Sunday 6 March 2016

कन्हैया कुमार ने वाम राजनीति को जमीनी यथार्थ की शक्ति से परिचित करा दिया है ------ वीरेंद्र यादव


सच तो यही है कि ' A spectre is haunting the saffron , the spectre of KANHAIYA'
कन्हैया कुमार ने अपनी वक्तृता से वाम राजनीति को नये मुहावरे, शैली , संवाद और जमीनी यथार्थ की शक्ति से परिचित करा दिया है. पहले भी वाम राजनीति से सम्बद्ध कई लोग जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने जाते रहे हैं. उनमें प्रकाश करात,सीताराम येचुरी तो आज की वाम राजनीति के कर्णधार ही हैं. लेकिन ये अंग्रेजीदां अभिजात पृष्ठभूमि के हैं. कन्हैया की पूर्व नेतृत्व से भिन्नता महज उनकी ग्रामीण पृष्टभूमि और गैर -अंग्रेजीदां संवाद शैली नही है ,बल्कि उसका कंटेंट भी है. कन्हैया सही अर्थों में ग्राम्सी के 'आर्गेनिक इंटलेक्चुअल' की भूमिका में हैं. कन्हैया के भाषणों में वर्ग-चेतना और सामाजिक न्याय की अंतर्धारा जिस विश्वसनीयता के साथ अभिव्यक्त होती है ,लम्बे समय से वाम आन्दोलन में उसकी दरकार रही है. नीले और लाल यानि अम्बेडकरवाद और वाम विचारधारा का सहमेल कन्हैया जिस तरह से पेश कर रहे हैं वह वाम राजनीति का नया पैराडाइम शिफ्ट है. यह पहली बार है कि वाम राजनीति की जमीन पर खड़ा हुआ एक वक्ता अपने भाषण का समापन 'जय भीम' और 'लाल सलाम' दोनों नारों को एकसाथ लगाते हुए करता है. उल्लेखनीय यह भी है कि कन्हैया इन नारों को लगाते हुए दलित और पिछड़े सामाजिक सोपान पर न खड़े होकर उस 'डिकास्ट' धरातल पर खड़े है जो किसी भी वाम विचारधारा के व्यक्ति से अपेक्षित है और डी-क्लास तो वह अपनी पारिवारिक आर्थिक स्थिति के चलते है ही.जब वह 'मनुवाद से आज़ादी' का नारा लगाते हैं तो वह अपनी सोशल लोकेशन का क्रिटीक करते हैं इसीलिये वे वंचित वर्गों के आरक्षण की पक्षधरता करते हुए अधिक विश्वसनीय लगते हैं. यह भी कि कन्हैया पार्टियों के पारम्परिक स्ट्रेटजेकेट से ऊपर उठकर वृहत्तर वैचारिक एकता की प्रस्तावना करते हुए वाम को वृहत्तर जनतांत्रिक अर्थों में विस्तृत भी करते हैं. यहाँ सेना बनाम छात्र का द्विविभाजन न होकर ,दलित ,आदिवासी किसान ,अल्पसंख्यक ,महिला और सभी उत्पीडित वर्गों की एकता का संकल्प है. 'राष्ट्रभक्त' बनाम 'राष्ट्रद्रोह' का द्विभाजन यहाँ 'राष्ट्र जनता का या शासक पार्टी का ?' के सवाल से स्वयमेव ख़ारिज हो जाता है. यहाँ आंबेडकर को अधिग्रहीत करने की भगवा राजनीति अम्बेडकरवाद और वामवैचारिकी के स्वाभाविक सहमेल की अनिवार्य परिणति से स्वयमेव तिरोहित हो जाती है. नीले और लाल की एकता का यह सशक्त विकल्प भगवा ताकतों को अस्थिर करने की जो सामर्थ्य रखता है वही भगवा ब्रिगेड का दुस्वप्न है. कन्हैया होने के यही वे निहितार्थ हैं जिससे घबराकर कोई जीभ काटने का दम भर रहा है तो कोई गोली मारने का. किसी को उसमें जिन्ना का जिन्न दिखाई दे रहा है तो किसी को उसमें नेतागिरी की'बू' आ रही है. सच तो यही है कि ' A spectre is haunting the saffron , the spectre of KANHAIYA'
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