Tuesday, 19 August 2014

भाजपा माले बनाम भाकपा माले की जंग---अनंत सिन्हा

मनुवादी माले के ढ़ांचे में भाजपा माले बनाम भाकपा माले की जंग:
मनुवाद का माले से गहरा रिश्ता है। माले के कुमार परवेज की भाषा से सत्यापित होता है कि माले के अंदर दो-दो माले है। पहला भाकपा माले और दूसरा है भाजपा माले। कुमार परवेज पिछले कई दिनों से लालू-नीतिश को मंडलवादी, बैकवर्डवादी, जातीवादी, पिछड़ावदी राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं। दरअसल यह भाषा तो भाजपा की है। भाजपा की भाषा में लालू-नीतिश की आलोचना करने वाले को भाजपा माले का सदस्य कहना गलत नहीं होगा। भाकपा माले की माउथपीस पत्रिका और स्वयं दीपंाकर जी भी इस भाषा का इस्तेमाल नहीं करते हैं। इनका आरोप होता है कि लालू नीतिश अस्मिता की राजनीति करते हैं। माले के अंदर मजबुत हो रही मनुवादी सोचं यानि भाजपा माले की शक्ति पर दीपंकर जी की चुप्पी से उनकी मजबूरी की कहानी सामने आ जाती हैं। जहां तक मैं दीपंकर जी को जानता हूॅ , उन्हें जातिवाद से लेना देना नहीं हैं। लेकिन संगठन में बैठे सवर्णे में खासतौर से भूमिहार लॉबी ने खासे परेशान कर रखा है। शायद यही वजह है कि माले अब वह माले नहीं रहा। गौर करने वाली बात यह भी है कि लालू-राबड़ी राज में माले का संघर्ष जितना अर्श पर था नीतिश राज में उतना ही फर्श पर। या तो नीतिश कुमार आन्दोलन करने का मौका ही नहीं दिया माले को या फिर माले में बैठे सवर्णो को नीतिश कुमार की सुशासन का हवा उन्हें आहलादित कर रहा था। क्योंकि यह सच है कि नीतिश कुमार के शासन काल स्वर्णो को पुनः पनपने का मौका मिला है। माले को बताना चाहिए कि वो लोकसभा चुनाव के वक्त लालू प्रसाद के पक्ष में भी ब्यान क्यों दिया था ? आज लालू-नीतिश एक हो गए तो इतना हाय तौबा क्यों ? इसका भी ज्वाब ढूढ़ना चाहिए भूमिहारों का बी टीम कहे जाने भाकपा से गठबंधन की क्या मजबूरी रही है।


सवर्ण कामरेड पार्टी छोड़गें तो भाजपा में ही जाएगें:
  इसके मनुवादी होने का दुसरा प्रमाण इसके ढ़ाचे और सांचे में सामाजिक न्याय का न होना भी है। स्वर्ण जाति के लोग पोलित ब्यूरों में बैठकर नीति-निर्धारण की भूमिका निभाते हैं। दलित-पिछड़ों की जिम्मेवारी जमीन पर लड़ना है। दलित-पिछड़े कामरेड जमीन पर लड़ते-लड़ते जीवन के अंतिम चरण में पहूंच जाते हैं। उनकी भूमिका सिपाही की बनीं रहती है। उदाहरण के तौर पर के डी यादव को ही लें। आज तक पोलित ब्यूरो के सदस्य नहीं बनें। जबकि के डी यादव के द्वारा प्रशिक्षित कामरेड पोलित ब्यूरो में बैठकर बुद्धि बघार रहे है। सिर्फ के डी यादव ही नहीं रामनरेश राम भी कहीं न कहीं माले के मनुवादी सोंच के शिकार रहे हैं। कामरेड राम काफी जद्दोजहद के बाद पोलित ब्यूरो के सदस्य बन पाये थे। कायदे से कर्म और व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर उन्हें पार्टी के सर्वोच्य पद विराजमान होकर दुनियां को अलविदा कहना चाहिए था। के डी यादव को दीपांकर की जगह पर आज तक क्यों नहीं बिठाया गया के सवाल पर माले के लोग बैकफुट पर आ जाते हैं। मनुवादी भाषा कहते फिरेगें कि के डी यादव माले सम्मानित कामरेड है। अरे भाई यह कैसा सम्मान है कि कर्म के अनुसार उनको पद देते ही नहीं हो।
1990 के बाद आये राजनैतिक बदलाव के बाद सवर्ण कामरेडों का राजनीति के बाजार में कोई भाव रहा नहीं है। मंदी का दौर आजतक जारी है, लेकिन दलित बैकवर्ड कामरेडों बाजार भाव बना है। चौंकाने वाली बात यह भी है कि सवर्ण कामरेड पार्टी छोड़गें तो भाजपा में ही जाएगें। वहीं दलित बैकवर्ड पार्टी छोड़गे तो समाजवादी धारा से जुड़े मुख्य रूप से लालू और नीतिश के यहां जाते है। इसलिए स्वर्ण कामरेडों के बारे में पटना में एक जुमला प्रचलित है कि जहां ब्राहम्णवाद भटकता है वहीं मार्क्सवाद पैदा होता है। जहां मार्क्सवाद भटकता वहां ब्राहम्णवाद या मनुवाद पैदा होता है। अगर स्वर्ण कामरेडों को भाजपा में थोड़ी भी तरजीह मिलेगा उछल कूद करते हुए भाजपा में चले जायेगे।


साभार : 
https://www.facebook.com/anant.sinha1/posts/861216740556554 

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