ब्राह्मणवाद मुख्य रूप से गैरबराबरी और शोषण का तंत्र है ::
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं को सामना :
एक सवाल जिसे बार-बार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं को सामना करना पड़ता है, उसे साथी मनोज सिंह ने बड़ी सटीकता से उठाया है, लेकिन यह वही बचकाना सवाल है जो पहले भी कम्युनिस्ट पार्टियाँ करती रही हैं और खुद ही जवाब भी देती रही हैं वह है जाति और धर्म का सवाल. लगभग सौ साल होने को आ गए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों के काम करते इस देश में, आज भी वही सनातन रूप से सवाल उठते हैं और खुद ही जवाब देते रहते हैं. इसी सन्दर्भ में कामरेड मनोज जी का कथन बिना किसी रुकावट के यहाँ दे रहा हूँ और उसपर मेरी टिपण्णी भी.
कॉमरेड मनोज सिंह कहिन::
पहले धर्म-जाति का सवाल या सर्वहारा क्रान्ति कि?
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बदलाव निश्चित है, बस सर्वहारा वर्ग को इस बदलाव की दशा और दिशा तय करना है, साथ ही इसकी गति को तेज़ करने की ज़रुरत है। यह सत्य है कि सर्वहारा क्रान्ति के राह में ऐसे कई सवाल है जिसपर ध्यान देने की ज़रुरत है। इसका मतलब ये नहीं की वर्गीय चेतना की राह को धीमां कर पहले धर्म या जाति के सवाल को हल किया जाए। मेरी नज़र में सही रास्ता सिर्फ ये है कि सर्वहारा के आर्थिक बराबरी और स्वतन्त्रता के बाद ही ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद, साम्प्रदायिकता और पूंजीवाद से छुटकारा संभव होगा। हां धर्म और जाति के सवाल को ज़रूर इस बड़ी लड़ाई में शामिल कर उसके खिलाफ भी युद्ध छेड़ना ही होगा, पर बड़ा सवाल तो सर्वहारा के सत्ता स्थापना के बाद ही हल होगा। तभी समतामूलक, जातिविहीन और आर्थिक समाज की स्थापना संभव है।
मेरी यानी कि (Himmat Singh) की टिप्पणी :
मनोज भाई, वही रटी-रटाई बात दुहरा रहे हैं, आखिर किसने रोक रखा है सर्वहारा क्रांति को. बहुत ही बचकाना सवाल है. जब हम कहते हैं कि भारतीय समाज का सारा का सारा तंत्र विकसित ही हुआ है इसी तरह से, जिसे हम जातीय व्यवस्था या यूं कहें ब्राह्मणवादी तंत्र कहते हैं. और यह ब्राह्मणवाद मुख्य रूप से गैरबराबरी और शोषण का तंत्र है. उसमे कोढ़ में खाज यह कि यहाँ जो पूँजीवाद विकसित हुआ है, वह भी वर्णाश्रमी ब्राह्मणवाद के तहत ही विकसित हुआ है इसे प्रचलित भाषा में हिन्दू पूँजीवाद कह सकते हैं. इस व्यवस्था को नए सिरे से खाद-पानी और मजबूती प्रदान किया अंग्रेजों ने, उन्हेंने यहाँ आकर देखा कि ब्राह्मणवादियों ने शोषण को शास्वत संरचना प्रदान कर रखी है. बन्दोस्बस्ती कानून (Settlement Act) के जरिये अकारण ही नहीं इन सवर्ण ब्राह्मणवादियों के हाथों में संसाधनों का हस्तांतरण तथा शूद्रों आदिवासियों और मुसलमानों को तत्कालीन ब्रिटिश पूँजीवाद के सस्ता मैन्युअल लेबर में तब्दील कर दिया गया. इंडियन फारेस्ट एक्ट १८६५ के जरिये आदिवासियों को जंगल से बेदखल करना. मैकाले एजुकेशन सिस्टम के जरिये मुसलमानों को शिक्षा से लगभग बाहर धकेलना, संस्कृति के नाम पर शंकराचार्य के नए ब्राह्मणवाद को स्थापित करना. पूरी समग्रता में देखे बगैर चीजों को अलग-थलग रूप में देखने पर व्यापक बदलाव या उत्पीडित जन के मुक्ति के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है.
https://www.facebook.com/hmtsinghdelhi/posts/10208998756598467
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( मैंने समय समय पर कई कई बार यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि, 'नास्तिकवाद ' : 'एथीज़्म ' की थोथी ज़िद्द के चलते 'धर्म ' को 'मजहबों ' के समकक्ष रख कर शहीद भगत सिंह व महर्षि कार्ल मार्क्स की आड़ में ठुकरा दिया जाता है जो वस्तुतः एक गंभीर 'ब्राह्मण वादी चाल ' है।
Himmat Singh
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं को सामना :
एक सवाल जिसे बार-बार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं को सामना करना पड़ता है, उसे साथी मनोज सिंह ने बड़ी सटीकता से उठाया है, लेकिन यह वही बचकाना सवाल है जो पहले भी कम्युनिस्ट पार्टियाँ करती रही हैं और खुद ही जवाब भी देती रही हैं वह है जाति और धर्म का सवाल. लगभग सौ साल होने को आ गए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों के काम करते इस देश में, आज भी वही सनातन रूप से सवाल उठते हैं और खुद ही जवाब देते रहते हैं. इसी सन्दर्भ में कामरेड मनोज जी का कथन बिना किसी रुकावट के यहाँ दे रहा हूँ और उसपर मेरी टिपण्णी भी.
कॉमरेड मनोज सिंह कहिन::
पहले धर्म-जाति का सवाल या सर्वहारा क्रान्ति कि?
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बदलाव निश्चित है, बस सर्वहारा वर्ग को इस बदलाव की दशा और दिशा तय करना है, साथ ही इसकी गति को तेज़ करने की ज़रुरत है। यह सत्य है कि सर्वहारा क्रान्ति के राह में ऐसे कई सवाल है जिसपर ध्यान देने की ज़रुरत है। इसका मतलब ये नहीं की वर्गीय चेतना की राह को धीमां कर पहले धर्म या जाति के सवाल को हल किया जाए। मेरी नज़र में सही रास्ता सिर्फ ये है कि सर्वहारा के आर्थिक बराबरी और स्वतन्त्रता के बाद ही ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद, साम्प्रदायिकता और पूंजीवाद से छुटकारा संभव होगा। हां धर्म और जाति के सवाल को ज़रूर इस बड़ी लड़ाई में शामिल कर उसके खिलाफ भी युद्ध छेड़ना ही होगा, पर बड़ा सवाल तो सर्वहारा के सत्ता स्थापना के बाद ही हल होगा। तभी समतामूलक, जातिविहीन और आर्थिक समाज की स्थापना संभव है।
मेरी यानी कि (Himmat Singh) की टिप्पणी :
मनोज भाई, वही रटी-रटाई बात दुहरा रहे हैं, आखिर किसने रोक रखा है सर्वहारा क्रांति को. बहुत ही बचकाना सवाल है. जब हम कहते हैं कि भारतीय समाज का सारा का सारा तंत्र विकसित ही हुआ है इसी तरह से, जिसे हम जातीय व्यवस्था या यूं कहें ब्राह्मणवादी तंत्र कहते हैं. और यह ब्राह्मणवाद मुख्य रूप से गैरबराबरी और शोषण का तंत्र है. उसमे कोढ़ में खाज यह कि यहाँ जो पूँजीवाद विकसित हुआ है, वह भी वर्णाश्रमी ब्राह्मणवाद के तहत ही विकसित हुआ है इसे प्रचलित भाषा में हिन्दू पूँजीवाद कह सकते हैं. इस व्यवस्था को नए सिरे से खाद-पानी और मजबूती प्रदान किया अंग्रेजों ने, उन्हेंने यहाँ आकर देखा कि ब्राह्मणवादियों ने शोषण को शास्वत संरचना प्रदान कर रखी है. बन्दोस्बस्ती कानून (Settlement Act) के जरिये अकारण ही नहीं इन सवर्ण ब्राह्मणवादियों के हाथों में संसाधनों का हस्तांतरण तथा शूद्रों आदिवासियों और मुसलमानों को तत्कालीन ब्रिटिश पूँजीवाद के सस्ता मैन्युअल लेबर में तब्दील कर दिया गया. इंडियन फारेस्ट एक्ट १८६५ के जरिये आदिवासियों को जंगल से बेदखल करना. मैकाले एजुकेशन सिस्टम के जरिये मुसलमानों को शिक्षा से लगभग बाहर धकेलना, संस्कृति के नाम पर शंकराचार्य के नए ब्राह्मणवाद को स्थापित करना. पूरी समग्रता में देखे बगैर चीजों को अलग-थलग रूप में देखने पर व्यापक बदलाव या उत्पीडित जन के मुक्ति के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है.
https://www.facebook.com/hmtsinghdelhi/posts/10208998756598467
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( मैंने समय समय पर कई कई बार यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि, 'नास्तिकवाद ' : 'एथीज़्म ' की थोथी ज़िद्द के चलते 'धर्म ' को 'मजहबों ' के समकक्ष रख कर शहीद भगत सिंह व महर्षि कार्ल मार्क्स की आड़ में ठुकरा दिया जाता है जो वस्तुतः एक गंभीर 'ब्राह्मण वादी चाल ' है।
यदि हम धर्म का मर्म समझ कर जनता को समझाएँ तो जनता फासिस्ट शक्तियों के अधर्म को धर्म मानने की गलती न करे और तब हम जनता को समझा सकते हैं कि, जन्मगत जाति व्यवस्था प्राकृतिक नियमों के प्रतिकूल और शोषण पर आधारित है। वेदों में कर्मगत आधार पर वर्णाश्रम व्यवस्था थी जो कर्म के आधार पर थी न कि, जन्म के आधार पर। लेकिन ब्राह्मण वाद की चाल को न समझते हुये ख़्वामख़्वाह की ज़िद्द के चलते धर्म को ठुकराने का ठोस लाभ सांप्रदायिक/फासिस्ट शक्तियों को मिल रहा है )
------ विजय राजबली माथुर
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फेसबुक कमेंट्स :
18-10-2016 |
शुक्रिया कामरेड
ReplyDeleteshukriya comrade
ReplyDeleteहिम्मत सिंह जी की हिम्मत को सलाम कि, उन्होने एक ज्वलंत व यथार्थ प्रश्न को आज उठाया जबकि फ़ासिज़्म की चौतरफा बढ़ती ताकत के बावजूद सम्पूर्ण वामपंथ पूरी तरह गफलत में उलझा हुआ है और फ़ासिज़्म को खुला मैदान पेश करता हुआ प्रतीत हो रहा है। जो लोग सिर्फ आर्थिक संघर्ष के जरिये भारत में मजदूर क्रांति लाने के पक्षधर हैं और ऐसा कह रहे हैं वे ऐसा ही कहते - कहते घोंगे की तरह सिकुड़ते चले गए हैं। यू पी भाकपा को दो दो बार तोड़ने वाले एक मोदीईस्ट ब्राह्मण कामरेड जो सपरिवार तरक्की करते हुये केंद्र में एक बड़ी शक्ति बने हुये हैं obc व sc कामरेड्स केवल काम लेना चाहते हैं उनको कोई दायित्व या पद सौंपने के खिलाफ हैं जिस कारण विधानसभा प्रत्याशी रहे obc व sc कामरेड्स अपने समर्थकों सहित पार्टी छोडने पर मजबूर किए गए। पार्टी को तोड़ते और सिकोड़ते जाने वाले नेताओं की बढ़त से क्रांति कैसे होगी?जबकि ऐसे नेता अपने ही कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न करने के लिए भी उत्तरदाई हैं।
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