, नौकरीपेशा यानी कोई भी देशभक्त हो सकता है जबकि राष्ट्रवाद इस सिद्धांत को नहीं मानता.

देशभक्ति अपने आप बढ़ने वाली भावना है उसे खुद को बढ़ाने के लिए कसरत नहीं करनी पड़ती. एक भिखारी भी देशभक्त हो सकता है लेकिन राष्ट्रवाद का ग़रीबों से आंतरिक विरोध होता है. अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए पूंजीवादी और राष्ट्रवादी हरदम चोर-चोर मौसेरे भाई बनने को तैयार रहते हैं. किसी गरीब से पूछिए कि वह राष्ट्रवादी है या देशभक्त, तो छूटते ही वह खुद को देशभक्त बताएगा क्योंकि राष्ट्रवाद के बारे में वह कुछ नहीं जानता. राष्ट्रवाद पढ़ाना पड़ता है, इसके लिए स्कूल होते हैं जबकि देशभक्ति के लिए किसी स्कूल की ज़रूरत नहीं होती. भारत में पैदा हुआ हर नागरिक देशभक्त होता है, देशद्रोही या छद्म होने का तमग़ा उसे राष्ट्रवाद देता है.

आजकल देश में यही कवायद चल रही है. कन्हैया कुमार तो एक प्रतीक है. कन्हैया के बहाने देशभक्तों को डराया-धमकाया जा रहा है. उसने देश में रहकर देश से आज़ादी मांगी, अन्याय-शोषण व आर्थिक विषमता से आज़ादी मांगी तो वह देशद्रोही हो गया और विजय माल्या को राष्ट्रवादी लोगों ने देशवासियों का पैसा बोरों में भरकर फुर्र हो जाने दिया तो वे देशप्रेमी हो गए! इस पर भी राष्ट्रवादी यही कहेगा कि कुछ भी होता रहे उसके देश में सब ठीक चल रहा है क्योंकि इस वक़्त देश में उसकी सरकार है. दरअसल राष्ट्रवाद एक धर्म है जो विद्वेष, हिंसा, तिरस्कार, हिंसा, आक्रामकता और शत्रुता की बुनियाद पर खड़ा होता है; इसलिए उसका मंत्र होता है- ‘राष्ट्रवादी हिंसा हिंसा न भवति’.

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