Tuesday, 28 October 2014

प्रधानमंत्री के हाथ में किसका हाथ है और कौन है जो इसे हाथों-हाथ उठाए हुए है?---Rama Krushna Panda



केंद्र की सरकार हो या सत्ताधारी पार्टी भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रुतबा दोनों जगह सबसे ऊंचा दिखता है.
लेकिन पिछले दिनों एक तस्वीर सामने आई और सवाल उठने लगे कि मोदी की पीठ पर किसका हाथ है? प्रधानमंत्री के हाथ में किसका हाथ है और कौन है जो इसे हाथों-हाथ उठाए हुए है?

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय का विश्लेषण :
एक बंद दरवाज़ा था, जो बेमिसाल शायर फ़िराक़ गोरखपुरी ने पहले ही खोल दिया था. पिछली सदी में. ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ के हवाले से. शब्दों का ज़िक्र करते हुए, उदाहरण देकर.
कह गए थे कि कितना भी केंद्रीय क्यों न हो, शब्द अपने अर्थ में बदल जाता है. इस हद तक कि कई बार अपेक्षित मुख्तलिफ़ रंगों से आगे निकलकर बिल्कुल उलटा पड़ जाए. मामूली दिखाई पड़ने वाले वाक्यों में भी. मुहावरे हों तो सोने पर सुहागा.
उदाहरण दिया ‘साफ़’ का. इससे साफ़ उदाहरण शायद हो भी नहीं सकता था कि साफ़-साफ़ समझ में आए. फ़िराक़ साहब ने ‘साफ़’ के भिन्न अर्थों में इस्तेमाल के बीसियों नमूने दिए, जिनमें तीन मुहावरे भी थे- ‘दिल साफ़ है’, ‘हाथ साफ़ है’, ‘दिमाग़ साफ़ है.’
यही हाल ‘हाथ’ का है. एक-दो दर्जन उदाहरण तो आम ज़िंदगी में दिन भर में मिल जाएं. हर बार इतना साफ़ अर्थ कि भ्रम की गुंजाइश न हो.
‘हाथों-हाथ’, ‘पीठ पर हाथ’, ‘हाथ में हाथ.’

यह प्रयोग और अर्थपूर्ण हो जाएं अगर सब एक साथ हों. तीनों मुहावरे एक तस्वीर में क़ैद. आमतौर पर दो आयामी तस्वीर में इतने पहलू कि सबकी शिनाख़्त न हो सके. और उनके इतने अर्थ कि एक झटके में तो क़तई न खुलें.
यह तस्वीर अखबारों में छपी, लेकिन एक दिन बाद. जिस रोज़ खींची गई थी, दुर्भाग्य से, दबकर रह गई. ‘सेल्फ़ियों’ के बीच में.
वहां प्रधानमंत्री थे और कुछ ख़बरनवीस. संभवतः आत्ममुग्धता में, पत्रकारों ने अपनी तस्वीरों को तवज्जो दी. आभासी मीडिया दिन भर उसी मायाजाल में उलझा रह गया.
'खिसियानी बिल्लियां'
इन ‘सेल्फ़ियों’ की आलोचनाएं जमकर हुईं. जिससे जैसा बन पड़ा, ख़बरनवीसों की ख़बर ली. बचाव पक्ष भी मैदान में उतरा. ढेर सारे तर्क-कुतर्क प्रस्तुत किए गए कि किसी तरह ‘सेल्फी पत्रकारों’ का बचाव किया जाए.
उसमें एक ‘कुतर्क’ यह भी था कि आलोचक ‘खिसियानी बिल्लियां’ हैं. वे नहीं बुलाए गए, इसलिए खंभा नोच रहे हैं.

लेकिन बात असल तस्वीर पर आई, एक दिन बाद. चर्चा शुरू हुई कि तस्वीर, अगर कोई है, तो यही है.
इससे पहली बार नुमायां हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीठ पर किसका हाथ है. प्रधानमंत्री के हाथ में किसका हाथ है और कौन है जो इसे हाथों-हाथ उठाए हुए है.
'तस्वीर में कुछ और..'
भारत में प्रधानमंत्री अपने पद की शपथ लेते समय कहता है कि वह ‘राग-द्वेष’ से ऊपर होगा. माना जाता है कि उसका कोई मित्र या शत्रु नहीं होगा और वह, ख़ुद प्रधानमंत्री के शब्दों में, ‘सबका साथ-सबका विकास’ की दिशा में चलेगा.

पर तस्वीर में कुछ और ही था. एक और मुहावरे की तर्ज पर हाथ, अगर कुछ इंच ऊपर, कंधे पर होता तब भी स्वीकार्य न होता. उसे मित्रता का प्रतीक माना जाता. पीठ पर हाथ तो उससे भी घनिष्ठ संबंधों की ओर इशारा करता है. उसमें सहारा देने का भाव निहित होता है.
यह संभव नहीं लगता कि प्रधानमंत्री के मीडिया प्रबंधक इन मुहावरों और उनके प्रचलित अर्थों से परिचित न हों. ऐसे में, अगर यह तस्वीर सायास नहीं है, इसे चूक ही कहा जा सकता है. इसकी भरपाई में वक़्त लग सकता है.
नागपुर का 'हाथ' :
नई सरकार की घोषित-अघोषित नीतियों के साथ अब तक यह कभी अफ़वाहों, कभी फुसफुसाहटों और कभी-कभार गपशप में आता रहा कि वह उद्योगों की पक्षधर है. उनके लिए कानून बदलने, बनाने को तत्पर. किसी हद तक जाने को तैयार.
इशारे में कुछ बातें कही जाती थीं, लेकिन इतना और ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण इतनी जल्दी आंखों के सामने होगा, कल्पना से परे था.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय नागपुर में है.
यह उन लोगों के लिए भी आश्चर्यजनक ही रहा होगा, जो अपनी सारी मेधा इसमें झोंके दे रहे थे कि प्रधानमंत्री की पीठ पर ‘नागपुर’ का हाथ है.
उनकी असली ताक़त वहीं से आती है. हो सकता है ‘नागपुर’ ख़ुद इससे आश्चर्यचकित हो क्योंकि उसकी ज़मीन तो ‘स्वदेशी जागरण’ है.
'राष्ट्र के नाम संदेश' :
वैसे भी, जिस प्रधानमंत्री के सामने उनके मंत्री तक ‘सावधान’ की मुद्रा में खड़े होते हों, यह दृश्य कि कोई उद्योगपति उसकी पीठ पर हाथ रखने का साहस जुटा सकता है, हैरान करने वाला है. मुमकिन है तमाम लोग इसे ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ की शक्ल में देखें.
इस तस्वीर पर सफ़ाई देर-सबेर आनी है. पर यह सफ़ाई, अगर आई, ज़्यादा अर्थपूर्ण नहीं होगी कि कार्यक्रम उस उद्योगपति का था, या कि एक तरह से निजी था.

प्रधानमंत्री का पूरा जीवन सार्वजनिक होता है. गहरी नींद में भी वह प्रधानमंत्री ही होता है. इसलिए यह तर्क बेमानी होगा.
अपनी छवि को लेकर लगातार सजग रहने वाले प्रधानमंत्री शायद अपनी ओजस्विता से इसे तार्किक और उचित ठहरा दें लेकिन यहां सवाल व्यक्ति का नहीं, देश की गरिमा का है.

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