May 18, 2015 at 3:22pm
भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों की जायज आलोचना करने वाले मुख्यधारा के कम्युनिस्ट दल और भाकपा(माले-लिबरेशन) नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा पर महटिया कर पड़े हैं। इन दलों में से कुछ जो 'चीनेर चैरमैन - आमादेर चैरमैन' का नारा लगाते थे अब तक उस प्रतिबद्धता से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
यह छोटा नोट किशन पटनायक की पुस्तिका 'बातचीत के मुद्दे ' (१९९९) से लिया है। पुस्तिका भी पीडीएफ में उपलब्ध है - https://samatavadi.files.wordpress.com/2008/02/batcheet-ke-mudde.pdf
चीन में भारत की तुलना में बहुत ज्यादा विदेशी पूंजी का प्रवेश हो रहा है । चीन के एक निर्धारित इलाके में सघन रूप से पूंजीवादी विकास किया जा रहा है । वहाँ आधुनिक उद्योगों का विकास तीव्रता से हो रहा है । उसको देख कर चीन के औद्योगिक भविष्य के बारे में बहुत बड़ी उम्मीदें लगायी जा रही हैं ।
चीन के भविष्य के बारे में सन्देह भी पैदा होता है ।संदेह की चर्चा करने के पहले यह समझना होगा कि चीन में पूंजीवादी विकास की सफलता के कारण क्या हैं ?
चीन जैसे विशाल देश का यह औद्योगिक इलाका एक छोटा अंश है । भारत के अनुभव से हम जानते हैं कि एक बड़े देश के छोटे इलाके को आधुनिक उद्योग के द्वारा संपन्न किया जा सकता है। एक बड़े इलाके को पिछड़ा रखकर छोटे हिस्से को समृद्ध करने के सिद्धान्त को ‘आंतरिक उपनिवेश’ का सिद्धान्त कहा जाता है । पिछड़ा अंश उपनिवेश जैसा ही होता है । इस बड़े इलाके में बेरोजगारी बढ़ती है और उद्योगहीनता भी फैलती है ।
विदेशी पूंजी पर चीन सरकार का नियंत्रण अभी भी है । पूंजी निवेश किस क्षेत्र में होगा , किन वस्तुओं के लिए होगा इनका निर्धारण चीन की साम्यवादी सरकार के नियंत्रण से होता है। यानि चीन के अनुशासन के तहत विदेशी पूंजी काम करती है।चीन विश्वव्यापार संगठन का सदस्य नहीं हुआ है ।इसलिए भारत में जिस प्रकार की खुली छूट विदेशी पूंजी को है , वैसी चीन में नहीं है।
फिर भी कुछ नकारात्मक परिणाम दिखायी देने लगे हैं और चीन के नेतृत्व को चिंतित होना पड़ रहा है । चीन के देहातों में बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है । नयी शिक्षित युवा पीढ़ी में उपभोक्तावादी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं । चीन में राष्ट्रवादी भावना अटूट है । विदेशी पूंजी से खतरा दिखाई देगा तो राष्ट्रवादी भावना विदेशी पूंजी के खिलाफ भी हो सकती है । इसलिए पूंजीवादी शक्तियाँ चीन को बहुत सारी रियायतें दे रही हैं । जब वे देखेंगी कि चीन में पूंजीवाद जड़ जमा चुका है और चीन का मध्यम वर्ग उपभोक्तावाद को छोड़ नहीं पाएगा तब वे चीन की प्रगति को रोकेंगे ; चीन में उनका साम्राज्यवादी शोषण तेज हो जाएगा । यह संभावना इसलिए दिखती है कि पूर्व एशिया के कई देशों के साथ हाल में ऐसा हुआ है ।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद न सिर्फ सोवियत रूस मजबूत हुआ , बल्कि चीन में भी साम्यवाद की स्थापना हो गयी और समूचे पूर्व एशिया में साम्यवाद के फैलने के डर से पश्चिम के पूंजीवादी देश त्रस्त हो गये । इसलिए जहाँ भी पूंजीवाद बच पाया , वहाँ पूंजीवाद को लोकप्रिय बनाने के लिए वहाँ के पूंजीवाद को नाना प्रकार की रियायतें वे देने लगे । उन देशों के जनसाधारण के सामान्य जीवन को बेहतर बनाने के लिए सलाह और आर्थिक सहयोग देने लगे । युद्ध में जापान की शत्रुता को भूलकर अमेरिका ने उसको सहयोग दिया ।इसी कारण जापान अभूतपूर्व ढंग से विकसित हुआ । दक्षिण कोरिया , हांगकांग , सिंगापुर , ताइवान , मलेशिया ,थाइलैंड आदि का किस्सा भी इसी तरह का था । १९९० में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप से साम्यवाद का पराभव हो गया । चीन में भी पूंजीवादी नीतियाँ प्रचलित होने लगीं । तब जाकर साम्यवाद का भय पश्चिम के दिमाग से हटा ।उसके बाद पूर्वी एशिया के देशों को जो सहयोग मिलता था उसका अंत हुआ ।पश्चिम के कुछ पूंजीवादी केन्द्रों से साजिश की गयी थी कि एशिया के देशों के आर्थिक विकास को रोका जाए और उनकी अर्थव्यवस्था में यूरोप अमेरिका की बड़ी कंपनियों का आधिपत्य हो। इसी साजिश के तहत इन देशों में वित्तीय संकट पैदा किया गया। संकट से उबरने के लिए इन देशों को मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा । तब मुद्राकोष उन पर अपनी शर्तें लगा रहा है । इन शर्तों का पालन होने पर जापान छोड़कर बाकी एशियाई देशों में यूरोप अमेरिका की कंपनियों का वर्चस्व बढ़ जाएगा ।
क्या चीन के साथ भी वैसी साजिश होगी ? इसका उत्तर आसान नहीं है ।चीन के लिए सन्तोष का भी कोई कारण नहीं है ।
साभार :
https://www.facebook.com/notes/aflatoon-afloo
भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों की जायज आलोचना करने वाले मुख्यधारा के कम्युनिस्ट दल और भाकपा(माले-लिबरेशन) नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा पर महटिया कर पड़े हैं। इन दलों में से कुछ जो 'चीनेर चैरमैन - आमादेर चैरमैन' का नारा लगाते थे अब तक उस प्रतिबद्धता से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
यह छोटा नोट किशन पटनायक की पुस्तिका 'बातचीत के मुद्दे ' (१९९९) से लिया है। पुस्तिका भी पीडीएफ में उपलब्ध है - https://samatavadi.files.wordpress.com/2008/02/batcheet-ke-mudde.pdf
चीन में भारत की तुलना में बहुत ज्यादा विदेशी पूंजी का प्रवेश हो रहा है । चीन के एक निर्धारित इलाके में सघन रूप से पूंजीवादी विकास किया जा रहा है । वहाँ आधुनिक उद्योगों का विकास तीव्रता से हो रहा है । उसको देख कर चीन के औद्योगिक भविष्य के बारे में बहुत बड़ी उम्मीदें लगायी जा रही हैं ।
चीन के भविष्य के बारे में सन्देह भी पैदा होता है ।संदेह की चर्चा करने के पहले यह समझना होगा कि चीन में पूंजीवादी विकास की सफलता के कारण क्या हैं ?
चीन जैसे विशाल देश का यह औद्योगिक इलाका एक छोटा अंश है । भारत के अनुभव से हम जानते हैं कि एक बड़े देश के छोटे इलाके को आधुनिक उद्योग के द्वारा संपन्न किया जा सकता है। एक बड़े इलाके को पिछड़ा रखकर छोटे हिस्से को समृद्ध करने के सिद्धान्त को ‘आंतरिक उपनिवेश’ का सिद्धान्त कहा जाता है । पिछड़ा अंश उपनिवेश जैसा ही होता है । इस बड़े इलाके में बेरोजगारी बढ़ती है और उद्योगहीनता भी फैलती है ।
विदेशी पूंजी पर चीन सरकार का नियंत्रण अभी भी है । पूंजी निवेश किस क्षेत्र में होगा , किन वस्तुओं के लिए होगा इनका निर्धारण चीन की साम्यवादी सरकार के नियंत्रण से होता है। यानि चीन के अनुशासन के तहत विदेशी पूंजी काम करती है।चीन विश्वव्यापार संगठन का सदस्य नहीं हुआ है ।इसलिए भारत में जिस प्रकार की खुली छूट विदेशी पूंजी को है , वैसी चीन में नहीं है।
फिर भी कुछ नकारात्मक परिणाम दिखायी देने लगे हैं और चीन के नेतृत्व को चिंतित होना पड़ रहा है । चीन के देहातों में बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है । नयी शिक्षित युवा पीढ़ी में उपभोक्तावादी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं । चीन में राष्ट्रवादी भावना अटूट है । विदेशी पूंजी से खतरा दिखाई देगा तो राष्ट्रवादी भावना विदेशी पूंजी के खिलाफ भी हो सकती है । इसलिए पूंजीवादी शक्तियाँ चीन को बहुत सारी रियायतें दे रही हैं । जब वे देखेंगी कि चीन में पूंजीवाद जड़ जमा चुका है और चीन का मध्यम वर्ग उपभोक्तावाद को छोड़ नहीं पाएगा तब वे चीन की प्रगति को रोकेंगे ; चीन में उनका साम्राज्यवादी शोषण तेज हो जाएगा । यह संभावना इसलिए दिखती है कि पूर्व एशिया के कई देशों के साथ हाल में ऐसा हुआ है ।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद न सिर्फ सोवियत रूस मजबूत हुआ , बल्कि चीन में भी साम्यवाद की स्थापना हो गयी और समूचे पूर्व एशिया में साम्यवाद के फैलने के डर से पश्चिम के पूंजीवादी देश त्रस्त हो गये । इसलिए जहाँ भी पूंजीवाद बच पाया , वहाँ पूंजीवाद को लोकप्रिय बनाने के लिए वहाँ के पूंजीवाद को नाना प्रकार की रियायतें वे देने लगे । उन देशों के जनसाधारण के सामान्य जीवन को बेहतर बनाने के लिए सलाह और आर्थिक सहयोग देने लगे । युद्ध में जापान की शत्रुता को भूलकर अमेरिका ने उसको सहयोग दिया ।इसी कारण जापान अभूतपूर्व ढंग से विकसित हुआ । दक्षिण कोरिया , हांगकांग , सिंगापुर , ताइवान , मलेशिया ,थाइलैंड आदि का किस्सा भी इसी तरह का था । १९९० में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप से साम्यवाद का पराभव हो गया । चीन में भी पूंजीवादी नीतियाँ प्रचलित होने लगीं । तब जाकर साम्यवाद का भय पश्चिम के दिमाग से हटा ।उसके बाद पूर्वी एशिया के देशों को जो सहयोग मिलता था उसका अंत हुआ ।पश्चिम के कुछ पूंजीवादी केन्द्रों से साजिश की गयी थी कि एशिया के देशों के आर्थिक विकास को रोका जाए और उनकी अर्थव्यवस्था में यूरोप अमेरिका की बड़ी कंपनियों का आधिपत्य हो। इसी साजिश के तहत इन देशों में वित्तीय संकट पैदा किया गया। संकट से उबरने के लिए इन देशों को मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा । तब मुद्राकोष उन पर अपनी शर्तें लगा रहा है । इन शर्तों का पालन होने पर जापान छोड़कर बाकी एशियाई देशों में यूरोप अमेरिका की कंपनियों का वर्चस्व बढ़ जाएगा ।
क्या चीन के साथ भी वैसी साजिश होगी ? इसका उत्तर आसान नहीं है ।चीन के लिए सन्तोष का भी कोई कारण नहीं है ।
साभार :
https://www.facebook.com/notes/aflatoon-afloo
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