कला-संस्कृति और विचार की दुनिया पर बर्बरों का हमला
नरेन्द्र मोदी की सरकार जिस धुँआधार रफ्तार से नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का पाटा चला रही है, जिस संगठित ढंग से संघ परिवार के अनुषंगी संगठन, गुण्डा वाहिनियाँ और संत-महंत-नेता आदि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और दंगों का कुचक्र रच रहे हैं, उतने ही योजनाबद्ध और ख़तरनाक तरीके से शिक्षा, संस्कृति, मीडिया और अकादमिक दुनिया के भगवाकरण की मुहिम भी लगातार जारी है। कला-संस्कृति की शासकीय-अर्द्धशासकीय स्वायत्त संस्थाओं और शिक्षा परिसरों का रहा-सहा जनवादी स्पेस छीज-सिकुड़कर नष्ट होता जा रहा है।
भाजपा शासित राज्यों के विश्वविद्यालयों में तमाम चम्पू कुलपति बिठाने के बाद केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भाजपा के लोगों को बैठाने की कोशिशें लगातार जारी हैं। आई.आई.टी., आई.सी.एच.आर., आई.सी.सी.आर. आदि के भगवाकरण के बाद अब एन.सी.ई.आर.टी. और एन.बी.टी. को भी कब्जियाने की साजिशें चल रही हैं। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में संघी चम्पू कुलपति कुठियाला के खिलाफ वहाँ के छात्रों का आन्दोलन लगातार जारी है। अब पत्रकारिता के अन्य अग्रणी संस्थान आई.आई.एम.सी. की तबाही की संघी योजना भी तैयार हो जाने की ख़बरें सुनने में आ रही हैं।
संघी फासिस्टों का ताज़ा हमला अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे (एफ.टी.आई.आई.) पर हुआ है। महाभारत में युधिष्ठिर की भूमिका निभाने के बाद हिन्दी की कई सी-ग्रेड और सॉफ्ट-पोर्न फिल्मों में भूमिका निभाने वाले तथा टी.वी. चैनल पर हनुमान जी का रक्षा-कवच-यंत्र बेचने वाले गजेन्द्र चौहान को संस्थान का नया चेयरमैन बनाया गया है। यह व्यक्ति गत 20 वर्षों से भाजपा कार्यकर्ता है और लोकसभा और हरियाणा विधान सभा के विगत चुनावों में भाजपा का एक अगुआ प्रचारक था। यही नहीं, संघियों के लिए प्रचार फिल्में बनाने वाले अनघ घइसास और शैलेश गुप्ता को एफ.टी.आई.आई. की गवर्निंग कौंसिल का सदस्य भी बनाया गया है। स्मरणीय है कि सेंसर बोर्ड, बाल चित्र विकास निगम आदि संस्थाओं को पहले ही संघ के विश्वसनीय लोगों के हवाले किया जा चुका है।
संस्कृति और कला की दुनिया के फासिस्टीकरण-मुहिम के इस नये कदम का देश भर के सेक्युलर, जनवादी कलाकर्मी और सिनेकर्मी पुरजोर विरोध कर रहे हैं। एफ.टी.आई.आई. के छात्र इन नयी नियुक्तियों के विरुद्ध आन्दोलन चला रहे हैं।
हिन्दुत्ववादी फासिस्टों की इस कार्रवाई को अप्रत्याशित कत्तई नहीं माना जा सकता। सभी फासिस्ट जितनी बर्बरता से धार्मिक-नस्ली अल्पसंख्यकों, मज़दूरों और स्त्रियों को अपना निशाना बनाते हैं, उतनी ही सक्रिय घृणा के साथ वे विज्ञान, इतिहास-बोध, कला और संस्कृति की दुनिया पर भी हमला बोलते हैं। सामाजिक ताने-बाने में और जनमानस में जनवाद और तर्कणा की ज़मीन को नष्ट करने के लिए हर तरह के फासिस्ट ऐसा करते हैं। इतिहास के उदाहरण और सबक हमारे सामने हैं। यदि संस्कृति, कला-साहित्य और अकादमिक क्षेत्र के सभी प्रबुद्ध, सेक्युलर, जनवादी, प्रगतिशील लोग अभी से एकजुट होकर विचार और संस्कृति की दुनिया पर फासिस्ट बर्बरों के इन हमलों को पुरज़ोर प्रतिरोध नहीं शुरू करेंगे, तो कल बहुत देर हो चुकी रहेगी। हमारी गै़रज़िम्मेदारी, कायरता और लापरवाही के लिए इतिहास हमें कभी माफ़ नहीं करेगा। आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी।
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(अहम अथवा स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने के फेर में यदि वास्तविकता पर ध्यान न दिया गया तो कविता कृष्णपल्लवी जी का सही आंकलन घटित हुये बगैर नहीं रह सकता ।
--- विजय राजबली माथुर )
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