Saturday, 29 November 2014

अवाम की आवाज़ और चेहरा :लखनऊ की शान और उत्तर प्रदेश का सितारा - अतुल अनजान


 29 नवंबर  जन्मदिवस पर विशेष :
 अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

                                  (मैथिलीशरण गुप्त )
कामरेड अतुल अनजान लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और AISF के भी पूर्व अध्यक्ष तो हैं ही। वर्तमान में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 'राष्ट्रीय सचिव' तथा AIKS-अखिल भारतीय किसानसभा के 'राष्ट्रीय महामंत्री हैं'।  न केवल अपनी ओजस्वी वाक-शैली वरन जनता के मर्म को समझने वाले एक जन-प्रिय नेता के रूप में भी जाने जाते हैं। 

यदि भाकपा केंद्रीय नेतृत्व उनके राष्ट्रीय कृत्यों के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में पार्टी के पथ -प्रदर्शक के रूप में उनको अतिरिक्त भार  दे दे  तो पार्टी को अत्यंत लाभ हो सकता है।  



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29-11-2016 

Sunday, 16 November 2014

खेत मजदूरो की विशाल रैली --- डा० आर० के० शर्मा




15/11/2014 को up खेत मजदूर यूनियन द्वारा वाराणसी मे आयोजित रैली मे यूनियन व सी पी आई के नेताओ ने वर्तमान केंद्र  सरकार को जन -विरोधी सरकार बताते हुये किसानो ,मजदूरो दस्तकारो को 3000रू पेंशन व खेत खनन मजदुरो के लिए केन्र्दीय कानून बनाने ,और देश मे बढ रही गरीबी रोकने का ठोस उपाय किए जाने की मांग पर आवाज बुलन्द किया......
इस रैली मे पूर्वाचंल के हजारो की तादाद  मे खेत मजदूरो ने लाल झण्डे से लैस होकर के अपनी उपस्थिती दर्ज कराई...
सोनभद्र जनपद के भी यूनियन के लगभग 600 कार्यकर्ता  डा० आर० के० शर्मा के नेतृत्व मे पहुच कर खेत मजदुरो की इस विशाल रैली मे अपनी उपस्थिती दर्ज कराई!!!
रैली को प्रमुख रूप से भाकपा के वरिष्ठ नेता का० ए बी बर्धन ,का० अतुल कुमार अंजान,का० डा० गिरीश शर्मा,खेत मजदुर युनियन के नेता फूल चन्द यादव आदि ने सम्बोधित किया..

Thursday, 13 November 2014

जवाबी तमाचा लगाने का संतोष' समस्‍या के समाधान में कोई विशेष मदद नहीं पहुँचायेगा-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

 

 (गंभीरता पूर्वक इस लेख का अध्यन करके अमल करने की  सख्त ज़रूरत है अन्यथा सम्पूर्ण वामपंथ को गंभीर हानि होने की संभावना है। ---विजय राजबली माथुर )

'किस ऑफ लव' मुहिम के बारे में कुछ विचार

-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी'

किस ऑफ लव' आन्‍दोलन के बारे में कुछ साथियों ने मेरी राय पूछी है।इस आन्‍दोलन से मेरा कोई विरोध तो नहीं है, पर इसके बारे में मेरा रुख आलोचनात्‍मक है।
हिन्‍दुत्‍ववादी ताकतें अपने सामाजिक-सांस्‍कृतिक एजेण्‍डा को लागू करने के लिए प्राय: संस्‍कृति और परम्‍परा की दुहाई देती हैं और प्रतीकवाद के लोकरंजक हथकण्‍डे का इस्‍तेमाल करती हैं। प्रतीकवाद का जवाब महज प्रतीकवाद से देने से मुद्दा हल्‍का हो जाता है। सांस्‍कृतिक आतंकवाद की पुरोगामी राजनीति एक व्‍यापक और दीर्घकालिक प्रतिरोध संगठित किये  जाने की माँग करती है, प्रगतिशील संस्‍कृति और सामाजिक आचार का जनजीवन में व्‍यापक एवं सुदृढ़ आधार तैयार करने के लिए तृणमूल स्‍तर पर व्‍यापक सामाजिक-सांस्‍कृतिक आन्‍दोलन संगठित करने की श्रमसाध्‍य गातिविधियों की सुदीर्घ निरंतरता की माँग करती है। 'दक्षिणपंथियों के मुँह पर जवाबी तमाचा लगाने का संतोष' समस्‍या के समाधान में कोई विशेष मदद नहीं पहुँचायेगा।
निजी आजादी-विरोधी और स्‍त्री-विरोधी जिन आचार-व्‍यवहारों को तमाम धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें जनता पर थोपना चाहती हैं, उनका समाज में व्‍याप्‍त रू‍ढ़ि‍यों-रीतियों-संस्‍कारों और संस्‍थाओं (जाति पंचायत, खाप पंचायत, पुराना पारिवारिक ढाँचा आदि) के रूप में व्‍यापक समर्थन आधार है। साथ ही, धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें तृणमूल स्‍तर पर लगातार अपनी संस्‍थाओं, प्रचारपरक गतिविधियों और सामाजिक-सांस्‍कृतिक आयोजनों के जरिए रू‍ढ़ि‍वाद को पोषक खुराकें देकर मजबूत बनाती रहती हैं। दूसरी ओर महानगरों का आधुनिक प्रगतिशील विचारों वाला जो मध्‍यवर्गीय तबका (विशेषकर युवा) है, वह अपने ही खित्‍तों में सिमटा हुआ, अपने ही लोगों के बीच 'किस ऑफ लव' जैसी प्रतीकात्‍मक जवाबी मुहिम चलाकर अपनी पीठ ठोंकता रहता है। रूढ़ि‍वाद जहाँ उसकी आजादी पर चोट करता है, वहाँ वह उसका मुखर प्रतीकात्‍मक प्रतिवाद करता है, लेकिन रूढ़ि‍यों की सर्वाधिक निर्मम मार तो अपने रोज-रोज के जीवन में व्‍यापक आम मेहनतकश जनता झेल रही है और विडम्‍बना यह है कि प्रतिगामी शक्तियों के सांस्‍कृतिक वर्चस्‍व की राजनीति स्‍वयं उनके दिलो-दिमाग को रूढ़ि‍यों की स्‍वीकृति के लिए काफी हद तक अनु‍कूलित किये हुए है। रू‍ढ़ि‍यों के विरोध के लिए प्रतिबद्ध आधुनिक प्रगतिशील विचारों सरोकारों वाले युवा बुद्धिजीवियों को सबसे पहले आम जनता के बीच जाकर जाति-धर्म के रूढ़ि-बंधनों के विरुद्ध, स्‍त्री-विरोधी रूढ़ि‍यों-संस्‍थाओं के विरुद्ध सतत् अभियान चलाना होगा, संस्‍थाएँ खड़ी करनी होंगी, सांस्‍कृतिक-सामाजिक काम करने होंगे और इस उद्देश्‍य पूर्ति के लिए युवा संगठन, स्‍त्री संगठन, जाति उन्‍मूलन मंच, रूढ़ि-विरोधी मंच आदि बनाने होंगे। 
अपने सुरक्षित, कुलीन, मध्‍यवर्गीय, महानगरीय द्वीपों पर लड़ी जाने वाली प्रतीकात्‍मक लड़ाइयों से आत्‍मसंतोष के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं मिलेगा। हालत तो यह है कि सहारनपुर, बिजनौर, आजमगढ़, बस्‍ती जैसे छोटे शहरों और गाँवों को भी छोड़ दें, तो दिल्‍ली में भी जनेवि कैम्‍पस, दिविवि कैम्‍पस और केन्‍द्रीय दिल्‍ली के बाहर यदि आम निम्‍न मध्‍यवर्गीय मुहल्‍लों और मज़दूर बस्तियों में 'किस ऑफ लव' की मुहिम चलाई जाये तो जनता ही दौड़ा लेगी या ढेले फेंकने लगेगी। इसलिए सबसे पहले जनता के बीच सांस्‍कृतिक-सामाजिक कार्रवाइयों की ज़रूरत है, सघन रूप से और निरंतरता के साथ। बेशक प्रतीकात्‍मक लड़ाइयाँ भी लड़ी जाती हैं, ज़रूर लड़ी जानी चाहिए, लेकिन उनकी सार्थकता एवं प्रभाविता तभी बनती है जब उनके पीछे एक सशक्‍त सामाजिक आन्‍दोलन का पूर्वाधार हो। पेरियार ने शहर की सड़कों पर हिन्‍दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को झाड़ू मारते हुए जुलूस निकाला था। यह एक उग्र प्रतीकात्‍मक प्रतिवाद था, पर इसके पीछे सुदीर्घ प्रयासों से खड़ा किये गये एक सशक्‍त सामाजिक आन्‍दोलन की ताकत थी। ज्‍योतिबा फुले, पेरियार, आन्‍ध्र महासभा के भीतर सक्रिय कम्‍युनिस्‍टों और रैडिकल तत्‍वों तथा राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के दौर के बहुतेरे सुधारकों ने ज़मीनी स्‍तर पर सामाजिक आन्‍दोलन खड़ा करने के काम में काफी धैर्यपूर्वक समय और ऊर्जा लगायी थी। आज का जो कुलीन मध्‍यवर्गीय वामपंथ है, वह ऐसा किये बिना कुछ प्रतीकात्‍मक लड़ाइयाँ लड़कर, कुछ अनुष्‍ठानिक कार्रवाइयाँ करके अपने कर्तव्‍यों की इतिश्री कर लेना चाहता है और अपनी 'उग्र क्रांतिकारिता' पर अपनी पीठ ठोंक लेना चाहता है। यह दोन किहोते जैसी हरकत है।
दूसरी बात यह है कि सामाजिक रूढ़ि‍यों और पोंगापंथ को थोपने की कोशिशें धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्‍टों का स्‍वतंत्र एजेण्‍डा नहीं है। यह उनके सम्‍पूर्ण आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्‍कृतिक-शैक्षिक एजेण्‍डा का एक हिस्‍सा है। हमें उनके समूचे एजेण्‍डा को 'एक्‍सपोज' करना होगा,समूचे प्रोजेक्‍ट का विरोध करना होगा। इसके लिए हमें व्‍यापक मेहनतकश जनता के बीच हर स्‍तर पर काम करना होगा। अपनी हर सूरत में फासीवाद एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन होता है जो पूँजीवाद के संकट का समाधान देने के नाम पर तरह-तरह के लोकरंजक नारे देकर जनता को लुभाता और ठगता है। 'सुनहरे अतीत की वापसी' और 'परम्‍परा के नाम पर रूढ़ि‍यों का महिमामण्‍डन' भी इसी लोकरंजक तिकड़म का एक हिस्‍सा है जो जनता के एक अच्‍छे-खासे हिस्‍से को मिथ्‍याभासी चेतना के गुंजलक में सफलतापूर्वक फँसा लेता है। इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन का प्रतिकार केवल एक सशक्‍त प्रगतिशील, क्रांतिकारी सामाजिक आन्‍दोलन खड़ा करने की कोशिशों द्वारा ही किया जा सकता है।
https://www.facebook.com/notes/761551077233769/
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Tuesday, 11 November 2014

जनता और जन कवियों के बिना ही 'भव्य जन -क्रांति ' का आह्वान ! ---विजय राजबली माथुर

स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )



 https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10205284960188406&set=gm.395749403907611&type=1&theater


#Avadhnama कार्यक्रम के संचालक शहर के सम्मानित संस्कृतिकर्मी आदियोग ने शाद की नज्म से इस कार्यक्रम की शुरुआत की.


वहीं श्री वर्मा ने ‘कविता: 16 मई के बाद’ नामक आयोजन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए बताया कि 16 मई 2014 को लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद जो फासीवादी निज़ाम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस देश में आया है और उसके बाद इस देश में जैसी राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियां बनी हैं, उसमें एक अहम सांस्कृतिक हस्तक्षेप की ज़रूरत आन पड़ी है. ऐसे में ज़रूरी है कि कविता को राजनीतिक औज़ार बनाकर एक प्रतिपक्ष का निर्माण किया जाए.

कविताओं की शुरुआत करते हुए शहर के प्रतिष्ठित संपादक और कवि सुभाष राय ने अपनी एक लंबी कविता सुनाई. इसके बाद कवि अजय सिंह ने अपनी बहुचर्चित कविता ”राष्ट्रपति भवन में सुअर” का पाठ किया.

कवि चंद्रेश्वर ने अफ़वाहों के फैलने पर एक ज़रूरी कविता सुनाई. मंच पर मौजूद ब्रजेश नीरज, हरिओम, ईश मिश्र, किरन सिंह, नरेश सक्सेना, नवीन कुमार, प्रज्ञा पाण्डेय, पाणिनी आनंद, रंजीत वर्मा, राहुल देव, राजीव प्रकाश गर्ग ’साहिर’, संध्या सिंह, सैफ बाबर, शिवमंगल सिद्धान्तकर, तश्ना आलमी, उषा राय, अभिषेक श्रीवास्तव ने अपनी सशक्त कविताओं के माध्यम से अपना-अपना प्रतिरोध दर्ज करवाया. कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने की . 

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10-11-2014   :-

 
ये कलाकार साबित करता है कि बुद्धिजीवी होने का तमगा के लिए आपको अन्य सभी जगह शिक्षा की जरूरत हो सकती है मगर बिहार और पूर्वांचल का बच्चा बच्चा बुद्धिजीवी पैदा होता है, अशिक्षित मजदूर या फिर ट्रेन में मांगने वाला भिखाड़ी भी बौधिक रूप से कैसे समृद्ध होता है.

हमारा बिहारी लाल फतुहा का अनिल कुमार ट्रेन में गीत गा कर मांग कर जीवन यापन करता है और व्यंग्य की पराकाष्ठ का ये गीत खुद गढ़ता है, आँख से अँधा मगर आखं वाले के बौधिक ज्ञान पर भारी है इसका ज्ञान जो बिना पढ़े लिखे दुनिया समाज और राजनीति पर व्यंगात्मक गीत की ये लड़ी पिरो सकता है, आप इसे मांगने वाला कह सकते हैं मैं इसे अपने भिखाड़ी ठाकुर और बैद्यनाथ मिश्र यात्री जैसे लाल की कड़ी में एक मोती मानता हूँ,

पूरा गीत सुनिए शायद आप भी सहमत हों कि हमारे बिहार और पूर्वांचल में बौधिक खान के बीच कैसे कैसे और कहाँ कहाँ हीरा मिलता है !!!
जन कवि का वीडियो---

बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित किया गया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय में "कविता को राजनीतिक औज़ार बनाकर एक प्रतिपक्ष का निर्माण  " करने  हेतु  कार्यक्रम होगा और हुआ भी। लेकिन भाकपा के साधारण सदस्यों तो क्या ज़िला काउंसिल सदस्यों तक को इस कार्यक्रम की पार्टी की ओर से कोई सूचना नहीं प्रसारित की गई थी। पूंजीवादी जर्मनी के रेडियो-'डायचेवेले' के पेंशनर  तथा वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना 'ओबामा' की तुलना नौ लाख वर्ष पूर्व साम्राज्यवाद के पुरोधा 'रावण' को परास्त करने वाले जन-नायक 'राम' के साथ करने वाले 'ईश मिश्रा' जैसे लोग भी काव्य पाठ करने वालों में शामिल थे। अपवाद स्वरूप एक-दो को छोड़ कर सभी काव्य पाठी  समृद्ध वर्ग से थे। 

कार्यक्रम सार्वजनिक स्थान पर नहीं था लेकिन जन-क्रांति का आह्वान किया जा रहा था । छोटे-छोटे बच्चों के दफ्ती की तलवारों पर सफ़ेद चमकीला कागज चिपका कर युद्ध का अभिनय करने जैसे ऐसे कार्यक्रम जनता को लामबंद कभी भी नहीं कर सकते हैं  बस केवल आभिजात्य वर्ग का क्षणिक मनोरंजन ही कर सकते हैं।  वामपंथ और साम्यवाद की जनता में एक विकृत छवी कौन बना रहा है? देखिये तो ज़रा :

फासीवादी सत्ता को मजबूती देने का पोंगा-पंडितवादी तरीका है यह न कि वामपंथी-साम्यवाद ---
"देश में बढ़ते पूंजीवाद, आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, फासीवाद, आतंकवाद, बेरोजगारी और महंगाई का नया वामपंथी इलाज - किस ऑफ़ लव ! अपने लोगों का मिज़ाज और सांस्कृतिक जड़ें समझे बगैर चीन और रूस का मॉडल लागू करने का सपना पालने वाले छद्म वामपंथ का अंततः यही हश्र होना था। देश में कभी भी कायदे का राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक प्रतिरोध खड़ा न कर सकने वाले इन हवा हवाई वामपंथी बुद्धीजीवियों ने पहले कविता और दूसरी कला विधाओं को लोहा, इस्पात और हथियार बनाने की जिद में कविता और कलाओं को मार डाला। अब ये प्रेम जैसी नितांत वैयक्तिक, निजी और कोमल भावना को सरेबाज़ार नीलाम करने की कोशिश में लगे हैं। उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर मलमूत्र त्याग और प्रेम जैसी आंतरिक अनुभूति का सार्वजनिक प्रदर्शन बिल्कुल एक जैसा कृत्य लगता है। माना कि प्रेम के प्रति फासीवादी संघी और खाप विचारधारा के विरोध की सख्त ज़रुरत है, मगर यह विरोध अपनी सांस्कृतिक जड़ों को काटकर नहीं किया जा सकता। अगर इन वामपंथी युवाओं को चुंबन का घृणास्पद सार्वजनिक तमाशा जायज़ लगता है तो ये लोग अपनी बीवियों, बहनों, बेटियों को लेकर सड़को पर क्यों नहीं उतरते ? आखिर उन्हें भी तो 'मुक्ति' के मार्ग पर चल निकलने की छूट मिलनी चाहिए ! ज़ाहिर है, ये लोग विरोध के नाम पर सड़कों पर मौज-मजे की तलाश में निकले हुए यौन-विकृत लोग है।
वामपंथियों ने देश में अपनी कब्र तो कबकी खोद ली थी, अब इनका दफ़न होना भर बाकी है !"


यह सब और कुछ नहीं केवल और केवल 'एथीस्टवादी संप्रदाय'का फासीवाद को पुख्ता करने का खेल है। 

जब तक भारतीय संदर्भों व प्रतीकों द्वारा जनता को साम्यवाद के बारे में नहीं समझाया जाएगा वह अपने शोषकों के जाल में फँसती रहेगी। ईश मिश्रा व डायचेवेले के पेंशनर तथा प्रदीप तिवारी सरीखे लोग जनता को साम्यवाद से सदैव दूर ही रखेंगे तो फिर जनता के सहयोग के बगैर जन-क्रान्ति कैसे होगी। सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक युवा साम्यवादी बेवजह फासीवादियों के सफाये का शिकार होते रहेंगे। 

 

जंन - तान्त्रिक पद्धति से तभी  संसद व सत्ता पर साम्यवादी विचार धारा बहुमत हासिल कर सकती है जबकि साम्यवाद  व वामपंथ को 'एथीस्टवादी संप्रदाय'के चंगुल से मुक्त कराकर जनोन्मुखी बना लिया जाये। 

  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Thursday, 6 November 2014

कालेधन के न्यायिक बटवारे के लिए जंनता को लामबंद कर युद्ध की घोषणा करें-----राम प्रताप त्रिपाठी

Frenh kisano ne aalu ka dam na mil pane k karan Peris krepublic square paer aalu ka dher laga diya hai
Bhartiy kisano ko bhi larna sikhana prega

— with Atul Kumar Singh Anjan and Archana Upadhyay.

( फ्रेंच किसानों ने आलू का दाम ना मिल पाने क कारण पेरिस  के रिपब्लिक  स्क्वेर पर आलू का ढेर लगा दिया है
भारतीय किसानों  को भी लड़ना सीखना पड़ेगा )

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 Akhil Bhartih Kisan sabha ki rastriy parishd ki Chandi Garh me kisano k lhilaf ho rahe faislo jaise plannig commission kp khatm karna bhumiadhigrahan kanoon 2013 ko badalna FCI ko badalna aadi k khilaf convention karna parlient par anischit kalin dharna aur april me jailbharo kiya jayega

(अखिल भारतीय  किसान सभा की राष्ट्रीय परिषद् की चंडीगढ़  में किसानों के खिलाफ हो रहे फ़ैसलो जैसे प्लानिंग कमीशन को  ख़त्म करना भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013 को बदलना एफ सी आई  को बदलना आदि के खिलाफ कन्वेन्शन करना,  पार्लियामेंट पर अनिश्चित कालीन धरना  और एप्रिल मे जेल भरो आंदोलन  किया जाएगा )
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Ab yah to hona hi tha ab chor-chor mausere bhai ka khel shuru kaun kisko saja dega jab hamam me sabhi nange hain kala dhan wapas aya aur desh drohiyon ko saja hui to prajatantr k lutere rajnaitic dalon ko agali bar loot kliye kale dhan se chanda kaun fir imandar communiston kabhay(fobia) bhi sata raha hai wam ko chahiye ki is kaledhan k nyayik batware kliye jantako lamband ker yudh ki ghosna karen---
India Today

(अब यह तो होना ही था अब चोर-चोर मौसेरे भाई का खेल शुरू कौन किसको सज़ा देगा जब हमाम मे सभी नंगे हैं . काला धन वापस आया और देश द्रोहियों को सज़ा हुई तो प्रजातंत्र के  लुटेरे राजनैतिक दलों को अगली बार लूट  के लिये  काले धन से चंदा कौन देगा?
 फिर ईमानदार कम्युनिस्टों  का भय(फोबिया) भी सता रहा है वाम  को चाहिए की इस कालेधन के  न्यायिक बटवारे के लिए  जंनता को लामबंद कर युद्ध  की घोषणा करें--- )

Wednesday, 5 November 2014

राजनीति की धुरी है 'अपनत्व ' और इसका आभाव?--- विजय राजबली माथुर


अमर उजाला में एक समाचार प्रकाशित हुआ है कि दिल्ली में कांग्रेस के छह विधायक तोड़ कर भाजपा सरकार बनाने जा रही थी। किन्तु सोनिया जी ने अपने एक विधायक को फोन करके उसकी निजी समस्याओं पर चर्चा की और कभी मिलने को घर आने को कहा। विधायक जी सोनिया जी से मिले और वार्ता के बाद साथियों सहित भाजपा को समर्थन न देने का निश्चय किया और भाजपा को मन मसोस कर रह जाना पड़ा।

इसी पर उपरोक्त टिप्पणी है इन पत्रकार बंधु की फेसबुक पर।

लगता है यह एक सही और सटीक  निष्कर्ष है ।  'राजनीति ' शब्द POLITICS के समानार्थी के रूप में प्रयुक्त होता है। ग्रीक शब्दों POLY + TRICS का समन्वय है POLITICS जिसका शब्दानुवाद है मल्टी ट्रिक्स अर्थात मतलब निकालने के विभिन्न तरीके। अधिकांश लोग राजनीति को इसी अर्थ में लेते हैं जिस कारण इसे घृणा की दृष्टि से भी देखा जाता है। किन्तु सोनिया जी की भांति ही कुशल राजनीतिज्ञ 'अपनत्व ' के आधार पर ही राजनीति चलाते हैं और वे अक्सर सफल भी रहते हैं। आक्रामकता द्वारा भावावेष से क्षणिक सफलता ही हासिल की जा सकती है 'स्थाई ' नहीं।

इस संदर्भ में 24-22  वर्ष पूर्व का घटनाक्रम याद आ गया है। 1992 में उत्तर-प्रदेश भाकपा का राज्य सम्मेलन आगरा में आयोजित हुआ था। आगरा के तत्कालीन  जिलामंत्री कामरेड रमेश मिश्रा जी का कहना था कि राज्य सचिव का .जगदीश नारायण त्रिपाठी जी ने ज़बरदस्ती यह उन पर थोप दिया था । उस समय एक प्राइमरी अध्यापक रमेश कटारा साहब ने अपनी तांत्रिक प्रक्रियाओं से रमेश मिश्रा जी व उनके परिवार की बुद्धि जाम कर दी थी। अतः मिश्रा जी कटारा साहब को राज्य काउंसिल में भेजना चाहते थे लेकिन आगरा के कामरेड्स कटारा की स्वार्थलिप्सा को समझते थे। वे जानते थे कि कटारा न केवल पार्टी बल्कि मिश्रा जी के निजी व्यवसाय तथा भवन पर भी निगाह जमाये हुआ था। उन सबने कटारा का सामूहिक विरोध किया जिस कारण वह राज्य काउंसिल में न भेजे जा सके।
मिश्रा जी ने अपने निजी 'अपनत्व-सम्बन्धों' के आधार पर केंद्रीय कंट्रोल कमीशन के चेयरमेन कामरेड काली शंकर शुक्ला जी से प्रभाव डलवा कर कटारा को प्रदेशीय कंट्रोल कमीशन में समायोजित करवा दिया। इसका खामियाजा मिश्रा जी को अपनी कुर्सी खो कर भुगतना पड़ा फिर वह नौ वर्ष बाद ही पुनः ज़िला मंत्री बन पाये तब ही जबकि कटारा को उन्होने पार्टी से निकलवा दिया। कुर्सी जाने पर उसके लिए मिश्रा जी ने मुझको दोषी माना और मुझे कटारा के कहने पर पार्टी से निकलवाने का प्रस्ताव पास करा दिया जिसे अवैधानिक ठहराया गया और मैं अपने पदों पर बहाल रहा था। किन्तु यह आभास हो गया था कि आगे भी कटारा और कुछ हरकत कर सकता है। अतः 1994 में प्रदेश सचिव मित्रसेन यादव जी व रामचन्द्र बख़्श सिंह साहब के साथ मैं सम्मान जनक तरीके से चला गया था।

सामूहिक धरने-प्रदर्शन आदि पर भाकपा के वरिष्ठ नेता गण मिलते रहते थे और उनसे सौहाद्र पूर्ण वार्तालाप होते रहते थे। जब बेनी प्रसाद वर्मा जी  और राज बब्बर साहब ने भी सपा नहीं छोड़ी थी उनसे पूर्व ही मैं निष्क्रिय बैठ गया था।  2006 में एक दिन दयालबाग क्षेत्र में अनायास  ही कामरेड रमेश मिश्रा जी से मुलाक़ात हो गई तो उनका पहला प्रश्न था कि आजकल किसी आंदोलन में दिखाई नहीं पड़ते ,क्या बात है? जब मैंने बताया कि आप तो जानते ही हैं कि मैं दीवार के उस पार भी क्या है ताड़ लेता हूँ तब आप आसानी से समझ सकते हैं कि क्यों मैंने बब्बर साहब व वर्मा जी से बहुत पहले सपा को अलविदा कर दिया था।
(मध्य में डॉ जितेंद्र रघुवंशी जी के दाहिने हाथ पर बैठे हुये हैं-कामरेड रमेश मिश्रा जी )

इस पर मिश्रा जी का मुझसे  कहना था कि राजनीतिक व्यक्ति खाली नहीं बैठ सकता और वह मुझे खाली नहीं बैठे रहने देंगे। उन्होने स्पष्ट किया कि अब कटारा को पार्टी से निकलवा दिया है और मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी अतः मैं वापिस भाकपा में लौट आऊँ। व्यक्तिगत रूप से मिश्रा जी के 'अपनत्व ' से मैं वाकिफ था और उसे नकारा नहीं जा सकता था अतः मैंने विचार करने का आश्वासन दे दिया था। किन्तु मिश्रा जी जब-तब मेरे घर पर 'अपनत्व' के तौर पर फिर आने लगे व एक-दो पार्टी कार्यक्रमों में अपने साथ ले भी गए जबकि मुझे सदस्यता लेना बाकी भी था। उनका कहना था कि -" आपकी निष्ठा व ईमानदारी पर कभी कोई संदेह नहीं था और आपके साथ रहने से हमें बल मिलता है"।

ऐसे ही कमिश्नरी पर हुये 2006 में एक प्रदर्शन में जन-मोर्चा अध्यक्ष राज बब्बर साहब के साथ उत्तर-प्रदेश भाकपा के तत्कालीन सह-सचिव डॉ गिरीश भी  आगरा आए थे। लौटते में डॉ साहब भी उसी ट्रेक्टर ट्राली में बैठ कर ज़िला पार्टी कार्यालय आए जिसमें मैं भी था।डॉ साहब की उपस्थिती में ही मिश्रा जी ने पार्टी सदस्यता का फार्म मुझसे भरवा कर विधिवत सदस्यता प्रदान कर दी । क्योंकि मैं पूर्व में ज़िला पार्टी में था अतः तत्काल पूर्ण सदस्यता मिली।मिश्रा जी का  'अपनत्व' ही वह आधार था जो मुझे पुनः भाकपा में लौटा लाया।

समय चक्र के अनुसार 2009 में मैं आगरा से लखनऊ चला आया और निजी समस्याओं के सुलझते ही 25 सितंबर 2010 को प्रदेश सचिव डॉ गिरीश जी से पार्टी कार्यालय में संपर्क किया जो कि आगरा से ही जानते थे। अतुल अंजान साहब व अशोक मिश्रा जी भी आगरा से ही जानते थे। इन सबसे बात 'अपनत्व ' के आधार पर ही होती रही ,किन्तु रमेश कटारा साहब का एक नया अवतार प्रदेश में निर्णायक पदाधिकारी बना हुआ  था जो डॉ साहब को मुझसे दूर करने में सफल हो चुका है। 13 जूलाई 2013 की ज़िला काउंसिल मीटिंग में कटारा के उस नए अवतार ने मेरे पेट में उँगलियाँ भोंकी व अपने पैरों से मेरे पैरों पर प्रहार किए किन्तु डॉ साहब ने उससे 'मोह' के वशीभूत उसको कुछ नहीं कहा। मेरे द्वारा अंजान साहब व वर्द्धन जी के विचार पार्टी ब्लाग में पोस्ट  करने पर उस अवतार ने न केवल वे पोस्ट डिलीट कर दिये बल्कि मुझको ब्लाग एडमिनशिप तथा आथरशिप से भी हटा दिया। डॉ साहब ने कटारा-अवतार के कृत्य का समर्थन किया था। उस अवतार ने न तो विश्वनाथ शास्त्री जी को और न ही डॉ गिरीश जी को पार्टी के अधिकृत ब्लाग में एडमिन रखा था न ही आथर। फिर मुझको आथर व एडमिन क्यों बनाया ?उसके पीछे उसकी जो चाल थी वह विफल हो गई थी। अतः मैंने प्रदेश सचिव डॉ गिरीश जी व प्रदेश सह सचिव डॉ अरविंद राज स्वरूप जी को उन दोनों से निवेदन करके उन दोनों को ही पार्टी ब्लाग में आथर व एडमिन बना दिया था। इससे भी अवतार चिढ़ गया था। अब इस अवतार ने ( जो कि प्रदेश की ओर से ज़िले का सदस्य होते हुये भी पर्यवेक्षक बनाने से खुद को सुपर जिलामंत्री समझ लिया है ) अपने तो खास लोगों से मुझको ज़िला सम्मेलन से पूर्व तिकड़म द्वारा  पार्टी से हटाये जाने का ऐलान कर दिया है। 
 न तो आगरा में और न ही लखनऊ में मैंने किसी पार्टी पोस्ट से कोई निजी या नाजायज लाभ उठाया है अतः मुझे उससे कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा। यह तो रमेश मिश्रा जी का  ' अपनत्व ' ही था जो मुझे वापिस पार्टी में लौटा लाया था वरना मैं किसी लोभवश नहीं आया था। अवतार साहब का निजी लोभ मुझको बोझ समझता है तो समझता रहे।

Tuesday, 4 November 2014

'सत्य ' को नकार कर नहीं बन सकती वैज्ञानिक समझ ---विजय राजबली माथुर


"पाछे पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत " :
 वीरेंद्र यादव जी के उपरोक्त विचार हैं तो महत्वपूर्ण किन्तु समय रहते उन पर गौर नहीं किया गया और अब भी सही ढंग से विरोध नहीं किया जा रहा है। वर्तमान प्रधानमंत्री जिस संगठन के प्रति निष्ठावान हैं उसका कार्य ही अफवाहें फैलाना है। लेकिन ऐसी अफवाहों को तभी बल मिलता है जब सच्चाई को अस्वीकार कर दिया जाता है। सच्चाई तो यह है कि :
*शिव- यह हमारा देश भारत ही शिव है । आप भारत का नक्शा और शिव के रूप की तुलना कर लीजिये स्वतः सिद्ध हो जाएगा। शिव के माथे पर अर्द्ध चंद्रमा भारत भाल पर हिमाच्छादित हिमालय पर्वत ही तो है।जटाओं से निकलती गंगा यही तो संकेत दे रही हैं कि भारत के मस्तक -तिब्बत स्थित 'मानसरोवर' झील से गंगा का उद्गम हुआ है।  शिव का नंदी बैल भारत के कृषि-प्रधान देश होने का प्रतीक है। विभिन्न परस्पर विरोधी जीवों के आभूषण का अभिप्राय है-भारत विविधता में एकता वाला देश है। 
परंतु प्रगतिशील लोग जब एथीज़्म के नाम पर इसका विरोध करेंगे तो अफवाह फैलाने वाला संगठन उसका सरलता से दुरूपयोग करेगा ही जैसा कि अस्पताल के उदघाटन पर किया है। 

* गणेश - गण + ईश = जन-नायक = राष्ट्रपति / राजनेता 
अर्थात जनता का शासक ऐसा होना चाहिए जैसे सूप जैसे कान रखने वाला अभिप्राय यह है कि जन-नायक को सुननी सब की चाहिए। सूंढ जैसी नाक अर्थात जन-नायक की घ्राण शक्ति तीव्र होनी चाहिए और वह अपनी मेधा से जन-आकांछाओ को समझने वाला होना चाहिए। कुप्पा जैसा पेट अर्थात जन-नायक में परस्पर विरोधी बातों को हजम करने की क्षमता होनी चाहिए। चूहे की सवारी अर्थात पञ्च-मार्गियों/आतंक वादियों को कुचल कर रखने वाला हमारा शासक होना चाहिए। 
पुनः प्रगतिशीलों का एथीज़्म इस तथ्य को स्वीकार न करके अफवाह फैलाने वालों को मन-मर्ज़ी मुताबिक व्याख्या करने की खुली छूट देता है। 

यदि मैं अपने ब्लाग्स के माध्यम से 'ढोंग-पाखंड-आडंबर-पोंगा-पंडितवाद' आदि का पर्दाफाश करता हूँ तो साम्यवादियों में घुसपैठ किए हुये पोंगा-पंडित तिलमिला जाते हैं और मुझ पर प्रहार करते हुये 'डांगेईस्ट' /'डांगेकरण ' का खिताब दे डालते हैं। :







  'डांगेईस्ट' /'डांगेकरण ' का खिताब देने की एक वजह इन्दिरा जी का फोटो एक स्टेटस पर लाईक कर देना भी है,लेकिन जब बड़े पदाधिकारी इन्दिरा जी की प्रशंसा करें तो:


जो साहब 'डांगेईस्ट' /'डांगेकरण ' का खिताब देरहे हैं खुद डिप्टी जेनरल मेनेजर हैं और इस प्रकार हजारों मजदूरों का शोषण करने के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं। जिन करात साहब की पैरोकारी में वह ऐसा कर रहे हैं उसके कारण ये हैं :

 उत्तर-प्रदेश भाकपा के अधिकृत ब्लाग में वर्द्धन जी व अतुल अंजान साहब के विचार प्रकाशित कर देने के कारण ही मुझे उसकी एडमिनशिप व आथरशिप से हटा दिया गया था। अतः मैंने http://communistvijai.blogspot.in/  'साम्यवाद(COMMUNISM) ब्लाग बना कर उसमें इन वरिष्ठ नेताओं के विचार प्रकाशित कर दिये। जो लोग खुद को उनसे श्रेष्ठ समझते हैं उनके लिए तो मैं किसी भी खेत की मूली नहीं हूँ फिर भी 'डांगेईस्ट' /'डांगेकरण ' का खिताब देरहे हैं।

केंद्र में जिन शक्तियों ने इस सरकार को सत्तासीन किया है उनको करात साहब व उनके भाकपाई  हमदर्द गण  भी सराहते रहे हैं। 26 दिसंबर 2010 को प्रदेश पार्टी कार्यालय में आयोजित गोष्ठी में मुख्य अतिथि अतुल अंजान साहब के बोल चुकने के बाद उनके भाषण के समय पधारे केजरीवाल साहब को बुलवा कर अपने ही राष्ट्रीय सचिव का अपमान किया गया था और 26 दिसंबर 2013 को दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की प्रशंसा प्रदेश सचिव महोदय ने  समारोह के मुख्य अतिथि वीरेंद्र यादव जी  के समक्ष ही की थी। केजरीवाल साहब अफवाह फैलाने वाले संगठन की ही उपज हैं :
 
 केजरीवाल को भाकपा के प्रदेश कार्यालय में राष्ट्रीय सचिव अंजान साहब  से भी अधिक महत्व देने वाले गोष्ठी संचालक महोदय लखनऊ के प्रदेश की ओर से नियुक्त सुपर जिलामंत्री भी हैं, उनकी ओर से अप्रैल 2014 में मोहम्मद अकरम साहब ने मेरे घर पर आकर कहा था कि उनको हटाया नहीं जा सकता है अतः मुझको हटा दिया जाएगा। फिर 16 सितंबर 2014 को मतगणना -स्थल पर उनकी ओर से ही एनुद्दीन साहब ने कहा था कि उनको नहीं हटाया जा सकता अतः मुझे हटाया जाना अब तय है। विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि 23 नवंबर 2014 को प्रस्तावित ज़िला सम्मेलन से पूर्व कागजात में फेर-बदल करके मुझे हटाया जा रहा है। हालांकि मैं पार्टी में रह कर कोई निजी लाभ नहीं उठा रहा हूँ जो मुझे हटाये जाने पर मुझको  उन लोगों की भांति कोई हानि होगी जो पार्टी पदाधिकारी रह कर अपने व्यवसाय में लाभ उठा रहे हैं या जो रु-550/-प्रतिमाह लेवी देकर और सुबह-शाम 2-2 घंटे का समय लगा कर पार्टी पोस्ट के बल पर मार्केट व बैंक मेनेजर्स से 6-7 हज़ार रु की वसूली कर रहे हैं। 

परंतु फिर भी यह बात समझने के लिए काफी है कि कम्युनिस्ट पार्टी क्यों जनता में लोकप्रियता नहीं प्राप्त कर पा रही है या कि केंद्र सरकार कैसे अवैज्ञानिक व्याख्याएँ करके जनता को मूर्ख बना रही है क्योंकि पार्टी को सीधी सच्ची बात कहने वालों की कोई ज़रूरत ही नहीं है। 
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  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Sunday, 2 November 2014

बोलो कॉमरेड क्या करोगे---सुदीप ठाकुर

http://cgkhabar.com/communist-party-movement-india-suggestion-20141101/


बोलो कॉमरेड क्या करोगे

Saturday, November 1, 2014
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लाल झंडा
नई दिल्ली| सुदीप ठाकुर: भारत के वामपंथी एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं और लगता है कि उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है. कम्युनिस्ट पार्टियों की आज जो हालत हो गई है, एक दशक पहले 2004 में कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. उस दौर में कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने माकपा महासचिव प्रकाश करात को देश के सबसे ताकतवर लोगों में शुमार किया था. यूपीए की पहली सरकार कम्युनिस्ट पार्टियों के बाहरी समर्थन से ही टिकी थी. तब वाम मोर्चे को लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक 59 सीटें मिली थीं. और आज हालत यह हो गई है कि वाम पार्टियां ले देकर दहाई का आंकड़े तक पहुंच पाईं.
मगर लोकसभा या विधानसभा में मौजूदगी से भी गंभीर मसला उनके अस्तित्व से आ जुड़ा है. नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा के उभार से सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियों को ही चुनौती नहीं मिली हैं, इससे कांग्रेस की नेहरूवादी समाजवाद की धारा को भी गहरा झटका लगा है, जिसे उदार वामपंथ के करीब माना जाता है.
हैरत नहीं होनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के पूरे अभियान में कांग्रेस को ध्वस्त करने के लिए सबसे पहले नेहरू को निशाना बनाया था. उनकी यह रणनीति कारगर साबित हुई, जिसे न तो कांग्रेस समझ पा रही थी और न ही वामपंथी पार्टियां. बात सिर्फ मोदी या भाजपा की कारगर रणनीति की नहीं है, देश की जनता में यदि किसी परिवर्तन की जरूरत महसूस हो रही थी, तो उसकी थाह पाने में ये पार्टियां नाकाम रहीं.
जाहिर है, यह बहस अभी पूरी नहीं हुई है कि मोदी की जीत हुई है या नेहरूवादी समाजवाद की पराजय! और विडंबना देखिये कि 14 नवंबर को स्वच्छता अभियान से जोड़कर मोदी गांधी और पटेल की तरह नेहरू को विचारधारा के खांचे से भी बाहर निकालने की तैयारी कर रहे हैं और ऐसा कर वह उन्हें सिर्फ एक राष्ट्रीय प्रतीक में बदल देंगे!
मगर सबसे फजीहत तो वामपंथियों की हो रही है, जो अंधी सुरंग से बाहर नहीं निकलना चाहते. जबकि दक्षिणपंथ के उभार के साथ एक उदार वामपंथ की गुंजाइश लगातार बनती जा रही है. और कॉमरेड, राजनीति सिर्फ चुनाव लड़ने के लिए नहीं की जाती! सच यह भी है कि भाजपा का यह उभार मुश्किल से तीस-बत्तीस फीसदी वोटों के दम पर है.
ऐसा लगता है कि विपक्ष की अपनी पारंपरिक भूमिका भी वामपंथी भूलते जा रहे हैं. ऐसे समय जब दिल्ली में दोनों बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां मंथन कर रही हैं, मेरे पास उनके लिए कुछ बिन मांगे सुझाव हैं:
पहला, प्रतीकों को पहचानें. यह देश प्रतीकों का देश है, जिसे भाजपा खासतौर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बखूबी समझता है. हैरानी की बात है कि वामपंथी पार्टियों ने अपने प्रतीकों को ही हाशिये पर डाल रखा है. संभवतः अब किसी को ठीक से याद भी नहीं होगा कि पहली लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार ई एम एस नंबूदरीपाद ने बनाई थी और वह देश के पहले गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री भी थे. इस वर्ष 8 जुलाई को ज्योति बसु जैसे दिग्गज वामपंथी नेता का सौवां जन्मदिन गुजर गया और किसी को ठीक से खबर तक न हुई!
इंद्रजीत गुप्त और गीता मुखर्जी जैसे वामपंथी सांसद जिनकी कमी आज भी संसद में महसूस की जा सकती है, जिन्हें भुला ही दिया गया है. क्या कम्युनिस्ट पार्टियों को अपने इन नेताओं को याद नहीं करना चाहिए और उनके योगदान को देश के सामने नहीं लाना चाहिए.
दूसरा सुझाव यह है कि कम्युनिस्ट पार्टियां खुद का भारतीयकरण करने पर विचार करें. हैरानी की बात है कि कम्युनिस्ट पार्टियां आज तक भारतीय मानकों के अनुरूप खुद को नहीं ढाल सकी हैं. मार्क्स ने धर्म को अफीम बताया था, लेकिन भारत में धर्म जीवनशैली का हिस्सा है. धर्म की व्यापकता को हिंदुत्व के इन दिनों प्रचलित खांचे से बाहर निकालकर देखने की जरूरत है. इसका शिक्षा और ज्ञान से कुछ लेना देना नहीं है.
अंध भक्ति, अंधविश्वास, कट्टरता, धर्मांधता आदि से अलग एक उदारवादी भारतीय चेहरा भी है, जो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघर और सूफी संतों की मजारों में जाता है, व्रत रखता है और सोच में प्रगतिशील है. वह उत्सवधर्मी भी है, जिसकी झलक पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा के समय दिखाई देती रही है, जहां तीन दशक तक माकपा की सरकार रही. ऐसे समय जब धर्म को लेकर संकुचित तरीके से माहौल बनाया जा रहा है, वामपंथी पार्टियां चुप बैठी हैं. उन्हें धर्म को लेकर असमंजस से निकलना पड़ेगा. इस देश को उस धर्म की जरूरत है, जिसकी पैरवी एक अन्य नरेंद्र ने सौ साल पहले की थी.
तीसरा सुझाव कांग्रेस को लेकर है. कम्युनिस्ट पार्टियों को कांग्रेस के साथ अपने रिश्ते को लेकर स्पष्ट होना चाहिए. वे कांग्रेस के साथ रहेंगी, या उसे समर्थन देंगी या उससे अलग चलेंगी? कांग्रेस के साथ अब तक उनकी राजनीति सुविधा की राजनीति थी, लेकिन बदली परिस्थितियों में उन्हें अपना नजरिया बदल लेना चाहिए.
इसी तरह उन्हें मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, मायावती और अन्नाद्रमुक तथा द्रमुक को लेकर अपना नजरिया स्पष्ट करना चाहिए. मायावती और जयललिता पर लगाए गए उनके दांव सिरे ही नहीं चढ़ सके थे, इसलिए उन्हें संभावित सहयोगियों को लेकर स्पष्ट होना चाहिए.
चौथा सुझाव इतिहास से जुड़ा है. इतिहास भी विचित्र संयोगों के साथ उपस्थित होता है. ठीक पचास वर्ष पूर्व पंडित जवाहर लाल नेहरू की मौत हुई थी और उसी वर्ष देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ था. सच तो यह है कि नेहरू के प्रधानमंत्री रहते नंबूदरीपाद की सरकार को बर्खास्त किया गया था. इसके बावजूद विचारधारा के स्तर पर नेहरू और कम्युनिस्ट पार्टी एक दूसरे के काफी करीब थे. आज पचास वर्ष बाद जब नरेंद्र मोदी नेहरू की विरासत को चुनौती दे रहे हैं, ठीक उसी समय वामपंथी पार्टियां अपने सबसे दुर्दिन देख रही हैं.
हालत यह है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मान्यता ही खतरे में पड़ गई है. क्या यही ठीक समय नहीं है, जब इतिहास को नए सिरे से लिखा जाए और देश की दो बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां माकपा और भाकपा आपस में मिल जाएं. विचारधारा और पार्टी लाइन अपनी जगह है, लेकिन जब आधार ही नहीं बचेगा तो विचारधारा का क्या करोगे. वैसे भी आपके पास खोने के लिए अब बहुत कुछ नहीं बचा है.
*लेखक अमर उजाला, दिल्ली के स्थानीय संपादक हैं.
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Saturday, 1 November 2014

साम्यवाद भारत में ऐसे लोगों के कारण ही सफल नहीं हो पा रहा है ---विजय राजबली माथुर

 http://communistvijai.blogspot.in/2014/10/blog-post_31.html
PT-1:

 http://communistvijai.blogspot.in/2014/10/blog-post_8.html
PT-2 :

d g -p :


जिस रूप में मानव आज है वह 10 लाख वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया है ऐसा वैज्ञानिक खोजों से सिद्ध हो चुका है। मतभेद केवल इस बात पर है और वह वैज्ञानिकों के मध्य भी है कि पहले 'नर ' की उत्पत्ति हुई या फिर 'मादा ' की। तथाकथित विभिन्न धर्म जो वस्तुतः संप्रदाय/मजहब/रिलीजन हैं 'धर्म' नहीं के द्वारा मनगढ़ंत और परस्पर विरोधी कहानियाँ प्रचलित है।
पृथिवी के निर्माण के बाद जब यह ठंडी हुई तो काफी समय तक यहाँ विभिन्न गैसों की बारिश होती रही और अंततः 'हाइड्रोजन '-2 भाग तथा 'आक्सीजन '-1 भाग के विलियन से 'जल ' की उत्पत्ति हुई जिससे बाद में वनस्पतियाँ अस्तित्व में आईं। सबसे पहले जल-जीव और कालांतर में अन्य जीवों की उत्पत्ति हुई। वैज्ञानिकों का एक वर्ग जल-जीव-मछली से मनुष्य तक की कल्पना करता है । इस सिद्धान्त को प्रिंस डि ले मार्क ने 'व्यवहार और अव्यवहार ' का संबोद्धन दिया है।  यदि इसी को सत्य मान भी लें तो भी पहले 'नर ' या 'मादा ' का प्रश्न अनुत्तरित रह जाएगा।
महर्षि कार्ल मार्क्स और शहीद सरदार भगत सिंह का नाम जप-जप कर साम्यवादी विद्वान भी पाश्चात्य वैज्ञानिकों के सुर में सुर मिला कर 'एथीस्ट वाद ' की आड़ में 'सत्य ' को स्वीकार नहीं करते हैं। जबकि दोनों महान विभूतियों ने प्रचलित मजहबों/संप्रदायों/रिलीजन को तथाकथित धर्म मानते हुये निष्कर्ष दिये थे और कभी भी उन दोनों ने वास्तविक धर्म का विरोध नहीं किया है। :



" वास्तविक धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।

भगवान =भ (भूमि-ज़मीन  )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)


चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं। 


इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।"



युवा नर और युवा मादा की उत्पत्ति एक साथ :



वस्तुतः 'जल' और 'वनस्पतियों' की उत्पत्ति के बाद पहले अन्य जीवों की उत्पत्ति उनके युवा नर एवं युवा मादा के रूप में हुई है जिनसे उनकी वंश वृद्धि होती रही है और प्रिंस डि ले मार्क के  'व्यवहार और अव्यवहार ' सिद्धांतानुसार उनका विकास-क्रम चला है। अब से लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व 'मनुष्य ' की उत्पत्ति भी 'युवा नर ' और 'युवा मादा ' के रूप में एक साथ हुई है जिसे न तो कोई एथीस्ट और न ही तथा-कथित आधुनिक वैज्ञानिक और न ही थोथे - धर्म (सप्रदाय/मजहब/रिलीजन ) स्वीकार करने को तैयार हैं । 
युवा 'नर ' और 'मादा ' मनुष्यों की उत्पत्ति एक साथ अफ्रीका,एशिया और यूरोप में कुल तीन स्थानों पर हुई है। भौगोलिक व पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुरूप इन तीनों स्थानों के मानवों का विकास-क्रम चला है। 'एशिया' में मानव उद्भव जिस स्थान पर हुआ वह था-'त्रिवृष्टि ' अर्थात आज का 'तिब्बत' । परिस्थितिजन्य अनुकूलता के कारण यहाँ का मानव तीव्र विकास कर सका जबकि अफ्रीका व यूरोप का मानव पीछे रह गया था। यहाँ के मानव ने खुद को 'श्रेष्ठ '='आर्ष '='आर्य ' संबोद्धन दिया और सम्पूर्ण विश्व को 'आर्य' बनाने का बीड़ा उठाया । जनसंख्या वृद्धि के कारण यहाँ के आर्य दक्षिण में हिमालय पार कर के 'निर्जन' स्थान पर भी बसने लगे जिसे उन्होने 'आर्यावृत ' नाम दिया। लेकिन तथाकथित प्रगतिशील और आज  विकसित यूरोपीय लोगों ने प्रचारित कर दिया कि आर्यों ने भारत के मूल निवासियों को उजाड़ कर आक्रांता के रूप में  कब्जा किया था। जबकि वास्तविकता यह है कि भारत से आर्य पश्चिम में आर्यनगर-एरयान-ईरान होते हुये यूरोप और अफ्रीका गए थे। पूर्व में साईबेरिया के 'ब्लाडीवोस्टक ' से होते हुये अमरीका के 'अलास्का ' होकर  'तक्षक '-टेक्सास व मय'-मेक्सिको पहुंचे थे। 
दक्षिण दिशा से आस्ट्रेलिया  में पहुँचने वाले आर्य श्रेष्ठता के मार्ग से भटक गए थे और इनके वंशज रावण ने आज की श्री लंका को केंद्र बना कर विश्व-व्यापी साम्राज्य स्थापित कर लिया था । आज के यू एस ए (पाताल लोक ) का शासक एरावन तथा साईबेरिया का शासक कुंभकर्ण  रावण के सहयोगी थे। रावण ने जंबू द्वीप के प्रमुख व शक्तिशाली शासक बाली से अनाक्रमण संधि कर रखी थी । अतः अब से नौ लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर प्रथम साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष हुआ था जिसमें साम्राज्यवादी परास्त हुये थे। किन्तु पाश्चात्य प्रभुत्व के कारण हमारे साम्यवादी विद्वान हकीकत को नकार देते हैं जिसका प्रतिफल यह है कि आज के साम्राज्यवादी उन्हीं राम का नाम लेकर जनता का दमन व शोषण कर रहे हैं जिनहोने सर्व-प्रथम साम्राज्यवाद को इस धरती पर परास्त किया था।
इसी प्रकार अब से लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व श्री कृष्ण ने समानता पर आधारित गण राज्य की स्थापना करके आदर्श प्रस्तुत किया था किन्तु प्रगतिशीलता व एथीज़्म के नाम पर इस तथ्य से आँखें फेर ली जाती हैं और बजाए कृष्ण का सहारा लेने के उनकी निंदा व आलोचना की जाती है जिसका लाभ पुनः सांप्रदायिक व साम्राज्यवाद समर्थक शक्तियाँ उठा लेती हैं। 
नानक,कबीर, रेदास,दयानन्द, विवेकानंद आदि के दृष्टिकोण साम्यवाद के निकट हैं किन्तु साम्यवादी विद्वान उसी एथीज़्म के वशीभूत होकर इनका सहारा लेने की जगह उनकी आलोचना करते हैं।

 PT-1 और PT-2 के खलनायक ने d g -p के नायक को भ्रमित कर रखा है जैसा कि उन टिप्पणियों से सिद्ध होता है। नायक साहब ने जिस पुलिस अधिकारी के बचाव में बयान जारी किया है उसे वकील कामरेड ने 'चोर' व 'उच्चका ' बताया है। नायक साहब के निर्णय 80 प्रतिशत खलनायक से प्रभावित रहते हैं। ऐसे में उत्तर-प्रदेश में भाकपा के सुदृढ़ होने का प्रश्न ही नहीं है। उत्तर-प्रदेश,बिहार समेत हिन्दी प्रदेशों में जब तक भाकपा या अन्य साम्यवादी दल जनता का विश्वास नहीं हासिल कर लेते  हैं  तब तक किताबी ज्ञान व इतिहास  के भरोसे लोकतन्त्र के जरिये सत्ता नहीं मिलने वाली है। 'सशस्त्र क्रांति' रूस में विफल हो चुकी है तो चीन में अपना अर्थ खो चुकी है। यदि साम्यवादी दल और वामपंथ राम के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को कोरी कल्पना कह कर उपहास उड़ाने की जगह उससे प्रेरणा लेकर तथा कृष्ण के उदाहरण सामने रख कर अपनी नीतियाँ निर्धारित करें तो जनता का विश्वास भी हासिल कर लेंगे और साम्राज्यवाद समर्थक सांप्रदायिक शक्तियों को भी बेनकाब कर के धराशायी कर सकेंगे। लेकिन खलनायक PT सरीखे  पोंगापंथी लोग क्या साम्यवाद को संकीर्ण जकड़न से निकल कर प्रगतिशील होने देंगे? जब तक ऐसा नहीं होता तब तक सारी कसरत व कवायद अपनी ही आँखों में धूल झोंकने वाली रहेगी। 
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  ~विजय राजबली माथुर ©
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