(गंभीरता पूर्वक इस लेख का अध्यन करके अमल करने की सख्त ज़रूरत है अन्यथा सम्पूर्ण वामपंथ को गंभीर हानि होने की संभावना है। ---विजय राजबली माथुर )
'किस ऑफ लव' मुहिम के बारे में कुछ विचार
-- कविता कृष्णपल्लवी'
किस ऑफ लव' आन्दोलन के बारे में कुछ साथियों ने मेरी राय पूछी है।इस आन्दोलन से मेरा कोई विरोध तो नहीं है, पर इसके बारे में मेरा रुख आलोचनात्मक है।
हिन्दुत्ववादी ताकतें अपने सामाजिक-सांस्कृतिक एजेण्डा को लागू करने के लिए प्राय: संस्कृति और परम्परा की दुहाई देती हैं और प्रतीकवाद के लोकरंजक हथकण्डे का इस्तेमाल करती हैं। प्रतीकवाद का जवाब महज प्रतीकवाद से देने से मुद्दा हल्का हो जाता है। सांस्कृतिक आतंकवाद की पुरोगामी राजनीति एक व्यापक और दीर्घकालिक प्रतिरोध संगठित किये जाने की माँग करती है, प्रगतिशील संस्कृति और सामाजिक आचार का जनजीवन में व्यापक एवं सुदृढ़ आधार तैयार करने के लिए तृणमूल स्तर पर व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन संगठित करने की श्रमसाध्य गातिविधियों की सुदीर्घ निरंतरता की माँग करती है। 'दक्षिणपंथियों के मुँह पर जवाबी तमाचा लगाने का संतोष' समस्या के समाधान में कोई विशेष मदद नहीं पहुँचायेगा।
निजी आजादी-विरोधी और स्त्री-विरोधी जिन आचार-व्यवहारों को तमाम धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें जनता पर थोपना चाहती हैं, उनका समाज में व्याप्त रूढ़ियों-रीतियों-संस्कारों और संस्थाओं (जाति पंचायत, खाप पंचायत, पुराना पारिवारिक ढाँचा आदि) के रूप में व्यापक समर्थन आधार है। साथ ही, धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें तृणमूल स्तर पर लगातार अपनी संस्थाओं, प्रचारपरक गतिविधियों और सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों के जरिए रूढ़िवाद को पोषक खुराकें देकर मजबूत बनाती रहती हैं। दूसरी ओर महानगरों का आधुनिक प्रगतिशील विचारों वाला जो मध्यवर्गीय तबका (विशेषकर युवा) है, वह अपने ही खित्तों में सिमटा हुआ, अपने ही लोगों के बीच 'किस ऑफ लव' जैसी प्रतीकात्मक जवाबी मुहिम चलाकर अपनी पीठ ठोंकता रहता है। रूढ़िवाद जहाँ उसकी आजादी पर चोट करता है, वहाँ वह उसका मुखर प्रतीकात्मक प्रतिवाद करता है, लेकिन रूढ़ियों की सर्वाधिक निर्मम मार तो अपने रोज-रोज के जीवन में व्यापक आम मेहनतकश जनता झेल रही है और विडम्बना यह है कि प्रतिगामी शक्तियों के सांस्कृतिक वर्चस्व की राजनीति स्वयं उनके दिलो-दिमाग को रूढ़ियों की स्वीकृति के लिए काफी हद तक अनुकूलित किये हुए है। रूढ़ियों के विरोध के लिए प्रतिबद्ध आधुनिक प्रगतिशील विचारों सरोकारों वाले युवा बुद्धिजीवियों को सबसे पहले आम जनता के बीच जाकर जाति-धर्म के रूढ़ि-बंधनों के विरुद्ध, स्त्री-विरोधी रूढ़ियों-संस्थाओं के विरुद्ध सतत् अभियान चलाना होगा, संस्थाएँ खड़ी करनी होंगी, सांस्कृतिक-सामाजिक काम करने होंगे और इस उद्देश्य पूर्ति के लिए युवा संगठन, स्त्री संगठन, जाति उन्मूलन मंच, रूढ़ि-विरोधी मंच आदि बनाने होंगे।
अपने सुरक्षित, कुलीन, मध्यवर्गीय, महानगरीय द्वीपों पर लड़ी जाने वाली प्रतीकात्मक लड़ाइयों से आत्मसंतोष के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलेगा। हालत तो यह है कि सहारनपुर, बिजनौर, आजमगढ़, बस्ती जैसे छोटे शहरों और गाँवों को भी छोड़ दें, तो दिल्ली में भी जनेवि कैम्पस, दिविवि कैम्पस और केन्द्रीय दिल्ली के बाहर यदि आम निम्न मध्यवर्गीय मुहल्लों और मज़दूर बस्तियों में 'किस ऑफ लव' की मुहिम चलाई जाये तो जनता ही दौड़ा लेगी या ढेले फेंकने लगेगी। इसलिए सबसे पहले जनता के बीच सांस्कृतिक-सामाजिक कार्रवाइयों की ज़रूरत है, सघन रूप से और निरंतरता के साथ। बेशक प्रतीकात्मक लड़ाइयाँ भी लड़ी जाती हैं, ज़रूर लड़ी जानी चाहिए, लेकिन उनकी सार्थकता एवं प्रभाविता तभी बनती है जब उनके पीछे एक सशक्त सामाजिक आन्दोलन का पूर्वाधार हो। पेरियार ने शहर की सड़कों पर हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को झाड़ू मारते हुए जुलूस निकाला था। यह एक उग्र प्रतीकात्मक प्रतिवाद था, पर इसके पीछे सुदीर्घ प्रयासों से खड़ा किये गये एक सशक्त सामाजिक आन्दोलन की ताकत थी। ज्योतिबा फुले, पेरियार, आन्ध्र महासभा के भीतर सक्रिय कम्युनिस्टों और रैडिकल तत्वों तथा राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर के बहुतेरे सुधारकों ने ज़मीनी स्तर पर सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने के काम में काफी धैर्यपूर्वक समय और ऊर्जा लगायी थी। आज का जो कुलीन मध्यवर्गीय वामपंथ है, वह ऐसा किये बिना कुछ प्रतीकात्मक लड़ाइयाँ लड़कर, कुछ अनुष्ठानिक कार्रवाइयाँ करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना चाहता है और अपनी 'उग्र क्रांतिकारिता' पर अपनी पीठ ठोंक लेना चाहता है। यह दोन किहोते जैसी हरकत है।
दूसरी बात यह है कि सामाजिक रूढ़ियों और पोंगापंथ को थोपने की कोशिशें धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्टों का स्वतंत्र एजेण्डा नहीं है। यह उनके सम्पूर्ण आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक एजेण्डा का एक हिस्सा है। हमें उनके समूचे एजेण्डा को 'एक्सपोज' करना होगा,समूचे प्रोजेक्ट का विरोध करना होगा। इसके लिए हमें व्यापक मेहनतकश जनता के बीच हर स्तर पर काम करना होगा। अपनी हर सूरत में फासीवाद एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है जो पूँजीवाद के संकट का समाधान देने के नाम पर तरह-तरह के लोकरंजक नारे देकर जनता को लुभाता और ठगता है। 'सुनहरे अतीत की वापसी' और 'परम्परा के नाम पर रूढ़ियों का महिमामण्डन' भी इसी लोकरंजक तिकड़म का एक हिस्सा है जो जनता के एक अच्छे-खासे हिस्से को मिथ्याभासी चेतना के गुंजलक में सफलतापूर्वक फँसा लेता है। इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन का प्रतिकार केवल एक सशक्त प्रगतिशील, क्रांतिकारी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने की कोशिशों द्वारा ही किया जा सकता है।
https://www.facebook.com/notes/761551077233769/
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किस ऑफ लव' आन्दोलन के बारे में कुछ साथियों ने मेरी राय पूछी है।इस आन्दोलन से मेरा कोई विरोध तो नहीं है, पर इसके बारे में मेरा रुख आलोचनात्मक है।
हिन्दुत्ववादी ताकतें अपने सामाजिक-सांस्कृतिक एजेण्डा को लागू करने के लिए प्राय: संस्कृति और परम्परा की दुहाई देती हैं और प्रतीकवाद के लोकरंजक हथकण्डे का इस्तेमाल करती हैं। प्रतीकवाद का जवाब महज प्रतीकवाद से देने से मुद्दा हल्का हो जाता है। सांस्कृतिक आतंकवाद की पुरोगामी राजनीति एक व्यापक और दीर्घकालिक प्रतिरोध संगठित किये जाने की माँग करती है, प्रगतिशील संस्कृति और सामाजिक आचार का जनजीवन में व्यापक एवं सुदृढ़ आधार तैयार करने के लिए तृणमूल स्तर पर व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन संगठित करने की श्रमसाध्य गातिविधियों की सुदीर्घ निरंतरता की माँग करती है। 'दक्षिणपंथियों के मुँह पर जवाबी तमाचा लगाने का संतोष' समस्या के समाधान में कोई विशेष मदद नहीं पहुँचायेगा।
निजी आजादी-विरोधी और स्त्री-विरोधी जिन आचार-व्यवहारों को तमाम धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें जनता पर थोपना चाहती हैं, उनका समाज में व्याप्त रूढ़ियों-रीतियों-संस्कारों और संस्थाओं (जाति पंचायत, खाप पंचायत, पुराना पारिवारिक ढाँचा आदि) के रूप में व्यापक समर्थन आधार है। साथ ही, धार्मिक कट्टरपंथी ताकतें तृणमूल स्तर पर लगातार अपनी संस्थाओं, प्रचारपरक गतिविधियों और सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों के जरिए रूढ़िवाद को पोषक खुराकें देकर मजबूत बनाती रहती हैं। दूसरी ओर महानगरों का आधुनिक प्रगतिशील विचारों वाला जो मध्यवर्गीय तबका (विशेषकर युवा) है, वह अपने ही खित्तों में सिमटा हुआ, अपने ही लोगों के बीच 'किस ऑफ लव' जैसी प्रतीकात्मक जवाबी मुहिम चलाकर अपनी पीठ ठोंकता रहता है। रूढ़िवाद जहाँ उसकी आजादी पर चोट करता है, वहाँ वह उसका मुखर प्रतीकात्मक प्रतिवाद करता है, लेकिन रूढ़ियों की सर्वाधिक निर्मम मार तो अपने रोज-रोज के जीवन में व्यापक आम मेहनतकश जनता झेल रही है और विडम्बना यह है कि प्रतिगामी शक्तियों के सांस्कृतिक वर्चस्व की राजनीति स्वयं उनके दिलो-दिमाग को रूढ़ियों की स्वीकृति के लिए काफी हद तक अनुकूलित किये हुए है। रूढ़ियों के विरोध के लिए प्रतिबद्ध आधुनिक प्रगतिशील विचारों सरोकारों वाले युवा बुद्धिजीवियों को सबसे पहले आम जनता के बीच जाकर जाति-धर्म के रूढ़ि-बंधनों के विरुद्ध, स्त्री-विरोधी रूढ़ियों-संस्थाओं के विरुद्ध सतत् अभियान चलाना होगा, संस्थाएँ खड़ी करनी होंगी, सांस्कृतिक-सामाजिक काम करने होंगे और इस उद्देश्य पूर्ति के लिए युवा संगठन, स्त्री संगठन, जाति उन्मूलन मंच, रूढ़ि-विरोधी मंच आदि बनाने होंगे।
अपने सुरक्षित, कुलीन, मध्यवर्गीय, महानगरीय द्वीपों पर लड़ी जाने वाली प्रतीकात्मक लड़ाइयों से आत्मसंतोष के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलेगा। हालत तो यह है कि सहारनपुर, बिजनौर, आजमगढ़, बस्ती जैसे छोटे शहरों और गाँवों को भी छोड़ दें, तो दिल्ली में भी जनेवि कैम्पस, दिविवि कैम्पस और केन्द्रीय दिल्ली के बाहर यदि आम निम्न मध्यवर्गीय मुहल्लों और मज़दूर बस्तियों में 'किस ऑफ लव' की मुहिम चलाई जाये तो जनता ही दौड़ा लेगी या ढेले फेंकने लगेगी। इसलिए सबसे पहले जनता के बीच सांस्कृतिक-सामाजिक कार्रवाइयों की ज़रूरत है, सघन रूप से और निरंतरता के साथ। बेशक प्रतीकात्मक लड़ाइयाँ भी लड़ी जाती हैं, ज़रूर लड़ी जानी चाहिए, लेकिन उनकी सार्थकता एवं प्रभाविता तभी बनती है जब उनके पीछे एक सशक्त सामाजिक आन्दोलन का पूर्वाधार हो। पेरियार ने शहर की सड़कों पर हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को झाड़ू मारते हुए जुलूस निकाला था। यह एक उग्र प्रतीकात्मक प्रतिवाद था, पर इसके पीछे सुदीर्घ प्रयासों से खड़ा किये गये एक सशक्त सामाजिक आन्दोलन की ताकत थी। ज्योतिबा फुले, पेरियार, आन्ध्र महासभा के भीतर सक्रिय कम्युनिस्टों और रैडिकल तत्वों तथा राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर के बहुतेरे सुधारकों ने ज़मीनी स्तर पर सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने के काम में काफी धैर्यपूर्वक समय और ऊर्जा लगायी थी। आज का जो कुलीन मध्यवर्गीय वामपंथ है, वह ऐसा किये बिना कुछ प्रतीकात्मक लड़ाइयाँ लड़कर, कुछ अनुष्ठानिक कार्रवाइयाँ करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना चाहता है और अपनी 'उग्र क्रांतिकारिता' पर अपनी पीठ ठोंक लेना चाहता है। यह दोन किहोते जैसी हरकत है।
दूसरी बात यह है कि सामाजिक रूढ़ियों और पोंगापंथ को थोपने की कोशिशें धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्टों का स्वतंत्र एजेण्डा नहीं है। यह उनके सम्पूर्ण आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक एजेण्डा का एक हिस्सा है। हमें उनके समूचे एजेण्डा को 'एक्सपोज' करना होगा,समूचे प्रोजेक्ट का विरोध करना होगा। इसके लिए हमें व्यापक मेहनतकश जनता के बीच हर स्तर पर काम करना होगा। अपनी हर सूरत में फासीवाद एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है जो पूँजीवाद के संकट का समाधान देने के नाम पर तरह-तरह के लोकरंजक नारे देकर जनता को लुभाता और ठगता है। 'सुनहरे अतीत की वापसी' और 'परम्परा के नाम पर रूढ़ियों का महिमामण्डन' भी इसी लोकरंजक तिकड़म का एक हिस्सा है जो जनता के एक अच्छे-खासे हिस्से को मिथ्याभासी चेतना के गुंजलक में सफलतापूर्वक फँसा लेता है। इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन का प्रतिकार केवल एक सशक्त प्रगतिशील, क्रांतिकारी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने की कोशिशों द्वारा ही किया जा सकता है।
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