*लेकिन 27 सितंबर 1925 को गठित आर एस एस क्यों सफल होता रहा और क्यों 25 / 26 दिसंबर 1925 को गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी टूटते टूटते विफल रही।
*1980 में पहली बार RSS के गुप्त समर्थन से इन्दिरा जी ने आसान सत्ता वापसी तो कर ली थी किन्तु श्रमिकों / कर्मचारियों के लिए तभी से मुसीबतें शुरू हो गईं थीं। तभी से श्रम न्यायालयों में श्रमिकों के विरुद्ध निर्णय आने शुरू हो गए थे। आर एस एस ने इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन देने की कीमत अपने व्यापारी / उद्योपति वर्ग के लिए इस प्रकार वसूली थी। 1984 में आर एस एस के समर्थन से राजीव गांधी को प्रचंड बहुमत तो मिल गया था किन्तु उसकी कीमत के भुगतान में बाबारी मस्जिद / राम जन्मभूमि में 1949 से लगा ताला खुलवाना पड़ा था।
*Trade Union नेता सिर्फ आर्थिक अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं और वे कर्मचारियों को न तो सामाजिक सरोकारों के प्रति जाग्रत करते हैं न ही राजनीतिक कर्तव्यों के प्रति। परिणाम सामने है तानाशाही की दिशा में बढ़ती फासिस्ट सरकार।
1980 में पहली बार RSS के गुप्त समर्थन से इन्दिरा जी ने आसान सत्ता वापसी तो कर ली थी किन्तु श्रमिकों / कर्मचारियों के लिए तभी से मुसीबतें शुरू हो गईं थीं। तभी से श्रम न्यायालयों में श्रमिकों के विरुद्ध निर्णय आने शुरू हो गए थे। आर एस एस ने इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन देने की कीमत अपने व्यापारी / उद्योपति वर्ग के लिए इस प्रकार वसूली थी। 1984 में आर एस एस के समर्थन से राजीव गांधी को प्रचंड बहुमत तो मिल गया था किन्तु उसकी कीमत के भुगतान में बाबारी मस्जिद / राम जन्मभूमि में 1949 से लगा ताला खुलवाना पड़ा था। परिणाम स्वरूप 1991 में यू पी में पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार का गठन व 1992 में बाबरी विध्वंस हुआ था। गोधरा कांड, मुंबई बम ब्लास्ट कांड बाबरी विध्वंस के ही साईड इफ़ेक्ट्स थे।कांग्रेस पर किए गए ट्रायल की सफलता के बाद 2014 में आर एस एस पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार बनवाने सफल हुआ था और 2017 में यू पी में पूर्ण बहुमत की योगी सरकार बनवाने में सफल हुआ है। तब से अब तक यू पी भाकपा में दो-दो बार विभाजन हो चुका है। ट्रेड यूनियन मूवमेंट रसातल को जा चुका है।
NDTV की इस सूचना के अनुसार TRAI ने रिलायंस जियो को आदेश दिया है कि, 15 दिन की बढ़ी अवधी को तुरंत वापिस लिया जाये। मूडीज़ ने इन ग्राहकों को रिलायंस की वित्तीय स्थिति के लिए लाभप्रद बताया है लेकिन इसका राजनीतिक लाभ मोदी सरकार को मिल रहा है। इसके पीछे कंपनी के कर्मचारियों का उत्पीड़न और शोषण भी छिपा हुआ है।कर्मचारियों से अनवरत 15- 16 घंटे कार्य लिया जा रहा है । क्योंकि कंपनी के कर्मचारी यूनियन बना नहीं सकते ( पहल की भनक लगते ही उनकी नौकरी खत्म कर दी जाएगी ), ट्रेड यूनियन लीडर्स तब तक नहीं बोलेंगे जब तक कर्मचारी उनकी ट्रेड यूनियन का सदस्य नहीं बनेगा। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। कर्मचारी यूनियन बना नहीं सकते ट्रेड यूनियन्स उनका मामला उठा नहीं सकते। इनके कर्मचारियों को भाजपा कार्यकर्ता के रूप मे भी इस्तेमाल किया जा रहा है। व्हाट्स एप ग्रुप मेसेज्स के जरिये उनको 'दैनिक जागरण ' पढ़ने को उसी प्रकार कहा जा रहा है जिस प्रकार यू पी के चुनावों मे भाजपा को वोट देने और दिलवाने को कहा गया था। किसी विपक्षी दल को यह सब सोचने - देखने की फुर्सत कहाँ ? सभी बहती गंगा में हाथ धोने को लालायित दिख रहे हैं।
*पहले बैंक ब्याज दरों को घटा कर बैंक जमा को हतोत्साहित किया गया और अब जमा धन की न्यूनतम राशि को बढ़ा कर रु 5000/- किया जा रहा है जिसे न बनाए रख पाने की स्थिति में शुल्क थोपे जा रहे हैं। अपनी ज़रूरत के लिए भी धन निकासी पर शुल्क लगाए जा रहे हैं। स्टेट बैंक के बाद यही व्यवस्था सभी बैंकों में लागू होगी। मतलब यह है कि, जनता बैंकों से धन निकाल कर प्राईवेट कंपनियों में जमा करे और कर्ज लेने के लिए महाजनों के जाल में फिर से फंसे। जब बैंक घाटे में चले जाएँ तब उनका निजीकरण कर दिया जाएगा।
*कर्मचारी यूनियनें सिर्फ अपने वेतन आदि में बढ़ोतरी के लिए तो आगे आती हैं लेकिन जब अपने रोजगार पर भी चोट पड़ने वाली है तब भी तब तक आगे न आएंगी जब तक जबरिया छंटनी न शुरू हो जाएगी।
*1936 में AITUC की स्थापना हुई थी तब इसने देश की आज़ादी के आंदोलन में भी भाग लिया था। जहां जहां कांग्रेस सरकारें थीं AITUC सफल और मजबूत हुई उसी के साथ - साथ CPI भी।
* 13 वर्ष बाद 1949 में सरदार पटेल ने इसे तोड़ कर INTUC की स्थापना कर ली जो सरकार समर्थक संगठन हो गया।
* आर एस एस के दततोंपंत ठेंगड़ी ने BMS की स्थापना कर ली जो निजी कारखानों में मालिकों का समर्थक संगठन बन गया। लेकिन यही सरकारी विभागों व उद्यमों में शुद्ध Trade Unionist संगठन के रूप में सामने आया।
*1964 में CPM के गठन के बाद AITUC फिर टूटा और CITU का गठन हुआ।
अब जितने राजनीतिक दल हैं उतने ही trade unions तो हैं ही लेकिन जातियों पर आधारित trade unions भी बन गए हैं जो एक- दूसरे के विरुद्ध चलते हैं।
*Trade Union नेता सिर्फ आर्थिक अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं और वे कर्मचारियों को न तो सामाजिक सरोकारों के प्रति जाग्रत करते हैं न ही राजनीतिक कर्तव्यों के प्रति। परिणाम सामने है तानाशाही की दिशा में बढ़ती फासिस्ट सरकार।
*कर्मचारियों को दोषी ठहराने वाले trade union नेता अपने व अपने संगठनों के नेताओं की फूट और गैर ज़िम्मेदारी के बारे में क्या अनर्गल कहेंगे?
प्रस्तुत फोटो कापी में व्यक्त विचार अक्सर कामरेड्स द्वारा भी दोहराए जाते हैं।
'कम्यूनिज़्म ' या ' साम्यवाद ' वह व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक से उसकी क्षमतानुसार कार्य लिया जाता है और प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार उसका हक दिया जाता है, जिसमें मानव द्वारा मानव का शोषण नहीं किया जाता है और मानव मात्र के जीवन को सुंदर, सुखद व समृद्ध बनाने के कार्य सम्पन्न किए जाते हैं।
इस व्यवस्था को 'समाजवाद' द्वारा लागू किया जाता है। 'समाजवाद ' वह आर्थिक प्रणाली है जिसमें 'उत्पादन ' व 'वितरण ' के साधनों पर 'समाज ' का अधिकार सरकार के माध्यम से होता है।
लेकिन 27 सितंबर 1925 को गठित आर एस एस क्यों सफल होता रहा और क्यों 25 / 26 दिसंबर 1925 को गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी टूटते टूटते विफल रही। कुछ - कुछ ऊपर दिये चित्रों से समझा जा सकता है। बी एस एफ के कमांडर( जो आतंकी हमले में अपनी आँखें गंवा बैठे थे ) के घर जाकर भाजपाई गृह मंत्री राजनाथ सिंह भोजन करके न केवल एक परिवार का बल्कि समस्त सैन्य बलों का मनोवैज्ञानिक समर्थन हासिल कर लेते हैं जिसका लाभ निश्चित रूप से उनकी भाजपा को ही मिलेगा। मुख्यमंत्री की दाढ़ी बनाने से केश कलाकार की किस्मत ही बदल जाती है और उसका वर्ग भाजपा के समर्थन में खड़ा हो जाता है।
1977 में दूर संचार मंत्री एल के आडवाणी ने अपने विभाग व विदेशमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने विभाग में संघ समर्थक कर्मचारियों की भरमार कर दी थी। उसका लाभ आज तक उनकी पार्टियों को मिलता आ रहा है।
जबकि, 1967 में यू पी के गृह राज्यमंत्री रुस्तम सैटिन साहब और खाद्यमंत्री झारखण्डे राय साहब यदि चाहते तो भाकपा समर्थकों को प्रशासन में स्थान दे सकते थे। इसी प्रकार 1996 में इंद्रजीत गुप्ता साहब गृह मंत्रालय में और चतुरानन मिश्रा साहब कृषि मंत्रालय में भाकपा समर्थकों को समायोजित कर सकते थे, दोनों ही केबीनेट मंत्री थे। किन्तु ऐसा न हुआ और न ही हुआ भाकपा को कोई प्रशासनिक लाभ।
इस संदर्भ में आगरा के एक पूर्व जिलामंत्री कामरेड रमेश मिश्रा साहब के निजी एहसास का उल्लेख करना प्रासांगिक रहेगा। यू पी के विभाजन के बाद आगरा के एक दंपत्ति के एकमात्र चिकित्सक पुत्र उत्तरांचल में रह गए और उनको वहीं का कैडर दे दिया गया। वृद्ध दंपत्ति ने दो दो केंद्रीय भाकपा मंत्रियों के रहते हुये आगरा के जिलामंत्री रमेश मिश्रा से संपर्क किया। मिश्रा जी उनको लेकर कामरेड इंद्रजीत गुप्ता व चतुरानन मिश्रा से मिले लेकिन दोनों ने मदद देने से इंकार कर दिया। निराश मिश्रा जी को लौटते में अजय सिंह ( पूर्व सांसद आगरा जो वी पी सिंह मंत्रीमंडल में रेल उपमंत्री रहे थे ) मिल गए और उदासी का कारण पूछा उनके बताने पर हँसते हुये बोले यह भी कोई बड़ी बात है आपका काम हो गया , समझिए। अजय सिंह उन डाक्टर के पिता श्री व मिश्रा जी को लेकर स्वास्थ्य मंत्रालय में सचिव के पास गए जिनहोने सिंह साहब को देखते ही खड़े होकर स्वागत किया और सुन कर उन डाक्टर का ट्रांसफर उत्तरांचल से यू पी करने का आदेश करा दिया। जिस कार्य को करने से भाकपा के दो दो केबिनेट मंत्रियों ने इंकार कर दिया था उसी को पूर्व रेल उपमंत्री ने तत्क्षण करा दिया। जनता के बीच साख किसकी बनेगी ? भाकपा की , इसके नेताओं की ? कैसे?
भाकपा में तो यू पी में एक डिफ़ेक्टो प्रशासक भी हैं जिनको दो दो बार पार्टी को दोफाड़ करने का ठोस अनुभव भी है जो obc व sc कार्यकर्ताओं से सिर्फ काम लेने के हामी हैं और उनको पदाधिकारी बनाने के सख्त खिलाफ हैं। उनके चापलूस पार्टी कार्यकर्ताओं को अपमानित करते रहते हैं। क्या ऐसे ही कम्युनिस्ट आर एस एस को परास्त कर लेंगे ? फिर कौन सफल हो सकता था आर एस एस या कम्युनिस्ट ?
यदि अभी भी कम्युनिस्ट ' नास्तिकवाद ' / एथीज़्म की ज़िद्द पर अड़े रहे और जनता को 'धर्म ' का वास्तविक 'मर्म ' समझाने को तत्पर न हुये तब फासिस्ट सांप्रदायिक तानाशाही को रोका ही नहीं जा सकता। आने वाले समय में वामपंथी युवा ही आर एस एस से आर - पार की लड़ाई लड़ेंगे परिणाम चाहे जो हो भीषण रक्तपात होगा और इसके जिम्मेदार पूरी तरह से एथीस्ट वामपंथी नेता होंगे क्योंकि यदि वे जन - विरोधी रुख न अख़्तियार करते तो जनता आर एस एस / भाजपा की तरफ जाती ही नहीं।