........हम मजदूर वर्ग के लोग सब एक है.......जो मेहनत करके (खेती-खलिहान-कल-कारखानो मे) फसल उगाये वही उसका मालिक है.......जो दूसरों का मेहनत पर जीता है वो देश का दुश्मन है........... अपनी योग्यता के अनुसार सभी को काम पाने का अधिकार है और हर मेहनती इंसान को अपनी जरूरतों के अनुसार दाम पाने का हक है ...... आदि आदि। ................................................युवा शक्ति को इंटरनेट के जरिये विकृत यौन को उजागर करनेवाली विडियो-कहानिया आदि परोस रहे है ताकि उनके अंदर जवानी का ताकत कभी खुदीराम बोस, बिरसा मुंडा, भगत सिंह, आसफकुललाह, आदि के रूप मे न उभर सके वलकी वे एक यौन-बिकृत पशु की तरह गुलाम की जिंदगी को जीने मे ही अपना शान समझे।
Thursday, 28 December 2017
Monday, 25 December 2017
स्थापना दिवस 26 दिसंबर पर विशेष : भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ------ विजय राजबली माथुर
इस दल की स्थापना तो 1924 ई में विदेश में हुई थी। किन्तु 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर में एक सम्मेलन बुलाया गया था जिसके स्वागताध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी जी थे। 26 दिसंबर 1925 ई को एक प्रस्ताव पास करके 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की विधिवत घोषणा की गई थी। 1931 ई में इसके संविधान का प्रारूप तैयार किया गया था किन्तु उसे 1943 ई में पार्टी कांग्रेस के खुले अधिवेन्शन में स्वीकार किया जा सका क्योंकि तब तक ब्रिटिश सरकार ने इसे 'अवैध'घोषित कर रखा था और इसके कार्यकर्ता 'कांग्रेस' में रह कर अपनी गतिविधियेँ चलाते थे।
वस्तुतः क्रांतिकारी कांग्रेसी ही इस दल के संस्थापक थे। 1857 ई की क्रांति के विफल होने व निर्ममता पूर्वक कुचल दिये जाने के बाद स्वाधीनता संघर्ष चलाने हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती (जो उस क्रांति में सक्रिय भाग ले चुके थे)ने 07 अप्रैल 1875 ई (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा-नव संवत्सर)को 'आर्यसमाज' की स्थापना की थी। इसकी शाखाएँ शुरू-शुरू में ब्रिटिश छावनी वाले शहरों में ही खोली गईं थीं। ब्रिटिश सरकार उनको क्रांतिकारी सन्यासी (REVOLUTIONARY SAINT) मानती थी। उनके आंदोलन को विफल करने हेतु वाईस राय लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से एक रिटायर्ड ICS एलेन आकटावियन (A.O.)हयूम ने 1885 ई में वोमेश चंद (W.C.) बैनर्जी की अध्यक्षता में 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना करवाई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा करना था। दादा भाई नैरोजी तब कहा करते थे -''हम नस-नस में राज-भक्त हैं''।
स्वामी दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गए और उसे स्वाधीनता संघर्ष की ओर मोड दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' में डॉ पट्टाभि सीता रमइय्या ने लिखा है कि गांधी जी के सत्याग्रह में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1906 में 'मुस्लिम लीग'फिर 1916 में 'हिंदूमहासभा' का गठन भारत में सांप्रदायिक विभाजन कराने हेतु करवाया। किन्तु आर्यसमाजियों व गांधी जी के प्रभाव से सफलता नहीं मिल सकी। तदुपरान्त कांग्रेसी डॉ हेद्गेवार तथा क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने अपनी ओर मिला कर RSS की स्थापना करवाई जो मुस्लिम लीग के समानान्तर सांप्रदायिक वैमनस्य भड़काने में सफल रहा।
इन परिस्थितियों में कांग्रेस में रह कर क्रांतिकारी आंदोलन चलाने वालों को एक क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना की आवश्यकता महसूस हुई जिसका प्रतिफल 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी'के रूप में सामने आया। ब्रिटिश दासता के काल में इस दल के कुछ कार्यकर्ता पार्टी के निर्देश पर कांग्रेस में रह कर स्वाधीनता संघर्ष में सक्रिय भाग लेते थे तो कुछ क्रांतिकारी गतिविधियों में भी संलग्न रहे। उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश को मुक्त कराना था। किन्तु 1951-52 के आम निर्वाचनों से पूर्व इस दल ने संसदीय लोकतन्त्र की व्यवस्था को अपना लिया था। इन चुनावों में 04.4 प्रतिशत मत पा कर इसने लोकसभा में 23 स्थान प्राप्त किए और मुख्य विपक्षी दल बना। दूसरे आम चुनावों में 1957 में केरल में बहुमत प्राप्त करके इसने सरकार बनाई और विश्व की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनाने का गौरव प्राप्त किया। 1957 व 1962 में लोकसभा में साम्यवादी दल के 27 सदस्य थे।
1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से ब्रिटिश सरकार हिल गई थी अतः उसकी चालों के परिणाम स्वरूप 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' की स्थापना डॉ राम मनोहर लोहिया,आचार्य नरेंद्र देव आदि द्वारा की गई। इस दल का उद्देश्य भाकपा की गतिविधियों को बाधित करना तथा जनता को इससे दूर करना था। इस दल ने धर्म का विरोधी,तानाशाही आदि का समर्थक कह कर जनता को दिग्भ्रमित किया। जयप्रकाश नारायण ने तो एक खुले पत्र द्वारा 'हंगरी' के प्रश्न पर साम्यवादी नेताओं से जवाब भी मांगा था जिसके उत्तर में तत्कालीन महामंत्री कामरेड अजय घोष ने कहा था कि वे स्वतन्त्रता को अधिक पसंद करते हैं किन्तु उन्होने विश्व समाजवाद के हित में सोवियत संघ की कार्यवाही को उचित बताया।
कभी विश्व की प्रथम निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना केरल में करवा चुकी भाकपा गलत लोगों का साथ देने व पार्टी में गलत लोगों को प्रश्रय देने से निरंतर संकुचित होती जा रही है। जो कभी कामरेड बी टी रणदिवे व कामरेड ए के गोपालन द्वारा कहा गया था कि हम संविधान में घुस कर संविधान को तोड़ देंगे अब उस पर RSS नियंत्रित सांप्रदायिक/साम्राज्यवाद समर्थक सरकार अमल करने जा रही है। एक-एक करके राज्यों में येन-केन-प्रकारेंण अपनी सरकारे स्थापित करके जब वह संविधान संशोधन करने में सक्षम हो जाएगी तो वर्तमान संविधान की जगह अपना अर्द्ध-सैनिक तानाशाही वाला संविधान थोप देगी। क्योंकि भाकपा 'संसदीय लोकतन्त्र' को अपनाने के बावजूद न तो चुनावों में सही ढंग से भाग ले रही है और न ही सही साथी का चुनाव कर रही है अतः जनता कम्युनिस्टों के नाम पर नक्सलवादियों को ही जानती है जिनको न तो व्यापक जन-समर्थन मिल सकता है न ही वे सरकार सशस्त्र विद्रोह के जरिये गठित कर सकते हैं। देश की हृदय-स्थली उत्तर प्रदेश में भाकपा को अकेले दम पर चलाने का ऐलान करने वाला मोदी की छाया और RSS/USA समर्थित केजरीवाल का अंध - भक्त है।
आज सर्वाधिक पुरानी राजनीतिक पार्टी की (क्योंकि 1885 में स्थापित INC तो 1969 में विभाजित होकर 1977 में जनता पार्टी में विलीन हो गई थी और आज की राहुल कांग्रेस तो 1969 में इन्दिरा गांधी द्वारा स्थापित इन्दिरा कांग्रेस है ) स्थापना के 92 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद जबकि केंद्र में सत्तारूढ़ सांप्रदायिक सरकार राज्यों में भी मजबूत होती जा रही है और समाजवाद के नाम पर भाकपा को पीछे धकेलने वाले दल एकजुट हो रहे हैं भाकपा के भीतर भाजपा के हितैषी मोदी-मुलायम भक्त उन दोनों महानुभावों से छुटकारा पाने की नितांत आवश्यकता है तभी पार्टी का विस्तार व लोकप्रियता प्राप्ति हो सकेगी।
पुनश्च :
एमर्जेंसी के इन्दिरा - देवरस गुप्त समझौते के जरिये 1980 में इन्दिरा जी की वापिसी और 1984 में राजीव जी का लोकसभा का बहुमत संघ के समर्थन से होने के बाद उसका दारा प्रत्येक राजनीतिक दल तक बढ़ गया है अतः तदनुरूप रणनीति बनाना समय की आवश्यकता है ------
Tuesday, 19 December 2017
सचेत होने, संगठित होने, पूंजीवादी ब्यबस्था के खिलाफ लम्बी संघर्ष के लिए तैयार होने की जरूरत है ------ Sunita B Moodee
****** भाकपा के राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान साहब ने नोटबंदी, GST, आधार कार्ड ,बेरोजगारी आदि विषयों पर जनता को हुये कष्टों का बेबाक उल्लेख करते हुये सचेत किया है । लेकिन हाल में सम्पन्न चुनावों में जनता ने एक बार फिर भाजपा को सत्तारूढ़ किया है। परंतु यदि कांग्रेस भी जीती होती तब भी जनता को क्या लाभ होता ? इस विषय पर Sunita B Moodee द्वारा व्यक्त उद्गार विचारणीय हैं ******
Sunita B Moodee
19-12-2017
बीते कल भाजपा के सु-शासन मे देश का और भी दो राज्य आ गया। लोग इस जीत को भी मोदी लहर का ही जीत माने के लिए मजबूर है। क्योकि हम मे से ज्यादा लोगो को अंदर का खेल सायद ही मालूम हो।
हम मे से बहुतों का मानना है की देश के गिरते हुये अर्थनीति को सुधारने के लिए जो दो-तीन दुःसाहसिक काम (जन-धन-आधार लिंक, नोट बंदी और GST) मोदी जी ने किए उन सब कदमो का सुफल विकास मे तेजी आई है जो आम जनता भी स्वीकार कर ली है। इसीलिए पूरा देश मे मोदी बिरोधी लहर के बाबजुद Vote Politics मे उसका कोई असर नहीं एडी रहा है।
दरअसल मौजूदा संकटग्रस्त पूंजीवादी विकास का कर्णधार शुरू से पूंजीपति वर्ग और उनके सबसे भरोसामंद पार्टी काँग्रेस पार्टी रहा है। अंग्रेज़ शासन के बिरासत मे मिले प्रशासन (जिसे देश आज़ादी के बाद जनता की आँको मे धूल झोकने के लिए थोड़ी बहुत हेर-फेर की गई ) ही आज़ाद भारत का नया (पूंजीवादी बाज़ार) तंत्र (जिसे जनवाद के नाम पर चलाया जा रहा है) को चलाते आ रहा है। इस तंत्र के शिखर पर बैठे अधिकारी ही देश का अर्थनीति-समाजनीति व राजनीति की रूपरेखा प्रस्तुत करती ही। इस तंत्र के पीछे पूंजीपति वर्ग का एक संगठित समूह और उनके पैसे से बनाए गए पार्टीयो (जैसा काँग्रेस, बीजेपी, समाजवादी पार्टी, जनता दल -यूनाइटेड, आदि) के जरिये भाड़े (पैसा और लालच के बल पर) का जन- समर्थन तंत्र को एक तरफ दिशा निर्देश देती है और दूसरी तरफ तंत्र को पूंजीपति वर्ग के हीत मे चलाने मे जो कठिनाई उत्पन्न होती है उसे आम जनो को बेकुफ़ बनाकर उस कठिनाओ को जनता के माथे मे कैसे मोड दिया जाए उसका नया नया तौर-तरीका (issues, strategy, slogan आदि) आदि निकाल कर पूंजी-तांत्रिक ब्यबस्था को टिकाये रखने का कम करती है।
जरा गौर से देखने और समझने का कौशिश करेंगे ये सारे मुद्दा (आधार लिंक, नोट-बंदी, GST) काँग्रेस पार्टी के शासन काल मे ही उभरा। तंत्र के प्रशासन के शिखर पर बैठे लोग और तंत्र के असली मालिक पूंजीपति वर्ग के कहने पर भी काँग्रेस ने आम जनता का दर से उन सभी मुद्दो को काँग्रेस पार्टी का मुद्दा बना नहीं सका। तब मालिक पूंजीपति वर्ग उनका दूसरे नंबर का बिश्वसनीय पार्टी बीजेपी को खुद (नरेंद्र मोदी जी को) नेता चुनकर देश ब्यापी काँग्रेस के खिलाफ प्रचार करके खड़ा किया और जन-समर्थन बटौरकर सत्ता मे बैठाया। सत्ता मे आते ही पूंजीवादी ब्यबस्था को सुदृढ़ करने वाली उन सभी कोंग्रेसी मुद्दो (जिसका बिरोध बीजेपी कल तक एक बिपक्षी पार्टी के रूप मे करता रहा) को देशभक्ति का जीगर उठाकर देश हीत मे आम जनो को बीमारी से मुक्त करने के लिए कड़वी दवाई कहकर पिलवा दिया।
लोगो मे पूंजीवादी प्रचार ब्यबस्था प्रचारित किया की देश हीत के लिए इतनी बड़ी दुःसाहसिक कदम आज तक कोई PM नहीं उठा सका। इसी कड़ी मे नया बैंकिंग (FRDI) बिल भी मोदी सरकार ला रही है।
बस इतना सब करवाकर मोदी जी को पूंजीपति वर्ग इस कदर का महान आदमी बनाना चाहेगा जैसा की वे कभी हमारा देश मे कभी गांधी जी को बनाया था । अगला 2019 MP चुनाव मे फिर काँग्रेस का वारी शुरू होगा जो लंबी समय तक चलेगा।
इसलिए हम मजदूर वर्ग के लिए सचेत होने, संगठित होने, पूंजीवादी ब्यबस्था के खिलाफ लम्बी संघर्ष के लिए तैयार होने की जरूरत है। न की खुश होने की। क्योकि उपरवर्णित इन सब मुद्दो के सफल कार्यान्वयन से पूंजीवादी ब्यबस्था मजबूत होने के साथ और पूंजीवादी शोषण-जुल्म का मार आम जानो का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हालात को कमजोर ही नहीं ध्वस्त कर देगा।
Friday, 15 December 2017
Friday, 1 December 2017
संगठन कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं का किया गया या कि सर्वहारा का ! ------ Virendra Kumar
जो पार्टियाँ या कार्यकर्ता यह मानते हैं कि उनकी पार्टी को सत्ता प्राप्त करना है चाहे वह बुलेट से चाहते हों या बैलॉट से, वह क्रांतिकारी या मार्क्सवादी नहीं हो सकते हैं.
कम्युनिस्ट पार्टियाँ एवं उनके नेता एवं कार्यकर्ता मुगालते में हैं कि वह कम्युनिस्ट क्रांति का कार्य कर रहे हैं. जो पार्टियाँ या कार्यकर्ता यह मानते हैं कि उनकी पार्टी को सत्ता प्राप्त करना है चाहे वह बुलेट से चाहते हों या बैलॉट से, वह क्रांतिकारी या मार्क्सवादी नहीं हो सकते हैं. कम्युनिस्ट क्रांति का एक ही कार्य होता है जिसे किसी ने नहीं किया और जो कर रहे थे उन्होंने छोड़ दिया. वह कार्य था सर्वहारा आंदोलन (सर्वहारा के संघर्ष) को आगे ले जाना.
अगर वो ऐसा करते तो सर्वहारा लगातार बड़ी से बड़ी संख्या में संगठित होती जाती और संगठन एवं संघर्षों (वर्ग-हित के संघर्षों) के कारण उनमें राजनीतिक चेतना का विकास होता जाता और वर्गीय चेतना के कारण वह एक विशाल वर्ग में तब्दील हो जाते. तब वह चुनावों में जीत कर अपनी सत्ता कायम करते और अपने को शासक वर्ग के रूप में तब्दील कर देते. जो नहीं हो सका. जैसा मैने समझा है मार्क्सवाद के मुताबिक क्रांति का सारांश लोगों को सर्वहारा के वर्ग-हित के आधार पर संगठित करने में निहित है.
सारे के सारे कम्युनिस्ट भूल गये कि कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में राज्य के बारे में क्या लिखा है. वहाँ सर्वहारा के प्रतिनिधि के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता नहीं लिखा है बल्कि लिखा है - 'शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा'. मार्क्सवाद तो मानता है कि प्रतिनिधियों की सत्ता, चाहे जिस किसी रूप में हो, उसका चरित्र बुर्जुआ ही होता है. सर्वहारा क्रांति के बाद, बुर्जुआ से छीन कर, उत्पादन के सारे साधन राज्य यानि संगठित सर्वहारा के हाथों में केंद्रित करना है न कि राज्य यानि सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में.
अगर ऐसा हुआ तो क्या होगा? कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो के मुताबिक वर्गों एवं वर्ग शत्रुता वाले पुराने बुर्जुआ समाज की जगह होगा - एक अशोसिएशन जिसमें सबों के विकास की शर्त होगी प्रत्येक का विकास.
आप सभी जानते हैं कि ऐसा हुआ या नहीं या क्या हुआ, सत्ता कम्युनिस्ट पार्टियों के हाथों गई या सर्वहारा के हाथों में, संगठन कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं का किया गया या कि सर्वहारा का. मेरी आलोचना तीखी है, बहुतों को बुरा लग सकता है. किंतु मैंने उनकी नियत पर चोट नहीं किया है. वह काफ़ी अच्छे लोग हैं. उनमें सच्चाई (भूल) स्वीकार करने का साहस होना चाहिए.
Excerpts from Communist Manifesto:
… … …
“We have seen above, that the first step in the revolution by the working class is to raise the proletariat to the position of ruling class to win the battle of democracy.”
“The proletariat will use its political supremacy to wrest, by degree, all capital from the bourgeoisie, to centralise all instruments of production in the hands of the State, i.e., of the proletariat organised as the ruling class; and to increase the total productive forces as rapidly as possible.”
… … …
“When, in the course of development, class distinctions have disappeared, and all production has been concentrated in the hands of a vast association of the whole nation, the public power will lose its political character. Political power, properly so called, is merely the organised power of one class for oppressing another. If the proletariat during its contest with the bourgeoisie is compelled, by the force of circumstances, to organise itself as a class, if, by means of a revolution, it makes itself the ruling class, and, as such, sweeps away by force the old conditions of production, then it will, along with these
conditions, have swept away the conditions for the existence of class antagonisms and of classes generally, and will thereby have abolished its own supremacy as a class.”
“In place of the old bourgeois society, with its classes and class antagonisms, we shall have an association, in which the free development of each is the condition for the free development of all.”
https://www.facebook.com/virendra.kumar.9003/posts/1801206513224789
Virendra Kumar
कम्युनिस्ट या सर्वहारा! :कम्युनिस्ट पार्टियाँ एवं उनके नेता एवं कार्यकर्ता मुगालते में हैं कि वह कम्युनिस्ट क्रांति का कार्य कर रहे हैं. जो पार्टियाँ या कार्यकर्ता यह मानते हैं कि उनकी पार्टी को सत्ता प्राप्त करना है चाहे वह बुलेट से चाहते हों या बैलॉट से, वह क्रांतिकारी या मार्क्सवादी नहीं हो सकते हैं. कम्युनिस्ट क्रांति का एक ही कार्य होता है जिसे किसी ने नहीं किया और जो कर रहे थे उन्होंने छोड़ दिया. वह कार्य था सर्वहारा आंदोलन (सर्वहारा के संघर्ष) को आगे ले जाना.
अगर वो ऐसा करते तो सर्वहारा लगातार बड़ी से बड़ी संख्या में संगठित होती जाती और संगठन एवं संघर्षों (वर्ग-हित के संघर्षों) के कारण उनमें राजनीतिक चेतना का विकास होता जाता और वर्गीय चेतना के कारण वह एक विशाल वर्ग में तब्दील हो जाते. तब वह चुनावों में जीत कर अपनी सत्ता कायम करते और अपने को शासक वर्ग के रूप में तब्दील कर देते. जो नहीं हो सका. जैसा मैने समझा है मार्क्सवाद के मुताबिक क्रांति का सारांश लोगों को सर्वहारा के वर्ग-हित के आधार पर संगठित करने में निहित है.
सारे के सारे कम्युनिस्ट भूल गये कि कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में राज्य के बारे में क्या लिखा है. वहाँ सर्वहारा के प्रतिनिधि के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता नहीं लिखा है बल्कि लिखा है - 'शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा'. मार्क्सवाद तो मानता है कि प्रतिनिधियों की सत्ता, चाहे जिस किसी रूप में हो, उसका चरित्र बुर्जुआ ही होता है. सर्वहारा क्रांति के बाद, बुर्जुआ से छीन कर, उत्पादन के सारे साधन राज्य यानि संगठित सर्वहारा के हाथों में केंद्रित करना है न कि राज्य यानि सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में.
अगर ऐसा हुआ तो क्या होगा? कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो के मुताबिक वर्गों एवं वर्ग शत्रुता वाले पुराने बुर्जुआ समाज की जगह होगा - एक अशोसिएशन जिसमें सबों के विकास की शर्त होगी प्रत्येक का विकास.
आप सभी जानते हैं कि ऐसा हुआ या नहीं या क्या हुआ, सत्ता कम्युनिस्ट पार्टियों के हाथों गई या सर्वहारा के हाथों में, संगठन कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं का किया गया या कि सर्वहारा का. मेरी आलोचना तीखी है, बहुतों को बुरा लग सकता है. किंतु मैंने उनकी नियत पर चोट नहीं किया है. वह काफ़ी अच्छे लोग हैं. उनमें सच्चाई (भूल) स्वीकार करने का साहस होना चाहिए.
Excerpts from Communist Manifesto:
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“We have seen above, that the first step in the revolution by the working class is to raise the proletariat to the position of ruling class to win the battle of democracy.”
“The proletariat will use its political supremacy to wrest, by degree, all capital from the bourgeoisie, to centralise all instruments of production in the hands of the State, i.e., of the proletariat organised as the ruling class; and to increase the total productive forces as rapidly as possible.”
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“When, in the course of development, class distinctions have disappeared, and all production has been concentrated in the hands of a vast association of the whole nation, the public power will lose its political character. Political power, properly so called, is merely the organised power of one class for oppressing another. If the proletariat during its contest with the bourgeoisie is compelled, by the force of circumstances, to organise itself as a class, if, by means of a revolution, it makes itself the ruling class, and, as such, sweeps away by force the old conditions of production, then it will, along with these
conditions, have swept away the conditions for the existence of class antagonisms and of classes generally, and will thereby have abolished its own supremacy as a class.”
“In place of the old bourgeois society, with its classes and class antagonisms, we shall have an association, in which the free development of each is the condition for the free development of all.”
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