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... जब इंदिरा गांधी फ़िरोज़ से शादी के सवाल पर नेहरू को नहीं मना पाईं तो कम्युनिस्ट नेता भूपेश गुप्त बने थे संदेशवाहक
60 -70 के दशक में संसद में सबसे ज़्यादा धाक वाले वक्ता थे CPI के भूपेश गुप्त . कभी शराब नहीं पी माओ और ख्रुशचेव ने बार बार शराब पीने का इसरार किया उनकी बात भी नहीं मानी
शख्शियत : भूपेश गुप्त
इंदिरा गांधी, उनके होने वाले पति फ़िरोज़ गाँधी और भूपेश गुप्त ब्रिटेन से एक ही पानी के जहाज़ से भारत वापस लौटे थे. वो लन्दन में इकठ्ठे पढ़े थे "तीस के दशक से ही वो इंदिरा गाँधी से बहुत जुड़े हुए थे और उनके और फ़िरोज़ गाँधी के बीच संदेशवाहक का काम करते थे. लेकिन 1977 के बाद से वो उनके सख़्त ख़िलाफ़ हो गए थे, उसके बाद वो उनसे निजी तौर पर कभी नहीं मिले."
इंदिरा गांधी की नज़दीकी दोस्त पुपुल जयकर ने उनपर लिखी जीवनी में लिखा है, "जब इंदिरा गांधी फ़िरोज़ गाँधी से शादी के मुद्दे पर अपने पिता जवाहरलाल नेहरू को नहीं मना पाईं तो वो और फ़िरोज़, कम्युनिस्ट नेता और अपने बहुत अच्छे दोस्त भूपेश गुप्त के पास गए." "जब भूपेश ने ये सुना तो वो फ़िरोज़ की तरफ़ मुड़ कर बहुत गंभीरता से बोले बोले, 'क्या तुम वफ़ादार रह पाओगे?' फ़िरोज़ ज़ोर से हंसे और घुटनों के बल बैठ कर बोले, 'क्या तुम चाहते हो कि मैं वफ़ादारी का प्रण लूँ?' भूपेश गुप्ता ने फ़िरोज़ गांधी को कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि इंदिरा गांधी की तरफ़ मुड़ कर पूछा, 'क्या तुम वास्तव में फ़िरोज़ से शादी करना चाहती हो?' उनको पता था कि इंदिरा ज़िद्दी है और उन्हें कोई ताज्जुब नहीं हुआ जब इंदिरा ने कहा कि उनका यही इरादा है. भूपेश ने तब दोनों से कहा कि वो महात्मा गांधी से सलाह लें."
इंदिरा गांधी से इतनी निकटता होने के बावजूद उनकी दोस्ती कभी भी उनके राजनीतिक विचारों के आड़े नहीं आई. जब वक्त का तकाज़ा हुआ तो उन्होंने इंदिरा गाँधी पर राजनीतिक हमलों से परहेज़ नहीं किया.
अतुल कुमार अंजान बताते हैं, "इंदिरा गांधी के साथ उनके संबंध नीतियों के सवाल पर कठोर होते थे. मुझे लगता है कि लंदन के अध्ययन काल में दोनों के संबंधों के बीच बहुत जीवंतता और आत्मीयता थी. एक बार मैं उनके निवास स्थान से संसद भवन पैदल जा रहा था."
"अचानक उनके सामने एक एंबेसडर कार आ कर रुकी. शीशा उतार कर एक महिला बोल रही थी भूपेश... भूपेश. मैंने देखा वो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. उन्होंने अपनी कार का दरवाज़ा खोला और उनसे अपनी कार में बैठने का आग्रह करने लगीं. लेकिन भूपेश कार में बैठने में झिझक रहे थे. अंतत: वो कार में नहीं बैठे. जब मुझे लगा कि ये सिर्फ़ एक अद्वितीय सांसद और प्रधानमंत्री के बीच का मामला नहीं है, बल्कि यह बहुत गहरा आत्मीय संबंध है."
जब 1980 में अचानक इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गाँधी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हो गया, तो घोर राजनीतिक विरोधी होते हुए भी भूपेश गुप्त ने संजय गाँधी को जिस तरह की भावभीनी श्रंद्धांजलि दी, वैसी शायद किसी ने भी नहीं दी.
भूपेश गुप्त बोले, "कई मौके ऐसे आते हैं जब नियमों को ताक पर रख दिया जाता है. अगर नियमों को ताक पर नहीं रखा गया होता तो 23 जून को हुई दुर्घटना नहीं हुई होती, तो प्रधानमंत्री के बेटे, सत्ताधारी पार्टी के महासचिव और 25 सालों तक मेरे दोस्त रहे फ़िरोज़ गांधी के छोटे बेटे और अगर मुझ पर चापलूसी का इल्ज़ाम न लगाया जाए, तो मेरी दोस्त इंदिरा गांधी के बेटे के प्राण नहीं जाते. मैं बहुत भरे दिल से यह सब कह रहा हूँ."
साठ और सत्तर के दशक में भारतीय संसद में हीरेन मुखर्जी, नाथ पाई, ज्योतिर्मय बसु और अटल बिहारी वाजपेई के साथ साथ जिस वक्ता की सबसे ज़्यादा धाक होती थी वो थे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भूपेश गुप्त.
एक बार मशहूर रंगमंच आलोचक केनेथ टिनेन ने कहा था, "अंग्रेज़ कंजूसों की तरह लफ़्ज़ों की जमाखोरी करते हैं, जबकि आयरिश एक शराबी की तरह उन्हें बाहर निकाल देते हैं."
भूपेश गुप्त ने अपने जीवन में कभी शराब नहीं पी, लेकिन राज्यसभा में जब भी वो बोलने के लिए खड़े हुए, उनके मुंह से लफ़्ज एक आयरिश मैन की तरह ही निकले.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अतुल कुमार अंजान की भूपेश गुप्त से पहली मुलाकात जब हुई जब वो सिर्फ़ 16-17 साल के हुआ करते थे.
अंजान बताते हैं, "मैं आल इंडिया स्टूडेंट फ़ेडेरेशन के एक प्रदर्शन में दिल्ली आया था 1972 में. बोट क्लब पर हुए उस प्रदर्शन में मैंने भूपेश गुप्त को पहली बार बोलते हुए सुना. वहीं मैंने मधु लिमये, अमृतपद डाँगे और नाथ पाईजी को सुना. मैं इन सबसे प्रभावित हुआ. लेकिन सबसे अधिक प्रभावित हुआ भूपेश गुप्त की सिंहगर्जना से जिसको सुनने से हर्दय, शरीर और रोम में कंपन होता था."
अंजान आगे बताते हैं, "क्या शब्द थे उनके! क्या था उनका उच्चारण ! उस ज़माने में उतनी अंग्रेज़ी नहीं जानता था लेकिन तब भी लगता था कि वो हमारी ही बात कर रहे हैं.जब वो उठ कर जाने लगे तो मैं उनके पास जा कर खड़ा हो गया. उनसे बातचीत की. हाथ मिलाया. उन्होंने अंग्रेज़ी में पूछा कहाँ से? मैंने कहा लखनऊ से. ये मेरी उनकी पहली मुलाकात थी.''
बाद में तो अतुल अंजान का भूपेश गुप्त के साथ काफ़ी साथ रहा. जब भी वो लखनऊ से दिल्ली आते ते, उन्हीं के घर ठहरते थे. सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाते थे भूपेश गुप्त. तभी अख़बार वाला धड़ाप की आवाज़ के साथ अख़बार का बंडल फेंक जाता था.
दैनिक कार्य से निवृत्त होने के बाद वो चार बजे से अख़बार पढ़ना शुरू कर देते थे. पाँच बजे से वो राज्यसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के लिए तैयारी शुरू कर देते थे. एक ही उंगली से अपने पुराने टाइप राइटर पर टाइप करना शुरू कर देते थे. साते साढ़े सात बजे तक उनका काम रोको प्रस्ताव और ज़ीरो आवर में कौन सा सवाल पूछेंगे- इन सब की तैयारी हो जाती थी.
आठ सवा आठ बजे राज्यसभा के सचिवालय में उनका प्रश्न पहुंच जाता था और ठीक दस बजे वो संसद पहुंच जाते थे. कुल मिला कर उन्होंने राज्यसभा में 1500 से 2000 के बीच भाषण दिए हैं.
जब भूपेश बोलते थे तो सभापति तक के बूते की बात नहीं होती थी कि वो उनके भाषण में व्यवधान डाले या उनसे कहे, "योर टाइम इज़ अप मिस्टर भूपेश गुप्त."
जब वो खड़े होते थे तो लोग अपनी कुर्सी से चिपक कर बैठ जाते थे. सुमित चक्रवर्ती मेनस्ट्रीम पत्रिका के संपादक और जानेमाने पत्रकार निखिल चक्रवर्ती के बेटे हैं.
वो बताते हैं, "अबू अब्राहम ने एक बार लिखा था कि जब वो राज्यसभा में पहली बार एक सदस्य की हैसियत से घुसे तो उन्होंने देखा कि भूपेश गुप्त सदन में कोई मामला उठा रहे थे. उनका भाषण कुछ लंबा हो चला था. सभापति ने उनसे गुज़ारिश की कि मुद्दे पर आइए."
"भूपेश ने जवाब दिया मैं धीरे धीरे वही कर रहा हूँ. एक मोती से माला नहीं बन जाती. उनको एक एक कर पिरोने से ही माला बनती है. उनकी एक और अदा होती थी कि अपना भाषण देने के बाद वो अपना हियरिंग एड उतार देते थे. लोग मज़ाक में कहते थे कि वो ऐसा इसलिए करते थे ताकि उनके भाषण की आलोचना उनके कानों तक न पहुंच सके. एक बार नेहरू के भाषण के दौरान ही उन्होंने अपना हियरिंग एड उतार दिया था. जब नेहरू ने कहा था कि हम में से बहुतों को ये सौभाग्य नहीं प्राप्त है कि हम वो न सुनें जो हम सुनना नहीं चाहते."
हिरण्मय कार्लेकर हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रह चुके हैं. उन्होंने भूपेश गुप्त के राजनीतिक जीवन को बहुत नज़दीक से देखा है. वे बताते हैं, "अगर आपको उनसे बात करनी होती थी तो आपको बहुत ज़ोर से बोलना पड़ता था, क्योंकि वो ऊंचा सुनते थे. दूसरा वो खुले इंसान थे. जो कुछ कहना होता था साफ़ बोलते थे. तीसरे विवादास्पद बात करने में उन्हें बहुत मज़ा आता था. एक बात करके वो छोड़ देते थे और फिर देखते थे कि उसका उन लोगों पर क्या असर पड़ रहा है जिनके लिए वो बात कही गई थी."
भूपेश शराब को हाथ नहीं लगाते थे. सुमित चक्रवर्ती एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार नववर्ष के मौके पर एक महिला ने उनसे कहा कि आज तो कम से कम आप शैरी पी सकते हैं. भूपेश ने ज़ोर से ठहाका लगाते हुए कहा था कि तुम मुझसे वो काम करने के लिए कह रही हो जो मुझसे माओ त्से तुंग और निकिता ख्रुशचेव भी नहीं करवा पाए. उन्होंने कितनी बार मुझसे शराब पीने का इसरार किया लेकिन मैंने कभी उनकी बात नहीं मानी."
मेनस्ट्रीम के पूर्व संपादक निखिल चक्रवर्ती भूपेश गुप्त को उनके लंदन के दिनों से जानते थे. उनकी मौत के बाद उन्होंने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, "भूपेश संसदीय बहस के लिए बहुत तैयारी करते थे. वो अपने निजी सचिव खुद थे. उनका कमरा हमेशा बेतरतीब रहता था लेकिन वो मेज़ जिस पर वो काम करते थे, हमेशा साफ़ सुथरी होती थी."
"उस ज़माने में संसद में ध्यान आकर्षित करने के कई तरीके हुआ करते थे. एक था राजनारायण स्टाइल जहाँ आप मसखरापन कर सांसदों का ध्यान खींचते थे और दूसरा था संजय गांधी स्टाइल जहां आप ताक़त और ऊँची आवाज़ के ज़ोर पर अपनी बात मनवाते थे. भूपेश इन दोनों से अलग थे. उन्हें इसलिए सुना जाता था क्योंकि वो हमेशा नाइंसाफ़ी और असमानता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते थे."
भूपेश गुप्त की अकेली संपत्ति उनकी किताबें थी. उनके पास बहुत कम कपड़े होते थे. अगर कोई उन्हें कोई कपड़ा देता भी तो वो उसे किसी ज़रूरतमंद को बांट देते थे. कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व नेता मोहित सेन उनके बहुत करीबी थे.
उन्होंने अपनी आत्मकथा 'द ट्रैवलर एंड द रोड' में लिखा है, "जब वो मरे तो उनके बैंक अकाउंट में बहुत कम पैसे थे. उनके पास किताबों, नोटबुक्स और बहुत मामूली वार्डरोब के अलावा कुछ भी नहीं था. मुझे वो बहुत पसंद करते थे और अक्सर हम उनके फ़िरोज़ शाह रोड वाले घर से बंगाली मार्केट पैदल जाया करते थे जहाँ वो गोलगप्पे और मिठाइयां खाते थे."
1981 में जब भूपेश गुप्त का निधन हुआ और उनके पार्थिव शरीर को अजय भवन लाया गया, तो इंदिरा गांधी स्वयं उन्हें श्रद्धांजलि देने कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय अजय भवन पहुंची. उस समय अतुल अंजान भी अजय भवन में मौजूद थे. अतुल बताते हैं, "मैंने देखा कि इंदिरा जी आईं थी. एकदम श्वेत परिधान में थीं...एकदम सफ़ेद. काला चश्मा लगाए हुए थीं."
"जब वो भूपेश के पार्थिव शरीर के पास आईं तो बहुत देर तक खड़ी रहीं. उनका शरीर शीशे के कास्केड में रखा गया था, जिसमें उनका चेहरा दिखाई दे रहा था. वो अपनी लंबी गर्दन निकाल कर बहुत ग़ौर से भूपेश के चेहरे को देखती रहीं. मैं उनकी बगल में खड़ा था. मैंने देखा कि उनके काले चश्मे के नीचे से टप टप आँसू बह रहे थे."
साभार :
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