Monday 31 December 2018

भुवन शोम के लेखक निर्देशक मृणाल सेन



http://epaper.navbharattimes.com/details/7125-25752821-1.html







भुवन   शोम फिल्म के माध्यम से निर्देशक ने हास्य नाटकीयता के द्वारा यह सिद्ध किया है कि, एक सिद्धांतनिष्ठ कडक प्रशासनिक अधिकारी को भी नारी सुलभ ममता द्वारा व्यावहारिक धरातल पर नर्म मानवीय व्यवहार बरतने हेतु परिवर्तित किया जा सकता है। रेलवे के प्रशासनिक अधिकारी भुवन शोम के रूप में उत्पल दत्त जी व ग्रामीण नारी गौरी के रूप में सुहासिनी मुले जी ने मार्मिक अभिनय किया है। प्रारम्भिक अभिनेत्री होते हुये भी परिपक्व अभिनेता उत्पल दत्त जी के साथ सुहासिनी मुले जी का अभिनय सराहनीय है।  यह गौरी का ही चरित्र था जिसने उसके पति जाधव पटेल का निलंबन रद्द करने को भुवन शोम जी को प्रेरित कर दिया। 
( साभार : 
Er S D Ojha .
March 29 at 8:54pm 
https://www.facebook.com/sd.ojha.3/posts/1808246549501223 )


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विद्युत खपत को सीधे डेढ़ गुना करके बतायंगे प्रीपेड स्मार्ट मीटर ------ गिरीश मालवीय

Girish Malviya
31-12-2018 

आप आज इस घोटाले के बारे मे जानकर 2G घोटाले को भूल जाएंगे कॉमनवेल्थ घोटाला, कोलब्लॉक घोटाला भी इसके सामने बहुत छोटा है, यहां तक कि रॉफेल घोटाला भी आपके आपके जीवन को इतना प्रभावित नही करेगा जितना यह घोटाला आपको प्रभावित करने जा रहा है लेख लम्बा है लेकिन पूरा जरूर पढियेगा

यह घोटाला है स्मार्ट मीटर घोटाला.........

आप सभी ने वर्षों पहले अपने घरों में लगे बिजली के पुराने मीटर देखे होंगे जिसमें एक लोहे की प्लेट लगी रहती थी वह प्लेट घूमती ओर उसी की रीडिंग के अनुसार आपका बिजली बिल निर्धारित किया जाता था जमाना बदला और उसके बाद उन मीटरों का स्थान डिजिटल/ इलेक्ट्रॉनिक मीटर ने लिया जिसे लगाए भी आपको ज्यादा समय नही हुआ होगा लेकिन अब इसे फिर एक बार बदला जा रहा है अब मोदी सरकार आने वाले तीन सालो में देशभर में बिजली के सभी मीटरों को स्मार्ट प्रीपेड में बदलने जा रही है देश भर में इसकी शुरुआत भी हो चुकी है

अब बिजली के बिल भरने की बात ही नही है क्योंकि अब यह व्यवस्था प्रीपेड कर दी गयी हैं यानी यदि आपकी जेब मे पैसा है तो पहले रिचार्ज करवाइये उसके बाद ही आपके घर मे 'बिजली देवी' का प्रवेश होगा इसे अच्छे शब्दों में बिजली मंत्रालय ने इस तरह बताया है 'स्मार्ट मीटर गरीबों के हित में है। उन्हें पूरे माह का बिल एक बार में चुकाने की जरूरत नहीं होगी। वे जरूरत के मुताबिक बिल चुका सकेंगे'

इस मीटर की सारी गतिविधियां एक मोबाइल एप के जरिए आपके फोन पर अपडेट होंती रहेगी सबसे बड़ी खासियत यह है कि अब आप यह नही बोल सकते कि मेरे घर मे 2 ही पँखे 4 ट्यूबलाइट ओर 1 फ्रिज ही है...... एप पर आपको ओर बिजली विभाग को सब दिख जाएगा कि कितने उपकरण आपके यहाँ काम कर रहे हैं इस व्यवस्था में लोड ज्यादा होने पर सेंट्रल कार्यालय से उसको कंट्रोल किया जा सकेगा । इसमें एक सीमा के बाद मीटर में लोड जा ही नहीं पाएगा

सभी स्मार्ट मीटर को बिजली निगम में बने कंट्रोल रूम से जोड़ा जाएगा. कर्मचारी स्काडा सॉफ्टवेयर के जरिए कंट्रोल रूम से ही मीटर रीडिंग नोट कर सकेंगे. इसके साथ ही अगर कोई मीटर के साथ छेड़छाड़ करता है तो उसका संकेत कंट्रोल रूम में मिलेगा. अगर कोई उपभोक्ता समय पर बिजली बिल नहीं भरता, तो कंट्रोल रूम से ही उसका मीटर कनेक्शन भी काटा जा सकेगा. इसके लिए उपभोक्ताओं के घर के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे

चलिए ये तो अच्छी बाते है, अब यह समझिए कि यह घोटाला कैसे है दरअसल यह दावा किया जा रहा है कि स्मार्ट मीटर को लगाने की एवज में उपभोक्ताओं से कोई पैसा नहीं लिया जा रहा है उपभोक्ता का पुराना मीटर हटाकर स्मार्ट मीटर फ्री में लगाया जा रहा है। साथ ही पांच साल तक मीटर में कोई गड़बड़ी होती है तो भी मीटर बिना किसी शुल्क के बदला जाएगा

वैसे सच तो यह है कि कोई चीज फ्री में नही लगाई जाती, फ्री में लगाने से पहले ही सारा केलकुलेशन बैठा लिया गया है कि पहले 6 महीने में ही आपका जो बिल बढ़ा हुआ आएगा उसी में यह राशि समायोजित कर दी जाएगी, ओर जिन घरों में यह मीटर लगाए गए हैं उन सभी घरों में जो बिल आए हैं उसमें सवा से डेढ़ गुनी अधिक खपत दिखाई दे रही है

खुले बाजार में फिलहाल सबसे सस्ता सिंगल फेज प्रीपेड बिजली मीटर अभी 8 हजार रुपये का मिल रहा है। हालांकि अच्छी गुणवत्ता वाला मीटर खरीदने के लिए लोगों को 25 हजार रुपये खर्च करने पड़ सकते हैं अब ये कम्पनी जो स्मार्ट मीटर लगा रही हैं उसमें किस तरह से आपसे पैसा वसूला जाएगा आप खुद ही सोच लीजिए

दूसरी ओर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आखिरकार यह मीटर सप्लाई कौन कर रहा है? कही न कही तो इनका उत्पादन किया जा रहा होगा? क्या विद्युत नियामक आयोग स्वतंत्र रूप से इन स्मार्ट मीटरों की जाँच करवा चुका है? क्योंकि सारा झोलझाल तो यही है देश भर में इन स्मार्ट मीटर की आपूर्ति एनर्जी एफिशियेंसी सर्विसेज लिमिटेड 
ईईएसएल कर रहा है दरअसल विद्युत मंत्रालय ने एनटीपीसी लिमिटेड, पीएफसी, आरईसी और पावरग्रिड के साथ मिलकर एक संयुक्त उद्यम बनाया है जिसे ईईएसएल कहा जाता है

अब यही असली घोटाला है जो आपको समझना जरूरी है दरअसल यह कंपनी भारत सरकार ने 2009 में बनाई थी लेकिन इस कंपनी ने 2014 तक कोई काम नहीं किया। यह कंपनी सिर्फ कागज तक ही सीमित रही। जून 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने अचानक इस कंपनी को देश के 100 शहरों में एलईडी बल्ब लगाने का काम दे दिया जिसे आप उजाला योजना के नाम से जानते हैं

इस कंपनी में कोई क्षमता ही नहीं थी कि उसे इतना बड़ा काम दिया जाए, क्योंकि कंपनी के पास कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर ही नहीं था। यह कंपनी न तो एलईडी का उत्पादन करती थी और न ही उसके पास एलईडी बल्ब लगवाने का कोई साधन था वह सिर्फ दूसरी छोटी कंपनियों को सब-कांट्रेक्ट देकर चीन से एलईडी बल्ब खरीदवा रही थी और लगवा रही थी

ओर किसी ने नही बीजेपी की सहयोगी शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ में कार्यकारी संपादक संजय राउत ने 2016 में ‘सच्चाई’ नामक शीर्षक के तहत एलईडी बल्ब में भारी घोटाले का पर्दाफाश किया था

उस वक्त कांग्रेस के प्रवक्ता शक्तिसिंह गोहिल ने आरोप लगाते हुए कहा था कि इस योजना में एलईडी की निविदा प्रक्रिया में अनियमितता, चीनी एलईडी बल्बों का आयात कर मेक इन इंडिया नीति और सतर्कता नियमों का उल्लंघन करने के अतिरिक्त 20 हजार करोड़ रू का घोटाला किया गया हैं. कांग्रेस ने इस पुरे मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में कराने की मांग की थी

जो बल्ब देश भर में तीन सालो के लिए लगवाए गए थे वह कुछ महीनों बाद ही खराब होना शुरू हो गए जब उपभोक्ता इन्हें बदलने के लिए पुहंचे तो इन्हें बेचने वाले नदारद थे सभी जगहों पर ऐसी घटनाएं घटी हैं बहुत विवाद भी हुए लेकिन इस कम्पनी पर कुछ भी कार्यवाही नही हुई इस EESL कंपनी को देश भर में स्ट्रीट लाइट को LED से बदलने का ठेका भी दिया गया जिसके सब कांट्रेक्ट उन्होंने ऐसे लोगो को दिए जो एक साल में ही शहर छोड़ कर भाग गए .......आप स्थानीय अखबारों में इनके किस्से पढ़ सकते हैं, जो सैकड़ों की संख्या में छपे है और यह कम्पनी सिर्फ led बल्ब तक ही सीमित नही है लाखो पंखे इन्होंने खरीदे हैं और यहाँ तक कि डेढ़ टन के AC भी हजारों की संख्या में इन्होंने खरीदे है लेकिन कही भी देखने मे नही आए आफ्टर सेल्स सर्विस की कोई व्यवस्था इस कम्पनी के पास नही है क्योंकि यह कम्पनी किसी तरह का उत्पादन नही करती

अब एक बार फिर ऐसी कम्पनी को आगे करके मनमाने दामो पर स्मार्ट मीटर की खरीदी करवाई जा रही है किससे यह मीटर खरीदे जा रहा है उनकी गुणवत्ता को कैसे निर्धारित किया गया है इसका कुछ अता पता नही है दरअसल यह पूरी योजना गरीब आदमी के हितों के नाम पर बड़ी पावर कंपनियों को लाभ में लाने की योजना है जिसमे बड़े पैमाने पर अडानी टाटा ओर रिलायंस जैसे उद्योगपतियों ने निवेश कर रखा है खुद बिजली मंत्रालय ने माना है कि सभी मीटर को प्री-पेड कर देने से बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) की लागत काफी कम हो जाएगी और डिस्कॉम आसानी से घाटे से उबर जाएंगी। अभी देश के कई राज्यों की डिस्कॉम भारी घाटे में चल रही है

सारे स्मार्ट मीटर चाइना से बेभाव में खरीदे जाएंगे जो बिना गुणवत्ता जांचे गए यह मीटर आपके घर की विद्युत खपत को सीधे डेढ़ गुना करके बताएंगे ओर आपसे उसका पैसा प्रीपेड के नाम पर पहले ही वसूल किया जाएगा आपकी शिकायत को अमान्य करके कहा जाएगा कि अब तक आप चोरी कर रहे थे .......... यही है मोदी सरकार की सौभाग्य योजना। 
https://www.facebook.com/girish.malviya.16/posts/2221525954545707

Thursday 27 December 2018

क्या मोदी - शाह की भाजपा का जहाज डूब रहा है ? ------ आरफा खानम शेरवानी




 Dec 26, 2018
https://www.youtube.com/watch?v=4XlohaPjod4 )
बीजेपी के काम-काज पर केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के हालिया बयानों पर चर्चा करते हुये ‘द वायर’ की सीनियर एडिटर आरफ़ा ख़ानम शेरवानी कह  रही हैं कि, नितिन गडकरी उस नागपुर से सांसद हैं जहाँ आर एस एस का हेड क्वार्टर है और वह भाजपा के पूर्व अध्यक्ष हैं जो मोदी - शाह विरोधी उन भैया जी जोशी के करीबी हैं जो मोहन भागवत के बाद द्सरे प्रभावशाली नेता हैं।
तमाम उद्धरणों के जरिये आरफा खानम ने याद दिलाया है कि, मराठा आंदोलन के समय से जो मुखरता नितिन गडकरी ने अपनाई है उसी पर चल रहे हैं भले ही फिर यह भी कह देते हैं कि उनके कहने का आशय वह नहीं था जो लिया गया है। एज आफ यूथ के कार्यक्रम में बोलते हुये आरफा खानम यह भी कह चुकी हैं कि 2019 के चुनाव में कांग्रेस समेत वर्तमान विपक्ष की सरकार बनने के बाद भी आर एस एस प्रशासन में प्रभावशाली बना रहेगा।
संदर्भ ------ https://www.youtube.com/watch?v=V0as-C8Tm6k  
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वस्तुतः आरफा खानम शेरवानी का विश्लेषण यथार्थ की अभिव्यक्ति ही है। 
जनसंघ के माध्यम से आर एस एस भारत में भी यू एस ए व यू के की भांति दो पार्टी पद्धति की वकालत करता रहा है। 1980 के लोकसभा चुनावों में आर एस एस ने नवगठित भाजपा के बजाए इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन दिया था। इन्दिरा जी की उस सरकार को पूर्ण हिन्दू बहुमत से बनी सरकार की संज्ञा दी गई थी। 1985 में राजीव गांधी को भी आर एस एस का समर्थन मिला था और इसी लिए 1989 में उनके द्वारा अयोध्या के विववादित ढांचे का ताला खुलवाया गया था। 1998 से 2004 तक के भाजपा शासन में प्रशासन,सेना,पुलिस,खुफिया एजेंसियों में आर एस एस के लोगों की भरपूर घुसपैठ करा दी गई थी। 1977 की मोरारजी सरकार के समय भी विदेश और संचार मंत्रालयों में आर एस एस के लोग दाखिल कराये जा चुके थे। 
2014 से अब तक शिक्षा संस्थाओं, संवैधानिक संस्थाओं समेत लगभग पूरी सरकारी मशीनरी में आर एस एस के लोग बैठाये जा चुके हैं। अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि, पी एम भाजपा का है या कांग्रेस का या किसी अन्य दल का। मोदी - शाह की जोड़ी न सिर्फ भाजपा संगठन पर मनमाने तरीके से काबिज थी बल्कि आर एस एस को भी काबू करने की कोशिशों में लगी थी इसी वजह से आर एस एस को उनका विरोध कराना पड़ रहा है क्योंकि भाजपा को बहुमत मिलने की दशा में इस जोड़ी को हटाना संभव नहीं होगा बल्कि यह आर एस एस को भी कब्जा लेगी। 2013 में कोलकाता में घोषित योजना से ( जिसके अनुसार दस वर्ष मोदी को पी एम रहना था और फिर योगी को बनाया जाना था ) हट कर आर एस एस अब राहुल कांग्रेस को गोपनीय समर्थन दे रहा है जिससे भाजपा विरोधी सरकार 2019 में सत्तारूढ़ होने से मोदी - शाह जोड़ी से संघ को छुटकारा मिल जाये। संघ अब सत्ता और विपक्ष दोनों को अपने अनुसार चलाना चाहता है। 
संघ विरोधियों विशेषकर साम्यवादियों व वामपंथियों को संघ की इस चाल को समझते हुये तीसरा मोर्चा के माध्यम से स्वम्य  को मजबूत करना चाहिए। 


------ विजय राजबली माथुर  
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Wednesday 26 December 2018

सपनों का सौदागर कहीं धुंध में गुम होता जा रहा है : .नरेंद्र मोदी कैसे बचेंगे? ------ हेमंत कुमार झा




Hemant Kumar Jha
26-12-2018 
नरेंद्र मोदी देश में उतने कमजोर नहीं हुए हैं जितने भाजपा में होते जा रहे हैं...और... यह अप्रत्याशित भी नहीं है। अमित शाह को आगे बढ़ा कर उन्होंने जिस तरह सत्ता के साथ ही संगठन पर अपना एकछत्र नियंत्रण स्थापित कर लिया था यह भाजपा के लिये नया अनुभव था। जाहिर है, शक्ति और लोकप्रियता के शिखर पर आरूढ़ शीर्ष नेता के समक्ष जन्म लेती कुंठाओं और बढ़ते असंतोष को मुखर होने का कोई अवसर नहीं मिल पा रहा था। अब...जब दुर्ग की दीवारों में छिद्र नजर आने लगे हैं तो अप्रत्यक्ष ही सही, असंतोष के स्वर भी उठने लगे हैं।

यह 'ब्रांड मोदी' का करिश्मा था कि भाजपा शानदार जीत हासिल कर पहली बार अपने दम पर बहुमत में आई थी। संगठन आभारी था और दोयम दर्जे के तमाम नेता नतमस्तक। एक आडवाणी को छोड़ भाजपा में कोई पहले दर्जे का नेता था भी नहीं। लोकतंत्र में दर्जा जनता देती है और भाजपा में अटल-आडवाणी के बाद कोई नेता ऐसा नहीं रह गया था जो जनप्रियता के मामले में 'ए लिस्टर' नेता ठहराया जा सके। एक प्रमोद महाजन थे लेकिन...अब उनकी बात क्या करनी।

तो...वयोवृद्ध आडवाणी को साइड करने के बाद मोदी की एकछत्रता निष्कंटक थी। बड़ी आसानी से अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष बनवा कर उन्होंने संगठन को अपने पीछे कर लिया और इंदिरा गांधी के बाद दूसरे सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री का रुतबा हासिल कर लिया।
सवालों के घेरे में : 
फिर...ऐसा क्या हुआ कि जिस मोदी के बारे में महज साल-डेढ़ साल पहले तक अजेयता का मिथक गढ़ा जा रहा था वे सवालों के घेरे में आते जा रहे हैं। असंतुष्ट सहयोगियों की कुंठाएं अप्रत्यक्ष प्रहार का रूप लेने लगी हैं और विरोधी उत्साहित हो उठे हैं।
अंतहीन परेशानियों का सबब : 
दरअसल, नरेंद्र मोदी को जिस स्तर का 'विजनरी' राजनेता माना गया था, अपने परिणामों में यह कहीं से नजर नहीं आया। उनके द्वारा लगाए गए प्रायः सभी दांव विपरीत असर डालने वाले ही साबित हुए। कोई कह सकता है कि उनकी नीयत सही थी। लेकिन, समस्याओं से घिरे इस देश को नीयत से बढ़ कर परिणामों की अपेक्षा थी।

नोटबन्दी, जिसके परिणाम पहले दिन से ही संदिग्ध थे, के मामले में आम लोगों ने उनकी नीयत को ही प्रमुखता दी और हजार फ़ज़ीहतें झेलने के बावजूद वेनेजुएला की तरह लोग सड़कों पर नहीं उतरे। लेकिन, नोटबन्दी झंझावाती परिणाम लेकर सामने आया और साथ ही, इसने बैंकिंग सिस्टम की कलई भी उतार दी जब भ्रष्ट बैंकरों ने रातोंरात काले धन रूपी नकदी को जमा कर मुख्य धारा में ला दिया।

नवउदारवादी आर्थिकी एकल बाजार की मांग करती है और भारत जैसे विविधताओं से भरे विशाल देश के संदर्भ में भी यह सत्य बदल नहीं सकता था, इस लिहाज से जीएसटी आज नहीं तो कल सामने आना ही था। मनमोहन सरकार ने भी इसके लिये प्रयास किया था लेकिन अंजाम तक इसे मोदी ने पहुंचाया। परंतु, इसके क्रियान्वयन की जटिलताओं ने मोदी सरकार के आर्थिक मामलों के कर्त्ता-धर्त्ताओं की 'मीडियाकरी' को एक्सपोज कर दिया। एक विजनरी राजनेता को प्रतिभासम्पन्न सलाहकारों और सहयोगियों की दरकार होती है लेकिन देश के साथ ही यह मोदी का भी दुर्भाग्य रहा कि जिन पर उन्होंने भरोसा किया वे पूरे के पूरे 'मीडियाकर' निकले। अंततः जीएसटी, जिसके बारे में उम्मीदें की जा रही हैं कि यह एक दिन बेहतर परिणाम सामने लाएगा, अपने वर्त्तमान दौर में हाहाकारी प्रभावों के साथ लोगों, खास कर छोटे और मंझोले व्यापारियों की अंतहीन परेशानियों का सबब बन गया।

दरअसल, नरेंद्र मोदी की एक दिक्कत यह भी रही कि उनके नेतृत्व में सत्ता प्रतिष्ठान को प्रतिभाशाली और स्वतंत्र चेता 'प्रोफेशनल्स' बर्दाश्त ही नहीं हुए। रघुराम राजन इसके एक उदाहरण हैं। इस मामले में मोदी जी इंदिरा गांधी से सीख ले सकते थे जो प्रतिभाओं का सम्मान करती थीं और उन्हें कार्य करने की स्वतंत्रता भी देती थीं।
 आपराधिक नाकामियां : 
आज के दौर में कोई भी सरकार अपनी आर्थिक उपलब्धियों को लेकर ही आंकी जाती है, लेकिन नरेंद्र मोदी जिस राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं वह अपने जनसापेक्ष आर्थिक चिंतन के लिये नहीं, विशिष्ट सांस्कृतिक चिंतन के लिये जानी जाती है। ऐसा एकायामी चिंतन, जो अपने मौलिक संदर्भों में आज के भारत के लिये अनेक सांस्कृतिक संकटों का जनक बन गया है।

तो...सांस्कृतिक स्तरों पर बढ़ते कोलाहल के बीच आर्थिक उपलब्धियों के मामले में दरिद्रता ने मोदी सरकार को आमलोगों की नजरों में एक्सपोज करना शुरू कर दिया। कहाँ तो दो करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष सृजित करने का वादा था...कहाँ बेरोजगारी की दर उच्चतम स्तरों को छूने लगी। कौशल विकास योजना का भ्रामक नारा दलित, पिछड़ों और ग्रामीण युवाओं के प्राइवेट नौकरियों में प्रवेश में सहायक नहीं बन सका। इधर, सरकारी नियुक्तियों में घोषित-अघोषित रोक ने हालातों को बद से बदतर बना दिया। 
बढ़ती हुई बेरोजगारी और इस फ्रंट पर मोदी सरकार की नाकामियों ने 'ब्रांड मोदी' की चमक पर सबसे गहरा धब्बा लगाया। उम्मीदों से भरे युवाओं के लिये यह ऐसी नाकामियां आपराधिक थीं।
 'सरकार प्रायोजित' अशांतियों का कहर : 
बदतर यह...कि बेरोजगारों के हाथों में ज्ञात-अज्ञात संगठनों ने लट्ठ, तलवारें और किसिम-किसिम के झंडे थमाने शुरू किए। युवाओं को कभी "मां भारती" पुकारने लगी तो कभी 'धर्म' अपने रक्षार्थ उनका आवाहन करने लगा, कभी "गोमाता की चीत्कार" पर लोगों को गोरक्षक बना कर हत्यारा बनाया जाने लगा तो कभी "राम लला हम आएंगे" जैसे निरर्थक और विभाजक नारे लगाते युवा शान्तिकामी समाज के सामने सवाल बन कर खड़े होने लगे। देश के स्तर पर ऐसी अशांतियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्थिति हास्यास्पद बनाई और युवाओं को भटकाव के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ।

ऐसी मान्यताओं के आधार हो सकते हैं कि व्यक्तिगत स्तरों पर नरेंद्र मोदी ने हत्यारे गोरक्षकों और लंपट रामभक्तों को बढ़ावा नहीं दिया, लेकिन यह तथ्य तो सामने है कि उनके राज में इन नकारात्मक शक्तियों ने जम कर उत्पात मचाया और देश को सांस्कृतिक विभाजन के रास्ते पर धकेला। मामला फिर 'नीयत' और 'परिणाम' का ही सामने आता है। मोदी सरकार ऐसे उपद्रवकारी तत्वों पर लगाम कसने में विफल साबित हुई और विरोधियों को यह कहने का मौका मिला कि ऐसी अशांतियाँ स्वयं 'सरकार प्रायोजित' ही हैं।
कारपोरेट परस्ती की गहरी छाप : 
शक्तिशाली प्रधानमंत्री का मिथक तब टूटने लगा जब नरेंद्र मोदी अपने नीतिगत निर्णयों और कार्यकलापों में कारपोरेट शक्तियों द्वारा संचालित होने का आरोप झेलने लगे। ऐसे एक से एक उदाहरण सामने आने लगे जो मोदी को जनता का नेता नहीं, सत्ता में कारपोरेट का प्रतिनिधि साबित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत करने लगे। आयुष्मान भारत योजना, उच्च शिक्षा संरचना में नीतिगत बदलावों का खाका, गैस नीति, राफेल प्रकरण आदि ने उनकी शक्तिशाली राजनेता की छवि पर कारपोरेट परस्ती की गहरी छाप लगाई।
संस्थाओं की गरिमा पर प्रहार:
संस्थाओं का निर्माण और विघटन गतिशील लोकतंत्र के लिये एक सामान्य प्रक्रिया है। इसलिये, नरेंद्र मोदी ने नेहरू युगीन संस्थाओं को वैकल्पिक रूप देना शुरू किया तो यह कतई अस्वाभाविक नहीं था। लेकिन, इस पूरी प्रक्रिया में स्वप्नद्रष्टा राजनेता की वह छाप नहीं पड़ सकी जो लोगों को आश्वस्त कर सकता। नीति आयोग योजना आयोग का प्रहसन नुमा विकल्प बन कर सामने आया जिसके कर्णधार प्रोफेशनल्स सरकार की निजीकरण की नीतियों का खाका खींचने वाले कारपोरेट एजेंट के अलावा कुछ और नहीं लगते हैं। साहित्य अकादमी से लेकर आईआईटीज तक को बाजार में धकेलने की नीतियां कई सारे सवालों को जन्म देती है जिसका जवाब देने के लिये अहंकारी सत्ता प्रतिष्ठान कतई उत्सुक नहीं लगता।



संस्थाओं के साथ नाकाम प्रयोग, उनकी गरिमा पर प्रहार, उनकी स्वायत्तता में हस्तक्षेप आदि ऐसे अध्याय हैं जो अंतहीन सवालों को जन्म देते हैं। नतीजा...जिन-जिन को लगा कि मोदी सरकार की मनमानियों पर चुप्पी के लिये इतिहास भविष्य में उन्हें कठघरे में खड़ा कर सकता है, उन्होंने पलायन को ही उपयुक्त रास्ता समझा। रिजर्व बैंक गवर्नर उर्जित पटेल हों या प्रधानमंत्री के विभिन्न सलाहकारों का इस्तीफा...यह इतिहास के सवालों से बचने का उपक्रम ही तो है। लेकिन...नरेंद्र मोदी कैसे बचेंगे? उन्हें तो जवाब देने ही होंगे। इतिहास अपनी कसौटियों को लेकर अत्यंत निर्मम होता है।
पुनर्वापसी के संशय :

बढ़ती बेरोजगारी, महंगी होती शिक्षा और चिकित्सा, युवाओं का आक्रोश, किसानों की बेचारगी आदि-आदि, आमलोगों का संशय, पार्टी के साथियों की कुंठाओं और उनके असंतोष की अभिव्यक्तियों की शुरुआत, जमीन सूंघते राजनीतिक विरोधियों का बढ़ता उत्साह...नरेंद्र मोदी के साढ़े चार साल की सत्ता का हासिल यही है। उनकी उपलब्धियों से बड़ा ग्राफ उनकी असफलताओं का है। आशाओं और आश्वस्तियों का स्थान निराशाओं ने लेना शुरू कर दिया है।
राजनीतिक अजेयता का मिथक अब पुनर्वापसी के संशय में बदल रहा है। सपनों का सौदागर कहीं धुंध में गुम होता जा रहा है।
https://www.facebook.com/hemant.kumarjha2/posts/1940902646017639

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Thursday 20 December 2018

विकास की छलांग के बाद दोराहे पर चीन ------ चंद्रभूषण

दो साल पहले तक .... इस प्रतिनिधि से तीखे सवाल पूछना तो दूर, उससे बात भी नहीं कर सकते थे। तात्पर्य यह कि चीनी कम्यूनिस्टों को अपने सामने मौजूद चुनौतियों का अंदाजा है। वे जानते हैं कि कंबल ओढ़कर घी पीते रहने के दिन अब जा चुके हैं। पूर्व सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव की तरह पेरेस्त्रोइका 

और ग्लासनोस्त जैसे रेडिकल सुधारों का खतरनाक रास्ता वे कभी नहीं अपनाएंगे, 

लेकिन अपने सत्ता ढांचे को तकनीकी खोजों 

और जन आकांक्षाओं के अनुरूप ढालने का यथासंभव प्रयास वे जरूर करेंगे।

http://epaper.navbharattimes.com/details/4715-76942-1.html

Wednesday 12 December 2018

इतने भी खुश न होइये कि आगे कांग्रेस के खिलाफ बोलने में शर्म आये ------ सीमा आज़ाद

*उत्तर - प्रदेश भाकपा के वरिष्ठ नेता पाँच राज्यों में भाजपा की हार पर खुशी मना रहे हैं तो मानवाधिकार नेत्री आगाह कर रही हैं कि आज कांग्रेस की जीत पर इतनी खुशी मना कर भविष्य में कांग्रेस के उत्पीड़न व शोषण के विरुद्ध आवाज कैसे उठाएंगे ? .................................
**सुश्री सीमा आज़ाद जी द्वारा दी गई चेतावनी समस्त जनवादी व साम्यवादी विचार - धारा के लोगों को ध्यान में रखनी चाहिए और आर एस एस की दो - दलीय प्रणाली को कामयाब नहीं होने देना चाहिए। 





उत्तर - प्रदेश भाकपा के वरिष्ठ नेता पाँच राज्यों में भाजपा की हार पर खुशी मना रहे हैं तो मानवाधिकार नेत्री आगाह कर रही हैं कि आज कांग्रेस की जीत पर इतनी खुशी मना कर भविष्य में कांग्रेस के उत्पीड़न व शोषण के विरुद्ध आवाज कैसे उठाएंगे ? 
वस्तुतः भाजपा व कांग्रेस की आर्थिक नीतियाँ एक ही हैं । 1991 में नरसिंघा राव की कांग्रेस द्वारा घोषित मनमोहिनी नीतियों की भूरी - भूरी प्रशंसा न्यूयार्क जाकर एल के आडवाणी यह कह कर की थी कि, कांग्रेस ने उनकी नीतियों को चुरा लिया है। 1980 में सत्ता में पुनर्वापिसी हेतु इन्दिरा गांधी द्वारा आर एस एस का अप्रत्यक्ष समर्थन लिया गया था। तब RSS द्वारा इन्दिरा सरकार को पूर्ण हिन्दू - बहुमत की सरकार बताया जाता था। तभी से श्रम - न्यायालयों में श्रमिकों के विरुद्ध निर्णय पारित किए जाने शुरू हुये थे। 1985 के चुनावों में राजीव गांधी भी आर एस एस के समर्थन से ही प्रचंड बहुमत में आए थे। उनके कार्यकाल में ही बाबरी मस्जिद का ताला खोला गया था और 1992 में नरसिंघा राव के कार्यकाल में उसे ढहा दिया गया था। 1998 से 2004 के कार्यकाल में भाजपा ने ए बी बाजपेयी के नेतृत्व में प्रशासन में आर एस एस के लोगों को भर दिया था।2011 में आर एस एस, भाजपा, कारपोरेट के समर्थन से जो हज़ारे अभियान चला था उसका उद्देश्य कारपोरेट - भ्रष्टाचार को संरक्षण देना था जिसे तत्कालीन कांग्रेसी पी एम का अप्रत्यक्ष समर्थन भी प्राप्त था । इसी अभियान के रथ पर सवार होकर मोदी सरकार सत्तारूढ़ हुई थी। 
अहंकार के वशीभूत होकर मोदी - शाह ने आर एस एस को ही नियंत्रित करने का प्रयास किया जिसके परिणाम स्वरूप आर एस एस ने उनको सबक सिखाने और कालांतर में उनसे छुटकारा पाने हेतु 1980 व 1985 की तर्ज पर  छत्तीसगढ़,मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा को पूरा - पूरा समर्थन नहीं दिया वरना बिना संगठन के कांग्रेस कैसे जीत पाती ?
कांग्रेस तो अब भी अहंकार में ही थी तभी तो क्षेत्रीय दलों से तालमेल नहीं किया वरना भाजपा राजस्थान व मध्य प्रदेश मेँ बुरी तरह से पराजित हो जाती। कांग्रेस नायक राहुल गांधी द्वारा मंदिर - मंदिर जाकर आर एस एस की हिंदुत्ववादी - कारपोरेट समर्थक नीतियों को मूक समर्थन दिया गया और बदले में आर एस एस का अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त किया गया। आर एस एस को भस्मासुर बने  मोदी - शाह से छुटकारा न पाना होता तब तीन राज्यों में कांग्रेस की पुनर्वापिसी भी संभव न होती। 2019 में भाजपा की पुनर्वापिसी की सूरत में मोदी - शाह द्वारा आर एस एस को कब्जाने का खतरा न होता तो आर एस एस को उनका समर्थन करने से भी परहेज न होता। शासन,प्रशासन,पुलिस,सेना,खुफिया संस्थानों सभी जगह आर एस एस के लोग पदस्थापित हो चुके हैं अतः भाजपा विरोधी दलों की सरकार बनने पर भी आर एस एस की पकड़ बनी रहेगी। 
इस संदर्भ में अखिलेश यादव व मायावती को कांग्रेस से सहयोग करते हुये सतर्कता बरतने की जरूरत होगी। 
सुश्री सीमा आज़ाद जी द्वारा दी गई चेतावनी समस्त जनवादी व साम्यवादी विचार - धारा के लोगों को ध्यान में रखनी चाहिए और आर एस एस की दो - दलीय प्रणाली को कामयाब नहीं होने देना चाहिए। 
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14-12-2018 : 
शासन,प्रशासान ,पुलिस,सेना,खुफिया एजेंसियां और न्यायपालिका सभी जगह आर एस एस के लोग बैठाये जा चुके हैं तभी तो जज साहब फैसले में लिख देते हैं कि उनका विश्वास मोदी में है। 

जजों का विश्वास संविधान व कानून से हट कर एक व्यक्ति - विशेष में हो जाना ' तानाशाही ' की आहट का आभास कराता है। 


आर एस एस ने  जनसंघ के माध्यम से भारत में दो - दलीय प्रणाली को लागू करवाने की मांग उठाई थी। आज सत्ता व विपक्ष दोनों पर अधिकार जमा कर वह निर्णायक की भूमिका में आने को प्रयासरत है। जज साहब का फैसला उसी की एक बानगी भर है। 
( विजय राजबली माथुर )
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13-12-2018 

Monday 3 December 2018

किसान - मजदूर दुर्दशा एक समान : भारत हो या पाकिस्तान

महाराष्ट्र के नासिक में एक किसान को अपनी प्याज की उपज एक रूपये प्रति किलोग्राम से कुछ अधिक की दर पर बेचनी पड़ी। उसने विरोध स्वरूप अपनी मेहनत की कमाई प्रधानमंत्री राहत कोष में भेज दी है। 
देश भर के किसानों का मोदी सरकार के खिलाफ गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा है। हाल ही के दिनों में देशभर से आए किसानों ने अपनी फसलों के वाजिब दाम और कर्जमाफी जैसी मांग को लेकर रामलीला मैदान से संसद मार्ग तक मार्च किया था। इसके बावजूद मोदी सरकार किसानों को लेकर संजीदा दिखाई नहीं दे रही है। अब महाराष्ट्र के नासिक में किसानों ने पीएम मोदी विरोध के रुप में चेक भेजा है।दरअसल महाराष्‍ट्र में किसानों को फसल बेचने के बाद भी उसकी लागत तक नहीं मिल पा रही है। नासिक में प्याज के दाम गिरने से किसान परेशान हैं। हालात यह है कि 1 किलो प्याज 1 रुपये में बेचने की नौबत आ गई है। एक किसान ने तो लागत के बराबर पैसे नहीं मिलने से नाराज होकर मिले पैसे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मनी आर्डर कर दिया। विरोधस्वरूप में किसानों ने 750 किलो प्याज के बदले मिले 1064 रुपये प्रधानमंत्री को भेज दिया और कहा कि इस पैसे को प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा कर दिए जाएं।





नासिक जिले के निफड़ तहसील के रहने वाले संजय साठे उन चुनिंदा ‘प्रगतिशील किसानों’ में थे, जिन्हें 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे के दौरान उनसे संवाद करने के लिए केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा चुना गया था। अब वो दुख बताते हुए कहा, “मैंने इस सीजन में 750 किलो प्याज का उत्पादन किया, लेकिन पिछले हफ्ते निफड़ थोक बाजार में मुझे 1 रुपये प्रति किलो का भाव मिल रहा था। किसी तरह मैंने मोल-भाव करके 1.40 रुपये प्रति किलो में सौदा तय किया और 750 किलो प्याज के बदले मुझे 1064 रुपये मिले।”
उन्होंने आगे कहा, ‘ कई महीनों की कड़ी मेहनत के बाद ऐसी हालात होने पर तकलीफ होती है। इसलिए मैंने विरोधस्वरूप 1064 रुपये प्रधानमंत्री आपदा राहत कोष में दान कर दिया। मैंने अतिरिक्त 54 रुपये मनी ऑर्डर से भेजे हैं।”बता दें कि देश के कुल प्याज उत्पादन की 50 फीसदी पैदावार उत्तरी महाराष्ट्र के नासिक जिले में ही होती है। 
https://www.navjivanindia.com/news/farmers-got-only-1064-rupees-of-750-kg-of-onion-angry-farmers-send-all-amount-to-pm-relief-fund?utm_source=one-signal&utm_medium=push-notification

Thursday 29 November 2018

अतुल अंजान साहब को जन्मदिन की बधाई व शुभकामनायें





*अतुल अंजान साहब का स्पष्ट कहना है कि, 2014 के लोकसभा चुनाव में 35 हजार करोड़ रुपए खर्च करके सत्तारूढ मोदी सरकार कारपोरेट घरानों की सरकार है। 
** जब मोहन भागवत बन्छ आफ थाट  को गुजरे जमाने की किताब बता सकते हैं तब गांधी जी की हत्या के लिए देश से माफी क्यों नहीं मांगते ? 
*** सबरीमाला पर भाजपा की रक्तपात यात्रा जन विरोधी और देश विरोधी और संविधान विरोधी है। 
**** यह देश जितना हिंदुओं का है उतना ही मुसलमानों,सिखों,बौद्धों,जैनियों,पारसियों आदि - आदि का भी है। 
***** इस सरकार के कार्यकाल को यों समझें कि, ''बड़ी - बड़ी बातों के चक्कर में छोटी भी गयी । पतलून की चाहत में लंगोटी भी गई। । "
****** जनता से अनुरोध है कि, जाति, मजहब,धर्म को देख कर वोट न दें बल्कि, बेरोजगारी,मंहगाई,किसान और मजदूरों की समस्याओं को ध्यान में रख कर वोट दें वरना अगली पीढ़ियाँ तबाह हो जाएंगी। 

Saturday 24 November 2018

चरित्र भ्रष्ट मोदी सरकार चला चली की बेला में ------ अतुल अंजान

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान ने भारत वॉयस को दिये साक्षात्कार में बड़े बुलंद अंदाज के साथ मोदी सरकार की विदाई को रेखांकित किया है। उनका स्पष्ट मानना है कि देश की जनता इस चारित्रिक व आर्थिक रूप से पूर्ण भ्रष्ट सरकार को हटा कर देश , देश के संविधान और लोकतन्त्र की रक्षा के लिए कटिबद्ध है । 
(क्रमश: ) 


Monday 5 November 2018

‘बेटर दैन कैश एलायंस’ का वायदा पूरा करने के लिए हुई थी नोटबंदी ------ नॉरबर्ट हेयरिंग

* नोटबंदी के थोड़े समय बाद अमेरिकी सलाहकार कंपनी बीसीजी और गूगल ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें भारतीय लेन-देन के बाजार को ‘500 अरब डॉलर के सोने का बर्तन’ कहा गया। नोटबंदी के बाद अमेरिकी निवेशक बैंक ने संभावित मुख्य लाभार्थियों में वीजा, मास्टरकार्ड और एमेजॉन को शामिल किया । 
** नोटबंदी के घोषित उद्देश्य नहीं हुए पूरे
बचत के आधुनिक तरीकों और भुगतान के विकल्पों तक पहुंच देकर गरीबों की मदद करने की बजाय नोटबंदी ने बड़े पैमाने पर गरीबों का नुकसान किया। नगदी के रूप में उनके पास जो भी बचत था, जिससे उनका काम चल रहा था वह भी उनके हाथ से निकल गया।

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नोटबंदी के घोषित उद्देश्य नहीं हुए पूरे, लेकिन असली लक्ष्य था कुछ और!
 नॉरबर्ट हेयरिंग

मुझे प्रधानमंत्री मोदी के नोटबंदी के फैसले की ‘असफलता’ पर लिखने के लिए कहा गया है। यह सच है, अगर नोटबंदी की कार्रवाई को आतंकवाद, भ्रष्टाचार और करचोरी रोकने के इसके घोषित उद्देश्यों के आधार पर परखा जाए तो यह एकदम असफल माना जाएगा।एक तो अवैध घोषित किए गए लगभग सारे नोट बैंकों में वापस जमा हो गए और वैध अर्थव्यवस्था में फिर से डाल दिए गए। अगर समावेशी अर्थव्यवस्था बनाने के दूसरे उद्देश्य के पैमाने पर इसे देखा जाए तो वहां भी यह असफल साबित हुआ। बचत के आधुनिक तरीकों और भुगतान के विकल्पों तक पहुंच देकर गरीबों की मदद करने की बजाय नोटबंदी ने बड़े पैमाने पर गरीबों का नुकसान किया। नगदी के रूप में उनके पास जो भी बचत था, जिससे उनका काम चल रहा था वह भी उनके हाथ से निकल गया।जिन लोगों के पास सहायता का अच्छा सामाजिक तंत्र था, उन्हें तो इसे झेलने का तरीका मिल गया। लेकिन विस्थापित मजदूरों जैसे समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों को अस्थायी रूप से मौद्रिक अर्थव्यवस्था से बाहर रहने के कारण काफी नुकसान हुआ।अमेरिकी सरकार 4 घंटे के नोटिस पर ज्यादातर नगदी को सर्कुलेशन से बाहर निकालने के बारे में सोच भी नहीं सकती। हालांकि, अगर यह भारत में भारत के लोगों के साथ किया गया है, तो यह उनके लिए ठीक है!अमेरिकी सरकार के प्रतिनिधियों ने इस कदम की तारीफ की थी। दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक संस्था के मुखिया बिल गेट्स ने घोषणा की कि कुल जमा लाभ गरीबों की अस्थायी परेशानी से काफी ज्यादा होगा। ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ नाम की संस्था ने भी यही किया। अमेरिकी सरकार और गेट्स फाउंडेशन इस संस्था के मुख्य सदस्य हैं।अमेरिका में नोटबंदी को लेकर जो उत्साह था उसे समझा जा सकता है, अगर समावेश का मतलब यह माना जाए कि सारा पैसा वाणिज्य औद्योगिक क्षेत्र में डाल दिया जाए। 2015 में वाशिंगटन में आयोजित हुए फाइनेंसियल इन्क्लूजन फोरम में ‘पे पाल‘ के सीईओ डैन शूलमैन ने बताया: “वित्तीय समावेश एक उत्साह बढ़ाने वाला शब्द है जिससे कि लोगों को व्यवस्था का अंग बनाया जाए।” और उसी मौके पर बिल गेट्स ने इस बात को विस्तार से बताते हुए कहा कि अमेरिकी सरकार को यह सुनिश्चित करना था कि वित्तीय लेन-देन डिजिटल व्यवस्था के तहत हो जिसमें अमेरिकी सरकार “उन लेन-देन का पता लगा सके जिनके बारे में वह जानना चाहती है या ब्लॉक करना चाहती है।”गेट्स ने यह भी कहा: “यह निश्चित रूप से हमारा लक्ष्य है कि अगले 3 सालों में बड़े विकासशील देशों में डिजिटलीकरण पूरा हो जाए। हमने पिछले तीन सालों से वहां (भारत) के केंद्रीय बैंक के साथ सीधे तौर पर काम किया है।” भारत में गेट्स फाउंडेशन के मुखिया नचिकेत मोर हैं। वे अभी हाल तक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के केंद्रीय बोर्ड के सदस्य थे और उनके पास वित्तीय देख-रेख की जिम्मेदारी थी।नोटबंदी भारतीय लोगों को ‘व्यवस्था’ का हिस्सा बनाने में काफी सफल रही, जिसमें उनका पता लगाया जा सकता है। यह अनुमान लगाने में ज्यादा दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि नोटबंदी का असली लक्ष्य यही था। नोटबंदी के लगभग तीन सप्ताह बाद अपने मासिक संबोधन ‘मन की बात’ में नरेन्द्र मोदी ने कहा था: “हमारा सपना है कि एक कैशलेस समाज बने।”2014 में चुनाव जीतने के बाद जब वे वाशिंगटन गए तो उन्होंने इस लक्ष्य को लेकर एक वादा किया था। उनकी यात्रा के दौरान ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में अमेरिकी सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था यूएसएआईडी, भारत के वित्त मंत्रालय और डिजिटल लेन-देन में शामिल कई अमेरिकी और भारतीय कंपनियों के बीच एक भागीदारी की घोषणा हुई थी। जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा 2015 में भारत आए तो उनका स्वागत करते हुए भारत ने एक उपहार यह दिया कि भारत ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में शामिल हो गया।अमेरिकी सरकार और गेट्स फाउंडेशन के अलावा ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में अपने हितों को लेकर मौजूद कई मुख्य वाणिज्यिक सदस्य भी हैं। वे अमेरिका के लेन-देन कारोबार के महारथी वीजा और मास्टरकार्ड हैं जिनका बड़ा दखल विश्व बाजार और सीआईटीआई समूह पर है। सीआईटीआई यानी सिटी बैंक इस एलायंस के शुरू होने के वक्त दुनिया का सबसे बड़ा बैंक था।नोटबंदी के थोड़े समय बाद अमेरिकी सलाहकार कंपनी बीसीजी और गूगल ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें भारतीय लेन-देन के बाजार को ‘500 अरब डॉलर के सोने का बर्तन’ कहा गया। नोटबंदी के बाद अमेरिकी निवेशक बैंक ने संभावित मुख्य लाभार्थियों में वीजा, मास्टरकार्ड और एमेजॉन को शामिल किया।सिटी बैंक जैसे वाणिज्यिक बैंक नगद को उतना ही नापसंद करते हैं जितना क्रेडिट कार्ड कंपनियां करती हैं। इसमें पैसा कमाने की बजाय नगद का प्रबंधन करने में पैसे लग जाते हैं, जबकि वे डिजिटल लेन-देन में पैसा कमा लेते हैं। ज्यादा बुरी बात यह है कि लोग बैंकिंग व्यवस्था से अपना पैसा निकाल सकते हैं अगर उनका भरोसा खत्म हो गया। बड़े वित्तीय खेल में घुसने की बैंकिंग व्यवस्था की क्षमता को यह सीमित करता है।जितना कम नगद इस्तेमाल होता है, उतना ज्यादा बैंक में जमा राशि का रूप लेता है। बैंक में जितना ज्यादा पैसा जमा होगा, वे उतने फायदेमंद धंधों में घुस सकते हैं। जर्मनी के एक अखबार को दिए साक्षात्कार में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तत्कालीन सीईओ अरुंधती भट्टाचार्य इस बात को लेकर बेहद उत्साहित थीं कि बैंकिंग व्यवस्था में बहुत ज्यादा पैसे आ गए हैं। उन्होंने कहा कि जितने पैसे जमा हुए हैं वैसा पहले कभी नहीं देखा गया था, “सुधार के पहले हम हर महीने 950 मिलियन डेबिट कार्ड लेन-देन करते थे। नोटबंदी के 50 दिन बाद हम 3.9 बिलियन लेन-देन कर रहे हैं।अमेरिकी-भारतीय भागीदारी के वाणिज्यिक सदस्यों के दृष्टि में नोटबंदी बहुती बड़ी सफलता थी। नोटबंदी के 18 महीनों बाद मोबाइल वॉलेट का उपयोग तीन गुना बढ़ गया, बिक्री में डेबिट कार्ड का उपयोग दुगुना हो गया और क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल में काफी बढ़ोतरी हुई।

भास्कर चक्रवर्ती अमेरिका के टफ्ट्स विश्वविद्यालय में इंस्टीट्यूट फॉर बिजनेस इन ग्लोबल कॉन्टेक्स्ट के निदेशक हैं। इस संस्था को गेट्स फाउंडेशन और सिटी समूह वित्तीय सहायता देता है। हार्वर्ड बिजेनस रिव्यू में उन्होंने नोटबंदी पर लिखते हुए माना कि नोटबंदी अपने घोषित उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रहा और गरीब लोगों और अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान हुआ।उन्होंने आगे कहा कि यह कोई समस्या नहीं थी क्योंकि नोटबंदी की मुख्य बात पूरी तरह अलग है। नोटबंदी में जनता को इतनी तकलीफ होने के बावजूद मोदी की बड़ी चुनावी सफलताओं को नोट करते हुए उन्होंने लिखा, “जब लोगों को लगता है कि आप उनके लिए लड़ रहे हैं, तो बहुत ठोस तथ्यों का भी कम से कम असर होता है। आखिरकार, भारत में नोटबंदी की कहानी का सबसे बड़ा सबक आंकड़ों के खिलाफ प्रचार की जीत है।”बिना तथ्यों के बड़े वादे करना बेटर दैन कैश एलायंस की रणनीति है जिस पर वह काफी मजबूती से आगे बढ़ रहा है। वे लगातार दावा कर रहे हैं कि लेन-देन का डिजिटलीकरण गरीबी को मिटाने में मदद करेगा और विकास की गति बढ़ाएगा। उनके लिए इसका कोई मतलब नहीं है कि इस तर्क के खिलाफ कई सारे तथ्य मौजूद हैं।
साभार : 
https://www.navjivanindia.com/india/demonetisation-was-a-failure-in-terms-of-its-announced-goals-but-the-real-aim-something-else?utm_source=one-signal&utm_medium=push-notification
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Sunday 4 November 2018

न्यायिक सक्रियता, संघ की बौखलाहट और मन्दिर राग ------ डा॰ गिरीश


Girish CPI

Nov 3, 2018, 1:38 PM
न्यायिक सक्रियता, संघ की बौखलाहट और मन्दिर राग  : 


अदालतों के हाल के कुछ निर्णयों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसके आनुसांगिक संगठनों खासकर भाजपा की बौखलाहट निरंतर बढ़ती जारही है। इस बौखलाहट के चलते एक ओर वह सर्वोच्च न्यायालय पर हमलावर हुये हैं वहीं उन सबने अयोध्या में मन्दिर निर्माण का कीर्तन पुनः तेज कर दिया है। सारी सीमायें लांघ कर सर्वोच्च न्यायालय पर जिस भौंडे ढंग से हमले किये जारहे हैं वे देश और लोकतान्त्रिक समाज के लिये बेहद चिंता का सबब बनते जारहे हैं। अंततः ये हमले हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली और संविधान के ऊपर हैं।

इसी बीच संघ, विश्व हिन्दू परिषद और संघ के तमाम सहोदरों ने चार साल की हैरान करने वाली चुप्पी को तोड़ते हुये अयोध्या में मन्दिर आंदोलन को धार देना शुरू कर दिया है। अब बात यहां तक पहुंच गयी है कि अध्यादेश लाकर और कानून बना कर मन्दिर बनाने की मांग की जारही है। यह मांग किसी और ने नहीं विजयादशमी पर अपने परंपरागत भाषण में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने स्वयं की। नाटकीयता की हद यह है कि सरकार का नियंता संघ अपनी ही सरकार से मांग करने का अभिनय कर रहा है।

लेकिन  महामुख के खुलते ही दसों मुख खुल गये हैं। कथित विहिप और संत समाज तो पहले ही अभियान की रूपरेखा तैयार कर चुके थे अब गिरराज किशोर और सुब्रह्मण्यम स्वामी सरीखे भाजपा के वाचाल भी सक्रिय होगये हैं। एक दो नहीं संवैधानिक पदों पर बैठे कोई दर्जन भर दुर्मुख एक ही भाषा बोल रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो यहां तक कह डाला कि मन्दिर निर्माण तो जारी है। उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य ने कहाकि 2019 से पहले ही मन्दिर का निर्माण अवश्य होगा भले ही उसके लिये कानून बनाना पड़े। राम भक्त दर्शाने की होड़ मची है। तोगड़िया और शिवसेना प्रमुख देखने में भले ही अलग दिखाई देते हों पर उनका मन्दिर राग भाजपा और संघ के लिये आधार तैयार करने वाला ही नजर आरहा है।

केरल के सबरीमाला मन्दिर के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी स्त्रियों के प्रवेश के निर्णय पर संघ और भाजपा ने सारी सीमायें लांघ कर अपनी फौजें सड़कों पर उतार दीं। इतना ही नहीं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सर्वोच्च न्यायालय को खुल्लमखुला नसीहत दे डाली कि सर्वोच्च न्यायालय को ऐसे निर्णय नहीं देने चाहिये जो जनता की आस्था के विपरीत हों और जिन्हें लागू नहीं किया जासके। यह सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्चता और हमारे संविधान पर खुला हमला है जिसके तहत व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सर्वोच्चता स्थापित की गयी है। इस प्रकरण ने संघ और भाजपा के नारी सम्मान और स्वातंत्र्य के प्रति ढोंग को भी उजागर कर दिया। एक केन्द्रीय महिला मन्त्री ने तो बेहद फूहड़ बयान देकर नारी की निजता पर घ्रणित हमला बोला।

ऐसा नहीं कि भाजपा ऐसा पहली बार कर रही है। वह ऐसा बार- बार और लगातार करती आयी है। आस्था और श्रध्दा उसके राजनीतिक कवच- कुंडल हैं। इन्हीं की आड़ में इस समूह ने 6 दिसंबर 1992 को राष्ट्रीय एकता परिषद को दिये अपने वचन और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की धज्जियां बिखेरते हुये अयोध्या के विवादित ढांचे को ही ज़मींदोज़ कर दिया था।

सर्वोच्च न्यायालय पर संघ परिवार का ताज़ा हमला उसके अधीन विचारधीन अयोध्या विवाद की सुनवाई जनवरी 2019 में शुरू करने के फैसले को लेकर है। संघ भली प्रकार जानता है कि 29 अक्तूबर को सक्षम बेंच के अभाव में सुनवाई संभव नहीं थी और एक सक्षम बेंच के गठन के लिये भी वक्त चाहिये होता है। लेकिन संघ को तो राजनीति करनी थी। पहले कहा गया कि यह सब कांग्रेस के दबाव में किया जारहा है। जब यह पटाखा फुस्स होगया तो कहा जाने लगाकि सर्वोच्च न्यायालय करोड़ों हिंदुओं की भावना से खिलवाड़ न करे। यह सर्वोच्च न्यायालय को खुली धमकी है जो अपने वोट बैंक को बरगलाने के लिये की जारही है।

सर्वोच्च न्यायालय ही नहीं तमाम स्वायत्त संस्थाओं को भी संघ परिवार तहस नहस कर रहा है। निर्वाचन आयोग, सीबीआई, सीवीसी और अब रिजर्व बैंक को निशाने पर लिया गया है।

संघ और भाजपा की इस बौखलाहट और कारगुजारियों के लिये पर्याप्त कारण भी हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा और मोदीजी द्वारा जनता को तमाम सब्जबाग दिखाये गये थे। आज उनकी कलई पूरी तरह खुल गयी है। दो करोड़ नौजवानों को हर वर्ष रोजगार देने का वायदा अब उन्हें पकौड़े तलने की नसीहत में बदल गया है। किसानों की आमदनी दोगुनी करने, विदेशों से कालाधन वापस लाकर हर खाते में रुपये- 15 लाख पहुंचाने, आतंकवाद की रीड़ तोड़ने, पाकिस्तान की आँखों में आँखें डाल कर बात करने जैसे झांसे और “न खाऊँगा न खाने दूंगा” जैसी कसमें सभी तार- तार होचुके हैं। भाजपा स्वयं इन्हें चुनावी जुमला बता चुकी है।

नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के दुष्परिणाम सभी के सामने हैं। पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में अभूतपूर्व व्रध्दी और कमरतोड़ महंगाई, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में रुपये की निरंतर गिरती कीमत और भ्रष्टाचार के मोर्चे पर मोदी सरकार की विफलता ने भाजपा के पैरों तले से जमीन खिसका दी है। राफेल विमान सौदे में सीधे प्रधानमंत्री की लिप्तता ने डूबते जहाज की पैंदी में एक और छेद कर दिया। इसे भाजपा भी समझ रही है और संघ भी। विकास, स्वच्छता अभियान और विदेशों में छवि निर्माण के ढोंग भी परवान नहीं चड़ सके। सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा पर चढ़ कर फायदा उठाने का मंसूबा आरएसएस के बारे में सरदार पटेल के स्पष्ट विचारों ने धराशायी कर दिया।

हाल के कुछ न्यायिक फैसलों ने भी संघ और भाजपा की कथनी करनी और दोगलेपन को उजागर किया है। सबरीमाला मन्दिर में सभी आयु की महिलाओं के प्रवेश, शहरी नक्सल के नाम पर गिरफ्तार बुध्दिजीवियों की गिरफ्तारी के मामले को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विचार के लिये स्वीकार करना, सीबीआई प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता, दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा 31 वर्ष पुराने हाशिमपुरा मामले में दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाना और उत्तर प्रदेश में 68,500 शिक्षकों की भर्ती में हुये घोटाले की इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई से जांच के आदेश पारित करना आदि तमाम मामले हैं जो भाजपा, संघ और उनकी सरकारों की कारगुजारियों को बेनकाब करते हैं।

इन सब से बौखलाया संघ परिवार मन्दिर मुद्दे की सुनवाई को जनवरी तक बढ़ाए जाने को कुटिलता से आस्था का प्रश्न बना कर सर्वोच्च न्यायालय पर हमले बोल रहा है। हर तरफ से घिरे और पूरी तरह बेनकाब संघ के सामने “मन्दिर शरणम गच्छामि” के अलाबा कोई रास्ता नहीं है। अतएव अध्यादेश लाकर अथवा कानून बना कर मन्दिर बनाने की आवाजें तेज हो गईं हैं। मोहन भागवत और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बीच हुई गुफ्तगू भी इसी उद्देश्य से है। संघ के महासचिव ने 1992 जैसा आंदोलन छेड़ने की धमकी दी है। यह साख बचाने और चेहरा छिपाने की कवायद भी होसकती हैं।  

अब देखना यह है कि क्या संघ के निर्देशों का पालन करते हुये केन्द्र सरकार संसद के शीतकालीन सत्र से पहले मन्दिर निर्माण के लिये अध्यादेश लाएगी? या फिर संसद में कोई बिल लाकर यह जताने का प्रयास करेगी कि वह तो मन्दिर निर्माण के लिये प्रतिबध्द है। लेकिन इस बिल के अधर में लटक जाने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। पर भाजपा को लोगों को भ्रमित करने का बहाना तो मिल ही जाएगा। कानूनी पेंच यह भी है कि अयोध्या के विवादित भूखंड का अदालती निर्णय आने से पहले वहाँ कोई निर्माण संभव नहीं है। भाजपा और संघ यह भली प्रकार जानते हैं। अतएव मन्दिर राग अलापना उनकी मजबूरी है तो न्यायपालिका को धमकाना उनकी राजनैतिक जरूरत। इसे वे निरंतर जारी रखेंगे भले ही देश के लोकतान्त्रिक ढांचे को कितनी ही क्षति क्यों न उठानी पड़े।

डा॰ गिरीश

Saturday 20 October 2018

सर्वसत्ताग्राही अराजक गिरोह बन चुके हैं आरएसएस और भाजपा ------ डा॰ गिरीश



हाथरस में दशहरे के दिन आरएसएस के शस्त्र पूजन कार्यक्रम में आग्नेयास्त्रों से हुयी फायरिंग में प्रेस फोटोग्राफर के गंभीर रूप से और फायरिंग करने वाले विधायक पुत्र के मामूली रूप से घायल होने से हाथरस ही नहीं देश के तमाम सामाजिक, राजनैतिक हल्कों और मीडियाकर्मियों के बीच गहरी बहस छिड़ गई है।

ज्ञातव्य हो कि दशहरे के दिन संघ के लोग हर साल शस्त्र पूजन करते हैं जिसमें भाजपाई भी बढ़ चढ़ कर भाग लेते हैं। हाथरस में यह आयोजन स्थानीय श्री बागला इंटर कालेज में किया गया। इस बार केन्द्र में और उत्तर प्रदेश में सत्ता में होने का नशा सिर पर चढ़ कर बोल रहा था तो संघी और भाजपाइयों ने लुत्फ उठाने को एक से बढ़ कर एक आला हथियारों से फायरिंग शुरू कर दी।

इसी बीच फायरिंग कर रहे हाथरस अनुसूचित विधानसभा क्षेत्र के विधायक ने अपनी रायफल अपने बेटे को थमा दी और फिर विधायक पुत्र ने हथियार पर हाथ आजमाना शुरू कर दिया। इस बीच अनाड़ीपन से चलायी जारही रायफल की गोली उलटी चल गयी फलतः रायफल की मैगजीन फट गयी। परिणामस्वरूप मैगजीन का एक बड़ा टुकड़ा शस्त्र प्रदर्शन का कवरेज कर रहे प्रेस फोटोग्राफर की गर्दन में जा धंसा और वह गंभीर रूप से घायल होगया। विधायक पुत्र के भी खरौंचे लगी हैं।

घायल फोटोग्राफर को अलीगढ़ रेफर किया गया जहां आपरेशन के बाद उसकी हालत में सुधार होरहा है। विधायकपुत्र घर पर ही आराम फरमा रहे हैं।

सामान्य रूप से यह कानून व्यवस्था का मामला दिखाई देता है। कालेज के प्रधानाचार्य द्वारा दिये गए बयान के अनुसार  संघ के स्थानीय प्रमुख ने उनसे सुबह कुछ घंटे दशहरा मनाने को कालेज परिसर में जगह मांगी थी, शस्त्र संचालन के लिए नहीं। स्थानीय प्रशासन ने भी कहा है कि कार्यक्रम की अनुमति नहीं लीगयी थी। अब सवाल उठता है कि बिना अनुमति किये जारहे आयोजन में संगीन आग्नेयास्त्र लिये लोग एकत्रित होते रहे, सत्ता के घमंड में चूर संघी और भाजपाई फायरिंग करते रहे लेकिन प्रशासन ने उधर से आँखें फेरे रखीं। जबकि हर्ष फायरिंग पूरी तरह से प्रतिबंधित है और इस प्रतिबंध को अमल में लाने का दायित्व शासक दल और उसके मातहत प्रशासन पर है।  

इतना ही नहीं कई घंटों तक पुलिस- प्रशासन ने घटना को नजरंदाज किया और कोई तहरीर न होने का बहाना बनाते हुये एफ॰ आई॰ आर॰ तक दर्ज नहीं की। बाद में राजनैतिक और पत्रकारिक हलकों में कड़ी प्रतिक्रिया को देखते हुये तथा अपने को औरों से अलग कहने वाली पार्टी के विधायक विरोधी खेमे के सक्रिय होने के बाद पुलिस को मजबूरन अपनी ओर से एफआईआर दर्ज करनी पड़ी। सभी फायरिंग करने वालों को चिन्हित कर कार्यवाही होगी या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा। जख्मी मीडिया कर्मी को पर्याप्त मुआबजा देने की मांग भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित कई स्थानीय संगठनों ने की है।

सवाल यह है कि क्या आरएसएस एक संविधान, न्यायप्रणाली और लोकतान्त्रिक व्यवस्था का विरोधी संगठन नहीं बन चुका है। दशहरे पर किसी व्यक्ति या परिवार द्वारा शस्त्र पूजन की परंपरा रही है। लेकिन आरएसएस इसे अपने घ्रणित उद्देश्यों के लिये स्तेमाल करता है। कानून व्यवस्था को ठेंगा दिखा कर पूजन के नाम पर शस्त्र प्रदर्शन और परेड निकालने वाले संघ ने आजादी के बाद हुये कई युद्धों के लिये अपनी निजी सेनाओं को भेजने का आफ़र क्या कभी सरकार को दिया? नहीं न। दरअसल उसका शस्त्र पूजन और पथ संचलन अल्पसंख्यकों, दलितों और अन्य कमजोरों में दहशत पैदा करने का माध्यम है, राष्ट्र रक्षा का नहीं।

आज संघ गिरोह सबरीमाला में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की धज्जियां बिखेर कर महिलाओं के मंदिर प्रवेश को रोकने वाली दकियानूस और कट्टरपंथी ताकतों की अगुवाई कर रहा है। 6 दिसंबर 19992 में इसी गिरोह ने राष्ट्रीय एकता परिषद और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को ठेंगा दिखा कर बाबरी ढांचे का ध्वंस किया था। मामले के सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन होने के बावजूद वे 2019 में हर हाल में मंदिर निर्माण की घोषणायेँ कर रहे हैं। वोट और सत्ता के लिये वे कानून हाथ में लेने, संविधान और सर्वोच्च न्यायालय की प्रभुता को पैरों तले रौंदने से न वे पहले कभी चुके हैं न आगे चूकने वाले हैं। सभी लोकतान्त्रिक और लोकहितकारी ताकतों को यह साफ तौर पर समझना चाहिए।

प्राक्रतिक आपदाओं के समय किसी सुरक्षित से स्थान पर राहत कार्य करते हुये फोटो खिंचवा कर वाहवाही लूटना इनका एक और प्रमुख शगल है। हाल ही में केरल में आयी महाविपत्ति के बीच राहत कार्य में जुटे भाकपा के एक मंत्री की फोटो वायरल कर संघियों ने दाबा ठोका कि उसके लोग राहत कार्य में जुटे हैं। किसी कमजोर की मदद करते, किसी बलात्कारी या हत्यारे का सामाजिक बहिष्कार करते, किसी कर्ज में डूबे किसान की कर्ज से मुक्ति में मदद करते, किसी नौकरी से हठाए गये अथवा बेरोजगार युवक को नौकरी दिलवाते अथवा भारतीय संसक्रति के उदार पक्षों को उद्घाटित करते इस कथित सामाजिक- सान्स्क्रतिक संगठन को देखा नहीं गया। अलबत्ता इसके उलट तमाम कारगुजारियों में इसे हर रोज लिप्त पाया जाता है। मोब लिंचिंग के हर मामले में संघ गिरोह लिप्त पाया गया है।

व्यवस्था, लोकतन्त्र, संविधान और न्याय प्रणाली के लिये चुनौती बन चुके संघ परिवार को सामाजिक और कानूनी तौर पर नियंत्रित करने की जरूरत है। सभी लोकतान्त्रिक ताकतों को इस हकीकत को समझना चाहिये। इन सभी शक्तियों के सामूहिक और निजी प्रयासों से ही यह संभव है। कांग्रेस और मध्यमार्गी दलों को समझना होगा कि संघ के प्रति उनके ढुलमुल द्रष्टिकोण से देश और उसकी लोकतान्त्रिक प्रणाली को भारी हानि उठानी पड़ सकती है।

डा॰ गिरीश

Saturday 6 October 2018

एक थीं अच्छी मौसी : कामरेड प्रेमलता तिवारी ------ रीना सैटिन

 कामरेड प्रेमलता तिवारी के शताब्दी अवसर पर उनकी सुयोग्य भांजी कामरेड रीना सैटिन द्वारा भाव - पूर्ण स्मरण ...............................................................
दो किस्से : 
एक थीं अच्छी मौसी ( अच्छी इसलिए कि बच्चों को सारी मस्तियों  की छूट यही दिलाती थीं ) ॰॰
आज होतीं तो सौ साल की होतीं ॰॰
पर अपने जीवन में कई सौ साल जी गईं ॰॰

मेरे परिवार में आधे क्रांतिकारी थे, आधे नरम दल के ॰॰
प्रेमा मौसी दोनों थीं ॰॰

लंबा लिखना - पढ्ना  मुश्किल होगा तो मेरी माँ के सुनाये दो किस्से पेश हैं ॰॰

1 घर का : 
घर , जो नरम और गरम दलों के स्वतन्त्रता सेनानियों का गढ़ था, के बाहर पुलिस आई थी ॰॰
पुलिस को किसी तरह रोक कर सभी मौजूद लोग - अंदर रखे पोस्टर्स्स, पैम्फलेट्स और कुछ किताबें नष्ट करने में लग गए, कि पुलिस के हाथ न लग जाएँ ॰॰
सब फाड़ा जा रहा था , जलाया जा रहा था ॰॰
पूरा नष्ट करना संभव न देख , प्रेमा मौसी ने बहुत सा सामान शरीर पर लपेटा और दूसरी मंजिल से पीछे की गली में कूद गईं ॰॰
रानी लक्ष्मी बाई तो घोड़े पर सवार होकर कूदी थीं, यह खुद ही कूद गईं ॰॰

2 जेल का : 
जेल में बंद थीं - मेरी माँ भी वहीं थीं, और बहुत सी दूसरी महिला कामरेड्स भी वहीं थीं ॰॰
रात भर पोस्टर्स बनाए गए - और भोर होते ही जेल की दीवारों पर चिपकाए जाने लगे ॰॰
एक सिपाही आया और फाड़ने लगा ॰॰
इनहोने पकड़ा कालर , उसे फटका जमीन पर , छाती पर चढ़ बैठीं , और दे दना - दन ॰॰

जी , सजाएँ हर बार मिलीं - पर आजादी के दीवाने सजा की कब सोचते थे ? ॰॰

आजादी के बाद : 
आजाद भारत में सारी जिंदगी शिक्षिका रहीं, अपने स्कूल में भी और निजी जीवन में भी ॰॰

हम सब के चरित्र - केरेक्टर को बनाने में , और हमें न्याय के लिए डट कर खड़े होना सिखाने में उनकी भी बहुत बड़ी भूमिका रही ॰॰

आँखें नाम हैं, पर होठों पर मुस्कराहट है॰॰
अच्छी मौसी को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजली ॰॰

( देवनागरी लिपिकरण का संदर्भ ) : 
https://www.facebook.com/reena.satin/posts/10215692606962023  




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सभी फोटो सौजन्य से : आलोक तिवारी 



Reena Satin 
06-10-2018 
2 Qisse
Ek theen Achchhee Mausee (achchhee is liye keh bachchon ko saaree mastiyon kee chhoot yahee dilaatee theen)..
Aaj hoteen to 100 saal kee hoteen..
Par apne jeevan mein kayee 100 saal jee gayeen..

Mere parivaar mein aadhe kraantikaaree the, aadhe naram dal ke..
Prema Mausee donon theen..

Lamba likha padhna mushkil hoga to meree maan ke sunaaye huye 2 qisse pesh hain..

1 Ghar, jo Naram aur Garam Dalon ke Swatantrata Senaanion ka gadh tha, ke baahar police aayee thee..
Police ko kisee tarah rok kar, sabhee maujood log - andar rakhe posters, pamphlets aur kuchh kitaaben nasht karne mein lag gaye, keh police ke haath na lag jaayen..
Sab phaada ja raha tha, jalaaya ja raha tha..
Poora nasht karna sambhav na dekh, Prema Mausee ne bahut sa material apne shareer par lapeta aur doosree manzil se peechhe kee galee mein kood gayeen.. 
Rani Lakshmi Bai to ghode par savaar ho kar koodee theen, yeh khud hee kood gayeen..

2 Jail mein band theen - meree maan bhee waheen theen, aur bahut sii doosree mahila comrades bhee waheen theen..
Raat bhar posters banaaye gaye - aur bhor hote hee jail kee deevaaron par chipkaaye jaane lage..
Ek sipaahee aaya aur phaadne laga..
Inhone pakda collar, usay patka zameen par, chhaatee par chadh baitheen, aur de dana dan..

Jee, sazaayen har baar mileen - par aazaadee ke deewaane saza kee kab sochte the..

Aazaad Bharat mein saaree zindagee shikshika raheen, apne school mein bhee aur nijee jeevan mein bhee..
Hum sab ke character ko banaane mein, aur humein nyaaye ke liye dat kar khade hona sikhaane mein inkee bhee bahut badee bhoomika rahee..

Aankhen nam hain, par hothon par muskuraahat hai..
Achchhee Mausee ko ashrupoorna shraddhaanjali..
https://www.facebook.com/reena.satin/posts/10215692606962023 
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लेखिका ------

कामरेड रीना सैटिन 1967 की संविद सरकार में उत्तर - प्रदेश के गृह राज्यमंत्री कामरेड रुस्तम सैटिन साहब की सुपुत्री हैं । आपकी मौसी  कामरेड प्रेमलता तिवारी एवं मौसा जी कामरेड हरीश तिवारी तथा आपकी माताजी कामरेड मनोरमा सैटिन एवं एक अन्य मौसी कामरेड कृष्णा  श्रीवास्तव  एवं मौसजी  बालकृष्ण श्रीवास्तव सभी स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। 

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04 सितंबर 2014 को कामरेड हरीश तिवारी के जन्म शताब्दी वर्ष का एक समारोह राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह,क़ैसर बाग, लखनऊ में उनकी पुत्री अल्का तिवारी मिश्रा द्वारा आयोजित किया गया था जिसमें बिजली कर्मचारी यूनियन का भी सहयोग रहा था और इसमें कामरेड ए बी वर्द्धन की विशेष उपस्थिती रही थी।

इस अवसर पर एक पुस्तक ' मजदूर आंदोलन के सजग प्रहरी : कामरेड हरीश तिवारी ' जिसका सम्पादन उनके पुत्री - पुत्र द्वारा किया गया था जारी की गई थी। उस पुस्तक में यदा - कदा कामरेड प्रेमलता तिवारी का भी उल्लेख था।

 उस पुस्तक में दिये विवरण के अनुसार कामरेड प्रेमलता तिवारी का जन्म 06-10-1918 और मृत्यु 27 दिसंबर 1997 को हुई थी। उनका विवाह कामरेड हरीश तिवारी से 02 मई 1954 को बनारस में हुआ था ।बी एच यू से एम ए , हिन्दी थीं। काशी अनाथालय में वार्डन होते हुये भी दाइयों की हड़ताल में सक्रिय भागीदारी के कारण पद- त्याग करना पड़ा था।
दयानंद विद्या मंदिर, लखनऊ में तीन वर्ष प्रभारी का कार्य किया। बालिका विद्यालय इंटर कालेज, मोतीनगर, लखनऊ के हाई स्कूल खंड में कार्यरत रह कर 1982 में वहीं से अवकाश प्राप्त किया।
माध्यमिक शिक्षक संघ, महिला फेडरेशन की सक्रिय सदस्य रहीं और हड़ताल के समय अध्यापिकाओं का नेतृत्व किया। सक्रिय पार्टी कार्यकर्ता रहीं , देश की आजादी की लड़ाई में उनके योगदान की प्रमुख दो बातों का जिक्र  उनकी भांजी रीना जी ने अपने विवरण में भी किया है , वह बचपन से ही  ' वानर सेना '  का अनिवार्य अंग रही थीं।
पुस्तक के पृष्ठ- 344 पर प्रकाशित अपने संस्मरण में कामरेड सूरज लाल, पूर्व प्रांतीय कोषाध्यक्ष, उ प्र बिजली कर्मचारी संघ ने लिखा है कि, कामरेड हरीश तिवारी के पूरे परिवार का जीवन निर्वाह उनकी आदर्श पत्नी प्रेमा जी की आय पर ही निर्भर था। 

उसी पुस्तक के पृष्ठ 452 -453 पर कामरेड प्रेमलता तिवारी का एक आत्म - कथ्य भी प्रकाशित है जिसकी स्कैन कापी प्रस्तुत है ( इसे डबल क्लिक करके साफ पढ़ सकते हैं ) :


कामरेड हरीश तिवारी व कामरेड प्रेमलता तिवारी का पार्टी के प्रति समर्पण व त्याग सराहनीय ही नहीं वरन अनुकरणीय भी है लेकिन प्रदेश पार्टी नेतृत्व का इस ओर ध्यान नहीं है कि वह अपने पूर्वजों का स्मरण कर सके, न ही पार्टी का ध्यान युवा वर्ग को आकर्षित करने की ओर है एक डिफ़ेक्टो कामरेड निर्वाचित डिजूरे कामरेड्स को निर्देशित करते रहते हैं जिस कारण उत्तर प्रदेश में पार्टी का विस्तार संभव ही नहीं है। तभी तो कामरेड हरीश तिवारी का शताब्दी  समारोह उनके पुत्र- पुत्री को यूनियन के सहयोग से आयोजित करना पड़ता है और कामरेड प्रेमलता तिवारी का स्मरण उनकी भांजी को करना पड़ता है। यदि भाकपा को देश में अपनी भूमिका कायम करनी है तो यू पी में इसके नेतृत्व को अपने पूर्वजों  का अनुकरणीय स्मरण प्रस्तुत करना तथा आज के नौजवानों को अपनी ओर आकर्षित करना होगा न कि, लकीर का फकीर बन कर भाग्य के भरोसे बैठे रहना होगा। यह याद रखना होगा कि सोते हुये शेर के मुंह में हिरण नहीं घुसा करते।

------ विजय राजबली माथुर