धन गरीब लोगों से अमीर तबके के पास जायेगा : इसीलिए यह सब पूंजीपति इसके समर्थन में खड़े हैं ------
नोटबंदी - वर्गीय नजरिये से कुछ गंभीर सवाल :
भारत एक वर्गविभाजित और बेहद असमानता वाला समाज है - 1% शीर्ष तबके के पास 58% सम्पदा है, 10% के पास 81%, जबकि नीचे के 50% के पास सिर्फ 2% संपत्ति है! ऐसे समाज में किसी भी फैसले का असर सब पर समान नहीं हो सकता। इसलिए हर फैसले से किसे फायदा और किसे नुकसान है उसके आधार पर ही उसका समर्थन और विरोध उस वर्ग के सचेत लोग करते हैं।
शहरी क्षेत्र में :
लगभग 90% भारतीय असंगठित, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं और इनकी आमदनी नकदी में है। नकदी के अभाव से इनके छोटे धंधे बंद हो रहे हैं या इनका रोजगार छिन जा रहा है। इन मजदूरों और छोटे कारोबारियों दोनों को ही इसकी वजह से या तो और भी खून चुसू मजदूरी पर काम करने को मजबूर होना पड़ रहा है या अपना माल बड़े कारोबारियों को उनकी मनमानी कीमतों पर बेचकर नुकसान उठाना पड़ रहा है। नहीं तो सूदखोरों के पास जाकर अपनी भविष्य की कमाई का एक हिस्सा सूद के रूप में उनके नाम लिख देने के साथ किसी तरह कुछ बचाकर इकठ्ठा की गई एकाध बहुमूल्य वस्तु गिरवी भी रखने की मज़बूरी है जो वापस ना आने की बड़ी संभावना है। :
ग्रामीण क्षेत्र में गरीब किसान अपनी जमीनों से हाथ धो बैठेंगे :
यही स्थिति गांवों में किसानों की है जिन्हें एक और तो अपनी खरीफ की फसल को नकदी की कमी में औने-पौने दाम बेचने की मज़बूरी है, वहीँ अगली फसल की बुआई के लिए साधन जुटाने वास्ते सूदखोरों से 30-50% के सूद पर कर्ज लेना मज़बूरी है जिसके लिए खेत और गहने भी गिरवी रखे जाते हैं। धनी किसानों-कारोबारियों (यही सूद का धंधा भी करते हैं) के अपने वर्ग आधार की मदद करने के लिए सरकर ने सहकारी बैंकों/समितियों पर भारी रुकावटें भी लगा दी हैं क्योंकि इनसे कुछ मध्यम-छोटे किसानों को कुछ कर्ज मिलता था, अब वह रास्ता भी बंद हो गया है। इस प्रक्रिया में बहुत से गरीब किसान अपनी जमीनों से हाथ धो बैठेंगे। एक और बात जो मैं प उप्र के कुछ जिलों के अपने अनुभव के आधार पर कहना चाहता हूँ (दूसरी जगहों के साथी वहां की स्थिति बता सकते हैं) वह यह कि पिछले तीन वर्षों में खेती-किसानी के संकट ने पहले ही जमीनों की कीमतों में कमी कर दी है। मेरठ-मुजफ्फरनगर के कुछ क्षेत्रों में सिर्फ खेती लायक जमीनों की कीमतें 40% तक नीचे आई हैं। ऐसे हालात में कर्ज लेने वाले किसानों के लिए स्थिति और भी खराब होने वाली है, कम कर्ज के लिए ज्यादा खेत गिरवी तथा संकट की स्थिति में जमीन बेचने पर ओर कम कीमत मिलने की मज़बूरी। इस स्थिति में छोटे-मध्यम किसानों की जमीनों को इन धनी किसानों-कारोबारियों द्वारा खरीदकर उन्हें मजदूर बनाने की प्रक्रिया में और भी तेजी आएगी।
मजदूर स्त्रियों का ज़्यादा शोषण :
मेहनतकश लोगों में भी सबसे ज्यादा शोषित मजदूर स्त्रियां होती हैं जिन्हें श्रम के शोषण के साथ पुरुषवादी समाज का भी अत्याचार झेलना होता है। शराबी, अपराधी, गैरजिम्मेदार मर्दों से विवाहित स्त्रियों लिए नकदी के रूप में रखी कुछ छिपाई हुई रकम मुसीबत के वक्त का सहारा होती है। अब यह रकम इनमें से ज्यादातर के हाथ से निकल गई है।
अपने पुराने नोटों को बदलवा पाने में असमर्थ रहने वाले गरीब लोगों को दलालों के जरिये 20-40% और कमीशन के रूप में होने वाला नुकसान भी एक बड़ी मार है। याद रखें कि अभी भी 5 करोड़ से ज्यादा वयस्क लोगों के पास आधार या और कोई पहचान नहीं है। यह एक और रूप है जिसमें धन गरीब लोगों से अमीर तबके के पास जायेगा। साथ ही जो नकदी जनता के बड़े हिस्से को अपने छोटे कारोबारो की working capital या वक्त जरुरत की बचत को बैंकों में जमा करने के लिए मजबूर किया गया है उस पर बैंकों ने तुरन्त ही ब्याज दरें घटा दी हैं मतलब उधर भी नुकसान!
रोजगार का अकाल :
जहाँ तक संगठित क्षेत्र के कुछ बेहतर स्थिति वाले निम्न मध्यवर्गीय कर्मचारियों का सवाल है, उन्हें पहले ही घटते निर्यात और घरेलू माँग में कमी से कम होते निवेश की वजह से नौकरियों से हाथ धोना पड रहा है (L&T की खबर बाहर आई है लेकिन ऐसा ही निर्माण, इंफ्रास्ट्रक्चर और IT आदि की कई कंपनियों में चल रहा है)। अब नकदी के अभाव से माँग और निवेश में मंदी से यह प्रक्रिया और तेज होगी।
पूंजीपति और अमीर तबके को लाभ :
इसके विपरीत हम पूंजीपति और अमीर तबके की स्थिति पर नजर डालते हैं। सस्ती ब्याज दरों पर जमा की रकम से अब बैंक कर्ज की ब्याज दरों को भी घटा रहे हैं। यह कर्ज कौन लेता है? यह कर्ज का 80% हिस्सा पूंजीपतियों और उच्च मध्यम वर्ग के अमीरों द्वारा निवेश से और कमाई के लिए लिया जाता है। अब सस्ती ब्याज दरों से इन्हें तुरंत इसका फायदा होगा, उनकी पूंजी की लागत कम होने से मुनाफा बढ़ेगा। दस बड़े पूंजीपति घरानों ने ही 7.3 लाख करोड़ रुपये बैंकों से कर्ज लिया है। अगर ब्याज दर 1% भी कम हो तो इन्हें 7300 करोड़ रुपये का लाभ होगा जो इन गरीब जमा करने वालों की जेब से आएगा। इसीलिए यह सब पूंजीपति इसके समर्थन में खड़े हैं।
निम्न मध्य वर्गीय लोग भू - विहीन होंगे :
अब जमीन-मकान आदि संपत्ति की कीमतें कम होने के सवाल पर आते हैं। हमें समझना चाहिए कि कीमतें बढ़ने और कम होने दोनों चक्रों का फायदा उसी तबके को होता है जिसके पास पूंजी, सूचना और पहुँच होती है। पिछले सालों में जिन बहुत से लोगों ने कर्ज लेकर महँगी कीमतों पर जमीन-मकान ख़रीदे हैं अब नौकरियां-मजदूरी काम होने की स्थिति में इनको ही कम कीमतों पर बेचने को मजबूर होना पड़ेगा ना कि रियल एस्टेट के कारोबारियों को। बल्कि ये कारोबारी ही फिर से सस्ती कीमतों पर संपत्ति खरीद कर अगले कीमत वृद्धि चक्र में मुनाफा कमाने की स्थिति में होंगे, ना कि सपने देखते निम्न मध्य वर्गीय लोग। अमेरिका में वित्तीय संकट के दौरान यही हुआ। निम्न मध्य वर्गीय लोगों ने कर्ज लेकर जो घर महंगे दामों पर ख़रीदे थे, रोजगार छिन जाने से जब उनकी किश्तें जमा ना हुईं तो बैंकों ने उन्हें अपने कब्जे में लेकर नीलाम कर दिया जिसे संपत्ति के कारोबारियों ने औने-पौने दामों ख़रीदा तथा अब फिर से इनकी कीमतें 2008 के स्तर पर आने से भारी मुनाफा कमाया। डूबे कर्ज खरीदने का भी एक बड़ा कारोबार है जिसके लिए कई कम्पनियाँ भारत में भी खड़ी हो चुकी हैं।
मीडिया और विश्लेषकों का झूठ :
जहाँ तक पूंजीवादी तबके के मीडिया और विश्लेषकों का सवाल है, वे इसे अस्थाई तकलीफ के बाद टैक्स चोरी पर रोक से उचित ठहरा रहे हैं। लेकिन अगर टैक्स चोरी को रोकना है तो वोडाफोन का 20 हजार करोड़ का टैक्स (केर्न, वेदांता, आदि भी हैं) इस सरकार ने माफ़ क्यों किया? अभी साढ़े चार हजार करोड़ के बगैर नियम के टैक्स छूट को CAG ने उजागर किया, वह कैसे? FII और पी नोट्स के पैसे पर टैक्स छूट क्यों? इन सब बड़े टैक्स चोरों को पकड़ने में क्या ऐतराज है?
लूट और डकैती : सरमायेदार तबके की ही सेवा ::
इसलिए जिस तरह विपक्षी पार्टियां, 'वामपंथी' समेत, इस मुद्दे को मात्र कुप्रबन्ध/असुविधा के सवाल तक सीमित कर दे रहे हैं जनता के गुस्से को पूंजीवाद के खिलाफ जाने से रोकने का प्रयास है। क्योंकि यह सिर्फ कुप्रबन्ध से होने वाली तकलीफ का नहीं बल्कि गरीब, कमजोर, वंचित, शोषित, मेहनतकश बहुसंख्यक तबके से ताकतवर और पहुँच वाले पूँजीपति और उच्च मध्यम वर्ग को धन/सम्पदा के बड़े और स्थाई हस्तांतरण, साफ शब्दों में कहें तो लूट और डकैती, का बड़ा सवाल है। इस सवाल को ये पार्टियां नहीं उठाना चाहतीं क्योंकि अंत में ये सब सरमायेदार तबके की ही सेवा करती हैं।
साभार ::
https://www.facebook.com/MukeshK.Tyagi/posts/1565034263523049
नोटबंदी - वर्गीय नजरिये से कुछ गंभीर सवाल :
भारत एक वर्गविभाजित और बेहद असमानता वाला समाज है - 1% शीर्ष तबके के पास 58% सम्पदा है, 10% के पास 81%, जबकि नीचे के 50% के पास सिर्फ 2% संपत्ति है! ऐसे समाज में किसी भी फैसले का असर सब पर समान नहीं हो सकता। इसलिए हर फैसले से किसे फायदा और किसे नुकसान है उसके आधार पर ही उसका समर्थन और विरोध उस वर्ग के सचेत लोग करते हैं।
शहरी क्षेत्र में :
लगभग 90% भारतीय असंगठित, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं और इनकी आमदनी नकदी में है। नकदी के अभाव से इनके छोटे धंधे बंद हो रहे हैं या इनका रोजगार छिन जा रहा है। इन मजदूरों और छोटे कारोबारियों दोनों को ही इसकी वजह से या तो और भी खून चुसू मजदूरी पर काम करने को मजबूर होना पड़ रहा है या अपना माल बड़े कारोबारियों को उनकी मनमानी कीमतों पर बेचकर नुकसान उठाना पड़ रहा है। नहीं तो सूदखोरों के पास जाकर अपनी भविष्य की कमाई का एक हिस्सा सूद के रूप में उनके नाम लिख देने के साथ किसी तरह कुछ बचाकर इकठ्ठा की गई एकाध बहुमूल्य वस्तु गिरवी भी रखने की मज़बूरी है जो वापस ना आने की बड़ी संभावना है। :
ग्रामीण क्षेत्र में गरीब किसान अपनी जमीनों से हाथ धो बैठेंगे :
यही स्थिति गांवों में किसानों की है जिन्हें एक और तो अपनी खरीफ की फसल को नकदी की कमी में औने-पौने दाम बेचने की मज़बूरी है, वहीँ अगली फसल की बुआई के लिए साधन जुटाने वास्ते सूदखोरों से 30-50% के सूद पर कर्ज लेना मज़बूरी है जिसके लिए खेत और गहने भी गिरवी रखे जाते हैं। धनी किसानों-कारोबारियों (यही सूद का धंधा भी करते हैं) के अपने वर्ग आधार की मदद करने के लिए सरकर ने सहकारी बैंकों/समितियों पर भारी रुकावटें भी लगा दी हैं क्योंकि इनसे कुछ मध्यम-छोटे किसानों को कुछ कर्ज मिलता था, अब वह रास्ता भी बंद हो गया है। इस प्रक्रिया में बहुत से गरीब किसान अपनी जमीनों से हाथ धो बैठेंगे। एक और बात जो मैं प उप्र के कुछ जिलों के अपने अनुभव के आधार पर कहना चाहता हूँ (दूसरी जगहों के साथी वहां की स्थिति बता सकते हैं) वह यह कि पिछले तीन वर्षों में खेती-किसानी के संकट ने पहले ही जमीनों की कीमतों में कमी कर दी है। मेरठ-मुजफ्फरनगर के कुछ क्षेत्रों में सिर्फ खेती लायक जमीनों की कीमतें 40% तक नीचे आई हैं। ऐसे हालात में कर्ज लेने वाले किसानों के लिए स्थिति और भी खराब होने वाली है, कम कर्ज के लिए ज्यादा खेत गिरवी तथा संकट की स्थिति में जमीन बेचने पर ओर कम कीमत मिलने की मज़बूरी। इस स्थिति में छोटे-मध्यम किसानों की जमीनों को इन धनी किसानों-कारोबारियों द्वारा खरीदकर उन्हें मजदूर बनाने की प्रक्रिया में और भी तेजी आएगी।
मजदूर स्त्रियों का ज़्यादा शोषण :
मेहनतकश लोगों में भी सबसे ज्यादा शोषित मजदूर स्त्रियां होती हैं जिन्हें श्रम के शोषण के साथ पुरुषवादी समाज का भी अत्याचार झेलना होता है। शराबी, अपराधी, गैरजिम्मेदार मर्दों से विवाहित स्त्रियों लिए नकदी के रूप में रखी कुछ छिपाई हुई रकम मुसीबत के वक्त का सहारा होती है। अब यह रकम इनमें से ज्यादातर के हाथ से निकल गई है।
अपने पुराने नोटों को बदलवा पाने में असमर्थ रहने वाले गरीब लोगों को दलालों के जरिये 20-40% और कमीशन के रूप में होने वाला नुकसान भी एक बड़ी मार है। याद रखें कि अभी भी 5 करोड़ से ज्यादा वयस्क लोगों के पास आधार या और कोई पहचान नहीं है। यह एक और रूप है जिसमें धन गरीब लोगों से अमीर तबके के पास जायेगा। साथ ही जो नकदी जनता के बड़े हिस्से को अपने छोटे कारोबारो की working capital या वक्त जरुरत की बचत को बैंकों में जमा करने के लिए मजबूर किया गया है उस पर बैंकों ने तुरन्त ही ब्याज दरें घटा दी हैं मतलब उधर भी नुकसान!
रोजगार का अकाल :
जहाँ तक संगठित क्षेत्र के कुछ बेहतर स्थिति वाले निम्न मध्यवर्गीय कर्मचारियों का सवाल है, उन्हें पहले ही घटते निर्यात और घरेलू माँग में कमी से कम होते निवेश की वजह से नौकरियों से हाथ धोना पड रहा है (L&T की खबर बाहर आई है लेकिन ऐसा ही निर्माण, इंफ्रास्ट्रक्चर और IT आदि की कई कंपनियों में चल रहा है)। अब नकदी के अभाव से माँग और निवेश में मंदी से यह प्रक्रिया और तेज होगी।
पूंजीपति और अमीर तबके को लाभ :
इसके विपरीत हम पूंजीपति और अमीर तबके की स्थिति पर नजर डालते हैं। सस्ती ब्याज दरों पर जमा की रकम से अब बैंक कर्ज की ब्याज दरों को भी घटा रहे हैं। यह कर्ज कौन लेता है? यह कर्ज का 80% हिस्सा पूंजीपतियों और उच्च मध्यम वर्ग के अमीरों द्वारा निवेश से और कमाई के लिए लिया जाता है। अब सस्ती ब्याज दरों से इन्हें तुरंत इसका फायदा होगा, उनकी पूंजी की लागत कम होने से मुनाफा बढ़ेगा। दस बड़े पूंजीपति घरानों ने ही 7.3 लाख करोड़ रुपये बैंकों से कर्ज लिया है। अगर ब्याज दर 1% भी कम हो तो इन्हें 7300 करोड़ रुपये का लाभ होगा जो इन गरीब जमा करने वालों की जेब से आएगा। इसीलिए यह सब पूंजीपति इसके समर्थन में खड़े हैं।
निम्न मध्य वर्गीय लोग भू - विहीन होंगे :
अब जमीन-मकान आदि संपत्ति की कीमतें कम होने के सवाल पर आते हैं। हमें समझना चाहिए कि कीमतें बढ़ने और कम होने दोनों चक्रों का फायदा उसी तबके को होता है जिसके पास पूंजी, सूचना और पहुँच होती है। पिछले सालों में जिन बहुत से लोगों ने कर्ज लेकर महँगी कीमतों पर जमीन-मकान ख़रीदे हैं अब नौकरियां-मजदूरी काम होने की स्थिति में इनको ही कम कीमतों पर बेचने को मजबूर होना पड़ेगा ना कि रियल एस्टेट के कारोबारियों को। बल्कि ये कारोबारी ही फिर से सस्ती कीमतों पर संपत्ति खरीद कर अगले कीमत वृद्धि चक्र में मुनाफा कमाने की स्थिति में होंगे, ना कि सपने देखते निम्न मध्य वर्गीय लोग। अमेरिका में वित्तीय संकट के दौरान यही हुआ। निम्न मध्य वर्गीय लोगों ने कर्ज लेकर जो घर महंगे दामों पर ख़रीदे थे, रोजगार छिन जाने से जब उनकी किश्तें जमा ना हुईं तो बैंकों ने उन्हें अपने कब्जे में लेकर नीलाम कर दिया जिसे संपत्ति के कारोबारियों ने औने-पौने दामों ख़रीदा तथा अब फिर से इनकी कीमतें 2008 के स्तर पर आने से भारी मुनाफा कमाया। डूबे कर्ज खरीदने का भी एक बड़ा कारोबार है जिसके लिए कई कम्पनियाँ भारत में भी खड़ी हो चुकी हैं।
मीडिया और विश्लेषकों का झूठ :
जहाँ तक पूंजीवादी तबके के मीडिया और विश्लेषकों का सवाल है, वे इसे अस्थाई तकलीफ के बाद टैक्स चोरी पर रोक से उचित ठहरा रहे हैं। लेकिन अगर टैक्स चोरी को रोकना है तो वोडाफोन का 20 हजार करोड़ का टैक्स (केर्न, वेदांता, आदि भी हैं) इस सरकार ने माफ़ क्यों किया? अभी साढ़े चार हजार करोड़ के बगैर नियम के टैक्स छूट को CAG ने उजागर किया, वह कैसे? FII और पी नोट्स के पैसे पर टैक्स छूट क्यों? इन सब बड़े टैक्स चोरों को पकड़ने में क्या ऐतराज है?
लूट और डकैती : सरमायेदार तबके की ही सेवा ::
इसलिए जिस तरह विपक्षी पार्टियां, 'वामपंथी' समेत, इस मुद्दे को मात्र कुप्रबन्ध/असुविधा के सवाल तक सीमित कर दे रहे हैं जनता के गुस्से को पूंजीवाद के खिलाफ जाने से रोकने का प्रयास है। क्योंकि यह सिर्फ कुप्रबन्ध से होने वाली तकलीफ का नहीं बल्कि गरीब, कमजोर, वंचित, शोषित, मेहनतकश बहुसंख्यक तबके से ताकतवर और पहुँच वाले पूँजीपति और उच्च मध्यम वर्ग को धन/सम्पदा के बड़े और स्थाई हस्तांतरण, साफ शब्दों में कहें तो लूट और डकैती, का बड़ा सवाल है। इस सवाल को ये पार्टियां नहीं उठाना चाहतीं क्योंकि अंत में ये सब सरमायेदार तबके की ही सेवा करती हैं।
साभार ::
https://www.facebook.com/MukeshK.Tyagi/posts/1565034263523049
Mukesh Tyagi |
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26-11-2016 |
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