Monday, 28 August 2017

तानाशाही की तरफ बढ़ती मोदी की सत्ता को लालू यादव और ममता बनर्जी ही चुनौती दे रहे हैं ------ विजय राजबली माथुर

तानाशाही की तरफ बढ़ती मोदी की सत्ता को लालू यादव और ममता बनर्जी ही चुनौती दे रहे हैं । 
जन भाषा और जन बोली से दूर रहने वाले अति कट्टर साम्यवादी / वामपंथी पटना रैली में CPI के भाग लेने पर आलोचना कर रहे हैं तो कुछ एथीस्ट नेता मनु स्मृति से उदाहरण लेकर बचाव कर रहे हैं। CPM के नेता मनु स्मृति का सहारा लेने की आलोचना कर रहे हैं। 
वास्तविकता तो यह है कि, सभी साम्यवादी / वामपंथी दलों पर ब्राह्मणवादी लोगों का नियंत्रण है और वे अपने कदमों से जाने या अनजाने मोदी के  फासिस्ट कदमों को मजबूती देते जा रहे हैं। 
जब 1952 में संसद ( लोकसभा ) के मुख्य विपक्षी दल की हैसियत में आ गए थे। केरल में चुनाव के जरिये सत्ता हासिल हो चुकी थी तब 'यह आज़ादी झूठी है ' का नारा गढ़ कर पार्टी को विभाजित होते देखा। फिर तो केले के तने की परतों की तरह सैंकड़ा से ऊपर साम्यवादी दल बनते चले गए। ऐसी स्थिति में जनता को जो भी सत्ता - विरोधी विकल्प मिलता रहा उसी के साथ होती चली गई। 
1980 में सत्ता में पुनर्वापिसी के लिए इन्दिरा गांधी ने RSS से जो गुप्त सम्झौता किया और शासन को मजदूर विरोधी दिशा देनी शुरू की उसे राजीव गांधी ने उनकी हत्या के बाद RSS की मदद से ही सत्ता हासिल( तब फिर से RSS ने भाजपा के बजाए इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन दिया था और ए बी बाजपेयी को भी हरा दिया था ) करने के कारण कार्पोरेटी स्टाईल में ढालना शुरू किया। 
1991 में वित्तमंत्री बनने के साथ मनमोहन सिंह ने जिस उदारीकरण को अपनाया था उसे एल के आडवाणी साहब न्यूयार्क जाकर अपनी नीतियों को चुराया जाना घोषित कर आए थे। जब उनको तीसरी बार पी एम बनने के आसार नहीं दिखे तब रामदेव,हज़ारे आदि - आदि द्वारा कार्पोरेटी भ्रष्टाचार संरक्षण का आंदोलन खड़ा करवा कर अप्रत्यक्ष रूप से मोदी व भाजपा को इतना मजबूत कर दिया कि, 2014 में उनकी सत्ता आसानी से स्थापित हो गई। 
तानाशाही की तरफ बढ़ती मोदी की सत्ता को लालू यादव और ममता बनर्जी ही चुनौती दे रहे हैं । 
अतः जो साम्यवादी / वामपंथी लालू यादव और ममता बनर्जी से एलर्जी रख कर दूरी बनाना चाहते हैं वे अंततः मोदी की फासिस्ट सत्ता को ही मजबूत बनाने का बहाना ढूंढ रहे हैं। 
CPI ने भी उन D Raja साहब को भेजा जो मूल भाषण अङ्ग्रेज़ी में देते हैं हिन्दी के जानकार और क्षेत्र से वाकिफ अतुल अंजान साहब को नहीं जिससे पता चलता है  कि, सांकेतिक उपस्थिती ही दर्ज करवाई जनता को ठोस संदेश समर्थन का नहीं दिया गया है। 
1951 में 'नया जमाना ', सहारनपुर के संस्थापक संपादक कन्हैया लाल मिश्र ' प्रभाकर ' ने RSS प्रचारक लिमये साहब से कहा था कि, वह दिन दूर नहीं जब दिल्ली की सड़कों पर RSS और कम्युनिस्टों के बीच निर्णायक रक्त - रंजित संघर्ष होगा। 
तब से RSS निरंतर मजबूत हुआ है जबकि  ब्राह्मण वादियों ने कम्युनिस्टों को विभाजित व कमजोर किया है। आज जिस तरह कम्युनिस्ट  खुद जनता से दूर हुये हैं और जन- नेताओं से दूरी बनाए रखने की चर्चा है उसका लाभ उठा कर यदि फासिस्ट सत्ता और मजबूत हुई तब युवा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता निश्चय ही RSS से सशस्त्र मुक़ाबला करेगा और तब वह इन ब्राह्मण वादी कम्युनिस्ट नेताओं को भी धकेल कर आगे बढ़ जाएगा। 
यदि आज कम्युनिस्ट नेतृत्व जन तंत्र समर्थकों के साथ किसी एलर्जी के कारण नहीं खड़ा हुआ और फासिस्ट पुनः सत्तारूढ़ हुये  तो भविष्य में होने वाले रक्त - रंजित संघर्ष की ज़िम्मेदारी उन पर भी होगी।




Saturday, 12 August 2017

हिंसा का प्रतिरोध हिंसा से क्यों ? ------ मीनाक्षी देहलवी

यदि सत्ता या समाज की संरचना में हिंसा का तत्व निहित हो तो उसका प्रतिरोध करनेवाली शक्तियों के लिए भी हिंसा या बल प्रयोग एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बन जाती है।
Meenakshy Dehlvi
12-08-2017 
समाज में परिवर्तन लाकर उसे बेहतर बनाने के लिए जी जान से जुटे लोगों के रूप में हमें अक्सर समाज में सराहना मिलती है परन्तु हमारे कई मानवतावादी शुभचिन्तक और सहयोगी पूर्वाग्रह के चलते सामाजिक परिवर्तन में हिंसा की जरूरत से कतई सहमत नहीं होते। क्रान्तिकारियों पर यह आरोप बहुधा लगता ही रहा है कि वे हिंसा की अनिवार्यता पर गैरजरूरी जोर देते हैं। विचारवान वामपंथी और प्रगतिशील खेमे की ओर से भी इस प्रश्न पर या तो षडयंत्रकारी चुप्पी रखी जाती है या हिंसा की अनिवार्यता को मौजूदा दौर में अप्रासंगिक बनाने के लिए सिद्धान्त प्रतिपादित किये जाते हैं। स्वयं इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि कोई भी आमूलगामी व्यवस्थागत या आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन हिंसा या बलप्रयोग के बिना संभव नहीं हुआ है। फ्रांसीसी क्रान्ति जैसी पूंजीवादी जनवादी क्रान्तियां या विभिन्न देशों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष जो पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में सम्पन्न हुए थे, उसमें भी हिंसा या हिंसा का तथ्य मौजूद था। भारत का मुक्ति संघर्ष भी ब्रिटिश शासकों के हृदय परिवर्तन से नहीं बल्कि बल प्रयोग के जरिये हासिल हुआ था। दबाव बनाकर और अहिंसात्मक दिखने वाली सामूहिक कार्रवाइयों की बदौलत यदि शासन करनेवालों को अपने पक्ष में सहमति के लिए बाध्‍य कर दिया जाता है तो वह हिंसा या बलप्रयोग ही होता है। इस रूप में धरना, आन्दोलन, जुलूस, भूख-हड़ताल इन सभी दबाव बनाने वाले तरीकों का गांधी ने राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्ष के दौरान भरपूर इस्तेमाल किया था। गोलमेज जैसी वार्ताओं की पृष्ठभूमि कभी तैयार ही न हो पाती यदि जनता की संगठित कार्रवाइयों के रूप में बलप्रयोग नहीं किया गया होता। यथास्थिति के परिवर्तन में हमेशा ही बलप्रयोग होता रहा है। यह वैज्ञानिक सूत्रीकरण है। और मार्क्सवाद भी एक क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन का विज्ञान है, जो शासक वर्ग के संगठित बलप्रयोग के केन्द्रीय उपकरण के रूप में मूर्त राज्यसत्ता के खिलाफ प्रतिरोधी क्रान्तिकारी संगठित हिंसा के राजनीतिक संगठन की अनिवार्यता के सिद्धान्त को सूत्रबद्ध करता है। भारत की पूंजीवादी राज्यसत्ता द्वारा आम जनता के न्यायपूर्ण आन्दोलनों, जायज मांगों को लेकर किये गये प्रदर्शनों धरनों को किस प्रकार पुलिस फौज की लाठी गोली से कुचल दिया जाता है, सैनिकों द्वारा जनसंघर्षों पर बलप्रयोग के लिए किसप्रकार विशेषाधिकार कानून बनाये जाते हैं, यह साफ देखा जा सकता है। यह समझना बहुत कठिन नहीं कि यदि सत्ता या समाज की संरचना में हिंसा का तत्व निहित हो तो उसका प्रतिरोध करनेवाली शक्तियों के लिए भी हिंसा या बल प्रयोग एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बन जाती है। परन्तु मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों पर हिंसा की अनिवार्यता पर बल देने का आरोप इस प्रकार मढ़ दिया जाता है मानो वे हिंसा को ग्लोारिफाई करना चाहते हों।

साभार: 
https://www.facebook.com/meenakshy.dehlvi/posts/1407080076047643

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