Thursday, 19 July 2018

इस नए आपातकाल का अभी नामकरण किया जाना शेष है ------ डा. गिरीश


इस नए आपातकाल का अभी नामकरण किया जाना शेष है


डा. गिरीश


आपातकाल और उसकी ज्यादतियां इतिहास की वस्तु बन गयी हैं. संघ, उसके पिट्ठू संगठनों, भाजपा और उनकी सरकार ने विपर्यय की आवाज को कुचलने की जो पध्दति गड़ी है इतिहास को अभी उसका नामकरण करना शेष है. फासीवाद, नाजीवाद, अधिनायकवाद, तानाशाही और इमरजेंसी आदि सभी शब्द जैसे बौने बन कर रह गये हैं. चार साल में जनहित के हर मुद्दे पर पूरी तरह से असफल हो चुका सत्ताधारी गिरोह जनता की, विपक्ष की, गरीबों की, दलितों महिलाओं और अल्पसंख्यकों की प्रतिरोध की हर आवाज को रौंदने में कामयाब रहा है.
झारखंड में स्वामी अग्निवेश पर भारतीय जनता युवा मोर्चा और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा किये गये कातिलाना हमले से उन लोगों की आँखों से पर्दा हठ जाना चाहिये जो आज भी संघ गिरोह को एक धर्म विशेष के रक्षक के रूप में माने बैठे हैं. स्वामी अग्निवेश एक ऐसे सन्यासी हैं जो पाखण्ड और पोंगा पंथ की व्यवस्था से जूझ रहे हैं. वे मानव द्वारा मानव के शोषण पर टिकी लुटेरी व्यवस्था के उच्छेद को तत्पर समाजसेवी हैं. उन पर हुआ कातिलाना हमला दाभोलकर, कालबुर्गी, गोविन्द पंसारे और गौरी लंकेश की हत्याओं की कड़ी को आगे बढाने वाला है.
अभी कल ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मौब लिंचिंग की घटनाओं पर सरकारों को फटकार लगायी थी और उसके विरुध्द क़ानून बनाने का निर्देश दिया था. क़ानून अब भी कई हैं और एक नया क़ानून और भी बन जाएगा पर क्या यह क़ानून सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े गिरोह पर लागू हो पायेगा यह सवाल तो आज से ही मुहँ बायें खडा है.
अग्निवेश पर हमला उस विद्यार्थी संगठन ने किया है जो “ज्ञान शील और एकता” का मुखौटा लगा कर भोले भाले छात्रों को मारीच- वृत्ति से बरगला कर कतारों में शामिल कर लेता है और फिर उन्हें कथित बौध्दिक के नाम पर सांप्रदायिक और उन्मादी नागरिक बनाता है. उत्तर प्रदेश के कासगंज में इस संगठन द्वारा मचाये उत्पात की भेंट इन्हीं की कतारों का एक नौजवान चढ़ गया था जिसका दोष उस क्षेत्र के अल्पसंख्यकों के मत्थे मढ़ दिया गया. मैंने उस वक्त भी यह सवाल उठाया था कि अभिवावक अपने स्कूल जाने वाले बच्चों को इस गिरोह की गिरफ्त से बाहर रखें ताकि वे इसकी साजिशों के शिकार न बनें. यह सवाल में आज फिर दोहरा रहा हूँ.
पर सवाल कई और भी हैं. शशि थरूर ने जिस शब्दाबली का प्रयोग किया उससे असहमत होते हुये भी कहना होगा कि उससे कई गुना आपत्तिजनक और दूसरों की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाली शब्दाबली भाजपा नेता, मंत्रीगण और प्रवक्ता आये दिन प्रयोग करते रहते हैं. तब न विद्यार्थी परिषद का खून उबलता है, न युवा मोर्चा का न बजरंग दल का. पर थरूर के दफ्तर पर हमला बोला जाता है.
दादरी से शुरू हुयी मौब लिंचिंग आज तक जारी है और उसके निशाना दलित और अल्पसंख्यक बन रहे हैं. प्रतिरोध की आवाज उठाने वाले संगठन ‘भीम सेना’ के नेतृत्व और कार्यकर्ताओं को जेल के सींखचों के पीछे डाला जाता है तो कलबुर्गी और गोविन्द पंसारे के कातिलों को क़ानून के हवाले करने के लिये उच्च न्यायालय को जांच एजेंसियों को बार बार हिदायत देनी पड़ रही है. जिसने भी भाजपा की घोषित कुटिलताओं के खिलाफ बोला संघ के अधिवक्तागण अदालतों में मुकदमे दर्ज करा देते हैं. हर सामर्थ्यवान विपक्षी नेता के ऊपर कोई न कोई जांच बैठा दी जाती है. ऊपर से प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष आये दिन धमकी भरे बयान देते रहते हैं.
यहाँ तक कि गांधी नेहरू जैसे महापुरुषों को अपमानित करना और विपक्ष के नेताओं पर अभद्र टिप्पणी करना रोजमर्रा की बात होगई है. लेकिन यदि कोई विपक्षी किसी महापुरुष पर टिप्पणी कर दे तो यह आस्था का सवाल बन जाता है और उस पर चहुँतरफा हमला बोला जाता है. फिल्म, पेंटिंग और कला के अन्य हिस्सों को दकियानूसी द्रष्टिकोण से हमले का शिकार बनाया जाता है.
अफ़सोस की बात है इन सारी अर्ध फासिस्टी कारगुजारियों को मीडिया खास कर टीवी चैनलों से ख़ासा प्रश्रय मिलता है. मीडिया का बड़ा हिस्सा आज तटस्थ द्रष्टिकोण पेश करने के बजाय शासक गिरोह का माऊथपीस बन कर काम कर रहा है.
आपातकाल के दिनों में लोगों पर शासन आपातकाल के विरोध का आरोप मढ़ता था और उन्हें जेलों में डाल देता था. संजय गांधी के नेतृत्व वाली एक युवा कांग्रेस थी जो उत्पात मचाती थी. लेकिन वह न तो इतनी संगठित थी और न इतनी क्रूर. कोई सुनिश्चित लक्ष्य भी नहीं थे. शुरू की कुछ अवधि को छोड़ मीडिया ने भी ज्यादतियों के खुलासे करना शुरू कर दिया था. अदालतें भी काम कर रहीं थीं. शूरमा संघी तो इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय कार्यक्रम और संजय गांधी के 5 सूत्रीय कार्यक्रम में आस्था व्यक्त कर रिहाई पारहे थे. आज लोकतान्त्रिक सेनानी पेंशन और अन्य सुविधायें पाने वालों में से अधिकतर वही आपातकाल के भगोड़े हैं.
पर आज स्थिति एकदम विपरीत है. न आरोप लगाने वाली कोई वैध मशीनरी है न कोई न्याय प्रणाली है. गिरोह अभियोग तय करता है और सजा का तरीका और सजा भी वही तय करता है. ‘कातिल भी वही है मुंसिफ भी वही है.’ सत्ता शिखर यदि तय कर ले कि क़ानून हाथ में लेने वाले क़ानून के हवाले होंगे तो इनमें से कई का पतलून गीला होजायेगा. पर वह या तो मौन साधे रहता है या फिर कभी फर्जी आंसू बहा कर कि – ‘मारना है तो मुझे मार दो’ एक ओर उन्हें शह देता है तो दूसरी ओर झूठी वाहवाही बटोरता है.
हालात बेहद नाजुक हैं. कल दाभोलकर, कालबुर्गी, गोविन्द पानसरे और गौरी लंकेश निशाना बने थे तो आज स्वामी अग्निवेश को निशाना बनाया गया. कल फिर कोई और निशाने पर होगा. पर ये तो जन-हानि है जो दिखाई देरही है. पर जो प्रत्यक्ष नहीं दिख रहा वह है लोकतंत्र की हानि, संविधान की हानि और सहिष्णुता पर टिके सामाजिक ढांचे की हानि है. समय रहते इसकी रक्षा नहीं की गयी तो देश और समाज एक दीर्घकालिक अंधायुग झेलने को अभिशप्त होगा.
डा. गिरीश.
( लेखक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल के सचिव एवं भाकपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं )

Tuesday, 17 July 2018

ब्राह्मण कामरेड चाहे मास्को रिटर्ण्ड हो या पेकिंग: दिल-दिमाग से संघी ही होगा ------ विजय राजबली माथुर






1964 में भाकपा का विभाजन कहने के लिए तो चीनी आक्रमण का समर्थन और विरोध के नाम पर हुआ था लेकिन उसके पीछे असलियत यही थी कि, ब्राह्मण कामरेड्स को लगा कहीं obc और sc कामरेड्स हावी न हो जाएँ इसलिए सुरक्षित  ठिकाना  तलाशा गया था  फिर तीन वर्ष बाद 1967 में नकसलबाड़ी  आंदोलन के नाम पर माकपा के ब्राह्मण वाद के विरुद्ध बगावत व एक और विभाजन हुआ जिसके बाद तो काम्यूनिस्ट आंदोलन के विभाजन - दर - विभाजन का सिलसिला चल निकला तथा आज सौ से अधिक गुट या पार्टियां मौजूद हैं। सभी गुट और पार्टियां खुद को  ' नास्तिक ' - एथीस्ट घोषित करती हैं व  कार्ल मार्क्स एवं शहीद भगत सिंह की आड़ लेती हैं। 
 इधर  कुछ वर्षों में बंगाल CPM से कामरेड्स  भाजपा में शामिल हुये हैं  और केरल CPM में भाजपा कार्यकर्ता शामिल किए गए हैं। अब राहुल कांग्रेस की ही तरह CPM भी पोंगा - पंथ का सहारा लेती दीख रही है। 
बात राम की करनी है तब हमें यथार्थ - सत्य का सहारा लेना चाहिए न कि, पोंगा - पंथ, ढोंग और आडंबर का। इस संबंध में अपना एक पुराना लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसका लाभ कम्युनिस्ट विद्वान उठा सकते हैं। 
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Wednesday, October 21, 2015
'रावण वध’भारतीय ऋषियों द्वारा नियोजित एवं पूर्व निर्धारित योजना थी ------ विजय राजबली माथुर
 एक निवेदन-

आज कुछ लोगों को यह प्रयास हास्यास्पद इसलिए लग सकता है क्योंकि आम धारणा है कि हमारा देश जाहिलों का देश था और हमें विज्ञान से विदेशियों ने परिचित कराया है.जबकि यह कोरा भ्रम ही है.वस्तुतः हमारा प्राचीन विज्ञान जितना  आगे था उसके किसी भी कोने तक आधुनिक विज्ञान पहुंचा ही नहीं है.हमारे पोंगा-पंथियों की मेहरबानी से हमारा समस्त विज्ञान विदेशी अपहृत कर ले गये और हम उनके परमुखापेक्षी बन गये ,इसीलिये मेरा उद्देश्य "अपने सुप्त ज्ञान को जनता जाग्रत करे" ऐसे आलेख प्रस्तुत करना है.मैं प्रयास ही कर सकता हूँ ,किसी को भी मानने या स्वीकार करने क़े लिये बाध्य नहीं कर सकता न ही कोई विवाद खड़ा करना चाहता हूँ .हाँ देश-हित और जन-कल्याण की भावना में ऐसे प्रयास जारी ज़रूर रखूंगा.  मैं देश-भक्त जनता से यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि,हमारी परम्परा में देश-हित,राष्ट्र-हित सर्वोपरी रहे हैं.

सत्य,सत्य होता है और इसे अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता.एक न एक दिन लोगों को सत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा तथा ढोंग एवं पाखण्ड का भांडा फूटेगा ही फूटेगा.राम और कृष्ण को पूजनीय बना कर उनके अनुकरणीय आचरण से बचने का जो स्वांग ढोंगियों तथा पाखंडियों ने रच रखा है उस पर प्रहार करने का यह मेरा छोटा सा प्रयास था.


प्रस्तुत आलेख मूल रूप से आगरा से प्रकाशित साप्ताहिक सप्तदिवा क़े २७ अक्तूबर १९८२ एवं ३ नवम्बर १९८२ क़े अंकों में दो किश्तों में पूर्व में ही प्रकाशित हो चुका है  तथा इस ब्लॉग ( क्रांतिस्वर ) पर भी पहले प्रकाशित किया जा चुका है.पूर्व में प्रकाशित इस आलेख की अशुद्धियों को यथासम्भव सुधारते हुए तथा पाठकों की सुविधा क़े लिये यहाँ पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है।

जिन लोगों की बुद्धि और मस्तिष्क पैर के तलवों मे रहता हो उनसे 'तर्क' की अपेक्षा नहीं की जा सकती है वे तो ढोंग-पाखंड-आडंबर को बढ़ावा देने  मे अपना 'कार्पोरेटी' हित देखते हैं क्योंकि वे जन-कल्याण की भावना से कोसों दूर हैं। प्रस्तुत विश्लेषण अपने संक्षिप्त रूप मे 'मेरठ कालेज पत्रिका',मेरठ मे भी 1971 मे प्रकाशित हुआ था।
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  " आज से दो अरब वर्ष पूर्व हमारी पृथ्वी और सूर्य एक थे.एस्त्रोनोमिक युग में सर्पिल,निहारिका,एवं नक्षत्रों का सूर्य से पृथक विकास हुआ.इस विकास से सूर्य के ऊपर उनका आकर्षण बल आने लगा .नक्षत्र और सूर्य अपने अपने कक्षों में रहते थे तथा ग्रह एवं नक्षत्र सूर्य की परिक्रमा किया करते थे.एक बार पुछल तारा अपने कक्ष से सरक गया और सूर्य के आकर्षण बल से उससे टकरा गया,परिणामतः सूर्य के और दो टुकड़े चंद्रमा और पृथ्वी उससे अलग हो गए और सूर्य  की परिक्रमा करने लगे.यह सब हुआ कास्मिक युग में.ऐजोइक युग में वाह्य सतह पिघली अवस्था में,पृथ्वी का ठोस और गोला रूप विकसित होने लगा,किन्तु उसकी बाहरी सतह अर्ध ठोस थी.अब भारी वायु –मंडल बना अतः पृथ्वी की आंच –ताप कम हुई और राख जम गयी.जिससे पृथ्वी के पपडे  का निर्माण हुआ.महासमुद्रों व महाद्वीपों  की तलहटी का निर्माण तथा पर्वतों का विकास हुआ,ज्वालामुखी के विस्फोट हुए और उससे ओक्सिजन निकल कर वायुमंडल में HYDROGEN से प्रतिकृत हुई जिससे करोड़ों वर्षों तक पर्वतीय चट्टानों पर वर्षा हुई तथा जल का उदभव हुआ;जल समुद्रों व झीलों के गड्ढों में भर गया.उस समय दक्षिण भारत एक द्वीप  था तथा अरब सागर –मालाबार तट तक विस्तृत समुद्र उत्तरी भारत को ढके हुए था;लंका एक पृथक द्वीप था.किन्तु जब नागराज हिमालय पर्वत की सृष्टि हुई तब इयोजोइक युग में वर्षा के वेग के कारण  उससे ऊपर मिटटी पिघली बर्फ के साथ समुद्र तल  में एकत्र हुई और उसे पीछे हट जाना पड़ा तथा उत्तरी भारत का विकास हुआ.इसी युग में अब से लगभग तीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय  वनस्पतियों व बीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय  का उदभव हुआ.एक कोशिकाएं ही भ्रूण विकास के साथ समय प्रत्येक जंतु विकास की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं.सबसे प्राचीन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाए जाते,अस्तु उस समय लार्वा थे,जीवोत्पत्ति नहीं हुई थी.उसके बाद वाली चट्टानों में (लगभग बीस करोड़ वर्ष पूर्व)प्रत्जीवों (protojoa) के अवशेष मिलते हैं अथार्त सर्व प्रथम जंतु ये ही हैं.जंतु आकस्मिक ढंग से कूद कर(ईश्वरीय प्रेरणा के कारण ) बड़े जंतु नहीं हो गए,बल्कि सरलतम रूपों का प्रादुर्भाव हुआ है जिन के मध्य हजारों माध्यमिक तिरोहित कड़ियाँ हैं.मछलियों से उभय जीवी (AMFIBIAN) उभय जीवी से सर्पक (reptile) तथा सर्पकों से पक्षी (birds) और स्तनधारी (mamals) धीरे-धीरे विकास कर सके हैं.तब कहीं जा कर सैकोजोइक युग में मानव उत्पत्ति हुई।(यह गणना आधुनिक विज्ञान क़े आधार पर है,परतु अब से दस लाख वर्ष पूर्व मानव की उत्पत्ति तिब्बत ,मध्य एशिया और अफ्रीका में एक साथ युवा पुरुष -महिला क़े रूप में हुई)

 ‘communism of wives’ का काल  : 

अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था.इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था.कोई किसी की संपति (asset) न थी,समूहों का नेत्रत्व मातृसत्तात्मक  (mother oriented) था.इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाषाण काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है.परिवार के सम्बन्ध में यह ‘अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मातृ सत्तामक समूह रहे हों).इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था.मानव के ह्रास –विकास की कहानी सतत संघर्षों को कहानी है.malthas के अनुसार उत्पन्न संतानों में आहार ,आवास,तथा प्रजनन के अवसरों के लिए –‘जीवन के लिए संघर्ष’ हुआ करता है जिसमे प्रिंस डी लेमार्क के अनुसार ‘व्यवहार तथा अव्यवहार’ के सिद्दंतानुसार ‘योग्यता ही जीवित रहती है’.अथार्त जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी वहीँ वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया. 

 ‘उत्तर पाषाण काल’ : 

कालांतर में तेज बुद्धि मनुष्य ने पत्थर और काष्ठ के उपकरणों तथा शस्त्रों का अविष्कार किया तथा जीवन पद्धति को और सरल बना लिया.इसे ‘उत्तर पाषाण काल’ की संज्ञा दी गयी.पत्थरों के घर्षण से अग्नि का अविष्कार हुआ और मांस को भून कर खाया जाने लगा.धीरे धीरे मनुष्य ने देखा की फल खा कर फेके गए बीज किस प्रकार अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का आकार ग्रहण कर लेते हैं.एतदर्थ उपयोगी पशुओं को अपना दास बनाकर मनुष्य कृषि करने लगा.यहाँ विशेष स्मरणीय तथ्य यह है की जहाँ कृषि उपयोगी सुविधाओं का आभाव रहा वहां का जीवन पूर्ववत ही था.इस दृष्टि से गंगा-यमुना का दोआबा विशेष लाभदायक रहा और यहाँ उच्च कोटि की सभ्यता का विकास हुआ जो आर्य सभ्यता कहलाती है और यह क्षेत्र आर्यावर्त.कालांतर में यह जाति सभ्य,सुसंगठित व सुशिक्षित होती गयी.व्यापर कला-कौशल और दर्शन में भी यह जाति  सभ्य थी.इसकी सभ्यता और संस्कृति तथा नागरिक जीवन एक उच्च कोटि के आदर्श थे.भारतीय इतिहास में यह काल ‘त्रेता युग’ कें नाम से जाना जाता है और इस का समय ६५०० इ. पू.  आँका गया है(यह गणना आधुनिक गणकों की है,परन्तु अब से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व राम का काल आंका गया है तो त्रेता युग  भी उतना ही पुराना होगा) .आर्यजन काफी विद्वान थे.उन्होंने अपनी आर्य सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रसार किया.इस प्रकार आर्य जाति  और भारतीय सभ्यता संस्कृति गंगा-सरस्वती के तट से पश्चिम की और फैली.लगभग चार हजार वर्ष पश्चात् २५०० इ.पू.आर्यों ने सिन्धु नदी की घाटी में एक सुद्रढ़ एवं सुगठित सभ्यता का विकास किया.यही नहीं आर्य भूमि से स्वाहा और स्वधा के मन्त्र पूर्व की और भी फैले तथा आर्यों के संस्कृतिक प्रभाव से ही इसी समय नील और हवांग हो की घाटियों में भी समरूप सभ्यताओं का विकास हो सका.

पूर्व में कोहिमा के मार्ग से : 
भारत से आर्यों की एक शाखा पूर्व में कोहिमा के मार्ग से चीन,जापान होते हुए अलास्का के रास्ते  राकी पर्वत श्रेणियों में पहुच कर पाताल लोक(वर्तमान अमेरिका महाद्वीपों में अपनी संस्कृति एवं साम्राज्य बनाने में समर्थ हुई.मय ऋषि के नेत्रतव में मयक्षिको (मेक्सिको) तथा तक्षक ऋषि के नेत्रत्व में तकसास  (टेक्सास) के आर्य उपनिवेश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं कालांतर में कोलंबस द्वारा नयी दुनिया की खोज के बाद इन के वंशजों को red indians कहकर निर्ममता से नष्ट किया गया.

हिन्दुकुश पर्वतमाला को पार कर :

पश्चिम की ओर  हिन्दुकुश पर्वतमाला को पार कर आर्य जाति  आर्य नगर (ऐर्यान-ईरान) में प्रविष्ट हुई.कालांतर में यहाँ के प्रवासी आर्य,अ-सुर (सुरा न पीने के कारण) कहलाये.दुर्गम मार्ग की कठिनाइयों के कारण  इनका अपनी मातृ भूमि  आर्यावर्त से संचार –संपर्क टूट सा गया,यही हाल धुर-पश्चिम -जर्मनी आदि में गए प्रवासी आर्यों का हुआ.एतदर्थ प्रभुसत्ता को लेकर निकटवर्ती  प्रवासी-अ-सुर आर्यों से गंगा-सिन्धु के मूल आर्यों का दीर्घकालीन भीषण देवासुर संग्राम हुआ.हिन्दुकुश से सिन्धु तक भारतीय आर्यों का  नेतृत्व  एक कुशल सेनानी इंद्र कर रहा था.यह विद्युत्  शास्त्र का प्रकांड विद्वान और हाईड्रोजन  बम का अविष्कारक था.इसके पास बर्फीली गैसें थीं.इसने युद्ध में सिन्धु-क्षेत्र  में असुरों को परास्त  किया,नदियों के बांध तोड़ दिए,निरीह गाँव में आग लगा दी और समस्त प्रदेश को पुरंदर (लूट) लिया.यद्यपि इस युद्ध में अंतिम विजय मूल भारतीय आर्यों की ही हुई और सभी प्रवासी(अ-सुर) आर्य पराग्मुख हुए.परन्तु सिन्धु घाटी के आर्यों को भी भीषण नुकसान हुआ।:
दक्षिण और सुदूर दक्षिण पूर्व  : 

आर्यों ने दक्षिण और सुदूर दक्षिण पूर्व की अनार्य जातियों में भी सांस्कृतिक  प्रसार किया.आस्ट्रेलिया (मूल द्रविड़ प्रदेश) में जाने वाले सांस्कृतिक  दल का नेतृत्व  पुलस्त्य मुनि कर रहे थे.उन्होंने आस्ट्रेलिया में एक राज्य की स्थापना की (आस्ट्रेलिया की मूल जाति  द्रविड़ उखड कर पश्चिम की और अग्रसर हुई तथा भारत के दक्षिणी -समुद्र तटीय निर्जन भाग पर बस गयी.समुद्र तटीय जाति  होने के कारण ये-निषाद जल मार्ग से व्यापार  करने लगे,पश्चिम के सिन्धी आर्यों से इनके घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध हो गए.) तथा लंका आदि द्वीपों से अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए उनकी मृत्यु के पश्चात् राजा  बनने  पर उन के पुत्र विश्र्व मुनि की गिद्ध दृष्टि लंका के वैभव की ओर गयी.उसने लंका पर आक्रमण किया और राजा  सोमाली को हराकर भगा दिया(सोमाली भागकर आस्ट्रेलिया के निकट एक निर्जन  द्वीप पर बस गया जो  उसी के नाम पर सोमालिया कहलाता है.) 

रक्षस - राक्षस अथार्त आर्यावर्त और आर्य संस्कृति की रक्षा करने वाले : 

इस साम्राज्यवादी लंकेश्वर के तीन पुत्र थे-कुबेर,रावण,और विभीषण -ये तीनों परस्पर सौतेले भाई थे.पिता की म्रत्यु के पश्चात् तीनों में गद्दी के लिए संघर्ष हुआ.अंत में रावण को सफलता मिली.(आर्यावर्त से परे दक्षिण के ये आर्य स्वयं को रक्षस - राक्षस अथार्त आर्यावर्त और आर्य संस्कृति की रक्षा करने वाले ,कहते थे;परन्तु रावण मूल आर्यों की भांति सुरा न पीकर मदिरा का सेवन करता था इसलिए  वह भी अ-सुर अथार्त सुरा  न पीने वाला कहलाया) विभीषण ने धैर्य पूर्वक रावण की प्रभुसत्ता को स्वीकार किया तथा उस का विदेश मंत्री बना और कुबेर अपने पुष्पक विमान द्वारा भागकर आर्यावर्त चला आया.प्रयाग के भारद्वाज मुनि उसके नाना थे.उनकी सहायता से वह स्वर्गलोक (वर्तमान हिमांचल प्रदेश) में एक राज्य स्थापित करने में सफल हुआ.किन्तु रावण ने चैन की साँस न ली,वह कुबेर के पीछे हाथ धो कर पड़ गया था.उसने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया अनेक छोटे छोटे राजाओं को परस्त करता हुआ वह बाली क़े राज्य में घुस आया. बाली ने ६ माह तक उसकी सेना को घेरे रखा अंत में दोनों क़े मध्य यह फ्रेंडली एलायंस हो गया कि यदि रावण और बाली की ताकतों पर कोई तीसरी ताकत आक्रमण करे तो  वे एक दूसरे की मदद करेंगे.,अब रावण ने स्वर्ग लोक तक सीढी बनवाने अथार्त सब आर्य राजाओं को क्रमानुसार विजय करने का निश्चय किया.उस समय आर्यावर्त में कैकय,वज्जि,काशी,कोशल,मिथिला आदि १६ प्रमुख जनपद थे.कहा जाता है कि  एक बार रावण ईरान,कंधार आदि को जीतता हुआ कैकय राज्य  वर्तमान गंधार प्रदेश (रावलपिंडी के निकट जो अब पाकिस्तान में है) तक पहुँच  गया.यही राज्य स्वर्गलोक (हिमाचल प्रदेश) अंतिम सीढ़ी (आर्य राज्य) था.किन्तु रावण इस सीढ़ी को बनवा (जीत) न सका.कैकेय राज्य को सभी शक्तिशाली राज्यों से सहायता मिल रही थी.उधर पश्चिम क़े  प्रवासी अ-सुर आर्यों से आर्यावर्त के आर्यों का संघर्ष चल ही रहा था अतः रावण को उनका समर्थन प्राप्त होना सहज और स्वाभाविक था.अतः कैकेय भू पर ही खूब जम कर देवासुर संग्राम हुआ.इस संघर्ष में कोशल नरेश दशरथ ने अमिट योगदान  दिया.उन्हीं क़े  असीम शौर्य पराक्रम से कैकेय राज्य की स्वतंत्रता स्थिर रही और रावण  को वापस लौटना पड़ा जिसका उसे मृत्यु  पर्यंत खेद रहा. कैकेय क़े राजा ने दशरथ से प्रसन्न होकर अपनी पुत्री कैकयी का विवाह कर दिया;तत्कालीन प्रथा क़े अनुसार विवाह क़े अवसर पर दिये जाने वाले दो वरदानों में से दशरथ ने कैकयी से फिर मांग लेने को कहा.

रावण के वध के निमित्त योजना : 


बस यहीं से रावण के वध के निमित्त योजना तैयार की जाने लगी.कुबेर के नाना भरद्वाज ऋषि ने आर्यावर्त के समस्त ऋषियों की एक आपातकालीन बैठक प्रयाग में बुलाई.दशरथ के प्रधान मंत्री  वशिष्ठ मुनि भी विशेष आमंत्रण से इस सभा में भाग लेने गए थे.ऋषियों ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया जिसके अनुसार दशरथ का जो प्रथम पुत्र उत्पन्न हो, उसका नामकरण‘राम’ हो तथा उसे राष्ट्र रक्षा के लिए १४ वर्ष का वनवास करके रावण के साम्राज्यवादी इरादों को नेस्तनाबूत करना था.इस योजना को आदिकवि  वाल्मीकि ने जो इस सभा क़े अध्यक्ष थे,संस्कृत साहित्य में काव्यमयी भाषा में अलंकृत किया.अवकाशप्राप्त रघुवंशी राजा और रॉकेट क़े आविष्कारक विश्वामित्र ने दशरथ क़े पुत्रों का गुरु बनने और उनके पथ प्रदर्शक क़े रूप में काम करने का भार ग्रहण किया.वशिष्ठ ने किसी भी कीमत पर राम को रावण वध से पूर्व शासन  संचालन न करने देने की शपथ खाई.इस योजना को अत्यंत गुप्त रखा गया.

आर्यावर्त क़े चुनिन्दा सेनापतियों तथा कुशल वैज्ञानिकों (वायु-नरों या वानरों) को रावण वध में सहायता करने हेतु दक्षिण प्रदेश में निवास करने की आज्ञा मिली.  सौभाग्यवश दशरथ के चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः राम,भारत,लक्ष्मण,शत्रुहन ऋषियों की योजना के अनुरूप ही वशिष्ठ ने रखे.राम और लक्ष्मण को कुछ बड़े होने पर युद्ध,दर्शन,और राष्ट्रवादी धार्मिकता की की दीक्षा देने  के लिए विश्वामित्र अपने आश्रम ले गए.उन्होंने राम को उन के निमित्त तैयार ऋषियों की राष्ट्रीय  योजना का परिज्ञान कराया तथा युद्ध एवं दर्शन की शिक्षा दी.आर्यावर्त की पौर्वात्य और पाश्चात्य दो महान शक्तियों में चली आ रही कुलगत  शत्रुता का अंत करने के उद्देश्य से विश्वमित्र राम और लक्ष्मण को अपने साथ जनक की पुत्री सीता  के स्वयंवर में मिथिला ले गए.उन्होंने राम को ऋषि योजनानुकूल  जनक का धनुष तोड़ने  की प्रतिज्ञा  का परिज्ञान कराकर उसे तोड़ने  की तकनीकी  कला समझा दी.इस प्रकार राम-सीता के विवाह द्वारा समस्त  आर्यावर्त एकता के सूत्र में आबद्ध हो गया।


राम के विवाह के दो वर्ष पश्चात् प्रधानमंत्री वशिष्ठ ने दरबार (संसद) में राजा को उनकी वृद्धावस्था का आभास कराया और राम को उत्तराधिकार सौपकर अवकाश प्राप्त करने की  ओर संकेत दिया.राजा ने संसद के इस प्रस्ताव का स्वागत किया;सहर्ष ही दो दिवस की अल्पावधि में पद त्याग करने की  घोषणा की .एक ओर तो राम के राज्याभिषेक (शपथ ग्रहण समारोह) की  जोर शोर से तैय्यारियाँ आरंभ हो गयीं तो दूसरी ओर प्रधान मंत्री ने राम को सत्ता से पृथक  रखने की  साजिश शुरू की.मन्थरा को माध्यम बना कर कैकयी को आस्थगित वरदानों में इस अवसर पर प्रथम तो भरत के लिए राज्य व द्वितीय राम के लिए वनवास १४ वर्ष की  अवधि के लिए,दिलाने के लिए भड़काया,जिसमे उन्हें सफलता मिल गयी.इस प्रकार दशरथ की मौन स्वीकृति  दिलाकर राज्य की अंतिम मोहर दे कर राम-वनवास का घोषणा पत्र  राम को भेंट किया.राम,सीता  और लक्ष्मण को गंगा  पर (राज्य की  सीमा तक) छोड़ने  मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य सुमंत (विदेश मंत्री) को भेजा गया. अब राम के राष्ट्रीय कार्य-कलापों का श्री गणेश हुआ.सर्वप्रथम तो आर्यावर्त के प्रथम डिफेंस सेण्टर प्रयाग में भारद्वाज ऋषि के आश्रम पर राम ने उस राष्ट्रीय योजना का अध्ययन किया जिसके अनुसार उन्हें रावण  का वध करना था.भारद्वाज ऋषि ने राम को कूटनीति  की प्रबल शिक्षा दी.क्रमशः अग्रिम डिफेंस सेंटरों (विभिन्न ऋषियों के आश्रमों) का निरीक्षण  करते हुए राम ने पंचवटी में अपना दूसरा शिविर डाला जो आर्यावर्त से बाहर वा-नर प्रदेश में था जिस पर रावण के मित्र बाली का प्रभाव था.चित्रकूट में राम को अंतिम सेल्यूट  दे कर पुनीत कार्य के लिए विदा दे दी गयी थी.अतः अब राम ने अस्त्र (शस्त्र भी) धारण कर लिया था .पंचवटी में रहकर उन का कार्य प्रतिपक्षी को युद्ध के लिए विवश करना था.यहाँ रहकर उन्होंने लंका के विभिन्न गुप्तचरों तथा एजेंटों का वध किया.इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर राष्ट्रद्रोही जयंत का गर्व चूर किया खर-दूषण नामक  रावण  के दो बंधुओं का सर्वनाश किया.सतत अपमान के समाचारों को प्राप्त करते-करते रावण का खून खौलने  लगा उसने अपने मामा को (जो भांजे के प्रति भक्ति न रखकर स्वार्थान्धता वश  विदेशियों के प्रति लोभ पूर्ण  आस्था रखता था) राम के पास जाने का आदेश दिया और स्वयं वायुयान द्वारा गुप्तरूप से पहुँच गया.राम को मारीच की लोभ-लोलुपता तथा षड्यंत्र की सूचना लंका स्थित उनके गुप्तचर ने बे-तार के तार से दे दी थी अतः उन्होंने मारीच को दंड देने का निश्चय किया.वह उन्हें युद्ध में काफी दूर ले गया तथा छल से लक्ष्मण को भी संग्राम में भाग लेने को विवश किया.अब रावण ने भिक्षुक  के रूप में जा कर सीता को लक्ष्मण द्वारा की गयी इलेक्ट्रिक वायरिंग (लक्ष्मण रेखा) से बाहर  आकर दान देने के लिए विवश किया और उनका अपहरण कर विमान द्वारा लंका ले गया.

 बाली- रावण friendly aliance : 


जब राम लक्ष्मण के साथ मारीच का वध कर के लौटे तो सीता को न पाकर और संवाददाता से पूर्ण समाचार पाकर राम ने अपने को भावी लक्ष्य की पूर्ती में सफल समझा.अब उन्हें उपनिवेशाकांक्षी रावण  के साम्राज्यवादी समझबूझ के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का मार्ग तो मिल गया था,किन्तु जब तक बाली- रावण friendly aliance था लंका पर आक्रमण करना एक बड़ी मूर्खता थी,यद्यपि  अयोध्या में शत्रुहन के नेतृत्व  में समस्त आर्यावर्त की सेना उन की सहायता के लिए तैयार खडी  थी.अतः बाली का पतन करना अवश्यम्भावी था.उसका अनुज सुग्रीव राज्याधिकार हस्तगत करने को लालायित था.इसलिए उसने सत्ता प्राप्त करने के पश्चात् रावण  वध में सहायता करने का वचन दिया.राम ने सुग्रीव का पक्ष ले कर बाली को द्वन्द युद्ध में मार डाला क्योंकि यदि राम (अवध से सेना बुलाकर उसके राज्य पर)प्रत्यक्ष आक्रमण करते तो बाली का बल दो-गुना हो जाता.(बाली रावण friendly allaince के अनुसार केवल बाली ही नहीं,बल्कि रावण की सेना से भी भारत भू पर ही युद्ध करना पड़ता) जो किसी भी हालत में भारत के हित में न था.यह आर्यावर्त की सुरक्षा के लिए संहारक  सिद्ध होता.राम को तो साम्राज्यवादियों के घर में ही उन को नष्ट करना था.उनका उद्देश्य लंका को आर्यावर्त में मिलाना नहीं था.अपितु भारतीय राष्ट्रीयता को एकता के सूत्र में आबद्ध करने के पश्चात् राम का अभीष्ट लंका में ही लंका वालों का ऐसा मंत्रिमंडल बनाना था जो आर्यावर्त के साथ सहयोग कर सके.विभीषण तो रावण  का प्रतिद्वंदी था ही,अतः राम ने उसे अपनी ओर तोड़ेने के लिए एयर मार्शल (पवन-सूत) हनुमान को अपना दूत बनाकर गुप्त रूप से लंका भेजा.उन्हें यह निर्देश था की यदि समझौता हो जाता है तो वह रावण के सामने अपने को अवश्य प्रकट कर दें .किन्तु हनुमान की Diplomacy यह है की उन्होंने रावण दरबार में बंदी के रूप में उपस्थित होने पर स्वयं को राम का शांती दूत बताया.इसी आधार पर विभीषण ने (जो सत्ता पिपासु हो कर भाई के प्रति विश्वासघात कर रहा था) अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक नियमों की आड़ में हनुमान को मुक्त करा दिया.परन्तु रावण के निर्देशानुसार लंका की वायु सेना ने लौट ते हुए हनुमान के यान की पूँछ पर प्रहार किया.कुशलता पूर्वक आत्मरक्षित हो कर हनुमान ने लंका में अग्नि बमों (नेपाम बमों) की वर्षा कर सेना का विध्वंस किया जिससे लंका का वैभव नष्ट हो गया तथा सैन्य शक्ति जर्जर हो गयी.रावण  ने संसद ( दरबार) में विभीषण पर राजद्रोह का  अभियोग लगाकर मंत्रिमंडल से निष्कासित कर दिया।

लंका को जर्जर और खोखला बनाकर राम ने जब आक्रमण किया तो इसकी घोषणा सुनते ही  मौके पर विभीषण अपने समर्थकों सहित राम की शरण में चला आया.राम ने उसी समय उसे रावण का उत्तराधिकारी घोषित किया और राज्याभिषेक भी कर दिया.इस प्रकार पारस्परिक द्वेष के कारण  वैभवशाली एवं सम्रद्ध लंका साम्राज्य का पतन और रावण का अंत हुआ.लंका में विभीषण की सरकार स्थापित हुई जिसने आर्यावर्त की अधीनता तथा राम को कर देना विवशता पूर्वक स्वीकार किया.लंका को आर्यावर्त के अधीन करदाता राज्य बनाकर राम ने किसी साम्राज्य की स्थापना नहीं की बल्कि उन्होंने राष्ट्रवाद की स्थापना कर आर्यावर्त में अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता की सुदृढ़  नींव डाली.

सीता लंका से मुक्त हो कर स्वदेश लौटीं.इस प्रकार रावण वध का एकमात्र कारण  सीता हरण नहीं कहा जा सकता,बल्कि 'रावण  वध’भारतीय ऋषियों द्वारा नियोजित एवं पूर्व निर्धारित योजना थी;उसका सञ्चालन राष्ट्र के योग्य,कर्मठ एवं राजनीती निपुण कर्णधारों के हाथ में था जिसकी बागडोर कौशल-नरेश राम ने संभाली.राम के असीम त्याग,राष्ट्र-भक्ति और उच्चादर्शों के कारन ही आज हम उनका गुण गान करते हैं-मानो ईश्वर  इस देश की रक्षा के लिए स्वयं ही अवतरित हुए थे।
http://krantiswar.blogspot.com/2015/10/blog-post_5.html

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18-07-2018 
जिस प्रकार CPM व अन्य वामपंथी उक्त ढोंग का बचाव कर रहे हैं उससे पूरे के पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन पर लांछन लग रहे हैं , यथा ------

Friday, 13 July 2018

कोई शक्ति अब सहारा नहीं ; व्यवस्था पूंजी की दासी बन चुकी है ------ हेमंत कुमार झा

* सबसे पहले श्रमिक आंदोलनों की धार को भोथरा करने की कोशिशें शुरू हुई और उनके अधिकारों को पुनर्परिभाषित करने के नाम पर उन्हें पूंजी का गुलाम बनाने की तमाम साजिशें रची जाने लगी। मध्य वर्ग ने इसमें सत्ता का साथ दिया।
* * नई सदी आते-आते हवा में घुले जहर ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और जब विभिन्न सरकारी निर्माण इकाइयों, होटलों, सेवा प्रदाता कंपनियों आदि के निजीकरण के बाद लुब्ध पूंजी की निगाहें सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन आदि के क्षेत्र पर पड़नी शुरू हुई तो खतरे की घण्टियां बजने लगीं।
*** निजीकरण के जयजयकार के दौर को याद करिये। और...आज के दौर की दुर्गतियों का उत्स उस दौर में तलाशिये। शायद...कोई रास्ता नजर आए। अपने लिये न सही, अपने बच्चों की पीढ़ी के लिये नए रास्तों की तलाश बेहद जरूरी है।
Hemant Kumar Jha
12 -07-2018 
1990 के दशक में आर्थिक सुधारों के नाम पर जब निजीकरण और विनिवेशीकरण का दौर शुरू हुआ तो उसका स्वागत और समर्थन करने वालों में मध्य वर्ग सबसे आगे था। अब, 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध में जब सत्ता संपोषित निर्मम मुनाफाखोरों के हाथ इस वर्ग की जेब से लेकर गिरेबान तक पहुंच चुके हैं तो लुटने के अलावा इनके पास और कोई विकल्प नहीं।

आर्थिक उदारवाद के नाम पर स्थापित होती कारपोरेट संस्कृति का यह तार्किक निष्कर्ष ही तो है... जिसमें निम्न वर्ग को तो स्वाभाविक शिकार बनना ही था, मध्य वर्ग को भी पूरी तरह निचोड़ने की तैयारी हो चुकी है।

यूरोप की जितनी जनसंख्या है उतनी तो भारत में सिर्फ मध्य वर्ग के लोग रहते हैं। इनकी बढ़ती क्रय शक्ति और बढ़ते लालच पर दुनिया भर की कंपनियों की निगाहें लगी रही हैं। सत्ता-संरचना के बदलते स्वरूप ने निजी पूंजी को नियंता की भूमिका में ला दिया। प्रभावी शक्ति से नियंता बनने की निजी पूंजी की यह यात्रा ढाई-तीन दशकों में मील के कई पत्थरों को पार कर चुकी है।

सबसे पहले श्रमिक आंदोलनों की धार को भोथरा करने की कोशिशें शुरू हुई और उनके अधिकारों को पुनर्परिभाषित करने के नाम पर उन्हें पूंजी का गुलाम बनाने की तमाम साजिशें रची जाने लगी। मध्य वर्ग ने इसमें सत्ता का साथ दिया।

ठहरी हुई सी अर्थव्यवस्था में उदारवाद एक ताजा हवा के झोंके की तरह था और मध्य वर्ग को यह सुहाना लग रहा था। इस ताजी हवा में घुले जहर का अंदाजा लोग नहीं कर पा रहे थे। यही कारण था कि उस दौर में जब निजीकरण की संभावित विभीषिकाओं पर कोई आलेख या कोई वक्तव्य आता था तो लोग उनकी खिल्ली उड़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते थे। निजीकरण का हर विरोधी सीधे कम्युनिस्ट ही नजर आता था और उसे सोवियत विघटन सहित पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट शासनों के ढहने के ताने दिए जाते थे।

नई सदी आते-आते हवा में घुले जहर ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और जब विभिन्न सरकारी निर्माण इकाइयों, होटलों, सेवा प्रदाता कंपनियों आदि के निजीकरण के बाद लुब्ध पूंजी की निगाहें सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन आदि के क्षेत्र पर पड़नी शुरू हुई तो खतरे की घण्टियां बजने लगीं। 
खतरे की इन घण्टियों की आवाज को मन्दिरवाद, मंडलवाद, राष्ट्रवाद आदि के शोर से दबाने की पुरजोर और कामयाब कोशिशें होने लगीं। नई सदी का भारतीय समाज धर्म और जाति के आधार पर अधिक विभाजित था क्योंकि यही राजनीतिक संस्कृति की मांग बन गई थी।

श्रमिकों और निम्न वर्ग के लोगों के साथ सत्ता-संरचना के सुनियोजित अन्याय के खिलाफ मध्यवर्ग ने कभी मुंह नहीं खोला क्योंकि उदारवाद की फसल काटने वालों में ये भी शामिल रहे। इनकी आमदनी बढ़ी और वित्तीय संस्थानों की उदार शर्त्तों के तहत प्राप्त ऋण से इन्होंने उपभोक्ता सामग्रियों से अपना घर भरना शुरू किया।

"...जो भी सरकारी है वह बेकार है..." की अवधारणा को जब बहुत व्यवस्थित और साजिशपूर्ण तरीके से स्थापित किया जा रहा था तो मध्य वर्ग ने इसका भी पूरा साथ दिया। चाहे सार्वजनिक परिवहन का मामला हो या सरकारी स्कूल और अस्पतालों का, इस वर्ग ने यथासंभव उनकी उपेक्षा की। मान लिया गया कि सरकारी स्कूल और अस्पताल सिर्फ गरीबों के लिये हैं और इनकी बदहाली उनकी समस्या नहीं है। जिसे जितना पैसा, उसके बच्चे उतने महंगे सरकारी स्कूल में, उसके बीमार परिजन उतने महंगे अस्पताल में। जिसे कम पैसा...तो उसके लिये बी या सी ग्रेड के प्राइवेट स्कूल या अस्पताल।

देश की विशाल वंचित आबादी के संघर्षों से अपने को पूरी तरह काट कर मध्य वर्ग ने अपने अलग सरोकार विकसित किये। इसलिये... प्रतिगामी राष्ट्रवाद को भी खाद पानी देने में इस वर्ग ने कोई अधिक गुरेज नहीं किया। नई सदी का भारतीय मध्य वर्ग वैचारिक स्तरों पर जितना खोखलेपन का शिकार है और जिस कदर आत्मकेंद्रित है, अतीत में ऐसा कभी नहीं हुआ।

तो...अब...मुनाफाखोर पूंजी के हाथ मध्य वर्ग की जेब से आगे बढ़ कर गिरेबान तक पहुंच चुके हैं। बच्चे को मेडिकल की पढ़ाई करानी है तो जीवन भर की कमाई के साथ ही पैतृक संपत्ति का भी होम कर दो तो ही बात बनेगी, अच्छे संस्थान में इंजीनियरिंग पढ़ाना है तो इतना खर्च करना होगा जितना कभी सोचा भी न था। बच्चे में प्रतिभा होने के बावजूद अगर नहीं दे सकते इतना पैसा तो भाड़ में जाओ। कोई सरकार, कोई अदालत, कोई शक्ति अब सहारा नहीं। व्यवस्था पूंजी की दासी बन चुकी है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को स्वायत्तता देने के नाम पर कारपोरेट कंपनियों में तब्दील किया जा रहा है, जहां से बच्चों को बी ए और एम ए करवाने में भी लाखों का खर्च आएगा। नहीं है औकात तो मत पढ़ाओ अपने बच्चों को और भेज दो उन्हें महानगरों में, जहाँ वे दिहाड़ी पर काम करते हुए एड़ियां घिसते रहेंगे।
सरकारी अस्पतालों की बदहाली पर चुप रहने वाले लोग अब बीमार पड़ते हैं तो निजी अस्पतालों के अलावा विकल्प नहीं। बीमारी कहीं गम्भीर निकली तो लुटने और बिकने के लिये तैयार रहो।

मध्य वर्ग लुट कर भी, बिक कर भी अपने बच्चों को पढ़ाएगा, अपने परिजनों का इलाज करवाएगा...। तो...उन्हें लूटने के लिये, खरीदने के लिये पूंजी की शक्तियां तैयार बैठीं हैं। इसी की तो तैयारी हो रही थी ढाई तीन दशकों से। यही तो है उदारवाद के नाम पर निजीकरण...और फिर अंधाधुंध निजीकरण का निष्कर्ष। राष्ट्र-राज्य के नागरिक के रूप में हमारे अधिकारों का अतिक्रमण कर हमें पूंजी की निर्मम शक्तियों के हवाले कर दिया गया है और हम खुद को विकल्पहीन पा रहे हैं।

बीते चार-पांच वर्षों में विभिन्न टैक्सों का जितना बोझ लादा गया है, मध्य वर्ग पर इतना बोझ अतीत में कभी नहीं था। निम्न वर्ग को तो इंसान समझने से भी इंकार करने वाली यह व्यवस्था मध्य वर्ग को भी हर स्तर पर निचोड़ने के लिये अब पूरी तरह तैयार है। 
निजीकरण के जयजयकार के दौर को याद करिये। और...आज के दौर की दुर्गतियों का उत्स उस दौर में तलाशिये। शायद...कोई रास्ता नजर आए। अपने लिये न सही, अपने बच्चों की पीढ़ी के लिये नए रास्तों की तलाश बेहद जरूरी है।
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Friday, 6 July 2018

सुधा भारद्वाज...यूनियनिस्ट, एक्टिविस्ट और वकील..एक असल "इंसान" ------ Mahendra Dubey







06-07-2018 ·
इसी जनवरी में सुधा जी से दिल्ली "प्रेस क्लब" में बड़ी संक्षिप्त सी मुलाक़ात हुई मेरी ।

कल जब अर्णव अपनी काली ज़ुबान से tv पर जिसे अर्बन नक्सली बता कर भौंक रहा था , पढ़िए कौन और क्या हैं वो ।
साथी  Mahendra Dubey 
 द्वारा पिछले साल लिखा उनके बारे में ।
◆◆
गुरु...और कुछ मेरा लिखा चाहे तो पढ़ना या मत पढ़ना मगर गुजारिश है कि इस पोस्ट को जरूर पढना...इस पोस्ट में मैं आज आपको एक ऐसे शख्स से परिचित कराना चाहता हूँ जिनके जैसा होना हमारे आपके बस में शायद ही कभी हो। मिलिये इनसे...ये हैं कोंकणी ब्राह्मण परिवार की एकलौती संतान.... सुधा भारद्वाज...यूनियनिस्ट, एक्टिविस्ट और वकील...इन सब पुछल्ले नामों की बजाय आप इन्हें सिर्फ "इंसान" ही कह दें तो यकीन करिये आप "इंसानियत" शब्द को उसके मयार तक पहुँचा देंगे।
मैं 2005 से सुधा को जानता हूँ मगर अत्यंत साधारण लिबास में माथे पर एक बिंदी लगाये मजदूर, किसान और कमजोर वर्ग के लोगों के लिये छत्तीसगढ़ के शहर और गाँव की दौड़ लगाती इस महिला के भीतर की असाधारण प्रतिभा, बेहतरीन एकेडेमिक योग्यता और अकूत ज्ञान से मेरा परिचय इनके साथ लगभग तीन साल तक काम करने के बाद भी न हो सका था ....वजह ये कि इनको खुद के विषय में बताना और अपने काम का प्रचार करना कभी पसन्द ही नहीं था।
2008 में मैं कुछ काम से दिल्ली गया हुआ था उसी दौरान मेरे एक दोस्त को सुधा के विषय में एक अंग्रेजी दैनिक में वेस्ट बंगाल के पूर्व वित्तमंत्री का लिखा लेख पढ़ने को मिला। लेख पढ़ने के बाद उसने फोन करके मुझे सुधा की पिछली जिंदगी के बारे में बताया तो मैं सुधा की अत्यंत साधारण और सादगी भरी जिंदगी से उनके इतिहास की तुलना करके दंग रह गया। मैं ये जान के हैरान रह गया कि मजदूर बस्ती में रहने वाली सुधा 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर है....जन्म से अमेरिकन सिटीजन थी..और इंगलैंड में उनकी प्राइमरी एजुकेशन हुई है...आप सोच भी नहीं सकते है इस बैक ग्राउंड का कोई शख्स मजदूरो के साथ उनकी बस्ती में रहते हुए बिना दूध की चाय और भात सब्जी पर गुजारा कर रहा है।
सुधा की माँ कृष्णा भारद्वाज जेएनयू में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थी, बेहतरीन क्लासिकल सिंगर थी और अमर्त्य सेन के समकालीन भी थी। आज भी सुधा की माँ की याद में हर साल जेएनयू में कृष्णा मेमोरियल लेक्चर होता है जिसमे देश के नामचीन स्कालर शरीक होते है। आईआईटी से टॉपर हो कर निकलने के बाद भी सुधा को कैरियर खींच न सका और अपने वामपंथी रुझान के कारण वो 80 के दशक में छत्तीसगढ़ के करिश्माई यूनियन लीडर शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आयी और फिर उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना कार्य क्षेत्र ही बना लिया।
पिछले 35 साल से अधिक समय से छत्तीसगढ़ में मजदुर, किसान और गरीबों की लड़ाई सड़क और कोर्ट में लड़ते लड़ते इन्होंने अपनी माँ के पीएफ का पैसा तक उड़ा दिया। उनकी माँ ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था जो आजकल उनके नाम पर है मगर बस नाम पर ही है...मकान किराए पर चढाया हुआ है जिसका किराया मजदुर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को दिया हुआ है। जिस अमेरिकन सिटीजनशीप को पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार रहते है बाई बर्थ हासिल उस अमेरिकन सिटीजनशीप को वो बहुत पहले अमेरिकन एम्बेसी में फेंक कर आ चुकी है।
हिंदुस्तान में सामाजिक आंदोलन और सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े नाम सुविधा सम्पन्न है और अपने काम से ज्यादा अपनी पहुँच और अपने विस्तार के लिए जाने जाते है मगर जिनके लिए वो काम कर रहे होते है उनकी हालत में सुधार की कीमत पर अपनी लक्जरी छोड़ने को कभी तैयार नहीं दिखते है। इधर सुधा है जो अमेरिकन सिटीजनशीप और आईआईटियन टॉपर होने के गुमान को त्याग कर गुमनामी में गुमनामों की लड़ाई लड़ते अपना जीवन होम कर चुकी है।
बिना फ़ीस की जनवादी वकालत करने वाली और हाई कोर्ट जज बनाये जाने का ऑफर तक विनम्रतापूर्वक ठुकरा चुकी सुधा का शरीर जवाब देना चाहता है....35-40 साल से दौड़ते उनके घुटने घिस चुके है....उनके मित्र डॉक्टर उन्हें बेड में बाँध देना चाहते है...मगर गरीब, किसान और मजदुर की एक हलकी सी चीख सुनते ही उनके पैरों में चक्के लग जाते है और फिर वो अपने शरीर की सुनती कहाँ है ?
उनके घोर वामपंथी होने की वजह से उनसे मेरे वैचारिक मतभेद रहते है मगर उनके काम के प्रति समर्पण और जज्बे के आगे मै हमेशा नतमस्तक रहां हूँ। मैं दावे के साथ कहता हूँ कि अगर उन्होंने अपने काम का 10 प्रतिशत भी प्रचार किया होता तो दुनिया का कोई ऐसा पुरुस्कार न होगा जो उन्हें पाकर खुद को सम्मानित महसूस न कर रहा होता। सुधा होना मेरे आपके बस की बात नहीं है....सुधा सिर्फ सुधा ही हो सकती थी और कोई नही।
सुधा We love you...करोडो सलाम तुमको।
एक salute तो बनता है दोस्तों।

Ajit Sahni

साभार : 

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1665245573574093&set=a.164906040274728.32299.100002659993590&type=3

स्वम्य सुधा भारद्वाज जी ने साक्षात्कार में जो बताया उसे सुनें : 


Thursday, 5 July 2018

मोदी सरकार ने एमएसपी में वृद्धि के नाम पर किसानों को दिया ऐतिहास धोखा ------ अतुल अंजान


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार, 4 जुलाई को 2018-19 में अधिसूचित खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 50 फीसदी वृद्धि को ऐतिहासिक बताया है। वहीं, अखिल भारतीय किसान सभा ने इसे किसानों के साथ ऐतिहासिक धोखा करार दिया है।अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव अतुल अंजान  ने खरीफ फसलों के एमएसपी में वृद्धि के केंद्र सरकार के इस फैसले को किसानों के साथ धोखा बताया है। अंजान  ने कहा, "धान के एमएसपी में 200 रुपये की बढ़ोतरी किसानों के साथ ऐतिहासिक धोखा है।" 

अतुल अंजान  ने कहा कि उन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार, सी2 स्तर पर 50 फीसदी लाभ के साथ एमएसपी देने का आश्वासन दिया गया था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। अनजान जनशक्ति समाचार से कहा कि मोदी और बीजेपी से किसानों को बड़ी उम्मीद थी, इसलिए उन्होंने 2014 में भाजपा का साथ दिया था, लेकिन बीजेपी सरकार ने उनकी उम्मीदें पूरी नहीं की। गौरतलब है कि बुधवार को आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) ने फसल वर्ष 2018-19 (जुलाई-जून) की खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में उत्पादन लागत पर 50 फीसदी लाभ के साथ वृद्धि की घोषणा की थी। 

साभार : 
http://www.janshakti.co.in/category/national/akhil-bharatiya-kisan-sabha-general-secretary-atul-anjan-said-the-modi-government-gave-historic-hoax-to-farmers-in-the-name-of-increase-in-msp-499070?utm_campaign=pubshare&utm_source=facebook&utm_medium=636576523205237&utm_content=auto-link&utm_id=8171

Monday, 2 July 2018

सामाजिक - आर्थिक असमानता मिटाये बिना जनतंत्र संभव नहीं ------ सी पी भांबरी


आंबेडकरवादियों,  समाजवादियों और वामपंथियों का साझा कार्यक्रम पर आधारित गठबंधन परमावश्यक 


फोटो सौजन्य से एस आर दारापुरी साहब 

दैनिक जागरण,लखनऊ,02-07-2018