******!अब बिहार और देश में भी बाकी सेकुलर और वाम शक्तियों को भी एक मोरचे में शामिल होने की जरूरत है !अभी विचारधारा से ज्यादा जमीनी और व्यवहारिक राजनीति को समझने की जरूरत है।
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1925 में आज़ादी के आंदोलन को तीव्र करके एक समता मूलक समाज गठित करने को गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आज विचार धारा के नाम पर अनेक पार्टियों में विभाजित है जबकि 1925 में ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा हेतु गठित आर एस एस अपने अनेक स्व-निर्मित संगठनों के माध्यम से विभिन्न राजनीतिक दलों में घुसपैठ बनाते हुये केंद्र की सत्ता पर काबिज है। आज संघ नियंत्रित फासिस्ट सरकार देश में एक दक्षिण पंथी असैनिक तानाशाही की दिशा में कदम-दर-कदम बढ़ती जा रही है। बिहार के इन चुनाव परिणामों के बाद यदि सभी फासिस्ट विरोधी दल एकजुट न हुये तो वामपंथियों को पहले साफ करते हुये सभी विपक्षी दलों को फासिस्ट शक्तियाँ निगलने का उपक्रम करेंगी। या तो उनसे उनकी ही तरह सैन्य संगठन बना कर रक्त रंजित संघर्ष में परास्त करना होगा या फिर अपनी प्रचार शैली को बदल कर जन-समर्थन हासिल करना होगा जिसमें वामपंथियों की सबसे बड़ी बाधा 'नास्तिकता' : एथीस्टवाद है। हमें जनता के सामने फासिस्ट शक्तियों को 'अधार्मिक' सिद्ध करना होगा तभी हम सफल हो सकते हैं अन्यथा सैन्य बल पर सत्ता प्राप्ति के बाद भी सोवियत रूस के पतन की भांति ही उसे गवां भी देंगे।
सभी बाम-पंथी विद्वान सबसे बड़ी गलती यही करते हैं कि हिन्दू को धर्म मान लेते हैं फिर सीधे-सीधे धर्म की खिलाफत करने लगते हैं। वस्तुतः 'धर्म'=शरीर को धारण करने हेतु जो आवश्यक है जैसे-सत्य,अहिंसा(मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह,और ब्रह्मचर्य। इंनका का विरोध करने को आप कह रहे हैं जब आप धर्म का विरोध करते हैं तो। अतः 'धर्म' का विरोध न करके केवल अधार्मिक और मनसा-वाचा- कर्मणा 'हिंसा देने वाले'=हिंदुओं का ही प्रबल विरोध करना चाहिए।
विदेशी शासकों की चापलूसी मे 'कुरान' की तर्ज पर 'पुराणों' की संरचना करने वाले छली विद्वानों ने 'वैदिक मत'को तोड़-मरोड़ कर तहस-नहस कर डाला है। इनही के प्रेरणा स्त्रोत हैं शंकराचार्य। जबकि वेदों मे 'नर' और 'नारी' की स्थिति समान है। वैदिक काल मे पुरुषों और स्त्रियॉं दोनों का ही यज्ञोपवीत संस्कार होता था। कालीदास ने महाश्वेता द्वारा 'जनेऊ'धारण करने का उल्लेख किया है। नर और नारी समान थे। पौराणिक हिंदुओं ने नारी-स्त्री-महिला को दोयम दर्जे का नागरिक बना डाला है। अपाला,घोशा,मैत्रेयी,गार्गी आदि अनेकों विदुषी महिलाओं का स्थान वैदिक काल मे पुरुष विद्वानों से कम न था। अतः वेदों मे नारी की निंदा की बात ढूँढना हिंदुओं के दोषों को ढकना है।
वेद जाति,संप्रदाय,देश,काल से परे सम्पूर्ण विश्व के समस्त मानवों के कल्याण की बात करते हैं। उदाहरण के रूप मे 'ऋग्वेद' के कुछ मंत्रों को देखें -
'संगच्छ्ध्व्म .....उपासते'=
प्रेम से मिल कर चलें बोलें सभी ज्ञानी बनें।
पूर्वजों की भांति हम कर्तव्य के मानी बनें। ।
'समानी मंत्र : ....... हविषा जुहोमी ' =
हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों।
ज्ञान पाते हैं बराबर भोग्य पा सब नेक हों। ।
'समानी व आकूति....... सुसाहसती'=
हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा।
मन भरे हों प्रेम से जिससे बढ़े सुख सम्पदा। ।
'सर्वे भवनतु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पशयन्तु मा कश्चिद दुख भाग भवेत। । '=
सबका भला करो भगवान सब पर दया करो भगवान ।
सब पर कृपा करो भगवान ,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवनधन-धान्यके भण्डारी। ।
सब भद्रभाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे सृष्टि मे प्राण धारी। ।
ऋग्वेद न केवल अखिल विश्व की मानवता की भलाई चाहता है बल्कि समस्त जीवधारियों/प्रांणधारियों के कल्याण की कामना करता है। वेदों मे निहित यह समानता की भावना ही साम्यवाद का मूलाधार है । जब मैक्स मूलर साहब भारत से मूल पांडुलिपियाँ ले गए तो उनके द्वारा किए गए जर्मन भाषा मे अनुवाद के आधार पर महर्षि कार्ल मार्क्स ने 'दास केपिटल'एवं 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो'की रचना की। महात्मा हेनीमेन ने 'होम्योपैथी' की खोज की और डॉ शुसलर ने 'बायोकेमी' की। होम्योपैथी और बायोकेमी हमारे आयुर्वेद पर आधारित हैं और आयुर्वेद आधारित है 'अथर्ववेद'पर। अथर्ववेद मे मानव मात्र के स्वास्थ्य रक्षा के सूत्र दिये गए हैं फिर इसके द्वारा नारियों की निंदा होने की कल्पना कहाँ से आ गई। निश्चय ही साम्राज्यवादियो के पृष्ठ-पोषक RSS/भाजपा/विहिप आदि के कुसंस्कारों को धर्म मान लेने की गलती का ही यह नतीजा है कि,कम्युनिस्ट और बामपंथी 'धर्म' का विरोध करते हैं । मार्क्स महोदय ने भी वैसी ही गलती समझने मे की । यथार्थ से हट कर कल्पना लोक मे विचरण करने के कारण कम्युनिस्ट जन-समर्थन प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। नतीजा यह होता है कि शोषक -उत्पीड़क वर्ग और-और शक्तिशाली होता जाता है।
आज समय की आवश्यकता है कि 'धर्म' को व्यापारियों/उद्योगपतियों के दलालों (तथाकथित धर्माचार्यों)के चंगुल से मुक्त कराकर जनता को वास्तविकता का भान कराया जाये।संत कबीर, दयानंद,विवेकानंद,सरीखे पाखंड-विरोधी भारतीय विद्वानों की व्याख्या के आधार पर वेदों को समझ कर जनता को समझाया जाये तो जनता स्वतः ही साम्यवाद के पक्ष मे आ जाएगी। काश साम्यवादी/बामपंथी विद्वान और नेता समय की नजाकत को पहचान कर कदम उठाएँ तो सफलता उनके कदम चूम लेगी। वरना दिल्ली की सड़कों पर सत्ता के अंतिम रक्तरंजित संघर्ष के लिए आर एस एस से लड़ने हेतु मुकम्मल तैयारी करें।
चंद्रेश्वर पाण्डेय
लालू और नीतीश की जोड़ी को सलाम !महागठबंधन को सलाम !राजद --जद यू ---काँग्रेस को सलाम !सोनिया --राहुल को सलाम !बिहार की महान जनता को सलाम !बिहार ने हमेशा देश की राजनीति को नई दिशा देने का काम किया है ! देश के इस दौर में फासिज्म के बढ़ते क़दम को रोकने की दिशा में ये बिहार अगुवा की भूमिका में आएगा !बिहार के डीएनए में सहिष्णुता ,समन्वय और उदारता के भाव अन्तर्निहित हैं !इस जीत के पीछे किञ्चित पुरस्कार वापसी आंदोलन की भूमिका भी जरूर होगी ! 'साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। 'हिंदी और भारतीय भाषाओँ के उन तमाम लेखकों और उनके संगठनों को भी सलाम ,जिन्होंने इस जीत के लिए एक माहौल बनाया !बिहार में पिछड़े ,अति पिछड़े ,दलित ,महादलित ,अल्पसंख्यक और प्रगतिशील --जनवादी सवर्ण गोलबंद थे। आज लालू जी ने एक मार्के की बात कही कि हमारे और नीतीश में एक फ़र्क ये है कि हम खोल के बोलता है और नीतीश ढँक के बोलते हैं। लालू जी ने ये भी कहा कहा कि' हम बिहारी लोग उड़ती चिड़िया को हल्दी लगाता है !'लालू जी के खोल के बोलने की अदा पर भला कौन बिहारी न फ़िदा हो जाय !लालू जी ,आपने फ़ासिज्म और साम्प्रदायिकता को रोकने की दिशा में आगे दिल्ली कूच करने की बात की है ,आप छठ के बाद लालटेन लेकर बनारस भी जाने वाले हैं !आपके साहस और दिलेरी को सलाम ,जो एक खिलंदरपन भी लिए हुए है !अब बिहार और देश में भी बाकी सेकुलर और वाम शक्तियों को भी एक मोरचे में शामिल होने की जरूरत है !अभी विचारधारा से ज्यादा जमीनी और व्यवहारिक राजनीति को समझने की जरूरत है।अब लालू और नीतीश से उम्मीद है कि वे पिछली भूलों से सबक लेते हुए बिहार को एक नया बिहार और एक बेहतर बिहार बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे !वे बिहार और वहाँ की युवा पीढ़ी को निराश नहीं करेंगे !उन्हें अशेष शुभ कामनाओं के साथ एक बार फिर सलाम!
1925 में आज़ादी के आंदोलन को तीव्र करके एक समता मूलक समाज गठित करने को गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आज विचार धारा के नाम पर अनेक पार्टियों में विभाजित है जबकि 1925 में ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा हेतु गठित आर एस एस अपने अनेक स्व-निर्मित संगठनों के माध्यम से विभिन्न राजनीतिक दलों में घुसपैठ बनाते हुये केंद्र की सत्ता पर काबिज है। आज संघ नियंत्रित फासिस्ट सरकार देश में एक दक्षिण पंथी असैनिक तानाशाही की दिशा में कदम-दर-कदम बढ़ती जा रही है। बिहार के इन चुनाव परिणामों के बाद यदि सभी फासिस्ट विरोधी दल एकजुट न हुये तो वामपंथियों को पहले साफ करते हुये सभी विपक्षी दलों को फासिस्ट शक्तियाँ निगलने का उपक्रम करेंगी। या तो उनसे उनकी ही तरह सैन्य संगठन बना कर रक्त रंजित संघर्ष में परास्त करना होगा या फिर अपनी प्रचार शैली को बदल कर जन-समर्थन हासिल करना होगा जिसमें वामपंथियों की सबसे बड़ी बाधा 'नास्तिकता' : एथीस्टवाद है। हमें जनता के सामने फासिस्ट शक्तियों को 'अधार्मिक' सिद्ध करना होगा तभी हम सफल हो सकते हैं अन्यथा सैन्य बल पर सत्ता प्राप्ति के बाद भी सोवियत रूस के पतन की भांति ही उसे गवां भी देंगे।
सभी बाम-पंथी विद्वान सबसे बड़ी गलती यही करते हैं कि हिन्दू को धर्म मान लेते हैं फिर सीधे-सीधे धर्म की खिलाफत करने लगते हैं। वस्तुतः 'धर्म'=शरीर को धारण करने हेतु जो आवश्यक है जैसे-सत्य,अहिंसा(मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह,और ब्रह्मचर्य। इंनका का विरोध करने को आप कह रहे हैं जब आप धर्म का विरोध करते हैं तो। अतः 'धर्म' का विरोध न करके केवल अधार्मिक और मनसा-वाचा- कर्मणा 'हिंसा देने वाले'=हिंदुओं का ही प्रबल विरोध करना चाहिए।
विदेशी शासकों की चापलूसी मे 'कुरान' की तर्ज पर 'पुराणों' की संरचना करने वाले छली विद्वानों ने 'वैदिक मत'को तोड़-मरोड़ कर तहस-नहस कर डाला है। इनही के प्रेरणा स्त्रोत हैं शंकराचार्य। जबकि वेदों मे 'नर' और 'नारी' की स्थिति समान है। वैदिक काल मे पुरुषों और स्त्रियॉं दोनों का ही यज्ञोपवीत संस्कार होता था। कालीदास ने महाश्वेता द्वारा 'जनेऊ'धारण करने का उल्लेख किया है। नर और नारी समान थे। पौराणिक हिंदुओं ने नारी-स्त्री-महिला को दोयम दर्जे का नागरिक बना डाला है। अपाला,घोशा,मैत्रेयी,गार्गी आदि अनेकों विदुषी महिलाओं का स्थान वैदिक काल मे पुरुष विद्वानों से कम न था। अतः वेदों मे नारी की निंदा की बात ढूँढना हिंदुओं के दोषों को ढकना है।
वेद जाति,संप्रदाय,देश,काल से परे सम्पूर्ण विश्व के समस्त मानवों के कल्याण की बात करते हैं। उदाहरण के रूप मे 'ऋग्वेद' के कुछ मंत्रों को देखें -
'संगच्छ्ध्व्म .....उपासते'=
प्रेम से मिल कर चलें बोलें सभी ज्ञानी बनें।
पूर्वजों की भांति हम कर्तव्य के मानी बनें। ।
'समानी मंत्र : ....... हविषा जुहोमी ' =
हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों।
ज्ञान पाते हैं बराबर भोग्य पा सब नेक हों। ।
'समानी व आकूति....... सुसाहसती'=
हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा।
मन भरे हों प्रेम से जिससे बढ़े सुख सम्पदा। ।
'सर्वे भवनतु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पशयन्तु मा कश्चिद दुख भाग भवेत। । '=
सबका भला करो भगवान सब पर दया करो भगवान ।
सब पर कृपा करो भगवान ,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवनधन-धान्यके भण्डारी। ।
सब भद्रभाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे सृष्टि मे प्राण धारी। ।
ऋग्वेद न केवल अखिल विश्व की मानवता की भलाई चाहता है बल्कि समस्त जीवधारियों/प्रांणधारियों के कल्याण की कामना करता है। वेदों मे निहित यह समानता की भावना ही साम्यवाद का मूलाधार है । जब मैक्स मूलर साहब भारत से मूल पांडुलिपियाँ ले गए तो उनके द्वारा किए गए जर्मन भाषा मे अनुवाद के आधार पर महर्षि कार्ल मार्क्स ने 'दास केपिटल'एवं 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो'की रचना की। महात्मा हेनीमेन ने 'होम्योपैथी' की खोज की और डॉ शुसलर ने 'बायोकेमी' की। होम्योपैथी और बायोकेमी हमारे आयुर्वेद पर आधारित हैं और आयुर्वेद आधारित है 'अथर्ववेद'पर। अथर्ववेद मे मानव मात्र के स्वास्थ्य रक्षा के सूत्र दिये गए हैं फिर इसके द्वारा नारियों की निंदा होने की कल्पना कहाँ से आ गई। निश्चय ही साम्राज्यवादियो के पृष्ठ-पोषक RSS/भाजपा/विहिप आदि के कुसंस्कारों को धर्म मान लेने की गलती का ही यह नतीजा है कि,कम्युनिस्ट और बामपंथी 'धर्म' का विरोध करते हैं । मार्क्स महोदय ने भी वैसी ही गलती समझने मे की । यथार्थ से हट कर कल्पना लोक मे विचरण करने के कारण कम्युनिस्ट जन-समर्थन प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। नतीजा यह होता है कि शोषक -उत्पीड़क वर्ग और-और शक्तिशाली होता जाता है।
आज समय की आवश्यकता है कि 'धर्म' को व्यापारियों/उद्योगपतियों के दलालों (तथाकथित धर्माचार्यों)के चंगुल से मुक्त कराकर जनता को वास्तविकता का भान कराया जाये।संत कबीर, दयानंद,विवेकानंद,सरीखे पाखंड-विरोधी भारतीय विद्वानों की व्याख्या के आधार पर वेदों को समझ कर जनता को समझाया जाये तो जनता स्वतः ही साम्यवाद के पक्ष मे आ जाएगी। काश साम्यवादी/बामपंथी विद्वान और नेता समय की नजाकत को पहचान कर कदम उठाएँ तो सफलता उनके कदम चूम लेगी। वरना दिल्ली की सड़कों पर सत्ता के अंतिम रक्तरंजित संघर्ष के लिए आर एस एस से लड़ने हेतु मुकम्मल तैयारी करें।
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