माकपा के अन्दरूनी अन्तरविरोधों की मूल अन्तर्वस्तु :
विचारधारात्मक कसौटी पर नीतियों-रणनीतियों को परखने के बजाय अनुभववादी लोक चित्र वाले भलेमानुस प्रगतिशीलों को एक बार फिर भ्रम होने लगा है कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के बीच के नीतिगत विरोध से शायद कुछ सकारात्मक निकलकर आयेगा, अपने दुर्दिन से उबर मा.क.पा. एक बार फिर कथित वाम धारा की गतिशील नेतृत्वकारी शक्ति बनकर उभरेगी और शायद केरल और बंगाल में उसके दिन बहुरने की भी शुरुआत हो जाये। यह एक मुगालता भर है।
संशोधनवाद और संसदीय जड़वामनपंथ के बुनियादी विचारधारात्मक प्रश्न पर येचुरी और करात में कोई मतभेद नहीं है। मतभेद सिर्फ यह है कि संसदीय मार्ग को ही मुख्य रणनीति मानते हुए अपने आप को कितना ''लाल'' दिखाया जाये या किस हद तक ''व्यावहारिक'' होकर चुनावी राजनीति की जाये। प्रकाश करात नकली रैडिकल वाम तेवर अपनाकर संसदीय विपक्ष की राजनीति करते हुए अपने जनाधार को बचाने के पक्षधर हैं जबकि 'प्रैग्मेटिस्ट' येचुरी ज्यादा दुनियादारी के साथ हिन्दुत्ववाद विरोधी सेक्युलर ताकतों की एकता के नाम पर कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की और ज्यादा खुलकर नवउदारवादी नीतियों के प्रश्न पर नरमी बरतने की नीतियों की वकालत करते हैं। याद दिला दें कि प्रकाश करात लॉबी के दबाव में जब ज्योति बसु प्रधानमंत्री नहीं बन पाये थे, तब करात के विरोध में सुरजीत और ज्योति बसु के साथ येचुरी भी थे। यूपीए-एक के दौरान जब माकपा ने कांग्रेस सरकार से नाता तोड़ा था तो इसका विरोध करने वालों में येचुरी भी थे। काफी हद तक करात और येचुरी के बीच के विरोध वैसे ही हैं, जैसे संशोधनवादी ए.ने.क.पा.(माओवादी) के भीतर प्रचण्ड और बाबूराम भट्टराई के बीच के मतभेद (करात= प्रचण्ड और येचुरी=भट्टराई)। यह भी स्मरणीय है कि साठ के दशक की अविभाजित भाकपा के भीतर भी डांगे - राजेश्वर गुट और वासवपुनैया - सुन्दरैया - गोपालन - नम्बूदिरिपाद - रणदिवे गुट के बीच के अन्तरविरोध भी सापेक्षत: नरम संशोधनवाद और सापेक्षत: गरम संशोधनवाद के बीच के ही अन्तरविरोध थे जिन्हें पार्टी विभाजन की परिणति तक पहुँचाने में क्रांतिकारी कतारों के दबाव की भी एक अहम भूमिका थी। माकपा के भीतर भी नरमदली और गरमदली संसदमार्गी गुट हमेशा से रहे हैं। सुन्दरैया - गोपालन - वासवपुनैया - प्रमोद दास गुप्ता आदि का गुट गरमदली था जबकि सुरजीत - ज्योति बसु आदि का गुट नरमदली हुआ करता था। बीच-बीच में कुछ नरमदली कुछ गरमदली गुट (लायलपुरी से लेकर सैफुद्दीन और हलीम तक) पार्टी से छिटककर अलग छोटी-छोटी पार्टियाँ भी बनाते रहे। वर्तमान अन्तरविरोध के नतीजे के तौर पर माकपा में किसी ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) या क्षैतिज (हॉरिजेण्टल) फूट की सम्भावना नहीं है। अन्दरखाने ही कुछ एडजस्टमेण्ट हो जायेगा और ज्यादा से ज्यादा नेतृत्व के कम्पोजीशन में अगली कांग्रेस में कुछ फेरबदल हो जायेगा।
दरअसल सभी संशोधनवादी और सामाजिक जनवादी पार्टियों का संकट यह है कि नवउदारवादी नीतियों के अनुत्क्रमणीय (इर्रिवर्सिबुल) घटाटोप में कीन्सियाई नुस्खों और नेहरूवियाई ''समाजवाद'' के अप्रासंगिक होते जाने के साथ ही व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति के रूप में उनकी भूमिका समाप्त होती जा रही है। बस उनके पास एक ही नारा है, सेक्युलरिज्म के नाम पर धुर दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववाद का विरोध करते हुए अन्य बुर्जुआ दलों के साथ चुनावी मोर्चा बनाना, और एक ही ''ज़रूरी'' काम है, मज़दूर वर्ग को अर्थवाद के चक्कर-चपेट में उलझाये रखना। हिन्दुत्ववादी फासीवाद के चुनावी विरोध की नीति को लेकर आपसी मतभेद इस बात पर है कि मोर्चा कांग्रेस के साथ बनाया जाये या गैर कांग्रेस-गैर भाजपा तथाकथित तीसरी ताकतों का मोर्चा बनाया जाये।
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गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014
साम्यवादी दल का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जा सकता है ?---विजय राजबली माथुर
उपरोक्त फोटो से स्पष्ट होगा कि एक टिप्पणीकर्ता साहब इस बात पर ही यकीन नहीं कर रहे हैं कि अभी कुछ माह पूर्व ही केरल भाजपा के लोग केरल माकपा में शामिल किए गए हैं और उसके बाद पश्चिम बंगाल माकपा के लोग वहाँ की भाजपा में चले गए हैं। वह साहब करात साहब को बुद्धिजीवी विद्वान मानते हैं। यह करात साहब ही तो थे जिन्होने कामरेड ज्योति बसु को 1996 में प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था जिसे बाद में बसु साहब ने ऐतिहासिक भूल कहा था। 1997में भूतपूर्व कम्युनिस्ट इंदर गुजराल साहब तभी प्रधानमंत्री बन सके थे जबकि करात साहब से प्रभावित माकपा महासचिव कामरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत साहब एक दिवसीय दौरे पर मास्को गए हुये थे जो कि मुलायम सिंह जी को देवगौड़ा साहब के स्थान पर पी एम बनाने पर सहमत थे किन्तु गृह मंत्री कामरेड इंद्रजीत गुप्त , पूर्व पी एम- वी पी सिंह आदि ने कामरेड ज्योति बसु से गुजराल साहब की घोषणा करवा दी थी। यदि करात साहब की दाल गल जाती तो गुजराल साहब की जगह मुलायम सिंह ही पी एम बनते जिनको 2014 में फिर एक बार करात साहब ने पी एम बनवाने का पाँसा फेंका था।
एक और टिप्पणीकर्ता कामरेड नजीरुल हक साहब का दृष्टिकोण कि CPI और CPIM का विलय करके एक नई पार्टी बनाना चाहिए तो ठीक है। परंतु व्यवहार में वैसा नहीं है जैसा कि दूसरे टिप्पणीकर्ता साहब ने कम्युनिस्ट पार्टियों में आंतरिक लोकतन्त्र होने की बात कही है। करात साहब की अधिनायकवादी और वाम विरोधी निजी स्वार्थपरक नीतियों के विरुद्ध ही तो येचूरी साहब को मुखर होना पड़ा है।
भाकपा में भी कुछ पदाधिकारी करात प्रवृति के हैं कम से कम उत्तर प्रदेश में तो हैं ही। बीस वर्षों से प्रदेश पार्टी के सीताराम केसरी बने पदाधिकारी इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। वह राजधानी के ज़िला इंचार्ज भी हैं और उस रूप में सुपर जिलामंत्री खुद को समझते हैं । प्रदेश कंट्रोल कमीशन के पूर्व सदस्य रमेश कटारा की भांति ही वह तांत्रिक प्रक्रियाओं का सहारा भी लेते हैं और 'एथीस्ट ' भी कहाते हैं। प्रदेश के एक वरिष्ठ नेता को बदनाम करने व कमजोर करने के लिए वह अतीत में राजधानी के एक पूर्व जिलामंत्री को उनसे भिड़ा कर पार्टी से निकलवा चुके हैं। वह पूर्व जिलमंत्री तो अलग पार्टी बना कर विधायक व मंत्री भी बने तथा अब भाजपा सांसद बन गए हैं किन्तु उनके गुरु व प्रेरणा स्त्रोत रहे वह वरिष्ठ नेता आज भी उन सीताराम केसरी के षड्यंत्र का शिकार बने हुये हैं। एक राष्ट्रीय सचिव व एक वरिष्ठ नेता को गत वर्ष 30 नवंबर 2013 को मऊ में कामरेड झारखण्डे राय और कामरेड जय बहादुर सिंह की प्रतिमाएँ जो लगभग आठ वर्षों से तैयार हैं के उदघाटन समारोह में आना था। अपने मौसेरे भाई आनंद प्रकाश तिवारी (जो अब निष्कासित हैं ) के जरिये इस पदाधिकारी ने उन वरिष्ठ कामरेड्स के विरुद्ध इतना घृणित अभियान चलवाया कि वह सम्पूर्ण कार्यक्रम ही अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया।
ज़िला-स्तर पर कार्यकर्ताओं में विभ्रम उत्पन्न करना और परस्पर मन-मुटाव पैदा करना उनके बाएँ हाथ का खेल है। इसके लिए सारे नियम और पार्टी -परम्पराएँ तोड़ने में उनको आनंद आता है। उनकी हकीकत को उजागर करने वाले कामरेड को संघी घोषित करके निकलवा देने की अफवाह एक जन-संगठन के संयोजक से उड़वाते हैं तो दूसरे जन-संगठन के जिलाध्यक्ष से खुद के संबंध में कहलवाते हैं कि उनका विरोध करने वाला पार्टी में टिक नहीं सकता। ज़िला कार्यकारिणी के एक सदस्य से 16 सितंबर को कहलवाया कि उनसे 36 का आंकड़ा रखने वाला बाहर का रास्ता देखने को तैयार रहे तो 2 अक्तूबर की एक गोष्ठी में अपने खास हिमायती के जरिये मुझे विचार व्यक्त करने में व्यवधान प्रस्तुत करवाया।
किसी भी संगठन के विस्तार व विकास के लिए आवश्यक है कि 'लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं ' को सम्मान दिया जाये किन्तु ऐसी बातें केवल एक व्यक्ति की सनक की पूरती तो कर सकती हैं पार्टी का सांगठनिक विस्तार नहीं और यही उनका उद्देश्य भी है। यदि CPI और CPIM एक हो जाएँ तो ऐसे लोगों का खेल समाप्त हो सकता है तथा देश में साम्यवादी दल का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जा सकता है।
http://vidrohiswar.blogspot.in/2014/10/blog-post_30.html
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बैंक का यह कारिंदा क्या विश्लेषणात्मक टिप्पणी देगा? या अधूरे ज्ञान को कैसे पूरा करेगा? वह तो अपने दल के राष्ट्रीय नेताओं को ही नहीं बख़्शता तो भला कविता जी का क्या मान रखता ? मेरा लेख तो उसी की कम्युनिस्ट विरोधी गतिविधियों को लक्ष्य करता है।
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