Thursday, 22 March 2018

मऊ से अतुल अंजान का आह्वान क्या ? और अंजाम क्या ? ------ विजय राजबली माथुर






अर्चना उपाध्याय जी कामरेड अतुल अंजान साहब को लाल झंडे का प्रमुख प्रहरी बनाने की बात कहती हैं लेकिन यहाँ तो इस फोटो में उनकी उपस्थिती को ही नकार दिया गया है । 




एक तीर  से तीन शिकार और चिराग तले अंधेरा  :
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भाकपा में  वंशवाद व एकाधिकार न होने की बात " चिराग तले अंधेरा " होने की एक ज्वलंत उक्ति है। उत्तर - प्रदेश भाकपा में मास्को रिटर्ण्ड एक ऐसे कामरेड का बोलबाला है जिनकी जन्मगत जाति को अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व मिला हुआ है और उनका दावा है कि , वह जिसकी पीठ पर हाथ रखेंगे वही यू पी में टिक सकेगा दूसरा कोई नहीं। उनका यह भी निर्देश है कि, obc व sc कामरेड्स से सिर्फ काम लिया जाना चाहिए लेकिन उनको कोई पद नहीं देना चाहिए। इसी थीसिस पर दो बार प्रदेश पार्टी का विभाजन भी हो चुका है। 
इनके द्वारा 2014 में  एक राष्ट्रीय सचिव कामरेड से वायदा किया गया था कि, 2015 की इलाहाबाद कांग्रेस  के जरिये डॉ गिरीश को हटा देंगे लेकिन उनके बाद ' मुन्ना ' बन जाएँगे और वह भी ज़्यादा अच्छे नहीं हैं। फिर इन दोनों के पर्यवेक्षण में ही डॉ साहब को रिपीट करवा लिया था और अब मऊ में भी इन दोनों के पर्यवेक्षण में ही उनको चौथी बार निर्वाचित करके अपने मजबूत एकाधिकारी वर्चस्व की छाप दी है। यदि इसका विश्लेषण किया जाये तो सिद्ध होगा कि, इसके द्वारा एक साथ तीन शिकार किए गए हैं। 
( 1 ) ' मुन्ना ' साहब जिनको यह अच्छा नहीं मानते हैं दूसरी बार भी वंचित कर दिये गए। 
( 2 ) जिन राष्ट्रीय सचिव कामरेड को 2014 में वायदा किया था उनको जतला दिया कि, यह उनको कोई महत्व नहीं देते हैं और यू पी पार्टी पर इनका एकक्षत्र  आधिपत्य है। 
( 3 ) डॉ साहब के केंद्रीय राजनीति में सक्रिय होने के मंसूबे को एक बार फिर मसल दिया और उनको यू पी में ही उलझाए रखा। इस संदर्भ में यह फिर से याद करने की बात है कि, 2012 की पटना की राष्ट्रीय कांग्रेस में जब डॉ साहब को पहली बार राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल करने की घोषणा हुई थी तो एक पूर्ण सदस्य के रूप में हुई थी लेकिन जब लिस्ट जारी हुई तब यू पी के स्वएकाधिकारी इन कामरेड के इशारे पर डॉ साहब को विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में परिणत कर दिया गया था और डॉ साहब को उन राष्ट्रीय सचिव को दोषी मानने की बात समझा दी गई थी क्योंकि, पूर्व - योजनानुसार डॉ साहब को उन राष्ट्रीय सचिव के साथ ही ठहरवा दिया था। 
पार्टी की ऐसी गतिविधियों की ही छाप बाहर कैसी पड़ती है उसका नमूना है  इतिहासकार रामचन्द्र गुहा का यह लेख : 


यदि वस्तुतः भाकपा को अपनी खोई हुई शक्ति पुनः प्राप्त करनी है ( प्रथम आम चुनाव में वह प्रमुख विपक्षी दल के रूप मे आई और केरल मे प्रथम निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनाई थी ) तो थोथे पूर्वाग्रहों को छोड़ कर भारत की जनता को अपने साथ जोड़ना होगा क्योंकि, 
* 'साम्यवाद'=समष्टिवाद है जिसमे व्यक्ति विशेष का नहीं समाज का सामूहिक कल्याण सोचा और किया जाता है। अतः साम्यवाद ही परम मानव-धर्म है। साम्यवाद के तत्व वेदों मे मौजूद हैं। ऋग्वेद के अंतिम सूक्त मे मंत्रों द्वारा दिशा-निर्देश दिये गए हैं।
** 'धर्म' के सम्बन्ध मे निरन्तर लोग लिखते और अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं परंतु मतैक्य नहीं है। ज़्यादातर लोग धर्म का मतलब किसी मंदिर,मस्जिद/मजार ,चर्च या गुरुद्वारा अथवा ऐसे ही दूसरे स्थानों पर जाकर उपासना करने से लेते हैं। इसी लिए इसके एंटी थीसिस वाले लोग 'धर्म' को अफीम और शोषण का उपक्रम घोषित करके विरोध करते हैं । दोनों दृष्टिकोण अज्ञान पर आधारित हैं। 'धर्म' है क्या? इसे समझने और बताने की ज़रूरत कोई नहीं समझता।
*** मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।
प्रथम विश्व - युद्ध की परिस्थितियों से लाभ उठा कर 1917 में जब कामरेड लेनिन ने बोलेश्विक क्रांति के माध्यम से रूस में साम्यवाद की स्थापना की थी तब वह भी कृषी - प्रधान देश ही था वहाँ का औद्योगिक विकास साम्यवादी शासन की देंन है। 'धर्म ' की गलत व्याख्या पर उसे ठुकराने का ही परिणाम था कि, 1991 में वह वहाँ से उखड़ गया। 
द्वितीय विश्व - युद्ध के परिणामों ने जब चीन में साम्यवादी व्यवस्था कायम की तब वह भी कृषी - प्रधान देश ही था। आज वहाँ भी State Capitalism ही कम्यूनिज़्म के नाम पर चल रहा है - वह साम्यवाद नहीं है। 
भारत में 'आर्थिक ' संघर्ष के आधार पर न तो साम्यवाद आ सका है न आ सकेगा जब तक कि, यहाँ आर्थिक शोषण के मजबूत आधार जातिवाद और ब्रहमनवाद पर प्रहार नहीं किया जाता। इसके बगैर कामरेड अतुल अंजान साहब के  नेक आह्वान को ब्रहमनवाद द्वारा ध्वस्त ही किया जाता रहेगा।  

साम्यवाद ही है मानव कल्याण का मार्ग ------ विजय राजबली माथुर

'साम्यवाद'=समष्टिवाद है जिसमे व्यक्ति विशेष का नहीं समाज का सामूहिक कल्याण सोचा और किया जाता है। अतः साम्यवाद ही परम मानव-धर्म है। साम्यवाद के तत्व वेदों मे मौजूद हैं। ऋग्वेद के अंतिम सूक्त मे मंत्रों  द्वारा दिशा-निर्देश दिये गए हैं।
** 'धर्म' के सम्बन्ध मे निरन्तर लोग लिखते और अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं परंतु मतैक्य नहीं है। ज़्यादातर लोग धर्म का मतलब किसी मंदिर,मस्जिद/मजार ,चर्च या गुरुद्वारा अथवा ऐसे ही दूसरे स्थानों  पर जाकर  उपासना करने से लेते हैं। इसी लिए इसके एंटी थीसिस वाले लोग 'धर्म' को अफीम और शोषण का उपक्रम घोषित करके विरोध करते हैं । दोनों दृष्टिकोण अज्ञान पर आधारित हैं। 'धर्म' है क्या? इसे समझने और बताने की ज़रूरत कोई नहीं समझता।
*** मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।


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1857 की क्रांति विफल होने पर 1875 मे चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (विक्रमी संवत के प्रथम दिवस ) पर  महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा 'आर्यसमाज' की स्थापना जनता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जाग्रत करने हेतु की गई थी और शुरू-शुरू मे इसके केंद्र छावनियों मे स्थापित किए गए थे। इसकी सफलता से भयभीत होकर रिटायर्ड ICS एलेन आक्टावियन हयूम (A .O. HUME) की सहायता से W.C.(वोमेश चंद्र) बनर्जी की अध्यक्षता मे इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना कराई गई जो प्रारम्भ मे ब्रिटिश साम्राज्य हेतु 'सेफ़्टी वाल्व' का काम करती थी। स्वामी दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजियों ने राजनीतिक रूप से कांग्रेस मे प्रवेश करके इसे स्वाधीनता आंदोलन की ओर मोड दिया। खुद पट्टाभिसीता रमईय्या ने 'कांग्रेस का इतिहास' पुस्तक मे स्वीकार किया है कि स्वाधीनता आंदोलन मे जेल जाने वाले सत्याग्रहियों मे 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। कांग्रेस के द्वारा आजादी की मांग करने पर 1906 मे मुस्लिम लीग और  1920 मे कुछ कांग्रेसी नेताओं को लेकर हिन्दू महासभा का गठन कांग्रेस को कमजोर करने हेतु ब्रिटिश साम्राज्य ने करवाया था। मुसलिम लीग की भांति हिन्दू महासभा शासकों के अनुकूल कार्य न कर पाई तब RSS का गठन 1925 मे करवाया गया जिसने विदेशी शासकों को खुश करने हेतु मुस्लिम लीग की तर्ज पर विद्वेष की आग को खूब भड़काया (जिसकी अंतिम परिणति देश विभाजन के रूप मे हुई)।
1925 मे ही राष्ट्र वादी कांग्रेसियों ने भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना स्वाधीनता आंदोलन को गति प्रदान करने हेतु की थी। किन्तु 1930 मे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को रोकने हेतु करवा दी गई। लेनिन और बाद मे स्टालिन की सलाह को ठुकराते हुये उस समय के कम्यूनिस्ट नेताओं ने हू- ब-हू सोवियत रूस की तर्जपर पार्टी को चलाया जिसका परिणाम यह हुआ कि वे जनता की नब्ज पर अपनी उंगली न रख सके। सोवियत रूस मे भी 'धर्म' की अवधारणा के आभाव मे साम्यवाद का वह स्टाईल असफल हो गया और चीन मे भी जो चल रहा है वह मूल साम्यवाद नहीं है। हमारे देश मे अभी भी कुछ दक़ियानूसी विद्वान 'धर्म' और 'साम्यवाद' मे अंतर मानते हैं क्योंकि वे पुरोहितवाद को ही धर्म मानने की गलती छोडना नहीं चाहते । कुल मिला कर नुकसान शोषित-पीड़ित जनता का ही है। धर्म के नाम पर उसे मिलता है पोंगावाद जो उसके शोषण को ही मजबूत करता है। पाखंडी तरह तरह से जनता को ठगते हैं और जन-हितैषी कहलाने वाले कम्यूनिस्ट धर्म -विरोध के नाम पर अडिग रहने के कारण 'धर्म' की वास्तविक व्याख्या बताने से परहेज करते हैं।
'धर्म' के सम्बन्ध मे निरन्तर लोग लिखते और अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं परंतु मतैक्य नहीं है। ज़्यादातर लोग धर्म का मतलब किसी मंदिर,मस्जिद/मजार ,चर्च या गुरुद्वारा अथवा ऐसे ही दूसरे स्थानों  पर जाकर  उपासना करने से लेते हैं। इसी लिए इसके एंटी थीसिस वाले लोग 'धर्म' को अफीम और शोषण का उपक्रम घोषित करके विरोध करते हैं । दोनों दृष्टिकोण अज्ञान पर आधारित हैं। 'धर्म' है क्या? इसे समझने और बताने की ज़रूरत कोई नहीं समझता।

धर्म=शरीर को धारण करने के लिए जो आवश्यक है वह 'धर्म' है। यह व्यक्ति सापेक्ष है और सभी को हर समय एक ही तरीके से नहीं चलाया जा सकता। उदाहरणार्थ 'दही' जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है किसी सर्दी-जुकाम वाले व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। ऐसे ही स्वास्थ्यवर्धक मूली भी ऐसे रोगी को नहीं दी जा सकती। क्योंकि यदि सर्दी-जुकाम वाले व्यक्ति को मूली और दही खिलाएँगे तो उसे निमोनिया हो जाएगा अतः उसके लिए सर्दी-जुकाम रहने तक दही और मूली का सेवन 'अधर्म' है। परंतु यही एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए 'धर्म' है।

मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।

ऋग्वेद के इस मंत्र को देखें-

सर्वे भवनतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया :
सर्वे भद्राणि पशयनतु मा कश्चिद दु : ख भाग भवेत। ।

इस मंत्र मे क्या कहा गया है उसे इसके भावार्थ से समझ सकते हैं-

सबका भला करो भगवान ,सब पर दया करो भगवान।
सब पर कृपा करो भगवान,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों ,कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवान,धन धान्य के भण्डारी। ।
सब भद्र भाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे,सृष्टि मे प्राण धारी । ।

ऋग्वेद का यह संदेश न केवल संसार के सभी मानवों अपितु सभी जीव धारियों के कल्याण की बात करता है। क्या यह 'धर्म' नहीं है?क्या इसकी आलोचना करके किसी वर्ग विशेष के हितसाधन की बात नहीं सोची जा रही है। जिन पुरोहितों ने धर्म की गलत व्याख्या प्रस्तुत की है उनकी आलोचना और विरोध करने के बजाये धर्म की आलोचना करके शोषित-उत्पीड़ित मानवों की उपेक्षा करने वालों (शोषकों ,उत्पीड़को) को ही लाभ पहुंचाने का उपक्रम है।

भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
 क्या इन तत्वों की भूमिका को मानव जीवन मे नकारा जा सकता है?और ये ही पाँच तत्व सृष्टि,पालन और संहार करते हैं जिस कारण इनही को GOD कहते हैं  ...

GOD=G(generator)+O(operator)+D(destroyer)।
खुदा=और चूंकि ये तत्व' खुद ' ही बने हैं इन्हे किसी प्राणी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं।

'भगवान=GOD=खुदा' - मानव ही नहीं जीव -मात्र के कल्याण के तत्व हैं न कि किसी जाति या वर्ग-विशेष के।

पोंगा-पंथी,ढ़ोंगी और संकीड़तावादी तत्व (विज्ञान और प्रगतिशीलता के नाम पर) 'धर्म' और 'भगवान' की आलोचना करके तथा पुरोहितवादी 'धर्म' और 'भगवान' की गलत व्याख्या करके मानव द्वारा मानव के शोषण को मजबूत कर रहे हैं।
'ज्योतिष'=वह विज्ञान जो मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध ' बनाने मे सहायक है। अखिल ब्रह्मांड मे असंख्य तारे,ग्रह और नक्षत्र हैं जिनसे निकलने वाला प्रकाश समस्त जीवधारियों तथा वनस्पतियों सभी को प्रभावित करता है। मानव जीवन पर इस प्रभाव का अध्यन करके लाभकारी स्थिति बताना 'ज्योतिषी' का कर्तव्य होता है और जो इस से हट कर गलत कार्य करता है वह ज्योतिषी नहीं है केवल उसी की आलोचना और विरोध होना चाहिए। परंतु प्रगतिशीलता के नाम पर ढ़ोंगी व्यक्ति का विरोध न करके ज्योतिष का विरोध करने का मतलब है 'मानव' को प्रकृति सुलभ ज्ञान से वंचित करना और यह भी उतना ही गलत और बुरा है जितना ज्योतिष के नाम पर ठगना।

'साम्यवाद'=समष्टिवाद है जिसमे व्यक्ति विशेष का नहीं समाज का सामूहिक कल्याण सोचा और किया जाता है। अतः साम्यवाद ही परम मानव-धर्म है। साम्यवाद के तत्व वेदों मे मौजूद हैं। ऋग्वेद के अंतिम सूक्त मे मंत्रों  द्वारा दिशा-निर्देश दिये गए हैं।

'सं ....... वसून्या भर' अर्थात-

हे प्रभों तुम शक्तिशाली हो बनाते सृष्टि को ।
वेद सब गाते तुम्हें हैं कीजिये धन वृष्टि को। ।

'संगच्छ्ध्व्म ....... उपासते' अर्थात-

प्रेम से मिल कर चलें बोलें सभी ज्ञानी बने।
पूर्वजो की भांति हम कर्तव्य के मानी बने। ।

'समानी मंत्र : ....... हविषा जुहोमि' अर्थात-


हो विचार समान सबके चित्त मन सब एक हो।
ज्ञान पाते हैं बराबर भोग्य पा सब नेक हों। ।

'समानी व आकूति: ..... सुसहासति'

हो सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा।
मन भरे हो प्रेम से जिससे बढ़े सुख संपदा। ।

कोई भी प्रगतिशीलता के नाम पर यदि उपरोक्त मानव-कल्याण के संदेशों की उपेक्षा करता है और उससे दूर रहने की बात करता है तो स्पष्ट है कि वह समष्टिवादी-साम्यवादी नहीं है। 'साम्यवाद' मूलतः भारतीय अवधारणा है जिसका उल्लेख सम्पूर्ण वेदिक साहित्य मे है। जर्मनी के मैक्स मूलर साहब भारत आए 30 वर्ष यहाँ रह कर संस्कृत का अध्यन करके 'मूल पांडुलिपियाँ' लेकर जर्मनी रवाना हो गए और वहाँ जाकर उनका जर्मनी भाषा मे अनुवाद प्रकाशित करवाया। 'परमाणु विज्ञान' पर जर्मनी मे ही खोज हुई थी और द्वितीय महायुद्ध मे जर्मनी की पराजय पर उसके वैज्ञानिकों को रूस एवं अमेरिका अपने-अपने देश ले गए थे जिनहोने उन देशों को 'परमाणु बम' उपलब्ध करवाए थे -यह अभी कुछ  वर्ष ही पुरानी बात है।

इसी प्रकार मानव कल्याण के तत्वों को सहेज कर 'मानव-विज्ञानी' महर्षि कार्ल मार्क्स ने 'दास कैपिटल' 'एवं 'कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो' नामक ग्रंथ दिये। उस समय जर्मनी और इंग्लैंड के समाज मे जैसा धर्म प्रचलित था उसका तीव्र विरोध महर्षि  मार्क्स ने किया है जो बिलकुल वाजिब है । वस्तुतः वह धर्म था ही नहीं वह तो पुरोहितवाद था किन्तु लोग उसे धर्म कहते थे इसलिए मार्क्स ने भी उसे धर्म कह दिया। इसका यह मतलब नहीं है कि मार्क्स ने मानव-कल्याण हेतु प्रपादित 'धर्म' का विरोध किया है। दुर्भाग्य से अहंकार ग्रस्त नेता लोग मार्क्स के मर्म को न समझ कर शब्दजाल मे उलझाना चाहते और मनुष्य कल्याण की धर्म की भावना का सतत विरोध करके अंततः शोषकों का ही हितसाधन करते हैं। यह तो शोषकों की ही चाल है कि उन्होने ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा हेतु RSS को धर्म का अलमबरदार बना कर खड़ा कर दिया जो 'धर्म' पर ही प्रहार करके 'ढोंग व पाखंड' को धर्म के नाम पर परोसता है। प्रगतिशील तथा साम्यवादी चिंतकों का यह नैतिक दायित्व है कि वे 'धर्म' की वास्तविक अवधारणा से जनता को अवगत कराकर उन्हें शोषण और उत्पीड़न से बचाएं। किन्तु विज्ञान और प्रगतिशीलता का नाम लेकर वे धर्म का ही विरोध करते हैं और इस प्रकार पुरोहितवाद को संरक्षण प्रदान कर देते हैं।

चूंकि मै सत्य को समझाने का प्रयास करता हूँ इसलिए कुछ बड़े विद्वान अपने अहम के कारण उसका विरोध करते हैं और प्रकारांतर से 'साम्यवाद' विरोधियों का ही पृष्ठ-पोषण करते हैं।

http://krantiswar.blogspot.in/2015/03/blog-post_21.html
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Thursday, 8 March 2018

वामपंथी दलों द्वारा लखनऊ में लोकतंन्त्र पर हमलों के विरुद्ध धरना ------ प्रदीप शर्मा


त्रिपुरा में वांम नेतायों , कार्यालयों ,और लोकतंन्त्र पर हमलों के खिलाफ लखनऊ में वामपंथी पार्टियों का प्रदर्शन और सभा । 
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लखनऊ / 8 मार्च , त्रिपुरा में 3 मार्च को आये चुनाव परिणाम के बाद से bjp औरipft द्वारा वांम नेतायों , कार्यलयों , घरों, लेनिन जैसे विचारकों की मूर्तियों और लोकतंन्त्र पर हमले के खिलाफ वांम दलों ने लखनऊ में विरोध प्रदर्शन और प्रतिरोध सभा की । 
प्रदर्शन माकपा कार्यलय , 10 विधान सभा मार्ग से शुरू होकर जी पी ओ स्थित गांधी प्रतिमा तक गया । जुलूस का नेतृत्व cpim पोलिट ब्यूरो सदस्य कामरेड सुभाषणी अली , केंद्रीय कमेटी सदस्य कामरेड जी इस मजूमदार , माकपा राज्य सचिव कामरेड हीरालाल , cpiml नेता रमेश सिंह सेंगर , cpi से मोहमद खलीक ,राकेश आदि ने किया । 
वक्ताओं  ने  स्पष्ट शब्दों में इन कायराना हमलों की तीखी की आलोचना की । कामरेड सुभाषणी अली ने कहा कि 
सवाल लेनिन ,गांधी , भगत सिंह , आंबेडकर के मूर्तियां तोड़े जाने का नहीं है और न ही सवाल चुनाव हार जाने का है। पूरी दुनिया में संघर्ष आम जनता के लिए प्रगतिशील विचारधारा जिसका प्रतिनिधित्व मार्क्स , लेनिन, आंबेडकर , गाँधी और भगत सिंह करते है, और हिटलर मुससोलिनी , सावरकर, गोडसे को मानने वाले नफरत के पुजारियों से है । नफरत की राजनीति लोकतंत्र की हत्या कर सत्ता के नशे में चूर है और जो भूल गए हैं के मूर्ती तोड़ने से विचार नहीं मरा करते । वामपंथ तुम्हारे खिलाफ लड़ता रहा है और हमारे कार्यकर्ताओं दफ्तरों पर हमला करके तुम हमें संघर्ष और शाहदत की विरासत से नहीं डिगा सकते हो #tripura वापिस लड़ेगा और भरपूर जवाब देगा । 
संघर्ष की विरासत पर हम सत्त्ता में आये थे और हमने भरसक मजदूर वर्ग के हित में काम किया । 
त्रिपुरा में कुछ वोट हमे कम मिल गया है, हम चुनाव हार गए हैं लेकिन इसका मतलब कतई नही की हम नष्ट हो गए । हम चुनाव की हार् स्वीकार करते है लेकिन लोकतंन्त्र और युद्ध में हमेशा सही जीते , हमेशा सत्य की जीत हो यह आवश्यक नही । 
#मुसोलिनी ने 1924 का इटली का आम चुनाव 64 परसेंट वोट पाकर जीता था , क्या वो सत्य और सही की जीत थी ?? #हिटलर ने जर्मनी का फेडरल चुनाव 44 प्रतिशत वोट के साथ 1933 में जीता था तो क्या वो सत्य और सही की जीत थी। 
इतिहास हमे बताता है कि की सही और सत्य को भी हार का सामना करना पड़ा था , और आज भी करना पड़ सकता है । गलत राजनीति की जीत हो सकती है , लेकिन इतिहास गवाह है कि अंतिम विजय सत्य और सही ही कि होती है । मुसोलिनी और हिटलर का अंत किसको याद नही । 
हम कम्युनिस्ट है , गलतियों से सीखते हैं, सुधारते है और जनता की लड़ाई को आगे बढ़ाते है । चुनाव हार से कम्युनिस्ट विचलित नही होते और हमारे संघर्ष रूकते हैं। 
हाँ , त्रिपुरा क्रांतिकारी धरती है , सबक लेकर हम वापिस आएंगे । हमारा लाल झंडा संघर्ष और बलिदान कस प्रतीक है , हमने उसको तह करके अगले चुनाव तक के लिए नही रख दिया है , वो आम जनता के संघर्ष में उसी सुर्खी से फहराएगा जैसा फहराता आया है । 
.: प्रदर्शन में उत्तर प्रदेश किसान सभा के महामंत्री कामरेड मुकुट सिंह, सीटू नेता प्रेम नाथ राय , एडवा से मधु गर्ग, dyfi नेता राधे श्याम , खेत मज़दूर यूनियन से बृज लाल भारती , पूर्व विधायक दीना नाथ सिंह , cpiml नेता अरुण कुमार , राजीव cpi से फूलचंद सहित लखनऊ शहर के बड़े तादाद में जनसंगठनो , सामाजिक कार्यकर्ता और अमनपसंद नागरिक शामिल हुए ।
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(कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ के अतिरिक्त भाकपा की ओर से सर्व कामरेड राकेश, परमानंद दिवेदी, राम इकबाल उपाध्याय, मोहम्मद अकरम, सत्यनारायन, विजय माथुर  तथा अन्य दलों की ओर से कामरेड के के शुक्ल, कौशल किशोर तथा आर एस बाजपेयी के नाम भी उल्लेखनीय हैं। )
------ विजय राजबली माथुर 





Tuesday, 6 March 2018

संसदीय जनतंत्र की समाप्ती का संकेत : त्रिपुरा का हिंसक तांडव ------ विजय राजबली माथुर

1991 से ही अपने लेखन के जरिये मैं वर्तमान सांप्रदायिक तांडव के प्रति सचेत करता रहा हूँ परंतु मेरे निष्कर्षों को कौन और क्यों स्वीकार करे ? 
 * * 1917 ई मे हुयी रूस मे लेनिन की क्रान्ति से प्रेरित होकर भारत के राष्ट्र वादी कांग्रेसियों ने 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर मे 'भारतीय  कम्युनिस्ट  पार्टी 'की स्थापना करके पूर्ण स्व -राज्य के लिए क्रांतिकारी आंदोलन शुरू कर दिया और सांप्रदायिकता को देश की एकता के लिए घातक बता कर उसका विरोध किया।  कम्युनिस्टों से राष्ट्रवादिता मे पिछड्ता पा कर 1929 मे लाहौर अधिवेन्शन मे जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस का लक्ष्य भी पूर्ण स्वाधीनता घोषित करा दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा के सैन्य संगठन आर एस एस (जो कम्यूनिस्टों का मुकाबिला करने के लिए 1925 मे ही अस्तित्व मे आया ) और कांग्रेस के नेहरू गुट को प्रोत्साहित किया एवं  कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया । सरदार भगत सिंह जो  कम्युनिस्टों के युवा संगठन 'भारत नौजवान सभा 'के संस्थापकों मे थे भारत मे समता पर आधारित एक वर्ग विहीन और शोषण विहीन समाज की स्थापना को लेकर अशफाक़ उल्ला खाँ व राम प्रसाद 'बिस्मिल'सरीखे साथियों केसाथ साम्राज्यवादियों से संघर्ष करते हुये शहीद हुये सदैव सांप्रदायिक अलगाव वादियों की भर्तस्ना करते रहे।
 *** 1917 ई मे हुयी रूस मे लेनिन की क्रान्ति से प्रेरित होकर भारत के राष्ट्र वादी कांग्रेसियों ने 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर मे 'भारतीय  कम्युनिस्ट  पार्टी 'की स्थापना करके पूर्ण स्व -राज्य के लिए क्रांतिकारी आंदोलन शुरू कर दिया और सांप्रदायिकता को देश की एकता के लिए घातक बता कर उसका विरोध किया।  कम्युनिस्टों से राष्ट्रवादिता मे पिछड्ता पा कर 1929 मे लाहौर अधिवेन्शन मे जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस का लक्ष्य भी पूर्ण स्वाधीनता घोषित करा दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा के सैन्य संगठन आर एस एस (जो कम्यूनिस्टों का मुकाबिला करने के लिए 1925 मे ही अस्तित्व मे आया ) और कांग्रेस के नेहरू गुट को प्रोत्साहित किया एवं  कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया । सरदार भगत सिंह जो  कम्युनिस्टों के युवा संगठन 'भारत नौजवान सभा 'के संस्थापकों मे थे भारत मे समता पर आधारित एक वर्ग विहीन और शोषण विहीन समाज की स्थापना को लेकर अशफाक़ उल्ला खाँ व राम प्रसाद 'बिस्मिल'सरीखे साथियों केसाथ साम्राज्यवादियों से संघर्ष करते हुये शहीद हुये सदैव सांप्रदायिक अलगाव वादियों की भर्तस्ना करते रहे।
 **** अब सांप्रदायिक शक्तियाँ खुल कर सड़कों पर वैमनस्य फैला कर संघर्ष कराने मे कामयाब हो रही हैं। इससे सम्पूर्ण विकास कार्य ठप्प हो गया है, देश के सामने भीषण आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है । मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ कर सांप्रदायिकता के पोषक पूंजीपति वर्ग का हित -साधन कर रही है। जमाखोरों, सटोरियों और कालाबाजारियों की पांचों उँगलियाँ घी मे हैं। अभी तक वामपंथी अभियान नक्कार खाने मे तूती की आवाज की तरह चल रहा है। वामपंथियों ने सड़कों पर निपटने के लिए कोई 'सांप्रदायिकता विरोधी दस्ता ' गठित नहीं किया है। अधिकांश जनता अशिक्षित और पिछड़ी होने के कारण वामपंथियों के आदर्शवाद के मर्म को समझने मे असमर्थ है और उसे सांप्रदायिक शक्तियाँ उल्टे उस्तरे से मूंढ रही हैं।
 ***** पुलिस और ज़िला प्रशासन मजदूर के रोजी -रोटी के हक को कुचलने के लिए जिस प्रकार पूंजीपति वर्ग का दास बन गया है उससे संघी तानाशाही आने की ही बू मिलती है।







1991 से ही अपने लेखन के जरिये मैं वर्तमान सांप्रदायिक तांडव के प्रति सचेत करता रहा हूँ परंतु मेरे निष्कर्षों को कौन और क्यों स्वीकार करे ? 
एक बार फिर पुराने लेख को पुनर्प्रकाशित कर रहा हूँ : 




Sunday, September 18, 2011
बामपंथी कैसे सांप्रदायिकता का संहार करेंगे? ------ विजय राजबली माथुर
लगभग 12 (अब  32)  वर्ष पूर्व सहारनपुर के 'नया जमाना'के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर 'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1951  - 52 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि,कम्युनिस्टों  और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई  दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।

आज संघ और उसके सहायक संगठनों ने सड़कों पर लड़ाई का बिगुल बजा दिया है, वामपंथी अभी तक कागजी तोपें दाग कर सांप्रदायिकता का मुक़ाबला कर रहे हैं; व्यापक जन-समर्थन और प्रचार के बगैर क्या वे संघियों के सांप्रदायिक राक्षस का संहार कर सकेंगे ?

भारत विविधता मे एकता वाला एक अनुपम राष्ट्र है। विभिन्न भाषाओं, पोशाकों, आचार-व्यवहार आदि के उपरांत भी भारत अनादी  काल से एक ऐसा राष्ट्र रहा है जहां आने के बाद अनेक आक्रांता यहीं के होकर रह गए और भारत ने उन्हें आत्मसात कर लिया। यहाँ का प्राचीन आर्ष धर्म हमें "अहिंसा परमों धर्मा : "और "वसुधेव कुटुम्बकम " का पाठ पढ़ाता रहा है। नौवीं सदी के आते-आते भारत के व्यापक और  सहिष्णु  स्वरूप  को आघात लग चुका था। यह वह समय था जब इस देश की धरती पर बनियों और ब्राह्मणों के दंगे हो रहे थे। ब्राह्मणों ने धर्म को संकुचित कर घोंघावादी बना दिया था । सिंधु-प्रदेश के ब्राह्मण आजीविका निर्वहन के लिए समुद्री डाकुओं के रूप मे बनियों के जहाजों को लूटते थे। ऐसे मे धोखे से अरब व्यापारियों को लूट लेने के कारण सिंधु प्रदेश पर गजनी के शासक महमूद गजनवी ने बदले की  लूट के उद्देश्य से अनेकों आक्रमण किए और सोमनाथ को सत्रह बार लूटा। महमूद अपने व्यापारियों की लूट का बदला जम कर लेना चाहता था और भारत मे उस समय बैंकों के आभाव मे मंदिरों मे जवाहरात के रूप मे धन जमा किया जाता था। प्रो नूरुल हसन ने महमूद को कोरा लुटेरा बताते हुये लिखा है कि,"महमूद वाज ए डेविल इन कार्नेट फार दी इंडियन प्युपिल  बट एन एंजिल फार हिज गजनी सबजेक्ट्स "। महमूद गजनवी न तो इस्लाम का प्रचारक था और न ही भारत को अपना उपनिवेश बनाना चाहता था , उसने ब्राह्मण लुटेरों से बदला लेने के लिए सीमावर्ती क्षेत्र मे व्यापक लूट-पाट की । परंतु जब अपनी फूट परस्ती के चलते यहीं के शासकों ने गोर के शासक मोहम्मद गोरी को आमंत्रित किया तो वह यहीं जम गया और उसी के साथ भारत मे इस्लाम का आगमन हुआ।

भारत मे इस्लाम एक शासक के धर्म के रूप मे आया जबकि भारतीय धर्म आत्मसात करने की क्षमता त्याग कर संकीर्ण घोंघावादी हो चुका था। अतः इस्लाम और अनेक मत-मतांतरों मे विभक्त और अपने प्राचीन गौरव से भटके हुये यहाँ प्रचलित धर्म मे मेल-मिलाप न हो सका। शासकों ने भारतीय जनता का समर्थन प्राप्त कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए इस्लाम का ठीक वैसे ही प्रचार किया जिस प्रकार अमीन सायानी सेरोडान की टिकिया का प्रचार करते रहे हैं। जनता के भोलेपन का लाभ उठाते हुये भारत मे इस्लाम के शासकीय प्रचारकों ने कहानियाँ फैलाईं कि,हमारे पैगंबर मोहम्मद साहब इतने शक्तिशाली थे कि,उन्होने चाँद के दो टुकड़े कर दिये थे। तत्कालीन धर्म और  समाज मे तिरस्कृत और उपेक्षित क्षुद्र व पिछड़े वर्ग के लोग धड़ाधड़ इस्लाम ग्रहण करते गए और सवर्णों के प्रति राजकीय संरक्षण मे बदले की कारवाइया करने लगे। अब यहाँ प्रचलित कुधर्म मे भी हरीश भीमानी जैसे तत्कालीन प्रचारकों ने कहानियाँ गढ़नी शुरू कीं और कहा गया कि, मोहम्मद साहब ने चाँद  के दो टुकड़े करके क्या कमाल किया ?देखो तो हमारे हनुमान लला पाँच वर्ष की उम्र मे सम्पूर्ण सूर्य को रसगुल्ला समझ कर निगल गए थे---

"बाल समय रवि भक्षि लियौ तब तींन्हू लोक भयो अंधियारों।
............................ तब छाणि दियो रवि कष्ट निवारों। "
(सेरीडान  की तर्ज पर डाबर की सरबाइना जैसा सायानी को भीमानी जैसा जवाब था यह कथन )

इस्लामी प्रचारकों ने एक और अफवाह फैलाई कि,मोहम्मद साहब ने आधी रोटी मे छह भूखों का पेट भर दिया था। जवाबी अफवाह मे यहाँ के धर्म के ठेकेदारों ने कहा तो क्या हुआ ?हमारे श्री कृष्ण ने डेढ़ चावल मे दुर्वासा ऋषि और उनके साठ हजार शिष्यों को तृप्त कर दिया था। 'तर्क ' कहीं नहीं था कुतर्क के जवाब मे कुतर्क चल रहे थे।

अभिप्राय यह कि,शासक और शासित के अंतर्विरोधों से ग्रसित इस्लाम और यहाँ के धर्म को जिसे इस्लाम वालों ने 'हिन्दू ' धर्म नाम दिया के परस्पर उखाड़ -पछाड़ भारत -भू पर करते रहे और ब्रिटेन के व्यापारियों की गुलामी मे भारत-राष्ट्र को सहजता से जकड़ जाने दिया। यूरोपीय व्यापारियों की गुलामी मे भारत के इस्लाम और हिन्दू दोनों के अनुयायी समान रूप से ही उत्पीड़ित हुये बल्कि मुसलमानों से राजसत्ता छीनने के कारण शुरू मे अंग्रेजों ने मुसलमानों को ही ज्यादा कुचला और कंगाल बना दिया।

ब्रिटिश दासता  :

साम्राज्यवादी अंग्रेजों ने भारत की धरती और जन -शक्ति का भरपूर शोषण और उत्पीड़न किया। भारत के कुटीर उदद्योग -धंधे को चौपट कर यहाँ का कच्चा माल विदेश भेजा जाने लगा और तैयार माल लाकर भारत मे खपाया  जाने लगा। ढाका की मलमल का स्थान लंकाशायर और मेंनचेस्टर की मिलों ने ले लिया और बंगाल (अब बांग्ला देश )के मुसलमान कारीगर बेकार हो गए। इसी प्रकार दक्षिण भारत का वस्त्र उदद्योग तहस-नहस हो गया।

आरकाट जिले के कलेक्टर ने लार्ड विलियम बेंटिक को लिखा था-"विश्व के आर्थिक इतिहास मे ऐसी गरीबी मुश्किल से ढूँढे मिलेगी,बुनकरों की हड्डियों से भारत के मैदान सफ़ेद हो रहे हैं। "

सन सत्तावन की क्रान्ति :

लगभग सौ सालों की ब्रिटिश गुलामी ने भारत के इस्लाम और हिन्दू धर्म के अनुयायीओ को एक कर दिया और आजादी के लिए बाबर के वंशज बहादुर शाह जफर के नेतृत्व मे हरा झण्डा लेकर समस्त भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति कर दी। परंतु दुर्भाग्य से भोपाल की बेगम , ग्वालियर के सिंधिया, नेपाल के राणा और पंजाब के सिक्खों ने क्रान्ति को कुचलने मे साम्राज्यवादी अंग्रेजों का साथ दिया।

अंग्रेजों द्वारा अवध की बेगमों पर निर्मम अत्याचार किए गए जिनकी गूंज हाउस आफ लार्ड्स मे भी हुयी। बहादुर शाह जफर कैद कर लिया गया और मांडले मे उसका निर्वासित के रूप मे निधन हुआ। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वीर गति को प्राप्त हुयी। सिंधिया को अंग्रेजों से इनाम मिला। असंख्य भारतीयों की कुर्बानी बेकार गई।

वर्तमान सांप्रदायिकता का उदय :

सन 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों को बता दिया कि भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को लड़ा कर ही ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षित  रखा जा सकता है। लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य का सेफ़्टी वाल्व कांग्रेस राष्ट्र वादियों  के कब्जे मे जाने लगी थी। बाल गंगाधर 'तिलक 'का प्रभाव बढ़ रहा था और लाला लाजपत राय और विपिन चंद्र पाल के सहयोग से वह ब्रिटिश शासकों को लोहे के चने चबवाने लगे थे। अतः 1905 ई मे हिन्दू और मुसलमान के आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया गया । हालांकि बंग -भंग आंदोलन के दबाव मे 1911 ई मे पुनः बंगाल को एक करना पड़ा परंतु इसी दौरान 1906 ई मे ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को फुसला कर मुस्लिम लीग नामक सांप्रदायिक संगठन की स्थापना करा दी गई और इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप 1920 ई मे हिन्दू महा सभा नामक दूसरा सांप्रदायिक संगठन भी सामने आ गया। 1932 ई मे मैक्डोनल्ड एवार्ड के तहत हिंदुओं, मुसलमानों, हरिजन और सिक्खों के लिए प्रथक निर्वाचन की घोषणा की गई। महात्मा गांधी के प्रयास से सिक्ख और हरिजन हिन्दू वर्ग मे ही रहे और 1935 ई मे सम्पन्न चुनावों मे बंगाल, पंजाब आदि कई प्रान्तों मे लीगी सरकारें बनी और व्यापक हिन्दू -मुस्लिम दंगे फैलते चले गए।


वामपंथ का आगमन :

1917 ई मे हुयी रूस मे लेनिन की क्रान्ति से प्रेरित होकर भारत के राष्ट्र वादी कांग्रेसियों ने 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर मे 'भारतीय  कम्युनिस्ट  पार्टी 'की स्थापना करके पूर्ण स्व -राज्य के लिए क्रांतिकारी आंदोलन शुरू कर दिया और सांप्रदायिकता को देश की एकता के लिए घातक बता कर उसका विरोध किया।  कम्युनिस्टों से राष्ट्रवादिता मे पिछड्ता पा कर 1929 मे लाहौर अधिवेन्शन मे जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस का लक्ष्य भी पूर्ण स्वाधीनता घोषित करा दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा के सैन्य संगठन आर एस एस (जो कम्यूनिस्टों का मुकाबिला करने के लिए 1925 मे ही अस्तित्व मे आया ) और कांग्रेस के नेहरू गुट को प्रोत्साहित किया एवं  कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया । सरदार भगत सिंह जो  कम्युनिस्टों के युवा संगठन 'भारत नौजवान सभा 'के संस्थापकों मे थे भारत मे समता पर आधारित एक वर्ग विहीन और शोषण विहीन समाज की स्थापना को लेकर अशफाक़ उल्ला खाँ व राम प्रसाद 'बिस्मिल'सरीखे साथियों केसाथ साम्राज्यवादियों से संघर्ष करते हुये शहीद हुये सदैव सांप्रदायिक अलगाव वादियों की भर्तस्ना करते रहे।

वर्तमान  सांप्रदायिकता :

1980 मे संघ के सहयोग से सत्तासीन होने के बाद इंदिरा गांधी ने सांप्रदायिकता को बड़ी बेशर्मी से उभाड़ा। 1980 मे ही जरनैल सिंह भिंडरावाला के नेतृत्व मे बब्बर खालसा नामक घोर सांप्रदायिक संगठन खड़ा हुआ जिसे इंदिरा जी का आशीर्वाद पहुंचाने खुद संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह पहुंचे थे। 1980 मे ही संघ ने नारा दिया - भारत मे रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा जिसके जवाब मे कश्मीर मे प्रति -सांप्रदायिकता उभरी कि, कश्मीर मे रहना होगा तो अल्लाह -अल्लाह कहना होगा। और तभी से असम मे विदेशियों को निकालने की मांग लेकर हिंसक आंदोलन उभरा।

पंजाब मे खालिस्तान की मांग उठी तो कश्मीर को अलग करने के लिए  अनुच्छेद 370 को हटाने की मांग उठी और सारे देश मे एकात्मकता यज्ञ के नाम पर यात्राएं आयोजित करके सांप्रदायिक दंगे भड़काए। माँ की गद्दी पर बैठे राजीव गांधी ने अपने शासन की विफलताओं और भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने हेतु संघ की प्रेरणा से अयोध्या मे विवादित रामजन्म भूमि /बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा कर हिन्दू सांप्रदायिकता एवं मुस्लिम वृध्दा शाहबानों को न्याय से वंचित करने के लिए संविधान मे संशोधन करके मुस्लिम सांप्रदायिकता को नया बल प्रदान किया।

वामपंथी कोशिश :

भारतीय  कम्युनिस्ट ,मार्क्सवादी कम्युनिस्ट ,क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी और फारवर्ड ब्लाक के ' वामपंथी मोर्चा'ने सांप्रदायिकता के विरुद्ध व्यापक जन-अभियान चलाया । बुद्धिजीवी और विवेकशील  राष्ट्र वादी  सांप्रदायिक सौहार्द के प्रबल पक्षधर हैं, परंतु ये सब संख्या की दृष्टि से अल्पमत मे हैं, साधनों की दृष्टि से विप्पन  हैं और प्रचार की दृष्टि से बहुत पिछड़े हुये हैं। पूंजीवादी प्रेस वामपंथी सौहार्द के अभियान को वरीयता दे भी कैसे सकता है ?उसका ध्येय तो व्यापारिक हितों की पूर्ती के लिए सांप्रदायिक शक्तियों को सबल बनाना है। अपने आदर्शों और सिद्धांतों के बावजूद वामपंथी अभियान अभी तक बहुमत का समर्थन नहीं प्राप्त कर सका है जबकि, सांप्रदायिक शक्तियाँ , धन और साधनों की संपन्नता के कारण अलगाव वादी प्रवृतियों को फैलाने मे सफल रही हैं।

सड़कों पर दंगे :

अब सांप्रदायिक शक्तियाँ खुल कर सड़कों पर वैमनस्य फैला कर संघर्ष कराने मे कामयाब हो रही हैं। इससे सम्पूर्ण विकास कार्य ठप्प हो गया है, देश के सामने भीषण आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है । मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ कर सांप्रदायिकता के पोषक पूंजीपति वर्ग का हित -साधन कर रही है। जमाखोरों, सटोरियों और कालाबाजारियों की पांचों उँगलियाँ घी मे हैं। अभी तक वामपंथी अभियान नक्कार खाने मे तूती की आवाज की तरह चल रहा है। वामपंथियों ने सड़कों पर निपटने के लिए कोई 'सांप्रदायिकता विरोधी दस्ता ' गठित नहीं किया है। अधिकांश जनता अशिक्षित और पिछड़ी होने के कारण वामपंथियों के आदर्शवाद के मर्म को समझने मे असमर्थ है और उसे सांप्रदायिक शक्तियाँ उल्टे उस्तरे से मूंढ रही हैं।

दक्षिण पंथी तानाशाही का भय :

वर्तमान (1991 ) सांप्रदायिक दंगों मे जिस प्रकार सरकारी मशीनरी ने एक सांप्रदायिकता का पक्ष लिया है उससे अब संघ की दक्षिण पंथी असैनिक तानाशाही स्थापित होने का भय व्याप्त हो गया है। 1977 के सूचना व प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी ने आकाशवाणी व दूर दर्शन मे संघ की कैसी घुसपैठ की है उसका हृदय विदारक उल्लेख सांसद पत्रकार संतोष भारतीय ने वी पी सरकार के पतन के संदर्भ मे किया है। आगरा पूर्वी विधान सभा क्षेत्र मे 1985 के परिणामों मे संघ से संबन्धित क्लर्क कालरा ने किस प्रकार भाजपा प्रत्याशी को जिताया ताज़ी घटना है।

पुलिस और ज़िला प्रशासन मजदूर के रोजी -रोटी के हक को कुचलने के लिए जिस प्रकार पूंजीपति वर्ग का दास बन गया है उससे संघी तानाशाही आने की ही बू मिलती है।

वामपंथी असमर्थ :

वर्तमान परिस्थितियों का मुक़ाबला करने मे सम्पूर्ण वामपंथ पूरी तरह असमर्थ है। धन-शक्ति और जन-शक्ति दोनों ही का उसके पास आभाव है। यदि अविलंब सघन प्रचार और संपर्क के माध्यम से बामपंथ जन -शक्ति को अपने पीछे न खड़ा कर सका तो दिल्ली की सड़कों पर होने वाले निर्णायक युद्ध मे संघ से हार जाएगा जो देश और जनता के लिए दुखद होगा।

परंतु बक़ौल स्वामी विवेकानंद -'संख्या बल प्रभावी नहीं होता , यदि मुट्ठी भर लोग मनसा- वाचा-कर्मणा संगठित हों तो सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते हैं। ' आदर्शों को कर्म मे उतार कर बामपंथी संघ का मुक़ाबला कर सकते हैं यदि चाहें तो !वक्त अभी निकला नहीं है।
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उपयुर्क्त लेख 'सप्तदिवा ,आगरा' ने 1991 मे छापने से इंकार कर दिया था जिसके बाद से उनसे संपर्क तोड़ लिया था। अभी अन्ना हज़ारे के तानाशाहीपूर्ण देशद्रोही /आतंकवादी आक्रमण जो अमेरिकी प्रशासन के समर्थन एवं उनकी कारपोरेट कंपनियों के दान से चला है  और उसमे प्रधानमंत्री महोदय की दिलचस्पी देख(पी एम साहब ने राष्ट्र ध्वज का अपमान करने वाले,संविधान और संसद को चुनौती देने वाले,रात्रि मे राष्ट्र ध्वज फहराने वाले को गुलदस्ता भेज कर तथा पी एम ओ के पूर्व मंत्री और अब महाराष्ट्र के सी एम से कमांडोज़ दिला कर महिमा मंडित किया है ) कर इस ब्लाग पर प्रकाशित कर रहा हूँ क्योंकि परिस्थितियाँ आज भी वही हैं जो 20 वर्ष पूर्व  थीं।बल्कि और भी खतरनाक हो गई हैं क्योंकि अब रक्षक (शासक) जनता का नहीं भक्षक का हितैषी हो गया है। जिसे राष्ट्रद्रोह मे सजा मिलनी चाहिए उसे पुरस्कृत किया जा रहा है।

आगामी  28 सितंबर  2011 को शहीदे आजम सरदार भगत सिंह का जन्मदिन है और उनकी नौजवान सभा ए आई एस एफ के साथ छात्रों-नौजवानों की शिक्षा-रोजगार आदि की समस्याओं को लेकर उस दिन  प्रदेश-व्यापी धरना-प्रदर्शन कर रही है। छात्रों-नौजवानों को देश के सामने आई विकट समस्याओं पर भी विचार करना चाहिए क्योंकि भविष्य मे फासिस्ट तानाशाही से उन्हें ही टकराना पड़ेगा। अतः आज ही कल के बारे मे भी निर्णय कर लेना देश और जनता के हित मे उत्तम रहेगा।

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