Tuesday, 14 April 2020

14 अप्रैल डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती पर स्मरण ------ अरविन्द राजस्वरूप





Arvind Raj Swarup Cpi is with Sunita Chawla Renke.

14 अप्रैल डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती पर।

कोई भी विद्वान महापुरुष अपने जीवन काल में इतना काम कर जाता है कि दूसरों को उसकी प्रतिभा के विभिन्न आयामों को आत्मसात करते ही पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है।

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ऐसे ही कुछ चुनिंदा महापुरुषों में एक हैं।

हम विश्व विद्यालय में जब तक पढ़ते थे तो तब पॉलिटिकल साइंस के विद्यार्थी होने के नाते डॉक्टर अंबेडकर के इस पक्ष की जानकारी थी कि वह भारत के संविधान को लिखने वाली ड्राफ्टिंग कमिटी के चेयरमैन थे।

उन्होंने बहुत ही विद्वतापूर्ण एवं अर्जित ज्ञान के प्रकाश में संविधान सभा में हुई बहसों के आधार पर संविधान का प्रारूप तैयार किया था।

विद्यार्थी जीवन तक हम डॉक्टर अंबेडकर के बारे में सिर्फ इतना ही ज्ञान रखते थे।

पार्टी के नेतागण भी डॉक्टर अंबेडकर के बारे में बहुत अधिक चर्चा नहीं करते थे ।

सीपीआई नें बाद में और हमारे जीवन काल में ही अपने विचारों को परिवर्तित किया और पार्टी के एक महाधिवेशन में 14 अप्रैल के दिन डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के सामाजिक और राजनीतिक योगदान के बारे में चर्चा की।

पार्टी के उस महाधिवेशन में मुझको भी एक प्रतिनिधि होने के नाते जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
पार्टी महाधिवेशन में चर्चा के पश्चात ये वड़ा स्वाभाविक था कि हमारी पीढ़ी के कम्युनिस्टों को डॉक्टर अंबेडकर के विचारों को जानने की उत्सुकता हुई।

कम्युनिस्टों की एक विशेषता है वह अपनी सोची-समझी लाइन पर चलते रहते हैं। उनके विचार बड़े स्थिर होते हैं। विचार स्थिर होने से यह अभिप्राय नहीं कि यदि परिस्थिति बदलती है तो उन विचारों को परिस्थिति के अनुकूल परिवर्तित नहीं किया जाता।
कम्युनिस्टों के विचारों का स्थायित्व उनकी राजनैतिक एवं दार्शनिक सोच के आधार पर निर्मित होता है। इसलिए उनको बड़ी आसानी होती है कि वह नवीन विचारों को भी ग्रहण कर सकें और यदि कुछ विचार पुराने हो गए हैं तो उनको त्याग दें या उनको त्यागने की कोशिश करें।

शुरुआती वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था लचीली रही होगी यानी आपस में तब्दील होने वाली हो, अर्थात पेशे या काम के आधार पर स्थापित वर्णों में बदलाव हो सकता हो । परंतु परिवर्ती काल में जो व्यवस्था बन गई और जातियों का जिस तरीके से स्थायित्व हो गया उसमें दूसरे वर्ण में परिवर्तित होने की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई।भले ही पेशे के आधार पर वह कुछ भी काम करते हो।

परवर्ती काल में जिसको हम मनुवादी व्यवस्था का भी काल कहते हैं उसमें जातियों की व्यवस्था इतनी स्थायित्व की हो गई उसमें तीन जातियों को छोड़कर बाकी तो सभी जातियां शूद्र ठहरा दी गई। इन 3 जातियों नें अपनें आप को द्विज घोषित कर दिया और शूद्रों के लिए उस सामाजिक व्यवस्था में कोई स्थान ही नहीं रह गया।

आधुनिक भारत में , विशेष रूप से जब पश्चिमी दुनिया से मानव की बराबरी का विचार आया और एक आधुनिक जनतंत्र के जीवन का प्रादुर्भाव हुआ तो उसमें इस मनुवादी व्यवस्था को, उसकी ना टूटने वाली जाति व्यवस्था को और उस जाति व्यवस्था के आधार पर करोड़ों गरीब लोगों को जिनको समाज में शूद्र का स्थान दिया गया था ,के विरुद्ध आवाजें उठनीं शुरू हो गई।

विश्व भर में उन आवाजों का अलग अलग विकास क्रम सामने आया।

कम्युनिस्ट लोग तो अपनी विचारधारा के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था ,जातिवाद और धर्म के आधार पर शोषण के विरुद्ध थे और कम्युनिस्ट पार्टी के पीछे लाखों ऐसी जनता थी जो समाज सत्ता के द्वारा परित्यक्त थी।

ब्रिटिश काल में जब आजादी के आंदोलन का संघर्ष शुरू हुआ तो एक तरफ राजनीतिक अभियान प्रारंभ हुआ और समानांतर रूप से सामाजिक संघर्ष भी प्रारंभ हुआ।

इन परिस्थितियों में हम कम्युनिस्ट डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण समझते हैं।

आज के दिन यह  कहा जा सकता है कि अनेकों समाज सुधारकों नें जो आंदोलन किए उनमें यदि दलित जातियों को समाज में बराबरी का और सम्मान जनक स्थान दिलवाने का संघर्ष डॉक्टर अंबेडकर ने ना प्रारंभ किया होता तो संभवत दलितों की हालात में ईतना भी सुधार ना हुआ होता जितना अभी कुछ दिखता है।


1950 में संविधान बनने के साथ-साथ दलितों को 22.5% का आरक्षण मिला परंतु मनुवादी जातियों को और शक्तियों को वह आरक्षण कभी भी हजम नहीं हुआ ।

आजादी के इतिहास को पढ़ने वाला प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि हिंदुत्ववादी मनुवादी पोंगा पंथी शक्तियों ने देश के हर सामाजिक सुधार का विरोध किया है।
आज भी हम देख सकते हैं कि अगर इस आरक्षण का विरोध सबसे प्रबल कहीं से उठता है तो हम पाते हैं कि वह जो तथाकथित ऊंची जातियां हैं ,उनके संगठन हैं और उनका जो फलसफा है उसके आधार पर चलकर वही उसका सबसे अधिक विरोध करती हैं।

भारतीय जनता पार्टी के राज सत्ता में आने के बाद वो शक्तियां निर्द्वंद हो गई है।

अलग बात है बीजेपी अनेकों जातियों को एकत्रित करके शासन तो चला रही है परंतु यह आसानी से देखने में आता है कि वह पूरा शासन मनुवादी शक्तियों के आधार पर ही समाज को चलाने के लिए उद्यत रहता है।

सामाजिक न्याय के नाम पर भारत में राजनैतिक एक्सपेरिमेंट सरकारों के रूप में देखा गया है।

अगर हम ओबीसी आरक्षण के बाद के राज को इस समय ना देखें और सिर्फ एससी / एसटी आरक्षण के बाद के समय को देखें तो हम पाते हैं जो कि सामाजिक वैज्ञानिकों के लिए एक विश्लेषण की बात भी है कि बावजूद इसके कि श्री कांशीराम एवं सुश्री मायावती ने राजनैतिक सत्ता उत्तर प्रदेश में प्राप्त कर ली और सुश्री मायावती चार बार ,उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी रह चुकी जिनमें एक बार तो पूरे 5 साल तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थी।
परंतु हम  कम्युनिस्ट, दावे के साथ ये कह सकते कि उनके राज में दलितों की स्थिति , जिनके नाम पर वह सत्ता में आई, गांवों में वही की वही रही। चाहे उनकी आर्थिक हालत हो या उनका समाज में सामाजिक स्थान।
अलग बात है कि राज्य सत्ता से कुछ पाने के लिए मनुवादी उच्च जातियों के अनेकों लोग सुश्री मायावती जी के चरण स्पर्श करते दिखे।
चरण स्पर्श करने से उनको भले ही कुछ लाभ, आर्थिक सामाजिक अथवा राजनैतिक मिल गया हो परंतु उन समस्त शक्तियों ने कभी भी मनु
वादी गैर बराबरी की व्यवस्था को समूल नष्ट करने की चेष्टा नहीं की और इसके साथ साथ भले ही कांशीराम जी का और सुश्री मायावती जी का राज कायम हो गया हो परंतु दलितों के सामाजिक स्तर में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ।
ऐसा सुधार जिसकी परिकल्पना डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने की थी।
हम कम्युनिस्ट आज के दिन डॉक्टर अंबेडकर के उस भाषण का हवाला देना चाहते हैं जो वो दे नहीं पाए थे और फिर उन्होंने अपने संबोधन को एक पुस्तिका के रूप में छपवाया था।वर्ष था 1936.

पाठक के लिए इस भाषण के संबंध में भी कुछ अगर कह दिया जाए तो उचित होगा। डॉक्टर अंबेडकर का यह भाषण स्वागत समिति द्वारा सम्मेलन को इस आधार पर रद्द कर दिए जाने के परिणाम स्वरूप नहीं पढ़ा जा सका की भाषण में व्यक्त विचार सम्मेलन के लिए असहनीय होंगे।

अनादि काल से चलने वाला सेंसर ही तो यह था! इसकी प्रवृत्ति संभवत है वही थी जिसमें एक धनुर्विद्याविद्या में पारंगत युवक का अंगूठा कटवा दिया जाता था।

डॉक्टर अंबेडकर के हिंदी में 21 वॉल्यूम के उपलब्ध वांग्मय में उनके भाषण का टाइटल "जाति प्रथा उन्मूलन " छपा है उनकी यह कृति एक पुस्तिका के रूप में भी बाजार में मिलती है और बहुत पॉपुलर है ।वो इस आलेख में एक जगह उल्लेख करते हैं:

" जाति व्यवस्था समाप्त करने की एक और कार्य योजना है कि अंतर्जातीय खानपान का आयोजन किया जाए। मेरी राय में यह उपाय भी पर्याप्त नहीं है। ऐसी अनेक जातियां हैं जो अंतरजातीय खानपान की अनुमति देती हैं। इस विषय में सामान्य अनुभव यह रहा है कि अंतरजातीय खानपान की व्यवस्था जाति भावना या जाति बोध को समाप्त करने में सफल नहीं हो पाई है। मुझे पूरा विश्वास है कि इसका वास्तविक उपचार अंतरजातीय विवाह ही है। केवल खून के मिलने से ही रिश्ते की भावना पैदा होगी और जब तक सजातीयता की भावना को सर्वोच्च स्थान नहीं दिया जाता तब तक जाति व्यवस्था द्वारा उत्पन्न की गई पृथकता की भावना अर्थात पराये पन की भावना समाप्त नहीं होगी। हिंदुओं में अंतरजातीय विवाह सामाजिक जीवन में निश्चित रूप से महान शक्ति का एक कारक सिद्ध होगा। गैर हिंदुओं में इसकी आवश्यकता नहीं है। जहां समाज संबंधों के ताने-बाने में सुगठित होगा वहां विवाह जीवन कि एक साधारण घटना होगी। लेकिन जहां समाज छिन्न-भिन्न हो वहां बाध्यकारी शक्ति के रूप में विवाह की परम आवश्यकता होती है। अतः जाति व्यवस्था को समाप्त करने का वास्तविक उपाय अंतरजातीय विवाह ही है। जाति व्यवस्था समाप्त करने के लिए जाति विलय ऐसे उपाय को छोड़कर और कोई उपाय कारगर सिद्ध नहीं होगा...
जात पात तोड़क मंडल को संबोधित करते हुए वह आगे लिखते हैं कि :

"आपके जात पात तोड़क मंडल ने आक्रमण की सही नीति अपना रखी है। यह सीधा और सामने का आक्रमण है। मैं आपके सही निदान और हिंदुओं से कहने का साहस दिखाने के लिए आपको बधाई देता हूं ।वास्तव में उनमें (हिंदुओं में) क्या दोष है। सामाजिक अत्याचार के मुकाबले राजनीतिक अत्याचार कुछ भी नहीं है और वह सुधारक जो समाज का विरोध करता है उस राजनीतिज्ञ से अधिक साहसी होता है जो सरकार का विरोध करता है। आपका यह कहना सही है की जाति व्यवस्था उसी स्थिति में समाप्त होगी जब रोटी बेटी का संबंध सामान्य व्यवहार में आ जाए आपने बीमारी की जड़ का पता लगा लिया है। लेकिन क्या बीमारी के लिए आपका नुस्खा ठीक है ?यह प्रश्न अपने आप से पूछिए। अधिसंख्य हिंदू रोटी बेटी का संबंध क्यों नहीं बनाते ?आपका उद्देश्य लोकप्रिय क्यों नहीं है? उसका केवल एक ही उत्तर है और वह है रोटी बेटी का संबंध उन आस्था और धर्म सिद्धांतों के प्रतिकूल है, जिन्हें हिंदू पवित्र मानते हैं।

तो यह सन 1936 था यानी आज से 84 वर्ष पहले।
सुश्री मायावती जी की सरकार आई चली गई।

पर क्या इन रिश्तो में यानी डॉक्टर अंबेडकर के बताए गए रास्ते से समाज में कोई मूलभूत परिवर्तन आया।
संभवतः बहुत कम।
आज भी खाप पंचायतों का व्यवहार देखकर और सुनकर शरीर कांप उठता है। खाप पंचायतें और कथित 'सम्मान की खातिर हत्याएं' न केवल सगोत्र विवाह के खिलाफ हैं बल्कि मिली जुली जातियों के ऐसे विवाहों के भी विरुद्ध हैं जिनमें निम्न जाति का कोई प्राणी किसी दूसरी उच्च जाति के प्राणी से विवाह करें।ये हकीकत में घातक किस्म के षड्यंत्रकारी हत्यारे हैं। समाज द्वारा उनका इलाज अपेक्षित है।

हम कम्युनिस्ट, डॉक्टर अंबेडकर के इन विचारों का अनुमोदन करते हैं और हम यह जानते हैं कि चाहे कोई भी सामाजिक न्याय के आवरण में किन्ही जातियों को एकत्रित करके सत्ता प्राप्त कर ले परंतु वह बिना डॉक्टर अंबेडकर के इन विचारों के पालन किए समाज में परिवर्तन नहीं ला सकता।
कम्युनिस्टों को यह भी भली प्रकार से ज्ञात है कि बिना सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष किए समाज में शक्तियों का बैलेंस बदला नहीं जा सकता ।
इसलिए कम्युनिस्ट मेहनत कश जन समुदाय की वर्ग एकता कायम करते हुए और शासकों के खिलाफ वर्ग संघर्ष विकसित करते हुए जरूरी समझते हैं कि सभी तरह के जातीय भेदों और शत्रुता का दृढ़ता से विरोध किया जाए ताकि दलित और तथाकथित नीची जातियों के खिलाफ किए जाने वाले किसी भी प्रकार के अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध लड़ा जा सके तथा जातिवाद के खिलाफ लगातार वैचारिक, राजनैतिक संघर्ष चलाया जा सके। कम्युनिस्टों के लिए संघर्ष के यह विभिन्न आयाम है।

तो आइए आज 14 अप्रैल को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती के अवसर पर हम यह फिर हलफ़ उठाएं कि हम वर्गीय संघर्षों के साथ-साथ सामाजिक संघर्षों को भी मजबूती से लड़ते रहेंगे और उन लोगों की भी नकाब उतारते रहेंगे जो सामाजिक न्याय के वास्तविक उसूलों से हटकर सामाजिक न्याय के नारे को सिर्फ जाति वर्चस्व का अस्त्र बनाना चाहते हैं या बना रहे हैं।
जय भीम!
लाल सलाम!!
इंकलाब जिंदाबाद!!!
अरविन्द राज स्वरूप
कानपुर 14 अप्रैल 2020
https://www.facebook.com/arvindrajswarup.cpi/posts/2610865835798205

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