Thursday 30 August 2018

दक्षिण पंथी तानाशाही स्थापित करने का कुचक्र है अर्बन नक्सल का शिगूफ़ा ------ विजय राजबली माथुर










सिद्धार्थ शंकर रे जब बंगाल के मुख्यमंत्री बने तब उन्होने बर्बरतापूर्वक नक्सल आंदोलन के कार्यकर्ताओं को कुचल डाला था।छिट - पुट यह आंदोलन विभक्त होते हुये भी चलता ही रहा है क्योंकि, सैद्धान्तिक रूप से यह जायज मांगों पर आधारित है इसलिए पीड़ित जनता इनका साथ देती है। किन्तु सरकारें पूँजीपतियों और विशेषकर कारपोरेट घरानों के हितार्थ इनका दमन  अमानवीयता के साथ क्रूरतापूर्वक करती हैं। 
किन्तु इस बार जून 2018 से इनके नाम पर मानवाधिकार के लिए संघर्ष करने वाले बुद्धिजीवियों को शिकार बनाया जा रहा है। दक्षिण पंथी तानाशाही स्थापित करने के लिए विवेकशील बुद्धिजीवियों पर मोदी सरकार का यह हमला गृह युद्ध की दिशा में एक और बढ़ा हुआ कदम है।  
लगभग 39   वर्ष पूर्व सहारनपुर के 'नया जमाना'के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1951  - 52 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि, कम्युनिस्टों  और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई  दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।


आज संघ और उसके सहायक संगठनों ने सड़कों पर लड़ाई का बिगुल बजा दिया है, वामपंथी अभी तक कागजी तोपें दाग कर सांप्रदायिकता का मुक़ाबला कर रहे हैं;  प्रश्न यह है कि, व्यापक जन-समर्थन और प्रचार के बगैर क्या वे संघियों के सांप्रदायिक राक्षस का संहार कर सकेंगे? सर्वोच्च न्यायालय के सहारे लोकतन्त्र की रक्षा कब तक की जा सकती है ? ऐसे में सशस्त्र संघर्ष के हामी युवक ही संघ का मुक़ाबला करने को डटेंगे लेकिन बिना जन - समर्थन के 1857 की क्रांति की पुनरावृति होगी या वे कामयाब होंगे ? 
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31-08-2018 : 
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मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की रिहाई की मांग ------ डा॰ गिरीश



भाकपा ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की निन्दा और रिहाई की मांग की।


 लखनऊ- 29 अगस्त 2018, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव मण्डल ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुध्दिजीवियों सुधा भारद्वाज, वरनन गोन्साल्वस, गौतम नवलखा, वरवारा राव एवं अरुण फ़रेरा जो दलितों, आदिवासियों और समाज के अन्य कमजोर तबकों के लिये संघर्ष करते रहे हैं के घरों पर देश भर में की गयी छापेमारी और उनकी गिरफ्तारी की कड़े शब्दों में निन्दा की है।

सरकार ने उनके ऊपर शहरी नक्सलवादी होने का काल्पनिक आरोप लगाया है। यह कितना आश्चर्यजनक है कि एक ओर सरकार अपनी पीठ थपथपाने के लिये नक्सलवाद के खत्म होने के दाबे करती है वहीं दूसरी तरफ प्रतिरोध की आवाज को दबाने को हर घ्रणित हथकंडा अपना रही है।

भीमा कोरेगांव में दलितों के खिलाफ हिंसक वारदातों के बाद भाजपा की केन्द्र और महाराष्ट्र सरकार इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के ऊपर फर्जी आरोप लगाने और उनको माओवादियों से जोड़ने के लिये विभिन्न जांच एजेंसियों का स्तेमाल करती रही हैं।

भाकपा की यह द्रढ़ राय है कि यह सब कार्यवाही सनातन संस्था द्वारा ईद और गणेश चतुर्थी पर सीरियल ब्लास्ट करने की योजना और गौरी लंकेश, दाभोलकर, गोविंद पनसारे और दूसरे पोंगापंथ विरोधियों की हत्या में इनकी संलिप्तता से ध्यान हटाने के उद्देश्य से कीगयी है।

यह दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों तथा समाज के अन्य कमजोर तबकों के ऊपर होने वाले अन्याय और अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को धमका कर उनकी आवाज बन्द करने की साजिश है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर गंभीर टिप्पणी की है कि असहमति की आवाज लोकतन्त्र के लिये सेफ्टी बाल्व है।

इन कारगुजारियों से एक बार फिर वर्तमान सरकार का फासीवादी चेहरा सामने आगया है। यह घटनाक्रम एक बार फिर भारतीयों के संवैधानिक अधिकारों और लोकतन्त्र की रक्षा के लिये सभी धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक एवं वामपंथी ताकतों की एकता और कार्यवाही की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

भाकपा सभी गिरफ्तार शख़्सियतों की तत्काल रिहाई और उन पर लगाये गए सभी झूठे और मनगढ़ंत आरोपों की वापसी की मांग करती है।

डा॰ गिरीश, राज्य सचिव

भाकपा, उत्तर प्रदेश
सभी फोटो साभार का ॰ अरविंद राज स्वरूप 



Monday 27 August 2018

अस्थियों पर वोट की राजनीति कर रहे हैं संघ और भाजपा ------ डा॰ गिरीश / लोकतन्त्र खतरे में वाम दलों को सभी गैर सांप्रदायिक ताकतों के साथ होना चाहिए ------ डॉ अमर्त्य सेन




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प्रक्रति के प्रकोप के चलते कई वर्षों से गुमनामी के अंधेरे में खोये रहे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी अंततः इस दुनियां को अलविदा कह गये। उनकी मौत पर हर कोई दुखी था और दलीय तथा विचारधाराओं की सीमायें लांघ कर लगभग सभी दलों ने उन्हें सादर श्रद्धांजलि अर्पित की। उन कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी जो वैचारिक रूप से संघ और भाजपा की सांप्रदायिक, विभाजनकारी, फासीवादी और जनविरोधी नीतियों की मुखर आलोचक रही हैं।
इसका कारण यह था कि हम एक बहुदलीय लोकतन्त्र में जीरहे हैं जिसमें राजनैतिक विरोध स्वाभाविक है, व्यक्तिग्त विरोध का कोई स्थान नहीं। हालांकि राजनैतिक दलों की संकीर्णता और निहित स्वार्थों के चलते समय समय पर व्यक्तिगत विरोध भी छलकता रहता है। दूसरे हमारी ऐतिहासिक परंपरा है कि म्रत्यु के बाद मतभेद अथवा वैमनस्य खत्म होजाता है।
लेकिन भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार ने श्री अटल बिहारी बाजपेयी जो कि कई वर्षों से संघ परिवार में पूरी तरह उपेक्षित थे और यदि वे स्वस्थ होते तो श्री आडवाणी जी की तरह ही घनघोर उपेक्षा के शिकार होते, की मौत को 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले वोट बटोरने के एक नायाब मौके के रूप में देखा और पूरा संघ परिवार उनकी मौत को भुनाने में जुट गया। अन्त्येष्टि से लेकर अस्थि कलश विसर्जन तक सबकुछ सुनियोजित तरीके से किया गया और आगे भी हमें ऐसे कई हथकंडे देखने को मिलेंगे।

2014 के लोकसभा चुनावों में वोट बटोरने के लिये उछाले गये जुमले जब बुरी तरह बेनकाब होकर निष्प्रभावी होगये तो 2019 के चुनाव की पूर्व वेला में श्री अटल बिहारी के दिवंगत होने की प्राक्रतिक घटना को संघ ने भुनाने की ठान ली। दिवंगत अटल बिहारी भाजपा के लिये अब ‘वोट बिहारी’ बन कर रह गये हैं। उनकी अस्थियाँ आज ‘वोटस्थियाँ’ और अस्थि कलश आज ‘वोट कलश’ बन कर रह गये हैं। यही वजह है कि श्री अटल के असली परिवारीजन और विपक्षी पार्टियां भाजपा पर आज हड्डियों पर राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं।

अब अस्थियों पर राजनीति करने की भाजपा और संघ की कोशिश कितनी सफल होगी यह तो भविष्य ही तय करेगा। पर ये वो आसुरी शक्तियां हैं जो अस्थियों पर राजनीति करने के लिये सुविख्यात हैं। राजनैतिक स्वार्थों के लिये ये अपनों की मौत को कई दिनों तक छिपाये रह सकते हैं। मौत की अधिक्रत घोषणा से पहले श्रध्दांजलि अर्पित कर सकते हैं। वोटों की खातिर सूखी आंखों को पोंछ कर गम का क्रत्रिम इजहार कर सकते हैं।

1989 में अयोध्या में कथित कार सेवकों जिन्होने इनके उकसाबे पर संविधान, राष्ट्रीय एकता परिषद और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की धज्जियां उड़ायीं थीं, की कथित हड्डियों को गांव गांव गली गली घुमाकर इन्होने समाज विशेष की कोमल भावनाओं को सांप्रदायिक ज्वार में बदला और फिर उनके नाम पर वोट बटोर कर उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में सत्तायें हथियायीं। उसी सरकार की छतरी तले वे सारे कायदे कानूनों और आदेशों निर्देशों को ठेंगा दिखा कर बाबरी ढांचे को ध्वस्त कर चुके हैं। इससे उपजे सांप्रदायिक विभाजन पर ये आज तक वोटों की फसलें उगा रहे हैं।

अपने सुपरिचित हथकंडों को अपनाते हुये आज वे पुनः श्री अटल बिहारी बाजपेयी की अस्थियों पर वोट की फसल उगाने की कोशिश में जुटे हैं। हिन्दू धर्म और परंपराओं के रक्षक होने का दाबा करने वाले ये लालची धर्म और परंपराओं को भी भूल गये। शास्त्रों के अनुसार अस्थियों का विसर्जन किसी मान्य तीर्थस्थल पर निकटस्थ परिजनों द्वारा एकल रूप से किया जाना चाहिये ताकि दिवंगत आत्मा को चिरस्थायी शान्ति प्राप्त होसके। लेकिन इन्होने उन्हे 4000 भागों में बांट दिया। अब मुश्किल से 70- 75 ग्राम आस्थियाँ चार हजार कलशों में क्यों और कैसे विभाजित की गईं यह तो भाजपा ही बता सकती है।

अटलजी उस संघ के कार्यकर्ता थे जिसके पास तिल को ताड़ बनाने की ताकत है। वह संघ जो अपने झूठे प्रचार और मैसमेरिज्म के जरिये करोड़ों लोगों को भ्रमित कर गणेश प्रतिमाओं को दूध पिलाने को मंदिरों के बाहर कतारों में खड़ा कर सकता है। उसी संघ की छतरी तले अटल जी का अधिकांश जीवन विपक्ष में ही बीता। उनकी वाकपटुता को संघ ने खूब भुनाया। वे कई बार चुनाव हारे तो संघ ने उसे एक योग्य नेता का अपमान प्रचारित किया। पहली बार वे जोड़तोड़ से प्रधानमंत्री बने और विश्वास हासिल नहीं कर पाये। संघ ने प्रचारित किया कि यह एक योग्य व्यक्ति को सत्ता से दूर रखने की साजिश है। अंततः वे फिर जोड़तोड़ से प्रधानमंत्री बने। संघ ने जनता को फर्जी ‘फील गुड’ का अहसास कराया और ‘इंडिया इज शाइनिंग’ का जुमला उछाला। लेकिन 2004 में जनता ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। उसके बाद वे गुमनामी में किसी और ने नहीं उसी संघ और भाजपा ने धकेल दिये जिनके कि वे सदैव संकटमोचक बने।

‘जिन्दा हाथी लाख का मरा डेढ़ लाख का’ की तर्ज पर भाजपा आज उनकी सीमित लोकप्रियता को बढ़ा चड़ा कर पेश कर रही है। वह आज उन्हें आजादी के बाद का सबसे महान नेता जताने का प्रयास कर रही है। संघ उस ऐतिहासिक तथ्य को भी ढांपना चाहता है कि वह आजादी के आंदोलन से बाहर था और उसके द्वारा क्रत्रिम तौर पर गड़े और खड़े किये गये क्रत्रिम नायक या तो अंग्रेजों से माफी मांग रहे थे या फिर आजादी के लिये जूझने वालों के खिलाफ गवाहियाँ डेराहे थे। वीर सावरकर और अटल बिहारी संघ द्वारा गड़े गये नायकों में सबसे आगे की कतार में खड़े हैं।

उनके पास आज आज सत्ता है, सत्ता के कारण भीड़ है, पर्याप्त संख्या में संघ का काडर है, दौलत है और सबसे ऊपर हवाबाज़ मीडिया है। इस सबके बल पर वे अटलजी का क्रत्रिम महिमा क्षेत्र तैयार कर रहे हैं। भूख, गरीबी, दमन, अत्याचार से दमित जनता का ध्यान बंटाने की कोशिश कर रहे हैं। हर चुनाव क्षेत्र तक लाव लश्कर के साथ पहुँचने के लिये गंदी संदी नालेनुमा नदियों तक में अस्थि विसर्जन का ढोंग रचा जारहा है। आयोजनों पर अनाप शनाप जनता की गाड़े पसीने की कमाई को बहाया जारहा है। आपदाग्रस्त केरल को मात्र रु॰ 600 करोड़ देकर हाथ झाड लिये गये मगर वोट कलश विसर्जन पर अथाह धन व्यय किया जारहा है। देश के कोने कोने में बाड़ आयी हुयी है। आम जनता पर अनेक मुसीबतों का पहाड़ टूटा पड़ा है, पर मान्य मंत्रीगण कंधों पर कलश लिये घूम रहे हैं। वोट बटोरने की इस म्रग मरीचिका में वे अपने निर्धारित दायित्वों से भाग रहे हैं।

अब यह तो वक्त ही बताएगा कि 2004 में खुद सिंहासन पर आरूढ़ प्रधानमंत्री श्री बाजपेयी तत्कालीन एनडीए को बहुमत नहीं दिला पाये तो क्या आज के एनडीए की डूबती नाव को पार लगा पायेंगे। पर संघ और भाजपा 2019 के लोकसभा चुनावों की पूर्ववेला में हुयी श्री अटल की मौत को राजनैतिक रूप से भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते।

डा॰ गिरीश

Saturday 18 August 2018

सभी राजनीतिक दलों की दिशा और दशा ब्राह्मणवाद तय करता है ------ innbharat


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संपादकीय
वाजपेयी को महान बताना ब्राह्मणवाद की गुलामी, ब्राह्मणवाद की पालकी ढ़ोना है
Written by innbharat on August 17, 2018

ब्राह्मणावाद किस तरह से हमारे समाज और जीवन के मानक तय करता है लोकप्रिय मुहावरे गढ़ता है, यह वाजपेयी की मौत ने दिखा दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन की देश के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक पद पर पहुंचने से ज्यादा कोई उपब्धि नही है बल्कि उनके कर्मो की सूची तैयार की जाये तो राष्ट्र विरोधी करतूतों की पूरी किताब बन सकती है। परंतु फिर भी वाजपेयी की शान में जो कसीदे पढ़े जा रहे हैं वह बता रहे हैं कि अभी भी हमारा समाज ब्राहृमणवाद की गुलामी करने और ब्राह्मणवादियों की पालकी ढ़ोने के काम से आगे बढ़ नही पाया है।

1942 के भारत छोड़ों आंदोलन से लिखित में गद्दारी करने वाला व्यक्ति आज हमारे सार्वजनिक जीवन में महामानव बन बैठा है। केवल 1942 ही नही उससके बाद भी वाजपेयी की करतूते कम नही रही हैं। 1949 में अटल बिहारी वाजपेयी ‘‘पांचजन्य‘‘ के संपादक थे। उस समय देश में बाबासाहेब के तैयार किये गये संविधान की चर्चा जोरों पर थी और वाजपेयी के संपादकत्व में पांचजन्य भारत के भावी संविधान को ‘‘भानुमति का पिटारा‘‘ और अंग्रेजी बैण्ड़ पर डांस‘‘ की संज्ञा दे रहा था। वाजपेयी के संपादकत्व में पांचजन्य साफ घोषणा कर रहा था कि हमारा दण्ड़ विधान मनुस्मृति है। बाबासाहेब को अंग्रेजी पहनावे वाला ऐस व्यक्ति बताया जा रहा था जो भारतीय संस्कृति और परंपराओं से नावाकिफ था। यही वाजपेयी थे जिनके सपंादकत्व में हिंदू महिलाओं को समानता के आधिकार देने वाले हिंदू कोड़ बिल के विरोध की कमान पांचजन्य संभाले हुए था। जिन्होंने हिंदू कोड बिल के खिलाफ संपादकीय लिखे और हिंदू कोड़ बिल को भारतीय परिवार संस्था को तोड़ने वाला बताया।

भारत के माथे पर लगे 2002 के कलंक पर खामोश रहने वाला और बाबरी मस्जिद ध्वंस से एक दिन पहले अपने भाषण में नुकीले पत्थर हटाकर यज्ञ करने का आह्वान करने वाला व्यक्ति सबके लिए सम्मानित हो गया है। और दोगलापन ऐसा कि जिस आदमी ने नुकीले पत्थर हटाने का आह्वान करके कारसेवकों को उकसाया उसी आदमी ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को संसंद में इतिहास का काला दिन बताया और उसके कुछ सालों बाद मौका देखकर संसद में फिर बाबरी मस्जिद विध्वंस को बहुसंख्यक भावनाओ ंका प्रकटीकरण कह डाला। जिस आदमी की जबान मौका देखकर पलटती थी वह आज महान हो गया। जिस मोदी को आज देश के लिए भस्मासुर कहा जा रहा है ध्यान रहे कि मोदी को दिल्ली से गुजरात मुुख्यमंत्री बनाकर भेजने वाला और कोई नही यही महान वाजपेयी ही थे। वाजपेयी की पलटी का सबसे गजब नमूना मैने पांचजन्य के 1947 के नवंबर दिसंबर के किसी अंक में देखा जिसमें वाजपेयी के साप्ताहिक ने एक कार्टून छापा जिसे नागपंचमी विशेषांक का नाम दिया गया। जिसमें दिखाया था कि नेहरू नाग को दुध पिला रहे हैं और गांधी उनके कंधे पर हाथ रखकर नाग को दुध पिलवाकर नाग को पाल रहे हैं और नाग को उस कार्टून में पाकिस्तान दिखाया गया था। उसके बाद 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या के बाद जब संघ पर प्रतिबध लग गया और आर्गेनाइजर पर भी रोक लग गयी तो रोक से बचने के लिए वाजपेयी ने महात्मा गांधी को प्रातः स्मरणीय और प्रातः वंदनीय ना जाने क्या क्या कहकर गांधी की तारीफ में कसीदे पढ़ने शुरू किये। जो गांधी की चापलूसी में पलटने के ऐसे करतब आजाद भारत के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा नेता दिखा सके। फिर भी ब्राह्मणवाद का वह नायक महान है।
वाजपेयी के कामों में से आधे भी यदि किसी दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक नेता ने किये होते तो शर्तिया ब्राह्मणवाद उसे देश के खलनायक की तरह से पेश करता। परंतु वाजपेयी एक ब्राह्मण और अफवाहों की प्रयोगशाला और झूठ के कारखाने ब्राह्मणवादी आरएसएस के नायक थे तो उन्हें देश का महानायक तो होना ही था।

विभिन्न दलों के नेताओं के द्वारा वाजपेयी की तारीफों ने एक तथ्य को सामने ला दिया है कि सभी राजनीतिक दलों की दिशा और दशा ब्राह्मणवाद तय करता है, उनका एजेंडा और उनकी भाषा और उनके मुहावरे ब्राह्मणवाद तय करता है, पूरे देश, पूरे समाज का विमर्श ब्राह्मणवाद तय करता है। कुकृत्यों की लंबी सूची रखने वाले व्यक्ति को, देश के संविधान का विरोध करने वाले, आजदी की लड़ाई से गद्दारी करने वाले व्यक्ति को महामानव और देश का प्रणेता बताये जाने का अर्थ है कि हम आज भी ब्राह्मणवाद की पालकी ढ़ो रहे हैं, ब्राह्मणवाद की गुलामी कर रहे हैं।
साभार : 


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Wednesday 15 August 2018

मजदूर हितैषी मार्क्स का विरोध कर इस पराजय की पटकथा आपने ही लिखी है ------ हेमंत कुमार झा




Hemant Kumar Jha
12 -08-2018 


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Saturday 11 August 2018

स्वाधीनता आंदोलन में छात्रों का योगदान एवं वर्तमान ------ विजय राजबली माथुर

 09 अगस्त 1925 : 
1922 ई .मे गांधी जी द्वारा चौरी-चौरा कांड के नाम पर असहयोग आंदोलन वापिस लेने पर युवा / छात्र क्रान्ति की ओर मुड़े । क्रांतिकारी आंदोलन को चलाने और बम आदि बनाने हेतु काफी धन की आवश्यकता थी। अतः राम प्रसाद ' बिस्मिल '/ चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व मे क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाना कब्जे मे लेने की योजना बनाई। 09 अगस्त 1925 की रात्रि लखनऊ के ' काकोरी 'रेलवे स्टेशन पर पेसेंजर गाड़ी के गार्ड से खजाने को हस्तगत किया गया। अब  इस घटना को हुये 93  वर्ष पूर्ण हो चुके  हैं।


इस क्रांतिकारी घटना मे भाग लेने वाले स्वातंत्र्य योद्धाओं मे राम प्रसाद ' बिस्मिल ', अशफाक़ उल्ला खान, रोशन सिंह तथा राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी को 17 एवं 19 दिसंबर 1927 को ब्रिटिश सरकार ने फांसी दे दी। बिस्मिल उस समय शाहजहाँपुर के मिशन स्कूल मे नौवी कक्षा के छात्र थे। वह पढ़ाई कम और आंदोलनों मे अधिक भाग लेते थे। गोरा ईसाई हेड मास्टर भी उनका बचाव करता था। एक बार जब वह कक्षा मे थे तो ब्रिटिश पुलिस उन्हें पकड़ने पहुँच गई। उस हेड मास्टर ने पुलिस को उलझा कर कक्षा अध्यापक से राम प्रसाद ' बिस्मिल ' को रेजिस्टर  मे गैर-हाजिर करवाया और भागने का संदेश दिया। बिस्मिल दूसरी मंजिल से खिड़की के सहारे कूद कर भाग गए और पुलिस चेकिंग करके बैरंग लौट गई। लेकिन खजाना कांड मे फांसी की सजा ने हमारा यह होनहार क्रांतिकारी छीन लिया। 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क मे पुलिस से घिरने पर चंद्रशेखर 'आजाद 'ने भी खुद को अपनी ही पिस्तौल की गोली से  शहीद कर लिया। 

11 अगस्त 1942 : 


(Shaheed Smarak-Patna)

होनहार युवा / छात्रों ने आजादी की मशाल को थामे रखा जब 08 अगस्त 1942 को गांधी जी के आह्वान पर 'अंग्रेजों भारत छोड़ो ' का प्रस्ताव पास किया गया था। लगभग सभी बड़े नेता ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए थे। इस दशा मे सम्पूर्ण आंदोलन युवाओं और छात्रों द्वारा संचालित किया गया था। 11 अगस्त 1942 को पटना सचिवालय से यूनियन जेक को उतार कर तिरंगा छात्रों ने फहरा दिया था किन्तु सभी सातों छात्र ब्रिटिश पुलिस की गोलियों से शहीद हो गए थे। उनकी स्मृति मे वहाँ उनकी प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं। इस अभियान का नेतृत्व राजेन्द्र सिंह जी ने किया था और सबसे आगे उन्हीं की मूर्ती है। इस अभियान के संबंध मे श्री अजय प्रकाश ने एक लेख  लिखा था जो 18 जनवरी 1987 को प्रकाशित -' पटना हाईस्कूल भूतपूर्व छात्र संघ ' की ' स्मारिका ' मे छ्पा था, आप भी उसकी स्कैन कापी देख सकते हैं-
(बड़े अक्षरों मे पढ़ने हेतु डबल क्लिक करें)






उसी स्मारिका मे छपा यह लेख आज भी छात्रों / युवाओं के महत्व को रेखांकित करता है-










'लोकसंघर्ष ' मे प्रकाशित महेश राठी साहब के एक महत्वपूर्ण लेख द्वारा बताया गया है कि,"आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन का बेहद गौरवमयी और प्रेरणापरद हिस्सा है। ए .आई .एस .एफ . भारतीय स्वाधीनता संग्राम का वह भाग है जिसके माध्यम से देश के छात्र समुदाय ने आजादी की लड़ाई मे अपने संघर्षों और योगदान की अविस्मरणीय कथा लिखी "। 


राठी साहब ने बताया है कि, भारतीय छात्र आंदोलन का संगठित रूप 1828 मे सबसे पहले कलकत्ता मे 'एकेडेमिक एसोसिएशन 'के नाम से दिखाई दिया जिसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र विवियन डेरोजियो द्वारा की गई । 1840 से 1860 के मध्य ' यंग बंगाल मूवमेंट 'के रूप मे दूसरा संगठित प्रयास हुआ। 1848 मे दादा भाई नौरोजी की पहल पर मुंबई मे ' स्टूडेंट्स लिटरेरी और सायींटिफ़िक सोसाइटी '
की स्थापना हुयी। कलकत्ता के आनंद मोहन बोस और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 मे ' स्टूडेंट्स एसोसिएशन 'की स्थापना हुयी जिसने 1885 मे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना मे महती भूमिका अदा की। 16 अक्तूबर 1905 मे बंगाल विभाजन के बाद छात्रों एवं युवाओं ने जबर्दस्त आंदोलन चलाया जिसमे आम जनता का भी सहयोग रहा।


1906 मे राजेन्द्र प्रसाद जी (जो पहले राष्ट्रपति बने थे) की पहल पर ' बिहारी स्टूडेंट्स सेंट्रल एसोसिएशन 'की स्थापना हुयी जिसने बनारस से कलकत्ता तक अपनी शाखाएँ खोली और 1908 मे बिहार मे इसी संगठन के बल पर कांग्रेस की स्थापना हुयी। श्रीमती एनी बेसेंट ने 1908 मे 'सेंट्रल हिन्दू कालेज 'नामक पत्रिका मे एक अखिल भारतीय छात्र संगठन बनाने का विचार प्रस्तुत किया।


25-12-1920 को नागपूर मे आल इंडिया कालेज स्टूडेंट्स कान्फरेंस का आरंभ हुआ जिसकी स्वागत समिति के अध्यक्ष आर .जे .गोखले थे। इसका उदघाटन लाला लाजपत राय ने किया था। 1920 से 1935 तक देश मे बड़े स्तर पर विद्यालयों  और महा विद्यालयों की स्थापना हुयी। आजादी के संघर्ष मे छात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई दे रही थी।


26 मार्च 1931 को कराची मे जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता मे एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमे देश भर से 700 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। 23 जनवरी 1936 को यू .पी .विश्वविद्यालय छात्र फेडरेशन ने अपनी कार्यकारिणी मे अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन बुलाने का निर्णय लिया। पी .एन .भार्गव की अध्यक्षता मे एक स्वागत समिति का गठन किया गया जिसने देश के सभी छात्र संगठनों तथा कांग्रेस,सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी सहित सभी राजनीतिक धड़ों से संपर्क बनाया।


12-13 अगस्त 1936 को लखनऊ मे - सर गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल मे A I S F का स्थापना सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमे 936 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमे से 200 स्थानीय और शेष 11 प्रांतीय संगठनों के प्रतिनिधि थे। सम्मेलन मे महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सर तेज बहादुर सप्रू और श्री निवास शास्त्री सरीखे गणमान्य व्यक्तियों के बधाई संदेश भी प्राप्त हुये। सम्मेलन का उदघाटन जवाहर लाल नेहरू ने किया।


A I S F के स्थापना सम्मेलन मे पी .एन .भार्गव पहले महा सचिव निर्वाचित हुये । ' स्टूडेंट्स ट्रिब्यून ' इसका पहला आधिकारिक मुख पत्र था। 22-11-1936 को लाहौर मे दूसरा सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता शरत चंद बोस ने की और उसमे 150 लोगों ने भाग लिया। इसमे छात्रों का एक मांग पत्र भी तैयार हुआ।
वर्तमान छात्र आंदोलन : 
स्वाधीनता के बाद भी छात्रों ने विभिन्न आंदोलनों में सफल सक्रिय योगदान दिया है। एक प्रकार से जनतंत्र की मशाल को छात्रों द्वारा ही प्रज्वलित रखा गया है। इसीलिए कुछ शासकों ने छात्रों को नियंत्रित करने के लिए उनकी यूनियनों पर प्रतिबंध भी लगाया है। 1970 में जब चौधरी चरण सिंह ने उत्तर प्रदेश में छात्र संघों की सदस्यता को ऐच्छिक कर दिया था तब मेरठ कालेज, मेरठ के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष ( वर्तमान में बिहार के राज्यपाल ) सत्यपाल मलिक साहब ने उसका प्रबल विरोध किया था और सरकार को प्रस्ताव वापिस लेना पड़ा था। 
किन्तु 2014 के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ फासिस्ट प्रवृति की सरकार निरंतर छात्रों को कुचलने हेतु इसके नेताओं का उत्पीड़न कर रही है। जे एन यू छात्रसंघ अध्यक्ष की गिरफ्तारी, हैदराबाद, इलाहाबाद,बनारस,जाधवपुर,अलीगढ़,लखनऊ विश्वविद्यालयों के छात्रों का उत्पीड़न जनतंत्र को कुचलने के उद्देश्य से ही किया जा रहा है। 
लखनऊ विश्वविद्यालय की उत्पीड़ित छात्र नेता पूजा शुक्ला का यह साक्षात्कार आज भी छात्र शक्ति के महत्व तथा आशा की किरण को इंगित कर रहा है  :