Thursday, 27 April 2017

Lets say! Red salute! to Comrade A B Bhardhan ------ Arvind Raj Swarup Cpi




Arvind Raj Swarup Cpi
Lets say! Red salute! to Comrade A B Bhardhan
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Daughter, Son Handover
Com A B Bardhan’s Savings to Party
Daughter Dr Alka Barua and son Ashok Bardhan of former general secretary of the Communist Party of India and a veteran communist and trade union leader of the country Com A B Bardhan handed over the savings of their father to party. A letter along with a cheque for Rs 11 lakh drawn in favour of the Party and Rs 1 lakh drawn in favour of the Joshi-Adhikari Institute were sent to party general secretary S Sudhakar Reddy.
After receiving the cheque and the letter which assured to send some more savings of Com Bardhan later, Sudhakar Reddy in his letter sent on April 20, 2017 to Dr Alka Barua acknowledging receipt of both, and profusely thanked them for continuing support from Com Bardhan’s family for the party. The general secretary made it clear that the money received will be deposited in a fund dedicated to the memory of Com A B Bardhan and the interest getting accrued would be used to hold endowment lectures and political schools in memory of Com Bardhan.

Tuesday, 18 April 2017

पुस्तकीय विचार और व्यवहार की अनदेखी : वाम धारा के भटकाव का कारण ------ विजय राजबली माथुर


'केवल विचार पर पुस्तकीय विचार हो और व्यवहार की अनदेखी हो तो परिणाम पर फर्क तो पड़ेगा न !' --- अजित कुमार वर्मा जी का निष्कर्ष सटीक और विचारणीय है। ...........................मास्को रिटर्नड कामरेड करोड़ों की संपत्तियाँ बटोरने में मशगूल हैं और पार्टी के नियंता भी बने हुये हैं तब कैसे  कम्यूनिज़्म कामयाब हो ?


वामपंथ /साम्यवाद का भारत में प्रस्तुतीकरण (WAY OF PRESENTATION) नितांत गलत है जिसे जनता ठुकरा देती है। यदि अपनी बात को भारतीय संदर्भों व भारतीय महापुरुषों के दृष्टांत देकर प्रस्तुत किया जाये तो निश्चय ही जनता की सहानुभूति व समर्थन मिलेगा। उदाहरणार्थ खुद को नास्तिक - एथीस्ट कहते हैं और जनता के कोपभाजन का शिकार होते हैं। मजहब धर्म नहीं है वह पंथ या संप्रदाय है जबकि, समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं।
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
पोंगापंथी वेद और पुराण को एक कहते हैं और वामपंथ भी जबकि, पुराण कुरान की तर्ज़ पर विदेशी शासकों द्वारा ब्राह्मणों से लिखवाये वे ग्रंथ हैं जिनमें भारतीय महापुरुषों का चरित्र हनन किया गया है। 'वेद ' कृणवन्तो विश्वमार्यम की बात करते हैं अर्थात सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने की बात इसमें देश- काल- लिंग-जाति-
वर्ण का कोई भेद नहीं है यह समानता का भाव है। लेकिन वामपंथ / साम्यवाद के द्वारा उस ढोंग का समर्थन किया जाता है कि, 'आर्य ' एक विदेशी जाति है जो बाहर से आई थी। जबकि, 'आर्य ' न कोई जाति है न ही धर्म बल्कि मानवता को श्रेष्ठ बनाने की समष्टिवादी ( समानता पर आधारित ) व्यवस्था है। जिस दिन वामपंथ / साम्यवाद लेनिन व स्टालिन की बात मान कर भारतीय संदर्भों का अवलंबन शुरू कर देगा उसी दिन से जनता इसे सिर - माथे पर ले लेगी। महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी 'साम्यवाद' को देश - काल - परिस्थितियों के अनुसार लागू करने की बात कही है लेकिन भारत के वामपंथी / साम्यवादी न मार्क्स की बात मानते हैं न ही लेनिन व स्टालिन की। केवल चलनी में दूध छानते रहेंगे और दोष अपनी कार्य प्रणाली को न देकर जनता को देते रहेंगे तब क्या जनता का समर्थन हासिल कर सकते हैं ?











'केवल विचार पर पुस्तकीय विचार हो और व्यवहार की अनदेखी हो तो परिणाम पर फर्क तो पड़ेगा न !' --- अजित कुमार वर्मा जी का निष्कर्ष सटीक और विचारणीय है। 
यह भारत की जनता का दुर्भाग्य ही है कि, जिस प्रकार मजहबी तीरथों  की यात्रा कर आए लोगों की पूजा होती है उसी प्रकार मास्को रिटर्नड कामरेड्स भी पूजे जाते हैं और उनकी विद्वता के साथ ही उनकी नीयत पर भी शक करने की गुंजाईश नहीं रहती है। वे चाहे साम्यवाद / वामपंथ को जनप्रिय बनाने के प्रयासों को 'कूड़ा फैलाने ' की संज्ञा दें अथवा एथीज़्म के फतवे से उनको खारिज कर दें उनके निर्णय को प्रश्नांकित नहीं किया जा सकता है और यही वजह है कि, साम्यवाद / वामपंथ प्रगति करने के बजाए विखंडित होता गया है। 
वामपंथ को जनप्रिय बनाने के प्रयासों को 'कूड़ा फैलाने ' की संज्ञा देने वाले मास्को रिटर्नड एक कामरेड के व्यक्तिगत इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि, जब रूस से लौटते समय उनके पुत्र डिग्री के साथ- साथ उनके लिए रूसी पुत्र - वधू लाने की सूचना प्रेषित करते हैं तब उनका आंतरिक जातिवाद उनको ग्लानिग्रस्त कर देता है। इतना ही नहीं दूसरे पुत्र के लिए जब वह सपत्नीक रिश्ता तय करने जाते हैं तब उनकी कामरेड पत्नी ( जो महिला विंग की नेता के रूप में दहेज विरोधी भाषण देकर वाहवाही बटोर चुकी थीं ) एक लाख रुपयों की मांग पेश करती हैं। वह लड़की जो उनको पसंद थी उनके भाषण वाला अखबार उनको दिखाते हुये विवाह से इंकार कर देती है। तब उनका पुत्र ही माता - पिता से बगावत करके उसी लड़की से दहेज रहित विवाह कर लेता है। रोजगार छिनने पर जब वह अपने इन मास्को रिटर्नड कामरेड श्वसुर साहब से जायदाद में अपने हक की मांग करती है तब ये लोग उसे पीट कर भगा देते हैं  थाने में इनकी पहुँच के चलते इनकी पुत्र वधू की FIR नहीं लिखी जाती है। इनके जैसे मास्को रिटर्नड कामरेड करोड़ों की संपत्तियाँ बटोरने में मशगूल हैं और पार्टी के नियंता भी बने हुये हैं तब कैसे  कम्यूनिज़्म कामयाब हो ?


Friday, 14 April 2017

पी.सी जोशी को जयन्ती पर क्रांतिकारी सलाम ------ श्रवण कुमार



Sharwan Kumar
भारतीय जननाट्य संध(इप्टा) के संस्थापकों में एक कामरेड पी.सी जोशी(पूरनचन्द जोशी) की आज जयन्ती है। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम महासचिव थे।
उनका जन्म आज ही की तिथि 14 अप्रैल, 1907 को अल्मोड़ा(उत्तराखंड) में हुआ था। वे एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे।अँग्रेजों के विरूद्ध गोपनीय गतिविधि में सक्रिय भूमिका के कारण वे गिरफ्तार हुए और 'मेरठ षड्यंत्र केस'(1929) केस में उन्हे 1933 तक जेल में रहना पड़ा। जेल से बाहर आने के बाद 1936 में वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम महासचिव बने। उन्होंने 1951 में इलाहाबाद से 'इंडिया टुडे' पत्रिका भी निकाली। विद्यार्थी संगठन एवं मजदूर संगठन की स्थापना में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। कम्युनिस्ट आंदोलन से संबंधित उनकी बहुत सारी किताबें हैं । कुछ सालों तक वे सीपीआई के मुख पत्र 'न्यू एज' के सम्पादक भी रहे।आइए महान संगठनकर्ता, मार्क्सवादी चिंतक,लेखक कामरेड पी.सी जोशी को उनकी जयन्ती पर क्रांतिकारी सलाम पेश करते हैं ।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1898369473765820&set=a.1388791514723621.1073741826.100007783560528&type=3

Dr. Ambedkar on Communist Party of India ------ S.r. Darapuri


S.r. Darapuri
2016 May 29 at 6:57pm
Dr. Ambedkar on Communist Party of India
“The Communist Party was originally in the hands of some Brahman boys- Dange and others. They have been trying to win over the Maratha community and Scheduled Castes. But they have made no headway in Maharashtra. Why? Because they are mostly a bunch of Brahman boys. The Russians made a great mistake to entrust the Communist movement in India to them. Either the Russians did not want Communism in India- they wanted only drummer boys- or they did not understand.”
– Dr. BR Ambedkar’s interview on 21/2, 28/2 and 9/10/53 at Alipore Road, Delhi by Selig Harrison in “Most Dangerous Decades” published by Oxford Press.



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आज भी तो वही स्थिति है, सभी कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथों में है। सबसे पुरानी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में पहुँच चुके मोदीईस्ट कामरेड तो उत्तर प्रदेश में ओ बी सी और दलित वर्ग के कामरेड्स से सिर्फ काम लेने व उनको कोई पद न देने की मुहिम चलाये रखते हैं । इसी ध्येय की पूर्ती हेतु प्रदेश में दो बार पार्टी तोड़ चुके हैं। सात में से चार सदस्य नेशनल काउंसिल में प्रदेश से ब्राह्मण हैं जिनमें से तीन एक ही परिवार के हैं। 
ऐसा ही लगता है कि, सत्ता प्राप्ति से दूर रह कर कुछ बाजरवादी/कार्पोरेटी ब्राह्मण कामरेड्स अपने परिवार की समृद्धि को ही क्रांति की सफलता माने हुये हैं। डॉ अंबेडकर ने तब सही ही तो कहा था। 


(विजय राजबली माथुर )

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फेसबुक कमेंट्स :


Thursday, 13 April 2017

इंटरनेट माध्यम से पार्टी नेता की जड़ता, मूर्खता,कूपमंडूकता आदि से मुक्ति मिलेगी ------ जगदीश्वर चतुर्वेदी

*वामदल आज हाशिए पर हैं उसके कई कारण हैं उनमें एक बड़ा कारण है कम्युनिकेशन की नई वास्तविकता को आत्मसात न कर पाना। वे क्यों इंटरनेट के संदर्भ में अपनी गतिविधियों और संचार की भूमिका को सुसंगठित रुप नहीं दे पाए हैं यह समझना मुश्किल है। --- जगदीश्वर चतुर्वेदी 
*"क्योंकि ये लोग खुद वैचारिक रूप से मजबूत नहीं है" ---AISF नेता राम कृष्ण 
:
Jagadishwar Chaturvedi
इंटरनेट और उससे जुड़े माध्यमों और विधा रुपों के आने के बाद से संचार की दुनिया में मूलगामी बदलाव आया है। वैचारिक संघर्ष पहले की तुलना में और भी ज़्यादा जटिल और तीव्र हो गया है। जनसंपर्क और जनसंवाद पहले की तुलना में कम खर्चीला और प्रभावशाली हो गया है। लेकिन वामदलों और ख़ासकर कम्युनिस्ट पार्टियों में इस दिशा में कोई सकारात्मक पहल नज़र नहीं आती। यह सच है कि वामदलों के पास बुद्धिजीवियों का बहुत बड़ा ज़ख़ीरा है और ज्ञान के मामले में ये लोग विभिन्न क्षेत्र में बेजोड़ हैं। आज भी भारत की बेहतरीन समझ के विभिन्न क्षेत्रों में मानक इन्होंने ही बनाए हैं। लेकिन इंटरनेट जैसे प्रभावशाली माध्यम के आने के बाद वामदलों के रवैय्ये में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है।वामदल आज हाशिए पर हैं उसके कई कारण हैं उनमें एक बड़ा कारण है कम्युनिकेशन की नई वास्तविकता को आत्मसात न कर पाना। वे क्यों इंटरनेट के संदर्भ में अपनी गतिविधियों और संचार की भूमिका को सुसंगठित रुप नहीं दे पाए हैं यह समझना मुश्किल है। 
वामदल जानते हैं कि नेट कम्युनिकेशन न्यूनतम खर्चे पर चलने वाला कम्युनिकेशन है। यह ऐसा कम्युनिकेशन है जो लोकतांत्रिक होने के लिए मजबूर करता है। यह दुतरफ़ा कम्युनिकेशन है। यहाँ दाता और गृहीता एक ही धरातल पर रहते हैं और रीयल टाइम में मिलते हैं। यहाँ आप अपनी-अपनी कहने के लिए स्वतंत्र हैं साथ ही अन्य की रीयल टाइम में सुनने ,सीखने और बदलने के लिए भी मजबूर हैं। विचारों में साझेदारी और उदारता इसका बुनियादी आधार है। 
वामदलों की नियोजित नेट गतिविधियाँ इकतरफ़ा कम्युनिकेशन की हैं और इसे बदलना चाहिए। दुतरफ़ा कम्युनिकेशन की पद्धति अपनानी चाहिए। वामदलों की वेबसाइट हैं लेकिन वहाँ यूजरों के लिए संवाद की कोई खुली जगह नहीं है।वामदलों के बुद्धिजीवियों- लेखकों आदि को कम्युनिकेशन के प्रति अपने पुराने संस्कारों को नष्ट करना होगा। 'हम कहेंगे वे सुनेंगे', ' हम लिखेंगे वे पढेंगे' , 'हम देंगे वे लेंगे' इस सोच के ढाँचे को पूरी तरह नष्ट करने की ज़रुरत है। नये दौर का नारा है 'हम कहेंगे और सीखेंगे',' हम कहेंगे और बदलेंगे'। 
इंटरनेट कम्युनिकेशन आत्मनिर्भर संचार पर ज़ोर देता है । वामदलों के लोग परनिर्भर संचार में जीते रहे हैं। नए दौर की माँग है आत्मनिर्भर बनो। रीयल टाइम में बोलो। बिना किसी की इजाज़त के बोलो।पार्टी की लक्ष्मणरेखा के बाहर निकलकर लोकतान्त्रिक कम्युनिकेशन में शामिल हो और लोकतांत्रिक ढंग से कम्युनिकेट करो। पार्टी में नेता को हक़ है बोलने का , नेता को हक़ है लाइन देने का, पार्टी अख़बार में नेता को हक़ है लिखने का। लेकिन इंटरनेट में प्रत्येक पार्टी सदस्य और हमदर्द को हक़ है बोलने, लिखने और अपनी राय ज़ाहिर करने का। यह राय ज़ाहिर करने का वैध और लोकतांत्रिक मीडियम है । यह प्रौपेगैण्डा का भी प्रभावशाली मीडियम है। यह कम खर्चीला मीडियम है और इसमें शामिल होकर सक्रिय रहने से संचार की रुढियों से मुक्ति मिलने की भी संभावनाएँ हैं। अभी स्थिति यह है कि फ़ेसबुक पर वाम मित्र लाइक करने, एकाध पोस्ट लिखने, फ़ोटो शेयर करने से आगे बढ़ नहीं पाए हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए और वामदलों को सुनियोजित ढंग से अपने सदस्यों को खुलकर इंटरनेट माध्यमों पर अपनी राय ज़ाहिर करने के लिए प्रेरित करना चाहिए इससे पार्टी नेता की जड़ता, मूर्खता,कूपमंडूकता आदि से मुक्ति मिलेगी।
https://www.facebook.com/jagadishwar9/posts/1608776012484433

"क्योंकि ये लोग खुद वैचारिक रूप से मजबूत नहीं है"  ------  "क्योंकि ये लोग खुद वैचारिक रूप से मजबूत नहीं है" यह कथन है AISF , बेगूसराय के एक छात्र नेता राम कृष्ण का ।
 क्योंकि मेरे पिछले पोस्ट प्रकाशन के बाद CPI महासचिव कामरेड द्वारा फेसबुक पर मुझे अंफ्रेंड कर दिया गया है , अतः जगदीश्वर चतुर्वेदी जी की नेक सलाह का वाम नेतृत्व पर कोई प्रभाव पड़ेगा इसकी उम्मीद नगण्य ही है। 

Friday, 7 April 2017
कूपमंडूकता है कम्युनिस्टों की विफलता का कारण
http://communistvijai.blogspot.in/2017/04/blog-post.html

वस्तुतः यू पी भाकपा में  मास्को रिटर्ण्ड  एक डिफ़ेक्टो प्रशासक हैं जो निर्वाचित सचिव व सह - सचिव को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने देते हैं उनका खुद का दावा है कि, जिस दिन लोगों को पता चल जाएगा कि,' गिरीश 'की पीठ पर उनका अब हाथ नहीं है उसी दिन उनका हटना तय हो जाएगा। इस संबंध में फोन पर एक राष्ट्रीय सचिव से भी उन्होने झूठा वायदा किया था जिसे पूरा करने का प्रश्न ही नहीं था। अरविंद जी के संबंध में भी उन्होने कहा था कि, वह भी ज़्यादा अच्छे नहीं हैं। अपने जिस दत्तक पुत्र को एक ही पद पर लगभग 25 वर्षों से बैठाये हुये हैं और जिनके जरिये प्रत्येक राज्य सचिव को प्राभावित करते रहते हैं उनको ही वह अगला राज्य सचिव बनाने की जोड़ - तोड़ बैठा रहे हैं। 
उनका ही यह कहना / निर्देश है कि, obc व sc कामरेड्स से सिर्फ काम लिया जाये परंतु कोई पद न दिया जाये। 2012 में sc व 2014 उपचुनाव में obc कामरेड को चुनाव लड़वाया और फिर पार्टी छोडने पर मजबूर कर दिया। इससे पहले दो-दो बार पार्टी को प्रदेश में तोड़ चुके थे।  कामरेड मित्रसेन यादव जी और कौशल किशोर जी (वर्तमान भाजापा सांसद )  को पार्टी से कैसे निकलवाया इससे भी सभी  पूरी तरह से वाकिफ हैं । 

जी हाँ वह पंडित  जी हैं। वह पंडित दत्तक पुत्र  को उसी प्रकार सपोर्ट कर रहे हैं जिस प्रकार कामरेड काली शंकर शुक्ला जी ने रमेश कटारा को सपोर्ट किया था। उस घटनाक्रम से  भी सब  पूरी तरह वाकिफ ही हैं।  उनका यह भी कहना है कि, अगर बैंक से पार्टी अकाउंट से रु 28000/- निकलते हैं तो उसमें से रु 18000/- गिरीश जी की जीप के डीजल पर खर्च होते हैं और रु 10000/-हज़ार में पूरी पार्टी चलती है।  
 यदि यू पी में भाकपा को पुनर्जीवित करना है  और वामपंथ को वस्तुतः मजबूत करना है तो इन डिफ़ेक्टो साहब को मय उनके दत्तक पुत्र के यू पी से हटाना होगा।
(विजय राजबली माथुर )


Friday, 7 April 2017

कूपमंडूकता है कम्युनिस्टों की विफलता का कारण ------ विजय राजबली माथुर

*लेकिन 27 सितंबर 1925 को गठित आर एस एस क्यों सफल होता रहा और क्यों 25 / 26 दिसंबर 1925 को गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी टूटते टूटते विफल रही।
*1980 में पहली बार RSS के गुप्त  समर्थन से इन्दिरा जी ने  आसान सत्ता वापसी तो कर ली थी किन्तु श्रमिकों / कर्मचारियों के लिए तभी से मुसीबतें शुरू हो गईं थीं। तभी से श्रम न्यायालयों में श्रमिकों के विरुद्ध निर्णय आने शुरू हो गए थे। आर एस एस ने इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन देने की कीमत अपने व्यापारी / उद्योपति वर्ग के लिए इस प्रकार वसूली थी। 1984 में आर एस एस के समर्थन से राजीव गांधी को प्रचंड बहुमत तो मिल गया था किन्तु उसकी कीमत के भुगतान में बाबारी मस्जिद / राम जन्मभूमि में 1949 से लगा ताला खुलवाना पड़ा था।
*Trade Union नेता सिर्फ आर्थिक अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं और वे कर्मचारियों को न तो सामाजिक सरोकारों के प्रति जाग्रत करते हैं न ही राजनीतिक कर्तव्यों के प्रति। परिणाम सामने है तानाशाही की दिशा में बढ़ती फासिस्ट सरकार।

1980 में पहली बार RSS के गुप्त  समर्थन से इन्दिरा जी ने  आसान सत्ता वापसी तो कर ली थी किन्तु श्रमिकों / कर्मचारियों के लिए तभी से मुसीबतें शुरू हो गईं थीं। तभी से श्रम न्यायालयों में श्रमिकों के विरुद्ध निर्णय आने शुरू हो गए थे। आर एस एस ने इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन देने की कीमत अपने व्यापारी / उद्योपति वर्ग के लिए इस प्रकार वसूली थी। 1984 में आर एस एस के समर्थन से राजीव गांधी को प्रचंड बहुमत तो मिल गया था किन्तु उसकी कीमत के भुगतान में बाबारी मस्जिद / राम जन्मभूमि में 1949 से लगा ताला खुलवाना पड़ा था। परिणाम स्वरूप 1991 में यू पी में पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार का गठन व 1992 में  बाबरी विध्वंस हुआ था। गोधरा कांड, मुंबई बम ब्लास्ट कांड बाबरी विध्वंस के ही साईड इफ़ेक्ट्स थे।कांग्रेस पर किए गए ट्रायल की सफलता के बाद 2014 में आर एस एस पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार  बनवाने सफल हुआ था और 2017 में यू पी में पूर्ण बहुमत की योगी सरकार बनवाने में सफल हुआ है। तब से अब तक यू पी भाकपा में दो-दो बार विभाजन हो चुका है। ट्रेड यूनियन मूवमेंट रसातल को जा चुका है। 

NDTV की इस सूचना के अनुसार TRAI ने रिलायंस जियो को आदेश दिया है कि, 15 दिन की बढ़ी अवधी को तुरंत वापिस लिया जाये। मूडीज़ ने इन ग्राहकों को रिलायंस की वित्तीय स्थिति के लिए लाभप्रद बताया है लेकिन इसका राजनीतिक लाभ मोदी सरकार को मिल रहा है। इसके पीछे कंपनी के कर्मचारियों का उत्पीड़न और शोषण भी छिपा हुआ है।कर्मचारियों से अनवरत 15- 16 घंटे कार्य लिया जा रहा है ।  क्योंकि कंपनी के कर्मचारी यूनियन बना नहीं सकते ( पहल की भनक लगते ही उनकी नौकरी खत्म कर दी जाएगी ), ट्रेड यूनियन लीडर्स तब तक नहीं बोलेंगे जब तक कर्मचारी उनकी ट्रेड यूनियन का सदस्य नहीं बनेगा। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। कर्मचारी यूनियन बना नहीं सकते ट्रेड यूनियन्स उनका मामला उठा नहीं सकते। इनके कर्मचारियों को भाजपा कार्यकर्ता के रूप मे भी इस्तेमाल किया जा रहा है। व्हाट्स एप ग्रुप मेसेज्स के जरिये उनको 'दैनिक जागरण ' पढ़ने को उसी प्रकार कहा जा रहा है जिस प्रकार यू पी के चुनावों मे भाजपा को वोट देने और दिलवाने को कहा गया था। किसी विपक्षी दल को यह सब सोचने - देखने की फुर्सत कहाँ ? सभी बहती गंगा में हाथ धोने को लालायित दिख रहे हैं।
*पहले बैंक ब्याज दरों को घटा कर बैंक जमा को हतोत्साहित किया गया और अब जमा धन की न्यूनतम राशि को बढ़ा कर रु 5000/- किया जा रहा है जिसे न बनाए रख पाने की स्थिति में शुल्क थोपे जा रहे हैं। अपनी ज़रूरत के लिए भी धन निकासी पर शुल्क लगाए जा रहे हैं। स्टेट बैंक के बाद यही व्यवस्था सभी बैंकों में लागू होगी। मतलब यह है कि, जनता बैंकों से धन निकाल कर प्राईवेट कंपनियों में जमा करे और कर्ज लेने के लिए महाजनों के जाल में फिर से फंसे। जब बैंक घाटे में चले जाएँ तब उनका निजीकरण कर दिया जाएगा।
*कर्मचारी यूनियनें सिर्फ अपने वेतन आदि में बढ़ोतरी के लिए तो आगे आती हैं लेकिन जब अपने रोजगार पर भी चोट पड़ने वाली है तब भी तब तक आगे न आएंगी जब तक जबरिया छंटनी न शुरू हो जाएगी।
*1936 में AITUC की स्थापना हुई थी तब इसने देश की आज़ादी के आंदोलन में भी भाग लिया था। जहां जहां कांग्रेस सरकारें थीं AITUC सफल और मजबूत हुई उसी के साथ - साथ CPI भी।
* 13 वर्ष बाद 1949 में सरदार पटेल ने इसे तोड़ कर INTUC की स्थापना कर ली जो सरकार समर्थक संगठन हो गया।
* आर एस एस के दततोंपंत  ठेंगड़ी ने BMS की स्थापना कर ली जो निजी कारखानों में मालिकों का समर्थक संगठन बन गया। लेकिन यही सरकारी विभागों व उद्यमों में शुद्ध Trade Unionist संगठन के रूप में सामने आया।
*1964 में CPM के गठन के बाद AITUC फिर टूटा और CITU का गठन हुआ।
अब जितने राजनीतिक दल हैं उतने ही trade unions तो हैं ही लेकिन जातियों पर आधारित trade unions भी बन गए हैं जो एक- दूसरे के विरुद्ध चलते हैं।
*Trade Union नेता सिर्फ आर्थिक अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं और वे कर्मचारियों को न तो सामाजिक सरोकारों के प्रति जाग्रत करते हैं न ही राजनीतिक कर्तव्यों के प्रति। परिणाम सामने है तानाशाही की दिशा में बढ़ती फासिस्ट सरकार।

*कर्मचारियों को दोषी ठहराने वाले trade union नेता अपने व अपने संगठनों के नेताओं की फूट और गैर ज़िम्मेदारी के बारे में क्या अनर्गल कहेंगे?



प्रस्तुत फोटो कापी में व्यक्त विचार अक्सर कामरेड्स द्वारा भी दोहराए जाते हैं। 



'कम्यूनिज़्म '  या '  साम्यवाद ' वह व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक से उसकी क्षमतानुसार कार्य लिया जाता है और प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार उसका हक दिया जाता है, जिसमें मानव द्वारा मानव का शोषण नहीं किया जाता है और मानव मात्र के जीवन को सुंदर, सुखद व समृद्ध बनाने के कार्य सम्पन्न किए जाते हैं।
इस व्यवस्था को 'समाजवाद' द्वारा लागू किया जाता है। 'समाजवाद ' वह आर्थिक प्रणाली है जिसमें 'उत्पादन ' व 'वितरण ' के साधनों पर 'समाज ' का अधिकार सरकार के माध्यम से होता है।





लेकिन 27 सितंबर 1925 को गठित आर एस एस क्यों सफल होता रहा और क्यों 25 / 26 दिसंबर 1925 को गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी टूटते टूटते विफल रही। कुछ - कुछ ऊपर दिये चित्रों से समझा जा सकता है। बी एस एफ के कमांडर( जो आतंकी हमले में अपनी आँखें गंवा बैठे थे ) के घर जाकर भाजपाई गृह मंत्री राजनाथ सिंह भोजन करके न केवल एक परिवार का  बल्कि समस्त सैन्य बलों का मनोवैज्ञानिक समर्थन हासिल कर लेते हैं जिसका लाभ निश्चित रूप से उनकी भाजपा को ही मिलेगा। मुख्यमंत्री की दाढ़ी बनाने से केश कलाकार की किस्मत ही बदल जाती है और उसका वर्ग भाजपा के समर्थन में खड़ा हो जाता है। 
1977 में दूर संचार मंत्री एल के आडवाणी ने अपने विभाग व विदेशमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने विभाग में संघ समर्थक कर्मचारियों की भरमार कर दी थी। उसका लाभ आज तक उनकी पार्टियों को मिलता आ रहा है। 
जबकि, 1967 में यू पी के गृह राज्यमंत्री रुस्तम सैटिन साहब और खाद्यमंत्री झारखण्डे राय साहब यदि चाहते तो भाकपा समर्थकों को प्रशासन में स्थान दे सकते थे। इसी प्रकार 1996  में इंद्रजीत गुप्ता साहब गृह मंत्रालय में और चतुरानन मिश्रा साहब कृषि मंत्रालय में भाकपा समर्थकों को समायोजित कर सकते थे, दोनों ही केबीनेट मंत्री थे। किन्तु ऐसा न हुआ और न ही हुआ भाकपा को कोई प्रशासनिक लाभ। 
इस संदर्भ में आगरा के एक पूर्व जिलामंत्री कामरेड रमेश मिश्रा साहब के निजी एहसास का उल्लेख करना प्रासांगिक रहेगा। यू पी के विभाजन के बाद आगरा के एक दंपत्ति के एकमात्र चिकित्सक पुत्र उत्तरांचल में रह गए और उनको वहीं का कैडर दे दिया गया। वृद्ध दंपत्ति ने दो दो केंद्रीय भाकपा मंत्रियों के रहते हुये आगरा के जिलामंत्री रमेश मिश्रा से संपर्क किया। मिश्रा जी उनको लेकर कामरेड इंद्रजीत गुप्ता व चतुरानन मिश्रा से मिले लेकिन दोनों ने मदद देने से इंकार कर दिया। निराश मिश्रा जी को लौटते में अजय सिंह ( पूर्व सांसद आगरा जो वी पी सिंह मंत्रीमंडल में रेल उपमंत्री रहे थे ) मिल गए और उदासी का कारण पूछा उनके बताने पर हँसते हुये बोले यह भी कोई बड़ी बात है आपका काम हो गया , समझिए। अजय सिंह उन डाक्टर के पिता श्री व मिश्रा जी को लेकर स्वास्थ्य मंत्रालय में सचिव के पास गए जिनहोने  सिंह साहब को देखते ही खड़े होकर स्वागत किया और सुन कर उन डाक्टर का ट्रांसफर  उत्तरांचल से यू पी करने का आदेश करा दिया। जिस कार्य को करने से भाकपा के दो दो केबिनेट मंत्रियों ने इंकार कर दिया था उसी को पूर्व रेल उपमंत्री ने तत्क्षण करा दिया। जनता के बीच साख किसकी बनेगी ? भाकपा की , इसके नेताओं की ? कैसे?
भाकपा में तो यू पी में एक डिफ़ेक्टो प्रशासक भी हैं जिनको दो दो बार पार्टी को दोफाड़ करने का ठोस अनुभव भी है जो obc व sc कार्यकर्ताओं से सिर्फ काम लेने के हामी हैं और उनको पदाधिकारी बनाने के सख्त खिलाफ हैं। उनके चापलूस पार्टी कार्यकर्ताओं को अपमानित करते रहते हैं। क्या ऐसे ही कम्युनिस्ट आर एस एस को परास्त कर लेंगे ? फिर कौन सफल हो सकता था आर एस एस या कम्युनिस्ट ? 
यदि अभी भी कम्युनिस्ट ' नास्तिकवाद ' / एथीज़्म की ज़िद्द पर अड़े रहे और जनता को 'धर्म ' का वास्तविक 'मर्म ' समझाने को तत्पर न हुये तब फासिस्ट सांप्रदायिक तानाशाही को रोका ही नहीं जा सकता। आने वाले समय में वामपंथी युवा ही आर एस एस से आर - पार की लड़ाई लड़ेंगे परिणाम चाहे जो हो भीषण रक्तपात होगा और इसके जिम्मेदार पूरी तरह से एथीस्ट वामपंथी नेता होंगे क्योंकि यदि वे जन - विरोधी रुख न अख़्तियार करते तो जनता आर एस एस / भाजपा की तरफ जाती ही नहीं।