Sunday, 27 January 2019

डॉ आंबेडकर की नजर में साम्यवाद - ब्राह्मणवाद और हिन्दू राष्ट्र


डॉ आंबेडकर के आंकलन कितने सटीक हैं जो आज के संदर्भ में स्पष्ट देखे जा सकते हैं। 26 जनवरी 2019 गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर भाजपा की मोदी सरकार द्वारा जिन पदम पुरस्कारों की घोषणा की गई उनमें एक नाम सुश्री गीता मेहता ( उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बहन ) का भी था किन्तु उन्होने इसे ठुकरा दिया क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं हैं। परंतु AIKS जो CPI से सम्बद्ध है की ब्राह्मण नेत्री को जब भाजपा के मंत्री द्वारा सम्मानित किया गया तो उन्होने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया क्योंकि साम्यवादी दलों का शीर्ष नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथों में है जो खुद को हिन्दू भी मानते हैं और भाजपा के प्रति नरम रुख भी रखते हैं। बंगाल CPM के नेता तरुण घोष द्वारा भाजपा अध्यक्ष के हेलीकाप्टर के वास्ते CPM की जमीन उपलब्ध कराया जाना भी इसी प्रवृत्ति का द्योतक है।  








समाजवाद और साम्यवाद के सिद्धान्त सिर्फ पुस्तकों की शोभा बढ़ाने हेतु ही अच्छे हैं। इनके नेतृत्व द्वारा अपने कार्यकर्ताओं के साथ ही व्यवहार सामंतवादी रहता है फिर ये क्यों और कैसे जनता को आकर्षित कर पाएंगे? परिणाम स्वरूप फासिस्ट शक्तियों की पौ बारह ही रहती है। 


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Gyan Prakash Aggarwal
28-01-2019 
“भारत में प्रचलित सामाजिक व्यवस्था एक ऐसा मसला है, जिससे किसी भी समाजवादी को निपटना ही पड़ेगा। जब तक वह ऐसा नहीं करता, वह क्रांति के अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता और खुशकिस्मती से वह क्रांति करने में सफल हो जाता है, तब वह जिस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए उसे सामाजिक व्यवस्था से मोर्चा लेना ही होगा- यह एक ऐसा प्रस्ताव है, जिस पर मेरे विचार से कोई समझौता नहीं हो सकता। समाजवादी अगर क्रांति के पहले जाति की ओर ध्यान नहीं देता तो, क्रांति के बाद उसे ऐसा करना ही होगा। यह इस बात को दूसरी तरह से कहना है कि आर किसी ओर भी मुंह कीजिए, जाति एक ऐसा राक्षस है, जो आपका रास्ता रोकेगा ही नहीं बल्कि काटेगा भी। जब तक आप इस राक्षस का वध नहीं करते, आप न तो राजनैतिक सुधार कर सकते हैं और ना ही आर्थिक सुधार”।
‘जाति का विनाश : प्रसिद्ध भाषण, जिसे डॉ. भीमराव आंबेडकर को देने नहीं दिया गया’, के लंबे उद्धरण से लेख शुरू करने का मकसद सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में अपेक्षित ब्राह्मणवादी अवरोध को नहीं, मार्क्सवादी और आंबेडकरवादी तत्ववादियों को संबोधित करना है, जो आंबेडकर के विचारों और मार्क्सवाद में अंतर्निहित असाध्य अंतरविरोधों का अन्वेषण करते हैं। आंबेडकर का मकसद जातिवाद का विनाश था, प्रतिस्पर्धी जातिवाद नहीं। मार्क्सवाद को वैचारिक स्रोत मानने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी/पार्टियों ने मार्क्सवाद को समाज की खास परिस्थितियों को समझने के विज्ञान और वर्ग-संघर्ष की क्रांतिकारी विचारधारा के रूप में अपनाने के बजाय, नजीर के रूप में अपना लिया। आंबेडकरवाद को अपना वैचारिक स्रोत मानने वाली बहुजन समाज पार्टी के जैसे कई, अस्मितावादी समूह जवाबी प्रतिस्पर्धी जातिवाद को अपनी राजनीति का आधार मानते हैं तथा सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के में वर्णाश्रमी जातिवाद (ब्राह्मणवाद) के पूरक जातिवाद के रूप में सहयोगी गतिरोधक बन गए हैं। असमानता की समस्या का समाधान जवाबी असमानता नहीं बल्कि समानता है, उसी तरह जातिवाद का समाधान जवाबी जातिवाद नहीं है, जाति-व्यवस्था का विनाश है। ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है: कर्म और विचार से स्वअर्जित, विवेकसम्मत अस्मिता की प्रवृत्तियों के बजाय जन्म की जीववैज्ञानिक अस्मिता की रूढ़िगत प्रवृत्तियों के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन। ऐसा करने वाले जन्मना अब्राह्मण ब्राह्मणवाद को पराजित करने के बजाय उसे मजबूत करते हैं तथा वस्तुतः नवब्राह्मणवादी हैं। मेरे विचार से ‘जाति का विनाश’ भारतीय समाज की एक वैज्ञानिक समीक्षा है तथा मार्क्सवाद समाज की व्याख्या का एक गतिशील विज्ञान।
बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल 1891 – 6 दिसंबर 
रविन्द्र पटवाल
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