Thursday, 28 February 2019

जंग नहीं अमन चाहिए ------ प्रों॰ तैमूर रहमान


द्वितीय विश्व महायुद्ध के बाद हुये चुनावों में युद्ध प्रधानमंत्री चर्चिल की पार्टी की भारी पराजय हुई थी उनके बाद ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री बने  लेबर पार्टी के नेता मेजर एटली जिनके द्वारा पारित कानून के तहत भारत को विभाजित करके पाकिस्तान के साथ ही भारत की रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र कर दिया गया था। 
भारत का यह विभाजन तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की ख़्वाहिश के अनुसार किया गया था। यू एस ए की निगाह कश्मीर स्थित जोजीला दर्रे में उपस्थित प्लेटिनम पर लगी हुई थी। प्लेटिनम का प्रयोग यूरेनियम के निर्माण में होता है जो परमाणु ऊर्जा का स्त्रोत है। यू एस ए के इशारे पर ही कश्मीर के राजा हरी सिंह ने कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाए रखने की कोशिश की थी किन्तु पाकिस्तान द्वारा ब्रिटिश जनरल के इशारे पर कश्मीर पर कबाइलियों को आगे करके आक्रमण करने से घबड़ा कर राजा हरी सिंह ने भारत में कश्मीर का विलय जिस समझौते के तहत किया उसके संरक्षण हेतु संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रविधान किया गया है। 
तब से अब तक कश्मीर का एक भाग पाकिस्तान के कब्जे में चला आ रहा है और यू एस ए के इशारे पर पाकिस्तान अनावश्यक विवाद खींचता आ रहा है और कई युद्धों में पराजय का सामना करता रहा है। किन्तु यू एस ए अपनी हथियार कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए विश्व भर में तनाव फैलाता रहता है। 
पुलवामा पर आतंकी हमला और बाद की घटनाएँ यू एस ए के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को लाभ पहुंचाने वाली हैं। भारत के यू एस ए का साथ देने के कारण पाकिस्तान की अहमियत अब यू एस ए को नहीं रह गई है,  लेकिन भारत को कमजोर करने के लिए  वह पाकिस्तान के साथ- साथ भारत को और विभाजित करने के अभियान के तहत भारत की सत्तारूढ़ सरकार  को विभाजन व विभेदकारी नीतियों  पर चलने की शह दे रहा है। 
पाकिस्तान सरकार व सेना यू एस ए के दुष्चक्र को समझ रहे हैं और रिटायर्ड़ भारतीय जनरल भी इसलिए वे युद्ध के विरोध और शांति के पक्ष में हैं। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि, सत्तारूढ़ पार्टी और उसके एक नेता को कारपोरेट हितों की अधिक चिंता है बजाए देशहित के इसलिए राष्ट्रवाद के नाम पर युद्धोन्माद को भड़काया जा रहा है। 
प्रोफेसर तैमूर रहमान पाकिस्तान व भारत के वामपंथियों से इस साम्राज्यवादी साजिश के विरुद्ध खड़े होने का आव्हान कर रहे हैं जो समय की मांग है। 
------ विजय राजबली माथुर 







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01-03-2019 


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Thursday, 7 February 2019

संसदीय साम्यवाद को संसदीय लोकतन्त्र व देश की रक्षा हेतु कदम बढ़ाने की जरूरत ------ विजय राजबली माथुर

पाँच वर्ष पूर्व व्यक्त विचारों  का वर्तमान परिस्थितियों में परिवर्तित प्रस्तुतीकरण 
 " संसदीय साम्यवादी आंदोलन के कमजोर होने का अर्थ क्रांतिकारी गुटों को सबलता प्रदान करना है जिनको कुचलना कारपोरेट समर्थक सरकारों के लिए बहुत आसान होगा। आने वाले समय में उत्पीड़ित -शोषित जनता यदि इन क्रांतिकारी साम्यवादियों के समर्थन में खड़ी हो जाये तो ये सफलता की ओर भी बढ़ सकते हैं किन्तु उस दशा में कारपोरेट के समर्थन से RSS खुल कर इनके प्रतिरोध में हिंसा भड़का देगा और देश गृह-युद्ध की विभीषिका में फंस सकता है जिसका सीधा - सीधा लाभ अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी शक्तियों को मिलेगा। अभी भी समय है कि संसदीय साम्यवादी आंदोलन समय की नज़ाकत को पहचान कर कदम बढ़ा सकता है और संसदीय लोकतन्त्र व देश की रक्षा कर सकता है। "
Saturday, February 8, 2014





अंतिम  तीन चित्रों से ही सारी स्थिति स्पष्ट है। परंतु प्रत्येक व्यक्ति अपनी सोच व समझ के अनुसार अलग-अलग विश्लेषण करता है। जहां एक ओर परस्पर एकजुट 11 दल इसके महत्व को रेखांकित करते हैं वहीं दूसरी ओर इनके विरोधी इनके अंतर्विरोधों को उजागर करते हैं। जहां इन ग्यारह दलों का एका सांप्रदायिकता को रोकने के विरोध में बताया जा रहा है (वर्द्धन जी व मुलायम सिंह जी का हाथ थामे नीतीश कुमार उसी सांप्रदायिक भाजपा के साथ फिर से हैं ) वहीं इस बीच में ही इनमें से एक महत्वपूर्ण दल - भाकपा के लखनऊ - ज़िला मंत्री रह चुके, बाद में राष्ट्रवादी  कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वे- सर्वा बने, मुलायम सिंह मंत्रीमंडल के पूर्व सदस्य कौशल किशोर जी ने अपनी पार्टी का भाजपा में विलय करते हुये भाजपा को कांग्रेस, बसपा व सपा से कम सांप्रदायिक बताया है।

निश्चय ही अपने-अपने स्वार्थों के अनुसार परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाएगा। तब भी जो महत्वपूर्ण बात है वह यह है कि भाकपा में महत्वपूर्ण पदाधिकारी रहा व्यक्ति भाजपा में सहर्ष कैसे चला गया? हालांकि पहले भी भाकपा छोड़ कर एक महिला वकील भाजपा सरकार में मंत्री रही हैं । ऐसा क्यों होता है क्या सिर्फ व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण ही? फिर कम्युनिस्ट नैतिकता का क्या हुआ? साम्राज्यवाद के विरोधी साम्यवाद का सिपाही कैसे साम्राज्यवाद की सहोदरी सांप्रदायिकता का वरण कर लेता है? इस प्रश्न का जवाब देने से बचने हेतु स्वार्थ-लोलुपता का आरोप लगा देना बेहतर रहता है और वही किया गया है।

चन्द्र्जीत यादव भाकपा छोड़ कर कांग्रेस सरकार में मंत्री बने तब भी यही आरोप था। मित्रसेन यादव  और रामचन्द्र बख्श सिंह भाकपा से अलग हुये तब भी यही आरोप था। लेकिन प्रथम दो चित्रों में उल्लिखित  आरोप पर भी ध्यान देने की नितांत आवश्यकता है। 

'आत्मालोचना ' की चर्चा कम्युनिस्टों में आम बात है। लेकिन दलितों-पिछड़ों की उपेक्षा  से संबन्धित आत्मालोचना की आवश्यकता शायद  उचित नहीं  समझी गई है। डॉ अंबेडकर क्यों नहीं कम्युनिस्ट बन सके इस बात की आत्मालोचना करने के बजाए उनको ही साम्राज्यवाद का पोषक घोषित कर दिया गया है। क्यों डॉ अंबेडकर को यह कहना पड़ा कि हिन्दू के रूप में उनका जन्म न होता यह तो उनके बस में न था किन्तु हिन्दू के रूप में मृत्यु न हो यह उनके बस में है? और इसी लिए मृत्यु से छह माह पूर्व उन्होने 'बौद्ध मत 'ग्रहण कर लिया था। गौतम बुद्ध को क्यों प्रचलित कुरीतियों के विरोध में मुखर होना पड़ा और वे कुरीतियाँ क्यों और किसके हित में प्रचलित की गई थीं इस तथ्य पर ध्यान दिये बगैर केवल 'एथीस्ट' कहने या 'मार्क्स' का जाप करते रहने से भारत में 'साम्यवाद' को स्थापित नहीं किया जा सकता - न ही संसदीय लोकतन्त्र के जरिये और न ही सशस्त्र क्रान्ति के जरिये। यदि पारस्परिक फूट से साम्राज्यवाद 1857 की क्रांति को कुचलने में कामयाब न होता तो महात्मा गांधी को 'सत्य-अहिंसा ' की आवाज़ न बुलंद करनी पड़ती। जब साम्राज्यवाद विरोधी आपस में भिड़ कर खुद को कमजोर करते जाएँगे तब साम्राज्यवाद को खुद को मजबूत करने का अधिक प्रयत्न  भी नहीं करना पड़ेगा और जनता आसानी से गुमराह होती जाएगी। 

देशी-विदेशी कारपोरेट/RSS/मनमोहन गठजोड़ ने बड़ी चालाकी से आ आ पा/केजरीवाल को विकल्प के रूप में साम्राज्यवादी हितों के मद्देनजर खड़ा कर दिया है तथा साम्यवादी दलों में शामिल ' ब्राह्मणवादी ' खुल कर उनका समर्थन कर रहे हैं ।   इसी गुट ने दिवंगत कामरेड जंग बहादुर व कामरेड झारखण्डे राय की मूर्तियों का मुलायम सिंह जी द्वारा अनावरण होने से रुकवा दिया जबकि दिवंगत कामरेड सरजू पांडे की मूर्ती का अनावरण मुलायम सिंह जी द्वारा पूर्व में सम्पन्न हो चुका था। इसके पीछे कौन सी मनोदशा हो सकती है समझना कठिन नहीं है। वैसे एथीस्ट कम्युनिस्ट कैसे मूर्ती-पूजक हो गए? यह भी विचारणीय होना चाहिए क्योंकि 'पदार्थ-विज्ञान ' (MATERIAL-SCIENCE) पर आधारित यज्ञ-हवन का तो मखौल एथीस्ट के नाम पर ही उड़ाया जाता है। 

1925 में जबसे भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का प्रादुर्भाव हुआ है तभी से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने हितार्थ RSS का गठन इसकी काट के लिए करवा लिया था। 1930 में डॉ लोहिया/जयप्रकाश नारायण/आचार्य नरेंद्र देव की 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' (जिसकी उत्तराधिकारी आज की 'सपा' है) भी कम्युनिस्ट प्रभाव को क्षीण करने हेतु ही गठित हुई थी। डॉ लोहिया और जयप्रकाश जी की मदद से ही RSS भारतीय राजनीति में प्रभावी भूमिका में आ सका है।  2014 में   क्यों केरल की जन्मना ब्राह्मण जयललिता जी को अघोषित  रूप से भावी पी एम बनाने की पहल हुई ? क्यों नहीं उनके बजाए मायावती जी को पी एम बनाने की पहल हुई थी। 2019 का  यह चुनाव एक ऐतिहासिक अवसर लेकर आ रहा है जब कम्युनिस्ट आंदोलन डॉ अंबेडकर की उपेक्षा के आरोप से उबरने हेतु मायावती  जी का समर्थन करके लाभान्वित होने की कोशिश कर सकता है । 
 क्या एक मार्क्सवादी विचारक जेमिनी गणेशन की पुत्री होने के कारण रेखा साम्यवादी दलों का समर्थन नहीं प्राप्त कर सकती ?

इसी प्रकार पश्चिम बंगाल में यदि वामपंथी मोर्चा ममता बनर्जी से तालमेल करके चुनाव लड़े तो वहाँ की सभी सीटों पर जीत हासिल कर सकता है । सहृदयता और सादगी की छाप ममता जी में निम्न चित्र में उनकी हस्त-रेखाओं द्वारा स्पष्ट समझी जा सकती है। फिर 2014 की पसंद ब्राह्मण जयललिता के मुक़ाबले 2019 में ब्राह्मण ममता बनर्जी क्यों कुबूल नहीं हो रही हैं ?

2009 में सोनिया जी ने प्रणव मुखर्जी साहब को पी एम बनाना चाहा था किन्तु मनमोहन जी दुबारा बनने के लिए अड़े हुये थे और भय यह भी था कि वह बदले जाने की स्थिति में भाजपा के समर्थन से डटे रह सकते हैं। बीच में भी जब उनको राष्ट्रपति बनाने की कोशिश हुई तो ममता जी के सहज भाव से प्रेस में कह देने के कारण वह एलर्ट हो गए और जापान से लौटते में विमान में ही पत्रकार वार्ता में कह दिया कि वह जहां हैं वहीं ठीक हैं अर्थात यदि उनको हटाने का प्रयास हुआ तो वह भाजपा के समर्थन से डटे रहेंगे। उन्होने बड़ी चतुराई  से हज़ारे द्वारा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा  करवा दिया जिसकी उपज आ आ पा/ केजरीवाल हैं।

यदि मोदी - शाह की जोड़ी ने आर एस एस को ही चंगुल में लेने का प्रयास न किया होता तो आर एस एस नागपुर के सांसद और केंद्रीय मंत्री गडकरी साहब के जरिये उस जोड़ी की आलोचना न करवाता। 2019 के चुनावों में मोदी  - शाह की जोड़ी को हटाने के लिए भाजपा का अल्पमत में आना जरूरी है अन्यथा उनको हटाया न जा सकेगा। इसीलिए राहुल कांग्रेस को अप्रत्यक्ष रूप से आर एस एस का सीमित समर्थन मिलने की संभावना है तभी गडकरी साहब नेहरू जी की प्रशंसा कर रहे हैं और चिदम्बरम साहब गडकरी साहब की।
आर एस एस को भाजपा या कांग्रेस दोनों में किसी एक की सत्ता होने पर कोई दिक्कत नहीं होती है। बंगाल में CPM द्वारा भाजपा से मिल कर TMC को पंचायत चुनावों में परास्त करना आर एस एस के लिए बोनस है,  CPM की जमीन पर भाजपा अध्यक्ष का हेलीकाप्टर उतरना  उसके लिए उत्साहजनक घटना है। लेकिन वामपंथ के लिए यही घटना आत्मघाती सिद्ध होगी। 
यदि साम्राज्यवाद / सांप्रदायिकता का निर्मूलन करना है तो मायावती और ममता बनर्जी को वामपंथ का समर्थन मिलना चाहिए जो आज समय की आवश्यकता है।