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मार्क्सवाद का एक भारतीय संस्करण न खड़ा कर पाना मेरी नजर मे वाम पंथियो की सबसे बड़ी नाकामी है....................रूस मे लेनिन और चीन मे माओ, आदि नेताओ ने अपने विशिष्ट सिद्धान्त सामने रखे जो उस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत के अनुकूल थे लेकिन भारत में क्या हुआ........................दरअसल 1990 के दशक मे इस देश मे कुछ क्रन्तिकारी राजनितिक सामाजिक परिवर्तन आये, जिस से कदम ताल मिला पाने मे वामपंथ असफल रहा वह अब भी घिसे पिटे ढर्रे को लेकर चल रहा है जो अब बिलकुल प्रासंगिक नही रहा , आपको लग रहा है क़ि यह पीढ़ी पूंजीवाद, वर्गसंघर्ष,द्वंदात्मक भौतिकवाद को ठीक वैसा समझेगी जैसा वामपंथी सदियों से समझते आये है तो उन्हें नही नव वाम पंथियो को होश की दवा की जरूरत है....................
Girish Malviya
आज एक महत्वपूर्ण विषय उठा रहा हूँ क़ि भारत मे वाम दलों की राजनीति क्यो अप्रासंगिक हो गयी है ?
कुछ दिन पहले मार्क्स का जन्मदिन था भारत मे और विशेष कर फ़ेसबुक के कई मित्रो ने उन्हें याद किया लेकिन यहाँ प्रश्न मार्क्स की विचारधारा पर नही है प्रश्न मार्क्स के नामलेवा दल की कथनी और करनी पर है…..............
वैसे यह वाम दलों की जन प्रतिबध्दताओ की अच्छी मिसाल है क़ि जैसे ही आप जनता की समस्याओं को लेकर सत्ता की आलोचना करते है आप को सबसे पहले आपको कॉमरेड की उपाधि से विभूषित किया जाता है.................
लेकिन इसी के साथ यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि यदि वाम दल इतने ही लोकप्रिय रहे है तो भारत की राजनीति मे आज क्यों हाशिये पर धकेल दिए गए है यह एक बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रश्न है ..............
कही पर पढ़ा था क़ि , किसी बड़े वाम नेता ने भविष्य वाणी की थी जिस दिन काँन्ग्रेस सत्ता से बाहर हो जायेगी उसके दस वर्ष के अंदर ही देश मे वामदलो का अस्तित्व संकट मे आ जायेगा, आज देखते है तो यह बात सही प्रतीत होती है क्या देश के सभी कम्युनिस्ट नेताओ ने इस बारे मे कोई चिंतन मंथन करने की कोशिश की....................
बंगाल जैसे राज्य मे वाम दल लंबे समय के लिए सत्ता से बाहर हो गए क्योकि उन्होंने खुद पूंजीपतियों से गठजोड़ करने मे कोई कोर कसर नही छोड़ी टाटा का सिंगुर विवाद इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, ...........
क्या वाम दलों को उत्तर और मध्य भारत मे हुए छोटे स्तर के जन आंदोलनों मे क्या अपना कोई योगदान दिखाई पड़ता है,........
हमे यह भी देखना चाहिए क़ि जिन देशों मे भी साम्यवाद आया वहा पर मार्क्सवाद का देशी संस्करण तैयार किया गया रूस मे लेनिन और चीन मे माओ, आदि नेताओ ने अपने विशिष्ट सिद्धान्त सामने रखे जो उस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत के अनुकूल थे लेकिन भारत में क्या हुआ........................
भारत मे मार्क्सवादी इन देशों की पोलित ब्यूरो से निर्देश लेने मे लगे रहे जिससे भारतीय जनमानस मे यह विचार बना क़ि यह विदेशी शक्तियो की गुलामी करते है और यह विचार वाम दलों से इतना चिपक गया है कि वह इस दाग से पीछा छुड़ाना चाहे भी तो नही छुड़ा सकते
मार्क्सवाद का एक भारतीय संस्करण न खड़ा कर पाना मेरी नजर मे वाम पंथियो की सबसे बड़ी नाकामी है....................
ऐसे ही विचारो को लेकर मैंने एक अच्छे मित्र की वाल पर कॉमेंट किया कि इस देश मे कभी कम्युनिज्म आएगा इसकी कोई सम्भावना ही नही बची है, ............
दरअसल 1990 के दशक मे इस देश मे कुछ क्रन्तिकारी राजनितिक सामाजिक परिवर्तन आये, जिस से कदम ताल मिला पाने मे वामपंथ असफल रहा वह अब भी घिसे पिटे ढर्रे को लेकर चल रहा है जो अब बिलकुल प्रासंगिक नही रहा , आपको लग रहा है क़ि यह पीढ़ी पूंजीवाद, वर्गसंघर्ष,द्वंदात्मक भौतिकवाद को ठीक वैसा समझेगी जैसा वामपंथी सदियों से समझते आये है तो उन्हें नही नव वाम पंथियो को होश की दवा की जरूरत है....................
वामपंथ को जनप्रिय बनाने के प्रयासों को 'कूड़ा फैलाने ' की संज्ञा देने वाले मास्को रिटर्नड एक कामरेड के व्यक्तिगत इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि, जब रूस से लौटते समय उनके पुत्र डिग्री के साथ- साथ उनके लिए रूसी पुत्र - वधू लाने की सूचना प्रेषित करते हैं तब उनका आंतरिक जातिवाद उनको ग्लानिग्रस्त कर देता है। इतना ही नहीं दूसरे पुत्र के लिए जब वह सपत्नीक रिश्ता तय करने जाते हैं तब उनकी कामरेड पत्नी ( जो महिला विंग की नेता के रूप में दहेज विरोधी भाषण देकर वाहवाही बटोर चुकी थीं ) एक लाख रुपयों की मांग पेश करती हैं। वह लड़की जो उनको पसंद थी उनके भाषण वाला अखबार उनको दिखाते हुये विवाह से इंकार कर देती है। तब उनका पुत्र ही माता - पिता से बगावत करके उसी लड़की से दहेज रहित विवाह कर लेता है। रोजगार छिनने पर जब वह अपने इन मास्को रिटर्नड कामरेड श्वसुर साहब से जायदाद में अपने हक की मांग करती है तब ये लोग उसे पीट कर भगा देते हैं थाने में इनकी पहुँच के चलते इनकी पुत्र वधू की FIR नहीं लिखी जाती है। इनके जैसे मास्को रिटर्नड कामरेड करोड़ों की संपत्तियाँ बटोरने में मशगूल हैं और पार्टी के नियंता भी बने हुये हैं तब कैसे कम्यूनिज़्म कामयाब हो ?
वामपंथ /साम्यवाद का भारत में प्रस्तुतीकरण (WAY OF PRESENTATION) नितांत गलत है जिसे जनता ठुकरा देती है। यदि अपनी बात को भारतीय संदर्भों व भारतीय महापुरुषों के दृष्टांत देकर प्रस्तुत किया जाये तो निश्चय ही जनता की सहानुभूति व समर्थन मिलेगा। उदाहरणार्थ खुद को नास्तिक - एथीस्ट कहते हैं और जनता के कोपभाजन का शिकार होते हैं। मजहब धर्म नहीं है वह पंथ या संप्रदाय है जबकि, समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं।
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
पोंगापंथी वेद और पुराण को एक कहते हैं और वामपंथ भी जबकि, पुराण कुरान की तर्ज़ पर विदेशी शासकों द्वारा ब्राह्मणों से लिखवाये वे ग्रंथ हैं जिनमें भारतीय महापुरुषों का चरित्र हनन किया गया है। 'वेद ' कृणवन्तो विश्वमार्यम की बात करते हैं अर्थात सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने की बात इसमें देश- काल- लिंग-जाति-
वर्ण का कोई भेद नहीं है यह समानता का भाव है। लेकिन वामपंथ / साम्यवाद के द्वारा उस ढोंग का समर्थन किया जाता है कि, 'आर्य ' एक विदेशी जाति है जो बाहर से आई थी। जबकि, 'आर्य ' न कोई जाति है न ही धर्म बल्कि मानवता को श्रेष्ठ बनाने की समष्टिवादी ( समानता पर आधारित ) व्यवस्था है। जिस दिन वामपंथ / साम्यवाद लेनिन व स्टालिन की बात मान कर भारतीय संदर्भों का अवलंबन शुरू कर देगा उसी दिन से जनता इसे सिर - माथे पर ले लेगी। महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी 'साम्यवाद' को देश - काल - परिस्थितियों के अनुसार लागू करने की बात कही है लेकिन भारत के वामपंथी / साम्यवादी न मार्क्स की बात मानते हैं न ही लेनिन व स्टालिन की। केवल चलनी में दूध छानते रहेंगे और दोष अपनी कार्य प्रणाली को न देकर जनता को देते रहेंगे तब क्या जनता का समर्थन हासिल कर सकते हैं ?
(विजय राजबली माथुर )
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