अमर उजाला में एक समाचार प्रकाशित हुआ है कि दिल्ली में कांग्रेस के छह विधायक तोड़ कर भाजपा सरकार बनाने जा रही थी। किन्तु सोनिया जी ने अपने एक विधायक को फोन करके उसकी निजी समस्याओं पर चर्चा की और कभी मिलने को घर आने को कहा। विधायक जी सोनिया जी से मिले और वार्ता के बाद साथियों सहित भाजपा को समर्थन न देने का निश्चय किया और भाजपा को मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
इसी पर उपरोक्त टिप्पणी है इन पत्रकार बंधु की फेसबुक पर।
लगता है यह एक सही और सटीक निष्कर्ष है । 'राजनीति ' शब्द POLITICS के समानार्थी के रूप में प्रयुक्त होता है। ग्रीक शब्दों POLY + TRICS का समन्वय है POLITICS जिसका शब्दानुवाद है मल्टी ट्रिक्स अर्थात मतलब निकालने के विभिन्न तरीके। अधिकांश लोग राजनीति को इसी अर्थ में लेते हैं जिस कारण इसे घृणा की दृष्टि से भी देखा जाता है। किन्तु सोनिया जी की भांति ही कुशल राजनीतिज्ञ 'अपनत्व ' के आधार पर ही राजनीति चलाते हैं और वे अक्सर सफल भी रहते हैं। आक्रामकता द्वारा भावावेष से क्षणिक सफलता ही हासिल की जा सकती है 'स्थाई ' नहीं।
इस संदर्भ में 24-22 वर्ष पूर्व का घटनाक्रम याद आ गया है। 1992 में उत्तर-प्रदेश भाकपा का राज्य सम्मेलन आगरा में आयोजित हुआ था। आगरा के तत्कालीन जिलामंत्री कामरेड रमेश मिश्रा जी का कहना था कि राज्य सचिव का .जगदीश नारायण त्रिपाठी जी ने ज़बरदस्ती यह उन पर थोप दिया था । उस समय एक प्राइमरी अध्यापक रमेश कटारा साहब ने अपनी तांत्रिक प्रक्रियाओं से रमेश मिश्रा जी व उनके परिवार की बुद्धि जाम कर दी थी। अतः मिश्रा जी कटारा साहब को राज्य काउंसिल में भेजना चाहते थे लेकिन आगरा के कामरेड्स कटारा की स्वार्थलिप्सा को समझते थे। वे जानते थे कि कटारा न केवल पार्टी बल्कि मिश्रा जी के निजी व्यवसाय तथा भवन पर भी निगाह जमाये हुआ था। उन सबने कटारा का सामूहिक विरोध किया जिस कारण वह राज्य काउंसिल में न भेजे जा सके।
मिश्रा जी ने अपने निजी 'अपनत्व-सम्बन्धों' के आधार पर केंद्रीय कंट्रोल कमीशन के चेयरमेन कामरेड काली शंकर शुक्ला जी से प्रभाव डलवा कर कटारा को प्रदेशीय कंट्रोल कमीशन में समायोजित करवा दिया। इसका खामियाजा मिश्रा जी को अपनी कुर्सी खो कर भुगतना पड़ा फिर वह नौ वर्ष बाद ही पुनः ज़िला मंत्री बन पाये तब ही जबकि कटारा को उन्होने पार्टी से निकलवा दिया। कुर्सी जाने पर उसके लिए मिश्रा जी ने मुझको दोषी माना और मुझे कटारा के कहने पर पार्टी से निकलवाने का प्रस्ताव पास करा दिया जिसे अवैधानिक ठहराया गया और मैं अपने पदों पर बहाल रहा था। किन्तु यह आभास हो गया था कि आगे भी कटारा और कुछ हरकत कर सकता है। अतः 1994 में प्रदेश सचिव मित्रसेन यादव जी व रामचन्द्र बख़्श सिंह साहब के साथ मैं सम्मान जनक तरीके से चला गया था।
सामूहिक धरने-प्रदर्शन आदि पर भाकपा के वरिष्ठ नेता गण मिलते रहते थे और उनसे सौहाद्र पूर्ण वार्तालाप होते रहते थे। जब बेनी प्रसाद वर्मा जी और राज बब्बर साहब ने भी सपा नहीं छोड़ी थी उनसे पूर्व ही मैं निष्क्रिय बैठ गया था। 2006 में एक दिन दयालबाग क्षेत्र में अनायास ही कामरेड रमेश मिश्रा जी से मुलाक़ात हो गई तो उनका पहला प्रश्न था कि आजकल किसी आंदोलन में दिखाई नहीं पड़ते ,क्या बात है? जब मैंने बताया कि आप तो जानते ही हैं कि मैं दीवार के उस पार भी क्या है ताड़ लेता हूँ तब आप आसानी से समझ सकते हैं कि क्यों मैंने बब्बर साहब व वर्मा जी से बहुत पहले सपा को अलविदा कर दिया था।
(मध्य में डॉ जितेंद्र रघुवंशी जी के दाहिने हाथ पर बैठे हुये हैं-कामरेड रमेश मिश्रा जी ) |
इस पर मिश्रा जी का मुझसे कहना था कि राजनीतिक व्यक्ति खाली नहीं बैठ सकता और वह मुझे खाली नहीं बैठे रहने देंगे। उन्होने स्पष्ट किया कि अब कटारा को पार्टी से निकलवा दिया है और मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी अतः मैं वापिस भाकपा में लौट आऊँ। व्यक्तिगत रूप से मिश्रा जी के 'अपनत्व ' से मैं वाकिफ था और उसे नकारा नहीं जा सकता था अतः मैंने विचार करने का आश्वासन दे दिया था। किन्तु मिश्रा जी जब-तब मेरे घर पर 'अपनत्व' के तौर पर फिर आने लगे व एक-दो पार्टी कार्यक्रमों में अपने साथ ले भी गए जबकि मुझे सदस्यता लेना बाकी भी था। उनका कहना था कि -" आपकी निष्ठा व ईमानदारी पर कभी कोई संदेह नहीं था और आपके साथ रहने से हमें बल मिलता है"।
ऐसे ही कमिश्नरी पर हुये 2006 में एक प्रदर्शन में जन-मोर्चा अध्यक्ष राज बब्बर साहब के साथ उत्तर-प्रदेश भाकपा के तत्कालीन सह-सचिव डॉ गिरीश भी आगरा आए थे। लौटते में डॉ साहब भी उसी ट्रेक्टर ट्राली में बैठ कर ज़िला पार्टी कार्यालय आए जिसमें मैं भी था।डॉ साहब की उपस्थिती में ही मिश्रा जी ने पार्टी सदस्यता का फार्म मुझसे भरवा कर विधिवत सदस्यता प्रदान कर दी । क्योंकि मैं पूर्व में ज़िला पार्टी में था अतः तत्काल पूर्ण सदस्यता मिली।मिश्रा जी का 'अपनत्व' ही वह आधार था जो मुझे पुनः भाकपा में लौटा लाया।
समय चक्र के अनुसार 2009 में मैं आगरा से लखनऊ चला आया और निजी समस्याओं के सुलझते ही 25 सितंबर 2010 को प्रदेश सचिव डॉ गिरीश जी से पार्टी कार्यालय में संपर्क किया जो कि आगरा से ही जानते थे। अतुल अंजान साहब व अशोक मिश्रा जी भी आगरा से ही जानते थे। इन सबसे बात 'अपनत्व ' के आधार पर ही होती रही ,किन्तु रमेश कटारा साहब का एक नया अवतार प्रदेश में निर्णायक पदाधिकारी बना हुआ था जो डॉ साहब को मुझसे दूर करने में सफल हो चुका है। 13 जूलाई 2013 की ज़िला काउंसिल मीटिंग में कटारा के उस नए अवतार ने मेरे पेट में उँगलियाँ भोंकी व अपने पैरों से मेरे पैरों पर प्रहार किए किन्तु डॉ साहब ने उससे 'मोह' के वशीभूत उसको कुछ नहीं कहा। मेरे द्वारा अंजान साहब व वर्द्धन जी के विचार पार्टी ब्लाग में पोस्ट करने पर उस अवतार ने न केवल वे पोस्ट डिलीट कर दिये बल्कि मुझको ब्लाग एडमिनशिप तथा आथरशिप से भी हटा दिया। डॉ साहब ने कटारा-अवतार के कृत्य का समर्थन किया था। उस अवतार ने न तो विश्वनाथ शास्त्री जी को और न ही डॉ गिरीश जी को पार्टी के अधिकृत ब्लाग में एडमिन रखा था न ही आथर। फिर मुझको आथर व एडमिन क्यों बनाया ?उसके पीछे उसकी जो चाल थी वह विफल हो गई थी। अतः मैंने प्रदेश सचिव डॉ गिरीश जी व प्रदेश सह सचिव डॉ अरविंद राज स्वरूप जी को उन दोनों से निवेदन करके उन दोनों को ही पार्टी ब्लाग में आथर व एडमिन बना दिया था। इससे भी अवतार चिढ़ गया था। अब इस अवतार ने ( जो कि प्रदेश की ओर से ज़िले का सदस्य होते हुये भी पर्यवेक्षक बनाने से खुद को सुपर जिलामंत्री समझ लिया है ) अपने तो खास लोगों से मुझको ज़िला सम्मेलन से पूर्व तिकड़म द्वारा पार्टी से हटाये जाने का ऐलान कर दिया है।
न तो आगरा में और न ही लखनऊ में मैंने किसी पार्टी पोस्ट से कोई निजी या नाजायज लाभ उठाया है अतः मुझे उससे कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा। यह तो रमेश मिश्रा जी का ' अपनत्व ' ही था जो मुझे वापिस पार्टी में लौटा लाया था वरना मैं किसी लोभवश नहीं आया था। अवतार साहब का निजी लोभ मुझको बोझ समझता है तो समझता रहे।
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