तानाशाही की तरफ बढ़ती मोदी की सत्ता को लालू यादव और ममता बनर्जी ही चुनौती दे रहे हैं ।
जन भाषा और जन बोली से दूर रहने वाले अति कट्टर साम्यवादी / वामपंथी पटना रैली में CPI के भाग लेने पर आलोचना कर रहे हैं तो कुछ एथीस्ट नेता मनु स्मृति से उदाहरण लेकर बचाव कर रहे हैं। CPM के नेता मनु स्मृति का सहारा लेने की आलोचना कर रहे हैं।
वास्तविकता तो यह है कि, सभी साम्यवादी / वामपंथी दलों पर ब्राह्मणवादी लोगों का नियंत्रण है और वे अपने कदमों से जाने या अनजाने मोदी के फासिस्ट कदमों को मजबूती देते जा रहे हैं।
जब 1952 में संसद ( लोकसभा ) के मुख्य विपक्षी दल की हैसियत में आ गए थे। केरल में चुनाव के जरिये सत्ता हासिल हो चुकी थी तब 'यह आज़ादी झूठी है ' का नारा गढ़ कर पार्टी को विभाजित होते देखा। फिर तो केले के तने की परतों की तरह सैंकड़ा से ऊपर साम्यवादी दल बनते चले गए। ऐसी स्थिति में जनता को जो भी सत्ता - विरोधी विकल्प मिलता रहा उसी के साथ होती चली गई।
1980 में सत्ता में पुनर्वापिसी के लिए इन्दिरा गांधी ने RSS से जो गुप्त सम्झौता किया और शासन को मजदूर विरोधी दिशा देनी शुरू की उसे राजीव गांधी ने उनकी हत्या के बाद RSS की मदद से ही सत्ता हासिल( तब फिर से RSS ने भाजपा के बजाए इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन दिया था और ए बी बाजपेयी को भी हरा दिया था ) करने के कारण कार्पोरेटी स्टाईल में ढालना शुरू किया।
1991 में वित्तमंत्री बनने के साथ मनमोहन सिंह ने जिस उदारीकरण को अपनाया था उसे एल के आडवाणी साहब न्यूयार्क जाकर अपनी नीतियों को चुराया जाना घोषित कर आए थे। जब उनको तीसरी बार पी एम बनने के आसार नहीं दिखे तब रामदेव,हज़ारे आदि - आदि द्वारा कार्पोरेटी भ्रष्टाचार संरक्षण का आंदोलन खड़ा करवा कर अप्रत्यक्ष रूप से मोदी व भाजपा को इतना मजबूत कर दिया कि, 2014 में उनकी सत्ता आसानी से स्थापित हो गई।
तानाशाही की तरफ बढ़ती मोदी की सत्ता को लालू यादव और ममता बनर्जी ही चुनौती दे रहे हैं ।
अतः जो साम्यवादी / वामपंथी लालू यादव और ममता बनर्जी से एलर्जी रख कर दूरी बनाना चाहते हैं वे अंततः मोदी की फासिस्ट सत्ता को ही मजबूत बनाने का बहाना ढूंढ रहे हैं।
CPI ने भी उन D Raja साहब को भेजा जो मूल भाषण अङ्ग्रेज़ी में देते हैं हिन्दी के जानकार और क्षेत्र से वाकिफ अतुल अंजान साहब को नहीं जिससे पता चलता है कि, सांकेतिक उपस्थिती ही दर्ज करवाई जनता को ठोस संदेश समर्थन का नहीं दिया गया है।
1951 में 'नया जमाना ', सहारनपुर के संस्थापक संपादक कन्हैया लाल मिश्र ' प्रभाकर ' ने RSS प्रचारक लिमये साहब से कहा था कि, वह दिन दूर नहीं जब दिल्ली की सड़कों पर RSS और कम्युनिस्टों के बीच निर्णायक रक्त - रंजित संघर्ष होगा।
तब से RSS निरंतर मजबूत हुआ है जबकि ब्राह्मण वादियों ने कम्युनिस्टों को विभाजित व कमजोर किया है। आज जिस तरह कम्युनिस्ट खुद जनता से दूर हुये हैं और जन- नेताओं से दूरी बनाए रखने की चर्चा है उसका लाभ उठा कर यदि फासिस्ट सत्ता और मजबूत हुई तब युवा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता निश्चय ही RSS से सशस्त्र मुक़ाबला करेगा और तब वह इन ब्राह्मण वादी कम्युनिस्ट नेताओं को भी धकेल कर आगे बढ़ जाएगा।
यदि आज कम्युनिस्ट नेतृत्व जन तंत्र समर्थकों के साथ किसी एलर्जी के कारण नहीं खड़ा हुआ और फासिस्ट पुनः सत्तारूढ़ हुये तो भविष्य में होने वाले रक्त - रंजित संघर्ष की ज़िम्मेदारी उन पर भी होगी।
जन भाषा और जन बोली से दूर रहने वाले अति कट्टर साम्यवादी / वामपंथी पटना रैली में CPI के भाग लेने पर आलोचना कर रहे हैं तो कुछ एथीस्ट नेता मनु स्मृति से उदाहरण लेकर बचाव कर रहे हैं। CPM के नेता मनु स्मृति का सहारा लेने की आलोचना कर रहे हैं।
वास्तविकता तो यह है कि, सभी साम्यवादी / वामपंथी दलों पर ब्राह्मणवादी लोगों का नियंत्रण है और वे अपने कदमों से जाने या अनजाने मोदी के फासिस्ट कदमों को मजबूती देते जा रहे हैं।
जब 1952 में संसद ( लोकसभा ) के मुख्य विपक्षी दल की हैसियत में आ गए थे। केरल में चुनाव के जरिये सत्ता हासिल हो चुकी थी तब 'यह आज़ादी झूठी है ' का नारा गढ़ कर पार्टी को विभाजित होते देखा। फिर तो केले के तने की परतों की तरह सैंकड़ा से ऊपर साम्यवादी दल बनते चले गए। ऐसी स्थिति में जनता को जो भी सत्ता - विरोधी विकल्प मिलता रहा उसी के साथ होती चली गई।
1980 में सत्ता में पुनर्वापिसी के लिए इन्दिरा गांधी ने RSS से जो गुप्त सम्झौता किया और शासन को मजदूर विरोधी दिशा देनी शुरू की उसे राजीव गांधी ने उनकी हत्या के बाद RSS की मदद से ही सत्ता हासिल( तब फिर से RSS ने भाजपा के बजाए इन्दिरा कांग्रेस को समर्थन दिया था और ए बी बाजपेयी को भी हरा दिया था ) करने के कारण कार्पोरेटी स्टाईल में ढालना शुरू किया।
1991 में वित्तमंत्री बनने के साथ मनमोहन सिंह ने जिस उदारीकरण को अपनाया था उसे एल के आडवाणी साहब न्यूयार्क जाकर अपनी नीतियों को चुराया जाना घोषित कर आए थे। जब उनको तीसरी बार पी एम बनने के आसार नहीं दिखे तब रामदेव,हज़ारे आदि - आदि द्वारा कार्पोरेटी भ्रष्टाचार संरक्षण का आंदोलन खड़ा करवा कर अप्रत्यक्ष रूप से मोदी व भाजपा को इतना मजबूत कर दिया कि, 2014 में उनकी सत्ता आसानी से स्थापित हो गई।
तानाशाही की तरफ बढ़ती मोदी की सत्ता को लालू यादव और ममता बनर्जी ही चुनौती दे रहे हैं ।
अतः जो साम्यवादी / वामपंथी लालू यादव और ममता बनर्जी से एलर्जी रख कर दूरी बनाना चाहते हैं वे अंततः मोदी की फासिस्ट सत्ता को ही मजबूत बनाने का बहाना ढूंढ रहे हैं।
CPI ने भी उन D Raja साहब को भेजा जो मूल भाषण अङ्ग्रेज़ी में देते हैं हिन्दी के जानकार और क्षेत्र से वाकिफ अतुल अंजान साहब को नहीं जिससे पता चलता है कि, सांकेतिक उपस्थिती ही दर्ज करवाई जनता को ठोस संदेश समर्थन का नहीं दिया गया है।
1951 में 'नया जमाना ', सहारनपुर के संस्थापक संपादक कन्हैया लाल मिश्र ' प्रभाकर ' ने RSS प्रचारक लिमये साहब से कहा था कि, वह दिन दूर नहीं जब दिल्ली की सड़कों पर RSS और कम्युनिस्टों के बीच निर्णायक रक्त - रंजित संघर्ष होगा।
तब से RSS निरंतर मजबूत हुआ है जबकि ब्राह्मण वादियों ने कम्युनिस्टों को विभाजित व कमजोर किया है। आज जिस तरह कम्युनिस्ट खुद जनता से दूर हुये हैं और जन- नेताओं से दूरी बनाए रखने की चर्चा है उसका लाभ उठा कर यदि फासिस्ट सत्ता और मजबूत हुई तब युवा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता निश्चय ही RSS से सशस्त्र मुक़ाबला करेगा और तब वह इन ब्राह्मण वादी कम्युनिस्ट नेताओं को भी धकेल कर आगे बढ़ जाएगा।
यदि आज कम्युनिस्ट नेतृत्व जन तंत्र समर्थकों के साथ किसी एलर्जी के कारण नहीं खड़ा हुआ और फासिस्ट पुनः सत्तारूढ़ हुये तो भविष्य में होने वाले रक्त - रंजित संघर्ष की ज़िम्मेदारी उन पर भी होगी।
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